गुरुवार, 31 अगस्त 2017

सर्वनाम (Pronoun) दो-

(Pronoun)(सर्वनाम) सर्वनाम के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक) सर्वनाम का रूपान्तर पुरुष, वचन और कारक की दृष्टि से होता है। इनमें लिंगभेद के कारण रूपान्तर नहीं होता। जैसे- वह खाता है। वह खाती है। संज्ञाओं के समान सर्वनाम के भी दो वचन होते हैं- एकवचन और बहुवचन। पुरुषवाचक और निश्र्चयवाचक सर्वनाम को छोड़ शेष सर्वनाम विभक्तिरहित बहुवचन में एकवचन के समान रहते हैं। सर्वनाम में केवल सात कारक होते है। सम्बोधन कारक नहीं होता। कारकों की विभक्तियाँ लगने से सर्वनामों के रूप में विकृति आ जाती है। जैसे- मैं- मुझको, मुझे, मुझसे, मेरा; तुम- तुम्हें, तुम्हारा; हम- हमें, हमारा; वह- उसने, उसको उसे, उससे, उसमें, उन्होंने, उनको; यह- इसने, इसे, इससे, इन्होंने, इनको, इन्हें, इनसे; कौन- किसने, किसको, किसे। सर्वनाम की कारक-रचना (रूप-रचना) संज्ञा शब्दों की भाँति ही सर्वनाम शब्दों की भी रूप-रचना होती। सर्वनाम शब्दों के प्रयोग के समय जब इनमें कारक चिह्नों का प्रयोग करते हैं, तो इनके रूप में परिवर्तन आ जाता है। ('मैं' उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता मैं, मैंने हम, हमने कर्म मुझे, मुझको हमें, हमको करण मुझसे हमसे सम्प्रदान मुझे, मेरे लिए हमें, हमारे लिए अपादान मुझसे हमसे सम्बन्ध मेरा, मेरे, मेरी हमारा, हमारे, हमारी अधिकरण मुझमें, मुझपर हममें, हमपर ('तू', 'तुम' मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता तू, तूने तुम, तुमने, तुमलोगों ने कर्म तुझको, तुझे तुम्हें, तुमलोगों को करण तुझसे, तेरे द्वारा तुमसे, तुम्हारे से, तुमलोगों से सम्प्रदान तुझको, तेरे लिए, तुझे तुम्हें, तुम्हारे लिए, तुमलोगों के लिए अपादान तुझसे तुमसे, तुमलोगों से सम्बन्ध तेरा, तेरी, तेरे तुम्हारा-री, तुमलोगों का-की अधिकरण तुझमें, तुझपर तुममें, तुमलोगों में-पर ('वह' अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता वह, उसने वे, उन्होंने कर्म उसे, उसको उन्हें, उनको करण उससे, उसके द्वारा उनसे, उनके द्वारा सम्प्रदान उसको, उसे, उसके लिए उनको, उन्हें, उनके लिए अपादान उससे उनसे सम्बन्ध उसका, उसकी, उसके उनका, उनकी, उनके अधिकरण उसमें, उसपर उनमें, उनपर ('यह' निश्चयवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता यह, इसने ये, इन्होंने कर्म इसको, इसे ये, इनको, इन्हें करण इससे इनसे सम्प्रदान इसे, इसको इन्हें, इनको अपादान इससे इनसे सम्बन्ध इसका, की, के इनका, की, के अधिकरण इसमें, इसपर इनमें, इनपर ('आप' आदरसूचक) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता आपने आपलोगों ने कर्म आपको आपलोगों को करण आपसे आपलोगों से सम्प्रदान आपको, के लिए आपलोगों को, के लिए अपादान आपसे आपलोगों से सम्बन्ध आपका, की, के आपलोगों का, की, के अधिकरण आप में, पर आपलोगों में, पर ('कोई' अनिश्चयवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता कोई, किसने किन्हीं ने कर्म किसी को किन्हीं को करण किसी से किन्हीं से सम्प्रदान किसी को, किसी के लिए किन्हीं को, किन्हीं के लिए अपादान किसी से किन्हीं से सम्बन्ध किसी का, किसी की, किसी के किन्हीं का, किन्हीं की, किन्हीं के अधिकरण किसी में, किसी पर किन्हीं में, किन्हीं पर ('जो' संबंधवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता जो, जिसने जो, जिन्होंने कर्म जिसे, जिसको जिन्हें, जिनको करण जिससे, जिसके द्वारा जिनसे, जिनके द्वारा सम्प्रदान जिसको, जिसके लिए जिनको, जिनके लिए अपादान जिससे (अलग होने) जिनसे (अलग होने) संबंध जिसका, जिसकी, जिसके जिनका, जिनकी, जिनके अधिकरण जिसपर, जिसमें जिनपर, जिनमें ('कौन' प्रश्नवाचक सर्वनाम) कारक एकवचन बहुवचन कर्ता कौन, किसने कौन, किन्होंने कर्म किसे, किसको, किसके किन्हें, किनको, किनके करण किससे, किसके द्वारा किनसे, किनके द्वारा सम्प्रदान किसके लिए, किसको किनके लिए, किनको अपादान किससे (अलग होने) किनसे (अलग होने) संबंध किसका, किसकी, किसके किनका, किनकी, किनके अधिकरण किसपर, किसमें किनपर, किनमें सर्वनाम का पद-परिचय सर्वनाम का पद-परिचय करते समय सर्वनाम, सर्वनाम का भेद, पुरुष, लिंग, वचन, कारक और अन्य पदों से उसका सम्बन्ध बताना पड़ता है। उदाहरण- वह अपना काम करता है। इस वाक्य में, 'वह' और 'अपना' सर्वनाम है। इनका पद-परिचय होगा- वह- पुरुषवाचक सर्वनाम, अन्य पुरुष, पुलिंग, एकवचन, कर्ताकारक, 'करता है' क्रिया का कर्ता। अपना- निजवाचक सर्वनाम, अन्यपुरुष, पुंलिंग, एकवचन, सम्बन्धकारक, 'काम' संज्ञा का विशेषण। 1 2

सर्वनाम -

सर्वनाम (Pronoun)-------------------------------
की परिभाषा जिन शब्दों का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर किया जाता है, उन्हें सर्वनाम कहते है। दूसरे शब्दों में- सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते है, जो पूर्वापरसंबध से किसी भी संज्ञा के बदले आता है। सरल शब्दों में- सर्व (सब) नामों (संज्ञाओं) के बदले जो शब्द आते है, उन्हें 'सर्वनाम' कहते हैं। सर्वनाम यानी सबके लिए नाम। इसका प्रयोग संज्ञा के स्थान पर किया जाता है। आइए देखें, कैसे? राधा सातवीं कक्षा में पढ़ती है। वह पढ़ाई में बहुत तेज है। उसके सभी मित्र उससे प्रसन्न रहते हैं। वह कभी-भी स्वयं पर घमंड नहीं करती। वह अपने माता-पिता का आदर करती है। आपने देखा कि ऊपर लिखे अनुच्छेद में राधा के स्थान पर वह, उसके, उससे, स्वयं, अपने आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। अतः ये सभी शब्द सर्वनाम हैं। इस प्रकार, संज्ञा के स्थान पर आने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते हैं। मै, तू, वह, आप, कोई, यह, ये, वे, हम, तुम, कुछ, कौन, क्या, जो, सो, उसका आदि सर्वनाम शब्द हैं। अन्य सर्वनाम शब्द भी इन्हीं शब्दों से बने हैं, जो लिंग, वचन, कारक की दृष्टि से अपना रूप बदलते हैं; जैसे- राधा नृत्य करती है। राधा का गाना भी अच्छा होता है। राधा गरीबों की मदद करती है। राधा नृत्य करती है। उसका गाना भी अच्छा होता है। वह गरीबों की मदद करती है। आप- अपना, यह- इस, इसका, वह- उस, उसका। अन्य उदाहरण (1)'सुभाष' एक विद्यार्थी है। (2)वह (सुभाष) रोज स्कूल जाता है। (3)उसके (सुभाष के) पास सुन्दर बस्ता है। (4)उसे (सुभाष को )घूमना बहुत पसन्द है। उपयुक्त वाक्यों में 'सुभाष' शब्द संज्ञा है तथा इसके स्थान पर वह, उसके, उसे शब्द संज्ञा (सुभाष) के स्थान पर प्रयोग किये गए है। इसलिए ये सर्वनाम है। संज्ञा की अपेक्षा सर्वनाम की विलक्षणता यह है कि संज्ञा से जहाँ उसी वस्तु का बोध होता है, जिसका वह (संज्ञा) नाम है, वहाँ सर्वनाम में पूर्वापरसम्बन्ध के अनुसार किसी भी वस्तु का बोध होता है। 'लड़का' कहने से केवल लड़के का बोध होता है, घर, सड़क आदि का बोध नहीं होता; किन्तु 'वह' कहने से पूर्वापरसम्बन्ध के अनुसार ही किसी वस्तु का बोध होता है। सर्वनाम के भेद सर्वनाम के छ: भेद होते है- (1)पुरुषवाचक सर्वनाम (personal pronoun) (2)निश्चयवाचक सर्वनाम (demonstrative pronoun) (3)अनिश्चयवाचक सर्वनाम (Indefinite pronoun) (4)संबंधवाचक सर्वनाम (Relative Pronoun) (5)प्रश्नवाचक सर्वनाम (Interrogative Pronoun) (6)निजवाचक सर्वनाम (Reflexive Pronoun) (1) पुरुषवाचक सर्वनाम:-जिन सर्वनाम शब्दों से व्यक्ति का बोध होता है, उन्हें पुरुषवाचक सर्वनाम कहते है। दूसरे शब्दों में- बोलने वाले, सुनने वाले तथा जिसके विषय में बात होती है, उनके लिए प्रयोग किए जाने वाले सर्वनाम पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। 'पुरुषवाचक सर्वनाम' पुरुषों (स्त्री या पुरुष) के नाम के बदले आते हैं। जैसे- मैं आता हूँ। तुम जाते हो। वह भागता है। उपर्युक्त वाक्यों में 'मैं, तुम, वह' पुरुषवाचक सर्वनाम हैं। पुरुषवाचक सर्वनाम के प्रकार पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के होते है- (i)उत्तम पुरुष (ii)मध्यम पुरुष (iii)अन्य पुरुष (i)उत्तम पुरुष :-जिन सर्वनामों का प्रयोग बोलने वाला अपने लिए करता है, उन्हें उत्तम पुरुष कहते है। जैसे- मैं, हमारा, हम, मुझको, हमारी, मैंने, मेरा, मुझे आदि। उदाहरण- मैं स्कूल जाऊँगा। हम मतदान नहीं करेंगे। यह कविता मैंने लिखी है। बारिश में हमारी पुस्तकें भीग गई। मैंने उसे धोखा नहीं दिया। (ii) मध्यम पुरुष :-जिन सर्वनामों का प्रयोग सुनने वाले के लिए किया जाता है, उन्हें मध्यम पुरुष कहते है। जैसे- तू, तुम, तुम्हे, आप, तुम्हारे, तुमने, आपने आदि। उदाहरण- तुमने गृहकार्य नहीं किया है। तुम सो जाओ। तुम्हारे पिता जी क्या काम करते हैं ? तू घर देर से क्यों पहुँचा ? तुमसे कुछ काम है। (iii)अन्य पुरुष:-जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग किसी अन्य व्यक्ति के लिए किया जाता है, उन्हें अन्य पुरुष कहते है। जैसे- वे, यह, वह, इनका, इन्हें, उसे, उन्होंने, इनसे, उनसे आदि। उदाहरण- वे मैच नही खेलेंगे। उन्होंने कमर कस ली है। वह कल विद्यालय नहीं आया था। उसे कुछ मत कहना। उन्हें रोको मत, जाने दो। इनसे कहिए, अपने घर जाएँ। (2) निश्चयवाचक सर्वनाम:- सर्वनाम के जिस रूप से हमे किसी बात या वस्तु का निश्चत रूप से बोध होता है, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते है। दूसरे शब्दों में- जिस सर्वनाम से वक्ता के पास या दूर की किसी वस्तु के निश्र्चय का बोध होता है, उसे 'निश्र्चयवाचक सर्वनाम' कहते हैं। सरल शब्दों में- जो सर्वनाम शब्द किसी निश्चित व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना की ओर संकेत करे, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- यह, वह, ये, वे आदि। उदाहरण- पास की वस्तु के लिए- 'यह' कोई नया काम नहीं है; दूर की वस्तु के लिए- रोटी मत खाओ, क्योंकि 'वह' जली है। (3) अनिश्चयवाचक सर्वनाम:-जिस सर्वनाम शब्द से किसी निश्चित व्यक्ति या वस्तु का बोध न हो, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते है। जैसे- कोई, कुछ, किसी आदि। उदाहरण- 'कोई'- ऐसा न हो कि 'कोई' आ जाय; 'कुछ'- उसने 'कुछ' नहीं खाया। (4)संबंधवाचक सर्वनाम :-जिन सर्वनाम शब्दों का दूसरे सर्वनाम शब्दों से संबंध ज्ञात हो तथा जो शब्द दो वाक्यों को जोड़ते है, उन्हें संबंधवाचक सर्वनाम कहते है। जैसे- जो, जिसकी, सो, जिसने, जैसा, वैसा आदि। उदाहरण- जैसा करेगा वैसा भरेगा। जो परिश्रम करते हैं, वे सुखी रहते हैं। वह 'जो' न करे, 'सो' थोड़ा (5)प्रश्नवाचक सर्वनाम :-जो सर्वनाम शब्द सवाल पूछने के लिए प्रयुक्त होते है, उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते है। सरल शब्दों में- प्रश्र करने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, उन्हें 'प्रश्रवाचक सर्वनाम' कहते है। जैसे- कौन, क्या, किसने आदि। उदाहरण- टोकरी में क्या रखा है। बाहर कौन खड़ा है। तुम क्या खा रहे हो ? यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि 'कौन' का प्रयोग चेतन जीवों के लिए और 'क्या' का प्रयोग जड़ पदार्थो के लिए होता है। (6) निजवाचक सर्वनाम :-'निज' का अर्थ होता है- अपना और 'वाचक का अर्थ होता है- बोध (ज्ञान) कराने वाला अर्थात 'निजवाचक' का अर्थ हुआ- अपनेपन का बोध कराना। इस प्रकार, जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग कर्ता के साथ अपनेपन का ज्ञान कराने के लिए किया जाए, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते है। जैसे- अपने आप, निजी, खुद आदि। 'आप' शब्द का प्रयोग पुरुषवाचक तथा निजवाचक सर्वनाम-दोनों में होता है। उदाहरण- आप कल दफ्तर नहीं गए थे। (मध्यम पुरुष- आदरसूचक) आप मेरे पिता श्री बसंत सिंह हैं। (अन्य पुरुष-आदरसूचक-परिचय देते समय) ईश्वर भी उन्हीं का साथ देता है, जो अपनी मदद आप करता है। (निजवाचक सर्वनाम) 'निजवाचक सर्वनाम' का रूप 'आप' है। लेकिन पुरुषवाचक के अन्यपुरुषवाले 'आप' से इसका प्रयोग बिलकुल अलग है। यह कर्ता का बोधक है, पर स्वयं कर्ता का काम नहीं करता। पुरुषवाचक 'आप' बहुवचन में आदर के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे- आप मेरे सिर-आखों पर है; आप क्या राय देते है ? किन्तु, निजवाचक 'आप' एक ही तरह दोनों वचनों में आता है और तीनों पुरुषों में इसका प्रयोग किया जा सकता है। निजवाचक सर्वनाम 'आप' का प्रयोग निम्नलिखित अर्थो में होता है- (क) निजवाचक 'आप' का प्रयोग किसी संज्ञा या सर्वनाम के अवधारण (निश्र्चय) के लिए होता है। जैसे- मैं 'आप' वहीं से आया हूँ; मैं 'आप' वही कार्य कर रहा हूँ। (ख) निजवाचक 'आप' का प्रयोग दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए भी होता है। जैसे- उन्होंने मुझे रहने को कहा और 'आप' चलते बने; वह औरों को नहीं, 'अपने' को सुधार रहा है। (ग) सर्वसाधारण के अर्थ में भी 'आप' का प्रयोग होता है। जैसे- 'आप' भला तो जग भला; 'अपने' से बड़ों का आदर करना उचित है। (घ) अवधारण के अर्थ में कभी-कभी 'आप' के साथ 'ही' जोड़ा जाता है। जैसे- मैं 'आप ही' चला आता था; यह काम 'आप ही'; मैं यह काम 'आप ही' कर लूँगा। संयुक्त सर्वनाम रूस के हिन्दी वैयाकरण डॉ० दीमशित्स ने एक और प्रकार के सर्वनाम का उल्लेख किया है और उसे 'संयुक्त सर्वनाम' कहा है। उन्हीं के शब्दों में, 'संयुक्त सर्वनाम' पृथक श्रेणी के सर्वनाम हैं। सर्वनाम के सब भेदों से इनकी भित्रता इसलिए है, क्योंकि उनमें एक शब्द नहीं, बल्कि एक से अधिक शब्द होते हैं। संयुक्त सर्वनाम स्वतन्त्र रूप से या संज्ञा-शब्दों के साथ भी प्रयुक्त होता है। इसका उदाहरण कुछ इस प्रकार है- जो कोई, सब कोई, हर कोई, और कोई, कोई और, जो कुछ, सब कुछ, और कुछ, कुछ और, कोई एक, एक कोई, कोई भी, कुछ एक, कुछ भी, कोई-न-कोई, कुछ-न-कुछ, कुछ-कुछ, कोई-कोई इत्यादि। 1 2

सर्वनाम का स्वरूप -

यह संज्ञा के स्थान पर आता है। संज्ञा और संज्ञा वाक्यांशों को आम तौर पर वह, यह, उसका और इसका जैसे सर्वनाम द्वारा प्रतिस्थापित कर सकते हैं, ताकि दोहराव या सुस्पष्ट पहचान के परिहार, या अन्य किसी कारण से. उदाहरण के लिए, वह राम है। वाक्य में शब्द वह सर्वनाम है, जो प्रश्नाधीन व्यक्ति के नाम की जगह पर मौजूद है। अंग्रेज़ी शब्द one और संज्ञा वाक्यांशों के हिस्सों की जगह ले सकता है, यह कभी-कभी संज्ञा के लिए मौजूद होता है। परिभाषाः संपादित करें कामताप्रसाद गुरू के मतानुसार- सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वापर संबंध से किसी भी संज्ञा के बदले में आता है, जैसे, मैं (बोलनेवाला), तू (सुननेवाला), यह (निकट-वर्ती वस्तु), वह (दूरवर्ती वस्तु) इत्यादि। वाक्य में जिस शब्द का प्रयोग संज्ञा के बदले में होता है, उसे सर्वनाम कहते हैं। सर्वनाम शब्द का अर्थ है- सब का नाम। संज्ञा जहाँ केवल उसी नाम का बोध कराती है, जिसका वह नाम है, वहाँ सर्वनाम से केवल एक के ही नाम का नहीं, सबके नाम का बोघ होता है। जैसे – राधा कहने से केवल इस नामवाली लड़की का बोध होगा किन्तु सीता, गीता, राम, श्याम सभी अपने लिए मैं का प्रयोग करते हैं तो मैं इन सबका नाम होगा। इसी तरह बोलनेवाले अनेक नामों के बदले तुम या आप और सुननेवाले अनेक नामों के बदले वह या वे का प्रयोग होता है। हिंदी के मूल सर्वनाम 11 हैं, जैसे- मैं, तू, आप, यह, वह, जो, सो, कौन, क्या, कोई, कुछ। प्रयोग की दृष्टि से सर्वनाम के छः प्रकार हैं- पुरूषवाचक - मैं, तू, वह, मैंने निजवाचक - आप निश्चयवाचक - यह, वह अनिश्चयवाचक।- कोई, कुछ संबंधवाचक - जो, सो प्रश्नवाचक - कौन, क्या पुरूषवाचक सर्वनाम- संपादित करें जो सर्वनाम वक्ता (बोलनेवाले), श्रोता (सुननेवाले) तथा किसी अन्य के लिए प्रयुक्त होता है, उसे पुरूषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- मैं, तू, वह आदि। पुरूषवाचक सर्वनाम के तीन भेद हैं- अ. उत्तम पुरूष- वक्ता या लेखक अपने लिए उत्तम पुरूष का प्रयोग करते हैं। जैसे- मैं लिखता हूँ। हम लिखते हैं। इन वाक्यों में मैं और हम शब्द उत्तम पुरूष सर्वनाम हैं। आ. मध्यम पुरूष- श्रोता के लिए मध्यम पुरूष का प्रयोग होता है। जैसे- तुम जाओ। आप जाइये। इन वाक्यों में तुम और आप शब्द मध्यम पुरूष हैं। इ. अन्य पुरूष- वक्ता या लेखक द्वारा श्रोता के अतिरिक्त किसी अन्य (तीसरे) के लिए अन्य पुरूष का प्रयोग होता है। जैसे- वह पढ़ता है। 2 वे पढ़ते हैं। इन वाक्यों में वह और वे शब्द अन्य पुरूष हैं। निजवाचक सर्वनाम- संपादित करें जो सर्वनाम तीनों पुरूषों (उत्तम, मध्यम और अन्य) में निजत्व का बोध कराता है, उसे निजवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- मैं खुद लिख लूँगा। तुम अपने आप चले जाना। वह स्वयं गाडी चला सकती है। उपर्युक्त वाक्यों में खुद, अपने आप और स्वयं शब्द निजवाचक सर्वनाम हैं। निश्चयवाचक (संकेतवाचक) सर्वनाम- संपादित करें जो सर्वनाम निकट या दूर की किसी वस्तु की ओर संकेत करे, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- यह लड़की है। वह पुस्तक है। ये हिरन हैं। वे बाहर गए हैं। इन वाक्यों में यह, वह, ये और वे शब्द निश्चयवाचक सर्वनाम हैं। अनिश्चयवाचक सर्वनाम- संपादित करें जिस सर्वनाम से किसी निश्चित व्यक्ति या पदार्थ का बोध नहीं होता, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- बाहर कोई है। मुझे कुछ नहीं मिला। इन वाक्यों में कोई और कुछ शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं। कोई शब्द का प्रयोग किसी अनिश्चित व्यक्ति के लिए और कुछ शब्द का प्रयोग किसी अनिश्चित पदार्थ के लिए प्रयुक्त होता है। संबंधवाचक सर्वनाम- संपादित करें जो सर्वनाम किसी दूसरी संज्ञा या सर्वनाम से संबंध दिखाने के लिए प्रयुक्त हो, उसे संबंधवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- जो करेगा सो भरेगा। इस वाक्य में जो शब्द संबंधवाचक सर्वनाम है और सो शब्द नित्य संबंधी सर्वनाम है। अधिकतर सो लिए वह सर्वनाम का प्रयोग होता है। प्रश्रवाचक सर्वनाम- संपादित करें जिस सर्वनाम से किसी प्रश्र का बोध होता है उसे प्रश्रवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे- तुम कौन हो ? तुम्हें क्या चाहिए ? इन वाक्यों में कौन और क्या शब्द प्रश्रवाचक सर्वनाम हैं। कौन शब्द का प्रयोग प्राणियों के लिए और क्या का प्रयोग जड़ पदार्थों के लिए होता है। अन्या भाषाओं में सर्वनाम संपादित करें सर्वनाम सभी भाषा में होते नहीं। यथा, जापानी भाषा एक सौ से अधिक शब्द हैं जिसके आम तौर के उपयोग सर्वनाम जैसे हैं लेकिन ये शब्द सर्वनाम नहीं क्यूँकि प्रत्येक शब्द के दूसरे अर्थ है। जैसा, 'मैं' ke लिए जापानी बोलने वाले लोग 'वाताशी' (私) बोल सकते हैं, मगर इसके अर्थ व्यक्तिगत ही है। हिंदी में 'मैं' शब्द के कोई और अर्थ नहीं। सर्वनाम उपयोग करता हुआ भाषाओं में भी कोई फ़र्क़ भी हो सकता है। हिंदी भाषा तीन शब्द इस्तेमाल करते है- "आप", "तुम", "तू"- जबकि अंग्रेज़ी में एक है- "यू" (You)। इसके अलावा, हिंदी अपने निश्चयवाचक सर्वनाम फ़ासला, इज़्ज़त, और राशि से अलग करते है- "यह, वह, ये, वे"- किंतु अंग्रेज़ी में ये सर्वनाम लिंग और राशि से अलग किये जाते हैं- "ही, शी, धे (He, She, They)। यह भी देखे संपादित करें

एकावली अलंकार -

एकावली अलंकार एकावली अलंकार एक शृंखलामूलक अर्थालंकार है, जिसमें शृंखला-रूप में वर्णित पदार्थों में विशेष्य-विशेषणभाव सम्बन्ध पूर्व-पूर्व विशेष्य, पर-पर विशेषण, पूर्व-पूर्व विशेषण, पर-पर विशेष्य, इन दो रूपों में स्थापित अथवा निषिद्ध किया जाता है।[1] इस अलंकार की योजना कवि केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इसमें कल्पना की उड़ान का विनोदात्मक रूप होता है। रुद्रट द्वारा उल्लिखित इस अलंकार को मम्मट के[2] आधार पर विश्वनाथ इसी रूप में स्वीकार करते हैं- "पूर्व पूर्व प्रति विशेषण-त्वेन परं परम्। स्थाप्यतेऽपोह्यते वा चेत् स्यात्तदैकावली द्विधा"।[3] मम्मट तथा रुद्रट, दोनों ने स्थापना और निषेध के रूप में दो भेद माने हैं। जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में इसको केवल 'गृहीतमुक्त रीति से विशेषण-विशेष्य के वर्णन क्रम" के रूप में माना है। हिन्दी में जसवंत सिंह ने 'कुवलयानन्द' के आधार पर इसी का अनुकरण किया है, पर उसका वृत्ति पर ध्यान न देने से लक्षण स्पष्ट नहीं है। हिन्दी के मध्ययुगीन आचार्यों ने प्राय: जयदेव का अनुसरण किया है और लक्षण के अनुसार एक ही उदाहरण दिया है। मतिराम, भूषण तथा पद्माकर के लक्षण समान हैं- "गहब तजब अर्थालिको जँह।"[4] और "एक अर्थ लै छोड़िये और अर्थ लै ताहि। अर्थ पाँति इमि कहत है।"[5] यहाँ विशेषण शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में ऐसे किसी शब्द के लिए हुआ है, जो किसी वस्तु को अन्य वस्तु से अलग करता अथवा उसे विशिष्टता प्रदान करता है। भोज ने इसे 'परिकर' के अंतर्गत स्वीकार किया था। जगन्नाथ के अनुसार 'मालादीपक' को इसका भेद मानना चाहिए। निम्नांकित पंक्ति में रसखान ने एकावली अलंकार का नियोजन किया है- वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अंखियां अनुमानै। चंद पै बिम्ब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै।[6] यहाँ नायिका के मुख, अधर और नेत्रों के अंगों का एक के बाद एक करके शृंखला रूप में वर्णन हुआ है। रात भर जागरण के कारण नायिका की आँख लाल हो गई हैं। उसके मुख पर चन्द्र पर बिंब[7] है, बिंब पर कैरव[8] हैं और 'कैरव' पर मुक्ताएं[9] हैं। रसखान ने 'एकावली' का प्रयोग एकाध स्थलों पर ही किया है।

बुधवार, 30 अगस्त 2017

आर्य परिचय

आजकल एक दलित वर्ग विशेष (अम्बेडकरवादी ) अपने राजनेतिक स्वार्थ के लिए आर्यों के विदेशी होने की कल्पित मान्यता जो कि अंग्रेजी और विदेशी इसाई इतिहासकारों द्वारा दी गयी जिसका उद्देश्य भारत की अखंडता ओर एकता का नाश कर फुट डालो राज करो की नीति था उसी मान्यता को आंबेडकरवादी बढ़ावा दे रहे है | जबकि स्वयम अम्बेडकर जी ने “शुद्र कौन थे” नाम की अपनी पुस्तक में आर्यों के विदेशी होने का प्रबल खंडन किया है | आश्चर्य की बात है कि अम्बेद्कर्वादियो के आलावा तिलक महोदय जेसे अदलितवादी लेखक ने भी आर्यों को विदेशी वाली मान्यता को बढ़ावा दिया है | पहले इस मान्यता द्वारा द्रविड़ (दक्षिण भारतीय ) और उत्तर भारतीयों में फुट ढल वाई गयी जबकि जिसके अनुसार उत्तर भारतीयों को आर्य बताया और उन्हें विदेशी कह कर मुल्निवाशी दक्षिण भारतीयों का शत्रु बताया और हडप्पा और मोहनजोदड़ो को द्रविड सभ्यता बताया लेकिन फिर बाद में इन्होने द्रविड़ो को भी विदेशी बताया और भारत में मुल्निवाशी दलित और आदिवासियों को बताया .. जबकि न तो उन्होंने आर्यों को समझा और न ही दस्युओ को ,वास्तव में आर्य नाम की कोई नस्ल या जाति कभी थी ही नही आर्य शब्द एक विशेषण है जिसका अर्थ श्रेष्ट है | और कई लोगो ,महापुरुषों और भाषाओ में आर्य शब्द का प्रयोग किया गया है | आर्य शब्द की मीमासा से पहले मै कुछ अंश विदेशी इतिहास कारो और विद्वानों के उद्दृत करता हु जिससे उन लोगो के षड्यंत्र और कपट का पता आप लोगो को चलेगा … इस सन्धर्भ में मेकाले का प्रमाण देता हु मेकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा था जिसमे उसने उलेख किया है कि हिन्दुओ को अपने धर्म और धर्मग्रन्थो के खिलाफ भड़का कर कर अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार कर इसाईयत को बढ़ावा देना था ,देखे मेकाले का वह पत्र – इसी तरह life and letter of maxmullar में भी maxmullar का एक पत्र मिलता है जिसको उसने १८६६ में अपनी पत्नि को लिखा था पत्र निम्न प्रकार है – ” *I hope I shall finish the work and I feel convinced though I shall not live to see it yet this addition of mine and the translation of the vedas will here after tell to great extent on the fate of india and on the growth of millions of souls in that country. it is the root of their religion and to show them what the root is I feel sure, is the way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.” अर्थात मुझे आशा है कि मै यह कार्य सम्पूर्ण करूंगा और मुझे पूर्ण विश्वास है ,यद्यपि मै उसे देखने को जीवित न रहूँगा, तथापि मेरा यह संस्करण वेद का आध्न्त अनुवाद बहुत हद तक भारत के भाग्य पर और उस देश की लाखो आत्माओ के विकास पर प्रभाव डालेगा | वेद इनके धर्म का मूल है और मुझे विश्वास है कि इनको यह दिखना कि वह मूल क्या है -उस धर्म को नष्ट करने का एक मात्र उपाय है ,जो गत ३००० वर्षो से उससे (वेद ) उत्त्पन्न हुआ है | इसी तरह एक और दितीय पत्र मेक्समुलर ने १६ दि. १८६८ को भारत के तत्कालीन मंत्री ड्यूक ऑफ़ आर्गायल को लिखा था – ” the ancient religion of india is doomed , if christianity does not step in , whose fault will it be ? अर्थात भारत के प्राचीन धर्म का पतन हो गया है , यदि अब भी इसाई धर्म नही प्रचलित होता है तो इसमें किसका दोष है ? इन सबसे विदेशियों का उद्देश हम समझ सकते है | क्या आर्य इरान के निवासी थे – इस षड्यंत्र के तहत इन्होने आर्य को इरान का निवाशी बताया है और आज भी सीबीएसई आदि पुस्तको में यही पढ़ाया जाता है कि आर्य इरान से भारत आये जबकि ईरानियो के साहित्य में इसका विपरीत बात लिखी है वहा आर्यों को भारत का बताया है और आर्य भारत से ईरान आये ऐसा लिखा है जिसे हम सप्रमाण उद्द्रत करते है – “चंद हजार साल पेश अज जमाना माजीरा बुजुर्गी अज निजाद आर्यों अज कोह हाय कस्मने मास्त कदम निहादन्द | ब चू आवो माफ्त न्द दरी जा मसकने गुजीदन्द द आरा बनाम खेश ईरान खिया द न्द |”( जुगराफिया पंज किताऊ बनाम तदरीस दरसाल पंजुम इब्त दाई सफा ७५ ,कालम १ सीन अव्वल व चहारम अज तर्क विजारत मुआरिफ व शुरशुद अर्थ – अर्थात कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय पर्वत से उतर कर यहा आये और यहा का जलवायु अनुकूल पाकर ईरान में बस गये | इस प्रमाण से आर्यों के ईरान से आने की कपोल कल्पना का पता चलता है और उसका खंडन भी हो जाता है | क्या आर्य उतरी ध्रुव से आये थे ? इस मान्यता को बल दिया बाल गंगाधर तिलक ने उन्होंने आर्यों को उतरी ध्रुव का बताया लेकिन जब उमेश चंद विद्या रत्न ने उनसे इस बारे में पूछा तो उनका उत्तर काफी हास्य पद था | देखिये तिलक जी ने क्या बोला –“आमि मुलवेद अध्ययन करि नाई | आमि साहब अनुवाद पाठ करिया छे “( मनेवर आदि जन्म भूमि पृष्ठ १२४ ) अर्थात – हमने मुलवेद नही पढ़ा , हमने तो साहब (विदेशियों ) का किया अनुवाद पढ़ा है | उतरी ध्रुव विषयक अपनी मान्यताओ के संधर्भ में तिलक महोदय ने लिखा है – “It is clear that soma juice was extracted and purified at neight in the arctic ” अर्थ – ” उतरी ध्रुव में रात्रि के समय सोमरस निकला जाता था “| तिलक जी की इस मान्यता का उत्तर देते हुए नारायण भवानी पावगी ने अपने ग्रन्थ ” आर्यों वर्तालील आर्याची जन्मभूमिं ” में लिखा है – ” किन्तु उतरी ध्रुव में सोम लता होती ही नही ,वह तो हिमालय के एक भाग मुंजवान पर्वत पर होती है ” इससे स्पष्ट है कि आर्यों के उत्तरी ध्रुव के होने की लेखक की अपनी कल्पना थी | वास्तव में जब तक आर्यों को एक जाति और नस्ल की दृष्टि से देखेंगे तो इसी तरह की समस्या आती रहेंगी आर्यों से पहले हमे आर्य शब्द के बारे में जानना चाहिय | आर्य शब्द की मीमासा – आर्य शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो में वेदों और वैदिक ग्रंथो में किया गया है , जिसे मुख्यत विशेषण ,विशेष्य के लिए प्रयोग किया गया है | निरुक्त ६/२६ में यास्क ” आर्य: ईश्वरपुत्र:” लिख कर आर्य का अर्थ ईश्वर पुत्र किया है | ऋग्वेद ६/२२/१० में आर्य का प्रयोग बलवान के अर्थ में हुआ है | ऋग्वेद ६/६०/६ में वृत्र को आर्य कहा है अम्बेद्कर्वदियो का मत है कि वृत्र अनार्य था जबकि ऋग्वेद में ” हतो वृत्राण्यार्य ” कहा है यहाँ आर्य शब्द बलवान के रूप में प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है बलवान वृत्र और वृत्र का अर्थ निघंटु में मेघ है अर्थात बलवान मेघ | इसी तरह वेदों के एक मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है ” कृण्वन्तो विश्वार्यम ” अर्थात सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ यहाँ आर्य शब्द श्रेष्ट के अर्थ में लिया गया है यदि आर्य कोई जाति या नस्ल विशेष होती तो सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ ये उपदेश नही होता | आर्य शब्द का विविध प्रयोग – ऋग्वेद १/१०३/३ ऋग. १/१३०/८ और १०/४९/३ में आर्य का प्रयोग श्रेष्ठ के अर्थ में हुआ है | ऋग्वेद ५/३४/६ ,१०/१३८/३ में ऐश्वर्यवान (इंद्र ) के रूप में प्रयुक्त हुआ है | ऋग्वेद ८/६३/५ में सोम के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद १०/४३/४ में ज्योति के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद १०/६५/११ में व्रत के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद ७/३३/७ में प्रजा के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद ३/३४/९ में वर्ण के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद १०/३८/३ में ” दासा आर्यों ” शब्द आया है यहाँ दास का अर्थ शत्रु ,सेवक ,भक्त आदि ले और आर्य का महान ,श्रेष्ट और बलवान तो दासा आर्य इस पद का अर्थ होगा बलवान शत्रु ,महान भक्त .श्रेष्ठ सेवक आदि | यहाँ दास को आर्य कहा है | अत: स्पष्ट है कि आर्य शब्द नस्ल या जातिवादी नही है बल्कि इसका अर्थ होता है महान ,श्रेष्ठ ,बलवान .ऐश्वर्यवान ,ईश्वरपुत्र , आदि जो की विश्व के किसी भी व्यक्ति ,जाति ,वंश के लिए प्रयुक्त हो सकता है | अन्य महापुरुषों द्वारा ,सभ्यताओ ,भाषा में आर्य शब्द – ” ईरान के राजा आर्य मेहर की उपाधि लगाते थे क्यूंकि वे अपने आप को सूर्यवंशी क्षत्रिय समझते थे |” ” अनातौलिया की हित्ती भाषा में आर्य शब्द पाया जाता है “ “न्याय दर्शन १-१० पर वात्सायन भाष्य में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है | “ ” महाभारत में अनेक स्थलों के साथ साथ उद्योग पर्व में आर्य शब्द का उलेख है “ ” रामायण बालकाण्ड में आर्य शब्द आया है – • श्री राम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में नारद मुनि ने कहा है – आर्य: सर्वसमश्चायमं, सोमवत् प्रियदर्शन: | (रामायण बालकाण्ड १/१६) अर्थात् श्री राम आर्य – धर्मात्मा, सदाचारी, सबको समान दृष्टि से देखने वाले और चंद्र की तरह प्रिय दर्शन वाले थे “ ” किष्किन्धा काण्ड १९/२७ में बालि की स्त्री पति के वध हो जाने पर उसे आर्य पुत्र कह कर रुधन करती है |” ” भविष्य पुराण में अह आर्य में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है इसी में मुहम्मद को मलेछ बताया है “ ” मृच्छकटिका नाटक में ” देवार्य नंदन ” शब्द में आर्य का प्रयोग हुआ है “ आर्य से आरमीनियो शब्द बना है जिसका अर्थ है शूरवीर “ • श्री दुर्गा सप्तशती में श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् के अंतर्गत देवी के १०८ नामों में से एक नाम आर्या आता है | (गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ ९ • छन्द शास्त्र में एक छन्द का नाम आर्या भी प्रसिद्ध है | भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने जब देखा कि वीर अर्जुन अपने क्षात्र धर्म के आदर्श से च्युत होकर मोह में फँस रहा है तो उसे सम्बोधन करते हुए उन्होंने कहा – कुतस्त्वा कश्मलमिदं, विषमे समुपस्थितम् | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्, अकीर्ति करमर्जुन | (गीता २/३) अर्थात् हे अर्जुन, यह अनार्यो व दुर्जनों द्वारा सेवित, नरक में ले-जानेवाला, अपयश करने वाला पाप इस कठिन समय में तुझे कैसे प्राप्त हो गया ? यहा श्री कृष्ण ने अर्जुन को आर्य बनाने के लिए अनार्यत्व के त्याग को कहा है | सिखों के गुरुविलास में आर्य शब्द का उलेख – ” जो तुम सुख हमारे आर्य | दियो सीस धर्म के कार्य | ” बौद्धों के विवेक विलास में आर्य शब्द -” बौधानाम सुगतो देवो विश्वम च क्षणभंगुरमार्य सत्वाख्या यावरुव चतुष्यमिद क्रमात |” ” बुद्ध वग्ग में अपने उपदेशो को बुद्ध ने चार आर्य सत्य नाम से प्रकाशित किया है -चत्वारि आरिय सच्चानि (अ.१४ ) “ धम्मपद अध्याय ६ वाक्य ७९/६/४ में आया है जो आर्यों के कहे मार्ग पर चलता है वो पंडित है | जैन ग्रन्थ रत्नसार भाग १ पृष्ठ १ में जैनों के गुरुमंत्र में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है – णमो अरिहन्ताण णमो सिद्धाण णमो आयरियाण णमो उवज्झाणाम णमो लोए सब्ब साहूणम “यहा आर्यों को नमस्कार किया है अर्थात सभी श्रेष्ट को नमस्कार • जैन धर्म को आर्य धर्म भी कहा जाता है | [पृष्ठ xvi, पुस्तक : समणसुत्तं (जैनधर्मसार)] जैनों में साध्वियां अभी तक आर्या वा आरजा कहलाती हैं काशी विश्वनाथ मंदिर पर आर्य शब्द लिखा हुआ है | इस तरह अन्य कई प्रमाण है आर्य शब्द के प्रयोग के जिन्हें विस्तार भय से यहाँ नही लिखते है | दस्यु अनार्य शब्दों की मीमासा – कुछ इतिहासकारों का मत है कि वेदों में दास ,असुर आदि शब्दों द्वारा भारत के मुल्निवाशियो (द्रविड़ो या आदिवासियों ,दलितों ) को सम्बोधित किया है जबकि वेदों में दास ,असुर शब्द किसी जाति या नस्ल के लिए प्रयुक्त नही हुआ है बल्कि इसका भी आर्य के समान विशेषण ,विशेष्य आदि पदों में प्रयोग हुआ है | यहा कुछ प्रमाण द्वरा स्पष्ट हो जाएगा – अष्टाध्यायी ३/३/१९ में दास का अर्थ लिखा है -दस्यते उपक्षीयते इति दास: जो साधारण प्रत्यन्न से क्षीण किया जा सके ऐसा साधारण व्यक्ति वा. ३/१/१३४ में आया है ” दासति दासते वा य: स:” अर्थात दान करने वाला यहा दास का प्रयोग दान करने वाले के लिए हुआ है | इसी के ३/३/११३ में लिखा है ” दासति दासते वा अस्मे” अर्थत जिसे दान दिया जाए यहा दान लेने वाले को दास कहा है अर्थात ब्रह्मण यदि दान लेता है तब उसे भी दास कहते है |” इसी में ३/१/१३४ में दास्यति य स दास: अर्थात जो प्रजा को मारे वह दास ” यहा दास प्रजा को और उसके शत्रु दोनों को कहा है | अष्टाध्यायी ५/१० में हिंसा करने वाले ,गलत भाषण करने वाले को दास दस्यु (डाकू ) कहा है | निरुक्त ७/२३ में कर्मो के नाश करने वाले को दास कहा है | दास शब्द का वेदों में विविध रूपों में प्रयोग – मेघ के विशेषण में ऋग्वेद ५/३०/७ में हुआ है | शीघ्र बनने वाले मेघ के रूप में ऋग्वेद ६/२६/५ में हुआ है | बिना बरसने वाले मेघ के लिए ७ /१९/२ में हुआ है | बल रहित शत्रु के लिए ऋग्वेद १०/८३/१ में हुआ है | अनार्य (आर्य शब्द की मीमासा दी हुई है उसी का विलोम अनार्य है अत: ये भी विशेषण है ) के लिए ऋग्वेद १०/८३/१९ में हुआ है | अज्ञानी ,अकर्मका ,मानवीय व्यवहार से शून्य व्यक्ति के लिए ऋग्वेद १०/२२/८ में प्रयोग हुआ है | प्रजा के विशेषण में ऋग्वेद ६/२५/२,१०/१४८/२ और २/११/४ में प्रयोग हुआ है | वर्ण के विशेषण रूप में ऋग्वेद ३/३४/९ ,२/१२/४ में हुआ है | उत्तम कर्महीन व्यक्ति के लिए ऋग्वेद १०/२२/८ में दास शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात यदि ब्राह्मण भी कर्महीन हो जाय तो वो भी दास कहलायेगा | गूंगे या शब्दहीन के विशेषण में ऋग्वेद ५/२९/१० में दास का प्रयोग हुआ है | इन विवेचनो से स्पष्ट हो जाता है कि दास शब्द का प्रयोग किसी नस्ल या जाति के लिए नही हुआ ये निर्जीव बादल आदि और सजीव प्रजा आदि दोनों के लिए भी हुआ है | इसी तरह असुर शब्द भी विविध अर्थो में प्रयुक्त हुआ है – ” इसका प्रयोग भी आर्य के विलोम में अनेक जगह हुआ है | ” निघंटु में मेघ के पर्याय में असुर का प्रयोग हुआ है | ऋग्वेद ८/२५/४ में असुर का अर्थ बलवान है | ईरान में अहुरमजदा कर ईश्वर के नाम में प्रयोग किया जाता है | स्कन्द स्वामी निरुक्त की टीका करते हुए पृष्ठ १७२ पर असुर का अर्थ प्राणवानुदगाता कियाहै | दुर्गाचार्य ने पृष्ठ ३६१ पर प्रज्ञावान अर्थ किया है | उपरोक्त सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि वेदों में दास ,आर्य ,असुर कोई विशेष जाति ,नस्ल के लिए प्रयुक्त नही हुए है ..जबकि कुछ लोग कुचेष्टा द्वारा वेदों में आर्य अनार्य का अर्थ दर्शाते है | कुछ विशेष शब्दों को देख उन्हें आदिवासी या मूलनिवासी बताते है | इसमें एक उदाहरण इंद्र और वृत्र के युद्ध का दिया जाता है जबकि ये कोई युद्ध नही बल्कि आकाशीय घटना है इस बारे में शतपत ब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है – – “ तस्मादाहुनैतदस्मि यद देवा सुरमिति ” (शतपत ११/६/१/९ ) अर्थात वृत्रा सुर युद्ध हुआ नही उपमार्थ युद्ध वर्णन है | इस के बारे में हमारे निम्न लेख में विस्तार पूर्वक देख सकते है – ” वेदों में इंद्र अब कुछ उन शब्दों पर गौर करेंगे जिन्हें मुल्निवाशी या आदिवासी बताया है | वेद और आदिवासी युद्ध – वेदों में इतिहास नही है इस बारे में पिछले कई लेखो और आगे भी कई लेखो में लिखते रहेंगे लेकिन कुछ लोग वेदों में जबरदस्ती बिना निरुक्त और वेदांगो की साहयता से किये हुए भाष्य को पढ़ या स्वयम कल्पना कर वेदों में इतिहास मान कर उसमे कई आदिवासी और मूलनिवासी सिद्ध करते है | इनमे से कुछ निम्न है – (अ) काले रंग के अनार्य या आदिवासी – ऋग्वेद में आये कृष्ण शब्द को देख कई लोगो ने काले रंग के आदिवासी की कल्पना की है ये बिलकुल वेसे ही है जेसे मुस्लिम शतमदीना देख मदीना समझते है , ईसाई ईश शब्द को ईसामसीह ,रामपालीय कवीना शब्द से कबीर , वृषभ शब्द से जैन ऋषभदेव ऋग्वेद १/१०१/१ ,१/१३०/८ ,२/२०/७ ,४/१६/१३ और ६/४७/२१ ,७/५/३ में कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है जिसे अम्बेडकरवादी असुर मूलनिवासी बताते है | जबकि १/१०१/१ में कृष्णगर्भा शब्द है जिसका अर्थ नेरुक्तिक प्रक्रिया से मेघ की काली घटा होता है | ऋग्वेद ७/१७/१४ में सायण ने भी कृष्ण का अर्थ काले बादल किया है | ऋग्वेद १/१३०/८ में त्वच कृष्णामरन्ध्यत इस मन्त्र में काले मेघ छा जाने पर अन्धकार हो जाने का वर्णन है ..इस मन्त्र की व्याख्या में एक पुराने भाष्यकार वेंकट माधव ने त्वच कृष्ण का अर्थ मेघ वशमनयत किया है |ऋग्वेद २/२०/७ में कृष्णयोनी शब्द है यहा योनी शब्द दासी के विशेषण में आया है और कृष्ण का अर्थ काला मेघ और दासी का अर्थ मेघ की घटाए अत कृष्ण योनि का अर्थ हुआ मेघ की विनाशकारी घटाए | कृष्णयोनी – कृष्णवर्णा: मेघ: योनीरासा ता: कृष्णयोन्य दास्य: (वेंकट ) ऋग्वेद ४/१६ /१३ में भी कृष्ण का अर्थ काले मेघ है | ऋग्वेद ६/४७/२१ पर महीधर ने भी कृष्ण का अर्थ कोई व्यक्ति विशेष के लिए नही कर काली रात्रि किया है | ऋग्वेद ७/५/३ में अस्किनी पद आया है जिसका अर्थ काले रंग की जाति पाश्चात्य विद्वानों ने किया है जबकि निघंटु १/७ में इसको रात्रि का पर्याय दिया है जिसका अर्थ है अँधेरी रात अत: स्पष्ट है कि वेदों में कोई काले आदिवासी ,काले मूलनिवासी नही है बल्कि ये सब मेघ ,रात्रि आदि के लिए प्रयुक्त हुए है | (ब) चपटी नाक वाले आदिवासी – ऋग्वेद ५/२९/१० में अनास शब्द आया है जिसका अर्थ पश्चमी विद्वानों ने चपटी नाक वाले आदिवासी किया है | जबकि धातुपाठ अनुसार अनास का अर्थ होगा नासते शब्द करोति अर्थात जो शब्द नही करता है अर्थात बिना गरजने वाला मेघ (स ) लिंग पूजक आदिवासी – ऋग्वेद ७/२१/५ और १०/९९/३ में शिश्नदेव शब्द आया है जिसे कुछ लोग लिंग पूजक आदिवासी बताते है चुकि सिन्धु सभ्यता में कई लिंग और योनि चित्र मिले है जिससे उनका अनुमान किया जाता है जबकि शिश्नदेवा का अर्थ यास्क ने निरुक्त ४/१९ में निम्न किया है – ” स उत्सहता यो विषुणस्य जन्तो : विषमस्य मा शिश्नदेवा अब्रह्मचर्या ” यहा शिश्नदेव का अर्थ अब्रह्मचारी किया है अर्थात ऐसा व्यक्ति जो व्यभिचारी हो | आदिवासियों के विशिष्ट व्यक्ति और उनकी समीक्षा – पाश्चात्य विद्वानों और उनके अनुयायियों ने वेदों में से निम्न शब्द शम्बर , चुमुरि ,धुनि ,प्रिप्रू ,वर्चिन, इलिविश देखे और इन्हें आदिवासियों का मुखिया बताया | (अ) शम्बर – ये ऋग्वेद के १/५९/६ में आया है यास्क ने निरुक्त ७/२३ में शम्बर का अर्थ मेघ किया है ” अभिनच्छम्बर मेघम ” (ब) चुमुरि – यह ऋग्वेद के ६/१८/८ में आया है चुमुरि शब्द चमु अदने धातु से बनता है | चुमुरि का अर्थ है वह मेघ जो जल नही बरसाता | (स) वर्चिन – यह ऋग्वेद के ७/९९/५ में है ये शब्द वर्च दीप्तो धातु से बना है जिसका अर्थ है वह मेघ जिसमे विद्युत चमकती है | (द) इलीबिश – ये ऋग्वेद १/३३/१२ में है इस शब्द से मुस्लिम कुछ विद्वान् शेतान इब्लीस की कल्पना करते है जो की कुरआन में ,बाइबिल आदि में आया है लेकिन यहा वेदों में यह कोई शेतान नही है सम्भवत वेदों के इसी शब्द से अरबी ,हिब्रू आदि भाषा में इब्लीस शब्द प्रचलित हुआ हो क्यूंकि चिराग ,अरव , अल्लाह ,नवाज आदि संस्कृत भाषा से उन भाषाओ में समानता दर्शाते शब्द है | निरुक्त ६/१९ में इलीबिश के अर्थ में यास्क लिखते है ” इलाबिल शय: ” अर्थात भूमि के बिलों में सोने वाला अर्थात वृष्टि जल जब भूमि में प्रवेश कर जाता है तो उसे इलिबिश कहते है | (य) पिप्रु – ये ऋग्वेद ६/२०/७ में आया है ये शब्द ” पृृ पालनपूरणयो: ” धातु से बनता है | जिसका अर्थ है ऐसा मेघ जो वर्षा द्वारा प्रजा का पालन करता है | (र) धुनि – ये ऋग्वेद ६/२०/१३ में है | निरुक्त १०/३२ में धुनि का अर्थ लिखा है ” धुनिमन्तरिक्षे मेघम | ” अर्थात यह एक प्रकार का मेघ है | धुनोति इति धुनि: अर्थात ऐसा मेघ जो काँपता है गर्जना करता है | अत: स्पष्ट है की वेदों में किसी आदिवासी का उलेख या युद्ध नही बल्कि सभी जड सम्बन्धी और विशेषण सम्बन्धी शब्द है | प्रश्न – हम ये मान लेते है कि आर्य शब्द विशेषण है और ये किसी के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है जो श्रेष्ठ हो लेकिन स्वर्ण इस देश के नही थे बल्कि बाहर से आये थे ? उत्तर – हमारे किसी भी ग्रन्थ में सवर्णों का बाहर से आया नही लिखा है बल्कि भारत से क्षत्रिय ,ब्राह्मण ,वेश्य आदि अन्य देशो में गये इसका वर्णन है | भारतीय वैदिक सभ्यता की अन्य सभ्यताओ से समानता को देखते हुए लोग ये कल्पना करते है की विदेशी भारत में आये और यहा की सभ्यता को नष्ट कर अपनी विदेशी सभ्यता प्रचारित की जबकि ये बात कल्पना है आर्य भारत से अन्य देश में गये थे इसके निम्न प्रमाण – मनु स्मृति में आया है कि – शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:। वृषलत्वं गता लोके ब्रह्माणादर्शनेन्॥10:43॥ – निश्चय करके यह क्षत्रिय जातिया अपने कर्मो के त्याग से ओर यज्ञ ,अध्यापन,तथा संस्कारादि के निमित्त ब्राह्मणो के न मिलने के कारण शुद्रत्व को प्राप्त हो गयी। ” पौण्ड्र्काश्र्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:। पारदा: पहल्वाश्र्चीना: किरात: दरदा: खशा:॥10:44॥ पौण्ड्रक,द्रविड, काम्बोज,यवन, चीनी, किरात,दरद,यह जातिया शुद्रव को प्राप्त हो गयी ओर कितने ही मलेच्छ हो गए जिनका विद्वानो से संपर्क नही रहा। इन श्लोको से स्पष्ट है कि आर्य लोग भारत से बाहर वश गये थे और विद्वानों के संग न मिलने से उनकी मलेछ आदि संज्ञा हुई | मुनि कात्यायन अपने याजुष ग्रन्थ प्रतिज्ञा परिशिष्ट में लिखता है कि ब्राह्मण का मूलस्थान भारत का मध्य देश है | महाभारत में लिखा है कि ” गणानुत्सवसंकेतान दस्यून पर्वतवासिन:| अजयन सप्त पांडव ” अर्थात पांड्वो ने सप्त गणों को जीत लिया था | इस तरह स्पष्ट है कि आर्य विदेशो से नही बल्कि भारत से अन्य देशो में गये थे | भारतीयों का विदेश गमन – भारतीयों का मिश्र गमन – भविष्य पुराण खंड ४ अध्याय २१ में कण्व ऋषि का मिश्र जाना लिखा है जहा उन्होंने १०००० लोगो का शुद्धिकरण किया था | भारतीयों का रूस और तुर्किस्थान गमन – lassen की indiscehe alterthumskunda में भारत का तुर्क और रूस में गमन के बारे में लिखते हुए लिखता है कि ” it appears very probable that at the dawn of history ,east turkistaan was inhabited by an aryan population ” भारतीयों का सिथिया देश में गमन – सिथिया देश किसी समय भारत से निकले शक नामक क्षत्रियो ने बसाया था जिसका प्रमाण विष्णुपुराण ३/१/३३-३४ में है ” वैवस्त मनु के इस्वाकु ,नाभागा ,धृष्ट ,शर्याति ,नाभा ने दिष्ट ,करुष ,प्रिश्ध्र ,वसुमान ,नरीशयत ये नव पुत्र थे | हरिवंश अध्याय १० श्लोक २८ में लिखा है – ” नरिष्यंत के पुत्रो का ही नाम शक था “ विष्णु पुराण ४/३/२१ में आया है कि इन शको को राजा सगर ने आधा गंजा करके निकाल दिया और ये सिन्थ्निया (शकप्रदेश ) जा कर वश गये | भारतीयों का चीन गमन – मनुस्मृति के अलावा चीनियों के आदिपुरुषो के विषय में प्रसिद्ध चीनी विद्वान यांगत्साई ने सन १५५८ में एक ग्रन्थ लिखा था | इस ग्रन्थ को सन १७७३ में हुया नामी विद्वान ने सम्पादित किया उस पुस्तक का पादरी क्लार्क ने अनुवाद किया उसमे लिखा है कि ” अत्यंत प्राचीन काल में भारत के मो लो ची राज्य का आह . यू . नामक राजकुमार युनन्न प्रांत में आया | इसके पुत्र का नाम ती भोगंगे था | इसके नौ पुत्र हुए | इन्ही के सन्तति से चीनियों की वंश वृद्धि हुई | ” यहा इन राजकुमार आदि का चीनी भाषानुवादित नाम है इनका वास्तविक नाम कुछ और ही होगा जेसे की शोलिन टेम्पल के निर्माता बोधिधर्मन का नाम चीनियों ने दामो कर दिया था | इन सबके अलवा भारतीय क्षत्रिय वेश्य ब्राह्मण अन्य कारणों से भी समुन्द्र पार कर अन्य देशो में जाते थे क्यूंकि भारतीयों के पास बड़ी बड़ी यांत्रिक नौकाये थी जिनका उलेखभारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे। नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम। सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्‌॥ अर्थात्‌-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं। इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है। सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्‌। अर्थात्‌-यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। ५वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत ‘बृहत्‌ संहिता‘ तथा ११वीं सदी के राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है। नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है। अत : स्पष्ट है कि भारतीय नावो द्वारा अन्य देशो में जाया करते थे | इसी कारण भारतीयों और अन्य देशो की सभ्यताओ में काफी समानताये है | जिनको विस्तारित रूप से p n oak जी की पुस्तको , स्वामी रामदेव जी गुरुकुल कांगड़ी की भारतवर्ष का इतिहास ,रघुनंदन शर्मा जी की पुस्तक वैदिक सम्पति ,स्टेपहेन केनप्प की पुस्तको , पंडित भगवतदत्त जी की वृहत भारत का इतिहास , वैदिक वांगमय का इतिहास में देख सकते है | सिन्धु सभ्यता और आर्य आक्रमणकारी – कुछ लोग सिन्धु सभ्यता के बारे में यह कल्पना करते है कि सिन्धु सभ्यता को विदेशी आर्यों ने नष्ट कर दिया जबकि हमारा मत है कि सिन्धु सभ्यता आज भी विद्यमान है | केवल सिन्धु वासियों के पुराने नगर नष्ट हुए है जो की प्राक्रतिक आपदाओं के कारण हो सकते है | एक योगी जिसके 3-4 सर है ,यह असल में भगवान शिव है | सिन्धु घाटी सभ्यता और मेवाड़ के एकलिंगनाथ जी आप देख सकते है की सिन्धु घाटी सभ्यता के शिव और मेवाड़ के एकलिंगनाथ यानि भगवान शिव में कितनी समानता है ,एक समय मेवाड़ में भी सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग रहते थे और आज भी वह के लोग 4 सर वाले शिव की पूजा करते है कृष्ण और वृक्ष से निकलते 2 यक्ष आपको वह कहानी तो पता ही होगी की भागवान कृष्ण अनजाने में 2 वृक्ष उखाड़ देते है जिसमे से 2 यक्ष निकलते है ,यह सील वही कहानी बता रहा है ,आप 2 वृक्ष देख सकते है जो उखाड़ गए है (विद्वान् अनुसार ) और उनके बिच एक व्यक्ति नजर आ रहा है जो यक्ष हो सकता है ,दूसरा यक्ष शायद इस सील के दुसरे भाग में हो क्युकी यह सील टुटा हुआ है | भारत में रथ थे और घोड़े भी ,सच तो यह है की आज जो घोड़े यूरोप और एशिया में है वे 70 साल पहले भारतीय घोड़ो से विकसित हुए है | गणेश नंदी से लड़ते गणेश या नंदी संग युद्ध कला सीखते कार्तिक स्रोत –http://prachinsabyata.blogspot.in/2013_08_01_archive.html उपरोक्त एक चित्र में दाय तरफ एक चित्र है ये चित्र लज्जा गौरी नामक देवी से मिलता है चुकि सिन्धु वासी भी आज के तरह लिंग और योनि पूजक थे इस कारण वहा कई लिंग और योनि प्रतीक मिले है आज भी कामख्या आदि शक्तिपीठो में देवी की योनि पूजी जाती है | नीचे लज्जा गौरी का एक चित्र जो पूर्वी और दक्षिण भारत ,नेपाल आदि में पूजी जाती है – इसी तरह एक अन्य शील में सर्प देवी मिली है – ये सर्प देवी का चित्र मनसा देवी से काफी मिलता है – इतना ही नही ये सर्प देवी अन्य सभ्यताओ में भी है सम्भवत भारत से ही इनका प्रचार अन्य सभ्यताओ में हुआ होगा – ये चित्र Minoan Goddess 1600 BC का है | इस तरह से आधुनिक भारतीय और सिन्धु सभ्यताओ में समानता देखि जिससे स्पष्ट होता है की सिन्धु सभ्यता नष्ट नही हुई | जेसे आज पौराणिक सभ्यता के साथ वेद और वैदिक ज्ञान है उसी तरह सिन्धु सभ्यता में भी था चुकी सिन्धु लिपि अभी तक पढ़ी नही गयी है लेकिन फिर भी कुछ शीलो पर बने चित्रों से वैदिक मन्त्रो का उस समय होना प्रसिद्ध है | सिन्धु लिपि ब्राह्मी से मिलती है इसके अलावा सिन्धु सभ्यता में कई यज्ञ वेदिया मिली है अर्थात सिन्धु वासी अग्निहोत्र करते थे | मित्रो उपर्युक्त जो चित्र है वो हडप्पा संस्कृति से प्राप्त एक मुद्रा(सील) का फोटोस्टेट प्रतिकृति है।ये सील आज सील नं 387 ओर प्लेट नंCXII के नाम से सुरक्षित है,, इस सील मे एक वृक्ष पर दो पक्षी दिखाई दे रहे है,जिनमे एक फल खा रहा है,जबकि दूसरा केवल देख रहा है। यदि हम ऋग्वेद देखे तो उसमे एक मंत्र इस प्रकार है- द्वा सुपर्णा सुयजा सखाया समानं वृक्ष परि षस्वजाते। तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्तयनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -ऋग्वेद 1/164/20 इस मंत्र का भाव यह है कि एक संसाररूपी वृक्ष पर दो लगभग एक जैसे पक्षी बैठे है।उनमे एक उसका भोग कर रहा है,जबकि दूसरा बिना उसे भोगे उसका निरीक्षण कर रहा है। इसी तरह वेदों में ७प्राण ,ब्राह्मणों में ७ ऋषि ७ देविया ,७ किरण ,आयुर्वेद में अन्न से वीर्य तक बनने के ७ चरण ७ नदिया आदि के रूप में ७ के अंक का महत्व है सिन्धु सभ्यता की एक शील में ७ लोगो का चित्र है | इसी तरह सिन्धु सभ्यता में स्वस्तिक का चिन्ह मिला है जिसे यहा देखे ये अक्सर शुभ कार्यो में बनाया जाता है यज्ञ करते समय रंगोली के रूप में इसे यज्ञ वेदी को सजाने में भी बनाया जाता था | ऋग्वेद में स्वस्तिवाचन से कई अर्थ है स्वस्ति का अर्थ होता है कल्याण करने वाला ,उत्तम ,शुभ आदि ये चिन्ह शुभ और कल्याण का प्रतीक है इसलिए इसका नाम स्वस्तिक हुआ है | इस तरह अन्य कई प्रमाण मिल सकते है जिन्हें विस्तार भय से छोड़ते है इन सभी से सिद्ध है की सिन्धु सभ्यता आज भी विद्यमान है किसी ने उसे नष्ट नही किया थोडा बहुत अंतर अवश्य आया है क्यूंकि कोई भी चीज़ सदा एकसी नही होती लोगो के साथ साथ उन में भी बदलाव आता है | जिस तरह कल्पना की गयी थी की आर्यों और विदेशियों की सभ्यता मिलती है तो आर्य विदेशी है जिसे हमने गलत साबित किया लेकिन सिन्धु वासियों और अन्य विदेशी सभ्यता भी मिलती है इस आधार पर अगर ये कहे की सिन्धुवासी भी विदेशी थे वो भी गलत ही होगा क्यूंकि हमने पहले बता दिया की भारतीय लोग दुसरे देशो में जाया करते थे | सिन्धु सभ्यता और अन्य सभ्यता में समानता – सिन्धु सभ्यता में मिली सर्प देवी और मिनोअनन देवी की समानता दर्शाई गयी है सिन्धु लिपि अन्य देशो की प्राचीन लिपि से काफी मिलती है जिसे चित्र में दर्शाया है – इसमें सिन्धु लिपि और प्राचीन चीन की लिपि की समानता बताई गयी है | a is Upper Palaeolithic (found among the cave paintings), b is Indus Valley script, c is Greek (western branch), and d is the Scandinavian runic alphabet. उपरोक्त चित्र में सिन्धु ,ग्रीक ,रूमानिया लिपि में समानता दिखाई गयी है | अन्य समानताये – मोहनजोदड़ो में सफेद पत्थर से बनी मुर्तिया मिली है जो कि असीरिया की सभ्यता से मिलती है | चांदी के चौकौर टुकड़े प्राप्त हुए है जो कि बेबीलोन से मिलते है .खुदाई में एक मंदिर मिला है जिसमे पद्मासन लगाये एक देवता या योगी है जो भी बेबीलोन से मिलता है | ऊपर एक सर्प देवी का चित्र भी है जो मेसोन्न देवी से मिलता है | घरो पर प्लास्टर मिला है जो की मेसोपोटामिया से लाया जाता होगा ,कुछ बर्तन मिले है जो की मेसोपतामिया की सभ्यता में मिले बर्तनों से मिलते जुलते है | डाकृर साईस का कथन है कि ” बेबीलोन और भारत में ३००० इ पु से ही सम्बन्ध थे |”(his lecture on the origion and growth of religion among the babilonions) इसी तरह बेबीलोन के एक रेशमी वस्त्र का नाम सिन्धु है | अत: यहा स्पष्ट है कि सिन्धु वासियों के भी अन्य देशो से सम्बन्ध थे यदि समानता से आर्यों को विदेशी कहते है तो सिन्धुवासियो को क्यूँ नही | उपरोक्त प्रमाणों से हमने बताया की आर्य भारत से बाहर के नही थे लेकिन कुछ लोग डीएनए टेस्ट का प्रमाण देते है जबकि डीएनए टेस्ट ने कई बार अलग अलग परिणाम दिए है आधुनिक डीएनए टेस्टों से भी ये साबित हुआ है की सवर्ण और दलित आदिवासी ,द्रविड़ सभी के पूर्वज एक ही थे कोई विदेशी नही थे –http://timesofindia.indiatimes.com/india/Aryan-Dravidian-divide-a-myth-Study/articleshow/5053274.cms जिसे निम्न लिंक में देखे | अब हम विदेशियों द्वरा काफी पहले निकाला गलत डीएनए रिपोर्ट की समीक्षा करते है – माइकल की डीएनए रिपोर्ट की समीक्षा – २००१ टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर छपी कि अमेरिका के वाशिंगटन में उत्ताह विश्वविध्यालय के बायोलोजी डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष माइकल बाम्शाद ने डीएनए टेस्ट के आधार पर बताया कि भारत की sc ,st जातियों का डीएनए एक जेसा है तथा विदेशियों और gen का एक जेसा है | जिससे उसने निष्कर्ष निकाला कि ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य आदि विदेशी थे और st sc मुल्निवाशी | इस पर हम आपसे पूछते है कि मान लीजिये कि आपके परिवार वाले अमेरिका जा कर वश गये | तो उनका डीएनए आपसे मिलेगा अथवा नही | आप कहेंगे कि अवश्य मिलेगा | इसी प्रकार भारत से सवर्ण लोग विदेशो में गये थे | ब्राह्मण विद्या के प्रचार हेतु ,क्षत्रिय दिग्विजय हेतु ,वेश्य व्यपार हेतु , और इनमे से कई लोग विदेशो में ही बस गये | अनेक विदेशी उन्ही की संताने है | आज भी बहुत सारे भारतीय विदेशो में जाकर व्यापार ,नौकरी कर रहे है | अनेक श्रमिक भी बाहर जा कर बस गये है | तो उनका डीएनए भारत में रह रहे उनके परिजनों से क्यूँ नही मिलेगा ? तो दोनों में से किसे मूल निवासी कहेंगे | परिवार वाले या बाहर वालो को अथवा दोनों को ? पूर्वकाल में भारत साधन सम्पन्न देश था इसलिए शुद्रो को विदेश जाने की ज्यादा आवश्यकता नही हुई | दूसरी बात यह कि माइकल ने केवल दक्षिण के १ या २ गाँवों का ही डीएनए टेस्ट क्यूँ करवाया क्या १०० करोड़ आबादी में १ या २ गाँव से निष्कर्ष निकालना तर्क संगत होगा ? इसके आलावा हमारे दलित भाइयो के गौत्र (चौहान ,परमार,गहलोत ,सौलंकी ,राठोड ) आदि क्षत्रियो से मिलते है जिससे भी सिद्ध होता है कि दोनों के पूर्वज एक ही थे | उपरोक्त सभी निष्कर्षो से हमने सिद्ध किया कि सुवर्ण दलित आदि के पूर्वज एक ही थे कोई विदेशी नही थे | तथापि हमारे देश में कुछ बाहरी आक्रमण कारी आये थे जेसे अंग्रेज ,मुगल ,फ़ारसी ,तुर्की ,शक ,हुन ,यूनानी .. इनमे से कई जातयो को हमारे क्षत्रिय राजाओ ने भगा दिया और कुछ यही बस गये ये विदेशी जातीय भी आज सभी वर्गों में कुछ विशेष पहचान के साथ पायी जाती है क्यूंकि इन्होने भारतीयों से विवाह आदि सम्बन्ध स्थापित किये थे | विदेशियों का भारत आगमन – सरस्वती “अगस्त १९१४ ” में लिखा है कि रीवा राज्य में एक ताम्र पत्र मिला है | उसमे लिखा है कि कलचुरी राजा कर्ण ने तातारी हूणों को परास्त करके उनकी कन्या के साथ विवाह किया खत्रियो और राजपूतो में आज भी हूण संज्ञा विद्यमान है | ” पुत्रोस्य खगदलितारिकरीन्द्रकुम्भमुत्ताफ्लै: स्म ककुभोर्चति कर्णदेव :|| अजनि कलचुरीणा स्वामीना तेन हुणान्वयजलनिधिलक्ष्म्या श्रीमदावल्लदेव्याम ||”-राजपूताने के इतिहास से उद्दृत राजा चन्द्रगुप्त ने सेलुक्स की पुत्री से विवाह किया | कनिष्क नाम के हूण राजा ने भारत में बौद्ध धर्म ग्रहण कर यही निवास किया .इसी तरह मिलेंद्र भी भारत में बौद्ध बना उन्ही के कई वंशज भारत में ही बसे रह गये | कुछ शक भारत में आकर बसे उन्होंने यहा बस गये जिनमे राजा कुशान प्रमुख है इन्होने यहा हिन्दू मत शेव मत स्वीकार किया आज भी ब्राह्मणों में शाकदीपी ब्राह्मण होते है | उदयपुर राज्य के राजा गौह की शादी ईरान के प्रसिद्ध बादशाह नौशेरवा की पौत्री के साथ हुई थी | लोगो का विचार है की जिला बस्ती के रहने वाले कलहंस क्षत्रिय भी ईरान के रहने वाले है | जेसा की हमने पहले बताया की कण्व ऋषि ने मिश्र में जा कर शुद्धिकरण किया था और इनमे से कइयो को भारत भी बसाया जिनमे कई शुद्र ,क्षत्रिय ,वेश्य और ब्राह्मण थे | इसी तरह इस्लामिक आक्र्मंकारियो से भयभीत हो कर पारसी लोग इरान से भारत वश गये | गुजरात में एक जगह अफ़्रीकी आदिवासी भी है जो आज भी अफ़्रीकी संस्कृति और भाषा रहन सहन प्रयोग में करते है | प्रसिद्ध अग्रेँज इतिहासकार कर्नल.टाड के अनुसार बप्पा ने कई अरबी युवतियोँ से विवाह करके 32 सन्तानेँ पैदा जो आज अरब मेँ नौशेरा पठान के नाम से जाने जाते हैँ। उपरोक्त वर्णन से हमने भारत में कुछ विदेशी जातियों पर प्रकाश डाला जिससे हम इस निष्कर्ष पर पंहुचे है कि भारत के हर वर्ग में मध्यकाल में कुछ विदेशी जातियों का भी मिश्रण है चाहे वो शुद्र हो या ब्राह्मण | लेकिन इससे भी यह सिद्ध नही होता कि बहुत काल पहले आर्य विदेश से आये थे उपरोक्त वर्णन से यही सिद्ध हुआ है कि भारतीय लोग विदेशो में गये और वही बस गये थे फिर बाद में कुछ आक्रमणकारी भारत में आये जिनमे मुस्लिम ,अंग्रेजो को छोड़ बाकी सभी यही आर्य (हिन्दू) ,बुद्ध ,जैन आदि संस्कृति में घुल मिल गये जो कि इस देश की मूल संस्कृति थी | चुकी हमारी आदत यह हो गयी है कि जब तक कोई विदेशी हमे न कहे तब तक हम लोग मानते नही है इसलिए आर्यों के मूलनिवासी होने और आर्यों के विदेशी न होने पर कुछ पाश्चत्य विद्वानों का भी मत से आपको अवगत कराते है – पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में आर्य भारत के मूल निवासी – (१) यवन राजदूत मैगस्थ नज लिखता है -भारत अनगिनत और विभिन्न जातियों में बसा हुआ है | इनमे से एक भी मूल में विदेशी नही थी , प्रत्युत स्पष्ट ही सारी इसी देश की है | (२) नोबल पुरूस्कार विजेता विश्वविख्यात विद्वान् मैटरलिंक अपने ग्रन्थ सीक्रेट हार्ट में लिखता है ” It is now hardly to be contested that this source(of knowledge) is to be found in india.thence in all probability the sacred teaching spread into egypt,found its way to acient persia and chaldia , permeated the hebrew race and crept in greece and south of europe, finaaly reaching china and even america.” अर्थात अब यह निर्विवाद है कि विद्या का मूल स्थान भारतवर्ष में पाया जाता है और सम्भवत यह पवित्र विद्या मिश्र में फेली | मिस्र से ईरान तथा कालदिया का मार्ग पकड़ा ,यहूदी जाति को प्रभावित किया ,फिर यूनान तथा यूरोप के दक्षिण भाग में प्रविष्ट हुई ,अंत में चीन और अमेरिका पंहुची |” (३) इतिहासविद मयूर अपनी muir : original sanskrit text vol २ में कहता है ” यह निश्चित है कि संस्कृत के ग्रन्थ चाहे कितना भी पुराना हो आर्यों के विदेशी होने का कोई उलेख नही मिलता है |” (४)विश्वविख्यात एलफिन्सटन अपनी पुस्तक ” elphinston:history of india vol1 “में लिखते है “न मनुस्मृति में न वेदों में आर्यों के बाहर से आने का कोई वर्णन प्राप्त नही होता है | अब हम यही कह कर लेख समाप्त करना चाहेंगे कि आर्य कोई भी विदेशी जाति नही थी न ही सवर्णों ने विदेश से आकर यहा की संस्कृति को नष्ट किया ये सब यही के मूलनिवासी थे और आर्य एक विशेषण है जो किसी के साथ भी प्रयुक्त हो सकता है वनवासी ,शुद्र ,दलित सभी के साथ बस उसके कर्म श्रेष्ट हो रामायण में जाम्बवान ,हनुमान ,बालि ,सुग्रीव आदि वनवासी जातियों के लिए आर्य शब्द प्रयुक्त हुआ है अत: स्पष्ट है कि ये भी आर्य बन सकते है | अत: हमारा दलित भाइयो से आग्रह है कि देश की एकता के लिए इस झूट आर्यों के विदेशी होने को तियांजली दे देनी चाहिय और अपने आर्य महापुरुषों को पक्षपात रहित हो कर सम्मान देना चाहिय | संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके – (१) क्या वेदों में आर्यों और आदिवासियों का युद्ध का वर्णन है ?-श्री वेद्य रामगोपाल जी शास्त्री (२) वैदिक सम्पति- रघुनन्दन शर्मा (३) वेदार्थ भूमिका -स्वामी विद्यानंद सरस्वती (४) निरुक्त-यास्क (भाषानुवाद-भगवतदत्त जी ) (५) बौद्धमत और वैदिक धर्म-स्वामी धर्मानंद जी (६) भारतीय संस्कृति का इतिहास -प. भगवतदत्त (७) कुलियात आर्य मुसाफिर -प. लेखराम जी (८) भारतीय संस्कृति का इतिहास-स्वामी रामदेव (९) बोलो किधर जाओगे – आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी (१० ) शुद्र कौन थे – डा. भीमराव अम्बेडकर (११) आर्यों का आदिदेश -विद्यानंद सरस्वती SHARE THIS: