बुधवार, 31 मई 2023

श्राद्ध पर पितरों को बलि-

                और्व उवाच
हविष्यमत्स्यमांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च ।
सोकरच्छाकलैणेयरौरवैर्गवयेन च ॥३,१६.१॥

औरभ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्ध्या पितामहाः।
प्रयान्ति तृप्तिं मांसैस्तु नित्यं वार्ध्रोणसामिषैः॥ ३,१६.२॥
खड्गमांसमतीवात्र कालशाकं तथा मधु ।
शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर ॥ ३,१६.३ ॥
गयामुपेत्य यः श्राद्धं करोति पृथिवीपते ।
सफलं तस्य तज्जन्म जायते पितृतीष्टिदम् ॥ ३,१६.४ ॥
प्रशान्तिकाःसमीवाराः श्यामाका द्विविधास्तथा ।
वन्यैषधीप्रधानास्तु श्राद्धार्हाः पुरुषर्षभ ॥ ३,१६.५ ॥
यवाः प्रियङ्गवो मुद्गा गोधूमा व्रीहयस्तिलाः ।
निष्पावाः कोविदाराश्च सर्षपाश्चात्र सोभनाः ॥ ३,१६.६ ॥
अकृताग्रयणं यच्च धान्यजातं नरेश्वर ।
राजमाषानणुंश्चैव मसूरांश्च विसर्जयेत् ॥ ३,१६.७ ॥
अलाबुं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं पिण्डमूलकम् ।
गान्धारककरंवादिलवणान्यौषराणि च ॥ ३,१६.८ ॥
आरक्ताश्चैव निर्यासाः प्रत्यक्षलवणानि च ।
वर्ज्यान्येतानि वै श्राद्धे यच्च वाचा न शस्यते ॥ ३,१६.९ ॥
नक्ताहृतमनुच्छिन्नं तृप्यते न च यत्र गौः ।
दुर्गंधिफेनिलं चांबु श्राद्धयोग्यं न पार्थिव ॥ ३,१६.१० ॥
क्षीरमेकशफानां यदौष्ट्रमाविकमेव च ।
मार्गं च माहिषं चैव वर्जयेच्छ्राद्धकर्मणि ॥ ३,१६.११ ॥
षण्डापविद्धचण्डालपापिपाषण्डरोगिभिः ।
कृकवाकुश्वाननग्नवानरग्रामसूकरैः ॥ ३,१६.१२ ॥
उदक्यासूतिकाशौचमृतहारैश्च वीक्षिते ।
श्राद्धे सुरा न पितरो भुञ्जन्ते पुरुषर्षभ ॥ ३,१६.१३ ॥
तस्मात्परीश्रिते कुर्याच्छ्राद्धं श्रद्धासमन्वितः ।
उर्व्यां च तिलविक्षेपाद्यातुधानान्निवारयेत् ॥ ३,१६.१४ ॥
नखादिना चोपपन्नं केशकीटादिभिर्नृप ।
न चैवाभिषवैर्मिश्रमन्नं पर्युषितं तथा ॥ ३,१६.१५ ॥
श्रद्धासमन्वितैर्दत्तं पितृभ्यो नामगोत्रतः ।
यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत् ॥ ३,१६.१६ ॥
श्रूयते चापि पितृर्भिगीता गाथा महीपते ।
इक्ष्वाकोर्मनुपुत्रस्य कलापोपवने पुरा ॥ ३,१६.१७ ॥
अपि नस्ते भविष्यन्ति कुले सन्मार्गशीलिनः ।
गयामुपेत्य ये पिण्डान्दास्यन्त्यस्माकमादरात् ॥ ३,१६.१८ ॥
अपि नःस कुले जायाद्यो नो दद्यात्त्रयोदशीम् ।
पायसं मधुसर्पिर्भ्यां वर्षासु च मघासु च ॥ ३,१६.१९ ॥
गौरीं वाप्युद्वहेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ।
यजेत वाश्वमेधेन विधिवद्दक्षिणावता ॥ ३,१६.२० ॥
इति श्रीविष्णुमहापुराणे तृतीयांशे षोडशोऽध्यायः (१६)

पुरुरवा और उर्वशी- और कुरुवंशी अहीर

गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग- तथा शक्ति" भक्ति "सौन्दर्य और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवीयों का अहीर जाति में जन्म का वर्णन-

स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।

राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
यह उसी परम्परा का अवशेष हैं। 

गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए
स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।  इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लेकर  कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से  सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद प्राप्त करती हैं। और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी बनती हैं ।  विष्णु अथवा नारायण के उरु (जंघा) अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण  भी इन्हें उर्वशी कहा गया है । प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं। इसी से उर्वरिका(उर्वरा)अथवा उर्वरी शब्द विकसित होते हैं। उर्वशी की व्युत्पत्ति करते हुए पुराणकार ने वर्णन किया-

"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी । ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
अर्थात नारायण के उरु को भेद कर उर्वशी उत्पन्न होती हैं और यह ऐल ( पुरुरवा) की पत्‍नी बनती हैं।
उर्वरा एक अन्य अप्सरा का नाम है। तो उर्वशी एक अन्य दूसरी अप्सरा का नाम है।

"उर्वशी मेनका रंभा चन्द्रलेखा तिलोत्तमा ।
वपुष्मती कान्तिमती लीलावत्युपलावती ।९१।
अलम्बुषा गुणवती स्थूलकेशी कलावती ।
कलानिधिर्गुणनिधिः कर्पूरतिलक- उर्वरा ।९२।
सन्दर्भ:-
"श्रीस्कांदमहापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्धे अप्सरः सूर्यलोकवर्णनंनामनवमोऽध्यायः।९।

तथा 

वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् ।        उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।
  • अनुवाद :- नन्दजी  को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि  छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
  • णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३

  • __________________________________

    सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है   इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को  अप्सराओं की स्वामिनी  नियुक्त किया।

    "अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
    इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

    "ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
    ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।

    ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
    ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।
    ततश्चाऽप्सरसां लोकःस्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
    अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।
    वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
    युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।
    दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
    दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।
    कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
    रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।
    नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
    संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।
    लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
    क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
    "स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्यायः 9
    ______________________
    इन देवीयो को पुराकाल में वैष्णवी शक्ति के नाम से जाना जाता था। विभिन्न ग्रंथों में इन देवीयों के विवरण में भिन्नता तो है, किन्तु जिस बात पर सभी ग्रंथ सहमत हैं। वह है कि इनका जन्म आभीर जाति में हुआ है। 
    विचारणीय बिन्दु  हैं कि भारतीय संस्कृति में ये चार परम शक्तियाँ अपने नाम के अनुरूप कर्म करने वाली" विधाता की सार्थक परियोजना का अवयव सिद्ध हुईं ।
    राधा:-राध्नोति साधयति पराणि कार्य्याणीति ।
    जो दूसरे के अर्थात भक्त के कार्यों को सफल करती है। नाम को सार्थक करती हैं।
    राधा:-  राध + अच् ।  टाप् = राधा ) राध् धातु = संसिद्धौ/वृद्धौ 
    राध्= भक्ति करना और प्रेम करना।

    गायत्री:- गाय= ज्ञान + त्री= त्राण (रक्षा) करने वाली अर्थात जो ज्ञान से ही संसार का त्राण( रक्षा) गायन्तंत्रायतेइति। गायत्  + त्रै + णिनिः।आलोपात्साधुः।)

    विशेष:-
    "दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
    न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
    अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री  नाद ब्राह्म( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।
    न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
    न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
    अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं 
    काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
    ___________________
    गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः ।
    गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
    अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्तानें उत्पन्न होती हैं।
    गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
    प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई। 
    (पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति।  “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।
    _______________
    सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
    पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19।
    महाभारत वन पर्व -/88/19
     इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा ।  पुरु + रु + “ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ ।  २३१ । इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।)  बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
    _______________________________________
    समाधान:- "गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि  गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा "दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। देवीभागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा" राधा "गायत्री के ही   नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्दपुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से उपर्युक्त व्युत्पत्ति  क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री खैर गायत्री शब्द  का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही है। परन्तु बाल्यावस्था गायत्री गायों की पालना करने वाली हुईं।  

    अहीर जाति के आदि पुरुष के रूप में यद्यपि पुरूरवा और उर्वशी या भी वर्णन है।
    क्योंकि अत्रि' चन्द्रमा और बुध आकाशीय पिण्ड हैं भागवत पुराण में बुध के जन्म के विषय में बताया गया है।
    परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

    कुरुवंश के अन्तर्गत 
    कोसलिया और अन्य कुरुवंशी अहीर नस्लों का इतिहास भी संज्ञान में आता है।
    --------------------------------  

    पाठकों को आश्चर्य होगा कि कुरुवंश के गोत्र अहीरों  में कैसे समाहित हुए ?  क्योंकि अभीर तो सिर्फ महाराज यदु के वंशजों की जाति है।
    अतः सभी यदुवंशी "अहीर" तो हैं लेकिन हर अहीर " यदुवंश से सम्बन्धित हो यह भी सम्भव" नहीं है। 
    लोग ये भी कहेंगे कि अहीरों ने अर्जुन को पञ्चनदप्रदेश(पंजाब) में अहीरों नें परास्त कर लूटा था।
    वे अहीर नारायणी सेना के वृष्णि अन्धक तथा दाशार्ह कुल के थे गोप नाम भी अहीरों का था
    महाभारत अथवा अन्य पुराणों में जोड़ तोड़ का क्रम निरन्तर प्रकाशन काल में हुआ । अन्यथा जिन नंद और यशोदा की महिमा का वर्णन करने वाले पुराणों में उनके पिता पर्जन्य और माता वरीयसी या नाम तक नहीं होना षडयंत्र का हिस्सा है।

    महाभारत के विक्षिप्त (नकली )मूसल पर्व के अष्टम् अध्याय का वही श्लोक  यह है और जिसका प्रस्तुतिकरण ही गलत है ।
    _____________________
    ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
    आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।

    अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने आपस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया।
    महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
    निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है ।
    और इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का  वर्णन किया गया है ।
    इसे भी देखें---
    _________________________
    "सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन 
    सख्या  प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
    अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
    गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ।२०।
    _________________________

    हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
    कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
    परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
    और मैं अर्जुन कृष्ण की  गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
    (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय
    एक श्लोक संख्या २०)
    पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-

    महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।
    कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
    भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।।

    अर्थ- तुलसी दास जी कहते हैं ।
    कि समय बड़ा बलवान होता है।
    वो समय ही है जो व्यक्ति को छोटा या बड़ा बनाता है। जैसे एक बार जब महान धनुर्धर अर्जुन का समय खराब हुआ तो वह भीलों के हमले से गोपियों की रक्षा नहीं कर पाए।
    पता नहीं तुलसी ने भीलों वाला अनुवाद कहाँ से किया ?

    यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण रूढ़ हो गया  है ;  क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलता है। परन्तु कुरुक्षेत्र में गुरु काम कृषि और गोपालन का प्रसंग लक्ष्मी नारायणी संहिता में प्राप्त होता है। अत: उनका गोप होना भी सिद्ध ही है।

    -----------------------------
    भारत के आधुनिक अहीरों में कुछ गोत्र जैसे "कोसलिया, "बाबरिया, "हरबला, "पठानिया," सुल्तानिया, आदि सेैकड़ों गोत्र अपनी उत्पत्ति कौरवों/पाण्डवों से बतलाते हैं ये लगभग 15℅ प्रतिशत के रूप में हैं।

    और 10% के लगभग अहीरों में ययाति के अन्य दौनों पुत्रो ,द्रहु और अनु के वंश के गोत्र हैं।
    ----------------------------
    वैसे कुरुवंशी , यदुवंशी आदि इनके महान पिता एक ही हैं जिन्हें सम्राट ययाति कहा जाता है जो इस धरती के सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे। इसीलिए यदुवंशियों और कुरुवंशियों को अलग कहना सही नहीं क्यूंकि इनकी रगों में बहता हुआ खून एक ही पिता का है।
    ------------------------------
    सभी कुरुवंशी अहीर गोत्रों पर थोड़ा प्रकाश डालें। तो 
    अहीरवाल में जो आबाद है पांडु-पुत्र अर्जुन और रानी सुभद्रा के वंशज वीर कोसलिया अहीरों का प्रसिद्ध गाँव और तहसील, कोसली है इसी से शब्द विकसित है।
    कोसलिया अहीर मूलतः अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र वीर अभिमन्यु के वंशज माने जाते हैं।

    इसीलए इन्हें यादव वंशी न कहकर पांडव-वंशी या कौरववंशी अहीर कहा जाता है।
    -------------------------------
    पाण्डव वीरों की माता कुंती स्वयं यादव वंश से थीं तथा द्वारिकाधीश की बुआ थीं।
    इन्हीं महान यदुवंशी माता कुंती के कोख से चार महावीर देव पुत्रों ने जन्म लिया था जिन्हें हम ज्येष्ठ कौंतेय महारथी कर्ण, धर्मराज युधिष्ठिर, गाण्डीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीमसेन के नाम से जानते है।

    कर्ण का जन्म समय से पूर्व होने के कारण उन्हें त्याग दिया गया और माता कुंती ने अपने पति पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के पुत्रों नकुल और सहदेव को भी अपने पुत्रों संग ही पाला पोसा था।

    -----------------------
    इसके अलावा पांडव वीर अर्जुन की रानी सुभद्रा जिनसे वीर अभिमन्यु हुआ वो भी यादववंश से थीं तथा सुभद्रा बव़लभद्र  की बहिन थीं। 

    इतना ही नहीं यदुवंशियों तथा पांडव वंशजों की कुलदेवी एक ही हैं जिन्हें योगमाया कहा जाता है जिन्होंने वसुदेव जी के चचेरे भाई नंदराय जी की पुत्री के रूप में जन्म लिया तथा चंद्रवंश की अराध्य कुलदेवी कहलाईं।
    मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:।
    तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या  साधारणां स्वयम्।।७।।
    "अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं‌। उन सबको  मैं (गायत्री ) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।

    किसी के द्वारा दिए गये शाप को समाप्त कर समान्य करना और समान्य को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा ही सम्भव हो सका । 

    अन्यथा कोई देवता  किसी अन्य  के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।

    अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥
    सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।

    "अनुवाद:-यह ब्रह्मा ( विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु  विप्रादि वर्णों के  मन्त्र का  पुर:सर( अगुआ)  ब्रह्मा ही हैं।

    अनुवाद:-सावित्री ने कहा कि किसी वर्ण का मनुष्य मन्त्र विधि से ब्रह्मा का पूजन कभी न करे।८।

    ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु समये धरणीतले ॥
    न ब्रह्मणा विना किंचित्कृत्यं सिद्धिमुपैष्यति ॥९॥
    "अनुवाद:-फिर भी मैं गायत्री कहती हूँ। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ब्रह्मा के बिना ब्राह्मण आदि वर्णों का कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।

    कृष्णार्चने च यत्पुण्यं यत्पुण्यं लिंग पूजने॥
    तत्फलं कोटिगुणितं सदा वै ब्रह्मदर्शनात्॥
    भविष्यति न सन्देहो विशेषात्सर्वपर्वसु।१०।

    "अनुवाद:-कृष्ण ( विष्णु) अर्चना और लिंगार्चना से जो पुण्य मिलता है। ब्रह्मा के दर्शन मात्र से उसका करोड़ों गुना फल मिलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है। विशेष कर पर्वों पर तो दर्शन जनित अत्यधिक फल लाभ होगा।१०।

    त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
    तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥
    "अनुवाद:-हे विष्णु आपको जो उस सावित्री के द्वारा यह शाप दिया कि मृत्युलोक में जन्म लेकर अन्य के दास होंगे ।११।

    तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि ॥
    यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः ॥
    "अनुवाद:- तो इस सम्बन्ध में आपको सावित्री द्वारा जो यह शाप दिया है उसका मैं निवारण करती हूँ। 

    कि आपके दो रूप होंगे ! मुझ गायत्री को  सावित्री ने गोप कुल में उत्पन्न कहा है इस सन्दर्भ में मेरा यह कथन है। कि हे विष्णु आप भी  गोप कुल को पवित्र करने के लिए मेरे ही गोपकुल में जन्म लेंगे।८-१२।
    ___________________
    एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥
    तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥
    "अनुवाद:- तब पृथ्वी पर जन्म लेने वाले आपके एक शरीर का नाम कृष्ण तथा दूसरे शरीर का नाम अर्जुन होगा। अपने उस दूसरे अर्जुन शरीर के लिए तुम सारथि बनोगे।

    विशेष :- अहीर अथवा गोप जाति प्राचीनतम है  मत्स्य पुराण में उर्वशी अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित पद्मसेन आभीर की पुत्री है । जिसने कल्याणनी नामक कठोर व्रत का सम्पादन किया और जो अप्सराओं की स्वामिनी तथा सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवी बन गयी यही कल्याणनि व्रत का फल था।

    उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की 18 ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है। जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- है। अत: पुरुरवा गो- पालक राजा है।
    पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष तथा नहुष के पुत्र ययाति हुए जो गायत्री माता के नित्य उपासक थे ।
     इसी लिए रूद्रयामल तन्त्र ग्रन्थ में तथा देवी भागवत पराण के  गायत्री सहस्र नाम में गायत्री माता को ' ययातिपूजनप्रिया" कहा गया है।

    अत्रि, चन्द्रमा और बुध का सम्बन्ध प्राय: आकाशीय ग्रह, उपग्रह आदि नक्षत्रीय पिण्डों से सम्बन्धित होने से ऐतिहासिक धरातल पर प्रतिष्ठित नहीं होता है। परन्तु पुरुरवा और उर्वशी ऐतिहासिक पात्र हैं। दौनों ही नायक नायिका का वर्ण आभीर तथा गोष( घोष) रूप में गोपालक जाति के आदि प्रवर्तक के रूप में इतिहास की युगान्तकारी खोज है। इतिहास मैं दर्ज है कि आर्य पशु पालक थे ।जिन्होंने कालान्तरण में कृषि कार्य किए ।

    अहीर अथवा गोप ही आज के किसान हैं।
    जिसमें कुछ कबीला जाटों में समाहित हुए कुछ गुर्जरों में भी समाहित हुए है।
    राजपूत भी एक जातीयों का संघ है। जिसका विकास बहुत बाद में भारत में ६०६ ई से ६४७ ईस्वी के समय से हुआ।   और चरम विकास १६ वीं सदी तक हुआ ।
    सम्भवत: इनमें भी अहीरों जाटों और गुर्जरो से निकल कर कुछ शाखाएं आज समाहित हो गयीं है।

    जैसे  अहीरों से निकले राजपूत जादौन, चुडासमा , और जड़ैजा भाटी आदि -  परन्तु ये राजपूत अब स्वयं को अहीरों से अलग मानने का राग आलाप रहे हैं। 

    अहीर अथवा गोप शब्द कई उतार-चढ़ावों के बाद आज तक समाज में यदुवंश को समाहित किए हुए है। यदुवंश के मूल प्रवर्तक यदु एक गोप अथवा पशपालक  होकर भी  लोकतान्त्रिक राजा थे।
    यद्यपि यदु के अन्य भाई जैसे तुर्वसु और पुरु को भी शास्त्र पशु पालक के रूप में वर्णित करते हैं।
    भारतीय पौराणिक कथा-कोश लक्षीनारायण संहिता में कुरुक्षेत्र का वर्णन करते हुए पुरु के वंशज कुरु को पशु पालक कहा है ।
    गायत्री द्वारा विष्णु को गोप रूप में दो शरीर ( कृष्ण और अर्जुन ) के रूप में उत्पन्न होने को कहना भी अर्जुन का गोपालक रूप है।

    कौसललिया अहीर स्वयं को पाण्डु का वंशज मानते हैं। परन्तु शास्त्र तथा समाज में आभीर शब्द केवल यदुवंश के गोपों के ही लिए रूढ़ हो गया। 

    अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश ( पंजाब) में परास्त करने वाले नारायणी सेना से सम्बन्धित वृष्णि कुल के आभीर थे । जिन्हें नारायणी सेना के गोप कहा गया है।
    यादवों के लिए ही आभीर शब्द रूढ़ हो गया दरअसल आभीर एक जाति है जिसमें यदु वंश पुरु वंश और तुर्वशु वंश भी समाहित थे।


    इस स्थान पर हम यह सिद्ध करेंगे कि जाट "गूजर और अहीरों का रक्त सम्बन्ध अधिक सन्निकट है ।
    यद्यपि गूजर और जाटों के कुछ कबीले सपना सम्बन्ध सूर्यवंश से भी जोड़ रहे हैं।
    फिर भी इनमें स्वयं को यदुवंश से जोड़ने वाले कबीलों का जैनेटिक मिलान अहीरों से है।

    तीनों ही जातियों में गोत्र भी बहुत से समान हैं। सबसे बड़ी बात इनका ( डी॰ एन॰ ए॰)-जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तन्तुनुमा अणु हैं जिनको( डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल) या डी॰ एन॰ ए॰ कहते हैं।
     इसमें अनुवांशिक कूट( कोड) निबद्ध रहता है। इसी लिए गूजर जाट और अहीरों की प्रवृत्ति समान होती है । 

    परन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए की अहीर जाति सबसे प्राचीनतम है। जब गुर्जर और जाट जैसे शब्द भी नहीं थे तब आभीर थे ।

     इस प्रसंग में संस्कृत के पौराणिक कथा-कोश लक्ष्मीनारायण संहिता से उद्धृत निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं। 

    कि जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
    तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

    "यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।    
    अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।

    यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
    जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।

    कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
    सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।

     "अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने  के पांच कारण होते हैं  १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।

    श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
    तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

    "अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया  वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

    भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
    इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।

    "अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर  चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

    देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
    कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।

    "अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा  मैं हरि का  सदैव भजन करूँगा।७७।

    _________________
    कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि।
    न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।

    "अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं  अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।

    इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।
    तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।

    "अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।

    कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः ।
    हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।

    "अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी  किया।८०। 

    आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।
    विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।

    "अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।

    आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः ।      कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।

    "अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने  कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।

    कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२। 

    ""सन्दर्भ:-
    श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७३ ।।

    जाट इतिहास के महान अध्येता
    राम स्वरूपजून (झज्जर , हरियाणा के प्रतिष्ठित जाट इतिहासकार थे । वह जाटों के इतिहास नामक पुस्तक के लेखक हैं ।

    उनका जन्म हरियाणा के झज्जर जिले के नूना मजरा गांव में हुआ था ।

    राम सरूप जून लिखते हैं कि .... उन्होंने 1900 ईस्वी में अपना पाठ शुरू किया जब वह उस क्षेत्र में पढ़ने वाले पहले स्कूलों में एक दशक में थे।

    राम स्वरूप जून जाटों का रक्त सम्बन्ध अहीरों से निश्चित करते हैं।
     वे लिखते हैं कि  आज के अहीर ययाति  की यदु शाखा के हैं । वे यदु के दूसरे पुत्र सत्जित के वंशज हैं जबकि सभी गोत्र,  अहीरों के जाटों में भी पाए जाते हैं । दूसरे शब्दों में जाट और अहीर बहुत निकट संबंधी हैं।
     उनके गोत्रों को मिलाकर, जाट गोत्रों की कुल संख्या बढ़कर 700 हो जाती है। उत्तर पश्चिमी अहीरों में केवल 97 गोत्र हैं जिनमें 20 प्रतिशत जाट गोत्र भी शामिल हैं ।

    अलवरूनी ने तहकीके हिन्द में वसुदेव को पशुपालक जाट कहकर वर्णित किया है।

    वर्तमान में जाट और गुर्जर संघ हैं जिनमें अनेक देशी विदेशी जातियों का समावेश है। जो स्वयं को सूर्य वंशी या चन्द्र वंशी लिखते कुछ स्वयं को अग्नि वंशी भी लिखते हैं।

     परन्तु अहीर आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान हैं अहीरों के विषय में गोप रूप में यह वर्णन समीचीन ही है।

    स्कन्दपुराण- (नागरखण्डः) के अध्यायः 193 में वर्णन है कि 

    "यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः॥
    तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥१२॥

    एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः॥
    तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि॥१३॥

    "तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम्॥
    सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥
    "अनुवाद:-उनके द्वारा किए गये कार्यों में तुम्हारे रक्त सम्बन्धी सजातीय ये गोप प्रशंसा को प्राप्त करेंगे।१४।

    यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वं शप्रभवानराः ॥
    तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥
     
    विशेषत :- सावित्री के शाप का निवारण करते हुए आभीर कन्या गायत्री ने कहा था।
    सभी लोकों और देवों में भी 
    जहाँ जहाँ मेरे वंश जाति के अहीर  लोग निवास करेंगे वहीं वहीं लक्ष्मी निवास करेगी चाहें वह स्थान जंगल ही क्यों न हो।१३-१४-१५।
    ___________________

    इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।१थे।


    महाभारत के विराट पर्व में युधिष्ठिर ने योगमाया आभीर कन्या की स्तुति नन्द की पुत्र के रूप में की है।
    -- ----------------
    दिल्ली जिसे पौराणिक काल में इंद्रप्रस्थ भी कहा जाता था इसी इंद्रप्रस्थ के राजसिंहासन पर महाभारत के युद्ध के पश्चात आसीन हुए अभिमन्यु के पुत्र राजा परिक्षित।



    इन्हीं की पीढी में आगे चल तंवरपाल नाम के प्रतापी महाराजा का जन्म हुआ जिससे यह वंश तंवर या तोमर वंश भी कहलाया।




    आधुनिक दिल्ली का नामकरण इसी पीढ़ी में जन्मे राजा ढिल्लु सिंह के नाम पर हुआ  ढिल्लों आज जाटों का गोत्र है।-
    -------
    "देशोऽस्ति हरियानाख्यो पॄथिव्यां स्वर्गसन्निभः।
    ढिल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता ||
    ----------

    प्रोफेसर बीएस ढिल्लों  लिखते हैं .... दिल्ली : भारत की राजधानी के रूप में, यह सैकड़ों साल पहले देश की तीसरी सबसे बड़ी स्थापना भी है, प्रोफेसर कानूनगो ने लिखा, "यह संभावना नहीं है कि यह प्रसिद्ध शहर व्युत्पन्न है इसका नाम ढिल्लों जाटों से लिया गया है, जो अभी भी दिल्ली जिले में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं"। दहिया  कानूनगो के दावे का समर्थन करते हुए कहते हैं, "इसका (दिल्ली का) पुराना नाम ढिल्लिका था , जैसा कि 1169 ईस्वी में सोमेश्वर चौहान के शिलालेख में दर्ज है, बाद में प्रत्यय "का" को हटा दिया गया और शहर का नाम ढिल्ली रखा गया। एक प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार, रोमिला थापर ,ढिल्लिका "। हालाँकि, उसने लिखा है, "ढिल्लिका (दिल्ली) शहर की स्थापना 736 ईस्वी में तोमरों द्वारा की गई थी , तोमरों को चौहानों द्वारा उखाड़ फेंका गया था "। यह इंगित करने के लिए कि तोमर और चौहान भी जाटों के कबीले के नाम हैं। , दहिया ने टिप्पणी की, "उदाहरण के लिए, हम दहिया का कुल नाम लेते हैं।

     हरियाणा , उत्तर प्रदेश और राजस्थान के भीलवाड़ा क्षेत्र (हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान भारतीय प्रांतों के नाम हैं) में दहिया खुद को जाट कहते हैं । हालांकि, जोधपुर में दहियाक्षेत्र (राजस्थान) अपने आप को राजपूत कहते हैं (ऐतिहासिक अभिलेखों से पता चलता है कि कुछ राजपूत भी जाट पृष्ठभूमि के हैं), और दहिया भी गूजरों का गोत्र नाम है (ये लोग भी जाटों से संबंधित हैं)। यही बात तोमर , पवार , धनीखड़ , भट्टी , जोहिया और इसी तरह के अन्य कबीले नामों के बारे में भी सच है।

    फ़रिश्ता  के अनुसार , सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत के एक फ़ारसी लेखक; "देहलू (पंजाबी में ढिल्लों को" ढिल्लों "या" ढिलो "के रूप में उच्चारित किया जाता है) युवा राजा के चाचा, रईसों द्वारा सहायता प्राप्त करने के बाद, उन्हें अपदस्थ कर दिया, मुसनूद पर चढ़ गए। यह राजकुमार, उनके लिए प्रसिद्ध है

    इसी पीढ़ी में आगे चल दिल्ली तंवर राजवंश के 16 वें सम्राट हुए अनंगपाल तोमर थे जिन्हें गूजर और जाट समान रूप से अपना पूर्वज मानते हैं।

    कोसलिया अहीरों का व सिलसिला शुरू होता है दिल्ली के इन्हीं आखरी हिंदू सम्राट अनंगपाल सिंह तोमर से।
    -----------------------
    अनंगपाल सिंह तोमर के चार पुत्र हुए।
    प्राप्त हुए दस्तावेज़ जो कसोली मठ कमेटी ने उपलब्ध करवाए, इसमें पहले पुत्र का नाम सही से नही दिख रहा। बस ये पता लगा कि वो जोधपुर चले गए थे।
    (2) दूसरे पुत्र तौनपाल। ये ग्वालियर चले गए थे।
    (3) सुलेन सिंह ये पाटन चले गए और इनके वंशज तंवर राजपूत कहलाए ।
    (4) उष्ण सिंह (तेजपाल)। महाराज कौशल देव के पिता जिन्होंने तिजारा बसाया था।
    ------------------------------
    दिल्ली पती अनंगपाल के पश्चात उनके महाप्रतापी पुत्र तथा दिल्ली के 17वे शासक हुए महाराजा तेजपाल सिंह अहीर उर्फ उषण सिंह जिन्होंने आधुनिक तिजारा नगरी बसाई तथा इनके गौरवशाली अतीत का ज़िक्र
    "मिरात-उल-मसौद में मिलता है कि गाज़ी सलार के हमले के बाद अहीर महाराजा तेजपाल सिंह और तमाम अहीर ठिकानों के जंगी सरदारों ने अगले ही दिन की रात में गाज़ी सलार और उसकी सेना पर कहर बनकर टूट पड़े थे।
    इस समर में भारी रक्त पात हुआ और अंततः गज़नी के भांजे गाज़ी सलार को बुरी तरह परास्त किया था अहीर शूरमाओं ने।
    इस युद्ध में सलार के तीन रिश्तेदार अहीर रणवीरों की तलवार की भेंट चढ़ गए थे तथा नीच, कायर गाज़ी सलार डरकर अहीरवाल से भाग उत्तरप्रदेश जा पहूँचा था हलांकि वहाँ रायबरेली के राजा सुहेलदेव से भी उसका युद्ध हुआ।
    आपको जानकर बड़ी हैरानी होगी कि इस दरिंदे लुटेरे गाज़ी सलार के नाम पर बहराइच जिले में मेला लगता है और कुछ अपने ही हिंदु धर्म के मूर्ख लोग जो इतिहास से अंजान है, इस लुटेरे की कब्र पर मत्था टेक आते हैं।
    यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है।
    ------------------------------------------
    दिल्ली के 17 वें नरेश महाराजा तेजपाल सिंह ने आगरा में एक भव्य दुर्ग का निर्माण कराया तथा एक भव्य शिवालय का निर्माण । हालांकि बाद में मुगल शासक शाहजहाँ ने इस मंदिर को तोड़ यहाँ ताजमहल का निर्माण करवाया।
    ---------------------------
    महाराजा तेजपाल के पुत्र हुए राजा कौशलदेव सिंह जिन्हें (महिपाल) सिंह और जूनपाल भी कहा जाता था।
    ------------
    - दिल्ली के 18 वें राजा कौशलदेव सिंह उर्फ़ जूनपाल उर्फ़ महिपाल सिंह ने अनंगपाल द्वितीय द्वारा बसाई राजधानी का विस्तार किया और उसी के पास महीपालपुरा नगर बसाया।

    कुतुब मीनार के पूर्व-उत्तरपूर्व दिशा में महीपालपुरा नामक ग्राम बसा हुआ था और पौन मील लम्बा तथा चौथाई मील चौडा बांध भी था ।
    वहां उन्होंने एक शिव मंदिर भी बनवाया था।
    ----------------
    इसके बाद राजा कौशलदेव सिंह ने पाटन (राजस्थान) और जोधपुर तक अपने राज्य का विस्तार किया।
    इनकी पीढ़ी के एक राजा अजमाल सिंह कालांतर में जैसलमेर के पोखरण में आबाद हुए तथा जिनके प्रतापी पुत्र हुए रामदेव जी जिन्हें आज रुणिचा धाम में पीरबाबा के नाम से पूजा जाता है।
    -----------
    कौशलदेव सिंह के वंशजों ने बाद में हरियाणा में 52 गांव की जागीर स्थापित करी। यमुना पार इनके 84 गाँव थे।
    राजा कौशलदेव सिंह दिल्ली के आखरी शासक थे।
    बाद में दिल्ली चौहान वंश के राजाओं के अधीन हो गया।
    -----------------------------
    कौशल देव जी ने कौशलगढ कोसली की स्थापना 1189 ई. के आसपास में की थी।
    --------------------------------
    1191 में तराई के प्रथम युद्ध में राजा कौशलदेव सिंह ने अहीरवाल के सभी अहीर ठिकानों के बहादुरान के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान को सैन्य सहायता दी।
    हालांकि 1192 तराई के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की तरफ़ से लड़ते हुए कौसलदेव सिंह के भाई राजा केसरी सिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
    ----------------------
    महाराजा कौशलदेव सिंह उर्फ़ जूनपाल सिंह अहीर के बाद की वंशावली-
    (1) राजा महादेव सिंह।
    (2) राजा राजदेव सिंह।
    (3) राजा बिहारी देव ।
    (4) राजा चाचंम देव सिंह।
    (5) राव विंग देव सिंह।
    (6) राव धोल देव जी।
    (7) राव बावल देव सिंह।
    (8) राव शाहदेव सिंह।,
    राव शाह देव जी के दो पुत्र हुए।
    (1) राव संहस मल जी।
    (2) राव रतन सिंह जी।
    राव रतन सिंह कोसलिया ने दो शादी की - पहली रानी चंद्रवंशज यदुवंशी क्षत्राणी तथा दूसरी सूर्वंशी क्षत्राणी से।
    ज्येष्ठ रानी से एक पुत्र हुआ दकढा सिंह इनके पुत्र उध जी।
    उध जी को दो पुत्र हुए।
    (1) कुशल सिंह।
    (2) कान्हड सिंह।
    कान्हड सिंह के पुत्र हुए आशा सिंह जी।आशा सिंह जी के दो पुत्र हुए।
    (1) पंचायन जी।
    (2) रोला सिंह।
    पंचायन जी ने कोसली को दुबारा 1424 में आबाद किया।

    ----------------
    आपसी मतभेद के चलते राजा कौशल देव सिंह के छोटे भ्राता राजा हरपाल देव सिंह ने दिल्ली के डाबर क्षेत्र को आबाद किया जिनके वंशज आज डबर-राणा गोत्र के अहीर कहलाते हैं।
    ------------
    महाराजा अनंगपाल सिंह के बेटे अपने अपने राज्य से संतुष्ट नहीं थे इसलिए एक दूसरे से भी लड़ते रहे।
    अनंगपाल के पौत्रों में सबसे बड़े कौशल सिंह थे। जिसके वंशज कोसलिया कहलाते हैं और अन्य तीन बेटों के वंशज तंवर कहलाते हैं।

    तंवरो के वंश में आगे चलकर खुडाना गांव के एक तंवर के दो बेटों में छोटा बेटा के वंशज जट-राणा (जाट) कहलाए।

    अब तक भी तंवरो में कोई बड़ा काज होता है तो बड़ी पगड़ी कोसलिया अहीरों की बंधती है फिर तंवरो की और फिर नंबर आता है जटराणा का पगड़ी बांधने का।
    तीज त्यौहार पर तोमर, कोसलिया अहीरों को विशेष चिठ्ठी के माध्यम से संदेश पहूंचाया करते थे।
    ------------------------
    पांडव वंशी कोसलिया गोत्र के इतिहास की दुर्लभ जानकारी हमें पृथ्वीराज रासौ, सुधानंद योगी द्वारा लिखित यादव इतिहास, राजबली पाण्डेय का प्रचीन इतिहास, शोध संस्थान जबलपुर, अंग्रेज इतिहासकार डबल्यू ई ०हरबर्ट ०चा‌र्ल्स फान्स्वे, हरियाणा गजेटियर, राजस्थान के चारणों, जागाओं, भाटों व बेदियों द्वारा हस्तलिखित रजिस्टर तथा कोसलिया मठ कमेटी से हासिल हुई।

    इसके साथ ही हम कौशलगढ़ कोसली की टीम तथा आदरणीय पवन राय साहब को सहायता के लिए आभार प्रकट करते हैं।
    ----------------------------
    ------------------------
    कौरवंशी अहीरों में कोसलिया सबसे बड़ा गोत्र है इसके अतिरिक्त बाबरिया , पठानिया, हरबला, सुल्तानिया आदि गोत्रीय अहीर भी पांडव वंशी हैं।
    ----------------------------
    कोसलिया के बाद सबसे बड़ा कुरुवंशी अहीर गोत्र बाबरिया है जिनका निकास दिल्ली से ही हुआ और ये वीर अभिमन्यु के पौत्र महाराजा जन्मेजय के वंश के जीवित नस्ल है।

    बाबरिया अहीरों का भी निकास इंद्रप्रस्थ से हुआ और ये कालांतर में मोटी संख्या में गोप राष्ट्र सौराष्ट्र में जाकर बस गए ।
    ये खाप पश्चिमी यूपी और गुजरात दोनों राज्यो में आबाद है।

    ढिल्लिका भारत की राजधानी दिल्ली का मध्य युगीन नाम है। 1327 ई. के एक अभिलेख में ढिल्लिका को 'हरियाना' प्रदेश के अंतर्गत बताया गया है-

    'देशोस्ति हरियाणाख्या: पृथिव्यां स्वर्गसन्निभ:, ढिल्लिकाख्या पुरी यत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।'

    अर्थात् "पृथिवी पर हरियाणा नामक स्वर्ग के समान देश है, यहाँ तोमर क्षत्रियों द्वारा निर्मित ढिल्लिका नाम की सुंदर नगरी है।"

    • सम्भवत: हरियाणा, दक्षिणी पंजाबरोहतकहिसार आदि का इलाका है, जो शायद 'अहीराना' का बिगड़ा रूप है।
    • जाटों, गूजरों और कुछ राजपूत संघ में समाहित अहीरों  की भी कुछ  शाखाएँ हैं।
    • बाद के समय में ढिल्लिका नाम का संबंध एक कपोल कल्पित कथा से जोड़ दिया गया, जिसके अनुसार राजा अनंगपाल के शासन काल में लोहे की लाट के ढीली रह जाने के कारण ही इस नगरी को 'ढिल्लिका' या 'ढिल्ली' कहा गया।
    • वास्तव में दिल्ली नाम की यह लोहे की लाट वाली व्युत्पत्ति सर्वथा संदेहास्पद है, किंतु जैसा कि उपर्युक्त अभिलेख से प्रमाणित होता है,।
    •  ढिल्लिका नाम वास्तव में प्राचीन, कम से कम मध्य युगीन तो है ही। दिल्ली वास्तविक या मौलिक नाम का अनुसंधान करने में यह तथ्य बहुत सहायक सिद्ध होगा।
    ----------------------------------------
    प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि
    8077160219

    मंगलवार, 30 मई 2023

    ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् ।तस्मात् ते मुख्याः ।मुखतो ह्य् असृज्यन्त ।


    _________________________
    ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् ।
    तस्मात् ते मुख्याः । मुखतो ह्य् असृज्यन्त।
    अनुवाद:- मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज( बकरा) ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं।
    "वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् ।
    तस्मात् ते आद्याः। अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त
    अनुवाद:-मनुष्यों में वैश्य( गोपालन और कृषि कर्ता) उसी प्रकार पशुओं में गाय सजातीय हैं। वे अन्न से सम्बन्धित उदर से उत्पन्न और अन्न के श्रोत हैं ।विशेष:-आद्यम्, क्ली, (अद्यते यत् अद् कर्म्मणि ण्यत् ।) धान्यं। इति राजनिर्घण्टः॥ अदनीयद्रव्ये त्रि ॥ (यथा -- मनुः, ५।२४ । “तत्पर्य्युषितमप्याद्यं हविः शेषञ्च यद्भवेत् । चिरस्थितमपित्वाद्यं” --इत्यादि
    गो:- गोपाल( कृषि कर्ता और गोपालन करने वाला)ही संसार का अन्नदाता है ।
    कृषि कर्य की खोज भी चरावाहों की दैन है।

    गायत्री को ब्राह्मण वर्ण की बनाने के विरोधाभासी प्रलाप-


    "दुर्लभा सर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता ।
    न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते। ५१।
    अनुवाद:- गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभ है गायत्री  नाद ब्राह्म( प्रणव ) से समन्वित हैं। गायत्री मन्त्र से बढ़कर इन तीनों लोकों में कुछ नही गिना जाता है।५१।

    न गायत्री समो मन्त्रो न काशी सदृशी पुरी ।।
    न विश्वेश समं लिंगं सत्यंसत्यं पुनःपुनः।५२।
    अनुवाद:- गायत्री के समान कोई मन्त्र नहीं 
    काशी( वरुणा-असी)वाराणसी-के समान नगरी नहीं विश्वेश के समान कोई शिवलिंग नहीं यह सत्य सत्य पुन: पुन: कहना चाहिए ।५२।
    ___________________
    गायत्री वेदजननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः
    गातारं त्रायते यस्माद्गायत्री तेन गीयते ।५३।
    अनुवाद:- गायत्री वेद ( ज्ञान ) की जननी है जो गायत्री को सिद्ध करते हैं उनके घर ब्रह्म ज्ञानी सन्ताने उत्पन्न होती हैं।
    गायक की रक्षा जिसके गायन होती है जो वास्तव में गायत्री का नित गान करता है।
    प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता था । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई। 
    (पुरु प्रचुरं  रौति कौति इति।  “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः । “ ३।९०।२२ ।
    _______________
    सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा।
    पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्रयातः पुरूरवाः ।19।
    महाभारत वन पर्व -/88/19
     इति महाभारतोक्तवचनात् पुरौ पर्व्वते रौतीति वा ।  पुरु + रु + “ पुरूरवाः ।“ उणादिकोश ४ ।  २३१ ।  इति असिप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।)  बुधस्य पुत्त्रः । स तु चन्द्रवंशीयादिराजः।
    _______________________________________
    समाधान:-
     "गायत्री वेद की जननी है परन्तु उनके सन्तान नहीं थी क्यों कि  गायत्री ,वैष्णवी ,शक्ति का अवतार थी राधा दुर्गा और गायत्री विष्णु की आदि वैष्णवी शक्तियाँ हैं। देवी भागवत पुराण में गायत्री सहस्रनाम में दुर्गा राधा गायत्री के ही       नामान्तरण हैं। अत: गायत्री ब्राह्मणप्रसू: कहना प्रक्षेप ( नकली श्लोक) है। गायत्री शब्द की स्कन्द पुराण नागरखण्ड और काशीखण्ड दौंनों में विपरीत व्युत्पत्ति होने से क्षेपक है जबकि गायत्री गाव:(गायें) यातयति( नियन्त्रणं करोति ) इति गाव:यत्री -गायत्री खैर गायत्री शब्द  का वास्तविक अर्थ "गायन" मूलक ही है।

       ___________________

    "ब्रह्माज्ञया भ्रममाणां कन्यां कांचित् सुरेश्वरः।
    चन्द्रास्यां गोपजां तन्वीं कलशव्यग्रमस्तकाम् ।४४।
    अनुवाद:- ब्रह्मा की आज्ञा से  इन्द्र ने किसी  घूमते हुई  गोप कन्या को  देखा जो चन्द्रमा के समान मुख वाली  हल्के शरीर वाली थी और जिसके मस्तक पर कलश रखा हुआ था।
    _______
    युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
    गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।४५।
    अनुवाद:- इन्द्र ने उस सुकुमारी युवती से पूछा कि कन्या ! तुम कौन हो ? गोप कन्या इस प्रकार बोली मट्ठा बैचने के लिए आयी हूँ।
    ______________
    परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
    इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
    अनुवाद:- यदि तुम तक्र ग्रहण करो तो शीघ्र ही मुझे इसका मूल्य दो ! इन्द्र ने उस गोप कन्या को तक्रसहित पकड़ा ।

    गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः।
    एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
    अनुवाद:- उसने उसे गाय के मुँह में प्रवेश कराकर और फिर उस गाय के मूत्र से उसे बाहर निकाल दिया। इस प्रकार उसे मेध के योग्य करके और शुभ जल स्नान कराकर।
    सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
    आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।
    अनुवाद:- उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर और ब्रह्मा के पास ले जाकर कहा !  हे ब्रह्मन् ! यह तुम्हारे लिए सर्वगुण सम्पन्न है।।

    गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
    एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति।।४९।।

    अनुवाद:- हे ब्राह्मण वह आपके लिए सभी गुणों से संपन्न है। गायों और ब्राह्मणों का एक कुल है जिसे  दो भागों में विभाजित किया गया। मन्त्र एक स्थान पर रहते हैं और हवन एक  स्थान पर रहता है।।
    गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
    पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
    अनुवाद:- वह गाय के पेट से निकाली और ब्राह्मणों के पास लाई गई। उसका हाथ पकड़कर यज्ञा का सम्पादन करो।

    रुद्रःप्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
    गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा।५१।
    अनुवाद:- रूद्र ने कहा, "फिर  गाय-यन्त्र से बाहर होने से यह निश्चय ही गायत्री नाम से इस यज्ञ में सदा तुम्हारी पत्नी होगी "

    निष्कर्ष:- 
    "गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति - गायन्तं त्रायते त्रै+क, अथवा गीयतेऽनेन गै--घञ् यण् नि० ह्रस्वः गयः प्राणस्त त्रायते त्रै- क वा)
    गै--भावे घञ् = गाय (गायन)गीत  त्रै- त्रायति ।गायन्तंत्रायते यस्माद्गायत्रीति 

    "प्रातर्न तु तथा स्नायाद्धोमकाले विगर्हितः ।
    गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥१०॥
    अनुवाद:- अर्थ:- प्रात: उन्होंने  स्नान नहीं किया, होम के समय वे घृणित हैं गायत्री मन्त्र से बढ़कर इस लोक या परलोक में कुछ भी नहीं है।10।

    गायन्तं त्रायते यस्माद्‌गायत्रीत्यभिधीयते।
    प्रणवेन तु संयुक्तां व्याहृतित्रयसंयुताम् ॥११॥
    अनुवाद:- अर्थ:-इसे गायत्री कहा जाता है क्योंकि यह गायन ( जप) करने  वाले का (त्राण) उद्धार करती है। यह (प्रणव) ओंकार और तीन व्याहृतियों से से संयुक्त है ।11।
    सन्दर्भ:- श्रीमद्देवीभागवत महापुराणोऽष्टादशसाहस्र्य संहिता एकादशस्कन्ध सदाचारनिरूपण रुद्राक्ष माहात्म्यवर्णनं नामक तृतीयोऽध्यायः॥३॥
    १२.गायन्तं त्रायते यस्माद्-गायत्रीति ततः स्मृता।
    (बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृतिः४/३५)
    ,"अत: स्कन्दपुराण, लक्ष्मी-नारायणीसंहिता नान्दी पुराण में गायत्री शब्द की व्युत्पत्ति  पूर्णत: प्रक्षिप्त व काल्पनिक है। जिसका कोई व्याकरणिक आधार नही है।

    ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
    गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।
    अनुवाद तब ब्राह्मण बोले ! यह ब्राह्मणीयों अर्थात् (तुम्हारी पत्नीयों ) में श्रेष्ठ हो। गोपजाति से रहित है अब ये तुम पाणिग्रहण करो।

    ब्रह्मा पाणिग्रहं चक्रे समारेभे शुभक्रियाम् ।
    गायत्र्यपि समादाय मूर्ध्नि तामरणिं मुदा ।।५३।।
    अनुवाद:-ब्रह्मा ने पाणिग्रहण किया,और गायत्री ने आकर यज्ञ की शुभ क्रिया को प्रारम्भ किया।

    शास्त्रीय तथा वैदिक सिद्धान्तो के विपरीत होने से तथा परस्पर विरोधाभास होने से स्कन्द पुराण के नागर खण्ड से उद्धृत निम्नश्लोक प्रक्षिप्त हैं।

    "युवतीं सुकुमारीं च पप्रच्छ काऽसि कन्यके ।
    गोपकन्येति सा प्राह तक्रं विक्रेतुमागता ।।४५।।
    परिगृह्णासि चेत् तक्रं देहि मूल्यं द्रुतं मम ।
    इन्द्रो जग्राह तां तक्रसहितां गोपकन्यकाम् ।४६।
    गोर्वक्त्रेणाऽऽवेशयित्वा मूत्रेणाऽऽकर्षयत् ततः
    एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः ।।४७।।
    सुवाससी धारयित्वा नीत्वा धृत्वाऽजसन्निधौ ।
    आनीतेयं त्वदर्थं वै ब्रह्मन् सर्वगुणान्विता ।।४८।।

    गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
    एकत्र मन्त्रस्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।।४९।।

    गोरुदराद् विनिष्क्रान्ता प्रापितेयं द्विजन्मताम् 
    पाणिग्रहं कुरुष्वास्या यज्ञपानं समाचर ।।1.509.५० ।।
    रुद्रः प्राह च गोयन्त्रनिष्क्रान्तेयं ततः खलु ।
    गायत्रीनामपत्नी ते भवत्वत्र मखे सदा ।।५१ ।।
    ब्राह्मणास्तु तदा प्राहुरेषाऽस्तु ब्राह्मणीवरा ।
    गोपजातिवर्जितायास्त्वं पाणिग्रहणं कुरु ।।५२।।

    लक्ष्मी नारायण संहिता अध्याय 509 ने भी यही बात है।।
    गच्छ शक्र समानीहि कन्यां कांचित्त्वरान्वितः॥
    यावन्न क्रमते कालो यज्ञयानसमुद्भवः॥ ५५ ॥

    पितामहवचः श्रुत्वा तदर्थं कन्यका द्विजाः॥
    शक्रेणासादिता शीघ्रं भ्रममाणा समीपतः॥५६॥

    अथ तक्रघटव्यग्रमस्तका तेन वीक्षिता ॥
    कन्यका "गोपजा" तन्वी चंद्रास्या पद्मलोचना।५७।

    सर्वलक्षणसंपूर्णा यौवनारंभमाश्रिता ॥
    सा शक्रेणाथ संपृष्टा का त्वं कमललोचने॥५८॥

    कुमारी वा सनाथा वा सुता कस्य ब्रवीहि नः ॥५९॥
                    ॥ कन्योवाच ॥
    गोपकन्यास्मि भद्रं ते तक्रं विक्रेतुमागता ॥
    यदि गृह्णासि मे मूल्यं तच्छीघ्रं देहि मा चिरम् ॥ ६.१८१.६०॥

    तच्छ्रुत्वा त्रिदिवेन्द्रोऽपि मत्वा तां गोपकन्यकाम् ॥
    जगृहे त्वरया युक्तस्तक्रं चोत्सृज्य भूतले ॥६१॥

    अथ तां रुदतीं शक्रः समादाय त्वरान्वितः॥
    गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्येनाकर्षयत्ततः ॥६२॥
    __________________
    एवं मेध्यतमां कृत्वा संस्नाप्य सलिलैः शुभैः॥
    ज्येष्ठकुण्डस्य विप्रेन्द्राः परिधाय्य सुवाससी॥६३॥

    ततश्च हर्षसंयुक्तः प्रोवाच चतुराननम् ॥
    द्रुतं गत्वा पुरो धृत्वा सर्वदेवसमागमे ॥६४॥

    कन्यकेयं सुरश्रेष्ठ समानीता मयाऽधुना ॥
    तवार्थाय सुरूपांगी सर्वलक्षणलक्षिता ॥६५॥

    गोपकन्या विदित्वेमां गोवक्त्रेण प्रवेश्य च॥
    आकर्षिता च गुह्येन पावनार्थं चतुर्मुख ॥६६॥
    निष्कर्ष:- गायों और गायत्री को ब्राह्मण बनाने के लिए पुरोहितों ने शास्त्रीय सिद्धान्तो नजर-अंदाज करके स्वयं दलदल में फँस न
     जैसा कार्य कर डाला। और कृष्ण के मुखारविन्द कहलबाया की गाय और ब्राह्मण एक ही कुल के हैं। जबकि यह बातें शास्त्रीय सिद्धान्त के पूर्णत विपरीत ही हैं।

                "श्रीवासुदेव उवाच"
    गवां च ब्राह्मणानां च कुलमेकं द्विधा कृतम्॥
    एकत्र मंत्रास्तिष्ठंति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥६७॥

    धेनूदराद्विनिष्क्रांता तज्जातेयं द्विजन्मनाम्॥
    अस्याः पाणिग्रहं देव त्वं कुरुष्व मखाप्तये ॥६८।।
    यावन्न चलते कालो यज्ञयानसमुद्भवः ॥६९॥
                    " रुद्र उवाच" 
    प्रविष्टा गोमुखे यस्मादपानेन विनिर्गता॥
    गायत्रीनाम ते पत्नी तस्मादेषा भविष्यति॥ ६.१८१.७०॥

                      "ब्रह्मोवाच" 
    वदन्तु ब्राह्मणाः सर्वे गोपकन्याप्यसौ यदि॥
    संभूय ब्राह्मणीश्रेष्ठा यथा पत्नी भवेन्मम ॥७१॥

                      "ब्राह्मणा ऊचुः" 
    एषा स्याद्ब्राह्मणश्रेष्ठा गोपजातिविवर्जिता॥
    अस्मद्वाक्याच्चतुर्वक्त्र कुरु पाणिग्रहं द्रुतम् ॥७२॥

     _________
    इति श्रीस्कादे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीविवाहे गायत्रीतीर्थमाहात्म्यवर्णनंनामैकाशीत्युत्तरशततमोअध्यायः ॥१८१॥

    _____________


    रविवार, 28 मई 2023

    महाभारत विराट पर्व में युधिष्ठिर द्वारा स्तुति-

          विराटपर्व-8 महाभारतम्

                महाभारतस्य पर्वाणि
    विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-

               [वैशंपायन उवाच।

    विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
    अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
    यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
    नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
    कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
    शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
    वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
    दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
    भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
    तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5 ।
    स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
    आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
    नमोस्तु वरदे कृष्णे कुमारि ब्रह्मचारिणि ।
    बालार्कसदृशाकारे पूर्णचन्द्रनिभानने ।7।
    चतुर्भुजे चतुर्वक्रे पीनश्रोणिपयोधरे।
    मयूरपिच्छवलये केयूराङ्गदधारिणि ।8।
    भासि देवि यथा पद्मा नारायणपरिग्रहः ।
    स्वरूपं ब्रह्मचर्यं च विशदं तव खेचरि।9 ।
    कृष्णच्छविसमा कृष्णा संकर्षणसमानना।
    बिभ्रती विपुलौ बाहु शक्रध्वजसमुच्छ्रयौ ।10।
    पात्री च पङ्कजी घण्टी स्त्री विशुद्धा च या भुवि ।
    पाशं धनुर्महाचक्रं विविधान्यायुधानि च।11।
    कुण्डलाभ्यां सुपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां च विभूषिता ।
    चन्द्रविस्पर्धिना देवि मुखेन त्वं विराजसे ।12।
    मुकुटेन विचित्रेण केशबन्धेन शोभिना।
    भुजङ्गाभोगवासेन श्रोणिसूत्रेण राजता ।13।
    विभ्राजसे चाऽऽबद्धेन भोगेनेवेह मन्दरः।
    ध्वजेन शिखिपिच्छानामुच्छ्रितेन विराजसे ।14।
    कौमारं व्रतमास्थाय त्रिदिवं पावितं त्वया।
    तेन त्वं स्तूयसे देवि त्रिदशैः पूज्यसेऽपि च।15।
    त्रैलोक्यरक्षणार्थाय महिषासुरनाशिनि ।
    प्रसन्ना मे सुरश्रेष्ठे दयां कुरु शिवा भव ।16।
    जया त्वं विजया चैव संग्रामे च जयप्रदा।
    ममापि विजयं देहि वरदा त्वं च सांप्रतम् ।17।
    विन्ध्ये चैव नगश्रेष्ठे तव स्थानं हि शाश्वतम्।
    कालि कालि महाकालि शीधुमांसपशुप्रिये ।18।
    कृतानुयात्रा भूतैस्त्वं वरदा कामचारिणी।
    भारावतारे ये च त्वां संस्मरिष्यन्ति मानवाः।19।
    प्रणमन्ति च ये त्वां हि प्रभाते तु नरा भुवि ।
    न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा ।20।
    दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
    कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे।
    दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।
    जलप्रतरणे चैव कान्तारेष्वटवीषु च।
    ये स्मरन्ति महादेवि न च सीदन्ति ते नराः।22।
    त्वं कीर्तिः श्रीर्धृतिः सिद्धिर्ह्रीर्विद्या संततिर्मतिः।
    संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा ज्योत्स्ना कांतिःक्षमादया।23।
    नृणां च बन्धनं मोहं पुत्रनाशं धनक्षयम्।
    व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता नाशयिष्यसि।24।
    सोहं राज्यात्परिभ्रष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान् ।
    प्रणतश्च यथा मूर्ध्ना तव देवि सुरेश्वरि।25।
    त्राहि मां पद्मपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्व नः।
    शरणं भव मे दुर्गे शरण्ये भक्तवत्सले।26।
    एवं स्तुता हि सा देवी दर्शयामास पाण्डवम् ।
    उपगम्य तु राजानमिदं वचनमब्रवीत्।27।
                            देव्युवाच

    शृणु राजन्महाबाहो मदीयं वचनं प्रभो।
    भविष्यत्यचिरादेव संग्रामे विजयस्तव ।28 ।
    मम प्रसादान्निर्जित्य हत्वा कौरववाहिनीम् ।
    राज्यं निष्कण्टकं कृत्वा भोक्ष्यसे मेदिनीं पुनः।29।
    भ्रातृभिः सहितो राजन्प्रीतिं प्राप्स्यसि पुष्कलाम् ।
    मत्प्रसादाच्च ते सौख्यमारोग्यं च भविष्यति।30।
    ये च संकीर्तयिष्यन्ति लोके विगतकल्मषाः।
    तेषां तुष्टा प्रदास्यामि राज्यमायुर्वपुः सुतम् ।31।
    प्रवासे नगरे वाऽपि संग्रामे शत्रुसंकटे ।
    अटव्यां दुर्गकान्तारे सागरे गहने गिरौ।32।
    ये स्मरिष्यन्ति मां राजन्यथाऽहं भवता स्मृता ।
    न तेषां दुर्लभं किंचितस्मिँल्लोके भविष्यति।33।
    इदं स्तोत्रवरं भक्त्या शृणुयाद्वा पठेत वा।
    तस्य सर्वाणि कार्याणि सिद्धिं यास्यन्ति पाण्डवाः ।34।
    मत्प्रसादाच्च वः सर्वान्विराटनगरे स्थितान् ।
    न प्रज्ञास्यन्ति कुरको नरा वा तन्निवासिनः।35।
    _____________________

    इत्युक्त्वा वरदा देवी युधिष्ठिरमरिंदमम्।
    रक्षां कृत्वा च पाण्डूनां तत्रैवान्तरधीयत।36।

    इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि
    पाण्डवप्रवेशपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।8।

    महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14

    षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

    महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-

    विराटपर्व-8 महाभारतम्

                महाभारतस्य पर्वाणि
    विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"

               [वैशंपायन उवाच।

    विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
    अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
    यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
    नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
    कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
    शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
    वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
    दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
    भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
    तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5 ।
    स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
    आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।

    युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

    वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ । 

    ‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमसकार है। सच्चिदानन्दमयी कृष्णे ! तुम कुमारी और ब्रह्मचारिणी हो। तुम्हारी अंगकान्ति प्रभातकालीन सूर्य के सदृश लाल है। तुम्हारा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति आल्हाद प्रदान करने वाला है। ‘तुम चार भुजाओं से सुशोभित विष्णुरूपा और चार मुखों से अलंकृत हो। तुम्हारे निम्ब और उरोज पीन हैं। तुमने मोरपंख कंगन धारण किया है तथा केयूर और अंगद पहन रक्खे हैं। देवि ! भगवान नारायण की धर्मपत्नी लक्ष्मी के समान तुम्हारी शोभा हो रही है। आकाश में विचरने वाली देवि ! तुम्हारा स्वरूप और ब्रह्मचर्य परम उज्जवल हैं। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की छवि के समान तुम्हारी श्याम कान्ति है, इसीलिये तुम कृष्णा कहलाती हो। तुम्हारा मुख संकर्षण के समान है। ‘तुम (वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली) ऊपर उठी हुई दो विशाल भुजाओं को इन्द्र की ध्वजा के समान धारण करती हो। तुम्हारे तीसरे हाथ में पात्र, चैथे में कमल आर पाँचवें में घण्टा सुशोभित है। छठे हाथ में पाश, सातवें में धनुष तथा आठवें में महान् चक्र शोभा पाता है। ये ही तुम्हारे नाना प्रकार के आयुध हैं। इस पृथ्वी पर स्त्री का जो विशुद्ध स्वरूप है, वह तुम्हीं हो। मुण्डलमण्डित कर्णयुगल तुमहारे मुखमण्डल की शोभा बढ़ाते हैं। देवि ! तुम चन्द्रमा से होड़ लेने वाले मुख से सुशोभित होती हो। तुम्हारे मस्तक पर विचित्र मुकुट है। बँधे हुए केशों की वेणी साँप की आकृति के समान कुछ और ही शोभा दे रही है। यहाँ कमर में बँधी हुई सुन्दर करधनी के द्वारा तुम्हारी ऐसी शोभा हो रही है, मानो नाग से लपेटा हुआ मगरमच्छ हो। ‘तुमहारी मयूरपिच्छ से चिन्हित ध्वजा आकाश में ऊँची फहरा रही है। उससे तुम्हारी शोभा और भी बढ़ गयी है। तुमने ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके तीनों लोकों को पवित्र कर दिया है।

    महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35

    षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

    महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद

    ‘देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- तुम्हीं उन्हें संकट से मुक्त कर सकती हो। महादेवि ! पानी में तैरते समय, दुर्गम मार्ग में चलते समय और जंगलों में भटक जरने पर जो तुम्हारा स्मरण करते हैं, वे मनुष्य क्लेश नहीं पाते। तुम्हीं कीर्ति, श्री, धृति, सिद्धि, लज्जा, विद्या, संतति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा, ज्यात्स्ना, कान्ति, क्षमा और दया हो। तुम पूजित होने पर मनुष्यों के बन्धन, मोह, पुत्रनाश और धननाश का संकट, व्याधि, पृत्यु आर सम्पूर्ण भय नष्टकर देती हो। मैं भी राज्य से भ्रष्ट हूँ, इसलिये तुम्हारी शरण में आया हूँ। ‘कमलदल के समान विशाल नेत्रों पाली देवि ! देवेश्वरी ! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। मेरी रक्षा करो। सत्ये ! हमारे लिये वस्तुतः सत्यस्वरूपा बनो- अपनी महिमा को सत्य कर दिखाओ। ‘शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले दुर्गे ! मुझे शरण दो।’ इस प्रकार स्तुति करने पर देवि दुर्गा ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को प्रत्यक्ष दर्शन दिया तथा राजा के पास आकर यह बात कही। देवी बोली- महाबाहु राजा युधिष्ठिर ! मेरी बात सुनो। समर्थ राजन् ! शीघ्र ही तुम्हें संग्राम में विजय प्रापत होगी। मेरे प्रसाद से कौरवसेना को जीतकर उसका संहार करके तुम निष्कण्टक राज्य करोगे और पुनः इस पृथ्वी का सुख भोगोगे। राजन् ! तुम्हें भाइयों सहित पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त होगी। मेरी कृपा से तुम्म्हें सुख और आरोग्य सुलभ होगा। लोक में जो मनुष्य मेरा कीर्तन आर स्तवन करेंगे, वे पाप-रहित होंगे और मैं संतुष्ट होकर उन्हें राज्य, बड़ी आयु, नीरोग शरीर और पुत्र प्रदान करूँगी। राजन् ! जैसे तुमने मेरा स्मरण किया है, इसी प्रकार जो लोग परदेश में रहते समय, नगर में, युद्ध में? शत्रुओं द्वारा संकट प्राप्त होने पर, घने जगलों में, दुर्गम मार्ग में, समुद्र में तथा गहन पर्वत पर भी मेरा स्मरण करेंगे, उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। पाण्डवों ! जो इस उत्तम स्तोत्र को भक्तिभाव से सुनेगा या पढ़ेगा, उसके सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायँगे। मेरे कृपाप्रसाद से विराटनगर में रहते समय तुम सब लोगों को कौरवगण अथवा उस नगर के निवासी मनुष्य नहीं पहचान सकेंगे। शत्रुओं का दमन करने वाले राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा पाण्डवों की रक्षा का भार ले वहीं अनतर्धान हो गयीं।

    इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।



    «

    शुक्रवार, 26 मई 2023

    ऋग्वेदः - मण्डल -10/95/1-18/ उर्वशी- पुरूरवा संवाद:-सायण भाष्य-सहितम्-

    ऋग्वेद में पुरुरवा और उर्वशी के बीच संवाद बिना किसी पूर्वपीठिका के अचानक प्रारम्भ हो जाता है- 

    ‘आह, हे पत्नी, अपना यह हठ त्याग दो। अरे ओ हृदयहीन, आओ हम प्रेमालाप करें। हमारे मंत्र यदि अनकहे रह गए तो आने वाले दिनों में वे निष्फल हो जाएंगे।’

    उर्वशी- ‘तुम्हारे प्रेमालाप से मुझे क्या लेना ? उषा की पहली किरण की तरह मैं उस पार जा चुकी हूं। हे पुरुरवस ! अपनी नियति में लौट जाओ। मुझे पकड़ना उतना ही कठिन है, जितना हवा को पकड़ना।’ लेकिन पुरुरवा अपने ‘नायकोचित दृढ़निश्चय’ और ‘लक्ष्य की तरफ तीर की तरह बढ़ने’ की बात करता है। तब उर्वशी कहती है, ‘दिन में तीन बार अपने शिश्न से भेदकर तुमने मुझे गर्भवती बना दिया है" हालांकि इसके प्रति मैं अनिच्छुक थी। पुरुरवस, मैंने तुम्हारी आकांक्षाओं के आगे समर्पण किया।"हे नायक, उस समय तुम मेरे शरीर के राजा थे।

     ’पुरुरवा कहता है, ‘वह गिरती हुई बिजली की तरह कौंधी, मुझे प्यासे पानियों में लेती गई, पानी में से एक सुंदर पुत्र जन्मा। उर्वशी उसे दीर्घ जीवन दे।’ लेकिन अगली ही ऋचा में स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। उर्वशी कहती है, ‘मैं, प्रारंभकर्ता (नए जीवन का प्रारंभ करने वाली) ने, उसी दिन तुझे चेतावनी दी थी। तूने मेरी एक न सुनी, अब तू इतना भोला बनकर क्यों बोलता है?’ पुरुरवा अनुनय-विनय करता है कि उसका पुत्र अपने पिता के लिए रोएगा, आंसू बहाएगा, तो जवाब में उर्वशी कहती है- ‘मेरे पवित्र पद का ध्यान रखते हुए वह नहीं रोएगा।

    "अपनी नियति की ओर जा ओ मूर्ख, तू मुझ तक नहीं पहुंच सकता।’

    पुरुरवा पहले झींखता हुआ विलाप करता है- ‘स्त्रियों के साथ मित्रता नहीं हो सकती, उनके हृदय लकड़बग्घों के हृदय जैसे होते हैं’, और फिर शांत हो जाता है- ‘मैं, पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ, वायुमंडल को अपने विस्तार से भर देने वाली, आकाश पार करने वाली उर्वशी के आगे नतमस्तक हूं।

    सभी सत्कर्मों का पुण्य तुम्हारा हो, पलट जाओ, मेरा हृदय (भय से) उत्तप्त है।’ उर्वशी के इस कथन के साथ प्रकरण जिस तरह अचानक शुरू हुआ था, उसी तरह समाप्त हो जाता है- ‘ये देवता तुझसे यही कहते हैं, इला के बेटे; अब तेरी मृत्यु निश्चित है। तेरी संततियां देवताओं को बलि अर्पित करती रहेंगी, लेकिन तू स्वयं स्वर्ग में आनंद करेगा।’

    पूरा प्रसंग एक नजर में इतना बौखला देने वाला है कि अति प्राचीन समय में भी इसका कोई तार्किक अर्थ निकाल पाना कवियों और विद्वानों के लिए संभव सिद्ध नहीं हुआ।

    यहां तक कि शतपथ ब्राह्मण में भी इसे तार्किक बनाने के लिए इसके साथ कुछ मनमानी शर्तें जोड़नी पड़ीं। इस ग्रंथ में उर्वशी पुरुरवा से प्रेम करती है लेकिन उसे अपना पति इस शर्त के साथ ही स्वीकार करती है कि पुरुरवा को वह नग्न अवस्था में कभी नहीं देखेगी

    दोनों काफी समय तक साथ रहते हैं और उनका एक बच्चा भी होता है लेकिन गंधर्व उसे वापस ले जाने पर अड़े हुए हैं और ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि पुरुरवा की नग्नता एक बार उर्वशी के सामने बिजली की तरह कौंध जाती है। उसी क्षण उर्वशी उसे छोड़कर चली जाती है।

     एक दिन दु:खी पुरुरवा एक झील के किनारे टहल रहा है, तभी हंसरूपधारिणी उर्वशी उसके सामने प्रकट होती है और दोनों के बीच उक्त ऋग्वैदिक संवाद जैसा ही वार्तालाप होता है।

            सायणभाष्यम्   

    ऐळोर्वशीतिहासोऽत्र वैशद्याय प्रवर्ण्यते ।          मित्रश्च वरुणश्चोभौ दीक्षितौ प्रेक्ष्य चोर्वशीम् ॥१॥

    रेतः सिषिचतुः सद्यस्तत्कुम्भे न्यदधुस्तदा।            तां शप्तवन्तौ मनुजभोग्या भूम्यां भवेति तौ ॥२॥

    अत्रान्तर इळो राजा मनोः पुत्रैश्च संयुतः ।        मृगयां संचरन् साश्वो देवीक्रीडं विवेश ह ॥३॥

    यत्र देवं गिरिसुता सर्वैर्भावैरतोषयत् । अत्राविशन्पुमान्स्त्री स्यादित्युक्त्वा तत्र चाविशत्॥४॥

    स्त्री भूत्वा व्रीडितः सोऽगच्छरणं शिवमञ्जसा । इयं प्रसाद्यतां राजन्नित्युक्तः शंभुना नृपः।५।।

    जगाम शरणं देवीमात्मनः पुंस्त्वसिद्धये । अकरोत्सा नृपं देवी षण्मासात्प्राप्तपुंस्त्वकम् ॥६॥

    ततः कदाचित्स्त्रीकाले बुधः सौन्दर्यमोहितः । अप्सरोभ्यो विशिष्टां तामिळां संगतवान् मुदा ॥७॥

    तदेळायां सोमपुत्राज्जातो राजा पुरूरवाः । तमुर्वशी तु चकमे प्रतिष्ठानपुरे स्थितम् ॥८॥

    _____________________________________

    तल्पादन्यत्र नग्नं त्वां दृष्ट्वा यामि यथागतम् । सुता उरणकौ त्वं च समीपं कुरु मे द्रुतम् ॥९॥

    इति सा समयं कृत्वा रमयामास तं नृपम् ।   चतुरब्दे गते रात्रौ देवैरुरणकद्वयम् ॥१०॥

    हृतं तस्य ध्वनिं श्रुत्वा नग्न एव स भूपतिः । उत्थाय जित्वा तावागच्छेत्येवं जल्पकोऽन्यतः।११।

    विद्युता दर्शितोऽस्यै सो नग्न एव पुरूरवाः ।      अथ सा दृष्टसमया ह्युर्वशी तु दिवं ययौ।।१२।।

    तत उन्मत्तवद्राजा दिदृशुस्तामितस्ततः । कुर्वन्नन्वेषणं तीरे सरसो मानसस्य ताम् ॥१३॥

    विहरन्तीमप्सरोभिः सहापश्यत्पुरूरवाः ।         पुनः स चकमे भोक्तुमुर्वशीं च पुरूरवाः ॥१४॥

    साश्रं सापश्यदुक्ता च प्रत्याचष्टे व्रजेति तम् । इत्युर्वश्यैळसंवादमिममेपोऽप्यसूचयत् ॥१५॥इति॥

    अत्र वाजसनेयकम्--- 'उर्वशी हाप्सराः पुरूरवसमैळं चकमे तं ह विन्दमानोवाच त्रिः स्म माह्नो वैतसेन दण्डेन हतादकामाँ स्म मा निपद्यासै सो स्म त्वा नग्नं दर्शमेष वै न स्त्रीणामुपचार इति । सा हास्मिञ्ज्योगुवासापि हास्माद्गर्भिण्यास तावज्ज्योग्घास्मिन्नुवास ततो ह गन्धर्वाः समूदिरे ज्योग्वा इयमुर्वशी मनुष्येष्ववत्सदुपजानीत यथेयं पुनरागच्छेदिति तस्यै हाविर्द्व्युरणा शयन उपबद्धास ततो ह गन्धर्वी अन्यतरमुरणं प्रमेथुः । स होवाचावीर इव बत मेऽजन इव पुत्रं हरन्तीति द्वितीयं प्रमेथुः सा ह तथैवोवाच । अथ हायमीक्षांचक्रे कथं नु तदवीरं कथमजनं स्याद्यत्राहँ स्यामिति स नग्न एवानुत्पपात चिरं तन्मेने यद्वासः पर्यधास्यत ततो ह गन्धर्वा विद्युतं जनयांचक्रुस्तं यथा दिवैवं नग्नं ददर्श ततो हैवेयं तिरोबभूव पुनरैमीत्येत्तिरोभूतां स आध्या जल्पन्कुरुक्षेत्रं समया चचारान्यतःप्लक्षेति बिसवती तस्यै हाध्यन्तेन वव्राज तद्ध ता अप्सरस आतयो भूत्वा परिपुप्लुविरे । तँ हेयं ज्ञात्वोवाच अथ वै स मनुष्यो यस्मिन्नमवात्समिति तो होचुस्तस्मै वा आविरसामेति तथेति तस्मै हाविरासुः । ताँ हायं ज्ञात्वाभिपरोवाद हये जाये मनसा' (श. ब्रा. ११. ५. १) इत्यादि ।

    ______________________________________

    "हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु ।
    न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन् ॥१॥

    "सायण-भाष्य"-

    पुरूरवसो वाक्यम् । जायां पश्यन् वदति ।=पत्नी को देखते हुए कहता है।    “हये हे “घोरे। अस्माकं दुःखजनकत्वात् । घोरकारिणि =हे हमारा दु:ख उत्पन्न करने में भयंकर "जाये = पत्नी “मनसा अस्मदुपर्यनुरागवता मनसा युक्ता सती  =मन के द्वारा मुझमें अनुरागवती होती हुई “तिष्ठ क्षणमात्रं संनिधावेव निवस = ठहरो ! क्षणमात्र मेरे पास में रहो। हये इत्यस्य निघाताभावश्छान्दसः । किमर्थं संस्थानमिति तत्राह। “वचांसि =वाक्यानि मिश्राणि =उक्तिप्रत्युक्तिरूपाणि "नु अद्य क्षिप्रं वा “कृणवावहै =करवावहै- हम दौनों करें।कृवि =हिंसाकरणयोः'। धिन्विकृण्व्योरञ्च' इत्युप्रत्ययः । किमर्थं वचसः करणमिति चेदुच्यते - किस कारण से यह कहा जाता है । “नौ= आवयोः- हम दौनो “मन्त्राः रहस्यार्थाः “एते विवक्षिताः “अनुदितासः= अव्याह्रियमाणाः परस्परमसंभाष्यमाणा गुम्फिताः सन्तः -आपस में कहती हुई गुम्फित हैं। “परतरे “चनाहन् । चनेति निपातसमुदायश्चार्थे । अनेकेषु दिवसेषु चरमेऽप्यहनि “मयः =सुखनामैतत् । सुखं “न “करन्= कुर्वन्ति। अतः कृणवावहा इति ॥


    "किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव ।
    पुरूरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि ॥२॥

    सायण-भाष्य"-

    किम् । ए॒ता । वा॒चा । कृ॒ण॒व॒ । तव॑ । अ॒हम् । प्र । अ॒क्र॒मि॒ष॒म् । उ॒षसा॑म् । अ॒ग्रि॒याऽइ॑व । पुरू॑रवः । पुनः॑ । अस्त॑म् । परा॑ । इ॒हि॒ । दुः॒ऽआ॒प॒ना । वातः॑ऽइव । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ ॥२।

    अनया तमुर्वशी प्रत्युवाच । “एता =एतया “वाचा केवलया पुनः संभोगरहितया “किं “कृणव किं करवाव। “अहं त्विदानीं त्वत्सकाशात् “प्राक्रमिषम् अतिक्रान्तवत्यस्मि । अतिक्रमे दृष्टान्तः । “उषसामग्रियेव । बह्वीनामुषसां मध्येऽग्र्याग्रे भवा पूर्वोषाः प्राक्रमीद्यथा तथाहमपीति । यस्मादेवं तस्माद्धे “पुरूरवः त्वं “पुनः अस्मत्सकाशात् “अस्तं गृहं “परेहि= परागच्छ । मा मय्यभिलाषं कार्षीः । स्वस्या दुर्ग्रहत्वमाह। “अहं "वात-इव= वायुरिव “दुरापना =दुष्प्रापा दुरापा वा “अस्मि । दुरापा वा अहं त्वयैतर्ह्यस्मि पुनर्गृहानिहीति हैवैनं तदुवाच' (शतपथ. ब्राह्मण. ११. ५. १. ७) इति वाजसनेयकम् ॥

    _____________________________________

    "इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः ।
    अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥

    सायण-भाष्य"-

    इषुः । न । श्रिये । इषुऽधेः । असना । गोऽसाः । शतऽसाः । न । रंहिः ।।अवीरे । क्रतौ । वि। दविद्युतत् । न । उरा । न । मायुम् । चितयन्त । धुनयः ॥ ३ ॥

    अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः । ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति=फैकने के लिए समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं शत्रुसकाशात् (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् । तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति  “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् ।सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः।छान्दसो लङ् ॥


    "सा वसु दधती श्वशुराय वय उषो यदि वष्ट्यन्तिगृहात् ।
    अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन ॥४॥

    सायण-भाष्य"-

    सा । वसु । दधती । श्वशुराय । वयः । उषः । यदि । वष्टि । अन्तिऽगृहात् ।अस्तम् । ननक्षे । यस्मिन् । चाकन् । दिवा। नक्तम् । श्नथिता। वैतसेन ॥ ४।

    इदमुत्तरं चोर्वशीवाक्यम्। आद्येन पुरात्मना कृतमुषसे निवेदयति । {हे "उषः= "सा इयमुर्वशी} वह यह उर्वशी "वसु{ वासकं "वयः =अन्नं {"श्वशुराय =भर्तुः पुरूरवसः पित्रे } पुरूरवा के पिता“दधती =प्रयच्छन्ती तत्र गृहे स्थिता = देती हुई वहीं घर में स्थित"यदि पतिं "वष्टि= कामयते तदा "अन्तिगृहात् । यदि पति की कामना करती है वहीं अन्दर  घर से-स्वभर्तृभोगगृहान्तिके यत् श्वशुरस्य भोजनगृहं तदन्तिगृहम्।

    अपवे

    तस्माद्गृहात्सोर्वशी "अस्तं पतिगृहं "ननक्षे= व्याप्नोति । "यस्मिन् गृहे “चाकन्= कामयत उर्वशी । सा चोर्वशी “दिवा “नक्तम् =अहनि रात्री च "वैतसेन =' शेपो वैतस इति पुंस्प्रजननस्य' ( निरु. ३. ३१) इति निरुक्तम् । पुंस्प्रजननेनश्नथिता= ताडिता च भवति । एवमुर्वश्यात्मानं परोक्षेण निर्दिदेश ॥

    __________________________________

    "त्रिः स्म माह्नः श्नथयो वैतसेनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि ।
    पुरूरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्वस्तदासीः ॥५॥

    सायण-भाष्य"-

    त्रिः । स्म । मा । अह्नः । श्नथयः । वैतसेन । उत । स्म । मे। अव्यत्यै । पृणासि।पुरूरवः । अनु । ते। केतम् । आयम् । राजा । मे। वीर । तन्वः । तत् । आसीः ॥ ५ ॥

    अनेन पुरूरवसमेव संबोध्योक्तवती । हे पुरूरवः त्वं "मा =माम् "अह्नः =अहनि “वैतसेन= जननदण्डेन  पुंव्यञ्जनेन "त्रिः= त्रिवारम् । द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच् ' ( पा. सू. ५.४.१८ )। “श्नथयः ="स्म । अश्नथयः= अताडयः । ‘कृत्वोऽर्थप्रयोगे (पा. सू. २. ३. ६४) इति कालवाचिनोऽहःशब्दादधिकरणे षष्ठी। “उत अपि च । “स्म इति पूरणः । "अव्यत्यै। सपत्नीभिः सह पर्यायेण पतिमागच्छति सा व्यती। न तादृश्यव्यती। तस्यै "मे मह्यं "पृणासि =पूरयसि । एवं बुद्ध्या हे "पुरूरवः “ते =तव “केतं= गृहम् “अनु "आयम् =अन्वगमं पूर्वम् । हे “वीर "राजा त्वं च "मे मम “तन्वः= शरीरस्य “तत्= तदा “आसीः= अभवः । सुखयितेति शेषः । परमप्येवं मन्तव्यं किमिति कातरो भवसीत्युवाच ॥६॥

    "तब उर्वशी कहती है, ‘दिन में तीन बार अपने शिश्न से भेदकर (ताडितकर) तुमने मुझे गर्भवती बना दिया है" यद्यपि  इसके प्रति मैं अनिच्छुक थी। पुरुरवस !, मैंने तुम्हारी आकांक्षाओं के आगे समर्पण किया।"हे नायक, उस समय तुम मेरे शरीर के राजा थे।५।

    __________________________________

    या सुजूर्णिः श्रेणिः सुम्नआपिर्ह्रदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः ।
    ता अञ्जयोऽरुणयो न सस्रुः श्रिये गावो न धेनवोऽनवन्त ॥६॥

    सायण-भाष्य"-

    या । सुऽजूर्णिः । श्रेणिः । सुम्नेऽआपिः । हृदेऽचक्षुः । न । ग्रन्थिनी । चरण्युः ।ताः । अञ्जयः । अरुणयः । न । सस्रुः । श्रिये । गावः । न । धेनवः । अनवन्त ॥ ६ ॥

    पुरूरवसो वाक्यम् । "या "सुजूर्णिः= सुजवा एतन्नामिका अप्सरा अस्ति तथा या “श्रेणिः या "सुम्नआपिः या “हृदेचक्षुः । नकारः समुच्चये। ताभिश्चतसृभिरालिभूताभिर्मानिनीभिः सहिता “ग्रन्थिनी= ग्रन्थनवती संदर्भवती "चरण्युः= चरणशीलोर्वश्याजगाम। यद्वा । ग्रन्थिनीत्येतत्सखिभूताप्सरोनामधेयम् । या सुजूर्णिः =सुजवोर्वशी सा ताभिः सह जगाम । “ताः अप्सरसः "अञ्जयः =आभरणोपेताः "अरुणयः= अरुणवर्णाः "न “सस्रुः पूर्ववन्न गच्छन्ति । "श्रियै= श्रथणाय “धेनवः =नवप्रसूताः "गावो "न गाव इव । आश्रयार्थं यथा गावः "अनवन्त= शब्दायन्ते तथा न शब्दयन्तीति व्यतिरेके दृष्टान्तः ।।

    समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नद्यः स्वगूर्ताः ।
    महे यत्त्वा पुरूरवो रणायावर्धयन्दस्युहत्याय देवाः ॥७॥

    सायण-भाष्य"-

    सम् । अस्मिन् । जायमाने । आसत । ग्नाः । उत। ईम् । अवर्धन् । नद्यः । स्वऽगूर्ताः ।महे । यत् । त्वा । पुरूरवः । रणाय । अवर्धयन्। दस्युऽहत्याय । देवाः ।। ७॥

    अनयैताभिः सह संसर्गस्त्वयानुभूत इत्युर्वशी वदति । "अस्मिन् पुरूरवसि “जायमाने=सति “ग्नाः =अप्सरसो देववेश्या अपि "सम् "आसत संगता अभवन् । अथवा जायमाने यज्ञार्थं प्रवर्धमाने सति ग्ना= देवपत्न्योऽपि समासत समभवन् । "उत =अपि च "ईम्= एनं पुरूरवसं “स्वगूर्ताः स्वयंगामिन्यः "नद्यः तासामाश्रयभूता अवर्धयन्। किंच हे "पुरूरवः "यत् =यस्मात् "त्वा त्वां "महे =महते "रणाय= रमणीयाय संग्रामाय “दस्युहत्याय= दस्युहननाय "देवाः “त्वाम् अवर्धयन् ॥

    "सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषो निषेवे।
    अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसन्रथस्पृशो नाश्वाः ॥८॥

    सायण-भाष्य"

    सचा । यत् । आसु । जहतीषु । अत्कम् । अमानुषीषु । मानुषः । निऽसेवे।। अप । स्म । मत् । तरसन्ती । न । भुज्युः । ताः । अत्रसन्। रथऽस्पृशः । न । अश्वाः ॥८॥

    इदमादित्रीण्यैळवाक्यानि । तत्रादितो द्वाभ्यामुर्वशीमन्याश्च सह स्तौति । "यत्= यदा "सचा= सहायभूतः पुरूरवाः "अत्कं =स्वकीयं रूपम् । {अत्क इति रूपनाम}। "जहतीषु= परित्यजन्तीषु “अमानुषीषु देवताभूतास्वप्सरःसु मानुषः सन् "निषेवे =अभिमुखं गच्छति तदानीं "ताः =अप्सरसः “मत् =मत्तः "अप= अपसृत्य "अत्रसन्। त्रसतिर्गतिकर्मा । गच्छन्ति । पलायने दृष्टान्तः । "तरसन्ती “भुज्युः =“न। तरसन्नाम =मृगः । तस्य स्त्री भुज्युर्भोगसाधनभूता स्त्री मृगी । सा यथा व्याधाद्भीता पलायत्ते । किंच "रथस्पृशो "नाश्वाः रथे नियुक्ता अश्वा इव। यथा ते पलायन्ते तद्वत्पलायन्त इति । उर्वश्यानेकाभिरस्माभिः सह भोगमनुभुक्तवानसीयुक्तः प्रत्याचष्टे ॥


    यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभिः क्रतुभिर्न पृङ्क्ते ।
    ता आतयो न तन्वः शुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीळयो दन्दशानाः ॥९॥

    सायण-भाष्य"-

    यत् । आसु । मर्तः । अमृतासु । निऽस्पृक् । सम् । क्षोणीभिः । क्रतुऽभिः । न । पृङ्क्ते। ताः । आतयः । न । तन्वः । शुम्भत । स्वाः । अश्वासः । न । क्रीळयः । दन्दशानाः ॥९॥

    "यत् =यदा "आसु "अमृतासु अप्सरःसु "मर्तः= मनुष्यः पुरूरवाः “निस्पृक्= निःशेषेण स्पृशन् “क्षोणीभिः =वाग्भिः "क्रतुभिर्न =कर्मभिश्च "सं "पृङ्क्ते =संपर्कं करोति । नकारः समुच्चयार्थः। "ताः =अप्सरसः “आतयः =आतिभूतास्तदानीं "स्वाः “तन्वः =आत्मीयानि रूपाणि “न “शुम्भत =न प्रकाशयन्ति । "अश्वासो =“न अश्वा इव "क्रीळयः =संक्रीडमानाः "दन्दशानाः =दन्दशूका जिह्वाभिरात्मीयाः सृक्का =भक्षयन्तः । ते यथा चापल्येन धावन्तः स्वरूपं न प्रयच्छन्ति रथिकाय तद्वदिति दुःखाद्ब्रूते ।


    "विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि ।
    जनिष्टो अपो नर्यः सुजातः प्रोर्वशी तिरत दीर्घमायुः ॥१०॥

    सायण-भाष्य"-

    विऽद्युत् । न । या । पतन्ती । दविद्योत् । भरन्ती । मे। अप्या । काम्यानि । जनिष्टो इति । अपः । नर्यः । सुऽजातः । प्र । उर्वशी। तिरत । दीर्घम् । आयुः ॥१०॥

    अनयोर्वशीं स्तौति । "या =उर्वशी “विद्युन्न =विद्युदिव "पतन्ती =गच्छन्ती "दविद्योत्= द्योतते । किं कुर्वती। “अप्या। =अप इत्यन्तरिक्षनाम । तत्संबन्धीनि व्याप्तानि वा “काम्यानि अस्मदभिमतान्युदकानि वा "मे =मह्यं "भरन्ती= संपादयन्ती । यदा आगतायास्तस्याः सकाशात् "अपः =व्याप्तः कर्मसु कर्मवान् वा "नर्यः =नरेभ्यो हितः "सुजातः= सुजननः पुत्रः "जनिष्टो =अजनिष्ट उत्पद्यते तदानीं मम "उर्वशी= "दीर्घमायुः “प्र “तिरत =प्रवर्धयति । ‘प्रजामनु प्र जायसे तदु ते मर्त्यामृतम्' (तैत्तिरीय. ब्राह्मण. १. ५. ५. ६) इति हि मन्त्रः ॥२ ॥


    "जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः ।
    अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥

    सायण-भाष्य"-

    जज्ञिषे । इत्था । गोऽपीथ्याय । हि। दधाथ । तत् । पुरूरवः । मे। ओजः। अशासम् । त्वा । विदुषी । सस्मिन् । अहन् । न। मे। आ । अशृणोः । किम् । अभुक् । वदासि ॥ ११ ॥

    “इत्था= इत्थं = इदंप्रकारे  इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय “जज्ञिषे= “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् । वदेर्लेट्याडागमः। दिवसे "त्रिवारं यभस्व एडकद्वयमस्माकं पुत्रत्वेन परिकल्पय अपत्योत्पादनपर्यन्तं वसामि नग्नं त्वां यदाद्राक्षं तदा गच्छामीत्येवंरूपो मिथः समयः ‘उर्वशी हाप्सराः पुरूरवसमैळं चकमे तं ह विन्दमानोवाच त्रिः स्म माह्नो वैतसेन दण्डेन ( लि' ( शतपथ. ब्राह्मण. ११. ५.१ ) इत्यादि वाजसनेयकमुदाहृतम् ॥


    कदा सूनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन् ।
    को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्निः श्वशुरेषु दीदयत् ॥१२॥

    सायण-भाष्य"-

    कदा । सूनुः । पितरम्। जातः । इच्छात् । चक्रन्। न । अश्रु । वर्तयत्। विऽजानन् । कः । दंपती इति दम्ऽपती । सऽमनसा । वि । यूयोत् ।। अध । यत् । अग्निः । श्वशुरेषु । दीदयत् ॥ १२ ॥

    इदं पुरूरवसो वाक्यम् । “कदा =कस्मिन् काले “सूनुः तवोदरजातः सन् “पितरं माम् “इच्छात्= इच्छेत् । इषु इच्छायाम्'। लेटि शपि इषुगमियमां छः' इति छादेशः । 'लेटोऽडाटौ ' इत्यडागमः। कदा वा “विजानन् पितरं मामधिगच्छन् “चक्रन्= क्रन्दमानः “नाश्रु वर्तयत्। नेति चार्थे । किंच “कः किंविधः सन् सूनुः “समनसा समनसौ समनस्कौ “दंपती जायापती त्वां मां च “वि “यूयोत् विश्लेषयेत् । ‘यु मिश्रणामिश्रणयोः'। यौतेश्छान्दसः शपः श्लुः । तुजादित्वाभ्यासस्य दीर्घः । “अध अधुना “यत् यदा “अग्निः तव हृदयस्थितस्तेजोरूपो गर्भः “श्वशुरेषु “दीदयत्= दीप्यते । दीदयतिर्दीप्तिकर्मेति नैरुक्तो धातुः ॥

    प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्ये शिवायै ।
    प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यस्तं नहि मूर मापः ॥१३॥

    सायण-भाष्य"-

    प्रति । ब्रवाणि । वर्तयते । अश्रु । चक्रन् । न । क्रन्दत् । आऽध्ये । शिवायै । 

    प्र । तत् । ते । हिनव । यत् । ते । अस्मे इति । परा । इहि । अस्तम् । नहि। मूर । मा । आपः ॥ १३ ॥

    इदमुर्वशीवाक्यम् । हे पुरूरवः त्वां “प्रति “ब्रवाणि प्रतिवच्मि । त्वदपत्यम् “अश्रु= वाष्पं “वर्तयते= वर्तयिष्यति । “आध्ये= आध्याते वस्तुनि “शिवायै शिवे कल्याणे समुपस्थिते सति “चक्रन् =रुदन्नश्रूणि विमुञ्चन् “न “क्रन्दत् । नकारश्चार्थे । रोत्स्यति चेत्यर्थः । “तत् त्वदपत्यं “ते तुभ्यं “हिनव= प्रहिणोमि “यत् अपत्यं “ते तव संबन्धि “अस्मे =अस्मासु निहितम् । त्वं “परेह्यस्तम्। अस्तमिति गृहनाम। स्वगृहं प्रतिगच्छ । हे “मूर= मूढ “मा= मां “नहि “आपः =न प्राप्नोषि। हिनवेत्यत्र हिनोतेः ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः' इति भविष्यदर्थे लङि मिपोऽमादेशः । गुणः । अन्त्यलोपश्छान्दसः ।। बहुलवचनादडभावः। आपः । ‘आप्लृ व्याप्तौ' । लिटि तिङां तिङो भवन्ति' इति थलो णल् ॥

    "सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां   गन्तवा उ ।

    अधा शयीत निरृतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः ॥१४॥

    सायण-भाष्य"-

    सुऽदेवः । अद्य । प्रऽपतेत् । अनावृत् । पराऽवतम् । परमाम् । गन्तवै । ऊँ इति । अध । शयीत । निःऽऋतेः । उपऽस्थे । अध । एनम् । वृकाः । रभसासः । अद्युः ॥१४॥

    अथ परिदूनः पुरूरवा उवाच= जब रोता हुआ पुरूरवा। । “सुदेवः= त्वया सह सुक्रीडः पतिः “अद्य “प्रपतेत् = अत्रैव प्रपततु । अथवा “अनावृत् अनावृत्तः सन् “परमां “परावतं= दूरादपि दूरदेशं “गन्तवै =गन्तुं महाप्रस्थानगमनं कुर्यात् । “अध अथवा यत्रकुत्रापि गन्तुमसमर्थः निर्ऋतेः =पृथिव्याः “उपस्थे “शयीत =शयनं कुर्यात् । यद्वा । निर्ऋतिः पापदेवता । तस्या उपस्थे उत्संगे संनिधौ म्रियतामित्यर्थः। “अध अथवा “एनं “वृकाः आरण्याः श्वानः रभसासः वेगवन्तः “अद्युः भक्षयन्तु । अत्र वाजसनेयकं - सुदेवोऽद्योद्वा बध्नीत प्र वा पतेत्तदेनं वृका वा श्वानो वाद्युरिति हैव तदुवाच' (शतपथ. ब्रा. ११. ५. १.८) इति ॥

    पुरूरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन् ।
    न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता ॥१५॥

    सायण-भाष्य"-

    पुरूरवः । मा। मृथाः । मा । प्र । पप्तः । मा। त्वा । वृकासः । अशिवासः । ॐ इति । क्षन्। न । वै । स्त्रैणानि । सख्यानि । सन्ति । सालावृकाणाम् । हृदयानि । एता ॥ १५ ॥

    तमितरा प्रत्युवाच । हे “पुरूरवः त्वं मा "मृथाः मृतिं मा प्राप्नुहि । म्रियतेर्लुङि थासि ‘ह्रस्वादङ्गात् इति सिचो लोपः। तथा “मा “प्र “पप्तः अत्रैव पतनं मा कार्षीः। पतेर्लुङि लृदित्त्वात् ‘पुषादि° ' इत्यादिना च्लेरङ्। ‘पतः पुम्' इति पुम्। तथा “त्वा त्वाम् “अशिवासः =अशुभाः “वृकासः= वृकाः “मा {“उ “क्षन्। =उ इत्येवकारार्थे। अक्षन् ।} माभ्यवहारयन्तु । किमित्येवमस्मदुपर्याग्रहं करोषि । मा कार्षीरित्यर्थः । अदेर्लुङि ‘लुङ्सनोर्घस्लृ' (पा. सू. २. ४. ३७) इति घस्लादेशः। ‘मन्त्रे घस' इति च्लेर्लुक्। 'गमहन इत्यादिनपधालोपः । ‘शासिवसि°' इत्यादिना षत्वम् ।' खरि च' इति चर्त्वम् । बाहुलकादडभावः। अथ स्वस्नेहस्यासारतमाह। “स्त्रैणानि= स्त्रीणां कृतानि “सख्यानि “न “वै “सन्ति । न सन्ति खलु। अभावे कारणमाह। "एता एतानि सख्यानि “सालावृकाणां= १.कुत्ता। श्वान। २. गीदड़। सियार। ३. वृक। भेड़िया। “हृदयानि तेषां हृदयानि यथा वत्सादीनां विश्वासापन्नानां घातुकानि तद्वत् । अत्र वाजसनेयकं-- मैतदादृथा न वै स्त्रैणँ सख्यमस्ति पुनर्गृहानिहीति हैवैनं तदुवाच' ( शतपथ ब्रा. ११. ५. १. ९) इति ॥३॥


    "यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्रीः शरदश्चतस्रः ।
    घृतस्य स्तोकं सकृदह्न आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि ॥१६॥

    सायण-भाष्य"-

    यत् । विऽरूपा । अचरम् । मर्त्येषु । अवसम् । रात्रीः । शरदः । चतस्रः । घृतस्य । स्तोकम् । सकृत् । अह्नः । आश्नाम् । तात् । एव । इदम् । ततृपाणा । चरामि ॥१६॥

    “यत् यदा “विरूपा= मनुष्यसंपर्काद्विगतसहजभूतदेवरूपा पत्यानुकूल्येन नानारूपा वा “मर्त्येषु =मनुष्येषु “अचरं तदानीं “रात्रीः= प्ररमयित्रीः “चतस्रः “शरदः “अवसं न्यवसम् । अत्यन्तसंयोगे द्वितीया । तदानीं “घृतस्य “स्तोकं “सकृदह्न “आश्नाम् । “तादेव तेनैव स्तोकेनाहम् “इदं संप्रति “तातृपाणा तृप्ता सती “चरामि ॥

    अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः ।
    उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे ॥१७॥

    सायण-भाष्य"

    अन्तरिक्षप्राम् । रजसः । विऽमानीम् । उप । शिक्षामि । उर्वशीम् । वसिष्ठः । उप । त्वा । रातिः । सुकृतस्य । तिष्ठात् । नि। वर्तस्व । हृदयम् । तप्यते । मे ॥ १७ ॥

    “अन्तरिक्षप्रां =स्वतेजसान्तरिक्षस्य पूरयित्रीं= अपने तेज से अन्तरिक्ष को पूर्ण करती हुई। तथा “रजसः =रञ्जकस्योदकस्य “विमानीं= निर्मात्रीम्  “उर्वशीं= “वसिष्ठः समानानां मध्येऽतिशयेन वासयिताहम्  “उप “शिक्षामि =वशं नयामि। “सुकृतस्य =शोभनकर्मणः “रातिः =दाता पुरूरवाः “त्वा= त्वाम् “उप “तिष्ठात् =उपतिष्ठतु । "मे “हृदयं “तप्यते। अतो “नि "वर्तस्व । एवं राजोवाच ॥

    "इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः ।
    प्रजा ते देवान्हविषा यजाति स्वर्ग उ त्वमपि मादयासे ॥१८॥

    सायण-भाष्य"-

    इति । त्वा । देवाः । इमे । आहुः । ऐळ । यथा । ईम् । एतत् । भवसि । मृत्युऽबन्धुः ।।प्रऽजा । ते। देवान् । हविषा । यजाति । स्वःऽगे । ऊँ इति । त्वम्। अपि। मादयासे ॥१८॥

    हे “ऐळ= पुरूरवः “त्वा= त्वाम् “इमे= “देवाः “इति “आहुः । “मृत्युबन्धुः= मृत्योः बन्धकः मृत्योर्बन्धुभूतो वा मृत्युवशमप्राप्नुवंस्त्वं “यथें =यथा “एतद्भवसि =भविष्यसि “प्रजा =प्रकर्षेण जायमानस्त्वं “ते =तव संबन्धिनो यष्टव्यान् =“देवान् “हविषा “यजासि =यजसि । “स्वर्ग “उ स्वर्गं एव “त्वमपि “मादयासे= मादयसेऽस्माभिः सह । एवमाहुरित्यर्थः । यस्मादेवं करोषि तस्मादभिलाषं हित्वा सुखी भवेति सेयं पुरूरवसं प्रत्युवाच॥४॥