आदिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छियो वसानश्चरति स्वरोचि:।
महत् तद् वृष्णो असुरस्य८८ विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ।।४।ऋ०१/३८/४
सभी मेधावी जनों ने रथ में विराजमान इन्द्र को सजाया।अपने वतेज से ही तेजवान इन्द्र प्रकाशित हुए सुस्थित है । कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र विचित्र कीर्ति वाले । ये विश्व रूप को धारण करते हैं तथा अमृत से व्याप्त हैं ।
इमे भोज अंगिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा:
विश्वमित्राय ददतो मघानि सहस्र सावे प्र तिरन्त आयु:। ७।।. ऋग्वेद १/५३/७ ।
हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।
उषसा पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद वि जज्ञे अक्षरं पदे गो:
व्रता देवानामुप नु प्रभूषन् महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।ऋ० १/५५/१
तथा मोषुणो अन्न जुहुरन्त देवा मा पूर्वज अग्ने पितर :पदज्ञा ।
पुराण्यो: सझ्ननो : केतुरन्तर्महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।२।ऋ० १/५५/२/
हे अग्ने देव गण हमारा विनाश न करें देवत्व प्राप्त पितर गण हमको न मारे । यज्ञ की प्रेरणा देने वाले सूर्य आकाश पृथ्वी के मध्य उदित होते हैं । वे हमारी हिंसा न करें ।उन सब महान देवताओं का बल एक ही है ।
तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: ।
ऋग्वेद - ४/५३/१
हम उस प्रचेतस असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है । उसका ही वरण करते हैं ।
अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने ! तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञान वान -बल वान तथा ऐश्वर्य वान हो ।
तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५। महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर देवों को पीड़ित करने लगे ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें