रविवार, 26 जुलाई 2020

ब्राह्मण बकरे के सजातीय वैश्य गाय के सजातीय क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के और शूद्र घोड़े के सजातीय है । अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन है ?


वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते॥
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥१७॥
(मैत्रेय्युपनिषत्)

सरलार्थ:-वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं; लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।।
【सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज】


कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन है कि ______________________________________________ 
प्रश्न किया श्रोता ने " यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ? मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते ? 
(ऋग्वेद▪■10/90/11 )जिस पुरुष का विधान क्या गया ? उसका कितने प्रकार कल्पना की गयी अर्थात् प्रजापति द्वारा जिस समय पुरुष विभक्त हुए तो उनको कितने भागों में विभक्त किया गया, इनके मुख ,बाहू उरु और चरण क्या कहे गये ? तो ऋषि ने उत्तरी दिया इस प्रकार 👇
 ब्राह्मणो८स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य:कृत: उरू तदस्य यदवैश्य: पद्भ्यां शूद्रो८जायत|। 
ऋग्वेद ●《10/90/11_12》 

उत्तर–इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण जाति भुजा से क्षत्रिय जाति, वैश्य जाति ऊरु से और शूद्र जाति दौनों पैरों से उत्पन्न हुई । 

पुरुष सूक्त में जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण है ।
 इस लिए यहाँ कल्पना शब्द से उत्पत्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाऐगा नकि अलंकार की कल्पना का अर्थ । क्योंकि अन्यत्र भी अकल्पयत् क्रियापद रचना करने के अर्थ में है ।
 "सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" ऋगवेद- १०/ १९१/३ अर्थात् सूर्य चन्द्र विधाता ने पूर्व कल्पना में बनाए थे वैसे ही इस कल्पना में बनाए हैं । सृष्टि उत्पत्ति के विषय में कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में वर्णन है कि 
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 प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत । 
तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम । 
ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।। 
तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।। 
मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। 
अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
 (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/४/९/)।👇 ____________________________________________ अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं । 
( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । 
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ।
 (भेढ़ क्षत्रियों की सजातीय है इन्हें भेढ़  पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। 
। इसी लिए मेढ्र कहा जाता है मेढ़े को । 
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये।उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए। 
इनकी संख्या बहुत है । 
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए। 
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।

 पीछे अनुष्टुप छन्द वैराज साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए ।
 यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है ।
 क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ।प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए। 
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 ब्राह्मण बकरे के सजातीय वैश्य गाय के सजातीय क्षत्रिय भेड़े (मेढ़ा)के और शूद्र घोड़े के सजातीय है । अब बताओ सबसे श्रेष्ठ पशु कौन है ?

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

शूद्रों और आर्य शब्द तथा मनु यम और सुर असुर ...


जिसकी दृष्टि में भय हरकतों में छल है ! 
रोहि सम्हल कर रहो  बह तुमसे प्रबल है !!

अपने भय के निवारण के लिए
करने को तुमसे वह रण के लिए 

अनुकूल अवसर की तलाश में 
तैयार है वह आपके  नाश में ...




शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति पर  एक प्रासंगिक विश्लेषण-
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भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का प्रथम अद्भुत शोध " 
यादव योगेश कुमार 'रोहि ' के द्वारा अनुसन्धानित

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भारत में वर्ण व्यवस्था के नियामक शूद्र जातीय शब्द और इस नाम से सूचित जनजाति का वह इतिवृत्त है जो इतिहास के पन्नों से भी छूटा गया है ।

विश्व-सांस्कृतिक अन्वेषणों के पश्चात् जो एक तथ्य पूर्णतः प्रमाणित हुआ है।

कि जिस वर्ण व्यवस्था को मनु का विधान कह कर रूढ़िवादी पुरोहितों द्वारा भारतीय संस्कृति के प्राणों में प्रतिष्ठित किया गया था ; 

और जिसके आधार शूद्र जनजाति के लिए दमन कारी विधान बनाकर उसे धार्मिक और ईश्वरीय परिधानों का रूप देकर भारतीय समाज पर आरोपित भी किया गया था ।
वह वर्ण व्यवस्था केवल भारतीय पुरोहितों का आविष्कार है ।

जिसका प्रादुर्भाव ईसा० पूर्व० सप्तम सदी में हुआ ।
और इस वर्ण व्यवस्था का आधार भी ईरानी समाज की वर्ग व्यवस्था थी ।

•–वर्ण और वर्ग में अन्तर रेखाऐं सुदीर्घ है ।
जहाँ वर्ग व्यवस्था केवल व्यक्ति के व्यवसाय पर अवलम्बित है ।
अर्थात् व्यक्ति अपनी रुचि और योग्यता के अनुरूप व्यवसाय या कर्म या कैरियर के अनुरूप कर्मक्षेत्र में व्यवसाय का चयन कर सकता है ।
•–वहीं वर्ण व्यवस्था को केवल जन्म और जाति या पुश्तैनी रूप मान्य किया गया ।
वर्ण-व्यवस्था ईश्वरीय विधान नहीं है ।
यह समाज के नियामक लोगों का विधान है ।
इसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है ,

प्राचीनता केवल कुछ हजार वर्ष अर्थात् ई०पू० सप्तम सदी के समकक्ष की है।
क्यों कि भारतीय पुरोहितों के यजमान देव-संस्कृति के अनुयायीयों का आगमन सुमेरियन, बैबीलॉनियन संस्कृतियों को आत्मसात् करते हुए ईरानी के रास्ते भारत में हुआ ।

ईरानी भी स्वयं को आर्य अथवा यौद्धा मानते ये असुर संस्कृति के अनुयायीयों थे ।

इन्होंने कभी भी देव-संस्कृति को सम्मान नहीं दिया ।
असुर महत् ( अहुर मज्दा) इनका परम आराध्य था ।

अवेस्ता ए जैन्द में में देव शब्द "दएव" के रूप में दुष्ट ,विधर्मी और अधम व्यक्ति का वाचक है ।
इसी प्रकार -जो सांस्कृतिक शब्द  इरानी और देव-संस्कृति के शब्दावली में संकलित हैं  उनके प्राय विपरीत अर्थ ही हैं।

लगभग 2050 से ई०पू० 1500 तक के काल खण्ड में देव संस्कृति के अनुयायी 
बाल्टिक सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में बस हुए थे ।
यही क्षेत्र स्कैनण्डिनैविया का सहवर्ती है ।

बाल्टिक  वस्तुत उत्तरीय यूरोप का ही एक सागर है ; जो लगभग सभी ओर से जमीन से घिरा है।
यहाँ भारोपीय वर्ग का भाषाऐं बोली जाती हैं ।
लिथुआनिया की भाषा और देव सूची भारतीयों के समान है ।

 इसके उत्तर में स्कैडिनेवी प्रायद्वीप है -जो स्वीडन की सीमा करता है  उत्तर-पूर्व में फ़िनलैंड, पूर्व में इस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, दक्षिण में पोलैंड तथा दक्षिण-पश्चिम में जर्मनी है।

 पश्चिम में डेनमार्क तथा छोटे द्वीप हैं जो इसे उत्तरी सागर तथा अटलांटिक महासागर से अलग करते हैं। जर्मन भाषाओं, जैसे डच, डेनिश, फ़िन्नी में इसको पूर्वी सागर (Ostsee) के नाम से जाना जाता है।

 इसमें गौरतलब है कि यह फ़िनलैंड के पश्चिम में बसा हुआ है।

यह बाल्टिक देश या बाल्टिक प्रदेश भी कहा जाता है) उन बाल्टिक क्षेत्रों को कहते हैं, जिन्हें रूसई साम्राज्य से प्रथम विश्व युद्ध के समय स्वतंत्रता मिली थी। 

इनमें मुख्यतः एस्तोनिया, लात्विया तथा लिथुआनिया आते हैं, तथा मूल रूप से स्वतंत्रता पाने के बाद सन् 1920 से फ़िनलैंड भी इनमें ही गिना जाता है।

स्कैनण्डिनैविया अब उत्तरी यूरोप महाद्वीप का एक प्रायद्वीप है, जिसमें मुख्यतः स्वीडन अथवा स्वर्की  की मुख्यभूमि, नॉर्वे की मुख्यभूमि (रूस के सीमावर्ती कुछ तटीय क्षेत्रों को छोड़कर) एवं फिनलैंड का उत्तर-पश्चिमी भाग आते हैं।

 इनके साथ साथ ही रूस के पेचेंग्स्की जिले के पश्चिम का एक संकर भाग भी इस में माना जाता है।

 इनके अलावा फिनलैंड, आइसलैंड एवं फैरो द्वीपसमूह के संग ये देश नॉर्डिक देश भी कहलाते हैं

इस प्रायद्वीप का नाम स्कैंडिनेविया, डेनमार्क, स्वीडन एवं नॉर्वे के सांस्कृतिक क्षेत्र से व्युत्पन्न किया गया है।

 इस नाम का मूल प्रायद्वीप के दक्षिणतम भाग स्कैनिया से आया है जो एक लम्बे अन्तराल से डेनमार्क के अधिकार में रहा है, किन्तु वर्तमान में स्वीडन अधिकृत क्षेत्र है ।

यहाँ के लोग मूल रूप से उत्तर जर्मनिक भाषाएं बोलते हैं जिनमें से प्रमुख भाषाएं हैं: डेनिश भाषा, नॉर्वेजियाई भाषा एवं स्वीडिश भाषा आदि  वैसे इनके अतिरिक्त फ़ारोईज़ एवं आइसलैण्डिक भाषा भी इसी समूह के अधीन आती है, 

स्कैण्डिनेवियाई प्रायद्वीप यूरोप महाद्वीप का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है एवं यह बल्कान प्रायद्वीप, आईबेरियाई प्रायद्वीप एवं इतालवी प्रायद्वीपों से भी बड़ा है।

 हिम युग के समय अंध महासागर का जलस्तर इतना गिर गया कि बाल्टिक सागर एवं फिनलैंड की खाड़ी गायब ही हो गये थे एवं उन्हें घेरे हुए वर्तमान देशों जैसे, जर्मनी, पोलैंड एवं अन्य बाल्टिक देश तथा स्कैंडिनेविया की सीमाएं सीधे-सीधे एक दूसरे से मिल गयी थीं।

ईजियन द्वीप में ई०पू० बाहरवीं  सदी में  देव संस्कृति के अनुयायी लोगों ने आयोनिया को अपना आवास बनाया । 

क्रीत या क्रीट (यूनानी: Κρήτη, क्रीति; अंग्रेज़ी: Crete, क्रीट)
जिसका संस्कृत रूप है श्रृद्धा या श्रृद् है ।

 यूनान के द्वीपों में सब से बड़ा द्वीप है और भूमध्य सागर का पाँचवा सबसे बड़ा द्वीप है।

 यह यूनान की आर्थिक व्यवस्था और यूनानी संस्कृति का बहुत महत्वपूर्ण अंग मन जाता है लेकिन इस द्वीप की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान भी है।

 आज से पाँच हज़ार साल पूर्व क्रीत "मिनोआई सभ्यता" नामक संस्कृति का केंद्र भी थी जो 2700 से 1420 ईसापूर्व के काल में फली-फूली और यूरोप की एक प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है।

श्रृद्धा और मनु ही इनके पूर्वज हैं ।
ऐसी यहाँ के लोगों की मान्यताऐं है ।

जब ईरानी और भारतीय आर्य समान रूप से एक साथ अजर-बेजान (आर्यन- आवास) में निवास कर रहे थे ।
 तब वर्ग- व्यवस्था की प्रस्तावना ईरानी लोगों ने बनायी जो यम को महत्ता देते थे न कि मनु को !

मनु शब्द तो अवेस्ता ए जैन्द में एक दो बार ही है ।
 इस लिए दौनों संस्कृतियों के अनुयायी धुर विरोधी थे ।
तब समाज में स्वेच्छापूर्वक चयनित व्यवसाय मूलक वर्ग थे  ।
न कि जाति मूलक वर्ण - ।

वर्ण व्यवस्था  अर्वाचीन है और वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था  प्राचीनत्तम।

 मैं यादव योगेश कुमार 'रोहि' वर्ण - व्यवस्था के विषय में केवल वही तथ्य उद्गृत करुँगा ..जो सर्वथा नवीन हैं ,...

 वर्ण व्यवस्था के विषय में आज जैसा आदर्श पुरोहितों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। 

वह यथार्थ मूलक नहीं और ये लोगों तो आदर्श प्रस्तुत करेंगे ही क्यों कि वर्ण व्यवस्था का विधायक ही ब्राह्मण या पुरोहित हैं ।
वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ।

कुछ तथाकथित रूढ़वादियों द्वारा वह आदर्श यथार्थ की सीमाओं में नहीं है ... 
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप स्वभाव प्रवृत्ति और कर्म गत भले ही हो !

परन्तु कालान्तरण में यह व्यवस्था जाति अर्थात् जन्म गत हो गयी शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति के रूप में मान्यता किये गये ।

आश्चर्य की बात तो यह है कि संस्कृत भाषा के वैय्याकरणों नेभी शूद्र शब्द की सम्यक् व्युपत्ति नहीं कर पायी. क्यों कि यह शब्द भारतीय की अपेक्षा यूरोपीय अधिक है ।

इस शब्द की उत्पत्ति मूलत: विदेशी है अर्थात् ये भी स्कॉटलेण्ड के निवासी तथा ड्रयूड (Druids) कबीले से सम्बद्ध है ।

 जिन्हें भारतीय पुराणों में द्रविड कहा गया ।
 और संभवत: एक पराजित जन जाति का मूल नाम था।
अब पराजित कैसे हुए यह भी एक रहस्य है । 

किसी को हराने के लिए या परास्त करने के लिए छल, बल और अक्ल में से किसी का भी सहारा लिया जा सकता है ।

क्यों जिनके पास बल और अक्ल न हो तो प्रकृति ने उन्हें छल शक्ति तो दी है ।
और चालाकी को आप बुद्धिमानी तो नहीं सकते !
और इसी चालाकी और चाल, फरेब के बल पर शूद्र जन जाति को परास्त किया गया ।

यद्यपि ज्ञान के क्षेत्र में प्राचीन विश्व में द्रविड संस्कृति सर्वोपरि व अद्वितीय थी। 

आर्यों देव संस्कृतियों के अनुयायी जिन्हें अनावश्यक रूप से आर्य बनाने की षड्यन्त्र कारी योजना बनायी गयी ।
ये देव या सुर जनजाति बहुतायत में शाखा जर्मन जाति से सम्बद्ध है;

 यह तथ्य भी प्रमाणिकता के दायरे में आ गयें हैं ।
क्यों कि स्वीडन अथवा स्वर्की का प्राचीनत्तम जनजाति स्वीयर थी जिसे भारतीय पुरोहितों ने सुर कहा ।

 परन्तु देव संस्कृतियों के अनुयायी और द्रविडों की देव सूची समान ही थी । 

यही धार आगे चलकर सुर -असुर में परिणति हुई ।
और इनके पूर्वज भी एक ही थे  ! 

अब शूद्र शब्द का पौराणिक व्युपत्ति पर बात करते हैं ।
भारतीय पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार शूद्र शब्द का व्युपत्ति पर वायुपुराण का कथन है कि
 " शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति को शूद्र कहते हैं ।
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"भविष्यपुराण में कहा गया कि " श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए" 

शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-

क्षत्रियास्तु क्षतत्राणाद्वैश्या वार्ताप्रवेशनात् ।
ये तु श्रुतेर्द्रुतिं प्राप्ताः शूद्रास्तेनेह कीर्तिताः।
(1/44/10 भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व)

             ( शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-)

शोचन्तश्व द्रवन्तश्च परिचर्यासु ये नराः ।
निस्तेजसोऽल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानब्रवीत्तु सः।२३।

(1/44/23 भविष्यपुराण ब्रह्मपर्व )

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तथैव शूद्रैः शुचिभिस्त्रिवर्णपरिचारिभिः।
पृथुरेव नमस्कार्य्यः श्रेयः परमिहेप्सुभिः।४.१२१।

इति श्रीब्राह्मे महापुराणे पृथोर्जन्ममाहात्म्यकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।। ४ ।।

तो वैदिक परम्परा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था। 

इस प्रकार के वर्णन भी मिलते हैं । 
एक परम्परा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था।

किन्तु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया। 
ये तथ्य कहाँ तक सत्य हैं कहा नहीं जा सकता है 
ये केवल काल्पनिक पुट हैं ।

शूद्र जनजाति का उल्लेख;- विश्व इतिहास कार डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।

आर्थिक स्थिति के आधार पर आकलन करें तो।
उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं ।
 इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता।

यद्यपि वर्ण-व्यवस्था में यह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था। 

ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं।

सम्भवत: इन मान्यताओं का श्रोत यहूदीयों से सम्बद्ध ईरानी परिवार की दाहिस्तान (Dagestan) में आबाद अवर (Avars) जन जाति रही  हो ।

 जो अबर लोग क़जर (Khazar) अथवा अख़जई के सहवर्ती है ।
 यद्यपि दौनो जन-जातियाँ यहूदीयों से सम्बद्ध हैं । 
भारत में जिन्हें क्रमश: आभीर और गुर्जर के रूप सहवर्ती माना ।

परन्तु जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध ब्राह्मणों से ये जन-जातियाँ भारत में पूर्वागत हैं । 

जिन्हें भारतीय पुराणों में गुर्जर और आभीर( गोप) में वर्णित किया गया है ।
कालान्तरण में गुर्जर एक संघ बन गया कई जातियों का ...
भारतीय वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों द्वारा एक आख्यान निर्मित किया गया । 
जिसमें शूद्र पादज के रूप में प्रस्तुत किये गये जो विराट पुरुष के पाद ( चरण ) से उत्पन्न हुए हों।

 वर्ण व्यवस्था,में  ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, को क्रमश मुख उरु और बाहू तथा चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा अन्य जनजाति का पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है।

 ब्राह्मण -व्यवस्था ने ये मन: कल्पित परिभाषाऐं बनायी , द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है। 
स्मृतियों में ये विधान काशी में बनाए गये ।

शूद्र शब्द का व्युत्पत्यर्थ निकालने के भारतीय पुरोहितों द्वारा जो प्रयास हुए हैं, वे अनिश्चित से लगते हैं ; 

और उनसे वर्ण की समस्या को सुलझाने में शायद ही कोई सहायता मिलती है। 

बादरायण का काल्पनिक आरोपण करके शूद्र शब्द की काल्पनिक व अव्याकरणिक व्युत्पत्ति- करने की असफल चेष्टा भी दर्शनीय है 👇

:-- सबसे पहले 'वेदान्त सूत्र' में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था।
 इसमें 'शूद्र' शब्द को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है- 'शुक्’  और ‘द्र’, शुच् और द्रु क्रियामूल या धातु हैं ।
बादरायण भी दो धातुओं से शब्द व्युपत्ति करते हैं -जो व्याकरण संगत नहीं ।

 शु का पूर्व रूप आशु जो और द्रु -जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ है, दौड़ना। 
इसकी टीका करते हुए । शंकराचार्य ने इस बात की तीन वैकल्पिक व्याख्याएँ की हैं कि जानश्रुति शूद्र क्यों कहलाया - __________________________________________ 

'वह शोक के अन्दर दौड़ गया’, - ‘वह शोक निमग्न हो गया’:--- (शुचम् अभिदुद्राव) ‘उस पर शोक दौड़ आया’, - ‘उस पर सन्ताप छा गया’ (शुचा वा अभिद्रुवे) ‘अपने शोक के मारे वह रैक्व दौड़ गया’ (शुचा वा रैक्वम् अभिदुद्राव)। 

शंकर का निष्कर्ष है कि शूद्र, शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्या करने पर ही उसे समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं।

 बादरायण द्वारा 'शूद्र' शब्द की व्युत्पत्ति और शंकर द्वारा उसकी व्याख्या दोनों ही वस्तुत: असंतोषजनक  और असंगत ही हैं। 
ये केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं । 

कहा जाता है कि शंकर ने जिस जानश्रुति का उल्लेख किया है, वह अथर्ववेद में वर्णित उत्तर - पश्चिम भारत के निवासी महावृषों पर राज्य करता था।

 यह अनिश्चित है कि वह 'शूद्र वर्ण' का था, वह या तो 'शूद्र जनजाति' का था या उत्तर-पश्चिम की किसी जाति का था, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने शूद्र के रूप में चित्रित किया है।

 पाणिनि के अनुसार पाणिनि के व्याकरण में 'उणादिसूत्र' के लेखक ने इस शब्द की ऐसी ही व्यत्पत्ति की है, जिसमें शूद्र शब्द के दो भाग किए गए हैं,।

 अर्थात् धातु 'शुच्' या( शुक्+र ) प्रत्यय ‘र’ –शूद्र परन्तु इसकी व्याख्या करना कठिन है और यह व्युत्पत्ति भी काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती है।

 पुराणों के अनुसार पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द 'शुच्' धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना।

 कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’।

 किन्तु शूद्र शब्द की ऐसी व्याख्या उसके व्युत्पत्यर्थ बताने की अपेक्षा परवर्ती काल में शूद्रों की स्थिति पर ही प्रकाश डालती है। 

ये व्युत्पत्तियाँ पूर्व - दुराग्रहों से प्रेरित अधिक हैं ।
 बौद्धों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या भी ब्राह्मणों की व्याख्या की ही तरह काल्पनिक मालूम होती है।

 क्योंकि यहाँ भी ब्राह्मण वाद का संक्रमण हो गया था बुद्ध के अनुसार जिन व्यक्तियों का आचरण आतंकपूर्ण और हीन कोटि का था वे सुद्द[कहलाने लगे और इस तरह सुद्द, संस्कृत-शूद्र शब्द रूप में है ।

 यदि मध्यकाल के बौद्ध शब्दकोश में शूद्र शब्द क्षुद्र का पर्याय बन गया,और इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि शूद्र शब्द क्षुद्र से बना है अमान्य है । 

सॉग्डियन से इसका साम्य दर्शनीय है। यद्यपि ब्राह्मणों और परवर्ती ब्राह्मण संक्रमण से ग्रसित बौद्धों की दोनों ही व्युत्पत्तियाँ भाषाविज्ञान की दृष्टि से असंतोषजनक हैं ।

 किन्तु फिर भी महत्त्वपूर्ण हैं,( क्योंकि उनसे प्राचीन काल में 'शूद्र वर्ण' के प्रति प्रचलित भारतीय ब्राह्मण समाज की धारणा का आभास मिलता है)

 समाज का प्रभाव– ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का ) पर कालान्तरण में भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की विकृति -पूर्ण परिणति जाति वाद के रूप में हुई.. ।

(ऋग्वेद में एक ऋचा है - (कारुर् अहम् ततो भिषग् उपल प्रक्षिणी नना) अर्थात् मैं करीगर हूँ पिता वैद्य और माता पीसने वाली है-
कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना ।
नानाधियोवसूयवोऽनु गा इव तस्थिमन्द्रायेन्दो परि स्रव ।।
 (ऋग्वेद 9.112.3)

मैं कारीगर हूँ , मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माता अनाज को पीसती है. हम सब इस समाज के पोषण में एक गौ की भांति अपना अपना अपना योगदान करते हैं

 यह ऋचा इस तथ्य की सूचक है , कि देव-संस्कृति के अनुयायीयों का प्रवास जब मैसॉपोटामियन संस्कृतियों के सम्पर्क में था ।
तो वर्ण-व्यवस्था न हो कर समाज 
में वर्ग-व्यवस्था ही थी ।
एक परिवार में लोग तरह तरह के कार्य करते थे ।

 मैसॉपोटामिया की पुरातन कथाओं का समायोजन ईरानी आर्यों की कथाओं से हो जाता है ।
 ये दौनों आर्य ही कालान्तरण में असुर और देव कहलाए 
यद्यपि आर्य शब्द का प्रयोग सैमेटिक असुर जनजाति के लिए हुआ है ।

 तब तक समाज में कोई वर्ण-व्यवस्था नहीं थी केवल वर्ग-व्यवस्था अवश्य थी ।

 हाँ गॉलों की ड्रयूड( Druids ) संस्कृति के चिर प्रतिद्वन्द्वी जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध आर्यों का जब भू-मध्य-रेखीय देश भारत में प्रवेश हुआ तो यहाँ गॉल जन-जाति के अन्य रूप भरत (Britons) और स्वयं गॉल जन-जाति के लोग कोेल (कोरी) पहले से रहते थे ।

और कोलों को शूद्र नाम दिया गया ।जो वस्त्रों का परम्परा गत रूप से सीवन करते थे ।
इन्हें ही शूद्र या सेवक ( सीवन करने वाला कहा गया )
संस्कृत तथा यूरोभाषाओं में सीव और शुच् दौनों धातुओं का अर्थ है सीवन करना / सिलना।
स्मृतियों में शूद्रों को दृष्टि गत रखते हुए उनके दमन के लिए विधान बनाए गये ।।

 मनु -स्मृति तथा आपस्तम्ब गृह्य शूत्रों ने भी प्रायः जाति गत वर्ण व्यवस्था का ही अनुमोदन किया है।
 इन ग्रन्थों का लेखन कार्य तो अर्वाचीन ही है ।
 प्राचीन नहीं । 

ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र सुँग के शासन काल में स्मृति-ग्रन्थों का रचना हुई ।
कभी मनु के नाम पर मनुस्मृति लिखी गयी ।

क्योंकि मनु सम्पूर्ण द्रविड और जर्मनिक जन-जातियाँ के आदि पुरुष थे ।
 वर्तमान में मनु के नाम पर ग्रन्थ मनु-स्मृति जो शूद्रों के दमन और नियन्त्रण को लक्ष्य करके योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध है ।

यह  केवल पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक रचना है । 


मनु स्मृति के कुछ अमानवीय रूप भी आलोचनीय हैं । 


मनुस्मृति में वर्णित है –
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" शक्तिनापि हि शूद्रेण न कार्यो धन सञ्चय: शूद्रो हि धनम् असाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ।। १०/१२६ 
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अर्थात् शक्ति शाली होने पर भी शूद्र के द्वारा धन सञ्चय नहीं करना चाहिए ; क्योंकि धनवान बनने पर शूद्र ब्राह्मणों को बाधा पहँचाते हैं 

 ------------------------------------------------------------------ विस्त्रब्धं ब्राह्मण: शूद्राद् द्रव्योपादाना माचरेत् । 
नहि तस्यास्ति किञ्चितस्वं भर्तृहार्य धनो हि स:।। ८/४१६
________
 अर्थात् शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक होकर से सकता है । क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है ।
उसका धन उसको स्वामी के ही अधीन होता है ----------------------------------------------------------------- 

नाम जाति ग्रहं तु एषामभिद्रोहेण कुर्वत: । 
निक्षेप्यो अयोमय: शंकुर् ज्वलन्नास्ये दशांगुल : ।।८/२१७ 

अर्थात् कोई शूद्र द्रोह (बगावत) द्वारा ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का नाम उच्चारण भी करता है तो उसके मुंह में दश अंगुल लम्बी जलती हुई कील ठोंक देनी चाहिए । ------------------------------------------------------------------- एकजातिर्द्विजातिस्तु वाचा दारुण या क्षिपन् । 
जिह्वया: प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि स:।८/२६९ 
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अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग को यदि अप शब्द बोले जाएें तो उस शूद्र की जिह्वा काट लेनी चाहिए । तुच्छ वर्ण का होने के कारण उसे यही दण्ड मिलना चाहिए । 
----------------------------------------------------------------- पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनम् अर्हति ।
 पादेन प्रहरन्कोपात् पादच्छेदनमर्हति ।।२८०। 
___________
अर्थात् शूद्र अपने जिस अंग से द्विज को मारेउसका वही अंग काटना चाहिए ।
 यदि द्विज को मानने के लिए हाथ उठाया हो अथवा लाठी तानी हो तो उसका हाथ काट देना चाहिए और क्रोध से ब्राह्मण को लात मारे तो उसका पैर काट देना चाहिए । 

-------------------------------------------------------------------

 ब्राह्मणों के द्वारा यदि कोई बड़ा अपराध होता है तो  उसका केवल मुण्डन ही दण्ड है । 
बलात्कार करने पर भी ब्राह्मण को इतना ही दण्ड शेष है  __________________________________________

 "मौण्ड्य प्राणान्तिको दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते। 
इतरेषामं तु वर्णानां दण्ड: प्राणान्तिको भवेत् ।।३७९।। 
______
न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्व पापेषु अपि स्थितम् ।
 राष्ट्राद् एनं बाहि: कुर्यात् समग्र धनमक्षतम् ।।३८०।। 

अर्थात् ब्राह्मण के सिर के बाल मुड़ा देना ही उसका प्राण दण्ड है । 
परन्तु अन्य वर्णों को प्राण दण्ड देना चाहिए ।
 सब प्रकार के पाप में रत होने पर भी ब्राह्मण का बध कभी न करें।
उसे धन सहित बिना मारे अपने देश से विकास दें । -------------------------------------------------------------------

 ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्ण की कन्याओं के साथ व्यभिचार करने को भी कर्तव्य इन स्मृति-ग्रन्थों में नियत है तथा यह विधान घोषित किया गया कि 
 :---- "उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति ।। 
शुल्कं दद्यात् सेवमानस्तु :समामिच्छेत्पिता यदि।।३६६।
______
 अर्थात् उत्तम वर्ण (ब्राह्मण)जाति के पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा से उस ब्राह्मण आदि की सेवा करने वाली कन्या को राजा कुछ भी दण्ड न करे ।

 पर उचित वर्ण की कन्या का हीन जाति के साथ जाने पर राजा उचित नियमन करे ।

 उत्तम वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला नीच वर्ण का व्यक्ति वध के योग्य है ।। 

समान वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला , यदि उस कन्या का पिता धन से सन्तुष्ट हो तो पुरुष उस कन्या से धन देकर विवाह कर ले । -------------------------------------------------------------------

 पुष्य मित्र सुंग काल का सामाजिक विधान और भी देखिए –

सह आसनं अभिप्रेप्सु: उत्कृष्टस्यापकृष्टज: ।
कटयां कृतांको निवास्य: स्फिर्च वास्यावकर्तयेत्।।२८१।।

 अवनिष्ठीवती दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेत् नृप: । 
अवमूत्रयतो मेढमवशर्धयतो गुदम् ।।२८२।। _______________________________________

 अर्थात् जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण आदि वर्णों के साथ आसन पर बैठने की इच्छा करता है; तो  राजा उसके कमर में छिद्र करके देश से निकाल दे ।

 अथवा उसके नितम्ब का मास कटवा ले राजा ब्राह्मण के ऊपर थूकने वाले अहंकारी के दौनों ओष्ठ तथा मूत्र विसर्जन करने वाला लिंग और अधोवायु करने वाला मल- द्वार भी कटवा दे 
-------------------------------------------------------------------
क्या मनु ने ये अमानवीय विधान समाज के लिए निर्धारित किए होंगे ?

 समस्या यह है कि हमारा दलित समाज मनु-स्मृति को मनु द्वारा लिखित मानता है । 

जबकि मनु का प्रादुर्भाव भारतीय धरा पर कभी  हुआ ही नहीं:-देखें ,
पद्ममपुराण में भी एसी बात है 

पद्मपुराणम्/खण्डः ७ (क्रियाखण्डः)/

अध्यायः २१

← अध्यायः २०पद्मपुराणम्/खण्डः ७ (क्रियाखण्डः)
अध्यायः २१
वेदव्यासः
अध्यायः २२ →


ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ||६|
अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन

अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरः स्मृताः ||७|


 क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने उसे मनु के नाम पर रच दिया है । 
अब इन लोगों ने राम और कृष्ण को भी ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित वर्ण व्यवस्था का पोषक वर्णित कर दिया है । 

जबकि वस्तु स्थिति इसको विपरीत है ।

 कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९६ वें सूक्त में असुर या अदेव  के रूप में वर्णित किया गया है । 
और देव संस्कृतियों के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में कृष्ण उपस्थित हैं ।

राम का वर्णन भी सुमेरियन बैबीलॉनियन दक्षणी अमेरिका  
मिश्र ईरानी ईराक तखा थाईलेण्ड ,
इण्डोनेशिया आदि में है ।

मनु के विषय में भी सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिले , किसी ने मनु को अयोध्या का आदि पुरुष कहा , तो किसी ने हिमालय का अधिवासी कहा है । ________________________________________

 ..परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं , न कि पूर्वाग्रह के -ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर " --------------------------------------------------------------

 विश्व की सभी महान संस्कृतियों में मनु का वर्णन किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है !

 परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त है ।

 इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो.. वैचारिक रूप से तो सम्यक् था ।

 परन्तु जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही था ।
... इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज ने मनु-स्मृति की रचना की ।

.. जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो । 

यह कृति पुष्यमित्र सुंग (ई०पू०१८४) के समकालिक, उसी के निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा रची गयी है । 

परन्तु मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे । 
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी । 
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
 यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।

 जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
 .. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ { Pro -Genitor }के रूप में स्वीकृत की है ! 

मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं । _______________________________________ 

वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है ।

 जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था , ।

वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् Menis संज्ञा से अभिहित था मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था , और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था ।

 मेंम्फिस... प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है । 
तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में ....मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है  

मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है , जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
 ............. और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे। 

इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेअॉनिया Maionia भी था . ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में ---
 मनु को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है।

 कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिअॉन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon)और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य विचारणीय है- ............. 

यम:---- यहाँ भी भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है ....कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था । 

स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्.गल यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं ।

 और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल.. परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था । 

जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ.. तब ... मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनकी दर्शन हुआ ।
 ... तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी .।

.. .......और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट( Crete )की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया के आर्यों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए । 

भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनु) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) का मानवीय-करण (personification) रूप है | 

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को मनु के विषय में सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिले , किसी ने मनु को अयोध्या का आदि पुरुष कहा , तो किसी ने हिमालय का अधिवासी कहा है ।
 ________________________________________ 

.परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं , न कि पूर्वाग्रह के -ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर " ------------------------------------------------ 

विश्व की सभी महान संस्कृतियों में मनु का वर्णन किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है ! 

परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त है । 

इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो.. वैचारिक रूप से तो सम्यक् था ।

 परन्तु जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही था ।
... इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज ने मनु-स्मृति की रचना की  जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो ।

 यह कृति पुष्यमित्र सुंग (ई०पू०१८४) के समकालिक, उसी के निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा रची गयी है । परन्तु... मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे । 

और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी । प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है । 
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।

 जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
 .. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ { Pro -Genitor }के रूप में स्वीकृत की है ! 

मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं । वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है । 

जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था।
 वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् Menis संज्ञा से अभिहित था मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था ।
 और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था , मेंम्फिस... प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।

 तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है। मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है , जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।

 तथा उनके पूर्वज यदु को दास कहा गया है:--
दास देव संस्कृति के विरोधी थे।
 देखें--- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी 
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे--
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं हम उन मुस्कराहठ से पूर्ण दृष्टि वाले यदु और तुर्वसु नामक दौनो दासों की सराहना करते हैं । 

वाल्मीकि-रामायण में राम के मुख से तथागत बुद्ध को चोर और नास्तिक कहलवाया गया है।

 यथा ही चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं 
नास्तिकमत्र विद्धि ।
 राम सम्बूक का वध केवल शूद्र होकर तपस्या करने पर कर देते हैं ।
 केवल पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज द्वारा बनाया गया कल्पित उपाख्यान है ।

शूद्रों की तप साधना को प्रतिबन्धित करने के लक्ष्य से -- वर्ण-व्यवस्था वस्तुत वर्ग व्यवस्था थी ।

 जो व्यक्ति के स्वेैच्छिक व्यवसाय पर आधारित थी । 
 परन्तु आर्यों की सामाजिक प्रणाली में वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव कब हुआ ?

 और कहाँ से हुआ ? काल्पनिक रूप से शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति बौद्ध काल के परवर्ती चरण में की गयी -- _______________________________________ 

जो इस प्रकार है!
 शूद्र–" शुच--रक् पृषो० चस्य दः दीर्घश्च । 
१ चतुर्थे वर्णे स्त्रियां टाप् । 
______________
सेवक शब्द का मूल अर्थ भी देखें:--- सीव्यति सिव--ण्वुल् । १ सीवनकर्त्तरि (दरजी) सेव--ण्वुल् । 
२ भृत्ये ३ दासे ४ अनुचरे च त्रि० मेदिनी कोश । यद्यपि शुच् धातु का एक अर्थ शूचिकर्मणि भी है । 
शूद्रा शूद्रजातिस्त्रियाम् । पुंयोगे ङीष् । शूद्री शूद्रभार्य्यायाम् ।
 शुचा द्रवति द्रु० ड पृषो० ।

 २ शोकहेतुकगतियुक्ते शूद्राधिकरणशब्दे दृश्यम् । 
अथ शूद्रधर्मादि “विप्राणामर्चनं नित्यं शूद्रधर्मो विधो- यते ।

 तद्द्वेषो तद्धनग्राही शूद्रश्चाण्डालतां व्रजेत् ।
 नृध्रः कोटिसहस्राणि शतजन्मानि शूकरः ।

 श्वापदः शतजन्मानि शूद्रो विप्रधनापहा ।
 यः शूद्रो ब्राह्मणी- गामो मातृगामी स पातकी ।

 कुम्भीपाके पच्यते स यावद्वै ब्रह्मणः शतम् त। 
कुम्भीपाके तप्ततैके दष्टः सर्पैर- हर्निशम् । 

शब्दञ्च विकृताकारं कुरुते यमताडनात् ।
 ततश्चाण्डालयोनिः स्यात् सप्तजन्मसु पातकी ।

 सप्त- जन्मसु सर्पश्च जलौकाः सप्तजन्मसु ।
 जन्मकोटिसहस्रञ्च विष्ठायां जायते कृमिः । 

योनिक्रिमिः पुंश्चलीनां स भवेत् सप्तजन्मसु ।
 गवां व्रणकृमिः स्याच्च पातकी सप्तजन्मसु । 
योनौ यौनौ भ्रमत्येवं न पुनर्जायते नरः” ब्रह्मवै० पु० ८३ अ० ।

 “द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्य्या सदा त्विह ।
 पादप्रक्षालनं गन्धैर्भोज्यमुच्छिष्टमात्रकम् । 

ते तु चक्रु स्तदा चैव तेभ्यो भूयः पितामहः । 
य शुश्रू- षार्थ मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः ।

 द्विजानां क्षात्त्र- वर्गाणां वैश्यानाञ्च भवद्विधाः ।
 त्रिभ्यः शुश्रूषणा कार्य्या इत्यवादीद्वचस्तदा” पाद्मे सृ० स्व० १६ अ०

 । “शुश्रूषैव द्वि- जातीनां शूद्राणां धर्मसाधनम् ।
 कारुकर्म तथाऽऽजीवः पाकयज्ञोऽपि धर्मतः” गारुड़े ४९ अ० ।

 “तथा मद्यस्य पानेन ब्राह्मणीगमनेन च । 
वेदाक्षरविचारेण शूद्रश्चा० ण्डालतां व्रजेत्” इति

 शूद्रकमलाकरधृतपराशरवाक्यम् । 
ब्राह्मणस्य तदन्नभोजननिषेधो यथा 
“शूद्रान्नं ब्राह्मणोऽश्नन् वै मामं भासार्द्धमेव वा । 
तद्योनावभिजायेत सत्यमेतद्विदुर्बुधाः ।

 अथोदरस्थशूद्राम्नो मृतः श्वा चैव जायते ।
 द्धादश दश चाष्टौ च गृध्रशूकरपुष्कराः । 
उदरस्थितशूद्रान्नो ह्यधीयानोऽपि नित्यशः । 
जुह्वन् वापि जपन् वापि गतिमूर्द्ध्वां न विन्दति । 

अमृतं ब्रा- ह्मणस्यान्नं क्षत्रियान्नं पयः स्मृतम् ।
 वैश्यस्य चान्नमे- वान्नं शूद्रान्नं रुधिरं स्मृतम् । 
तस्मात् शूद्रं न भिक्षेयु- र्यज्ञार्थं सद्द्विजातयः । 
श्मशानमिव यच्छूद्रस्तस्मात्तं परिवर्जयेत् । 
कणानामथ वा भिक्षां कुर्य्याच्चातिविक र्षितः ।

 सच्छूद्राणां गृहे कुर्वन् तत्पापेन न लिप्यते ।
 विशुद्धान्वयसंजातो निवृत्तो सद्यमांसतः । 
द्विजभक्तो बणिग्वृत्तिः शूद्रः सन् परिकीर्त्तितः” वृहत्पराशरः ।

 शूद्रकृत्यविचारणतत्त्वे मत्स्यपुराणम् “एवं शूद्रोऽपि सामान्यं वृद्धिश्राद्धन्तु सर्वदा ।
  _____________________________________ 

इस यथार्थ के धरातल पर शूद्र कौन थे ?
 तथ्य को मेेेैंने अपने अनुसन्धान का विषय बनाया है।
 ....मनस्वी पाठकों से मैं यही निवेदन करता हूँ ,हमारे इन तथ्यों की समीक्षा कर अवश्य प्रतिक्रियाऐं प्रेषित करें ...


 वर्ण व्यवस्था का वैचारिक उद्भव अपने बीज - वपन प में आज से सात हज़ार वर्ष पूर्व बाल्टिक सागर के तट- वर्ती स्थलों पर होगया था ।
 ............ 
जहाँ जर्मन के देव-संस्कृति के अनुयायीयों तथा यहीं बाल्टिक सागर के दक्षिण -पश्चिम में बसे हुए ..गोैलॉ (कोलों) .वेल्सों .ब्रिटों (व्रात्यों ) के पुरोहित ड्रयडों (Druids )के सांस्कृतिक द्वेष के रूप में हुआ था ...यह मेरे प्रबल प्रमाणों के दायरे में है.। 

प्रारम्भ में केवल दो ही वर्ण थे ! आर्य और ड्रयूड (द्रविड).जिन्हें यूरोपीयन संस्कृतियों में क्रमशः ------------------------------------------------------------

 Ehre (एर )"The honrable people in Germen tribes who fights whith Druids prophet "जर्मन भाषा में आर्य शब्द के ही इतर रूप हैं।

 Arier तथाArisch आरिष यही एरिष Arisch शब्द जर्मन भाषा की उप शाखा डच और स्वीडिस् में भी विद्यमान है।
 और दूसरा शब्द शुट्र( Shouter) है ।

 शुट्र शब्द का परवर्ती उच्चारण साउटर (Souter) शब्द के रूप में भी है, शाउटर यूरोप की धरा पर स्कॉटलेण्ड के मूल निवासी थे ।
इसी का इतर नाम आयरलेण्ड भी था| 

(Definition of souter) chiefly Scotland :shoemaker People Are Reading 'Muster' or 'Mustard': Which Gets a Pass? Trending: Kim Jong Un: 
Trump a 'Dotard' September 2017 Words of the Day Quiz Origin and 
Etymology of souter Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew — 
more at sew Souterplay biographical name Sou·ter \ ˈsü-tər \ Definition of Souter David 1939–  
'____
   American jurist Learn More about souter See words that rhyme with souter Seen and Heard What made you want to look up souter? Please tell us where you read or heard it (including the quote, if possible). 

SHOW Love words? Need even more definitions? Subscribe to America's largest dictionary and get thousands more definitions and advanced search—ad free! *syu- syū-, also sū:-, Proto-Indo-European root meaning "to bind, sew." 

It forms all or part of: accouter; couture; hymen; Kama Sutra; seam; sew; souter; souvlaki; sutra; sutile; suture. It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit sivyati सीव्यति "sews," sutram "thread, string;
" Greek hymen "thin skin, membrane," hymnos "song;" 

Latin suere "to sew, sew together;" 
Old Church Slavonic šijo "to sew," šivu "seam;"
 Lettish siuviu, siuti "to sew," siuvikis "tailor;" Russian švec "tailor;" 
Old English siwian "to stitch, sew, mend, patch, knit together .. ________________________________________

 आयर लोग आयबेरिया में थे ।
वर्तमान स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र ही था ।
 यही जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी कहलाया ।
 जिसके पश्चिम में फ्राँस की सीमाऐं है ।
 जिसे प्राचीन गॉल देश कहा जाता था ।

 शुट्र लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परम्परागत से चर्म के द्वार वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय करती थी 

 (Shouter a race who had sewed Shoes and Vestriarium..for nordic Germen tribes is called Souter or shouter .
 souter souter "maker or mender of shoes,

_______
" O.E. sutere, from L. sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (see SEW (Cf. sew)).

 souteneursouth Look at other dictionaries: Souter — is a surname, and may refer to:* Alexander Souter, Scottish biblical scholar * Brian Souter, Scottish businessman * Camille Souter, Irish painter 

* David Souter, Associate Justice of the Supreme Court of the United States * 

David Henry Souter,… …
 Wikipedia souter —

 ● souter verbe transitif (de soute) Fournir ou recevoir à bord le combustible nécessaire aux chaudières ou aux moteurs d un navire.
_______

 ⇒SOUTER, verbe trans. Souter — Sou ter, n. [AS. s?t?re, fr. It. sutor, fr. suere to sew.] A shoemaker; a cobbler. [Obs.] 

Chaucer. [1913 Webster] There is no work better than another to please God: . . . 
to wash dishes, to be a souter, or an apostle, all is one.
 Tyndale. [1913… … 
The Collaborative International Dictionary of English … 
English World dictionary Souter — 

This unusual and interesting name is of Anglo Saxon origin, and is an occupational surname for a shoemaker or a cobbler.

 The name derives from the Old English pre 7th Century word sutere , from the Latin sutor , shoemaker, a derivative of suere … 
Surnames reference souter — noun Etymology: Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew more at sew Date: before 12th century chiefly Scottish shoemaker … 

New Collegiate Dictionary Souter — biographical name David 1939 American jurist … New Collegiate Dictionary souter — /sooh teuhrdd/, n. Scot. and North Eng. a person who makes or repairs shoes; cobbler; shoemaker. 

Also, soutter. [bef. 1000; ME sutor, OE sutere < L sutor, equiv. to su , var. s. of su(ere) to SEW1 + tor TOR] * * * 

… Universalium Souter — /sooh teuhr/, , MODx. *eu-(vest)
_________
 संस्कृत भाषा में वस्त्र शब्द का विकास - इयु (उ) व का सम्प्रसारण रूप है । 

Proto-Indo-European root meaning "to dress," with extended form *wes-

 (2) "to clothe." It forms all or part of: divest; exuviae; invest; revetment; transvestite; travesty; vest; vestry; wear.

 संस्कृत भाषा में भृ धारण करना । 
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: 
Hittite washshush "garments," washanzi 
"they dress;"

🌸 Sanskrit vaste "he puts on," vasanam "garment;"

🌸 Avestan vah-; वह (वस)
 Greek esthes "clothing," hennymi "to clothe," eima "garment;"

🌸 Latin vestire "to clothe;" Welsh gwisgo, Breton gwiska;

🌸 Old English werian "to clothe, put on, cover up," wæstling "sheet, blanket." ..... ...

यूरोप की संस्कृति में वस्त्र बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे ।

 क्यों कि शीत का प्रभाव ही यहाँ अत्यधिक था...
. उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि संस्कृतियों में इन्हें सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था । 
यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है।

 यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है ।

...तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है।

जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है।
 विदित हो कि गॉथ जर्मन देव संस्कृति  का एक प्राचीन राष्ट्र है ।

 जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है । बाल्टिक सागर को स्केण्डिनेविया भी कहते हैं । 

बहुत बाद में ईसा की तीसरी शताब्दी में डेसिया राज्य में इन शुट्र लोगों ने प्रस्थान किया। 
डेसिया का समावेश इटली के अन्तर्गत हो गया !

 क्योंकि रोमन जन-जाति के यौद्धा यूरोप में सर्वत्र अपना सामाज्र्य विस्तार कर रहे थे । 

गॉथ राष्ट्र की सीमाऐं दक्षिणी फ्रान्स तथा स्पेन तक थी । रोमन सत्ता ने यहाँ भी दस्तक दी .. .. उत्तरी जर्मन में यही गॉथ लोग ज्यूटों के रूप में प्रतिष्ठित थे ।

 और भारतीय आर्यों में ये गौडों के रूप में परिलक्षित होते है; ये बातें आकस्मिक और काल्पनिक नहीं हैं , क्यों कि यूरोप में जर्मन आर्यों की बहुत सी शाखाऐं प्राचीन भारतीय गोत्र-प्रवर्तक ऋषियों के आधार पर हैं।

जैसे अंगिरस् ऋषि के आधार पर जर्मनों की ऐञ्जीलस् Angelus या Angle. जिन्हें पुर्तगालीयों ने अंग्रेज कहा था ।
 ईसा की पाँचवीं सदी में ब्रिटेन के मूल वासीयों को परास्त कर ब्रिटेन का नाम- करण इन्होंने आंग्ल -लेण्ड कर दिया था... ।
जर्मन आर्यों में गोत्र -प्रवर्तक भृगु ऋषि के वंशज (Borough)...उपाधि अब भी लगाते हैं और वशिष्ठ के वंशज बेस्त कह लाते हैं समानताओं के और भी स्तर है ।..परन्तु हमारा वर्ण्य विषय शूद्रों से ही सम्बद्ध है ।

लैटिन भाषा में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन क्रिया स्वेयर -- Suere = to sew( सीवन करना )- सिलना अथवा ,वस्त्र -वपन करना ....... विदित हो कि संस्कृत भाषा में भी शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति शुट्र शब्द के समान है 

देखें (श्वि + द्रा + क )= शूद्र .. अर्थात् श्वि धातु संज्ञा करणे में द्रा + क प्रत्यय परे करने पर शूद्र शब्द बनता है ! 

कहीं कहीं भागुरि आचार्य के मतानुसार कोश कारों ने ....शुच् = शूचि कर्मणि धातु में संज्ञा भावे रक् प्रत्यय करने पर दीर्घ भाव में इस शब्द की व्युत्पत्ति-सिद्ध की है 

...और इस शब्द का पर्याय सेवक शब्द है .......जिसका भी मूल अर्थ होता है... वस्त्रों का सीवन sewing ..करने वाला .. souter (n.)सुट्र --- "maker or mender of shoes," Old English sutere, from Latin sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (from PIE root *syu- "to bind, sew"). ----------------------------------------------------------------- विचार केवल संक्षेप में ही व्यक्त करुँगा !

 भारतीय आर्यों ने अपने आगमन काल में भारतीय धरा पर द्रविडों की शाखा कोलों को ही शूद्रों की प्रथम संज्ञा प्रदान की थी ।

....जिन्हें दक्षिण भारत में चोल .या चौर तथा चोड्र भी कहा गया था .. कोरी- जुलाहों के रूप में आज तक ये लोग वस्त्रों का परम्परागत रूप से निर्माण करते चले आरहे हैं । 
बौद्ध काल के बाद में लिपि- बद्ध ग्रन्थ पुराणों आदि में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- करने के काल्पनिक निरर्थक प्रयास भी किये गये --- जो वस्तुत असत्य ही हैं क्योंकि सत्य केवल एक रूप में होता है । 

और असत्य अनेक वैकल्पिक रूपों में होता है ।
 बौद्ध काल में भी इसी शब्द की व्युत्पत्ति- पर कोई सत्य प्रकाश नहीं पड़ता है ।

 वे शूद्र को सुद्द कहते थे .. कहीं क्षुद्र शब्द से इसका तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा की गयी .. यह बहुत ही विस्मय पूर्ण है कि यहाँ दो धातुऐं के योग से शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-की गयी है ।

 जो कि पाणिनीय व्याकरण के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है क्योंकि कृदन्त शब्द पदों की व्युत्पत्ति- एक ही धातु से होती है , 

दो धातुओं से नहीं .. संस्कृत में भी इसी शब्द का कोई व्युत्पत्ति-परक (Etymological)--प्राचीन आधार नहीं है 

 वस्तुत: ब्राह्मण समाज के लेखक इस शब्द को जो अर्थ देना चाहते हैं , वह केवल प्रचलित समाज में शूद्रों के प्रति परम्परागत मनोवृत्ति का प्रकाशन मात्र है । 

इतना ही नहीं विकृितियों की सरहद तो यहाँ पर पार हो गयी जब शूद्रों की ईश्वरीय उत्पत्ति का वैदिक सिद्धान्त भी सृजित कर लिया गया .. देखें ---- 

ब्राह्मणोsस्य मुखं आसीद् ,बाहू राजन्य:कृत: । 
उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत ।। 
____________________________ _______

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ९०वें सूक्त का १२वाँ श्लोक .. शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर के पैरों से करा कर उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया .....
 निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप कर्म नहीं था ।
 शूद्रों के लिए धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर ब्राह्मणों की पद-प्रणतिपरक दासता पूर्ण विधान पारित किये गये थे । 

कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें ... उनके पैरों के लिए जूते चप्पल बनाते रहें ... यह निश्चित रूप से ब्राह्मण की बुद्धि महत्ता नहीं था अपितु चालाकी से पूर्ण कपट और दोखा था ।
 इस कृत्य के लिए ईश्वर भी क्षमा नहीं करेंगे ... और कदाचित वो दिन अब आ चुके हैं .... 

भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था ।

 जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
 ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ण व्यवस्था में वर्गीकृत किया था ।
______
फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में भी आर्यों के इन चार वर्णों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे देखें नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार –
१ ---- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है ..

 २-----नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा 


३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा 

४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही वास्तर्योशान कहा गया है !!!! 

यही लोग द्रुज थे जिन्हे कालान्तरण में दर्जी भी कहा गया है ।
 ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी ।

 वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे । यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये ।

 विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है । 
अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्द आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है ।

 शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी ।

 पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर Souder (Soldier )कहा जाता था । व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से 
-- One tribe who serves in the Army for pay is called Souder .. वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।

 इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
 जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।
 जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है । 

फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून ... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर सजाते थे ।
 ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे । 

ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland... 

भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सादर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे । 
मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है । जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं । 

बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है ।
 यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है ।
 ये सेमेटिक जन-जाति के थे ।

 अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा । 
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।

 पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है ।
 चन्द्र शब्द नहीं वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे । 
जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ । 

मैसॉपोटामिया की असीरियन अक्काडियन हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डिय संस्कृति भी एक कणिका थी ।
 इन्हीं के सानिध्य में एमॉराइट तथा कस्साइट्स (कश या खश) जन-जातीयाँ भारत की पश्चिमोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों में प्रविष्ट हुईं ।

 महाभारत में खश जन-जातीयाँ बड़ा क्रूर तथा साहसी बताया गयीं हैं ।
 भारतीय आर्यों ने इन्हें किरात संज्ञा दी यजुर्वेद में किरातों का उल्लेख है ।

. जाति शब्द ज्ञाति का अपभ्रंश रूप है । 
ये थे तो एक ही पूर्वज की सन्तानें परन्तु इनमें परस्पर सांस्कृतिक भेद हो गये थे ।

 केल्डियनों का उल्लेख ऑल्ड- टेक्ष्टामेण्ट (Old-textament) में सृष्टि-खण्ड (Genesis) 11:28 पर है  मैसॉपोटामिया के सुमेरियन के उर नामक नगर में जहाँ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का जन्म हुआ था । 

chesed कैसेड से जो हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का भतीजा था ।
 ये लोग आज ईसाई हैं , परन्तु यह अनुमान मात्र है ।

 प्रमाणों के दायरे में नहीं है यह भेद कारक ज्ञान ही इनकी ज्ञाति थी । 
सम्भवत: ईरानी संस्कृति में इन्हें कुर्द़ कहा गया है जो अब इस्लाम के अनुयायी हैं ।

 .....इसी सन्दर्भ में तथ्य भी विचारणीय है कि ईरानी आर्यों का सानिध्य ईरान आने से पूर्व आर्यन -आवास अथवा (आर्याणाम् बीज).
 जो आजकल सॉवियत -रूस का सदस्य देश अज़र -बेजान है एक समय यहीं पर सभी आर्यों का समागम स्थल था।

.......जिनमें जर्मन आर्य ,ईरानी आर्य ,तथा भारतीय आर्य भी थे  उत्तरीय ध्रुव के पार्श्व -वर्ती स्वीडन जिसे प्राचीन नॉर्स भाषा में स्वरगे Svirge कहा गया है ।

 भारतीय आर्यों का स्वर्ग ही था । 
यूरोप में जिस प्रकार जर्मन आर्यों का सांस्कृतिक युद्ध पश्चिमी यूरोप में गोल Goal केल्ट ,वेल्स ( सिमिरी )तथा ब्रिटॉनों से निरन्तर होता रहता था. 
जिनके पुरोहित ड्रयूड Druids -थे शुट्र( Souter)भी गॉलो की शाखा थी ..वास्तव में भारत में यही जन जातियाँ क्रमशः .कोल ,किरात तथा भिल्लस् और भरत कह लायीं । 
ये भरत जन जाति भारत के उत्तरी-पूर्व जंगलों में रहने वाली थी और ये वृत्र के अनुयायी व उपासक थे .।

.. जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा (A- barta) कहा गया है । 
भारत में भी इन जन -जातियों के पुरोहित भी द्रविड ही थे यह एक अद्भुत संयोग है !

 शूद्र शब्द का प्रथम प्रयोग कोलों के लिए हुआ था इसी सन्दर्भ में आर्यों का परिचय भी स्पष्टत हो जाय :- 

 यह एक शोध - लिपि है जिसके समग्र प्रमाण :- यादव योगेश कुमार रोहि के द्वारा अनुसन्धानित है । 

अत: कोई जिज्ञासु इस विषय में इन से विचार- विश्लेषण कर सकता है । 
 भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर के अर्थ में व्यवहृत है 

 पारसीयों पवित्र धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में अनेक स्थलों पर आर्य शब्द आया है जैसे –सिरोज़ह प्रथम- के यश्त ९ पर, तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त २५ पर …अवेस्ता में आर्य शब्द का अर्थ है
 ——-€ …तीव्र वाण (Arrow ) चलाने वाला यौद्धा —यश्त ८. स्वयं ईरान शब्द आर्यन् शब्द का तद्भव रूप है .. परन्तु भारतीय आर्यों के ये चिर सांस्कृतिक प्रतिद्वन्द्वी अवश्य थे !! 

ये असुर संस्कृति के उपासक आर्य थे. देव शब्द का अर्थ इनकी भाषाओं में निम्न व दुष्ट अर्थों में है …परन्तु अग्नि के अखण्ड उपासक आर्य थे ये लोग…
 स्वयं ऋग्वेद में असुर शब्द उच्च और पूज्य अर्थों में है ।
—-जैसे वृहद् श्रुभा असुरो वर्हणा कृतः ऋग्वेद १/५४/३. 
तथा और भी महान देवता वरुण के रूप में …

त्वम् राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन पाहि .असुर त्वं अस्मान् —ऋ० १/१/७४ तथा प्रसाक्षितः असुर यामहि –ऋ० १/१५/४. ऋग्वेद में और भी बहुत से स्थल हैं जहाँ पर असुर शब्द सर्वोपरि शक्तिवान् ईश्वर का वाचक है ..

 पारसीयों ने असुर शब्द का उच्चारण अहुर के रूप में किया है ।
अतः आर्य विशेषण असुर और देव दौनो ही संस्कृतियों के उपासकों का था ।
इसे जातीय रूप में प्रतिष्ठित यूरोपीय इतिहास कारों ने किया ।
और उधर यूरोप में द्वित्तीय महा -युद्ध का महानायक ऐडोल्फ हिटलर (Adolf-Hitler) स्वयं को शुद्ध नारादिक (nordic)  कहता था  ।
और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी युद्ध ध्वजा पर अंकित करता था ।
विदित हो कि जर्मन भाषा में स्वास्तिक को हैकैन- क्रूज. (Haken-cruez ) कहते थे।
जर्मन वर्ग की भाषाओं में आर्य शब्द के बहुत से रूप हैं 
परन्तु आर्य सिद्धान्त निर्धारित है क्यों कि सैमेटिक असुरों को भी आर्य कहा गया है ।
यहूदीयों भी सैमेटिक थे ।

ऐरे (Ehere) जो कि जर्मन लोगों की एक सम्माननीय उपाधि है ..जर्मन भाषाओं में ऐह्रे (Ahere) तथा (Herr) शब्द स्वामी अथवा उच्च व्यक्तिों के वाचक थे ।

और इसी हर्र (Herr) शब्द से यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित सर ….Sir …..शब्द का विकास हुआ. और आरिश Arisch शब्द तथा आरिर् (Arier) स्वीडिश डच आदि जर्मन भाषाओं में श्रेष्ठ और वीरों का विशेषण है।

 इधर एशिया माइनर के पार्श्व वर्ती यूरोप के प्रवेश -द्वार ग्रीक अथवा आयोनियन भाषाओं में भी आर्य शब्द. …आर्च Arch तथा आर्क Arck के रूप मे है जो हिब्रू तथा अरबी भाषा में आक़ा होगया है…ग्रीक मूल का शब्द हीरों Hero भी वेरोस् अथवा वीरः शब्द का ही विकसित रूप है और वीरः शब्द स्वयं आर्य शब्द का प्रतिरूप है जर्मन वर्ग की भाषा ऐंग्लो -सेक्शन में वीर शब्द वर Wer के रूप में है ..तथा रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह वीर शब्द Vir के रूप में है।

……… ईरानी आर्यों की संस्कृति में भी वीर शब्द आर्य शब्द का विशेषण है यूरोपीय भाषाओं में भी आर्य और वीर शब्द समानार्थक रहे हैं !
….हम यह स्पष्ट करदे कि आर्य शब्द किन किन संस्कृतियों में प्रचीन काल से आज तक विद्यमान है.. लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्रान्च में…Arien तथा Aryen दौनों रूपों में …इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेन भाषाओं में यह शब्द आरियो Ario के रूप में है पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ Ariano भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen ऐरियल-ऐनन के रूप में है .

. रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में Aryika के रूप में है.. कैटालन भाषा में Ari तथा Arica दौनो रूपों में है स्वयं रूसी भाषा में आरिजक Arijec अथवा आर्यक के रूप में है

 इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में क्रमशः Ariacoi तथाAri तथा अरबी भाषा मे हिब्रू प्रभाव से म-अारि. M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में.. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी Oriyoyi रूप. 

…इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् Arice के रूप में है .वेलारूस की भाषा मेंAryeic तथा Aryika दौनों रूप में..पूरबी एशिया की जापानी कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .Aria–iin..के रूप में है ….. आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं….

 परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव आर्यों की संस्कृति से हुआ ।

उस के विषय में हम कुछ कहते हैं ।
….विदित हो कि यह समग्र तथ्य यादव  योगेश कुमार रोहि के शोधों पर आधारित हैं।

.भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ Rootnal-Mean ..आरम् धारण करने वाला वीर …..संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा ….अथवा वीरः |

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति Etymology संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन अर्थ सर्व मान्य है । १–गमन करना Togo २– मारना to kill ३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना… ..प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।

 इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कात्स्न्र्यम् धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च..परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा .अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity.यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =togo के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर Err है ।

…….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशःAraval तथा Aravalis हैं अर्थात् कृषि कार्य.सम्बन्धी …..आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य ही थे …सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था 

आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था ।

.अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी(घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे …क्यों किअब भी . संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में….

 ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है …..इसी सन्दर्भ यह तथ्य भी प्रमाणित है कि आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में प्रथम प्रकासक थे …ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है.।
—–ग्रस् +मन् प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है गृह ही ग्राम की इकाई रूप है ..जहाँ ग्रसन भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्थाऐं होती हैं।

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र:

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
 वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
 उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद  ( विश्ववजित् खण्ड अध्याय सप्तम  )

ये सरल हिन्दी व्याख्या देखें 



देवता: मरुतः ऋषि: गोेैतमो राहूगणपुत्रः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः अलंकार:  उपमा 
_______________________ ___
श्रियसे- ऊष्मा के लिए 

कम्- प्रकाश को 

भानुऽभिः-  प्रकाशकों सूर्यों द्वारा 

सम्मिमिक्षिरे।  समान सिंचित करने की इच्छा वाले 

ते- वे सब 

रश्मिऽभिः- किरण रूपी वाणों द्वारा 
ते- वे सब 

 ऋक्वऽभिः स्तुतियों के द्वारा 

 सुऽखादयः -सुखादि ।
 ते- वे सब 

 वाशीऽमन्तः- उद्घोष करते हुओं को । 
इष्मिणः -वाणों के स्वामी।
 अभीर - अहीर यौद्धा 
वः -बलवान् । 
विद्रे- केन्द्र में । 
प्रियस्य प्रिय का । 

मारुतस्य - मारुत का ।
 धाम्नः - गृहस्थान से ॥
_________________________

श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः।

जैसे सूर्य अपनी किरणों की ऊष्मा से अपनी सतुति करने वालो के लिए सुख से सिंचित करता है ..

 ते वाशीमन्त (वाश तिरश्चां शब्दे आह्वाने वशीकरणे च सकारात्मक दि० आत्मनेपदीय सेट् ऋदित् चङि न ह्रस्वः)

 । इष्मिणो (वेग शाली) अभीर( निर्भीक यौद्धा ) वो (बलवान् )विद्रे (केन्द्र में) 
इषुणा विध्यन्तिइषौ कुशलो वा  ये  अभीरव: जना: विद्रे लक्ष्ये केन्द्रे वा !

 प्रियस्य  मारुतस्य धाम्नः( प्रिय मारुत के  गृह से )  ॥
_________________________
शब्द के अर्थ ---
श्रि॒यसे _ श्रयसे (तुम ऊष्मा करते हो ) कम् _कमु
 
कान्तौ। भा॒नुऽभिः॑ रविभिः| सम् समानम् । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ (मिह् धातौ लिट्लकार प्रथम पुरूष बहुवचन रूप  )। ते अमी । र॒श्मिऽभिः॑किरणैः । ते अमी । ऋक्व॑ऽभिः स्तुतिभिः । सु॒ऽखा॒दयः॑। ते। वाशीऽमन्तः।  इ॒ष्मिणः॑ _गतिमन्तः। अभी॑र  बलवान्  _वः। वि॒द्रे_छिद्रे। प्रि॒यस्य॑। मारु॑तस्य। धाम्नः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल: प्रथम » सूक्त:87» ऋचा:6 | 
 __________________________
पदो के अर्थान्वय : - 

(भानुभिः) सूर्यों से 
(कम्) प्रकाश को 
(श्रियसे) ऊष्मा के लिये 
(ते) वे (प्रियस्य) प्रिय का (मारुतस्य) मारुत का 
(धाम्नः)  धाम से, घर से  (सम्+मिमिक्षिरे) मिमिहुः इष्णन्ति अच्छे प्रकार प्रकीर्ण सिंचन करना चाहते हैं (ते)
 (रश्मिभिः) किरणों से  (विद्रे) केन्द्रे  (ऋक्वभिः)स्तुतिभिः स्तुतियों से (सुखादयः) 
(ते) वे  (वाशीमन्तः)  उद्घोष करते हुए  (इष्मिणः)  गतिशील  वे (अभीरवः) वे अभीर निर्भय पुरुष  मारुतों के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, 
 ॥ ६ ॥

वैसे ही अभीर बलवान् यौद्धा अपने स्फूर्तिमयी वाणों से विरोधीयों को वश में करते हुए अथवा आह्वान करते हुए  होते हैं ! 

जैसे सूर्य अपनी ऊष्मामयी किरणों से अन्धकार और शीत को  
आक्रान्त करता हुआ होता है ..

यहाँ उपमा अलंकार है गुण वीरता अथवा तेज और वाचक शब्द सम है |

अभीरु मितज्ञु और एमोराइत मारुत ये जन जातियाँ प्राचीनत्तम हैं | 

जिनका वर्णन मेसोपोटामिया की सभ्यताओं मेंभी है |


____________________________
श्रियसे। कम्। भानुऽभिः। सम्। मिमिक्षिरे। ते। रश्मिऽभिः। ते। ऋक्वऽभिः। सुऽखादयः। ते। वाशीऽमन्तः। इष्मिणः। अभीर वः। विद्रे। प्रियस्य। मारुतस्य। धाम्नः ॥

जैसे सूर्य अपनी किरणों की ऊष्मा  और प्रकाश अपनी सतुति करने वालो के लिए सुख से सिंचित करता है
और अपने शत्रु  अन्धकार..और जडता को अपने किरण रूपी वाणों से डुबो देता है !
उसी प्रकार  अभीर जो बलवान् जो मरुतों के गृहस्थान से उदघोष करते हुए  गतिमान होकर वाणों को केन्द्र में सन्धान करते  हैं |
पदार्थान्वयभाषाः - (भानुभिः) सूर्यों से (कम्) प्रकाश को (श्रियसे) ऊष्मा के लिये (ते) वे (प्रियस्य) प्रिय का (मारुतस्य) मारुत का (धाम्नः)  धाम से, घर से  (सम्+मिमिक्षिरे) मिमिहुः इष्णन्ति अच्छे प्रकार प्रकीर्ण सिंचन करना चाहते हैं (ते) (रश्मिभिः) किरणों से  (विद्रे) केन्द्रे  (ऋक्वभिः)स्तुतिभिः स्तुतियों से (सुखादयः) 
(ते) वे  (वाशीमन्तः)  उद्घोष करते हुए  (इष्मिणः)  गतिशील  वे (अभीरवः) वे अभीर निर्भय पुरुष  मारुतों के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, 
 ॥ ६ ॥
_________________________
वैसे ही अभीर बलवान् यौद्धा अपने स्फूर्तिमयी वाणों से विरोधीयों को वश में करते हुए अथवा आह्वान करते हुए  होते हैं ! 
जैसे सूर्य अपनी ऊष्मामयी किरणों से अन्धकार और शीत को  
आक्रान्त करता हुआ होता है ..

यहाँ उपमा अलंकार है गुण वीरता अथवा तेज और वाचक शब्द सम है |
अभीरु मितज्ञु और एमोराइत मारुत ये जन जातियाँ प्राचीनत्तम हैं | 

जिनका वर्णन मेसोपोटामिया की सभ्यताओं में भी है |


मंगलवार, 21 जुलाई 2020

यादवों का प्राचीन इतिहास...


प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा भ्रान्त -मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह श्लोक उद्धृत करते हैं । ____________________________________ 
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७। 

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।

 अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें--- _______________________________________

 "सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:। अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
 गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०। _______________________________________

 हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
 कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया । और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! ( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें--- ______________________________________________ महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर हैं।

 आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना के स्वरूप आभीर या गोप यौद्धा ही थे । 
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के ही समान था। इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित निम्न श्लोकों से होती है ।👇

 मत्सहननं तुल्यानां,गोपानामर्बुद महत् ।
 नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107। 

सेना के यौद्धा रूप में मेरे समान अरबों की संख्या में महान संग्राम में युद्ध करने वाले गोप यौद्धा ही नारायणी सेना से अभिहित हैं ।
 नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु । 
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि 108।। 

जिनके सम्मुख देव ,दानव या कोई क्षत्रिय नहीं ठहरता है । (महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 7/18-22,में) 

जब अर्जुन और दुर्योधन दौनों विपक्षी यौद्धा युद्ध काल में कृष्ण के पास युद्ध में सहायता माँगने के लिए गये तो श्रीकृष्ण ने प्रस्तावित किया कि आप दौनों ही मेरे लिए समतुल्य(समान) हो ।

 आपकी युद्धीय स्तर पर सहायता के लिए एक ओर मेरी गोपों की नारायणी सेना होगी ! 
और दूसरी और ---मैं स्वयं नि:शस्त्र --- अब आपको जो अच्छा लगे वह मुझसे माँंगलो !
 तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप सेना को माँगा ! और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को !

 इसी सन्दर्भ में कृष्ण ने नारायणी सेना के गोप यौद्धाओं की जानकारी दुर्योधन को दी थी उसी के पुष्टि करण में ये उपर्युक्त श्लोक उद्धृत हैं । 
बात ये भी आती है कि गोपों या अहीरों ने अर्जुन को क्यों लूटा या परास्त क्यों किया था ?

 दर असल इसके कई समवेत कारण थे । 
प्रथम अर्जुन द्वारा अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का कामुकता से प्रेरित होकर अपहरण करना।

 जो नि: सन्देह महापातक था ।🎼
सुभद्रा अपहरण का प्रसंग ग्रन्थों में कुछ भिन्न भिन्न रूपों में है ।

एक बार वृष्णि संघ, भोज और अंधक वंश के लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। 

इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार संपत्ति का दान किया गया। बालक, वृद्ध और स्त्रियां सज-धजकर घूम रही थीं।

 अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। 
गंधर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे। 

गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। 
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे। वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं।

 उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगे। 
कामुकता ने उसके ज्ञान व नैतिकता को नष्ट कर दिया 


एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। 
पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की।

 ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया। जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिए। 

सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए और वहाँ सब हाल कहा।

 सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया। वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहाँ इकट्ठे होने लगे।

 सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर उनकी आंखें चढ़ गईं। उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले को उचित दंड देने का निश्चय किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। 

 बलराम ने कुपित होते हुए कृष्ण से कहा- "जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय है?

 तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। यह दुस्साहस करके उसने हमें अपमानित किया है। 
मैं यह नहीं सह सकता।"
इसी समय नारायणी सेना के यौद्धा गोपों ने अर्जुन को जघन्य दण्ड द्वेष का संकल्प बलराम के उद्घोष का समर्थन करते हुए लिया था।

श्रीमद्भागवत के उल्लेखानुसार यह प्रसंग इस प्रकार है ।

'श्रीमद्भागवत' के उल्लेखानुसार जब अर्जुन तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने सुना कि बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते हैं, किंतु कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी सहमत नहीं हैं।

 अर्जुन एक त्रिदंडी वैष्णव का रूप धारण करके द्वारका पहुँचे। बलराम ने उनका विशेष स्वागत किया।
 भोजन करते समय उन्होंने और सुभद्रा ने एक-दूसरे को देखा तथा परस्पर विवाह करने के लिए इच्छुक हो उठे। 

एक बार सुभद्रा देव-दर्शन के लिए रथ पर सवार होकर द्वारका दुर्ग से बाहर निकलीं।

 सुअवसर देखकर अर्जुन ने उनका हरण कर लिया। इस कार्य के लिए अर्जुन को कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी की सहमति पहले से ही प्राप्त थी। 
बलराम को उनके संबंधियों ने बाद में समझा-बुझाकर शांत कर दिया।

परन्तु भागवत पुराण का यह प्रकार भी समुचित नहीं क्यों की अर्जुन निश्चित रूप से अपनी ननिहाल भी गया होगा और सुभद्रा को भी उसने सम्बोधित किया होगा उसके साथ व्यवहार भी किया होगा 
क्या वह वह व्यवहार भाई - का बहिन के सदृश्य नहीं होगा ?

और जिसके साथ पहले बहिन के जैसा व्यवहार किया जाए फिर उसे ही पत्नी बताया जाय कहाँ का नैतिकता पूर्ण विधान है ।
नियोग के समान इसे भी अपरिहार्य नहीं बनाया जा सकता है ।

इसी पाप पूर्ण कृत्य के लिए भी नारायणी सेना के यौद्धा गोपों ने पञ्चनद प्रदेश में अर्जुन को परास्त किया था ।


विदित हो की हरिवंशपुराण महाभारत का खिल-भाग है।

 इस पुराणों में वसुदेव और नन्द दौनों को ही गोप अथवा अहीर कहा गया है ।

 परन्तु विचारणीय तथ्य यह भी है कि जो गोप या आभीर नारायणी सेना के यौद्धाओं में शुमार थे ।


 वे स्मृति कारों' ने शूद्र कैसे बनाये ?  नरेन्द्र सेन आभीर या गोप की कन्या वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री शूद्र क्यों नहीं हुई ?


... क्योंकि पाराशर स्मृति ,सम्वर्त स्मृति तथा मनुस्मृति आदि में गोप ,गोपाल और आभीरों को वर्ण संकर Hybrid के रूप में वर्णित करना परवर्ती पुरोहितों की मक्कारी और धूर्तता नहीं है ?


अवश्य यह मक्कारी और धूर्तता आज भी रूढ़िवादीयों अन्धविश्वाशी जनता को मान्य है ।

 जिन्हें यादव समाज कभी क्षमा नहीं करेगा ! 


 नारायणी सेना के यौद्धाओं का वर्णन कहीं गोप रूप में है ;तो कहीं यादव और कहीं आभीर जैसे महाभारत के मूसल पर्व अष्टम अध्याय श्लोकांश 47 में आभीर के रूप में है । 


तो भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय के श्लोक संख्या 20 में गोप रूप में !


 विदित हो कि नारायणी सेना के गोपों ने अर्जुन को सेना सहित पंजाब (पञ्चनद प्रदेश) में परास्त कर दिया था ।


अर्जुन को केवल नारायणी सेना के गोप यौद्धा ही उसे समय परास्त कर सकते थे ।

और किसी की सामर्थ्य कहाँ थी ।

अर्जुन के पूर्वज कौरव पाण्डव पुरवंशी थे विदित हो की पुरु यदु का भाई था ? 


नारायणी सेना के यौद्धाओं द्वारा अर्जुन को परास्त करने की बात महाभारत में है ।

 

महाभारत के मूसलपर्व अष्टम अध्याय के श्लोक 47 में आभीर रूप में तो है ही । '


परन्तु परवर्ती रूपान्तरण होने से प्रस्तुति-करण गलत है क्योंकि कि द्वेषवादी पुरोहितों 'ने अर्जुन द्वारा सुभद्रा अपहरण और दुर्योधन की पक्षधर नारायणी सेना के यौद्धाओं और अर्जुन की प्राचीन शत्रुता के मूलकारण वाले प्रकरण को तिरोहित (गायब) ही कर दिया 

और यदुवंशी तथा अहीर या गोपों को अलग दिखाने की कोशिश की है । 

-स्मृतियों के काल में यह ज्यादा ही हुई ।

गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे ही गोप ,अहीर नामान्तरण से भी थे ।


 अर्जुन से नारायणी सेना के यौद्धाओं की शत्रुता के एक नहीं अपितु कई समन्वित कारण थे ।


 ये तो महाभारत और अन्य पुराणों में ध्वनित होता ही है 

 एक घटना अर्जुन द्वारा अपने सगे मामा की लड़की- अर्थात्‌ ममेरी बहिन सुभद्रा का काम-मोहित होकर कपट पूर्वक अपहरण करना था ।


अर्जुन का उस काल में यह सबसे बड़ा व्यभिचार पूर्ण कार्य था ।


 मातुल (मामा)वैसे भी माँ के तुल(समान) पालन करने वाला होने से ही मातुल संज्ञा का अधिकारी हुआ।

और  मामा की पुत्री बहिन ही है ।


 और अर्जुन' का  अपने मामा वसुदेव की पुत्री सुभद्रा का अपहरण कर उसके साथ विवाह करना यह कारनामा कभी नैतिक मर्यादाओं में समाहित नहीं था ।

क्यों स्मृतियों मे भी वर्णन है कि मामा की सात पुश्तों में ही वैवाहिक सम्बन्ध सम्भव हैं ।


'परन्तु जिसे अर्जुन बहन मानता हो और उसे ही कामुक होकर अपहरण कर ले ।
तो यह बात कभी भी धर्म संगत नहीं ।


 (मा तुल)– माँ के तुल्य संस्कृत भाषा में मातुल शब्द की व्युत्पत्ति – मातुर्भ्राता मातृ--डुलच् । १ मातुर्भ्रातरि अमरःकोश २ तत्पत्न्यां वा ङीष् वा आनुक् च । मातुलानी मातुली मातुला च । 
_________

मद मूलक धतूरे की व्युत्पत्ति में 

मद् उन्मत्ते मद--णिच्--उलच् पृषो० दस्य तः ।

 (माद् उलच् )३ धुस्तूरे ४ व्रीहिभेदे ५ मदनवृक्षे च मेदिनीकोश । 

६ सर्पभेदे हेमचन्द्र-कोश ।

 विदित हो कि अर्जुन ऐसी कई नैतिक गलतीयाँ कर चुका था । शास्त्रों में ये विधान भी थे ।👇 

"मातुलानीं सनाभिञ्च मातुलस्यात्मजां स्नुषाम् । 
एता गत्वा स्त्रियो मोहान् पराकेश विशुध्यति ।।157।


 (सम्वर्त स्मृति )

 मामी ,सनाभि ,मामा की पुत्री अथवा उसकी पुत्र वधू इनके साथ जो व्यक्ति लुब्ध या मोहित होकर मैथुन करता है तो वह पराक नामक प्रायश्चित से शुद्ध होता है यह महापाप है ।

 शास्त्रों में ये प्रायश्चित विधान सामाजिक व्यवस्थाओं के उन्नयन के लिए नैतिक रूप से बनाये गये थे । 

ताकि समाज पापोन्मुख न हो । आपको ये भी याद होगा की अर्जुन 'ने अपने मामा वसुदेव की कन्या और अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का अपहरण काम मोहित होकर ही किया था ।


 उसकी नैतिकता और धर्म मर्यादाओं का नाश हो गया था इसीलिउसने अपनी ममेरी बहिन के साथ ये हरकत कर डाली वह भी कपटपूर्वक नारायणी सेना के यौद्धाओं अर्थात्‌ अहीरों या गोपों'ने अर्जुन को पंजाब प्रदेश में तब और बुरी तरह परास्त कर दिया था ।


जब वह कृष्ण के कुल की यदुवंशी स्त्रीयो गोपियों को अपने ही साथ इन्द्र -प्रस्थ ले जा रहा था । 

इसी कहीं गोप तो कहीं अहीर शब्दों के द्वारा अर्जुन को परास्त करने वाला बताया गया पुराणों में । 

और दूसरा समर्थित कारण नारायणी सेना का दुर्योधन का पक्ष धर होना । 
गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया था ! 
यही कारण था कि गोपों ने प्रभास के दौरान पञ्चनद क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट किया था । 

लूटा क्या था एक स्त्रीयों के लुटेरा को ही रोककर उससे अपने यदुवंश की विधवा ,बालिका और छोटे बालकों को अर्जुन के ल़साथ जाने से रोका । 

क्यों वे अर्जुन के कामुकता पूर्ण चरित्र से परिचित थे । 
और फिर अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को परास्त करने वाले या स्वयं श्रीकृष्ण की स्त्रीयों को लूटने या अपने साथ ले जाने वाले साधारण लुटेरे कैसे ह सकते हैं ? 

अर्जुन नारायणी सेना के गोपों का चिर शत्रु था ।
 और नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन को पक्ष में थे । 
और यादव अथवा अहीर किसी को साथ विश्वास घात नहीं करते थे इसी लिए अर्जुन को परास्त करने वाले हुए __________________________________________

 गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60/41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की सुनने और गायन करने से मनुष्यों को सब पार नष्ट हो जाते हैं । महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा भी नारायणी सेना के यौद्धा गोपों क वर्णन है ।

 परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित भी करता है ।
 गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
 जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास पृष्ठ संख्या 368 पर भी वर्णित है ।

 _______

 अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
 प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।101 

यादवा: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे : 
मुक्ति यदूनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102। 

हाथों में अस्त्र और धनुष धारण करने वाले संग्राम में सब के सम्मुख रहकर प्रारम्भ में ही जिनके द्वारा विजय प्राप्त कर ली जाता है वे यौद्धा गोप कहे जाते हैं ।

 यादव शिरोमणि श्रीकृष्ण जो गोलोक में उत्पन्न हुए उन हरि और उनके सहायक यादव गोपों के चरित्र का श्रवण करता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । _________________

 बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया.....

 फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये.... 

ये विरोधाभासी बातें सत्य से परे हैं ।

किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: 
आभीर शका यवना खशादय :।
 येऽन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया
 शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:। 
(श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८)

 ------------------------------------
 अर्थात् किरात हूण पुलिन्द पुलकस तथा आभीर शक यवन ( यूनानी) खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जाति यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ।

 उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है। 
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ यद्यपि अन्यत्र एक विद्वान रूप गोस्वामी ने अपने ग्रन्थ "श्रीश्रीराधाकृष्ण गण उद्देश दीपिका" में लिखा कि 👇 _______________________________________ पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गर्जरास्तथा ।
 गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

 भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं । इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।। 
_____________________________________ 

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
 अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८। 

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं । 
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।। __________________________________________
 आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
 आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
 घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

 भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं । 
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।। ___________________________________________ किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
 गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०। 

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं ये प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०। 

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्यों की समीक्षा की जाए तो निष्कर्ष यही निकता है कि अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र क्यों हैं ?

 और जिस वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म एक नरेन्द्र सेन अहीर की पुत्री के रूप में हुई हो ।
 जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता हो वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है । 

फिर अहीरों को शूद्र घोषित करना मूढ मान्यता ही है ये आभीरों के विरुद्ध बातें प्राचीनत्तम शास्त्रों के द्वारा सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं। 

क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड ,अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं ।
 जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

 जब शास्त्रों में ही ये बातें हैं कि गायत्री आभीरों कन्या हैं तोे फिर अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार मूढ पुरोहितों के विधान में अहीर शूद्र और वैश्य हुए । 

वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व ही सत्य संगत नहीं हो तो उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

 इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं है ।
क्यों कि एक ब्राह्मण विद्वान लेखक ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ "जाति-भाष्कर" में आभीरों को ब्राह्मण भी लिखते हैं । 

परन्तु नारायणी सेना के ये अजेय यौद्धा आभीर या गोप जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।

 क्या मूर्ख पुरोहितों के करने से ही शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे ।
 ये आभीर या गोप जो सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले हैं – वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे ?

 किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ? हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

 यादव अपने विधानों के स्वयं विधायक है ।
 इसी लिए यादवों ने रूढ़िवादी पुरोहितों की वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।

 परिणाम स्वरूप यादवों ने मानवका की समताओं को जीवन्त रखने वाले भागवत धर्म की स्थापना की । 
जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी । 

(प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219) 

कुछ लोग बार बार अज्ञानता के मद में उन्मत्त होकर ये बड़बड़ाते हैं कि गोप अहीरों से पृथक् है, या गोप यादवों से पृथक् हैं । 
परन्तु यह मूर्खों का प्रलाप ही है ।

 हम महा भारत से ही सिद्ध करते हैं कि गोप ही यादव हैं क्यों कि यादव वंशमूलक विशेषण और गोप व्यवसाय मूलक विशेषण है । अब महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है।

 और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था। एेसा वर्णन है । प्रथम दृष्टवा तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है । ________________________________________

 "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । 
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१। 

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा । 
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२। 

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३। 

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। 
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४। 

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
 गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५। 

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:। 
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६। 

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। २७।
 गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- 
अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय। ________________________________________

 अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। तथा कहा ।२१। 

कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया । 
उस पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३। 

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । 

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।

 मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है । 
उसी पर पापी कंस के अधीन होकर गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।

 (उद्धृत सन्दर्भ --------) पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है । _________________________________________

 गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् । 
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९। 

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९। __________________________________________

 हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .. गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)
 अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।

 अब द्वेष वश स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
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 क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: । 
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:।
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 अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।

 और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... व्यास-स्मृति प्रथम अध्याय में वर्णित है कि.. __________________________________________ 
वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
 वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: ।

एते चान्ये च बहव शूद्रा भिन्न: स्व कर्मभि: ।
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।

 एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:।
 एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
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 वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं ।
 इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।

 ____________________________ 

अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:
 नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। 

शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
 धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। 
( प्रथम अध्याय व्यास-स्मृति) 
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
 जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________

 (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) -------------------------------------------------------------- 

स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
 देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________

 वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
 पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________ 


अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । -------------------------------------------------------------- 

निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
 जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है । 
ये सारी हास्यास्पद व विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों की हैं।
 समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करने में इनके आडम्बरीय रूप का ही योगदान है । 
तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं । 
राम चरित मानस के युद्ध काण्ड में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में अहीरों के वध करने के लिए राम को दिया गया समुद्र सुझाव - तुलसी दास ने वाल्मीकि-रामायण को उपजीव्य मान कर ही राम चरित मानस की रचना की है । 

रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि " आभीर, यवन, ।
 किरात ,खस, स्वपचादि अति अधरुपजे। 
अर्थात् अहीर, यूनानी बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयो को हे प्रभु तुम मार दो वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर इसी का मूल विद्यमान है देखें--- 

महाभारत यद्यपि किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है।
 जिन ब्राह्मणों ने महाभारत का लेखन किया निश्चित रूप से वे यादव विरोधी थे। 
उन्होंने यादवों के प्रधान विशेषण आभीर शब्द की प्रस्तुति दस्यु अथवा शूद्र रूप में की परन्तु नकारात्मक रूप में अथवा यह भी अर्थ है कि आभीर शूद्रों के सहवर्ती थे । 

शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् ।
 वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिन: ।।१०। 

महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व३२वाँ अध्याय में वर्णित किया गया है कि सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र आभीर गण थे और उनके साथ मत्स्यजीवी धीवर जाति के लोग भी रहते थेे। 

तथा पर्वतों पर निवास करने वाले जो दूसरे दूसरे मनुष्य थे सब नकुल ने जीत लिए। परन्तु ये वर्णन काल्पनिक ही हैं _____________________________________
 इन्द्र कृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखै: । 
समुद्रनिष्कुटे जाता: पारेसिन्धु च मानवा:।११। 

तो वैरामा : पारदाश्च आभीरा : कितवै: सह ।
 विविधं बलिमादाय रत्नानि विधानि च।१२।
 महाभारत के सभा पर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व ५१वाँ अध्याय में वर्णित है कि - अर्थात् जो समु्द्र तटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्धु के उस पार रहते हैं। वर्षा द्वारा इन्द्र के पैंदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न धान्यों द्वारा निर्वाह करते हैं ।

 वे वैराम ,पारद, आभीर ,तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भेंट सामग्री बकरी भेड़ गाय सुवर्ण ऊँट फल तैयार किया हुआ मधु लि बाहर खड़े हुए हैं । __________________________________________ चीनञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिन: ।२३
 वार्ष्णेयान् हार हूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा ।

 नीपानूपानधिगतान्विविधान् द्वारा वारितान् ।२४।
 अर्थात् चीन शक ओड्र वनवासी बर्बर तथा वृष्णि वंशी वार्ष्णेय, हार, हूण , और कृष्ण भी हिमालय प्रदेशों के समीप और अनूप देशों से अनेक राजा भेंट देने के लिए आये ।

 वस्तुत यहाँ वार्ष्णेय शब्द यदुवंशी वृष्णि की सन्तानों के लिए है । __________________________________________ वाल्मीकि रामायण में अब अहीरों को समुद्र के करने पर राम द्रुमकुल्य देश में माने का उपक्रम करते हैं. 
समुद्र राम से निवेदन करता है ! हे प्रभु आप अपने अमोघ वाण उत्तर दिशा में रहने वाले अहीरों पर छोड़ दे-- और उन अहीरों को नष्ट कर दें.. जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।

 और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ वाण से त्रेता युग-- में ही मार देते हैं । 
परन्तु अहीर आज भी कलियुग में जिन्दा होकर ब्राह्मण और राजपूतों की नाक में दम किये हुए हैं ।

 उनके मारने में रामबाण भी चूक गया । 
निश्चित रूप से यादवों (अहीरों) विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
 कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ................ 

जड़ समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है जिनमें चेतना नहीं हैं फिर भी ।
 ब्राह्मणों ने राम को भी अहीरों का हत्यारा' बना दिया । और हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही मान रहे हैं। 
भला हो हमारी बुद्धि का जिसको मनन रहित श्रृद्धा (आस्था) ने दबा दिया । और मन गुलाम हो गया पूर्ण रूपेण अन्धभक्ति का ! आश्चर्य ! घोर आश्चर्य ! _____________________________________ " उत्तरेणावकाशो$स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम ।
 द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।

 उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: । 
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।।

 तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: । 
अमोघ क्रियतां रामो$यं तत्र शरोत्तम: ।।३४।। 

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: । 
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।। 
(वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग) __________________________________________ 

अर्थात् समुद्र राम से बोल प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं । 
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२। 
वहाँ अाभीर आदि जातियों के बहुत सेमनुष्य निवास करते हैं । जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ।
सबके सब पापी और लुटेरे हैं । 
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३। 

उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है । इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ । हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।

 महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३५। ________________________________________ 

निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है ।

 ताकि इन पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
 इन ब्राह्मणों का जैनेटिक सिष्टम ही कपट से मय है । जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है । 

अब ब्राह्मण सब तो कपटी नहीं होते परन्तु जो ब्राह्मण साधना हीन हते हैं वे ही नकली ब्राह्मण द्वेष और प्रमाद के वशीभूत होते हैं । क्योंकि चालाकी कभी बुद्धिमानी नहीं हो सकती है ; चालाकी में चाल ( छल) सक्रिय रहता है ।

 कपट सक्रिय रहता है और बुद्धि मानी में निश्छलता का भाव प्रधान है। आइए अब पद्म पुराण में अहीरों के विषय में क्या लिखा है देखें--- 
__________________________________________

 पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है । _________________________________________

 " स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व 
, सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
 आभीरः कन्या रूपाद्या , 
सुनासा चारू लोचना ।७। 

न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
 वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८।
 _________________________________________ 

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।७।
 उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी। इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।८।
 _________________________________________ 
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
 एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
 पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है ।

 अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
 देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
 गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९। १८४।
 श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
 अग्निपुराण और नान्दी-उपपुराण आदि में भी गायत्री आभीर कन्या हैं। आभीरों गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है । 

और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । ________________________________________ 

" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४। ________________________________________

 वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री का है ।
 आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम् अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ।४०।।
 एतत्पुनर्महादुःखं यदाभीरा विगर्दिता वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ।५४। 

आभीरीति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः इति श्रीवह्निपुराणे नांदीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः """"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""" ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
 अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक-- इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है । वह भी दास अथवा असुर रूप में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।

 परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं । ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। वह भी गोपों को रूप में _________________________________________

 " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं । 

यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। गो-पालक ही गोप होते हैं ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । ____________________________________

 प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:।
 नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
 (ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) ________________________________________

 हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो । 
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८) 
ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
 और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो । _______________________________________

 और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।

... देखें--- अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । 
अवाहन् नवतीर्नव ।१। 

पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , 
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। 

(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । 
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
 सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
 यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
 सुमेरियन मिथकों में उदु नाम यदु के लिए है । असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । 
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी ____________________________________

 सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । 
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७) _______________________________________

 हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला । 
अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । 
निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । ________________________________________ 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: 
शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ 

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । 
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो । 
_______________________________________

 यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे । यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
 अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति । 
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है । 
उदु रूव में ...

ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। 
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है । यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )। 
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें---ऋग्वेद में ________________________________________ 

शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे । 
राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा
 दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।

 उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।

 यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६ ______________________________________ 

यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है । 
ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
 सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है ।
 ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है ।

 जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है। पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।

 "यह समग्र शोध श्रृंखला यादव योगेश कुमार ''रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है " ________________________________________

 ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं । ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

 उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) 
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं । 
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है । 

🐂जो अहीरों का वाचक है । 
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है । उसमें अहीरों के अन्य नाम- पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं। 

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य,३-गोधुक्,४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द,७-गोप (2।9।57।2।5 अमरकोशः) कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥

 पत्नी : आभीरी सेवक : गोपग्रामः वृत्ति : गौः गवां-स्वामिः गायों का स्वामी । कुछ लोग कहते हैं कि गोप अलग होते हैं यादवों से तो ये भी भ्रमात्मक जानकारी है। महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण स्पष्टत: गोपों को यादव कहता है । 

देखें--- " जित्वा गोपाल दायादं गत्वा यादवा कान्बहूनन्।
 एष न: प्रथम: कल्पो जेष्याम् इति यादवान् ।२७। 

अर्थात् हंस नाम का एक राजा कहता है --कृष्ण के सन्देश वाहक सात्यकि से -- मैं प्रतिज्ञा करता हूँ ।
कि इस कृष्ण गोप को उसके सहायकों सहित बाँध कर यादवों के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को जीत लुँगा ।२७। 
हरिवंश पुराण " सात्यकि का हंस के समक्ष भाषण" नामक ७८वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ४०४ ( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) ________________________________________ 

और यदि पुराणों की बात करें; तो महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप रूप में वर्णित किया गया है ।
 यह तथ्य पूर्व में वर्णित किया गया है ।
 पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) अब वसुदेव को गोप कहा यह देखें--- नीचे ________________________________________ 

एक समय महात्मा वरुण के पास कुछ यज्ञ- काल के लिए दूध देने योग्य कुछ योग्य गायें थी । 
एक वार प्रजापति भगवान् कश्यप उन गायों को महात्मा वरुण से माँग कर ले गये ।
 तो कश्यप की भार्याओं अदिति और सुरभि ने गायें वरुण को लोटाने में अनिच्छा प्रकट की ।१०-११। तब ब्रह्मा जी ने विष्णु से कहा कि तब एक वार वरुण मेरे पास आकर तथा मुझे प्रणाम करके बोले भगवन् ! मेरी समस्त गायें मेरे पिता भगवान् कश्यप ने ले ली हैं ।यद्यपि उनका कार्य सम्पन्न हो चुका है । 
किन्तु उन्होंने मेरी गायें नहीं लौटायीं हैं । 

और अपनी दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि का समर्थन कर रहे हैं । हे पितामह ब्रह्मा चाहें कोई स्वामी हो , या गुरू हो अथवा कोई भी क्यों न हो । 
सभी को निर्धारित सीमा का उल्लंघन कने पर आप दण्डित अवश्य करते हो ! आपके अतिरिक्त मेरा कोई सहायक नहीं है ।
क्यों कि आप ही मेरे अत्यन्त हितैषी हो । 
यदि इस जगत् में अपराधी अपने अपराध के लिए नियमित रूप से दण्डित न हो ! तो इस समस्त संसार में अव्यवस्था उत्पन्न होकर संसार का विनाश हो जाएग तथा इसकी मर्यादा-भंग हो जाएगी ।१६-१७। हे ब्रह्मन् इस सन्दर्भ में और कुछ नहीं कहना चाहता हूँ , केवल अपनी गायें वापस चाहता हूँ। तथा संस्कृत में कुछ विशेष तथ्य देखें--- ________________________________________ "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१ येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा । स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२ द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३ ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४ वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५। तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:। तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६। देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। ________________________________________ अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। तथा कहा ।२१। कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया । उस पाप के प्रभाव वश होकर भूमण्डल पर आहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेना करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है । उसी पर पापा कंस के अधीन होकर गोकुल पर राजंय कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ ) पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ट संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) _________________________________________ यह तथ्य भी प्रमाणित ही है ; कि ऋग्वेद का रचना काल ई०पू० १५०० के समकक्ष है । ऋग्वेद में कृष्ण को इन्द्र से युद्ध करने एक अदेव ( असुर) के रूप में वर्णित किया गया है। जो यमुना नदी ( अंशुमती नदी) के तट पर गोवर्धन पर्वत की उपत्यका में कहता है । अर्थात् ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या ९६ के श्लोक १३, १४,१५, पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ।" _______________________________________ " आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त। द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि।। वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।। अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या (अदेव ईरभ्यां) चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।। १५।। _______________________________________ अर्थात् कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार गोपों के साथ निवास करता है ,उसे अपनी बुद्धि-बल से इन्द्र ने खोज लिया है ! और उसकी सम्पूर्ण सेना (गोप मण्डली) को इन्द्र ने नष्ट कर दिया है । आगे इन्द्र कहता है :--कृष्ण को मैंने देख लिया है ,जो यमुना नदी के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है । यहाँ कृष्ण के लिए अदेव विशेषण है अर्थात् जो देव नहीं है __________________________________________ "कृष्ण के पूर्वज यदु को वेदों में पहले ही शूद्र घोषित कर दिया " तो कृष्ण भी शूद्र हुए ऋग्वेद में तो कृष्ण को असुर कहा ही है । क्योंकि वैदिक सन्दर्भों में जो दास अथवा असुर कहे गये हैं । लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है। मनु-स्मृति का यह श्लोक इस तथ्य को प्रमाणित करता है । जो पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक निर्मित कृति है । ______________________________________ 
शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता भूभुज: भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत् ।। 

अर्थात् विप्र (ब्राह्मण) के वाचक शब्द शर्मा तथा देव हों, तथा क्षत्रिय के वाचक वर्मा तथा त्राता हों । और वैश्य के वाचक भूति अथवा दत्त हों तथा दास शूद्र का वाचक हो । हरिवंश पुराण में भी इन्द्र ने कृष्ण को शूद्र कह कर सम्बोधित किया है देखें---प्रमाण -- 
" तं वीक्ष्यं बालं महता तेजसा दीप्तमव्ययम् । 
गोप वेषधरं विष्णु प्रीति लेभे पुरन्दर: ।४। 

त साम्युजलद श्याम कृष्ण श्रीवत्स लक्षणम् । पर्याप्तनयन: शूद्र सर्व नेत्रैर् उदक्षत् ।५। 

दृष्टवा च एनं श्रिया जुष्टं मर्त्यलोके८मरोपमम्।
 शूपविष्टं शिला पृष्ठे शक्र स ब्रीडितो८भवत् ।६।

 अर्थात्:- जल युक्त मेघ के समान काले शूद्र कृष्ण को इन्द्र अपने हजारों नेत्रों से देखा जो हृदय पर श्रीवत्स लक्षणम् धारण किये हुए था ।४-५।
 पृथ्वी के एक शिला खण्ड पर विराजमान उस तेजस्वी बालकी शोभा देकर इन्द्र बड़ा लज्जित हुआ ।६। हरिवंश पुराण "श्रीकृष्ण का गोविन्द पद पर अभिषेक नामक ४९वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ३१४ सम्पादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य ( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) __________________________________________ कृष्ण का सम्बन्ध मधु नामक असुर से स्थापित कर दिया है । और यादव और माधव पर्याय रूप में हैं । यादवों में मधु एक प्रतापी शासक माना जाता है । यह इक्ष्वाकु वंशी राजा दिलीप द्वितीय का अथवा उसके उत्तराधिकारी दीर्घबाहु का समकालीन रहा है , मधु के गुजरात से लेकर यमुना तट तक के स्वामी होने का वर्णन है । 
प्राय: मधु को `असुर`, दैत्य, दानव आदि कहा गया है । साथ ही यह भी है कि मधु बड़ा धार्मिक एवं न्यायप्रिय शासक था । मधु की स्त्री का नाम कुंभीनसी था, जिससे लवण का जन्म हुआ । 
लवण बड़ा होने पर लोगों को अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाने लगा । लवण को अत्याचारी राजा कहा गया है । इस पर दु:खी होकर कुछ ऋषियों ने अयोध्या जाकर श्री राम से सब बातें बताई और उनसे प्रार्थना की कि लवण के अत्याचारों से लोगों को शीघ्र छुटकारा दिलाया जाय । अन्त में श्रीराम ने शत्रुघ्न को मधुपुर जाने की आज्ञा दी लवण को मार कर शत्रुघ्न ने उसके प्रदेश पर अपना अधिकार किया । 
पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण के अनुसार मधु के नाम पर मधुपुर या मधुपुरी नगर यमुना तट पर बसाया गया । यद्यपि अवान्तर काल में पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने वाल्मीकि-रामायण में बहुत सी काल्पनिक व विरोधाभासी कथाओं का समायोजन भी कर दिया ।
 अत: रामायण मे राम का कम मिलाबटराम का अधिक वर्णन है। फिर वाल्मीकि-रामायण के आधार पर यादवों के प्रति ब्राह्मणों की भावना परिलक्षित होती है । वाल्मीकि-रामायण में वर्णन है कि इसके मथुरा के आसपास का घना वन `मधुवन` कहलाता था । मधु को लीला नामक असुर का ज्येष्ठ पुत्र लिखा है और उसे बड़ा धर्मात्मा, बुद्धिमान और परोपकारी राजा कहा गया है । मधु ने शिव की तपस्या कर उनसे एक अमोघ त्रिशूल प्राप्त किया ।
 निश्चय ही लवण एक शक्तिशाली शासक था । किन्तु श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी के मतानुसार 'चन्द्रवंश की 61 वीं पीढ़ी में हुआ उक्त 'मधु' तथा लवण-पिता 'मधु' एक ही थे अथवा नही, यह विवादास्पद है । परन्तु एक स्थान पर यदु का पुत्र मधु वर्णित है ।जिसने असुर संस्कृति का प्रसार किया । अस्तु ! यद्यपि यदु दो हैं हर्यश्व पुत्र यदु जो मधुवती के गर्भ से उत्पन्न होते हैं मधु असुर जिनके नाना हैं । परन्तु पुराणों में यह भी बताया गया कि ययाति पुत्र यदु ही योगेश बल से मधुवती के गर्भ में प्रवेश कर गये । ऐतिहासिक प्रणाम साक्षी हैं कि यहूदीयों का असीरियन जन-जाति से सेमेटिक होने से सजातीय सम्बन्ध है । अत: दौनो सोम अथवा साम वंशी हैं । अत: यादवों से असुरों के जातीय सम्बन्ध हैं । असीरियन जन-जाति को ही भारतीय पुराणों में असुर कहा है । जिन्हें भारतीय पुराणों में असुर कहा गया है वह यहूदीयों के सहवर्ती तथा सजातीय असीरियन लोग हैं । साम अथवा सोम शब्द हिब्रू एवं संस्कृत भाषा में समान अर्थक हैं । जिसके आधार पर सोम वंश की अवधारणा की गयी जिसे भारतीय पुराणों में चन्द्र से जोड़ कर काल्पनिक पुट दिया गया है । यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोध पर आधारित असुरों का मैसॉपोटमिया की पुरातन कथाओं में एक परिचय :- थेसिस ( शोध श्रृंखला) पर आधारित हैं । हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, के रूप में वर्णित किया गया है अर्थात् "असु राति इति असुर: अर्थात् जो प्राण देता है, वह असुर है "। इस रूप में चित्रित किया गया है। _______________________________________ 'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग (१०५) बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इ सका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्ति -लभ्य अर्थ है :-प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न :- ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। परन्तु ये सब काल्पनिक उड़ाने हैं । क्यों आर्य तो असुरों का वीरता मूलक विशेषण था । फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया । और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। एक बात कि आर्य शब्द को हाइजैक क्या गया ये शब्द असीरियन जनजाति या अहुर मज्दा के अनुयायीयों का विशेषण उनका वीरता को द्योतित करने के लिए था यह अार्य शब्द वीर शब्द का सम्प्रसारण रूप है । अर्थात् ईरानी आर्यों की भाषा में देव का अर्थ दुष्ट व्यभिचारी,---------- फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवेस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।

 ईरानी आर्यों ने असुर शब्द पूज्य अर्थ में प्रयुक्त किया है (ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं :--- (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)। अर्थात् वे असुर हे अरय: हे अरय इस प्रकार करते हुए पराजित हो गये । विश्व एैतिहासिक सन्दर्भों में असुर मैसॉपोटमिया की संस्कृति में वर्णित असीरियन लोग थे। जिनकी भाषा में "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में होता है । _________________________________________ वाल्मीकि-रामायण में वर्णित किया गया है, कि देवता सुरा पान करने के कारण देव सुर कहलाए , और जो सुरा पान नहीं करते वे असुर कहलाते थे । बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में ) सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l” _________________________________________ " सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा इति अभिविश्रुता । अप्रति ग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता ।। _________________________________________ वस्तुत देव अथवा सुर जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं । स्वीडन के स्वीअर (Sviar)लोग ही भारतीय पुराणों में सुर देवों के रूप में सम्बद्ध हैं । यूरोपीय संस्कृतियों में सुरा एक सीरप (syrup) के समान है l यूरोपीय लोग शराब पीना शुभ और स्वास्थ्य प्रद समझते है । यह उनकी संस्कृति के लिए स्वास्थ्य प्रद परम्परा है । कारण वहाँ की शीतित जल-वायु के प्रभाव से बचने के लिए शराब औषधि तुल्य है ।

 फ्रॉञ्च भाषा में शराब को सीरप syrup ही कहते हैं । अत: वाल्मीकि-रामायण कार ने सुर शब्द की यह आनुमानिक व्युत्पत्ति- की है ।

 परन्तु सुर शब्द का विकास जर्मनिक जन-जाति स्वीअर (Sviar) से हुआ है । असुर और सुर दौनों शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न हुई है पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है। _________________________________________ शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है। आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है। असुर संस्कृति असीरियन लोगों की संस्कृति थी । असीरियन अक्काडियन ,हिब्रू आदि जातियों के आवास वर्तमान ईराक और ईरान के प्राचीनत्तम रूप में थे । जिसे यूनानीयों ने मैसॉपोटामिया अर्थात् दजला और फ़रात के मध्य की आवासित सभ्यता माना -- उत्तरीय ध्रव से भू-मध्य रेखीय क्षेत्रों में आगमन काल में आर्यों ने दीर्घ काल तक असीरियन लोगों से संघर्ष किया प्रणाम स्वरूप बहुत से सांस्कृतिक तत्व ग्रहण किये वेदों में अरि शब्द देव वाची है ।और असीरियन भाषा में भी अलि अथवा इलु के रूप में देव वाची ही है । देखें--- __________________________________________ विश्ववो हि अन्यो अरि: आजगाम ।
 मम इदह श्वशुरो न आजगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित पुनरस्तं जगायात् ।। (10/28/1 ऋग्वेद ) 
अर्थात् ऋषि पत्नी कहती है कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आये , परन्तु हमारे श्वशुर नहीं आये इस यज्ञ में यदि वे आते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते ।।10/28/1 यहाँ अरि शब्द घर का वाचक है ।
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 तथा अन्यत्र भी ऋग्वेद 8/51/9 - _____________________________________ यस्यायं विश्वार्यो दास: शेवधिपा अरि:।
 तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सो अज्यते रयि:।। 

अरि: आर्यों का प्रधान देव था आर्यों ने स्वयं को अरि पुत्र माना । यहाँ अरि शब्द ईश्वर का वाचक है ।
 असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ ।

 सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अरि एल (el) इलु एलॉह elaoh तथा बहुवचन रूप एलोहिम Elohim हो गया । अरबों के अल्लाह शब्द का विकास अल् उपसर्ग Prefix के पश्चात् इलाह करने से हुआ है । निश्चित रूप से यादव मैसॉपोटमिया की पुरातन संस्कृति में यहुदह् के वंशज यहूदी हैं । तात्पर्य यही कि असुर संस्कृति यादव संस्कृति से सम्बद्ध थी ।
 असुरों के इतिहास को भारतीय पुराणों में हेय रूप में वर्णित किया गया है । 
बाणासुर की पुत्री उषा का विवाह कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न से पुराणों में वर्णित है ।
 बाणासुर तथा लवणासुर ये सभी असुर संस्कृति के उपासक थे। 
लवण ने अपने राज्य को विस्तृत कर लिया ।
 इस काम में अपने बहनोई हृर्यश्व से मदद ली होगी । लवण ने राज्य की पूर्वी सीमा गंगा नदी तक बढ़ा ली और राम को कहलवाया कि 'मै तुम्हारे राज्य के निकट के ही राज्य का राजा हूँ ।' लवण की चुनौती से स्प्ष्ट था कि लवण की शक्ति बढ़ गई थी । लवण के द्वारा रावण की सराहना तथा राम की निंदा इस बात की सूचक है कि रावण की नीति और कार्य उसे पसंद थे । इससे पता चलता है कि लवण और उसका पिता मधु संभवत: किसी अनार्य शाखा के थे । प्राचीन साहित्य में मधु की नगरी मधुपुरी के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उस नगरी का स्थापत्य श्रेष्ठ कोटि का था । शत्रुघ्न भी उस मनमोहक नगर को देख कर आर्श्चयचकित हो गये । वैदिक साहित्य में अनार्यौं के विशाल तथा दृढ़ दुर्गों एव मकानों के वर्णन मिलते हैं । संभवतः लवण-पिता मधु या उनके किसी पूर्वज ने यमुना के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया हो । यह अधिकार लवण के समय से समाप्त हो गया । मधुवन और मधुपुरी के निवासियों या लवण के अनुयायिओं को शत्रुघ्न ने समाप्त कर दिया होगा । संभवत: उन्होंने मधुपुरी को नष्ट नहीं किया । उन्होंने जंगल को साफ़ करवाया तथा प्राचीन मधुपुरी को एक नये ढंग से आबाद कर उसे सुशोभित किया । (प्राचीन पौराणिक उल्लेखों तथा रामायण के वर्णन से यही प्रकट होता है ) रामायण में देवों से वर माँगते हुए शत्रुघ्न कहते हैं- `हे देवतागण, मुझे वर दें कि यह सुन्दर मधुपुरी या मथुरा नगरी, जो ऐसी सुशोभित है मानों देवताओं ने स्वयं बनाई हो, शीघ्र बस जाय । ` देवताओं ने `एवमस्तु` कहा और मथुरा नगरी बस गई यद्यपि ये कथाऐं काल्पनिक उड़ाने अधिक हैं । परन्तु इन व्यक्तित्वों के उपस्थिति के सूचक हैं । दास असुर अथवा शूद्र परस्पर पर्याय वाची हैं । अहीर प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह है । परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं । पश्चिमीय पाकिस्तान के सिन्धु प्रान्त में .. और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ,और ईसाई भी । अहीर एशिया की सबसे बड़ी जन-जाति है । भारत में अहीरों को यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या राव साहब ये सब के सब यादवों के ही विशेषण हैं। हरियाणा में राव शब्द यादवों का विशेषण है। भारत में दो हजार एक की जन गणना के अनुसार यादव लगभग २०० मिलियन अर्थात् २० करोड़ से अथिक हैं । भारत में पाँच सौ बहत्तर से अधिक गोत्र यादवों में हैं । __________________________________________ ” यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय Genesis 49: 24 पर --- अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है ।
 ------------------------------------------------ The name Abir is one of The titles of the living god for some reason it,s usually translated( for some reason all god,s in Isaiah 1:24 we find four names of The lord in rapid succession as Isaiah Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir --Israel declares...
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Abir (अभीर )---The name reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this name whith ---- Mighty One , it is probably best translated whith Protector ...
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यह नाम अबीर किसी जीवित देवता के शीर्षक में से किसी एक कारण से है। 
जिसे आमतौर पर अनुवाद किया गया है। (यशायाह 1:24 में किसी भी कारण से सभी ईश्वर यशायाह के रूप में बहुतायत से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं) "इसलिए अदोन - YHWH यह्व : सबोथ और अबीर -इजराइल की घोषणा
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अबीर (अबर) --- नाम ताकत से अधिक सुरक्षा को दर्शाता है । यद्यपि एक स्पष्ट रूप से मजबूत होना जरूरी है। यद्यपि अभी भी सभी आधुनिक अनुवादक सार्वभौमिक रूप से इस नाम का अनुवाद करते हैं। शक्तिशाली (ताकतवर)यह शायद सबसे अच्छा अनुवाद किया है। --रक्षक । हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :-(१)-अबीर (२)--अदॉन (३)--सबॉथ (४)--याह्व्ह् तथा (५)--(इलॉही)बाइबल> सशक्त> हिब्रू> 46 _________________________________________ ◄ 46. अबीर ► सशक्त कमान अबीर: मजबूत मूल शब्द: אֲבִיר भाषण का भाग: विशेषण 'पौरुष ' लिप्यान्तरण: अबीर ध्वन्यात्मक :-वर्तनी: (अ-बियर ') लघु परिभाषा: एक संपूर्ण संक्षिप्तता शब्द उत्पत्ति:- अबार के समान ही परिभाषा बलवान अनुवाद शक्तिशाली एक (6) [אבִיר विशेषण रूप मजबूत; हमेशा = सशक्त, भगवान के लिए पुराने नाम (कविता में प्रयुक्त अबीर); केवल निर्माण में उत्पत्ति खण्ड(Genesis) 49:24 और उसके बाद से भजन संहिता (132: 2; भजन 132: 5; यशायाह (49:26; )यशायाह 60:16; יִשְׂרָאֵל 'या यशायाह 1:24 (सीए के महत्वपूर्ण टिप्पणी की तुलना करें) - 51 इस निर्माण को बैंक के लिए निर्दिष्ट करता है। __________________________________________ सशक्त की संपूर्णता पराक्रमी 'Abar से; शक्तिशाली (भगवान की बात की) - शक्तिशाली (एक) हिब्रू भाषा में 'अबीर रूप _________________________________________ रूप और लिप्यंतरण אֲבִ֖יר אֲבִ֣יר אֲבִ֥יר אביר לַאֲבִ֥יר לאביר 'ר ·יי' רḇייר एक वैर ला'एरीर ला · 'ḇ ḇîr laaVir 'Ă ḇîr - 4 ओक ला '' ırîr - 2 प्रा उत्पत्ति खण्ड बाइबिल:-- (49:24) יָדָ֑יו מִידֵי֙ אֲבִ֣יר יַעֲקֹ֔ב מִשָּׁ֥ם: याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति के हाथों से : याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] (अबीर )के हाथों से; : हाथ याकूब के पराक्रमी हाथ वहाँ भजन 132: 2 और याकूब के पराक्रमी को याकूब के पराक्रमी [ईश्वर] को वचन दिया; भगवान के लिए और याकूब के शक्तिशाली करने के लिए कसम खाई भजन 132: 5 : लेट्वाः लिबियूः יהו֑֑֑ מִ֝שְּנ֗וֹת לַאֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: याकूब के पराक्रमी एक के लिए एक आवास स्थान केजेवी: याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] के लिए एक निवासस्थान : भगवान एक याकूब की ताकतवर(अबीर) निवास यशायाह 1:24 : יְהוָ֣ה צְבָא֔וֹת אֲבִ֖יר יִשְׂרָאֵ֑ל ה֚וֹי : मेजबान के, इज़राइल के पराक्रमी, केजेवी: सेनाओं के, इस्राएल के पराक्रमी, : सेनाओं के सर्वशक्तिमान इस्राएल के शक्तिशाली अहा यशायाह 49:26 : מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: ס : और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति : और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति। : अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ यशायाह 60:16 : מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति : और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति। अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ

 ------------------------------------------------------------------- हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला )को अबीर का विशेषण दिया था । 

इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
 जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है । ययाति यम का भी विशेषण है ।
 भारतीय पुराणों में विशेषतः महाभारत तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है । यादवों का सम्बन्ध पणियों ( Phoenician) सेमेटिक जन-जाति से भी है । इनकी भाषा यहूदीयों तथा असीरियन लोगों के समान ही है । 

भारतीय इतिहास कारों ने इन्हें वणिक अथवा वणिक कहा है । पणि कौन थे? संक्षेप में इस तथ्य पर भी विश्लेषण हो जाय । राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।

 इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है। लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे। दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
 किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है। ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं। हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है। जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था। फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए। मिश्र में रहने वाले ईसाई कॉप्ट Copt यहूदीयों की ही शाखा से सम्बद्ध हैं । 

Copts are one of the oldest Christian communities in the Middle East. Although integrated in the larger Egyptian nation, the Copts have survived as a distinct religious community forming today between 10 and 20 percent of the native population. They pride themselves on the apostolicity of the Egyptian Church whose founder was the first in an unbroken chain of patriots _________________________________________ कॉप्ट (Copt) मध्य पूर्व में सबसे पुराना ईसाई समुदायों में से एक है | 
यद्यपि बड़े मिस्र के राष्ट्र में एकीकृत, कॉप्ट्स आज एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में बचे हैं, जो आज की जनसंख्या के 10 से 20 प्रतिशत के बीच हैं। वे खुद को मिस्र के चर्च की धर्मोपयो गीता पर गर्व करते थे । जिनके संस्थापक देशभक्तों की एक अटूट श्रृंखला में सबसे पहले थे जो भारतीय इतिहास में गुप्त अथवा गुप्ता के रूप में देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी ।
 मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए । शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए नन्द नौ भाई थे ।
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 धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द ________________________________ 
कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ।
 हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है । _________________________________________ "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ! गावां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति !! अर्थात् हे विष्णु वरुण के द्वारा कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दिया गया .. क्योंकि उन्होंने वरुण की गायों का अपहरण किया था.. ________________________________________ _ हरिवंश पुराण--(ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय) ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण पृष्ठ संख्या १३३---- और गोप का अर्थ आभीर होता है । “आभीरवामनयनाहृतमानसाय दत्तं मनो यदुपते ! तदिदं गृहाण” उद्भटः स च सङ्कीर्ण्णवर्ण्णः। यहाँ आभीर और यदुपति परस्पर पर्याय वाची हैं । और आपको हम यह भी बता दे कि भारत की प्राय: सभी शूद्र तथा पिछड़े तबके (वर्ग-) की जन-जातियाँ यदु की सन्ताने हैं । जिनमें जादव जो शिवाजी महाराज के वंशज महारों का एक कब़ीलाई विशेषण है । सन् १९२२ में इसी मराठी जादव( जाधव) शब्द से पञ्जाबी प्रभाव से जाटव शब्द का विकास हुआ। यादवों की शाखा जाट ,गुर्जर ,(गौश्चर) गो चराने वाला होने से तथा लगभग ५७२ गोत्र यादवों के हैं । शिक्षा से ये लोग वञ्चित किए गये इस कारण इनमें संस्कार हीनता तथा आपराधिक प्रवृत्तियों का भी विकास हुआ । 
ब्राह्मण जानते हैं कि ज्ञान ही संसार की सबसे बड़ी शक्ति है । यदि ये ज्ञान सम्पन्न हो गये तो हमारी गुलामी कौन करेगा ? अतः ब्राह्मणों ने स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् वेद वाक्य के रूप में विधान पारित कर दिया । _________________________________________

 यादवों का एक विशेषण है घोष --- आयो घोष बड़ो व्यापारी | लादि खेप गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी || 

फाटक दैकर हाटक मांगत, भोरै निपट सुधारी धुर ही त
ें खोटो खायो है, लए फिरत सिर भारी ||

 इनके कहे कौन डहकावै ,ऐसी कौन अजानी अपनों दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप को पानी ||

 ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ | 
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ || 

वह उद्धव घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं –

 घोषम्, क्ली, (घोषति शब्दायते इति ।
 घुष विशब्दने अच् ) कांस्यम् । 
इति राजनिर्घण्टः ॥ घोषः, पुं, (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् । घुषिर् विशब्दने “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१ । इति घञ् ।) आभीरपल्ली । (यथा, रघुः । १ । ४५ । 

“हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । 
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥ 
” घोषति शब्दायते इति । घुष कर्त्तरि अच् ।) गोपालः । (घुष भावे घञ् ) ध्वनिः । (यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः ॥”) घोषकलता । कांस्यम् । मेघशब्दः । इति मेदिनी । । ११ ॥ मशकः । इति त्रिकाण्ड- शेषः ॥
 (वर्णोच्चारणवाह्यप्रयत्नविशेषः । 

यदुक्तं शिक्षायाम् । २० । “संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्बिमात्रिकम् । घोषा वा संवृताः सर्व्वे अघोषा विवृताः स्मृताः ॥”) कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।
 (यथा, कुलदीपि- कायाम् ।
 “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुजमहाकृती ॥”) 

परन्घोष श्ब्द भी वैदिक शब्द गोष: ( गाम् सनोति सेवयति इति गोष:
का विकसित रूप है ।
जिस अर्थ है गायों की सेवा करने वाला ।

अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं । संज्ञा स्त्री०[संघोष कुमारी] गोपबालिका । 
गोपिका । उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—
(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ ) ___________________________________

 संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आभीरी] १. 
अहीर । ग्वाल । गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि 
अति अघ रुप जे । 
(राम चरित मानस । ७ । १३० ) 
तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है । 
कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ 
( पाप ) रूप देखें - "नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा । 
निर्मल मन अहीर निज दासा- (राम चरित मानस, ७ ।११७ ) 

विशेष—ऐतिहासिकों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी ।
 इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है । कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
 वे आगे चलकर आर्यों में घुलमिल गए ।
परन्तु आर्य थ्यौरी ही गलत है .
आर्य का अर्थ वीर या  यौद्धा है|
और यह शब्द सैमेटिक भी है .

 इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी । य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । ग्वालों की बस्ती । २. एक देश का नाम । ३. एत छंद जिसमें ११ । 
मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है । जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है । संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] 

एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । 
ग्वाला । 
रसखान अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। 
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥

 रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
 कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥ 

सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
 जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥

 नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं। 
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

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 हरिवंश पुराण में यादवों को घोष कहा है । 
हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है । _________________________________________ 

ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा। 
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५। __________________________________________ 

अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं , गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५। 

हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय। __________________________________________ वेदों में मितज्ञु के रूप में मितन्नी मरुत के रूप में एमोराइट पणिस्   के रूप पणि फोनिशी के रूप में हैं
मिश्र में तथा पश्चिमी  एशिया  तक में और भारत में पायी जाने वाली अभीर यादव जाति का वर्णन अभीरु अथवा अभीर रूप में है !
अभीर  वीर जनजातित का विशेषण है!


देवता: मरुतः ऋषि: गोेैतमो राहूगणपुत्रः छन्द: 
निचृज्जगती स्वर: निषादः अलंकार:  उपमा 
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श्रियसे। कम्। भानुऽभिः। सम्। मिमिक्षिरे। ते। रश्मिऽभिः। ते। ऋक्वऽभिः। सुऽखादयः। ते। वाशीऽमन्तः। इष्मिणः। अभीर वः। विद्रे। प्रियस्य। मारुतस्य। धाम्नः ॥
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श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः।

जैसे सूर्य अपनी किरणों की ऊष्मा  और प्रकाश अपनी सतुति करने वालो के लिए सुख से सिंचित करता है
और अपने शत्रु  अन्धकार..और जडता को अपने किरण रूपी वाणों से डुबो देता है !
उसी प्रकार  अभीर जो बलवान् जो मरुतों के गृहस्थान से उदघोष करते हुए  गतिमान होकर वाणों को केन्द्र में सन्धान करते  हैं |


 ते वाशीमन्त (वाश तिरश्चां शब्दे आह्वाने वशीकरणे च सकारात्मक दि० आत्मनेपदीय सेट् ऋदित् चङि न ह्रस्वः)

 । इष्मिणो (वेग शाली) अभीर( निर्भीक यौद्धा ) वो (बलवान् )विद्रे (केन्द्र में) 
इषुणा विध्यन्तिइषौ कुशलो वा  ये  अभीरव: जना: विद्रे लक्ष्ये केन्द्रे वा !

 प्रियस्य  मारुतस्य धाम्नः( प्रिय मारुत के 💝 गृह से )  ॥

पद पाठ
श्रि॒यसे _ श्रयसे (तुम ऊष्मा करते हो ) कम् _कमु
 
कान्तौ। भा॒नुऽभिः॑ रविभिः| सम् समानम् । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ (मिह् धातौ लिट्लकार प्रथम पुरूष बहुवचन रूप  )। ते अमी । र॒श्मिऽभिः॑किरणैः । ते अमी । ऋक्व॑ऽभिः स्तुतिभिः । सु॒ऽखा॒दयः॑। ते। वाशीऽमन्तः।  इ॒ष्मिणः॑ _गतिमन्तः। अभी॑र  बलवान्  _वः। वि॒द्रे_छिद्रे। प्रि॒यस्य॑। मारु॑तस्य। धाम्नः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल: प्रथम » सूक्त:87» ऋचा:6 | 
 
पदार्थान्वयभाषाः - (भानुभिः) सूर्यों से (कम्) प्रकाश को (श्रियसे) ऊष्मा के लिये (ते) वे (प्रियस्य) प्रिय का (मारुतस्य) मारुत का (धाम्नः)  धाम से, घर से  (सम्+मिमिक्षिरे) मिमिहुः इष्णन्ति अच्छे प्रकार प्रकीर्ण सिंचन करना चाहते हैं (ते) (रश्मिभिः) किरणों से  (विद्रे) केन्द्रे  (ऋक्वभिः)स्तुतिभिः स्तुतियों से (सुखादयः) 
(ते) वे  (वाशीमन्तः)  उद्घोष करते हुए  (इष्मिणः)  गतिशील  वे (अभीरवः) वे अभीर निर्भय पुरुष  मारुतों के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, 
 ॥ ६ ॥
वैसे ही अभीर बलवान् यौद्धा अपने स्फूर्तिमयी वाणों से विरोधीयों को वश में करते हुए अथवा आह्वान करते हुए  होते हैं ! 
जैसे सूर्य अपनी ऊष्मामयी किरणों से अन्धकार और शीत को  
आक्रान्त करता हुआ होता है ..

यहाँ उपमा अलंकार है गुण वीरता अथवा तेज और वाचक शब्द सम है |
अभीरु मितज्ञु और एमोराइत मारुत ये जन जातियाँ प्राचीनत्तम हैं | 

जिनका वर्णन मेसोपोटामिया की सभ्यताओं में भी है |

प्रेषित यह सन्देश का उद्देश्य एक भ्रान्ति का निवारण है आज अहीरों को कुछ रूढ़िवादीयों द्वारा फिर से परिभाषित करने की असफल कुचेष्टाऐं की जा रहीं अतः उसके लिए यह सन्देश आवश्यक है ।
 कि इसे पढ़े....... 
और अपना मिथ्या वितण्डावाद बन्द करें ..