मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

अयोध्या

अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ ऋचा 31
ऋषि: - नारायणः देवता - साक्षात्परब्रह्मप्रकाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त

अ॒ष्टाच॑क्रा॒ नव॑द्वारा दे॒वानां॒ पूर॑यो॒ध्या। तस्यां॑ हिर॒ण्ययः॒ कोशः॑ स्व॒र्गो ज्योति॒षावृ॑तः ॥

अ॒ष्टाऽच॑क्रा । नव॑ऽद्वारा । दे॒वाना॑म् । पू: । अ॒यो॒ध्या । तस्या॑म् । हि॒र॒ण्यय॑: । कोश॑: । स्व॒:ऽग: । ज्योति॑षा । आऽवृ॑त: ॥२.३१॥

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ॥


अष्टाऽचक्रा । नवऽद्वारा । देवानाम् । पू: । अयोध्या । तस्याम् । हिरण्यय: । कोश: । स्व:ऽग: । ज्योतिषा । आऽवृत: ॥२.३१॥

अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; ऋचा » 31

पदार्थ -
(अष्टाचक्रा) [योग के अङ्ग अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि, इन] आठों का कर्म [वा चक्र] रखनेवाली, (नवदारा) [सात मस्तक के छिद्र और मन और बुद्धिरूप] नवद्वारवाली (पूः) पूर्ति [पुरी देह] (देवानाम्) उन्मत्तों के लिये (अयोध्या) अजेय है। (तस्याम्) उस [पूर्ति] में (हिरण्ययः) अनेक बलों से युक्त (कोशः) कोश [भण्डार अर्थात् चेतन जीवात्मा] (स्वर्गः)  (ज्योतिषा) ज्योति से (आवृताः) छाया हुआ है ॥३१॥

भावार्थ - शरीर की गति को अज्ञानी दुर्बलेन्द्रिय लोग नहीं समझते। शरीर के भीतर चेतन जीवात्मा है ॥३१॥

 (तैत्तिरीय आरण्यक-1.27.3) 
दे॒वानां॒ पूर॑यो॒ध्या । तस्या॑ हिरण्म॑यः को॒शः ।
 स्व॒र्गो लो॒को ज्योति॒षाऽऽवृ॑तः । यो वै तां ब्रह्म॑णो वे॒द ।
 अ॒मृते॑नावृ॒तां पु॑रीम् । तस्मै ब्रह्म च॑ ब्रह्मा॒ च । आ॒युः 
कीर्तिं॑ प्र॒जान्द॑दुः । वि॒भ्राज॑माना॒॒ हरि॑णीम् । 
य॒शसा॑ संप॒रीवृ॑ताम् ।
 पुर॑ हिरण्म॑यीं ब्र॒ह्मा । [115]

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्

क्षणभंगुर - जीवन की कलिका,
कल प्रात: को जाने खिली न खिली।
मलयाचल की शुचि  मन्द हवा
कल प्रात: को जाने चली न चली।

कलि काल कुठार लिए फिरता,
तन नम्र है चोट झिली न झिली।
रट ले  हरिनाम अरी रसना,
फिर अन्त समय में हिली न हिली।
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बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि;
प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत्।

दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रिः
निष्क्रियो भवति पंकज-कोशे।१। चाणक्य नीतिदर्पण-15/15

अनुवाद:-संसार में अनेक प्रकार के बन्धन हैं परन्तु प्रेम-रज्जु-कृत बन्धन तो सर्वथा ही विलक्षण है। कठोरातिकठोर काष्ठ को भेद देने में निपुण षडंघ्रि (भ्रमर) भी कमल की कोमलातिकोमल पँखुड़ियों में विवश होकर रह जाता है ।
और उसके साथ ही कालकवलित भी हो जाता है।

विद्वानों ने दूसरी अन्योक्ति  द्वारा भी मानव जीवन की  नश्वरता की विवेचना  की है। कि किस प्रकार काल रूपी हाथी अपने लीला करता है।

‘रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालि।
इत्थं  विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे,
हा मूलतः नलनीं गज उज्जहार।।

 भौंरा कमल के पुष्प में मकरन्द-पान में अर्थात्  (पुष्परस) पीने में लीन था।
 तभी सूर्य अस्ताचलगामी हो गये; कमल कोश ( बन्द) हुआ; भ्रमर भी उस कमल कोश में ही बँध रह गया; कमल की पँखुड़ियों को काटने में असमर्थ भौंरा  विचार कर रहा है। (चलो कोई बात नहीं)  पुनः रात्रि व्यतीत होगी, पुनः सुप्रभात होगा; सूर्योदय होने पर बन्द  कमलकोश  पुनः खिलेगा ; कमल के पुनः खिलते  ही मैं यहाँ से निकल जाऊँगा  

परन्तु दु:ख की बात हुई ! रात्रि व्यतीत होने से पूर्व ही कोई उन्मत्त हाथी  उस सरोवर में स्नान करता हुआ उन कमलिनियों को समूल उखाड़ता-रौंदता आ घुसा। और वह भौरा जिस कमल कोश  में बन्द था। हाथी ने उसे भी उखाड़ कर फैंक दिया।

मानव जीवन भी  इसी प्रकार है सभी अपने अपने भविष्य की परियोजनाऐं बनाते बनाते योजनाओं को परिणाम तक पहुँचने से पूर्व ही संसार  से जीवन त्याग देते हैं।

अत: हरि चिन्तन में मन लगाते हुए भी लौकिक कर्तव्यों का पालन करते रहो -
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रविवार, 26 फ़रवरी 2023

सुदर्शन चक्र की कथा


शिवपुराणम्/संहिता ४ (कोटिरुद्रसंहिता अध्याय 34)
सूत उवाच-

श्रूयतां च ऋषिश्रेष्ठा हरीश्वरकथा शुभा ।यतस्सुदर्शनं लब्धं विष्णुना शंकरात्पुरा । ४।

कस्मिंश्चित्समये दैत्याः संजाता बलवत्तराः।।लोकांस्ते पीडयामासुर्धर्मलोपं च चक्रिरे ।५।

हे श्रेष्ठ ऋषियों हरीश्वर की श्रेष्ठ कथा  सुनोजिस  पूर्व समय में  विष्णु ने भगवान शिव से सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था । किसी समय दैत्य बलवान हो गये जो संसार को पीडित करने लगे और धर्म का लोप हो गया था ।अन्यत्र शास्त्रों में यह भी कहा गया कि सुदर्शन चक्र स्वयं भगवान विष्णु का अंश था।

(शिवपुराण रुद्रकोटिसंहिता अध्याय 38)

व्यास उवाच ।।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य सूतस्य च मुनीश्वराः ।।
समूचुस्तं सुप्रशस्य लोकानां हितकाम्यया ।। १ ।।


ऋषय ऊचुः ।।

सूत सर्वं विजानासि ततः पृच्छामहे वयम् ।।
हरीश्वरस्य लिंगस्य महिमानं वद प्रभो ।। २ ।।
चक्रं सुदर्शनं प्राप्तं विष्णुनेति श्रुतं पुरा ।।
तदाराधनतस्तात तत्कथा च विशेषतः ।। ३ ।।
सूत उवाच ।।
श्रूयतां च ऋषिश्रेष्ठा हरीश्वरकथा शुभा ।।
यतस्सुदर्शनं लब्धं विष्णुना शंकरात्पुरा ।। ४ ।।
कस्मिंश्चित्समये दैत्याः संजाता बलवत्तराः ।।
लोकांस्ते पीडयामासुर्धर्मलोपं च चक्रिरे ।। ।। ५ ।।
ते देवाः पीडिता दैत्यैर्महाबलपराक्रमैः ।।
स्वं दुखं कथयामासुर्विष्णुं निर्जररक्षकम् ।। ६ ।।
देवा ऊचुः ।।
कृपां कुरु प्रभो त्वं च दैत्यैस्संपीडिता भृशम् ।।
कुत्र यामश्च किं कुर्मश्शरण्यं त्वां समाश्रिताः ।। ७ ।।
सूत उवाच ।।
इत्येवं वचनं श्रुत्वा देवानां दुःखितात्मनाम् ।।
स्मृत्वा शिवपदांभोजं विष्णुर्वचनमब्रवीत ।। ८ ।।
विष्णुरुवाच ।।
करिष्यामि च वः कार्य्यमाराध्य गिरिशं सुराः ।।
बलिष्ठाश्शत्रवो ह्येते विजेतव्याः प्रयत्नतः ।। ९ ।।
सूत उवाच ।।
इत्युक्तास्ते सुरास्सर्वे विष्णुना प्रभविष्णुना ।।
मत्वा दैत्यान्हतान्दुष्टान्ययुर्धाम स्वकंस्वकम् ।। 4.34.१० ।।
विष्णुरप्यमराणां तु जयार्थमभजच्छिवम्।।
सर्वामराणामधिपं सर्वसाक्षिणमव्ययम् ।।११।।
गत्वा कैलासनिकटे तपस्तेपे हरिस्स्वयम् ।।
कृत्वा कुंडं च संस्थाप्य जातवेदसमग्रतः ।।१२।।
पार्थिवेन विधानेन मंत्रैर्नानाविधैरपि।।
स्तोत्रैश्चैवाप्यनेकैश्च गिरिशं चाभजन्मुदा ।।१३।।
कमलैस्सरसो जातैर्मानसाख्यान्मुनीश्वराः ।।
बद्ध्वा चैवासनं तत्र न चचाल हरिस्स्वयम् ।। १४ ।।
प्रसादावधि चैवात्र स्थेयं वै सर्वथा मया ।।
इत्येवं निश्चयं कृत्वा समानर्च शिवं हरिः।।१५।।
यदा नैव हरस्तुष्टो बभूव हरये द्विजाः ।।
तदा स भगवान्विष्णुर्विचारे तत्परोऽभवत्।।१६।।
विचार्यैवं स्वमनसि सेवनं बहुधा कृतम् ।।
तथापि न हरस्तुष्टो बभूवोतिकरः प्रभुः ।।१७।।
ततस्तु विस्मितो विष्णुर्भक्त्या परमयान्वितः ।। १९ ।।
सहस्रैर्नामभिः प्रीत्या तुष्टाव परमेश्वरम् ।। १८ ।।
प्रत्येकं कमलं तस्मै नाममंत्रमुदीर्य च ।।
पूजयामास वै शंभुं शरणागतवत्सलम् ।। १९ ।।
परीक्षार्थं विष्णुभक्तेस्तदा वै शंकरेण ह ।।
कमलानां सहस्रात्तु हृतमेकं च नीरजम् ।।4.34.२०।।
न ज्ञातं विष्णुना तच्च मायाकारणमद्भुतम् ।।
न्यूनं तच्चापि सञ्ज्ञाय तदन्वेषणतत्परः ।। २१ ।।
बभ्राम सकलां पृथ्वीं तत्प्रीत्यै सुदृढव्रतः ।।
तदप्राप्य विशुद्धात्मा नेत्रमेकमुदाहरत् ।। २२ ।।
तं दृष्ट्वा स प्रसन्नोऽभूच्छंकरस्सर्वदुःखहा ।।
आविर्बभूव तत्रैव जगाद वचनं हरिम् ।। २३ ।।
शिव उवाच ।।
प्रसन्नोऽस्मि हरे तुभ्यं वरं ब्रूहि यथेप्सितम् ।।
मनोऽभिलषितं दद्मि नादेयं विद्यते तव ।। २४ ।।
सूत उवाच ।।
तच्छ्रुत्वा शंभुवचनं केशवः प्रीतमानसः ।।
महाहर्षसमापन्नो ह्यब्रवीत्सांजलिश्शिवम् ।। २५ ।।
विष्णुरुवाच ।।
वाच्यं किं मे त्वदग्रे वै ह्यन्तर्यामी त्वमास्थितः ।।
तथापि कथ्यते नाथ तव शासनगौरवात्।।२६।।
दैत्यैश्च पीडितं विश्वं सुखं नो नस्सदा शिव ।।
दैत्यान्हंतुं मम स्वामिन्स्वायुधं न प्रवर्त्तते।।२७।।
किं करोमि क्व गच्छामि नान्यो मे रक्षकः परः।।
अतोऽहं परमेशान शरणं त्वां समागतः ।।२८।।
सूत उवाच ।।
इत्युक्त्वा च नमस्कृत्य शिवाय परमात्मने।।
स्थितश्चैवाग्रतश्शंभोः स्वयं च पुरुपीडितः।।२९।।
सूत उवाच ।।
इति श्रुत्वा वचो विष्णोर्देवदेवो महेश्वरः ।।
ददौ तस्मै स्वकं चक्रं तेजोराशिं सुदर्शनम्।।4.34.३०।।
तत्प्राप्य भगवान्विष्णुर्दैत्यांस्तान्बलवत्तरान् ।।
जघान तेन चक्रेण द्रुतं सर्वान्विना श्रमम् ।। ३१ ।।
जगत्स्वास्थ्यं परं लेभे बभूवुस्सुखिनस्सुराः ।।
सुप्रीतः स्वायुधं प्राप्य हरिरासीन्महासुखी ।। ३२ ।।
ऋषय ऊचुः ।।
किं तन्नामसहस्रं वै कथय त्वं हि शांकरम् ।।
येन तुष्टो ददौ चक्रं हरये स महेश्वरः ।। ३३ ।।
तन्माहात्म्यम्मम ब्रूहि शिवसंवादपूर्वकम् ।।
कृपालुत्वं च शंभोर्हि विष्णूपरि यथातथम् ।।३४।।
व्यास उवाच ।।

_______________
इति तेषां वचश्श्रुत्वा मुनीनां भावितात्मनाम् ।।
स्मृत्वा शिवपदांभोजं सूतो वचनमब्रवीत् ।।३५।।
इति श्रीशिव महापुराणे चतुर्थ्यां कोटिरुद्रसंहितायां विष्णुसुदर्शनचक्रलाभवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।।३४।।


शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

धर्म एक जीटी रोड़ है तो सम्प्रदाय उस रोड़ तक पहुँचने वाली पगदण्डीयाँ या मार्ग हैं जो कुछ तो वहाँ पहुँच जाते हैं और कुछ बीच में ही खत्म हो जाते हैं।

धर्म का विकास और सम्प्रदायों की विभेदक रेखा...

धर्म एक जीटी रोड़ है तो सम्प्रदाय उस रोड़ तक पहुँचने वाली पगदण्डीयाँ या मार्ग हैं जो कुछ तो वहाँ पहुँच जाते हैं और कुछ बीच में ही खत्म हो जाते हैं।

                    (प्रथम अध्याय)

सभ्यता के विकास क्रम में धर्म की आवश्यकता तब हुई; जब मनुष्य मन को सन्तुष्ट करके भी सन्तुष्ट नहीं कर पाया ! 

वह भौतिक सुखों का भोग करके भी सुखी नहीं हो पाया ,उसे लगा कि संसार रूपी महानदी में इच्छाओं के अथाह जल में स्वाभाविकताओं के वेगहों  से प्रेरित अहंकार  की जो लहरें हैं ;

उन्हीं लहरों के आगोश में अपराध या पाप के बुलबुले उत्पन्न होकर मनुष्य को अनेक शरीरों की प्राप्ति कराते रहते हैं ! और यह क्रम अनन्त काल से अनन्त काल तक चलता रहता है।

शरीरों की प्राप्ति प्राणी को उसके संस्कारों के अनुरूप ही मिलती है ; ये  संस्कार उसके मनोयोग से किए गये कर्मों द्वारा निश्चित होते हैं ।

जिनके  प्रभाव से निजात ( मुक्ति) पाना जीवन-कल्याण के लिए आवश्यक है और इस  उपाय का नाम धर्म ही है 

और इसी आवश्कता की पूर्ति के लिए आचरण मूलक व्रत किये जाते हैं।

वही धर्म के प्रारम्भिक प्रारूप थे. 
मनुष्य का जीवन स्वभाविकता के प्रवाह में निरन्तर बहता  रहता है ! 

यह स्वाभाविकता प्रवृत्तियों में उसी प्रकार समायोजित है। जैसे प्रकाश में चमक अथवा
पवित्रता में स्वच्छता  समाहित  होती है |

स्वभाव जन्म से उत्पन्न गुण है जो मनुष्य के प्रारब्ध की गन्ध ही है और प्रवृत्तियाँ मनुष्य की यौनि या जातीय शरीर के अनुरूप ही होती हैं ।
अर्थात् प्रवृत्ति का सम्बन्ध विभिन्न प्राणीयों की जाति से है। जैसे कुत्ता बिल्ली चूहा आदि ।

जातीय- शरीर का तात्पर्य है जैसे स्त्री जाति, गोजाति अश्व जाति, कुत्ता जाति अर्थात् समान प्रसवात्मिका प्राणी ही सजातीय होते हैं ।

प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार  मस्तिष्क के सी▪पी▪ यू▪ में  (System Software) सिस्तम - साॅफ्तवेयर ) के समान स्थाई  हैं

आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है 
आदत केवल  (Application Software)(एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई  हैं   जिन्हें आवश्यकता के अनुसार इन्स्टॉल या अनइन्सटॉल भी किया जा सकता है।|

और यही  स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है  उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है । क्यों संसार में अन्धकार स्वाभाविक है जिसका कोई कृत्रिम स्रोत नहीं है। 
जैसे प्रकाश का स्रोत सूर्य अग्नि अतथवा दिपक होता है।

आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है 
क्यों कि आदत मनुष्य स्वयं बनाता है जबकि स्वभाव स्वयं ही प्रारब्ध से बनता है !
जिसमें पिता अथवा माता के जैनेटिक गुण होते हैं।

आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई  हैं  |

आदतें बनायी और बिगाड़ी जा सकती हैं परन्तु स्वभाव बनाया नहीं जा सकता है !
और यही  स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है  उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है !

मनुष्य के पापों का कारण केवल अहंकार  ही है 
अहंकार मनुष्य को एक एहसास कराता है कि वह किस बिन्दु पर अपूर्ण या जरूरत मन्द है 

उसकी अपूर्णता ही उसे आवश्यकता  मूलक दृष्टि कोण प्रदान करती है 
सौन्दर्य भी केवल आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण ही है ।
महिलाओं की कोमलता पुरुष को सौन्दर्य बोध कराती है।

क्यों कि पुरुष में कोमलता का अभाव और कठोरता का भाव होता है !

और इस अपूर्णता की पूर्ति के लिए जो भाव उत्पन्न होता है वह काम है काम आवेशमयी कामना आपूर्ति का प्रवाह है यहीं से पाप एक पेप (जोश ) के रूप में उत्पन्न होकर 

ज्ञान को आच्छादित कर देता है 
संसार ज्ञानी और योगी भी सौन्दर्य विमोहित होकर पतित हो जाते है क्यों उनमें ईश्वर के प्रति समर्पण भाव अर्थात् भक्ति नहीं होती जबकि भक्त सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देता है कि क्या उसके लिए उचित है और क्या अनुचित है।

तब उसका भटकना तो  ईश्वर का भटकना ही है 
और ईश्वर तो कभी भटक ही नहीं सकता है 
और भक्ति वस्तुत: ज्ञान और कर्म का ही सम्यक् रूपानतरण है " भक्त ज्ञानी और कर्म करने वाला से श्रेष्ठ होता है।

आपने पुराणों में ऋषियों के सुन्दरियों को देखकर स्खलित  अथवा कामपीड़ित होने के भी दृष्टान्त सुने होंगे ।  परन्तु किसी निष्काम भक्त के विचलित होने या कामातुर होने को प्रसंग नहीं सुने होंगे ! 

कृष्ण जी ने भगवद्- गीता को भागवत धर्म के प्रतिनिधि रूप में प्रकाशित किया जिसमें भक्ति योग का ही प्राधान्य है ..

दुनिया में केवल पाँच ही व्यक्ति सम्मान या प्रतिष्ठा के पात्र हैं   -१ धनी - २ सुन्दर -३बलवान-४ वृद्ध इन्सान ५-ज्ञानी 

छठा व्यक्ति कौन हो सकता है 
भक्त जो सबसे श्रेष्ठ है उसका सम्मान दुनियाँ में नहीं होता  और वह दुनियाँ के सम्मान का तलबदार भी नहीं है । भक्त तो भगवान को भी वश में कर लेता है उसमें अहंकार का पूर्ण रूपेण अभाव होता है।
अहंकार ही  संसार है। भक्त अहंकार से परे होता है। अहंकार प्राणी को सीमित परिधि में परिबद्ध करता है। 

संसार का स्वरूप अन्धकार है क्यों कि अन्धकार का कोई श्रोत नजर नहीं होता जबकि प्रकाश किसी न किसी श्रोत से उत्पन्न होता है |

सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकारो उन्मुख है।

इसी स्वाभाविकता के  दौरान वह मनुष्य भी कभी मोह के भँवरों में लोभ के गोते खाता हुआ  और अन्त में डूब भी जाता है ...

स्वाभाविकता से प्रेरित मनुष्य पुण्य और पाप , सुख और दु:ख को भी क्रमश: पाता रहता है !

स्वाभाविकताओं का दमन ही संयम था और यही यम धर्म का अधिष्ठात्री देवता हुआ |

 जबकि अज्ञात शक्ति के प्रति विश्वास पूर्ण भावना आस्था या श्रृद्धा है जिसमें सात्विक अनुभतियों की महती भूमिका है ।

यदि आस्था में  मनन या ज्ञान न हो तो वह आस्था अन्धी  है । परन्तु आस्था जब हृदय की सात्विक अनुभूतियों का प्रतिफलन होती तभी वह ज्ञान की उद्भासिका होती है ।

श्रृद्धा,  धर्म,  ज्ञान और भक्ति सभी तत्व सम्पूरक रूप में परस्पर निबद्ध हैं । इसी लिए किसी का एकल महत्व नहीं है।
 श्रृद्धा भाव पक्ष है तो मनन मस्तिष्क पक्ष है ।
महिलाओं में भावनाओं की प्रधानता और पुरुषों में विचारों का प्राधान्य होता है।

जैसे धर्म नीति दर्शन आदि सभी का समन्वित रूप अध्यात्म है .🌻🌻

श्रृद्धा धर्म का  प्रारम्भिक चरण है धर्म में केवल आत्मोत्थान  के लिए सदाचरण का भाव प्रमुख हो जाता है .श्रृद्धा और धर्म हृदय- स्पन्दन और श्वाँस के समान परस्पर सम्पूरक हैं ।

जैसे पुष्प में सुगन्ध और पराग होती  समायोजित होती है। ठीक वैसे ही श्रृद्धा से उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसी से भक्ति उत्पन्न होती है । 
इसी लिए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया 
श्रृद्धावान्लभते ज्ञानं-श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।
अनुवाद:-
 जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

भक्ति साधन नहीं साध्य है  क्यों कि यही ईश्वरीय सत्ता  की अनन्त अनुभूति कराती यह अनन्त अनुभूति विशाल से शूक्ष्मता के प्रति  अग्रसर अनुभूति है। अहंकार की शून्यता  जहाँ अनिवार्य है 
स्व की व्यापकता और अनन्त के प्रति विलय अथवा आत्म समर्पण ही भक्ति है।

स्वाभिमान व अभिमान जैसे भाव भी इसमें नहीं होते हैं !

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क्यों कि अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल (थाँमला) है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
और संकल्प से इच्छा और इच्छा ही संसार में कर्म की जननी है 
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स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप है जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।
और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है । अत: अहं और स्वयं दो विपरीत स्थितियाँ हैं। जैसे हठ और संकल्प 

जैसे-  संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गयी निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता  है। और हठ अज्ञानता पूर्वक ली गयी मानसिक दृढ़ता है ।

परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।
और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो कर्म के लिए प्रेरित करती है ।
और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की 
और कर्म ही इस प्रकार  जीवन और संसार का सृष्टा है।
महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा।
संसार का सार है  संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती  स्थितियाँ के रूप में अनुभव हुईं

मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च" 
ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष ।

मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।
उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश 
ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
और इच्छा का भौतिक रूपान्तरण ही ऊर्जा है या शक्ति है 
मुझे लगा कि  अब हम सत्य के समीप आ चुके हैं। मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है।

पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।

जो उन्हें आवेशित करता है 
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।

जो उन्हें आवेशित करती है 
क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।

और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानती हैं ।
और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ; 

वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही उसी अनुपात में  ख़ूबसूरत होती है।
वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना  का जन्म हुआ है ।

और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।कर्म भारतीय सनातन संस्कृति की वह अवधारणा है ! जो

उन्हें  दुनियाँ के  आदिम द्रव- वेता  द्रविडो से व्याख्यायित रूप में  एक प्रतिक्रियात्मक प्रणाली के के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती हुई प्राप्त हुई है, !!

जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हानिकर कार्यों का हानिकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुन: अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है। 
.....
कहा जाता है कि कार्य-कारण सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया में लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं। 
जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है।

चेतना के क्रमिक विकास का स्तर ही विभिन्न प्रकार की यौनियों का निर्धारक है .

कर्म व्युत्पत्ति का आधार मन का संकल्प- प्रवाह है संकल्प की गन्ध और इच्छाऔं का पराग से ही कर्म पुष्प का स्वरूप है जो भोग के फल का कारक है

किये गए कृत्यों के निर्णायक प्रतिफल के सन्दर्भ में आत्मा के देहांतरण या पुनर्जन्म का सिद्धांत ऋग्वेद में नहीं मिलता है।

 कर्म की अवधारणा सर्वप्रथम भगवद गीता
 (पञ्चम सदी ) में सशक्त शब्दों में प्रकट हुई।

काल परिवर्तन और कर्म क्रमशः वाष्प जल और हिम के सदृश्य विका - क्रम की श्रृंखला हैं ..

"कर्म" का शाब्दिक अर्थ है "काम" या "क्रिया" और भी मोटे तौर पर यह निमित्त और परिणाम तथा क्रिया और प्रतिक्रिया कहलाता है, जिसके बारे में प्रचीन भारतीयों का मानना है। -------

जीवन एक पुष्प है प्रवृत्ति उसकी गन्ध ,तथा स्वभाव पराग के सदृश्य है 

इन्हीं गन्ध और पराग के द्वारा 
प्रारब्ध के फल का निर्माण होता है 

विचार - विश्लेषण ---- यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़..8077160219----सम्पर्क - सूत्र

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आस्था हृदय की आस्तिक अनुभूतियों से उत्पन्न सात्विक बुद्धि का प्रकाश ही है 

जिससे ईश्वर की अनन्त सत्ता का आभास होता है
जब अन्त: करण रूपी दर्पण  स्वच्छ हो जाता है 

तब ही ईश्वरीय ज्ञान बुद्धि पर परावर्तित होता है
और अन्त: करण सदाचरण से भी शनै: शनै: स्वच्छ हो जाता है तब भी यही होता है ! 

ये अहंकार ही व्यक्ति को सीमित करता है 
तब व्यक्ति समुद्र से बिन्दु बन जाता है !
आचरण में जब सात्विक भाव होता है तब 'वह सदाचरण होता है 

जबकि सभ्यता मानव आचरण का वह केवल भौतिक सामूहिक पक्ष है 

जो संस्कृति की कर्म समष्टि मूलक व्याख्या है 

जैसे व्यक्ति का व्यवहार उसके विचारों की व्याख्या है 

सभ्यता में अध्यात्म की अनिवार्यता नहीं है 
परन्तु नैतिकता सभ्यता का प्राण है 

क्यों कि जब आचरण में सद का भाव समाहित होता है तब 'वह धर्म रूप धारण करता है 

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परन्तु  आस्था अथवा श्रृद्धा का जन्म तो तभी हुआ जब मनुष्य अज्ञात शक्तियों के  चमत्कार के  प्रति  विश्वास पूर्ण भावना से नत- मस्तक हुआ और अपने अनिष्ट निवारण के प्रति उस अज्ञात शक्ति  से अनुनय -विनय करने के लिए क्रियाओं के रूप  में हुआ उद्यत हुआ ...

उसके अन्त:करण की अनुभूतियों ने उसकी आस्था को पुष्ट किया 

वाकई जिसके लिए कोई शब्द नहीं थे 

और धर्म का विकास अध्यात्म की उन साधाना मूलक क्रियाओं के रूप में हुआ है जिसके द्वारा व्यक्ति ने अपने मन के नियमन के लिए जिस सदाचरण को आधार बनाया ...

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के नैतिक पूर्ण ढंग के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है।

अथवा कहें संस्कृति समाज के सामूहिक परम्परा गत रूप से आयात वैचारिक पक्ष ही है 

जबकि सभ्यता मानव का आचरण पक्ष है वह भी परम्परा गत ही है !

अंग्रेजी में संस्कृति के लिये (Culture)  'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है; जो यूरोपीय लैटिन भाषा के ‘कल्ट (Cult)  क्रिया से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। 

मस्तिष्क रूपी क्षेत्र की फसल या उपज है 
संस्कृति  का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है।
अत: 'वह अपने सुधार के प्रति अग्रसर रहा 
 यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है यही उसकी संस्कृति है । 

ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। 

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विचारों का ही स्थूल रूप कर्म होता है
उसी प्रकार संस्कृति का स्थूल रूप सभ्यता है 

सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के शारीरिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। 

मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता।

वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और हृदय भी है।

भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और हृदय  तो अतृप्त ही बने रहते हैं 

इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं। 

मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए  वह आनन्द की अनुभूति करता है ...

आनन्द से उत्पन्न आनन्द उसकी आवश्यकता  है 
क्यों कि सौन्दर्य भी आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है 

और वह सौन्दर्य अनुभूति के लिए संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। 

सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है।

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इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। 

इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं के वैचारिक पक्ष का समावेश होता है।

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संस्कृति जीवन जीने की विधि है।
 जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा करते हैं, ये सभी सभ्यता कहलाते हैं; 

तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है। 
क्यों कर्म पहले मन से विचारों के रूप में उत्पन्न होता है 

सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं;और कार्य करते हैं।

 इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं।

 एक समाज वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। 

तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।

इस प्रकार संस्कृति मानव जनित मानसिक पर्यावरण से सम्बंध रखती है जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान किये जाते हैं।

समाज-वैज्ञानिकों में एक सामान्य सहमति है कि संस्कृति में मनुष्यों द्वारा प्राप्त सभी आन्तरिक और बाह्य व्यवहारों के तरीके समाहित हैं। 

ये चिह्नों द्वारा भी स्थानान्तरित किए जा सकते हैं;
 जिनमें मानवसमूहों की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी समाहित हैं। 

इन्हें शिल्पकलाकृतियों द्वारा मूर्त रूप प्रदान किया जाता है।

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 (वस्तुतः, संस्कृति का मूल केन्द्र-बिन्दु उन सूक्ष्म विचारों में निहित है जो एक समूह में ऐतिहासिक रूप से उनसे सम्बद्ध मूल्यों सहित विवेचित होते रहे हैं)। 

संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैं, विचार करते हैं और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं।

संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है। 

(संस्कृति और सभ्यता )
संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं।

 फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है; और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं।

 संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है; और उसका निवास उसके मानस पटल में होता है। 

दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है।

 जो शरीर पर व्यवहार रूप में प्रकट होता है 
'सभ्य' का शाब्दिक अर्थ है, 'जो सभा में सम्मिलित होने योग्य हो'। 

इसलिए, सभ्यता ऐसे सभ्य व्यक्ति और समाज के सामूहिक आचरणगत स्वरूप को आकार देती है।

 सभ्यता को अंग्रेजी में 'सिविलाइज़ेशन' (civilization) कहते है; और कल्चर (culture) से उसका अन्तर स्पष्ट ही है। 

संस्कृति और सभ्यता में भी वही भेद है।

जो आत्मा और शरीर में अथवा सुगन्ध और पराग में  जो समाञ्जस्य है 

प्रारम्भ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था, शनैः-शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली। 

अब वह अयस और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है।
प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे।
फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ का आश्रय लिया। 

अब मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है। 

पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था। 

बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की। 

पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था। 

पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल, गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा।

अन्त में उसने हवा पानी, वाष्प, बिजली और अणु की भौतिक शक्तियों का विश्लेषण   करके ऐसे यन्त्र आविष्कार किये , जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई। 
मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।
सभ्यता’ का अर्थ है जीने के बेहतर तरीके है 

इसके अन्तर्गत समाजों को राजनैतिक रूप से परिभाषित वर्गों में संगठित करना भी सम्मिलित है जो भोजन, वस्त्र, संप्रेषण आदि के विषय में जीवन स्तर को सुधारने का प्रयत्न करते रहते हैं। 

इस प्रकार कुछ वर्ग अपने आप को अधिक सभ्य समझते हैं, और दूसरों को हेय दृष्टि से देखते और असभ्य समझते हैं।

कुछ वर्गों की इस मनोवृत्ति ने कई बार संघर्षों को भी जन्म दिया है जिनका परिणाम मनुष्य के विनाशकारी विध्वंस के रूप में हुआ है।

सभ्यता का अर्थ अब आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियो का मानक है ...

इसके विपरीत, संस्कृति आन्तरिक अनुभूति से सम्बद्ध वैचारिक पक्ष है जिसमें मन और हृदय की पवित्रता निहित है। 

परन्तु अब पवित्रता नहीं स्वच्छता  विद्वता नहीं अपितु चालाकी है |

इसमें कला, विज्ञान, संगीत और नृत्य और मानव जीवन की उच्चतर उपलब्धियाँ सम्मिलित हैं जिन्हें 'सांस्कृतिक गतिविधियाँ' कहा जाता है।

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 एक व्यक्ति जो निर्धन है, सस्ते वस्त्र पहने है, वह असभ्य तो कहा जा सकता है परन्तु वह सबसे अधिक सुसंस्कृत व्यक्ति भी कहा जा सकता है। 

एक व्यक्ति जिसके पास बहुत धन है वह सभ्य तो हो सकता है पर आवश्यक नहीं कि वह सुसंस्कृत भी हो। 

अत: संस्कृति और सभ्यता अब बिखर कर रह गये हैं।
अतः जब हम संस्कृति के विषय में विचार करते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि यह सभ्यता से अलग है। 

संस्कृति मानव के अन्तर्मन का उच्चतम वैचारिक स्तर है।
 जबकि सभ्यता  शरीर से सम्बद्ध  भौतिक सुविधा का मानक है परन्तु मानव केवल शरीरमात्र नहीं हैं।

 वे तीन स्तरों पर जीते हैं और व्यवहार करते हैं - भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 
शरीर मन और आत्मा 
जबकि सामाजिक और राजनैतिक रूप से जीवन जीने के उत्तरोत्तर उत्तम तरीकों को तथा चारों ओर की प्रकृति का बेहतर उपयोग ‘सभ्यता’ कहा जा सकता है परन्तु सुसंस्कृत होने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। 

जब एक व्यक्ति की बुद्धि और अन्तरात्मा के गहन स्तरों की अभिव्यक्ति होती है तब हम उसे ‘संस्कृत’ कह सकते हैं।

आज की सभ्यता केवल फर्जी मुखौटों के दौर में गुम हो गयी है 

विचार और भावों के अनुरूप आचरण आज व्यक्ति कभी करता नहीं ! 

जब वह अक्सर मंच या सामाजिक रूप में मुखातिब होता हैं तब आदमी मुखौटा ही लगाता है|

 उसकी फर्जी मुस्कराहटों और फर्जी आहटों से अपनी औपचारिक प्रस्तुति दर्ज कराता है  ;उसकी कृत्रिम नम्रता आदि सभी उसके सभ्य होने के प्रतिमान हैं ..

योग एक आध्यात्मिक प्रकिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (संयुक्त करने ) का काम होता है।

 यह शब्द -धैर्य  प्रक्रिया और धारणा की स्थिरता ये सम्बद्ध है -  ये ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। 

योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत में लोग इससे परिचित 

 भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। 

वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। 

जो मनोनियन्त्रण के बल पूर्वक किये गये उपक्रम थे।‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

 इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।

 वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।

जो धर्म के सन्निकट है 

गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्‌' ( कर्मों में कुशलता ही योग है।)

 पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', 

चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। 

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

प्रवृत्तियों के निर्देशन में मन  इन्द्रियों के विभिन्न कार्यों के लिए प्रेरित कराता है 

और काम प्रवृत्ति सबसे प्रबल है स्वाभाविकता की. धारा में प्रवृत्तियों के वेग का निरोध कर इसके विपरीत चलने का उपक्रम योग या धर्म है।

 योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

(१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्

मन के विकारों की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म का विकास 

मनो नियमन की क्रियाओं से हुआ  था 
यम को धर्म का अधिष्ठात्री देवतावत माना गाया है 
भारती स्मृतियों (धर्म शास्त्रों ) में आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं। 

परन्तु  पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी अन्य  ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं।

— ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय।

 'यम' योग के आठ अंगों में से पहला अंग है।

चित्त की वृत्तियो या प्रवृत्तियों  का निरोध योग है और यम योग के प्रमुख चरण में से एक  है 

धर्म में भी व्यक्ति तप रूपी सदाचरण का पालन स्वाभाविकता का दमन करके ही करता है ..

स्वाभाविकता को दबाकर ही हम दूसरों के समाने
सभ्य दिखाने के लिए आचरण करते हैं 
जैसे हम कहीं घर से बाहर जाते हैं तब 
यम के अन्तर्गत 
पांच सामाजिक नैतिकता हैं

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना

(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना

(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना

(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं-

चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना

नियम
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि

(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना

(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना

(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना

(ड़) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए

संसार की दरिया को पापर करने के लिए तैरना हीह पड़ेगा तैरना में स्वाभाविकता के वेगों का दमन करके ही तो  हम तैर पाऐंगे जिसमें 

संसार की दरिया में लोभ के गोतों और मोह के अथाह भँवर देखे 

मन को स्वाभाविकता से प्रेरित जानकर साधक ने मन के विरुद्ध भी विद्रोह कर दिया !

उपनिषदों में यही निर्देश है कि मन को बुद्धि या योग से वश में करें 🌻

ये यम ,नियम और संयम ही धर्म के आधार स्तम्भ हैं 

धर्म वस्तुत: स्वाभविकता के दमन या संयम की ही प्रक्रिया है ; क्यों कि जिसने स्वाभाविक धाराओं के विपरीत तैरने की कोशिश की है वही पार हुआ है और धर्म स्वाभाविकताओ का दमन का ही नाम है 

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फिर कालान्तरण में पुरोहितों ने स्वभाव को ही धर्म माना परिणाम यह हुआ कि समाज का घोर नैतिक पतन हुआ कृष्ण ने धर्म को एक नदी की धाराओं के विरुद्ध प्लावन या तैरने की क्रिया कहा जो कि सत्य ही है !

 कृष्ण का और बुद्ध तथा महावीर का भी धर्म मार्ग स्वाभाविकता का दमन ही था 

जिसे उन्होंने तप या  योग कहा

न कि स्वाभाविकता को धर्म माना

भारतीय पुराणों में अनेक स्थलों पर धर्म को किसी ऐसे देव याय शक्ति  के रूप में दर्शाया गया है जो न्याय और प्राकृतिक व्यवस्था की प्रतिमूर्ति है जिसे यम नाम दिया गया ...

 इसी प्रकार, यम को 'धर्मराज' कहा जाता है क्योंकि वे मनुष्यों को उनके कर्म के अनुसार निर्णय करके गति देते हैं।

संयम के भाव के कारण ये यम हैं 

  तत्व-वेत्ताओं ने  उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, 
और उसके शरीर के मध्य का संबंध को स्पष्ट करते हुए कहा है ।

 देखें संबंधित आख्यान में यम देवता के अवलम्बन से निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन की सार्थक: उपमा अथवा रूपक के सूचक हैं ! 
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  आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
 बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।३

 (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
 (आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

 इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । 
(लगाम – 
इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु, 
अगले मंत्र में उल्लेख 
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 इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४) 
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)

 मनीषियों, या विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
 इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर रूपी रथ का भोग करने वाला बताया है
प्राचीन समय में रथ यातायात के साथन के रूप में मान्य था  चरत् शब्द रूप से रथ का विकास हुआ 🌻🌺

  प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । 
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।

क्यों ये आत्मा को स्थाई तुष्टि देने वाला नहीं था 
और उन साधकों की जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
 
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं । 
 उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
जो वस्तुत: मन के ही विकल्प हैं आत्मा के नहीं
 मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है । 
सांख्य दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः 
पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, 
जो सुख या दुःख के तौर पर । 

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

 किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर हुए नियंत्रण पर निर्भर रहता है ।

 इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से चिन्तन रहा है ।
 उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।
इस लिए मन को ज्ञान से जीतना चाहिए

 इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा 
बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है !
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स्वभाव भी मानव प्रवृत्तियों के अनुरूप उन्हीं का परिणाम है स्व भाव प्रवृत्तियों का अनुगामी है 

ये मनुष्य को जन्म से प्राप्त शरीर तथा प्राणी की जाति गत निर्धारक तत्व है जैसे सभी कुत्ते चरणोत्थान कर मूत्र विसर्जन क्रिया सम्पन्न करते हैं सभी वानर आँख दिखाकर घुडंकी लगाते हैं 

ऐसे ही सभी कौए प्रात: पूरब दिशा से पश्चिम की और या सूर्य की विपरीत दिशा में भोजन की तलाश में दूर तक जाते हैं ये इनकी प्रवृत्तियाँ ही हैं 🌻💂

जिन्हें हम इनका (सिस्तत साॅफ्टटवेयर) मान भी  सकते हैं __________

वास्तव नें धर्म को स्वभाव जन्य क्रिया के रूप में परिभाषित करना लोगों का चरित्र पतन करना सिद्ध हुआ 

परन्तु जब समय के अन्तराल से पुरोहितों ने धर्म को स्वभाव तक ही परिभाषित किया 

प्रवृत्ति , देश काल और परस्थितियों के अनुरूप धर्म की व्याख्याऐं भी होती रही हैं कृष्ण के युग से लेकर बुद्ध

के युग तक पुरोहितों ने धर्म की विवेचनाऐं स्वभाव मूलक की हैं पुरोहितों ने स्वभाव जन्य कर्मों को ही धर्म माना 

अधिकतर रूपों में धर्म को एक स्वभाव जन्य सत्ता के रूप में पुरोहितों द्वारा मान्य किया गया जैसे👇
वर्ण- व्यवस्था काल में धर्म का अर्ध बदल गया 

किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो वही उसका धर्म है । 

जैसे सुगन्ध या दुर्गन्ध पुष्प का धर्म है 
इन अर्थों में  प्रकृति, स्वभाव, नित्य प्रवृत्तियाँ ही धर्म हैं  । 

जैसे, नेत्र का धर्म देखना, शरीर का धर्म भोजन द्वारा पोषण और तो और  सर्प का धर्म काटना , दुष्ट का धर्म दुःख देना । 

इन अर्थों में भी धर्म परिभाषित हुआ 

विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । देखें निम्न ऋचा

देवता:  विष्णुः  ऋषि:  मेधातिथिः काण्वः  छन्द:  पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। 

अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥

पद पाठ
त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः।

 अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥

धर्मों को धारण करते हुए वह तीन पदों से गोप रूप में विचरण करते हैं 

ऋग्वेद » मण्डल:1»  /सूक्त:22»/ ऋचा 18 .
यदि (अद् = बन्धने )धातु से अदाभ्य: क्रिया पद ग्रहण किया जाए तो अर्थ होगा जो धर्म में बाँध कर सबको धारण करता है |

अर्थात् प्राणी प्रवृत्तियों के अनुरूप व्यवहार करता रहता है
पदार्थान्वयभाषाः -जिस कारण यह दम्भ:(अदाभ्यः) जिस मारा न जा सके ...या संसार को धर्म में बाँधने वाला 
(गोपाः) और गायों की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) चरणों से  (विचक्रमे) गमन करता है,
 (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥१८॥

वामन अवतार के विष्णु का यही ऋचा आधार है
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दम्भ ण्यत् नलोपोपधावृद्धी नञ् तत्पुरुष  ।
 अहिंस्ये । 
“यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवीति यजुर्वेद ७/ २, हे सोम ! ते त्वदीयमहिसितं जागृवि जागरणशीलमिति वेददीपः ।
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यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।

समय के सापेक्ष धर्म की अर्थवत्ता के आयामों का विस्तार भी हुआ 
अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो धर्म है  ।
 वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है ।

 जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरण, इस उदाहरण में कोमल चरण और ललाई साधारण धर्म है ।

 किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य या ऋषि द्वारा  निर्दिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति  के अर्थ में किया जाय ।

 वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।
 जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।
 शुभ दृष्टि ।
 विशेष—मीमांसा के अनुसार वेद विहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है । 

जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।

 संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है ।

 कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।

 यद्यपि  श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था । 

वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । 

वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो ।

जैसे वर्णाश्रम धर्म 
 वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिए करना चाहिए । 

किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार । 

कर्तव्य अथवा फर्ज ही धर्म है  जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।
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पुष्य मित्र सुँग काल में निर्मित ग्रन्थों में
विशेषत:—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की सेवा करना ही धर्म है । 
जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद् धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है,
जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है ।
इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे ब्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि ।
 गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि । वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्ण मास बलिकर्म आदि करना इत्यादि । 
संन्यासी के लिए सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्वारा  निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना । 
यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए  इन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं। 

जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना।
जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—

जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना ।

 निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय ।

जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्ध  करने पर प्रायश्चित करना । 

इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है ।

धर्म  वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो ।

 वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शांति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले ।
कल्याण कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म आदि धर्म हैं ।

 विशेष—स्मृतिकारौ ने वर्ण, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना । 

ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आवश्यक है ।
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मनु स्मृति  में  वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच इंद्रिय-निग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध । 

मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है ।

 वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती ।

 मनुस्मृति में  कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है ।

 अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतियों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, 

 उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है ।

बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है 

शील स्वभाव का वाचक है । 

जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।

किसी आचार्य या महात्मा द्वारा प्रवर्तित ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष रूप का विश्वास ओर आराधना की विशेष प्रणाली । 

यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219

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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

धर्म और सम्प्रदाय-

धर्म का विकास और सम्प्रदायों की विभेदक रेखा...


                      (प्रथम अध्याय)

सभ्यता के विकास क्रम में धर्म की आवश्यकता तब हुई जब मनुष्य मन को सन्तुष्ट करके भी सन्तुष्ट नहीं कर पाया ! 

वह भौतिक सुखों का भोग करके भी सुखी नहीं हो पाया ,उसे लगा कि संसार रूपी महानदी में इच्छाओं के अथाह जल में स्वाभाविकताओं के वेग से प्रेरित अहंकार  की जो लहरें हैं ;

उन्हीं लहरों के आगोश में अपराध या पाप के बुलबुले उत्पन्न होकर मनुष्य को अनेक शरीरों की प्राप्ति कराते रहते हैं !

शरीरों की प्राप्ति प्राणी को उसके संस्कारों के अनुरूप ही मिलती है ; ये  संस्कार उसके मनोयोग से किए गये कर्मों द्वारा निश्चित होते हैं 

जिनके  प्रभाव से निजात पाना जीवन-कल्याण के लिए आवश्यक है और यह उपाय धर्म ही है 

और इसी आवश्कता की पूर्ति के लिए आचरण मूलक व्रत किये गये 

वही धर्म के प्रारम्भिक प्रारूप थे. 
मनुष्य का जीवन स्वभाविकता के प्रवाह में वहता रहता है ! 

यह स्वाभाविकता प्रवृत्तियों में उसी प्रकार समायोजित है जैसे प्रकाश में चमक अथवा
पवित्रता में स्वच्छता  समाहित है |

स्वभाव जन्म से उत्पन्न गुण है जो मनुष्य के प्रारब्ध की गन्ध ही है और प्रवृत्तियाँ मनुष्य की योनि या जाति शरीर के अनुरूप ही होती हैं 

जाति शरीर का तात्पर्य है जैसे स्त्री जाति, गोजाति महिषी जाति, कुत्ता जाति अर्थात् समान प्रसवात्मिका प्राणी ही सजातीय हैं 

प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार  मस्तिष्क के सी▪पी▪ यू▪ में  सिस्तम - साॅफ्तवेयर) के समान स्थाई  हैं

आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है 
आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई  हैं  |

और यही  स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है  उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है 

आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है 
क्यों कि आदत मनुष्य स्वयं बनाता है जबकि स्वभाव स्वयं ही प्रारब्ध से बनता है !

आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई  हैं  |

आदतें बनायी और बिगाड़ी जा सकती हैं परन्तु स्वभाव बनाया नहीं जा सकता है !

और यही  स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है  उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है !

मनुष्य के पापों का कारण केवल अहंकार  ही है 
अहंकार मनुष्य को एक एहसाश कराता है कि वह किस बिन्दु पर अपूर्ण या जरूरत मन्द है 

उसकी अपूर्णता ही उसे आवश्यकता  मूलक दृष्टि कोण प्रदान करती है 
सौन्दर्य भी केवल आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण ही है 
महिलाओं की कोमलता पुरुष को सौन्दर्य बोध कराती 

क्यों कि पुरुष में कोमलता का अभाव और कठोरता का भाव होता है !

और इस अपूर्णता की पूर्ति के लिए जो भाव उत्पन्न होता है वह काम है काम आवेशमयी कामना आपूर्ति का प्रवाह है यहीं से पाप एक पेप (जोश ) के रूप में उत्पन्न होकर 

ज्ञान को आच्छादित कर देता है 
संसार ज्ञानी और योगी भी सौन्दर्य विमोहित होकर पतित हो जाते है क्यों उनमें ईश्वर के प्रति समर्पण भाव अर्थात् भक्ति नहीं होती जबकि भक्त सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देता है कि क्या उसके लिए उचित है और क्या अनुचित 

तब उसका भटकना ते ईश्वर का भटकना ही है 
और ईश्वर तो कभी भटक ही नहीं सकता है 
और भक्ति वस्तुत: ज्ञान और कर्म का ही सम्यक् रूपानतरण है "

आपने पुराणों में ऋषियों के सुन्दरियों को देखकर स्खलित  अथवा कामपीड़ित होने के भी दृष्टान्त सुने होंगे परन्तु किसी निष्काम भक्त के विचलित होने प्रसंग नहीं सुने होंगे ! 

कृष्ण जी ने भगवत गीता को भागवत धर्म के प्रतिनिधि रूप में प्रकाशित किया जिसमें भक्ति योग का ही प्राधान्य है ..

दुनिया में केवल पाँच ही व्यक्ति सम्मान या प्रतिष्ठा के पात्र हैं   -१ धनी - २सुन्दर -३बलवान-४ वृद्ध इन्सान ५-ज्ञानी 

छठा व्यक्ति कौन हो सकता है 
भक्त जो सबसे श्रेष्ठ है उसका सम्मान दुनियाँ में नहीं होता  
और वह दुनियाँ के सम्मान का तलबदार भी नहीं है ।भक्त तो भगवान को भी वश में कर लेता है 
अहंकार ही  संसार है

संसार का स्वरूप अन्धकार है क्यों कि अन्धकार का कोई श्रोत नजर नहीं आता जबकि प्रकाश किसी न किसी श्रोत से उत्पन्न होता है |

सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकारो उन्मुख 

इसी स्वाभाविकता के  दौरान वह मनुष्य भी कभी मोह के भँवरों में लोभ के गोते खाता रहता है  और अन्त में डूब भी जाता है ...

स्वाभाविकता से प्रेरित मनुष्य पुण्य और पाप , सुख और दु:ख को भी क्रमश: पाता रहता है !

स्वाभाविकताओं का दमन ही संयम था और यही यम धर्म का अधिष्ठात्री देवता हुआ |

 जबकि अज्ञात शक्ति के प्रति विश्वास पूर्ण भावना आस्था या श्रृद्धा है जिसमें सात्विक अनुभतियों की महती भूमिका है 

यदि आस्था में  मनन या ज्ञान न हो तो वह आस्था अन्धी  है 

परन्तु आस्था जब हृदय की सात्विक अनुभूतियों का प्रतिफलन होती तभी वह ज्ञान की उद्भासिका होती है 

श्रृद्धा,  धर्म,  ज्ञान और भक्ति सभी तत्व सम्पूरक रूप में परस्पर निबद्ध हैं 

जैसे धर्म, अध्यात्म दर्शन आदि सभी का समन्वित रूप अध्यात्म है .🌻🌻

श्रृद्धा धर्म का यह प्रारम्भिक चरण है धर्म में केवल आत्मोत्थान  के लिए सदाचरण का भाव प्रमुख हो जाता है .

श्रृद्धा और धर्म हृदय- स्पन्दन और श्वाँस के समान परस्पर सम्पूरक हैं 

जैसे पुष्प में सुगन्ध और पराग होती ठीक वैसे ही श्रृद्धा से उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसी से भक्ति उत्पन्न होती है 

भक्ति साधन नहीं साध्य है  क्यों कि यही ईश्वरीय सत्ता  की अनन्त अनुभूति कराती यह अनन्त अनुभूति विशाल से शूक्ष्मता के प्रति  अग्रसर अनुभूति है अहंकार की शून्यता  जहाँ अनिवार्य है 
स्व की व्यापकता और अनन्त के प्रति विलय अथवा आत्म समर्पण ही भक्ति है स्वाभिमान व अभिमान जैसे भाव भी इसमें नहीं होते हैं !

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क्यों कि अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल (थाँमला) है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
और संकल्प से इच्छा और इच्छा कर्म की जननी है 

स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप है जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।

और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।

जैसे-  संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गयी निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गयी मानसिक दृढ़ता है ।

परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।

और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो कर्म के लिए प्रेरित करती है ।

और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की 
और कर्म ही इस प्रकार  जीवन और संसार का सृष्टा है।

महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा

संसार का सार है  संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती  स्थितियाँ के रूप में अनुभव हुईं

मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च" 

ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष ।

मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।

उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश 

ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
और इच्छा का भौतिक रूपान्तरण ही ऊर्जा है या शक्ति है 
मुझे लगा कि  अब हम सत्य के समीप आ चुके हैं। मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है

पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।

जो उन्हें आवेशित करता है 
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।

जो उन्हें आवेशित करती है 

क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।

और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानती हैं ।

और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ; 

वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही उसी अनुपात में  ख़ूबसूरत होती है।

वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना  का जन्म हुआ है ।

और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।कर्म भारतीय सनातन संस्कृति की वह अवधारणा है ! जो

उन्हें  दुनियाँ के  आदिम द्रव- वेता  द्रविडो से व्याख्यायित रूप में  एक प्रतिक्रियात्मक प्रणाली के के माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती हुई प्राप्त हुई है, !!

जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हानिकर कार्यों का हानिकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुन: अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है। ..
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कहा जाता है कि कार्य-कारण सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया में लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं। 
जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है।

चेतना के क्रमिक विकास का स्तर ही विभिन्न प्रकार की यौनियों का निर्धारक है .

कर्म व्युत्पत्ति का आधार मन का संकल्प- प्रवाह है संकल्प की गन्ध और इच्छाऔं का पराग से ही कर्म पुष्प का स्वरूप है जो भोग के फल का कारक है

किये गए कृत्यों के निर्णायक प्रतिफल के सन्दर्भ में आत्मा के देहांतरण या पुनर्जन्म का सिद्धांत ऋग्वेद में नहीं मिलता है।

 कर्म की अवधारणा सर्वप्रथम भगवद गीता
 (पञ्चम सदी ) में सशक्त शब्दों में प्रकट हुई।

काल परिवर्तन और कर्म क्रमशः वाष्प जल और हिम के सदृश्य विका - क्रम की श्रृंखला हैं ..

"कर्म" का शाब्दिक अर्थ है "काम" या "क्रिया" और भी मोटे तौर पर यह निमित्त और परिणाम तथा क्रिया और प्रतिक्रिया कहलाता है, जिसके बारे में प्रचीन भारतीयों का मानना है। -------

जीवन एक पुष्प है प्रवृत्ति उसकी गन्ध ,तथा स्वभाव पराग के सदृश्य है 

इन्हीं गन्ध और पराग के द्वारा 
प्रारब्ध के फल का निर्माण होता है 

विचार - विश्लेषण ---- यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़..8077160219----सम्पर्क - सूत्र

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आस्था हृदय की आस्तिक अनुभूतियों से उत्पन्न सात्विक बुद्धि का प्रकाश ही है 

जिससे ईश्वर की अनन्त सत्ता का आभास होता है
जब अन्त: करण रूपी दर्पण  स्वच्छ हो जाता है 

तब ही ईश्वरीय ज्ञान बुद्धि पर परावर्तित होता है
और अन्त: करण सदाचरण से भी शनै: शनै: स्वच्छ हो जाता है तब भी यही होता है ! 

ये अहंकार ही व्यक्ति को सीमित करता है 
तब व्यक्ति समुद्र से बिन्दु बन जाता है !
आचरण में जब सात्विक भाव होता है तब 'वह सदाचरण होता है 

जबकि सभ्यता मानव आचरण का वह केवल भौतिक सामूहिक पक्ष है 

जो संस्कृति की कर्म समष्टि मूलक व्याख्या है 

जैसे व्यक्ति का व्यवहार उसके विचारों की व्याख्या है 

सभ्यता में अध्यात्म की अनिवार्यता नहीं है 
परन्तु नैतिकता सभ्यता का प्राण है 

क्यों कि जब आचरण में सद का भाव समाहित होता है तब 'वह धर्म रूप धारण करता है 

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परन्तु  आस्था अथवा श्रृद्धा का जन्म तो तभी हुआ जब मनुष्य अज्ञात शक्तियों के  चमत्कार के  प्रति  विश्वास पूर्ण भावना से नत- मस्तक हुआ और अपने अनिष्ट निवारण के प्रति उस अज्ञात शक्ति  से अनुनय -विनय करने के लिए क्रियाओं के रूप  में हुआ उद्यत हुआ ...

उसके अन्त:करण की अनुभूतियों ने उसकी आस्था को पुष्ट किया 

वाकई जिसके लिए कोई शब्द नहीं थे 

और धर्म का विकास अध्यात्म की उन साधाना मूलक क्रियाओं के रूप में हुआ है जिसके द्वारा व्यक्ति ने अपने मन के नियमन के लिए जिस सदाचरण को आधार बनाया ...

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के नैतिक पूर्ण ढंग के स्वरूप में अन्तर्निहित होता है।

अथवा कहें संस्कृति समाज के सामूहिक परम्परा गत रूप से आयात वैचारिक पक्ष ही है 

जबकि सभ्यता मानव का आचरण पक्ष है वह भी परम्परा गत ही है !

अंग्रेजी में संस्कृति के लिये (Culture)  'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है; जो यूरोपीय लैटिन भाषा के ‘कल्ट (Cult)  क्रिया से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। 


मस्तिष्क रूपी क्षेत्र की फसल या उपज है 
संस्कृति  का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है।
अत: 'वह अपने सुधार के प्रति अग्रसर रहा 
 यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है यही उसकी संस्कृति है । 

ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है। 

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विचारों का ही स्थूल रूप कर्म होता है
उसी प्रकार संस्कृति का स्थूल रूप सभ्यता है 

सभ्यता संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के शारीरिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। 

मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता।

वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और हृदय भी है।

 भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और हृदय  तो अतृप्त ही बने रहते हैं 

इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं। 

मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए  वह आनन्द की अनुभूति करता है ...

आनन्द से उत्पन्न आनन्द उसकी आवश्यकता  है 
क्यों कि सौन्दर्य भी आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है 

और वह सौन्दर्य अनुभूति के लिए संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। 

सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है।

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इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। 

इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं के वैचारिक पक्ष का समावेश होता है।

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संस्कृति जीवन जीने की विधि है।
 जो भोजन हम खाते हैं, जो कपड़े पहनते हैं, जो भाषा बोलते हैं और जिस भगवान की पूजा करते हैं, ये सभी सभ्यता कहलाते हैं; 

तथापि इनसे संस्कृति भी सूचित होती है। 

क्यों कर्म पहले मन से विचारों के रूप में उत्पन्न होता है 

सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं;और कार्य करते हैं।

 इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं।

 एक समाज वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। 

तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।

इस प्रकार संस्कृति मानव जनित मानसिक पर्यावरण से सम्बंध रखती है जिसमें सभी अभौतिक उत्पाद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान किये जाते हैं।

समाज-वैज्ञानिकों में एक सामान्य सहमति है कि संस्कृति में मनुष्यों द्वारा प्राप्त सभी आन्तरिक और बाह्य व्यवहारों के तरीके समाहित हैं। 

ये चिह्नों द्वारा भी स्थानान्तरित किए जा सकते हैं;
 जिनमें मानवसमूहों की विशिष्ट उपलब्धियाँ भी समाहित हैं। 

इन्हें शिल्पकलाकृतियों द्वारा मूर्त रूप प्रदान किया जाता है।

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 (वस्तुतः, संस्कृति का मूल केन्द्र-बिन्दु उन सूक्ष्म विचारों में निहित है जो एक समूह में ऐतिहासिक रूप से उनसे सम्बद्ध मूल्यों सहित विवेचित होते रहे हैं)। 

संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार हैं, जिनके माध्यम से लोग परस्पर सम्प्रेषण करते हैं, विचार करते हैं और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं।

संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में हमारी अन्तःस्थ प्रकृति की अभिव्यक्त है। 

(संस्कृति और सभ्यता )

संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं।

 फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है; और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं।

 संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है; और उसका निवास उसके मानस पटल में होता है। 

दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है।

 जो शरीर पर व्यवहार रूप में प्रकट होता है 

 'सभ्य' का शाब्दिक अर्थ है, 'जो सभा में सम्मिलित होने योग्य हो'। 

इसलिए, सभ्यता ऐसे सभ्य व्यक्ति और समाज के सामूहिक आचरणगत स्वरूप को आकार देती है।

 सभ्यता को अंग्रेजी में 'सिविलाइज़ेशन' (civilization) कहते है; और कल्चर (culture) से उसका अन्तर स्पष्ट ही है। 

संस्कृति और सभ्यता में भी वही भेद है।

जो आत्मा और शरीर में अथवा सुगन्ध और पराग में  जो समाञ्जस्य है 

प्रारम्भ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था, शनैः-शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली। 

अब वह अयस और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है।

 प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे।

 फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ का आश्रय लिया। 

अब मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है। 

पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था। 

बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की। 

पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था। 

पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल, गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा।

 अन्त में उसने हवा पानी, वाष्प, बिजली और अणु की भौतिक शक्तियों का विश्लेषण   करके ऐसे यन्त्र आविष्कार किये , जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई। 

मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।

‘सभ्यता’ का अर्थ है जीने के बेहतर तरीके है 

 इसके अन्तर्गत समाजों को राजनैतिक रूप से परिभाषित वर्गों में संगठित करना भी सम्मिलित है जो भोजन, वस्त्र, संप्रेषण आदि के विषय में जीवन स्तर को सुधारने का प्रयत्न करते रहते हैं। 

इस प्रकार कुछ वर्ग अपने आप को अधिक सभ्य समझते हैं, और दूसरों को हेय दृष्टि से देखते और असभ्य समझते हैं।

 कुछ वर्गों की इस मनोवृत्ति ने कई बार संघर्षों को भी जन्म दिया है जिनका परिणाम मनुष्य के विनाशकारी विध्वंस के रूप में हुआ है।

सभ्यता का अर्थ अब आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियो का मानक है ...

इसके विपरीत, संस्कृति आन्तरिक अनुभूति से सम्बद्ध वैचारिक पक्ष है जिसमें मन और हृदय की पवित्रता निहित है। 

परन्तु अब पवित्रता नहीं स्वच्छता  विद्वता नहीं अपितु चालाकी है |

इसमें कला, विज्ञान, संगीत और नृत्य और मानव जीवन की उच्चतर उपलब्धियाँ सम्मिलित हैं जिन्हें 'सांस्कृतिक गतिविधियाँ' कहा जाता है।

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 एक व्यक्ति जो निर्धन है, सस्ते वस्त्र पहने है, वह असभ्य तो कहा जा सकता है परन्तु वह सबसे अधिक सुसंस्कृत व्यक्ति भी कहा जा सकता है। 

एक व्यक्ति जिसके पास बहुत धन है वह सभ्य तो हो सकता है पर आवश्यक नहीं कि वह सुसंस्कृत भी हो। 

अत: संस्कृति और सभ्यता अब बिखर कर रह गये हैं

अतः जब हम संस्कृति के विषय में विचार करते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि यह सभ्यता से अलग है। 

संस्कृति मानव के अन्तर्मन का उच्चतम वैचारिक स्तर है।

 जबकि सभ्यता  शरीर से सम्बद्ध  भौतिक सुविधा का मानक है परन्तु मानव केवल शरीरमात्र नहीं हैं।

 वे तीन स्तरों पर जीते हैं और व्यवहार करते हैं - भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 

शरीर मन और आत्मा 

जबकि सामाजिक और राजनैतिक रूप से जीवन जीने के उत्तरोत्तर उत्तम तरीकों को तथा चारों ओर की प्रकृति का बेहतर उपयोग ‘सभ्यता’ कहा जा सकता है परन्तु सुसंस्कृत होने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। 

जब एक व्यक्ति की बुद्धि और अन्तरात्मा के गहन स्तरों की अभिव्यक्ति होती है तब हम उसे ‘संस्कृत’ कह सकते हैं।

आज की सभ्यता केवल फर्जी मुखौटों के दौर में गुम हो गयी है 

विचार और भावों के अनुरूप आचरण आज व्यक्ति कभी करता नहीं ! 

जब वह अक्सर मंच या सामाजिक रूप में मुखातिब होता हैं तब आदमी मुखौटा ही लगाता है|

 उसकी फर्जी मुस्कराहटों और फर्जी आहटों से अपनी औपचारिक प्रस्तुति दर्ज कराता है  ;उसकी कृत्रिम नम्रता आदि सभी उसके सभ्य होने के प्रतिमान हैं ..

योग एक आध्यात्मिक प्रकिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (संयुक्त करने ) का काम होता है।

 यह शब्द -धैर्य  प्रक्रिया और धारणा की स्थिरता ये सम्बद्ध है -  ये ध्यान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। 

योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत में लोग इससे परिचित 

 भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, सन्यासयोग, कर्मयोग। 

वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। 

जो मनोनियन्त्रण के बल पूर्वक किये गये उपक्रम थे।‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

 इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध।

 वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किन्तु तब इस स्थिति में योग शब्द का अर्थ क्रमशः योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा।

जो धर्म के सन्निकट है 

गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है 'योगः कर्मसु कौशलम्‌' ( कर्मों में कुशलता ही योग है।)

 पतञ्जलि ने योगसूत्र में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', 

चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। 

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

प्रवृत्तियों के निर्देशन में मन  इन्द्रियों के विभिन्न कार्यों के लिए प्रेरित कराता है 

और काम प्रवृत्ति सबसे प्रबल है स्वाभाविकता की. धारा में प्रवृत्तियों के वेग का निरोध कर इसके विपरीत चलने का उपक्रम योग या धर्म है।

 योगस्थः कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

(१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्

मन के विकारों की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म का विकास 

मनो नियमन की क्रियाओं से हुआ  था 

यम को धर्म का अधिष्ठात्री देवतावत माना गाया है 

भारती स्मृतियों (धर्म शास्त्रों ) में आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं। 

परन्तु  पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी अन्य  ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं।

— ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय।

 'यम' योग के आठ अंगों में से पहला अंग है।

चित्त की वृत्तियो या प्रवृत्तियों  का निरोध योग है और यम योग के प्रमुख चरण में से एक  है 

धर्म में भी व्यक्ति तप रूपी सदाचरण का पालन स्वाभाविकता का दमन करके ही करता है ..

स्वाभाविकता को दबाकर ही हम दूसरों के समाने

सभ्य दिखाने के लिए आचरण करते हैं 

जैसे हम कहीं घर से बाहर जाते हैं तब 

यम के अन्तर्गत 
पांच सामाजिक नैतिकता हैं

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना

(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना

(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना

(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं-

चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना

नियम
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि

(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना

(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना

(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना

(ड़) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए

संसार की दरिया को पापर करने के लिए तैरना हीह पड़ेगा तैरना में स्वाभाविकता के वेगों का दमन करके ही तो  हम तैर पाऐंगे जिसमें 

संसार की दरिया में लोभ के गोतों और मोह के अथाह भँवर देखे 

मन को स्वाभाविकता से प्रेरित जानकर साधक ने मन के विरुद्ध भी विद्रोह कर दिया !

उपनिषदों में यही निर्देश है कि मन को बुद्धि या योग से वश में करें 🌻

ये यम ,नियम और संयम ही धर्म के आधार स्तम्भ हैं 

धर्म वस्तुत: स्वाभविकता के दमन या संयम की ही प्रक्रिया है ; क्यों कि जिसने स्वाभाविक धाराओं के विपरीत तैरने की कोशिश की है वही पार हुआ है और धर्म स्वाभाविकताओ का दमन का ही नाम है 

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फिर कालान्तरण में पुरोहितों ने स्वभाव को ही धर्म माना परिणाम यह हुआ कि समाज का घोर नैतिक पतन हुआ कृष्ण ने धर्म को एक नदी की धाराओं के विरुद्ध प्लावन या तैरने की क्रिया कहा जो कि सत्य ही है !

 कृष्ण का और बुद्ध तथा महावीर का भी धर्म मार्ग स्वाभाविकता का दमन ही था 

जिसे उन्होंने तप या  योग कहा

न कि स्वाभाविकता को धर्म माना

भारतीय पुराणों में अनेक स्थलों पर धर्म को किसी ऐसे देव याय शक्ति  के रूप में दर्शाया गया है जो न्याय और प्राकृतिक व्यवस्था की प्रतिमूर्ति है जिसे यम नाम दिया गया ...

 इसी प्रकार, यम को 'धर्मराज' कहा जाता है क्योंकि वे मनुष्यों को उनके कर्म के अनुसार निर्णय करके गति देते हैं।

संयम के भाव के कारण ये यम हैं 

  तत्व-वेत्ताओं ने  उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, 
और उसके शरीर के मध्य का संबंध को स्पष्ट करते हुए कहा है ।

 देखें संबंधित आख्यान में यम देवता के अवलम्बन से निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन की सार्थक: उपमा अथवा रूपक के सूचक हैं ! 
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  आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
 बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।३

 (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
 (आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

 इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । 
(लगाम – 
इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु, 
अगले मंत्र में उल्लेख 
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 इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४) 
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)

 मनीषियों, या विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
 इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर रूपी रथ का भोग करने वाला बताया है
प्राचीन समय में रथ यातायात के साथन के रूप में मान्य था  चरत् शब्द रूप से रथ का विकास हुआ 🌻🌺

  प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है । 
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।

क्यों ये आत्मा को स्थाई तुष्टि देने वाला नहीं था 
और उन साधकों की जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
 
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं । 
 उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
जो वस्तुत: मन के ही विकल्प हैं आत्मा के नहीं
 मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है । 
सांख्य दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः 
पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, 
जो सुख या दुःख के तौर पर । 

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

 किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर हुए नियंत्रण पर निर्भर रहता है ।

 इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से चिन्तन रहा है ।
 उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।
इस लिए मन को ज्ञान से जीतना चाहिए

 इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा 
बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है !
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स्वभाव भी मानव प्रवृत्तियों के अनुरूप उन्हीं का परिणाम है स्व भाव प्रवृत्तियों का अनुगामी है 

ये मनुष्य को जन्म से प्राप्त शरीर तथा प्राणी की जाति गत निर्धारक तत्व है जैसे सभी कुत्ते चरणोत्थान कर मूत्र विसर्जन क्रिया सम्पन्न करते हैं सभी वानर आँख दिखाकर घुडंकी लगाते हैं 

ऐसे ही सभी कौए प्रात: पूरब दिशा से पश्चिम की और या सूर्य की विपरीत दिशा में भोजन की तलाश में दूर तक जाते हैं ये इनकी प्रवृत्तियाँ ही हैं 🌻💂

जिन्हें हम इनका (सिस्तत साॅफ्टटवेयर) मान भी  सकते हैं __________

वास्तव नें धर्म को स्वभाव जन्य क्रिया के रूप में परिभाषित करना लोगों का चरित्र पतन करना सिद्ध हुआ 

परन्तु जब समय के अन्तराल से पुरोहितों ने धर्म को स्वभाव तक ही परिभाषित किया 

प्रवृत्ति , देश काल और परस्थितियों के अनुरूप धर्म की व्याख्याऐं भी होती रही हैं कृष्ण के युग से लेकर बुद्ध

के युग तक पुरोहितों ने धर्म की विवेचनाऐं स्वभाव मूलक की हैं पुरोहितों ने स्वभाव जन्य कर्मों को ही धर्म माना 

अधिकतर रूपों में धर्म को एक स्वभाव जन्य सत्ता के रूप में पुरोहितों द्वारा मान्य किया गया जैसे👇

वर्ण- व्यवस्था काल में धर्म का अर्ध बदल गया 

किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो वही उसका धर्म है । 

जैसे सुगन्ध या दुर्गन्ध पुष्प का धर्म है 

इन अर्थों में  प्रकृति, स्वभाव, नित्य प्रवृत्तियाँ ही धर्म हैं  । 

जैसे, नेत्र का धर्म देखना, शरीर का धर्म भोजन द्वारा पोषण और तो और  सर्प का धर्म काटना , दुष्ट का धर्म दुःख देना । 

इन अर्थों में भी धर्म परिभाषित हुआ 

विशेष—ऋग्वेद (१ । २२ । १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । देखें निम्न ऋचा

देवता:  विष्णुः  ऋषि:  मेधातिथिः काण्वः  छन्द:  पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। 

अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥

पद पाठ
त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः।

 अदा॑भ्यः। अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न्॥

धर्मों को धारण करते हुए वह तीन पदों से गोप रूप में विचरण करते हैं 

ऋग्वेद » मण्डल:1»  /सूक्त:22»/ ऋचा 18 .
यदि (अद् = बन्धने )धातु से अदाभ्य: क्रिया पद ग्रहण किया जाए तो अर्थ होगा जो धर्म में बाँध कर सबको धारण करता है |

अर्थात् प्राणी प्रवृत्तियों के अनुरूप व्यवहार करता रहता है

पदार्थान्वयभाषाः -जिस कारण यह दम्भ:(अदाभ्यः) जिस मारा न जा सके ...या संसार को धर्म में बाँधने वाला 
(गोपाः) और गायों की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) चरणों से  (विचक्रमे) गमन करता है,
 (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकते हैं॥१८॥

वामन अवतार के विष्णु का यही ऋचा आधार है
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दम्भ ण्यत् नलोपोपधावृद्धी नञ् तत्पुरुष  ।
 अहिंस्ये । 
“यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवीति यजुर्वेद ७/ २, हे सोम ! ते त्वदीयमहिसितं जागृवि जागरणशीलमिति वेददीपः ।
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यह अर्थ सबसे प्राचीन है ।

समय के सापेक्ष धर्म की अर्थवत्ता के आयामों का विस्तार भी हुआ 

अलंकार शास्त्र में वह गुण या वृत्ति जो उपमेय और उपमान में समान रूप से हो धर्म है  ।

 वह एक सी बात जिसके कारण एक वस्तु की उपमा दूसरी से दी जाती है ।

 जैसे, कमल के ऐसे कोमल और लाल चरण, इस उदाहरण में कोमल चरण और ललाई साधारण धर्म है ।

 किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य या ऋषि द्वारा  निर्दिष्ट वह कर्म या कृत्य जो पारलौकिक सुख की प्राप्ति  के अर्थ में किया जाय ।

 वह कृत्य विधान जिसका फल शुम (स्वर्ग या उत्तम लोक की प्राप्ति आदि) बताया गया हो ।

 जैसे, अग्निहोत्र । यज्ञ, व्रत, होम इत्यादि ।

 शुभ दृष्टि ।

 विशेष—मीमांसा के अनुसार वेद विहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान ही धर्म है । 

जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है ।

 संहिता से लेकर सूत्रग्रंथों तक धर्म की यही मुख्य भावना रही है ।

 कर्मकांड़ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवाले ही धार्मिक कहे जाते थे ।

 यद्यपि  श्रुतियों में 'न हिस्यात्सर्वभूतानि' आदि वाक्यों द्वारा साधारण धर्म का भी उपदेश है पर वैदिक काल में विशेष लक्ष्य कर्मकाण्ड ही की ओर था । 

वह कर्म जिसका करना किसी संबंध, स्थिति या गुणाविशेष के विचार से उचित औरर आवश्यक हो । 

वह कर्म या व्यापार जो समाज के कार्य-विभाग के निर्वाह के लिये अवश्यक और उचित हो ।

जैसे वर्णाश्रम धर्म 

 वह काम जिसे मनुष्य को किसी विशेष कोटि या अवस्था में होने के कारण अपने निर्वाह तथा दूसरों की सुगमता के लिए करना चाहिए । 

किसी जाति, कुल, वर्ग, पद इत्यादि के लिये उचित ठहराया हुआ व्यवसाय या व्यवहार । 

कर्तव्य अथवा फर्ज ही धर्म है  जैसे, ब्राह्मण का धर्म, क्षत्रिय का धर्म माता पिता का धर्म, पुत्र का धर्म इत्यादि ।

_________

पुष्य मित्र सुँग काल में निर्मित ग्रन्थों में

 विशेषत:—स्मृतियों में आचार ही को परम धर्म कहा है और वर्ण और आश्रम के अनुसार उसकी व्यवस्था की है, जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ना, पढ़ाना, दान, लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, क्षत्रिय के लिये प्रजा की रक्षा करना, दान देना, वैश्य के लिये व्यापार करना और शूद्र के लिये तीनों वणों की सेवा करना ही धर्म है । 

जहाँ देश काल की विपरीतता से अपने अपने वर्ण के धर्म द्वारा निर्वाह न हो सके वहाँ शास्त्रकारों ने आपद् धर्म की व्यवस्था की है जिसके अनुसार किसी वर्ण का मनुष्य अपने से निम्न वर्ण की वृत्ति स्वीकार कर सकता है,

 जैसे ब्राह्मण—क्षत्रिय या वैश्य की, क्षत्रिय—वैश्य की, वैश्य या शूद्र—शूद्र की, पर अपने से उच्च वर्ण की वृत्ति ग्रहण करने का आपत्काल में भी निषेध है ।

 इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यासी इनके धर्मो का भी अलग अलग निरूपण किया गया है । जैसे ब्रह्मचारी के लिये स्वाध्याय, भिक्षा माँगकर भोजन, जंगल से लकड़ी चुनकर लाना, गुरु की सेवा करना इत्यादि ।

 गृहस्थ के लिये पंच महायज्ञ, बलि अतियियों को भोजन और भिक्षुक, संन्यासियों आदि को भिक्षा देना इत्यादि । वानप्रस्थ के लिये सामग्री सहित गृह अग्नि को लेकर वन में वास करना, जटा, लक्ष श्मश्रु आदि रखना भूगि पर सोना, शीत- ताप सहना, धग्निहोत्र दर्शपौर्ण मास बलिकर्म आदि करना इत्यादि । 

संन्यासी के लिए सब वस्तुओं को त्याग अग्नि और गृह से रहित होकर भिक्षा द्वारा  निर्वाह करना, नख आदि को कटाए और दड कमंडलु लिए रहना । 

यह तो वर्ण और आश्रम के अलग अलग धर्म हुए । इन दोनों के संयुक्त धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहते हैं । 

जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचारी का पलाशदंड़ धारण करना ।

 जो धर्म किसी गुण या विशेषता के कारण हो उसे गुणधर्म कहते हैं—

जैसे जिसका शास्त्रोक्त रीति से अभिषेक हुआ हो, उस राजा का प्रजापालन करना ।

 निमित्त धर्म वह है जो किसी निमित से किया जाय ।

 जैसे शास्त्रोक्त कर्म न करने वा शास्त्रविरुद्ध  करने पर प्रायश्चित करना । 

इसी प्रकार के विशेष धर्म कुलधर्म, जातिधर्म आदि है ।

धर्म  वह वृत्ति या आचरण जो लोक समाज की स्थिति के लिये आवश्यक हो ।

 वह आचार जिससे समाज की रक्षा और सुख शांति का वृद्धि हो तथा परलोक में भा उत्तम गति मिले ।

 कल्याण कर्म । सुकृत । सदाचार । श्रेय । पुण्य । सत्कर्म आदि धर्म हैं ।

 विशेष—स्मृतिकारौ ने वर्ण, आश्रम, गुण और निमित्त धर्म के अतिरिक्त साधारण धर्म भी कहा है जिसका मानना । 

ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक के लिये समान रूप से आवश्यक है ।

___________

 मनु स्मृति  में  वेद, स्मृति, साधुओं के आचार और अपनी आत्मा की तुष्टि को धर्म का साक्षात् लक्षण बताकर साधारण धर्म में दस बातें कहीं हैं—धृति (धैर्य), क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच इंद्रिय-निग्रह, धी, विधा, सत्य और अक्रोध । 

मनुष्य मात्र के लिये जो सामान्य धर्म निरूपित किया गया है ।

 वही समाज को धारण करनेवाला है, उसके बिना समाज की रक्षा नहीं हो सकती ।

 मनुस्मृति में  कहा है कि रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है ।

 अतः प्रत्येक सभ्य देश के जनसमुदाय के बीच श्रद्बा भक्ति, दया प्रेम, आदि चित्त की उदात्त मनो- वृतियों से संबंध रखनेवाले परोपकार धर्म की स्थापना हुई है, 

 उन्होंने इस धर्म का लक्षण यह बताया है कि जिस, कर्म से अधिक मनुष्यों की अधिक सुख मिले वह धर्म है ।

बौद्ध शास्त्रों में इसी धर्म को शील कहा गया है 

शील स्वभाव का वाचक है । 

जैन शास्त्रों ने अहिंसा को परम धर्म माना है ।

किसी आचार्य या महात्मा द्वारा प्रवर्तित ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष रूप का विश्वास ओर आराधना की विशेष प्रणाली । 




यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219

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वायुपुराण-उत्तरार्द्ध अध्याय ३७-

वायुपुराण उत्तरार्द्ध /अध्यायः ३७
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पुण्ड्राः कलिङ्गाश्च तथा तेषां वंशं निबोधत।
तस्य ते तनयाः सर्वे क्षेत्रजा मुनिसम्भवाः।
सम्भूता दीर्घतमसः सुदेण्णायां महौजसः। ३७.३४।
                  ऋषय ऊचुः।
कथं बलेः सुताः पञ्च जनिताः क्षेत्रजाः प्रभो।
ऋषिणा दीर्घतमसा एतन्नो ब्रूहि पृच्छताम्।३७.३५ 
                  सूत उवाच।
अशिजो नाम विख्यात आसीद्धीमानृषिः पुरा।
भार्या वै ममता नाम बभूवास्य महात्मनः। ३७.३६।
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अशिजस्य कनीयांस्तु पुरोधा यो दिवौकसाम्।
बृहस्पतिर्बृहत्तेजा ममतां सोऽभ्यपद्यत ।।३७.३७।।
उवाच ममता तन्तु बृहस्पतिमनिच्छती।
अन्तर्वत्न्यस्मि ते भ्रातुर्ज्येष्ठस्याष्टमिता इति ।। ३७.३८ ।।
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अयं हि मे महागर्भो रोचतेऽति बृहस्पते।
अशिजं ब्रह्म चाभ्यस्य षडङ्गं वेदमुद्गिरन् ।। ३७.३९ ।।
अमोघरेतास्त्वञ्चापि न मां भजितुमर्हसि।
अस्मिन्नेव गते काले यथा वा मन्यसे प्रभो ।३७.४०।

एवमुक्तस्तया सम्यग् बृहत्तेजा बृहस्पतिः।
कामात्मानं महात्मा च नात्मानं सोऽभ्यधारयत् ।। ३७.४१ ।।
सम्बभूवैव धर्मात्मा तया सार्द्धं बृहस्पतिः।
उत्सृजन्तं तदा रेतो गर्भस्थः सोऽभ्यभाषत ।३७.४२।

नो स्नातको न्यसेद्ध्यस्मिन् द्वयोर्नेहास्ति सम्भवः।
अमोघरेतास्त्वञ्चापि पूर्वञ्चाहमिहागतः । ३७.४३।
शशाप तं तदा क्रुद्ध एवमुक्तो बृहस्पतिः।
आशिजन्तं सुतं भ्रातुर्गर्भस्थं भगवानृषिः ।। ३७.४४ ।।
यस्मात्त्वमीदृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति।
मामेवमुक्तवान् मोहात्तमो दीर्घं प्रवेक्ष्यसि ।३७.४५।
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ततो दीर्घतमा नाम शापादृषिरजायत।
अथाशिजो बृहत्कीर्त्तिर्बृहस्पतिरिवौजसा ।।३७.४६।।

ऊर्द्धःरेतास्ततश्चापि न्यवसद्भ्रातुराश्रमे।
गोधर्मं सौरभेयात्तु वृषभाच्छ्रुतवान् प्रभो ।। ३७.४७ ।।
तस्य भ्राता पितृव्यस्तु चकार भवनं तदा।
तस्मिन् हि तत्र वसति यदृच्छाभ्यागतो वृषः ।। ३७.४८ ।।
दर्शार्थमाहृतान् दर्भांश्चचार सुरभीवृतः।
जग्राह तं दीर्घतमा विस्फुरन्तञ्च श्रृङ्गयोः ।। ३७.४९ ।।
स तेन निगृहीतस्तु न चचाल पदात्पदम्।
ततोऽब्रवीद्वृषस्तं वै मुञ्च मां बलिनां वर ।३७.५०।
न मयासादितस्तात बलवंस्त्वद्विधः क्वचित्।
त्र्यम्बकं वहता देवं यतो जातोऽस्मि भूतले।३७.५१।
मुञ्च मां बलिनां श्रष्ठ प्रीतस्तेऽहं वरं वृणु।
एवमुक्तोऽब्रवीदेनं जीवस्त्वं मे क्व यास्यसि ।३७.५२।
तेन त्वाहं न मोक्ष्यामि परस्वाहं चतुष्पदम्।
ततस्तं दीर्घतमसं स वृषः प्रत्युवाच ह ।३७.५३।
नास्माकं विद्यते तात पातकं स्तेयमेव वा।
भक्ष्याभक्ष्यं न जानीमः पेयापेयञ्च सर्वशः ।। ३७.५४ ।।
कार्याकार्यं न वै विझो गम्यागम्यं तथैव च।
न पाप्मानो वयं विप्र धर्मो ह्येषां गवां स्मृतः।३७.५५।
गवां नाम स वै श्रुत्वा संभ्रान्तस्त्वनुमुच्य तम्।
भक्त्या चानुश्रविकया गोषु तं वै प्रसाद यत् ।। ३७.५६।
प्रसादिते गते तस्मिन् गोधर्मं भक्तितस्तु तम्।
मनसैव तदादत्ते तन्निष्ठस्तत्परायणः ।। ३७.५७ ।।
ततो यवीयसः पत्नीमौतथ्यस्याभ्यमन्यत।
विचेष्टमानां रुदतीं दैवात् स मूढचेतनः ।।३७.५८।।
अवलेपन्तु तं मत्वा शरद्वांस्तस्य नाक्षमत्।
गोधर्मंवै बलं कृत्वा स्नुषां स सममन्यत ।३७.५९।

विपर्ययन्तु तं दृष्ट्वा शरद्वान् प्रत्यचिन्तयत्।
भविष्यमर्थं ज्ञात्वा च महात्मा च न मृत्युताम् ।। ३७.६० ।।
प्रोवाच दीर्घतमसं क्रोधात् संरक्त लोचनः।
गम्यागम्यं न जीनीषे गोधर्मात् प्रार्थयत् स्नुषाम् ।। ३७.६१ ।।
दुर्वृत्तस्त्वं त्यजाम्येव गच्छ त्वं स्वेन कर्मणा।
यस्मात्त्वमन्धो वृद्धश्च भर्त्तव्यो दुरनुष्ठितः।
तेनासि त्वं परित्यक्तो दुराचारोऽसि मे मतिः ।। ३७.६२ ।।
                 सूत उवाच।।
कर्मण्यस्मिस्ततः क्रूरे तस्य बुद्धिरजायत।
निर्भत्स्य चैव बहुशो बाहुभ्यां परिगृह्य च।
कोष्ठे समुद्रे प्रक्षिप्य गङ्गाम्भसि समुत्सृजत् ।। ३७.६३ ।।
उह्यमानः समुद्रस्तु सप्ताहं स्रोतसा तदा।
तं सस्त्रीको बलिर्नाम राजा धर्मार्थतत्त्ववित्।
अपश्यन्मज्जमानन्तु स्रोतसाभ्याशमागतम् ।। ३७.६४ ।।
तं गृहीत्वा स धर्मात्मा बलिर्वैरोचनस्तदा।
अन्तःपुरे जुगोपैनं भक्ष्यैर्भोज्यैश्च तर्पयन् ।। ३७.६५ ।।
प्रीतः स वै वरेणाथ च्छन्दयामास वै बलिम्।
स च तस्माद्वरं वव्रे पुत्रार्थं दानवर्षभः।।३७.६६ ।।
                ।।बलिरुवाच।।
सन्तानार्थं महाभाग भार्यया मम मानद।
पुत्रान् धर्मार्थसंयुक्तानुत्पादयितुमर्हसि ।३७.६७।।

एवमुक्तस्तु तेनर्षिस्तथास्त्वित्युक्तवान् हि तम् ।
सुदेष्णां नाम भार्यां वै राजास्मै प्राहिणोत्तदा ।। ३७.६८ ।।
अन्धं वृद्धञ्च तं दृष्ट्वा न सा देवी जगाम ह ।
स्वाञ्च धात्रेयकीं तस्मै भूषयित्वा व्यसर्जयत् ।। ३७.६९ ।।
कक्षीवचक्षुषौ तस्यां शूद्रयोन्यामृषिर्वशी।
जनयामास धर्मात्मा पुत्रावेतौ महोजसौ। ३७.७०।
________
कक्षिवचक्षुषौ तौ तु दृष्ट्वा राजा बलिस्तदा।
प्राधीतौ विधिवत्सम्यगीश्वरौ ब्रह्मवादिनौ ।। ३७.७१ ।।
सिद्धौ प्रत्यक्षधर्माणौ बुद्धौ श्रेष्ठतमावपि।
ममैताविति होवाच बलिर्वैरोचनस्त्वृषिम् ।। ३७.७२ ।।
नेत्युवाच ततस्तन्तु ममैताविति चाब्रवीत्।
उत्पन्नौ शूद्रयोनौ तु भवच्छद्मा सुरोत्तमौ ।। ३७.७३ ।।
अनधं बृद्धं च मां मत्वा सुदेष्णा महिषी तव।
प्राहिणोदवमानाय शूद्रां धात्रेयकीं मम ।३७.७४ ।
ततः प्रसादयामास पुनस्तमृषिसत्तमम्।
बलिर्भार्यां सुदेष्णां च भर्त्सयामास वै प्रभुः। ३७.७५ ।।
___________________
पुनश्चैनामलंकृत्य ऋषये प्रत्यपादयत्।
तां स दीर्घतमा देवीमब्रवीद्यदि मां शुभे ।। ३७.७६।
दध्ना लवणमिश्रेण स्वब्य(व्य)क्तं नग्नकं तथा।
लिहिष्यस्यजुगुप्सन्ती ह्यापादतलमस्तकम् ।। ३७.७७ ।।
ततस्त्वं प्राप्स्यसे देवि पुत्रांश्च मनसेप्सितान्।
तस्य सा तद्वचो देवी सर्वं कृतवती तथा ।। ३७.७८ ।।
अपानञ्च समासाद्य जुगुप्सन्ती न्यवर्जयत्।
तामुवाच ततः सर्षिर्यत्ते परिहृतं शुभे।
विनापानं कुमारं त्वं जनयिष्यसि पूर्वजम् ।। ३७.७९ ।।
ततस्तं दीर्घतमसं सा देवी प्रत्युवाच ह।
नार्हसि त्वं महाभाग पुत्रं दातुं ममेदृशम् ।३७.८०।
                   ।ऋषिरुवाच।
तवापराधो देव्येष नान्यथा भवितानु वै ।
देवी दानीञ्च ते पुत्रमहं दास्यामि सुव्रते ।३७.८१।
तस्यापानं विना चैव योग्याभावो भविष्यति।
तां स दीर्घतमाश्चैव कुक्षौ स्पृष्ट्वेदमब्रववीत् ।। ३७.८२ ।।
प्राशितं दधि यत्तेऽद्य ममाङ्गाद्वै शुचिस्मिते ।
तेन ते पूरितो गर्भः पौर्णमास्यामिवोदधिः ।। ३७.८३ ।।
भविष्यन्ति कुमारास्ते पञ्च देवसुतोपमाः।
तेजस्विनः पराक्रान्ता यज्वानो धार्मिकास्तथा ।। ३७.८४ ।।
ततोङ्गस्तु सुदेष्णाया ज्येष्ठपुत्रो व्यजायत।
वङ्गस्तस्मात्कलिङ्गस्तु पुण्ड्रो ब्रह्मस्तथैव च ।। ३७.८५ ।।
वंशभाजस्तु पञ्चैते बलेः क्षेत्रेऽभवंस्तदा।
इत्येते दीर्घतमसा बलेर्दत्ताः सुताः पुरा ।। ३७.८६।
प्रजास्त्वपहतास्तस्य ब्रह्मणा कारणं प्रति।
अपत्या मात्यदारेषु स्वेषु मा भून्महात्मनः ।। ३७.८७ ।।
ततो मनुष्ययोन्यां वै जनयामास स प्रजाः।
सुरभिर्दीर्घतमसमथ प्रीतो वचोऽब्रवीत् ।। ३७.८८।
विचार्य यस्माद्गोधर्म्मं त्वमेवं कृतवानसि ।
तेन न्यायेन मुमुचे ह्यहं प्रीतोस्मि तेन ते ।३७.८९।
तस्मात्तव तमो दीर्घं निस्तुदाम्यद्य पश्य वै।
बार्हस्पत्यञ्च यत्तेऽन्यत्पापं सन्तिष्ठते तनौ ।३७.९०।
जरामृत्युभयञ्चैव आघ्राय प्रणुदामि ते।
ह्याघ्रातमात्रः सोऽपश्यत सद्यस्तमसि नाशिते । ३७.९१ ।
आयुष्मांश्च युवा चैव चक्षुष्मांश्च ततोऽभवत्।
गवा दीर्घतमाः सोऽथ गौतमः समपद्यत ।। ३७.९२।
कक्षीवांस्तु ततो गत्वा सह पित्रा गिरिप्रजाम्।
यथोद्दिष्टं हि पित्रर्थे चचार विपुलं तपः ।। ३७.९३ 
ततः कालेन महता तमसा भावितः सवै।
विधूय मनुजो दोषान् ब्रह्मण्यं प्राप्तवान् प्रभुः ।। ३७.९४।
ततोऽब्रवीत् पिता चैनं पुत्रवानस्म्यहं प्रभो।
सत्पुत्रेण त्वया तात कृतार्थोऽस्मि यशस्विना ।। ३७.९५ ।।
युक्तात्मा हि ततः सोऽथ प्राप्तवान् ब्रह्मणा क्षयम्।
ब्रह्मण्यं प्राप्य कक्षीवान् सहस्रमसृजत् सुतान् ।। ३७.९६ ।।
कृष्णाङ्गा गौतमास्ते वै स्मृताः कक्षीवतः सुताः।
इत्येष दीर्घतमसो बलेर्वैरोचनस्य वै ।। ३७.९७ ।।
समागमः समाख्यातः सन्तानञ्चोभयोस्तयोः।
बलिस्तानबिषिच्येह पञ्च पुत्रानकल्मषान् ।३७.९८।
कृतार्थः सोऽपि योगात्मा योगमाश्रित्य च प्रभुः।
अदृश्यः सर्वभूतानां कालाकाङ्क्षी चरत्युत । ३७.९९।
तत्राङ्गस्य तु राजर्षे राजासीद्दधिवाहनः।
सापराधसुदेष्णाया अनपानोऽभवनृपः ।। ३७.१०० ।।
अनपानस्य पुत्रस्तु राजा दिविरथः स्मृतः।
पुत्रो दिविरथस्यासीद्विद्वान् धर्मरथो नृपः ।। ३७.१०१ ।
स वै धर्मरथः श्रीमान् येन विष्णुपदे गिरौ।
सोमः शक्रेण सह वै यज्ञे पीतो महात्मना ।। ३७.१०२ ।।
_____________________
सूनुर्धर्मरथस्यापि राजा चित्ररथोऽभवत्।
अथ चित्ररथस्यापि राजा दशरथः अभवत्।
लोमपाद इति ख्यातो यस्य शान्ता सुताऽभवत् ।। ३७.१०३ ।।
___________ 

(स तु दाशरथिर्वीरश्चतुरङो महामनाः।
ऋष्यशृङप्रसादेन जज्ञेऽथ कुलवर्धनः ।।)
चतुरङश्च पुत्रस्तु पृथुलाश्च इति श्रुतः।
पृथुलाश्च सुतश्चापि चम्पो नाम बभूव ह ।।
चम्पस्य तु पुरी रम्या रम्या या मालिनी भवत् ।।

चम्पावती पुरी चम्पा चतुर्वर्णा च वै वसत्।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि चम्पावत्यां पुराऽवसत् ।।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः सर्वे स्वे धर्मानुष्ठिते।
सर्वे धर्म वै तपसा सर्वे विष्णुपरायणाः ।।
पूर्णभद्रप्रसादेन हर्यङोऽस्य सुतोऽभवत् ।।
जज्ञे वै तण्डिकरतस्य वारणं शक्रवारणम्।
आनयामास स महीं मन्धोर्वाहनमुत्तमम् ।। ३७.१०४ ।।

*(पाठभेदः) (मंत्रैर्वाहनमुत्तमम्)
हर्य्यङ्गस्य तु दायादो राजा भद्ररथः किल।
अथ भद्ररथस्यासीद्बृहत्कर्मा प्रजेश्वरः ।। ३७.१०५ ।।
बृहद्रथः सुतस्तस्य तस्माज्जज्ञे बृहन्मनाः।
बृहन्मनास्तु राजेन्द्रं जनयामास वै सुतम् ।। ३७.१०६ ।।
नाम्ना जयद्रथं नाम तस्मादॄढरथो नृपः।
आसीदॄढरथस्यापि विश्वजिज्जनमेजयः ।। ३७.१०७ ।।
दायादस्तस्य चाङ्गेभ्यो यस्मात् कर्णोऽभवन्नृपः।
कर्णस्य शूरसेनस्तु द्विज स्तस्यात्मजः स्मृतः ।। ३७.१०८ ।।
          ।।ऋषय ऊचुः।।
सूतात्मजः कथं कर्णः कथं चाङ्गस्य वंशजः।
एतदिच्छामहे श्रोतुमत्यर्थं कुशलो ह्यसि ।३७.१०९ ।
            ।सूत उवाच।
बृहद्भानोः सुतो जज्ञे नाम्ना राजा बृहन्मनाः।
तस्य पत्नीद्वयं चासीच्चैद्यस्योभे च ते सुते । ३७.११० ।
यशोदेवी च सत्या च ताभ्यां वंशस्तु भिद्यते।
जयद्रथस्तु राजेन्द्रो यशोदेव्यां व्यजायत । ३७.१११ ।
ब्रह्मक्षत्रान्तरः सत्याविजयो नाम विश्रुतः।
विजयस्य धृतिः पुत्र स्तस्य पुत्रो धृतव्रतः ।३७.११२ ।
धृतव्रतस्य पुत्रस्तु सत्यकर्मा महायशाः।
सत्यकर्मसुतश्चापि सूतस्त्वधिरथस्तु वै । ३७.११३ ।
स कर्णं परिजग्राह तेन कर्णस्तु सूतजः।
एतद्वः कथितं सर्वं कर्णे यद्वै प्रचोदितम् ।। ३७.११४ ।।
एतेऽङ्गवंशजाः सर्वे राजानः कीर्त्तिता मया।
विस्तरेणानुपूर्व्या च पूरोस्तु श्रृणुत प्रजाः ।३७.११५ ।
           सूत उवाच।।
पूरोः पुत्रो महाबाहू राजासीज्जनमेजयः।
अविद्धस्तु सुतस्तस्य यः प्राचीमजयद्दिशम् ।। ३७.११६ ।।
अविद्धतः प्रवीरस्तु मनस्युरभवत्सुतः।
राजाथो जयदो नाम मनस्योरभवत्सुतः ।। ३७.११७ ।।
दायादस्तस्य चाप्यासीद्धुन्धुर्नाम महीपतिः।
धुन्धोर्बहु गवी पुत्रः सञ्जातिस्तस्य चात्मजः ।। ३७.११८ ।।
सञ्जातेरथ रौद्राश्वस्तस्य पुत्रान्निबोधत।
रौद्राश्वस्य घृताच्यां वै दशाप्सरसि सूनवः ।। ३७.११९ ।।
रजेयुश्च कृते युश्च वक्षेयुः स्थण्डिलेयु च।
घृतेयुश्च जलेयुश्च स्थलेयुश्चैव सप्तमः ।। ३७.१२० ।।
_____________________
धर्मेयुः सन्नतेयुश्च वनेयुर्द्दशमस्तु सः।
रुद्रा शूद्रा च मद्रा च शुभा जामलजा तथा ।। ३७.१२१ ।।
तला खला च सप्तैता या च गोपजला स्मृता।
तथा ताम्ररसा चैव रत्नकूटी च तादृशी ।। ३७.१२२ ।।
आत्रेयो वंशतस्तासां भर्त्ता नाम्ना प्रभाकरः।
अनादृष्टस्तु राजर्षी रिवेयुस्तस्य चात्मजः ।। ३७.१२३ ।।
रिवेयोर्ज्वलना नाम भार्या वै तक्षकात्मजा।
यस्यां देव्यां स राजर्षी रन्तिं नाम त्वजीजनत् ।। ३७.१२४ ।।
रन्तिर्नारः सरस्वत्यां पुत्रानजनयच्छुभान्।
त्रसुं तथा प्रतिरथं ध्रुवञ्चैवातिधार्मिकम् ।। ३७.१२५ ।।
गौरी कन्या च विख्याता मान्धातुर्जननी शुभा।
धुर्यः प्रतिरथस्यापि कण्ठस्तस्याभवत् सुतः ।। ३७.१२६ ।।
मेधातिथिः सुरस्तस्य यस्मात् काण्ठायना द्विजाः।
इतिनानुयमस्यासीत् कन्या साजनयत्सुतान् ।। ३७.१२७ ।।
त्रसुः सुदयितंपुत्रं मलिनं ब्रह्मवादिनम्।
उपदातं ततो लेभे चतुरस्त्विति सात्मजान् ।। ३७.१२८ ।।
सुष्मन्तमथ दुष्यन्तं प्रवीरमनघन्तथा।
चक्रवर्त्ती ततो जज्ञे दौष्यन्तिर्नृपसत्तमः ।। ३७.१२९ ।।


_____________________
शकुन्तलायां भरतो यस्य नाम्ना तु भारतम्।
दुष्यन्तं प्रति राजानं वागुवाचाशरीरिणी ।। ३७.१३० ।।
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्तं सत्यमाह शकुन्तला ।। ३७.१३१।।
रेतोधाः पुत्रं नयति नरदेव यमक्षयात्।
त्वञ्चास्य धाता गर्भस्य मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ।। ३७.१३२ ।।
भरतस्त्रिसृषु स्त्रीषु नव पुत्रानजीजनत्।
नाभ्यनन्दच्च तान् राजा नानुरूपान्ममेत्युत ।। ३७.१३३ ।।
ततस्ता मातरः क्रुद्धाः पुत्रान्निन्युर्यमक्षयम्।
ततस्तस्य नरेन्द्रस्य विततं पुत्रजन्म तत् ।। ३७.१३४।
ततो मरुद्भिरानीय पुत्रस्तु स बृहस्पतेः।
सङ्क्रामितो भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिर्विभुः ।। ३७.१३५ ।।
________  
तत्रैवोदारहन्तीदं भरद्वाजस्य धीमतः।
जन्मसङ्क्रमणञ्चैव मरुद्भिर्भरताय वै ।। ३७.१३६ ।।
पत्न्यामासन्नगर्भायामशिजः संस्थितः किलः।
भ्रातुर्भार्यां स दृष्ट्वाथ बृहस्पतिरुवाच ह।
अलंकृत्य तनुं स्वान्तु मैथुनं देहि मे शुभे ।। ३७.१३७।।
_________________            
एवमुक्ताऽब्रवीदेन मन्तर्वत्नी ह्यहं विभो।
गर्भः परिणतश्चायं ब्रह्म व्याहरते गिरा ।३७.१३८।

अमोघरेतास्त्वञ्चापि धर्मश्चैव विगर्हितः।
एवमुक्तोऽब्रवीदेनां स्मयमानो बृहस्पतिः । ३७.१३९ ।

विनयो नोपदेष्टव्यस्त्वया मम कथञ्चन।
हर्षमाणः प्रसह्यैनां मैथुनायोपचक्रमे ।। ३७.१४०।
ततो बृहस्पतिं गर्भो हर्षमाणमुवाच ह।
सन्निविष्टो ह्यहं पूर्वमिह तात बृहस्पते ।३७.१४१।

अमोघरेताश्च भवान्नावकाशोऽस्ति च द्वयोः।
एवमुक्तः स गर्भेण कुपितः प्रत्युवाच ह ।। ३७.१४२ ।।

यस्मान्मामीदृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति।
प्रतिषेधसितत्तस्मात् तमो दीर्घं प्रवेक्ष्यसि ।३७.१४३।

पादाभ्यान्तेन तच्छन्नं मातुर्द्वारं बृहस्पतेः।
तद्रेतस्तु तयोर्मध्ये निवार्यः शिशुकोऽभवत् ।। ३७.१४४ ।।
सद्यो जातं कुमारन्तं दृष्ट्वाऽथ ममताऽब्रवीत्।
गमिष्यामि गृहं स्वं वै भरद्वाजं बृहस्पते ।। ३७.१४५ ।

एवमुक्त्वा गतायां स पुत्रन्त्यजति तत्क्षणात्।
भरस्व बाढमित्युक्तो भरद्वाजस्ततोऽभवत् ।। ३७.१४६ ।।

मातापितृभ्यां संत्यक्तं दृष्ट्वाथ मरुतः शिशुम्।
गृहीत्वैनं भरद्वाजं जग्मुस्ते कृपया ततः ।। ३७.१४७ ।।

तस्मिन् काले तु भरतो मरुद्भिः क्रतुभिः क्रमात्।
काम्यनैमित्तिकैर्यज्ञैर्यजते पुत्रलिप्सया ।३७.१४८ ।

यदा स यजमानो वै पुत्रान्नासादयत् प्रभुः ।
यज्ञं ततो मरुत्सोमं पुत्रार्थे पुनराहरत् ।। ३७.१४९।
तेन ते मरुतस्तस्य मरुत्सोमेन तोषिताः।
भरद्वाजं ततः पुत्रं बार्हस्पत्यं मनीषिणम् ।। ३७.१५० ।।
भरतस्तु भरद्वाजं पुत्रं प्राप्य तदाब्रवीत्।
प्रजायां संहृतायां वै कृतार्थोऽहं त्वया विभो ।। ३७.१५१ ।।

पूर्वन्तु वितथं तस्य कृतं वै पुत्रजन्म हि।
ततः स वितथो नाम भरद्वाजस्तथाऽभवत् ।। ३७.१५२ ।।

तस्माद्दिव्यो भरद्वाजो ब्राह्मण्यात् क्षत्रियोऽभवत्।
द्विमुख्यायननामा स स्मृतो द्विपितृकस्तु वै ।३७.१५३।
__________________     
ततोऽथ वितथे जाते भरतः स दिवं ययौ।
वितथस्य तु दायादो भुवमन्युर्बभूव ह ।। ३७.१५४।
महाभूतोपमाश्चासंश्चत्वारो भुवमन्युजाः।
बृहत्क्षत्रो महावीर्यो नरो गाग्रश्च वीर्यवान् ।। ३७.१५५ ।।
नरस्य सांकृतिः पुत्रस्तस्य पुत्रौ महौजसौ।
गुरुवीर्यस्त्रिदेवश्च सांकृत्याववरौ स्मृतौ ।। ३७.१५६ ।।
दायादाश्चापि गाग्रस्य शिनिबद्धात् बभूव ह।
स्मृताश्चैते ततो गाग्र्याः क्षात्रोपेता द्विजातयः ।। ३७.१५७ ।।
महावीर्यसुतश्चापि भीमस्तस्मादुभक्षयः।
तस्य भार्या विशाला तु सुषुवे वै सुतांस्त्रयः ।। ३७.१५८ ।।

त्रय्यारुणिं पुष्करिणं तृतीयं सुषुवे कपिम्।
कपेः क्षत्रवरा ह्येते तयोः प्रोक्ता महर्षयः ।३७.१५९।

गाग्राः सांकृतयो वीर्याः क्षात्रोपेता द्विजातयः।
संश्रिताङ्गिरसं पक्षं बृहत्क्षत्रस्य वक्ष्यति ।। ३७.१६० ।।
बृहत्क्षत्रस्य दायादः सुहोत्रो नाम धार्मिकः।
सुहोत्रस्यापि दायादो हस्ती नाम बभूव ह।
तेनेदं निर्मितं पूर्वं नाम्ना वै हास्तिनं पुरम् ।। ३७.१६१।
हस्तिनश्चापि दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः।
अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढस्तथैव च ।। ३७.१६२।
_   
अजमीढस्य पुत्रास्तु शभाः शुभकुलोद्वहाः।
तपसोऽन्ते सुमहतो राज्ञो वृद्धस्य धार्मिकाः ।। ३७.१६३ ।।
भरद्वाजप्रसादेन श्रृणुध्वं तस्य विस्तरम्।
अजमीढस्य केशिन्यां कण्ठः समभवत्किल ।। ३७.१६४ ।।
मेधातिथिः सुतस्तस्य तस्मात् कण्ठायना द्विजाः।
अजमीढस्य धूमिन्यां जज्ञे बृहद्वसुर्नृपः ।। ३७.१६५ ।।
बृहद्वसोर्बृहद्विष्णुः पुत्रस्तस्य महाबलः।
बृहत्कर्मा सुतस्तस्य पुत्रस्तस्य बृहद्रथः ।। ३७.१६६ ।।
विश्वजित्तनयस्तस्य सेनजित्तस्य चात्मजः।
अथ सेनजितः पुत्राश्चत्वारो लोकविश्रुताः ।३७.१६७ ।।

रुचिराश्वश्च काव्यश्च रामो दृढधनुस्तथा।
वत्सश्चावन्तको राजा यस्य ते परिवत्सराः ।। ३७.१६८।

रुचिराश्वस्य दायादः पृथुषेणो महायशाः।
पृथुषेणस्य पारस्तु पारान्नीपोऽथ जज्ञिवान् ।। ३७.१६९ ।।

यस्य चैकशतञ्चासीत् पुत्राणामिति नः श्रुतम्।
नीपा इति समाख्याता राजानः सर्व एव ते ।। ३७.१७० ।।
तेषां वंशकरः श्रीमान् राजासीत्कीर्त्तिवर्द्धनः।
काम्पिल्ये समरो नाम स चेष्टसमरोऽभवत् ।। ३७.१७१ ।।
_______________________________

समरस्य परः पारः सत्वदश्च इति त्रयः।
पुत्राः सर्वगुणोपेताः पारपुत्रो वृषुर्बभौ ।। ३७.१७२।

वृषोस्तु सुकृतिर्नाम सुकृतेनेह कर्मणा।
जज्ञे सर्वगुणोपेतो विब्राजस्तस्य चात्मजः ।। ३७.१७३ ।।

विभ्राजस्य तु दायादस्त्वणुहो नाम पार्थिवः।
बभूव शुकजामाता ऋचीभर्त्ता महायशाः ।। ३७.१७४ ।।
अणुहस्य तु दायादो ब्रह्मदत्तो महातपाः।
योगसूनुः सुतस्तस्य विष्वक्सेनोऽभवनृपः। ३७.१७५ ।।

विब्राजपुत्रा राजानः कुकृतेनेह कर्म्मणा।
विष्वक्सेनस्य पुत्रस्तु उदक्सेनो बभूव ह ।। ३७.१७६ ।।
भल्लाटस्तस्य दायादो येन राजा पुराहतः।
भल्लाटस्य तु दायादो राजासीज्जनमेजयः।
उग्रायुधेन तस्यार्थे सर्वे नीपाः प्रणाशिताः ।। ३७.१७७ ।।
                 ।।ऋषय ऊचुः ।।
उग्रायुधः कस्य सुतः कस्मिन् वंशे च कीर्त्यते।
किमर्थञ्चैव नीपास्ते तेन सर्वे प्रणाशिताः ।। ३७.१७८ ।।
                  ।।सूत उवाच।।
द्विमीढस्य तु दायादो विद्वान् जज्ञे यवीनरः।
धृतिमांस्तस्य पुत्रस्तु तस्य सत्यधृतिः सुतः ।। ३७.१७९ ।।
अथ सत्यधृतेः पुत्रो दृढनेमिः प्रतापवान् ।
दृढनेमिसुतश्चापि सुवर्मा नाम पार्थिवः ।। ३७.१८०।
आसीत्सुवर्म्मणः पुत्रः सार्वभौमः प्रतापवान्।
सार्वभौम इति ख्यातः पृथिव्यामेकराड्बभौ ।। ३७.१८१ ।।
तस्यान्वये च महति महत्पौरवनन्दनः।
महत्पौरवपुत्रस्तु राजा रुक्मरथः स्मृतः ।। ३७.१८२ ।।
अथ रुक्मरथस्यापि सुपार्श्वो नाम पार्थिवः।
सुपार्श्वतनयश्चापि सुमतिर्नाम धार्मिकः ।। ३७.१८३ ।।
सुमतेरपि धर्म्मात्मा राजा सन्नतिमान् प्रभुः।
तस्यासीत्सनतिर्नाम कृतस्तस्य सुतोऽभवत् ।। ३७.१८४ ।।
शिष्यो हिरण्यनाभेस्तु कौथुमस्य महात्मनः।
चतुर्विंशतिधा तेन प्रोक्तास्ताः सामसंहिताः ।। ३७.१८५ ।।
स्मृतास्ते प्राच्यनामानः कार्त्ताः साम्नान्तु सामगः ।
कार्तिरुग्रायुधः सोऽथ वीरः पौरवनन्दनः ।। ३७.१८६ ।।
बभूव येन विक्रम्य पृषतस्य पितामहः।
नीलो नाम महाबाहुः पञ्चालाधिपतिर्हतः ।। ३७.१८७ ।।
उग्रायुधस्य दायादः क्षेमो नाम महायशाः।
क्षेमात्सु वीरः संजज्ञे सुवीरस्य नृपञ्जयः।
नृपञ्जयाद्वीररथो इत्येते पौरवाः स्मृताः ।। ३७.१८८ ।।
अजमीढस्य नीलिन्यां नीलः समभवन्नृपः।
नीलस्य तपसोग्रेण सुशान्तिरभ्यजायत ।। ३७.१८९ ।।
पुरुजानुः सुशान्तेस्तु रिक्षस्तु पुरुजानुजः।
ततस्तु रिक्षदायादा भेदाश्च तनयास्त्विमे ।। ३७.१९० ।।
मुद्गलः सृञ्जयश्चैव राजा बृहदिषुस्तथा ।
यवीयांश्चापि विक्रान्तः कम्पिल्यश्चैव पञ्चमः ।। ३७.१९१ ।।
पञ्चानां रक्षणार्थाय पितैतानभ्यभाषत।
पञ्चानां विद्धि पञ्चैतान् स्फीता जनपदा युताः ।। ३७.१९२ ।।
अलं संरक्षणे तेषां पञ्चाला इति विश्रुताः।
मुद्गलस्यापि मौद्गल्याः क्षात्रोपेतद्विजातयः ।। ३७.१९३ ।।
एते ह्यङ्गिरसः पक्षे संश्रिताः कण्ठमुद्घलाः ।
मुद्घलस्य सुतो ज्येष्ठो ब्रह्मिष्ठः सुमहायशाः ।। ३७.१९४ ।।
इन्द्रसेना यतो गर्भं बध्यश्वं प्रत्यपद्यत।
बध्यश्वान्मिथुनं जज्ञे मेनका इति नः श्रुतिः ।। ३७.१९५ ।।
दिवोदासश्च राजर्षिरहल्या च यशस्विनी।
शारद्वतस्तु दायादमहल्या समसूयत ।। ३७.१९६ ।।
शतानन्दमृषिश्रेष्ठं तस्यापि सुमहायशाः।
पुत्रः सत्यधृतिर्नाम धनुर्वेदस्य पारगः ।। ३७.१९७ ।।
अथ सत्यधृतेः शुक्रं दृष्ट्वाप्सरसमग्रतः।
प्रचस्कन्दे शरस्तम्बे मैथुनं समपद्यत ।। ३७.१९८ ।।
कृपया तच्च जग्राह शन्तनुर्मृगयां गतः।
कृपः स्मृतः स वै तस्माद्गौतमी च कृपी तथा ।। ३७.१९९ ।।
एते शारद्वताः प्रोक्ताः ऋतथ्यो गौतमान्वयः।
अत ऊर्द्ध्वं प्रवक्ष्यामि दिवोदासस्य सन्ततिम् ।। ३७.२०० ।।
दिवोदासस्य दायादो ब्रह्मिष्ठो मित्रयुर्नृपः।
मैत्रेयस्तु ततो जज्ञे स्मृता एतेऽपि संश्रिताः ।। ३७.२०१ ।।
एतेऽपि संश्रिताः पक्षं क्षात्रोपेतास्तु भार्गवाः।
राजापि च्यवनो विद्वांस्ततः प्रतिरथोऽभवत् ।। ३७.२०२ ।।
अथ वै च्यवनाद्धीमान् सुदासः समपद्यत।
सौदासः सहदेवश्च सोमकस्तस्य चात्मजः ।। ३७.२०३ ।।
अजमीढः पुनर्जातः क्षीणे वंशे स सोमकः।
सोमकस्य सुतो जन्तुर्हते तस्मिञ्छतं विभो ।। ३७.२०४ ।।
पुषाणामजमीढस्य सोमकत्वे महात्मनः।
तेषां यवीयान् पृषतो द्रुपदस्य पितामहः ।। ३७.२०५ ।।
धृष्टद्युम्नः सुतस्तस्य धृष्टकेतुश्च तत्सुतः।
महिषी चाजमीढस्य धूमिनी पुत्रगर्धिनी ।। ३७.२०६ ।।
पुनर्भवे तपस्तेपे शतं वर्षाणि दुश्चरम्।
हुताग्न्यनिद्रा ह्यभवत् पवित्रमितभोजना ।। ३७.२०७ ।।
अहोरात्रं कुशेष्वेव सुष्वाप सुमहाव्रता।
तस्यां वै धूम्रवर्णायामजमीढश्च वीर्यवान् ।। ३७.२०८ ।।
ऋक्षं संजनयामास धूम्रवर्ण सिताग्रजम्।
ऋक्षात् संवरणो जज्ञे कुरुः संवरणादभूत् ।। ३७.२०९ ।।
यः प्रयागं पदाक्रम्य कुरुक्षेत्रञ्चकार ह।
कृष्ट्वैनं सुमहातेजा वर्षाणि सुबहून्यथ ।। ३७.२१० ।।
कृष्यमाणे तदा शक्रस्तत्रास्य वरदो बभौ।
पुण्यञ्च रमणीयञ्च पुण्यकृद्भिर्निषेवितम् ।। ३७.२११ ।।
तस्यान्ववायजाः ख्याताः कुरवो नृपसत्तमाः।
कुरोस्तु दयिताः पुत्राः सुधन्वा जह्नुरेव च ।। ३७.२१२ ।।
परिक्षितो महाराजः पुत्रकश्चारिमर्दनः।
सुधन्वनस्तु दायादः सुहोत्रो मतिमान् स्मृतः ।। ३७.२१३ ।।
च्यवनस्तस्य पुत्रस्तु राजा धर्मार्थकोविदः।
च्यवनस्य कृतः पुत्र इष्ट्वा यज्ञैर्महातपाः ।। ३७.२१४।
विश्रुतं जनयामास पुत्रमिन्द्रसखं नृपः।
विद्योपरिचरं वीरं वसुं नामान्तरिक्षगम् ।। ३७.२१५ ।।
विद्योपरिचराज्जज्ञे गिरिका सप्त सूनवः।
महारथो भगधरो विश्रुतो यो बृहद्रथः ।। ३७.२१६ ।।
प्रत्यग्रहः कुशश्चैव यमाहुर्मणिवाहनम्।
माथैल्यश्च ललित्थश्च मत्स्यकालश्च सप्तमः ।। ३७.२१७ ।।
बृहद्रथस्य दायादः कुशाग्रो नाम विश्रुतः।
कुशाग्रस्यात्मजश्चैव ऋषभो नाम वीर्यवान् ।। ३७.२१८ ।।
ऋषभस्यापि दायादः पुष्पवान्नाम धार्मिकः।
विक्रान्तस्तस्य दायादो राजा सत्यहितः स्मृतः ।। ३७.२१९ ।।
तस्य पुत्रः सुधन्वा च तस्मादूर्ज्जः प्रतापवान्।
ऊर्ज्जस्य नभसः पुत्रस्तस्माज्जज्ञे स वीर्यवान् ।। ३७.२२० ।।
__________________________________

शकले द्वे स वै जातो जरया सन्धितस्तु सः।
जरासन्धो महाबाहुर्जरया सन्धितस्तु सः ।। ३७.२२१।
सर्वक्षत्रस्य जेताऽसौ जरासन्धो महाबलः।
जरासन्धस्य पुत्रस्तु सहदेवः प्रतापवान् ।। ३७.२२२ ।।
सहतेवात्मजः श्रीमान् सोमाधिः सुमहातपाः।
श्रुतश्रुवस्तु सोमाधेर्मागधः परिकीर्तितः ।। ३७.२२३ ।
        ।।सूत उवाच।।
परिक्षितस्य दायादो बभूव जनमेजयः।
श्रुतसेनस्य दायादो भीमसेनोऽपि नामतः ।। ३७.२२४ ।।
जह्नुस्त्वजनयत्पुत्रं सुरथं नाम भूमिपम्।
सुरथस्य तु दायादो वीरो राजा विदूरथः ।। ३७.२२५ ।।
विदूरथसुतश्चापि सार्वभौम इति श्रुतिः।
सार्वभौमा ज्जयत्सेन आराधिस्तस्य चात्मजः ।। ३७.२२६ ।।
आराधितो महासत्त्व अयुतायुस्ततः स्मृतः ।
अक्रोधनोऽयुतायोऽस्तु तस्माद्देवातिथिः स्मृतः ।। ३७.२२७ ।।
देवातिथेस्तु दायाद ऋक्ष एव बभूव ह।
भीमसेनस्तथा ऋक्षाद्दिलीपस्तस्य चात्मजः ।। ३७.२२८ ।।
_____________     

दिलीपसूनुः प्रतीपस्तस्य पुत्रास्त्रयः स्मृताः।
देवापिः शन्तनुश्चैव बाह्लीकश्चैव ते त्रयः ।। ३७.२२९ ।।
बाह्लीकस्य तु विज्ञेयः सप्तबाह्लीश्वरो नृपः।
बाह्लीकस्य सुतश्चैव सोमदत्तो महायशाः ।। ३७.२३० ।।
जज्ञिरे सोमदत्तात्तु भूरिर्भूरिश्रवाः शलः ।
देवापिस्तु प्रवव्राज वनं धर्म्मपरीप्सया ।३७.२३१।
उपाध्यायस्तु देवानां देवापिरभवन्मुनिः।
च्यवनोऽस्य हि पुत्रस्तु इष्टकश्च महात्मनः ।। ३७.२३२ ।।
शन्तनुस्त्वभवद्राजा विद्वान् वै स महाभिषः ।
इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं प्रति महाभिषम् । ३७.२३३।
यं यं राजा स्पृशति वै जीर्णं समयतो नरम्।
पुनर्युवा स भवति तस्मात्ते शन्तनुं विदुः ।३७.२३४ ।
ततोऽस्य शन्तनुत्वं वै प्रजास्विह परिश्रुतम्।
स उपयेमे धर्म्मात्मा शन्तनु र्जाह्नवीं नृपः ।३७.२३५ ।
तस्यां देवव्रतं भीष्मं पुत्रं सोऽजनयत्प्रभुः ।
स च भीष्म इति ख्यातः पाण्डवानां पितामहः ।। ३७.२३६ ।।
काले विचित्रवीर्यन्तु शन्तनु र्जनयत्सुतम्।
शन्तनोर्दयितं पुत्रं प्रजाहितकरम्प्रभुम्।
कृष्णद्वैपायनश्चैव क्षेत्रे वैचित्रवीर्यके ।३७.२३७ ।

धृतराष्ट्रञ्च पाण्डुञ्च विदुरञ्चाप्यजीजनत्।
धृतराष्ट्रात्तु गान्धारी पुत्राणां सुषुवे शतम् ।३७.२३८ ।
तेषां दुर्योधनो ज्येष्ठः सर्व्वक्षत्रस्य स प्रभुः।
माद्री राज्ञी पृथा चैव पाण्डोर्भार्ये बभूवतुः ।। ३७.२३९ ।।
देवदत्ताः सुतास्ताभ्यां पाण्डोरर्थे विजज्ञिरे।
धर्म्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे वायोर्जज्ञे वृकोदरः ।। ३७.२४० ।।
इन्द्राद्धनञ्जयो जज्ञे शक्रतुल्यपराक्रमः।
अश्विभ्यां सह देवश्च नकुलश्चापि माद्रिजौ ।। ३७.२४१ ।।
पञ्चैव पाण्डवेभ्यश्च द्रौपद्यां जज्ञिरे सुताः।
द्रौपद्यजनयज्ज्येष्ठं श्रुतिविद्धं युधिष्ठिरात् ।। ३७.२४२ ।।
हिडम्बा भीमसेनात्तु जज्ञे पुत्रं घटोत्कचम्।
काश्याः पुनर्भीमसेनाज्जज्ञे सर्व्ववृकं सुतम् ।। ३७.२४३ ।।
सुहोत्रं विजया माद्री सहदेवादजायत।
करेमत्यान्तु वैद्यायां निरमित्रस्तु लाङ्गलिः ।। ३७.२४४ ।।
सुभद्रायां रथी पार्थादभिमन्युरजायत।
उत्तरायान्तु वैराट्यां परिक्षिदभिमन्युजः ।। ३७.२४५ ।।
परिक्षितस्तु दायादो राजासीज्जनमेजयः।
ब्राह्मणान् स्थापयामास स वै वाजसनेयिकान् ।। ३७.२४६ ।।
असपत्नं तदामर्षाद्वैशम्पायन एव तु।
न स्थास्यतीह दुर्बुद्धे तवैतद्वचनं भुवि ।। ३७.२४७ ।।
यावत्स्था स्याम्यहं लोके तावन्नैतत्प्रशस्यते।
अभितः संस्थितश्चापि ततः स जनमेजयः ।३७.२४८ ।
पौर्णमास्येन हविषा देवमिष्ट्वा प्रजापतिम्।
विज्ञाय संस्थितोऽपश्यत्तद्वधीष्टां विभोर्मखे ।। ३७.२४९ ।।
परिक्षित्तनयश्वापि पौरवो जनमेजयः ।
द्विरश्वमेधमाहृत्य ततो वाजसनेयकम् ।
प्रवर्त्तयित्वा तद्ब्रह्म त्रिखर्व्वी जनमेजयः ।। ३७.२५० ।।
खर्व्वमश्वकमुख्यानां खर्व्वमङ्गनिवासिनाम्।
सर्व्वञ्च मध्यदेशानां त्रिखर्व्वी जनमेजयः ।
विषादाद्ब्राह्मणैः सार्द्धमभिशस्तः क्षयं ययौ। ३७.२५१ ।।
तस्य पुत्रः शतनीको बलवान् सत्यविक्रमः ।
ततः सुतं शतानीकं विप्रास्तमभ्यषेचयत् ।। ३७.२५२ ।।
पुत्रोऽश्वमेध दत्तोऽभूच्छतानीकस्य वीर्य्यवान्।
पुत्रोऽश्वमेधदत्ताद्वै जातः परपुरंजयः ।। ३७.२५३ ।।
अधिसामकृष्णो धर्मात्मा साम्प्रतोऽयं महायशाः।
यस्मिन् प्रशासति महीं युष्माभिरिदमाहृतम् ।। ३७.२५४ ।।
दुरापं दीर्घसत्रं वै त्रीणि वर्षाणि दुश्चरम्।
वर्षद्वयं कुरुक्षेत्रे दृषद्वत्यां द्विजोत्तमाः ।। ३७.२५५ ।।
           ऋषय ऊचुः ।।
श्रोतुं भविष्यमिच्छामः प्रजानां वै महामते ।
सूत सार्द्धं नृपैर्भाव्यं व्यतीतं कीर्त्तितं त्वया ।। ३७.२५६।
यत्तु संस्थास्यते कृत्यमुत्पत्स्यन्ति चे ये नृपाः।
वर्षाग्रतोऽपि प्रब्रूहि नामतश्चैव तान्नृपान् ।। ३७.२५७ ।।
कालं युगप्रमाणञ्च गुणदोषान् भविष्यतः।
सुखदुःखे प्रजानाञ्च धर्मतः कामतोऽर्थतः ।। ३७.२५८ ।।
एतत्सर्वं प्रसङ्ख्याय पृच्छतां ब्रूहि तत्वतः।
स एवमुक्तो मुनिभिः सूतो बुद्धिमतां वरः।
आचचक्षे यथावृत्तं यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।। ३७.२५९ ।।
          ।।सूत उवाच।।
यथा मे कीर्त्तितं सर्वं व्यासेनाद्भुतकर्म्मणा।
भाव्यं कलियुगञ्चैव तथा मन्वन्तराणि तु ।। ३७.२६०।
अनागतानि सर्वाणि ब्रुवतो मे निबोधत।
अत ऊर्द्ध्वं प्रवक्ष्यामि भविष्यन्ति वृपास्तु ये ।। ३७.२६१ ।।
ऐलांश्चैव तथेक्ष्वाकून् सौद्युम्नांश्चैव पार्थिवान्।
येषु संस्थाप्यते क्षेत्रणैक्ष्वाकवमिदं शुभम् ।। ३७.२६२ ।।
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तान् सर्वान् कीर्त्तयिष्यामि भविष्ये पठितान्नृपान्।
तेभ्यः परे च ये चान्ये उत्पत्स्यन्ते महीक्षितः ।। ३७.२६३ ।।
क्षत्राः पारशवाः शूद्रास्तथा ये च द्विजातयः।
अन्धाः शकाः पुलिन्दाश्च तूलिका यवनैः सह ।। ३७.२६४ ।।
कैवर्त्त आभीर शबरा ये चान्ये म्लेच्छजातयः।
वर्षाग्रतः प्रवक्ष्यामि नामतश्चैव तान्नृपान् ।। ३७.२६५ ।।

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अधिसामकृष्णः सोऽयं साम्प्रतं पौरवान्नृपः।
तस्यान्ववाये वक्ष्यामि भविष्ये तावतो नृपान् ।। ३७.२६६ ।।
अधिसामकृष्णपुत्रो निर्वक्रे भविता किल।
गङ्गयापहृते तस्मिन्नगरे नागसाह्वये।
त्यक्त्वा च तं सुवासञ्च कौशाम्ब्यां स निवत्स्यति ।। ३७.२६७ ।।
भविष्यदुष्णस्तत्पुत्र उष्णाच्चित्ररथः स्मृतः।
शुचिद्रथश्चित्ररथाद्‌वृतिमांश्च शुचिद्रथात् ।३७.२६८ ।
सुषेणो वै महावीर्यो भविष्यति महायशाः।
तस्मात्सुषेणाद्भविता सुतीर्थो नाम पार्थिवः ।। ३७.२६९ ।।
रुचः सुतीर्थाद्भविता त्रिचक्षो भविता ततः।
त्रिचक्षस्य तु दायादो भविता वै सुखीबलः ।। ३७.२७० ।।
सुखीबलसुतश्चापि भाव्यो राजा परिप्लुतः।
परिप्लुतसुतश्चापि भविता सुनयो नृपः ।। ३७.२७१ ।।
मेधावी सुनयस्याथ भविष्यति नराधिपः।
मेधाविनः सुतश्चापि दण्डपाणिर्भविष्यति ।। ३७.२७२ ।।
दण्डपाणेर्निरामित्रे निरामित्राच्च क्षेमकः।
पञ्चविंशनृपा ह्येते भविष्याः पूर्ववंशजाः ।। ३७.२७३ ।।
अत्रानुवंशश्लोकोऽयं गीतो विप्रैः पुराविदैः।
ब्रह्मक्षत्रस्य यो योनिर्वंशो देवर्षिसत्कृतः ।। ३७.२७४।

क्षेमकं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ।
इत्येष पौरवो वंशो यथावदनुकीर्त्तितः ।। ३७.२७५ ।।
धीमतः पाण्डुपुत्रस्य ह्यर्जुनस्य महात्मनः।
अत ऊर्द्ध्वं प्रवक्ष्यामि इक्ष्वाकूणां महात्मनाम् ।। ३७.२७६ ।।
बृहद्रथस्य दायादो वीरो राजा बृहत्क्षयः ।
ततः क्षयः सुतस्तस्य वत्सव्यूहस्ततः क्षयात् ।। ३७.२७७ ।।
वत्सव्यूहात्प्रतिव्यूहस्तस्य पुत्रो दिवाकरः।
यश्च सांप्रतमध्यास्त अयोध्यां नगरीं नृपः ।। ३७.२७८ ।।
दिवाकरस्य भविता सहदेवो महायशाः।
सहदेवस्य दायादो बृहदश्वो भविष्यति ।। ३७.२७९ ।।
तस्य भानुरथो भाव्यः प्रतीताश्वश्च तत्सुतः।
प्रतीताश्वसुतश्चापि सुप्रतीतो भविष्यति ।। ३७.२८० ।।
सहदेवः सुतस्तस्य सुनक्षत्रश्च तत्सुतः ।। ३७.२८१ ।।
किन्नरस्तु सुनक्षत्राद्भविष्यति परंतपः।
भविता चान्तरिक्षस्तु किन्नरस्य सुतो महान् ।। ३७.२८२ ।।
अन्तरिक्षात्सुपर्णस्तु सुपर्णाच्चाप्यमित्रजित्।
पुत्रस्तस्य भरद्वाजो धर्मी तस्य सुतः स्मृतः।
पुत्रः कृतञ्जयो नाम धर्मिणः स भविष्यति।
कृतञ्जयसुतो व्रातो तस्य पुत्रो रणञ्जयः ।। ३७.२८३ ।।

_______________________
भविता सञ्जयश्चापि वीरो राजा रणञ्जयात्।
सञ्जयस्य सुतः शाक्यः शाक्याच्छुद्धोदनोऽभवत् ।। ३७.२८४ ।।
शुद्धोदनस्य भविता शाक्यार्थे राहुलः स्मृतः।
प्रसेनजित्ततो भाव्यः क्षुद्रको भविता ततः ।। ३७.२८५ ।।
क्षुद्रकात्क्षुलिको भाव्यः क्षुलिकात्सुरथः स्मृतः।
सुमित्रः सुरथस्यापि अन्त्यश्च भविता नृपः ।। ३७.२८६ ।।
एते ऐक्ष्वाकवाः प्रोक्ता भवितारः कलौ युगे।
बृहद्बलान्वये जाता भवितारः कलौ युगे।
शूराश्च कृतविद्याश्च सत्यसन्धा जितेन्द्रियाः ।। ३७.२८७ ।।

अत्रानुवंशश्लोकोऽयं भविष्यज्ञैरुदाहृतः।
इक्ष्वाकूणामयं वंशः सुमित्रान्तो भविष्यति।
सुमित्रं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ।
इत्येतन्मानवं क्षेत्रमैलञ्च समुदाहृतम् ।३७.२८८।
अत ऊर्द्ध्वं प्रवक्ष्यामि मागधेयान्बृहद्रथान्।
जरासन्धस्य ये वंशे सहदेवान्वये नृपाः ।। ३७.२८९ ।।

अतीता वर्त्तमानाश्च भविष्याश्च तथा पुनः।
प्राधान्यतः प्रवक्ष्यामि गदतो मे निबोधत ।। ३७.२९० ।।
संग्रामे भारते तस्मिन् सहदेवो निपातितः।
सोमाधिस्तस्य तनयो राजर्षिः सगिरिव्रजे ।। ३७.२९१ ।।
पञ्चाशतं तथाष्टौ च समा राज्यमकारयत्।
श्रुतश्रवाः चतुःषष्टिसमास्तस्य सुतोऽभवत्।
अयुतायुस्तु षड्विंशं राज्यं वर्षाण्यकारयत्।
समाः शतं निरामित्रो महीं भुक्त्वा दिवङ्गतः ।। ३७.२९२ ।।
पञ्चाशतं समाः षट् च सुकृत्तः प्राप्तवान्महीम्।
त्रयोविंशं बृहत्कर्मा राज्यं वर्षाण्यकारयत् ।। ३७.२९३ ।।
सेनाजित्साम्प्रतं चापि एतां वै भुज्यते समाः।
श्रुतञ्जयस्तु वर्षाणि चत्वारिंशद्भविष्यति ।। ३७.२९४ ।।
महाबाहुर्महाबुद्धिर्महाभीमपराक्रमः।
पञ्चत्रिंशत्तु वर्षाणि महीं पालयिता नृपः । ३७.२९५।
अष्टपञ्चा शतं चाब्दान् राज्ये स्थास्यति वै शुचिः।
अष्टाविंशत्समाः पूर्णाः क्षेमो राजा भविष्यति ।। ३७.२९६ ।।
भुवतस्तु चतुःषष्टीराज्यं प्राप्स्यति वीर्य्यवान्।
पञ्चवर्षाणि पूर्णानि धर्मनेत्रो भविष्यति ।। ३७.२९७ ।।
भोक्ष्यते नृपतिश्चैव ह्यष्टपञ्चाशतं समाः।
अष्टात्रिंशत्समा राज्यं सुव्रतस्य भविष्यति ।। ३७.२९८ ।।
चत्वारिंशद्दशाष्टौ च दृढसेनो भविष्यति।
त्रयस्त्रिंशत्तु वर्षाणि सुमतिः प्राप्स्यते ततः ।३७.२९९ ।
द्वाविंशतिसमा राज्यं सुचलो भोक्ष्यते ततः।
चत्वारिंशत्समा राजा सुनेत्रो भोक्ष्यते ततः ।। ३७.३०० ।।
सत्यजित्पृथिवीराज्यं त्र्यशीतिं भोक्ष्यते समाः।
प्राप्येमां वीरजिच्चापि पञ्चत्रिंशद्भविष्यति ।। ३७.३०१ ।।
अरीञ्जयस्तु वर्षाणि पञ्चाशत्प्राप्स्यते महीम्।
द्वात्रिंशच्च नृपा ह्येते भवितारो बृहद्रथाः ।। ३७.३०२ ।।
पूर्णं वर्षसहस्रं वै तेषां राज्यं भविष्यति।
बृहद्रथेष्वतीतेषु वीतहोत्रेषु वर्तिषु ।। ३७.३०३ ।।
मुनिकः स्वामिनं हत्वा पुत्रं समभिषेक्ष्यति।
मिषतां क्षत्रियाणां हि प्रद्योतो मुनिको बलात् ।। ३७.३०४ ।।
स वै प्रणतसामन्तो भविष्ये नयवर्ज्जितः ।
त्रयोविंशत्समा राजा भविता स नरोत्तमः ।। ३७.३०५ ।।
चतुर्विंशत्समा राजा पालको भविता ततः।
विशाखयूपो भविता नृपः पञ्चाशतीं समाः ।। ३७.३०६ ।।
एकत्रिंशत्समा राज्यमजकस्य भविष्यति।
भविष्यति समा विंशत्तत्सुतो वर्त्तिवर्द्धनः ।। ३७.३०७ ।।
अष्टात्रिंशच्छतं भाव्याः प्राद्योताः पञ्च ते सुताः।
हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनाको भविष्यति ।। ३७.३०८ ।।
वाराणस्यां सुतस्तस्य संप्राप्स्यति गिरिव्रजम्।
शिशुनाकस्य वर्षाणि चत्वारिंशद्भविष्यति ।। ३७.३०९ ।।
शकवर्णः सुतस्तस्य षट्‌त्रिंशच्च भविष्यति।
ततस्तु विंशतिं राजा क्षेमवर्मा भविष्यति ।। ३७.३१० ।।
अजातशत्रूर्भविता पञ्चविंशत्समा नृपः।
चत्वारिंशत्समा राज्यं क्षत्रौजाः प्राप्स्यते ततः ।। ३७.३११ ।।
अष्टाविंशत्समा राजा विविसारो भविष्यति।
पञ्चविंशत्समा राजा दर्शकस्तु भविष्यति ।। ३७.३१२ ।।
______
उदायी भविता तस्मात्त्रयस्त्रिंशत्समा नृपः।
स वै पुरवरं राजा पृथिव्यां कुसुमाह्वयम्।
गङ्गाया दक्षिणे कूले चतुर्थेऽब्दे करिष्यति ।। ३७.३१३ ।।
द्वाचत्वारिंशत्समा भाव्यो राजा वै नन्दिवर्द्धनः।
चत्वारिंशत्त्रयञ्चैव महा नन्दी भविष्यति ।। ३७.३१४ ।।
इत्येते भवितारौ वै शैशुनाका नृपा दश।
अतानि त्रीणि वर्षाणि द्विषष्ट्यभ्यधिकानि तु ।। ३७.३१५ ।।
शैशुनाका भविष्यन्ति तावत्कालं नृपाः परे।
एतैः सार्द्धं भविष्यंति राजानः क्षत्रबान्धवाः ।। ३७.३१६ ।।
ऐक्ष्वाकवाश्चतुर्विंशत्पाञ्चालाः पञ्चविंशतिः।
कालकास्तु चतुर्व्विंशच्चतुर्व्विंशत्तु हैहयाः ।। ३७.३१७ ।।
द्वात्रिंशद्वै कलिङ्गास्तु पञ्चविंशत्तथा शकाः।
कुरवश्चापि षड्विंशदष्टाविंशति मैथिलाः ।। ३७.३१८ ।।
शूरसे नास्त्रयोविंशद्वीतिहोत्राश्च विंशतिः।
तुल्यकालं भविष्यन्ति सर्व एव महीक्षितः ।। ३७.३१९।
महानन्दिसुतश्चापि शूद्रायां कालसंवृतः।
उत्पत्स्यते महापद्मः सर्वक्षत्रान्तरे नृपः ।। ३७.३२० ।।
ततःप्रभृति राजानो भविष्याः शूद्रयोनयः।
एकराट् स महापद्म एकच्छत्रो भविष्यति ।। ३७.३२१ ।।
अष्टा विंशतिवर्षाणि पृथिवीं पालयिष्यति।
सर्वक्षत्रहृतोद्धृत्य भाविनोऽर्थस्य वै बलात् ।। ३७.३२२ ।।
सहस्रास्तत्सुता ह्यष्टौ समा द्वादश ते नृपाः।।
महापद्मस्य पर्याये भविष्यन्ति नृपाः क्रमात् ।। ३७.३२३ ।।

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उद्धरिष्यति तान् सर्वान् कौटिल्यो वै द्विरष्टभिः।
भुक्त्वा महीं वर्षशतं नन्देन्दुः स भविष्यति ।। ३७.३२४ ।।
चन्द्रगुप्तं नृपं राज्ये कौटिल्यः स्थापयिष्यति।
चतुर्विंशत्समा राजा चन्द्रगुप्तो भविष्यति ।। ३७.३२५ ।।
भविता भद्र सारस्तु पञ्चविंशत्समा नृपः।
षड्विंशत्तु समा राजा ह्यशोको भविता नृषु ।। ३७.३२६ ।।
तस्य पुत्रः कुनालस्तु वर्षाण्यष्टौ भविष्यति।
कुनाल सूनुरष्टौ च भोक्ता वै बन्धुपालितः ।। ३७.३२७।
बन्धुपालितदायादो दशमानीन्द्रपालितः।
भविता सप्तवर्षाणि देववर्म्मा नराधिपः ।। ३७.३२८ ।।
राजा शतधरश्चाष्टौ तस्य पुत्रो भविष्यति।
बृहदश्वश्च वर्षाणि सप्त वै भविता नृपः ।। ३७.३२९।

इत्येते नव भूपा ये भोक्ष्यन्ति च वसुन्धराम्।
सप्तत्रिंशच्छतं पूर्णं तेभ्यस्तु गौर्भविष्यति ।। ३७.३३०।
पुष्पमित्रस्तु सेनानीरुद्धृत्य वै बृहद्रथम्।
कारयिष्यति वै राज्यं समाः षष्टिं सदैव तु ।३७.३३१ ।।

पुष्पमित्रसुताश्चाष्टौ भविष्यन्ति समा नृपाः।
भविता चापि तज्ज्येष्ठः सप्तवर्षाणि वै ततः ।। ३७.३३२ ।।
वसुमित्रः सुतो भाव्यो दशवर्षाणि पार्थिवः।
ततो ध्रुकः समा द्वे तु भविष्यति सुतश्च वै ।। ३७.३३३ ।।
भविष्यन्ति समास्तस्मात्तिस्र एव पुलिन्दकाः।
राजा घोषसुतश्चापि वर्षाणि भविता त्रयः ।। ३७.३३४।
ततो वै विक्रमित्रस्तु समा राजा ततः पुनः।
द्वात्रिंशद्भविता चापि समा भागवतो नृपः ।। ३७.३३५।

भविष्यति सुतस्तस्य क्षेमभूमिः समा दश।
दशैते तुङ्गराजानो भोक्ष्यन्तीमां वसुन्धरम् ।। ३७.३३६ ।।
शतं पूर्णं दश द्वे च तेभ्यः किं वा गमिष्यति।
अपार्थिवसुदेवन्तु बाल्याद्व्यसनिनं नृपम् ।। ३७.३३७ ।।
देवभूमिस्ततोऽन्यश्च श्रृङ्गेषु भविता नृपः।
भविष्यति समा राजा नव कण्ठायनस्तु सः ।। ३७.३३८ ।।
भूतिमित्रः सुतस्तस्य चतुर्व्विंशद्भविष्यति।
भविता द्वादश समास्तस्मान्नारायणो नृपः ।। ३७.३३९ ।।

सुशर्म्मा तत्सुतश्चापि भविष्यति समा दश।
चतुरस्तुङ्गकृत्यास्ते नृपाः कण्ठायना द्विजाः ।। ३७.३४० ।।
भाव्याः प्रणतसामन्ताश्चत्वारिंशच्च पञ्च च।
तेषां पर्य्यायकाले तु तरन्धा तु भविष्यति ।३७.३४१।

कण्ठायनमथोद्धृत्य सुशर्म्माणं प्रसह्य तम्।
श्रृङ्गाणां चापि यच्छिष्टं क्षययित्वा बलं तदा।
सिन्धुको ह्यन्ध्रजातीयः प्राप्स्यतीमां वसुन्धराम् ।। ३७.३४२ ।।
त्रयोविंशत्समा राजा सिन्धुको भविता त्वथ।
अष्टौ भातश्च वर्षाणि तस्माद्दश भविष्यति ।। ३७.३४३ ।।
श्रीसातकर्णिर्भविता तस्य पुत्रस्तु वै महान्।
पञ्चाशतं समाः षट् च सातकर्णिर्भविष्यति ।। ३७.३४४ ।।
आपादबद्धो दश वै तस्य पुत्रो भविष्यति।
चतुर्व्विंशत्तु वर्षाणि षट् समा वै भविष्यति ।। ३७.३४५ ।।
भविता नेमिकृष्णस्तु वर्षाणां पञ्चविंशतिम्।
ततः संवत्सरं पूर्णं हालो राजा भविष्यति ।। ३७.३४६ ।।
पञ्च सप्तक राजानो भविष्यन्ति महाबलाः।
भाव्यः पुत्रिकषेणस्तु समाः सोऽप्येकविंशतिम् ।। ३७.३४७ ।।
सातकर्णिर्वर्षमेकं भविष्यति नराधिपः।
अष्टाविंशत्तु वर्षाणि शिवस्वामी भविष्यति ।। ३७.३४८ ।।
राजा च गौतमीपुत्र एकविंशत्समा नृषु।
एकोनविंशतिं राजा यज्ञश्रीः सातकर्ण्यथ ।३७.३४९।

षडेव भविता तस्माद्विजयस्तु समा नृपः।
दण्डश्रीः सातकर्णी च तस्य पुत्रः समास्त्रयः ।। ३७.३५० ।।
पुलोवापि समाः सप्त अन्येषाञ्च भविष्यति ।
इत्येते वै नृपास्त्रिंशदन्ध्रा भोक्ष्यन्ति ये महीम् ।। ३७.३५१ ।।
समाः शतानि चत्वारि पञ्च षड्वै तथैव च।
अन्ध्राणां संस्थिताः पञ्च तेषां वंशाः समाः पुनः ।। ३७.३५२ ।।
_____________________
सप्तैव तु भविष्यन्ति दशाभीरास्ततो नृपाः।
सप्त गर्दभिनश्चापि ततोऽथ दश वै शकाः ।। ३७.३५३।

यवनाष्टौ भविष्यन्ति तुषारास्तु चतुर्दश।
त्रयोदश मरुण्डाश्च मौना ह्यष्टादशैव तु ।३७.३५४ ।।
अन्ध्रा भोक्ष्यन्ति वसुधां शते द्वे च शतं च वै।
शतानि त्रीण्यशीतिञ्च भोक्ष्यन्ति वसुधां शकाः ।। ३७.३५५ ।।
अशीतिञ्चैव वर्षाणि भोक्तारो यवना महीम्।
पञ्चवर्षशतानीह तुषाराणां मही स्मृता ।। ३७.३५६ ।।
शतान्यर्द्धचतुर्थानि भवितारस्त्रयोदश।
मरुण्डा वृषलैः सार्द्धं भाव्यान्या म्लेच्छजातयः ।। ३७.३५७ ।।
_______________
शतानि त्रीणि भोक्ष्यन्ति म्लेच्छा एकादशैव तु।
तच्छन्नेन च कालेन ततः कोलिकिला वृषाः ।। ३७.३५८ ।।

ततः कोलिकिलेभ्यश्च विन्ध्यशक्तिर्भविष्यति।
समाः षण्णवतिं त्रात्वा पृथिवीं च समेष्यति ।। ३७.३५९ ।।

वृषान् वै दिशकांश्चापि भविष्याश्च निबोधत।
शेषस्य नागराजस्य पुत्रः स्वरपुरञ्जयः ।। ३७.३६०।

भोगी भविष्यते राजा नृपो नागकुलोद्वहः।
सदाचन्द्रस्तु चन्द्रांशो द्वितीयो नखवांस्तथा ।। ३७.३६१।

धनधर्मा ततश्चापि चतुर्थो विंशजः स्मृतः।
भूतिनन्दस्ततश्चापि वैदेशे तु भविष्यति ।। ३७.३६२ ।।
अङ्गानां नन्दनस्यान्ते मधुनन्दिर्भविष्यति।
तस्य भ्राता यवीयांस्तु नाम्ना नन्दियशाः किल ।। ३७.३६३ ।।
तस्यान्वये भविष्यन्ति राजानस्ते त्रयस्तु वै।
दोहित्रः शिशुको नाम पुरिकायां नृपोऽभवत् ।। ३७.३६४ ।।
विन्ध्यशक्तिसुतश्चापि प्रवीरो नाम वीर्यवान् ।
भोक्ष्यन्ति च समाः षष्टिं पुरीं काञ्चनकाञ्च वै ।। ३७.३६५ ।।
यक्ष्यन्ति वाजपेयैश्च समाप्तवरदक्षिणैः।
तस्य पुत्रास्तु चत्वारो भविष्यन्ति नराधिपाः ।। ३७.३६६ ।।
विन्ध्यकानां कुलेऽतीते नृपा वै बाह्लिका स्त्रयः।
सुप्रतीको नभीरस्तु समा भोक्ष्यति त्रिंशतिम् ।। ३७.३६७ ।।
शक्यमा नाम वै राजा माहिषीनां महीपतिः।
पुष्पमित्रा भविष्यन्ति पट्टमित्रास्त्रयोदश ।। ३७.३६८ ।।
मेकलायां नृपाः सप्त भविष्यन्ति च सत्तमाः।
कोमलायान्तु राजानो भविष्यन्ति महाबलाः ।। ३७.३६९ ।।
मेघा इति समाख्याता बुद्धिमन्तो नवैव तु।
नैषधाः पार्थिवाः सर्व्वे भविष्यन्त्यामनुक्षयात् ।। ३७.३७० ।।
नलवंशप्रसूतास्ते वीर्यवन्तो महाबलाः।
मागधानां महावीर्यो विश्वस्फानिर्भविष्यति ।। ३७.३७१ ।।
उत्साद्य पार्थिवान् सर्व्वान्सोऽन्यान् वर्णान् करिष्यति।
कैवर्त्तान् पञ्चकांश्चैव पुलिन्दान् ब्राह्मणांस्तथा ।। ३७.३७२ ।।
स्थापयिष्यन्ति राजानो नानादेशेषु तेजसा।
विश्वस्फानिर्महासत्त्वो युद्धे विष्णुसमो बली ।। ३७.३७३ ।।
विश्वस्फानिर्नरपतिः क्लीबा कृतिरिवोच्यते।
उत्सादयित्वा क्षत्रन्तु क्षत्रमन्यत् करिष्यति ।। ३७.३७४ ।।
देवान् पितॄंश्च विप्रांश्च तर्पयित्वा सकृत्पुनः।
जाह्नवीतीरमासाद्य शरीरं यस्यते बली ।। ३७.३७५ ।।
संन्यस्य स्वशरीरन्तु शक्रलोकं गमिष्यति।
नवनाकास्तु भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावतीं नृपाः ।। ३७.३७६ ।।
मथुराञ्च पुरीं रम्यां नागा भोक्ष्यन्ति सप्त वै।
अनुगङ्गं प्रयागञ्च साकेतं मगधांस्तथा।
एताञ्जनपदान् सर्व्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजाः ।। ३७.३७७ ।।

निषधान् यदुकांश्चैव शैशी तान् कालतोपकान्।
एताञ्जनपदान् सर्व्वान् भोक्ष्यन्ति मणिधान्यजाः ।। ३७.३७८ ।।
कोशलांश्चान्ध्रपौण्ड्रांश्च ताम्रलिप्तान् ससागरान्।
चम्पां चैव पुरीं रम्यां भोक्ष्यन्ति देवरक्षिताम् ।। ३७.३७९ ।।
_______
कालिङ्गा महिषाश्चैव महेन्द्रनिलयाश्च ये।
एताञ्जनपदान् सर्व्वान् पालयिष्यति वै गुहः ।। ३७.३८० ।।
स्त्रीराष्ट्रं भक्ष्यकांश्चैव भोक्ष्यते कनकाह्वयः।
तुल्यकालं भविष्यन्ति सर्वे ह्येते महीक्षितः ।३७.३८१।
अल्पप्रसादा ह्यनृता महाक्रोधाः ह्यधार्मिकाः।
भविष्यन्तीह यवना धर्मतः कामतोऽर्थतः ।३७.३८२।

नैव मूर्द्धाभिषिक्तास्ते भविष्यन्ति नराधिपाः।
युगदोषदुराचारा भविष्यन्ति नृपास्तु ते ।। ३७.३८३ ।।
स्त्रीणां बलवधेनैव हत्वा चैव परस्परम्।
भोक्ष्यन्ति कलिशेषे तु वसुधां पार्थिवास्तथा ।। ३७.३८४ ।।
उदितोदितवंशास्ते उदितास्तमितास्तथा ।
भविष्यन्तीह पर्याये कालेन पृथिवीक्षितः ।३७.३८५ ।।

विहीनास्तु भविष्यन्ति धर्म्मतः कामतोऽर्थतः।
तैर्विमिश्रा जनपदा म्लेच्छाचाराश्च सर्वशः ।। ३७.३८६ ।।
विपर्य्ययेन वर्त्तन्ते नाशयिष्यन्ति वै प्रजाः।
लुब्धानृतरताश्चैव भवितारस्तदा नृपाः ।। ३७.३८७ ।।
तेषां व्यतीते पर्याये बहुस्त्रीके युगे तदा।
लवाल्लवं भ्रश्यमाना आयूरूपबलश्रुतैः ।। ३७.३८८ ।।
तथा गतास्तु वै काष्ठां प्रजासु जगतीश्वराः ।
राजानः सम्प्रणश्यन्ति कालेनोपहतास्तदा ।। ३७.३८९ ।।
कल्किनोपहताः सर्वे म्लेच्छा यास्यन्ति सर्वशः।
अधार्मिकाश्च तेऽत्यर्थं पाषण्डाश्चैव सर्वशः ।। ३७.३९० ।।
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प्रनष्टे नृपशब्दे च सन्ध्याश्लिष्टे कलौ युगे।
किंञ्चिच्छिष्टाः प्रजास्ता वै धर्म्मे नष्टेऽपरिग्रहाः ।। ३७.३९१ ।।
असाधना हताश्वासा व्याधिशोकेन पीडिताः।
अनावृष्टिहताश्चैव परस्परवधेन च ।। ३७.३९२ ।।
अनाथा हि परित्रस्ता वार्त्तामुत्सृज्य दुःखिताः।
त्यक्त्वा पुराणि ग्रामांश्च भविष्यन्ति वनौकसः ।। ३७.३९३ ।।
एवं नृपेषु नष्टेषु प्रजास्त्यक्त्वा गृहाणि तु।
नष्टे स्नेहे दुरापन्ना भ्रष्टस्नेहाः सुहृज्जनाः ।। ३७.३९४ ।।
वर्णाश्रमपरिभ्रष्टाः सङ्करं घोरमास्थिताः।
सरित्पर्वतसेविन्यो भविष्यन्ति प्रजास्तदा ।। ३७.३९५ ।।
सरितः सागरानूपान् सेवन्ते पर्वतानि च।
अङ्गान् कलिङ्गान् वङ्गांश्च काश्मीरान् काशिकोशलान् ।। ३७.३९६ ।।

ऋषिकान्तगिरिद्रोणीः संश्रयिष्यन्ति मानवाः।
कृत्स्नं हिमवतः पृष्ठं कूलं च लवणाम्भसः ।३७.३९७।

अरण्यान्यभिपत्स्यन्ति ह्यार्य्या म्लेच्छजनैः सह।
मृगैर्मीनैर्विहङ्गैश्च श्वापदैस्तक्षुभिस्तथा।
मधुशाकफलैर्मूलैर्वर्त्तयिष्यन्ति मानवाः ।३७.३९८।
चीरं पर्णञ्च विविधं वल्कलान्यजिनानि च।
स्वयं कृत्वा विवत्स्यन्ति यथा मुनिजनास्तथा ।। ३७.३९९ ।।
बीजान्नानि तथा निम्नेस्वीहन्तः काष्ठशङ्कुभिः।
अजैडकं खरोष्ट्रञ्च पालयिष्यन्ति यत्नतः ।। ३७.४०० ।।
नदीर्वत्स्यन्ति तोयार्थे कूलमाश्रित्य मानवाः।
पार्थिवान् व्यवहारेण विबाधन्तः परस्परम् ।। ३७.४०१ ।।
बहुमन्याः प्रजाहीनाः शौचाचारविवर्जिताः।
एवं भविष्यन्ति नरास्तदाधर्म्मे व्यवस्थिताः ।। ३७.४०२ ।।

हीनाद्धीनांस्तथा धर्म्मान् प्रजाः समनुवर्त्तते।
आयुस्तदा त्रयोविंशं न कश्चिदतिवर्त्तते ।। ३७.४०३ ।।
दुर्बला विषयग्लाना जरया संपरिप्लुताः।
पत्रमूलफलाहाराश्चीरकृष्णाजिनाम्बराः ।। ३७.४०४।।

वृत्त्यर्थमभिलिप्सन्तश्चरिष्यन्ति वसुन्धराम्।
एतत्कालमनुप्राप्ताः प्रजाः कलियुगान्तके ।३७.४०५ ।

क्षीणे कलियुगे तस्मिन् दिव्ये वर्षसहस्रके।
निःशेषास्तु भविष्यन्ति सार्द्धं कलियुगेन तु।
ससन्ध्यांशे तु निःशेषे कृतं वै प्रतिपत्स्यते ।३७.४०६।

यदा चन्द्रश्च सूर्य्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती।
एकरात्रे भरिष्यन्ति तदा कृतयुगं भवेत् ।३७.४०७ ।

एष वंशक्रमः कृत्स्नं कीर्तितो वो यथाक्रमम्।
अतीता वर्त्तमानाश्च तथैवानागताश्च ये ।। ३७.४०८ ।।
महादेवाभिषेकात्तु जन्म यावत्परिक्षितः।
एतद्वर्षसहस्रन्तु ज्ञेयं पञ्चादशदुत्तरम् ।। ३७.४०९ ।।
प्रमाणं वै तथा चोक्तं महापद्मान्तरं च यत्।
अन्तरं तच्छतान्यष्टौ षट्‌त्रिंशच्च समाः स्मृताः ।। ३७.४१० ।।
एतत्कालान्तरं भाव्या अन्ध्रान्ता ये प्रकीर्त्तिताः।
भविष्यैस्तत्र सङ्ख्याताः पुराणज्ञैः श्रुतर्षिभिः ।। ३७.४११ ।।
सप्तर्षयस्तदा प्राहुः प्रतीपे राज्ञि वै शतम्।
सप्तविंशैः शतैर्भाव्या अन्ध्राणां ते त्वया पुनः ।। ३७.४१२ ।।
सप्तविंशतिपर्य्यन्ते कृत्स्ने नक्षत्रमण्डले।
सप्तर्षयस्तु तिष्ठन्ति पर्यायेण शतं शतम्।
सप्तर्षीणां युगं ह्येतद्दिव्यया सङ्ख्यया स्मृतम् ।। ३७.४१३ ।।
सा सा दिव्या स्मृता षष्टिर्दिव्याह्नाश्चैव सप्तभिः 
तेभ्यः प्रवर्त्तते कालो दिव्यः सप्तर्षिभिस्तु तैः ।। ३७.४१४ ।।
सप्तर्षीणान्तु ये पूर्वा दृश्यन्ते उत्तरादिशि।
ततो मध्येन च क्षेत्रं दृश्यते यत्समं दिवि ।। ३७.४१५।

तेन सप्तर्षयो युक्ता ज्ञेया व्योम्नि शतं समाः।
नक्षत्राणामृषीणाञ्च योगस्यैतन्निदर्शनम् ।। ३७.४१६ ।।
सप्तर्षयो मघायुक्ताः काले पारिक्षिते शतम्।
अन्ध्रांशे स चतुर्व्विशे भविष्यन्ति मते मम ।। ३७.४१७ ।।
इमास्तदा तु प्रकृतिर्व्यापत्स्यन्ति प्रजा भृशम्।
अनृतोपहताः सर्वा धर्मतः कामतोऽर्थतः ।। ३७.४१८।
श्रौतस्मार्त्ते प्रशिथिले धर्मे वर्णाश्रमे तदा।
शङ्करं दुर्बलात्मानः प्रतिपत्स्यन्ति मोहिताः ।। ३७.४१९ ।।
संसक्ताश्च भविष्यन्ति शूद्राः सार्द्धं द्विजातिभिः।
ब्राह्मणाः शूद्रयष्टारः शूद्रा वै मन्त्रयोनयः ।। ३७.४२० ।।

उपस्थास्यन्ति तान् विप्रास्तदा वै वृत्तिलिप्सवः 
लवं लवं भ्रस्यमानाः प्रजाः सर्वाः क्रमेण तु ।। ३७.४२१ ।।

क्षयमेव गमिष्यन्ति क्षीणशेषा युगक्षये।
यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदा दिने ।। ३७.४२२ ।।

प्रतिपन्नः कलियुगस्तस्य सङ्ख्यां निबोधत।
सहस्राणां शतानीह त्रीणि मानुषसङ्ख्यया।
षष्टिं चैव सहस्राणि वर्षाणामुच्यते कलिः ।। ३७.४२३ ।।
दिव्ये वर्षसहस्रन्तु तत्सन्ध्यांशं प्रकीर्त्तितम्।
निःशेषे च तदा तस्मिन् कृतं वै प्रतिपत्स्यते ।। ३७.४२४ ।।
ऐल इक्ष्वाकुवंशश्च सह भेदैः प्रकीर्त्तितौ।
इक्ष्वाकोस्तु स्मृतः क्षत्रः सुमित्रान्तं विवस्वतः ।। ३७.४२५ ।।
ऐलं क्षत्रं क्षेमकान्तं सोमवंशविदो विदुः।
एते विवस्वतः पुत्राः कीर्त्तिताः कीर्त्तिवर्द्धनाः ।। ३७.४२६ ।।
अतीता वर्त्तमानाश्च तथैवानागताश्च ये।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैवान्वये स्मृताः ।। ३७.४२७ ।।
युगे युगे महात्मानः समतीताः सहस्रशः।
बहुत्वान्नामधेयानां परिसंख्या कुले कुले ।। ३७.४२८ ।।
पुनरुक्ता बहुत्वाच्च न मया परिकीर्त्तिता।
वैवस्वतेऽन्तरे ह्यस्मिन् निमिवंशः समाप्यते ।। ३७.४२९ ।।
एवायान्तु युगाख्यायां यतः क्षत्रं प्रपत्स्यते ।
तथा हि कथयिष्यामि गदतो मे निबोधत ।। ३७.४३० ।।
देवापिः पौरवो राजा इक्ष्वाकोश्चैव यो मतः।
महायोगबलोपेतः कलापग्राममास्थितः ।। ३७.४३१ ।।
सुवर्च्चाः सोमपुत्रस्तु इक्ष्वाकोस्तु भविष्यति।
एतौ क्षत्रप्रणेतारौ चतुर्विंशे चतुर्युगे ।। ३७.४३२ ।।
न च विंशे युगे सोमवंशस्यादिर्भविष्यति।
देवापिरसपत्नस्तु ऐलादिर्भविता नृपः ।। ३७.४३३ ।।
क्षत्रप्रापर्त्तकौ ह्येतौ भविष्येते चतुर्युगे।
एवं सर्वत्र विज्ञेयं सन्तानार्थे तु लक्षणम् ।। ३७.४३४ ।।
क्षीणे कलियुगे तस्मिन् भविष्ये तु कृते युगे।
सप्तर्षिभिस्तु तैः सार्द्धमाद्ये त्रेतायुगे पुनः ।। ३७.४३५।
गोत्राणां क्षत्रियाणाञ्च भविष्येते प्रवर्त्तकौ।
द्वापरांशे न तिष्ठन्ति क्षत्रिया ऋषिभिः सह ।। ३७.४३६।
काले कृतयुगे चैव क्षीणे त्रेतायुगे पुनः।
बीजार्थन्ते भविष्यन्ति ब्रह्मक्षत्रस्य वै पुनः ।। ३७.४३७ ।।
एवमेव तु सर्वेषु तिष्ठन्तीहान्तरेषु वै ।
सप्तर्षयो नृपैः सार्द्धं सन्तानार्थं युगे युगे ।। ३७.४३८ ।।
क्षत्रस्यैव समुच्छेदः सम्बन्धो वै द्विजैः स्मृतः।
मन्वन्तराणां सप्तानां सन्तानाश्च श्रुताश्च ते ।। ३७.४३९ ।।
परम्परा युगानाञ्च ब्रह्मक्षत्रस्य चोद्भवः।
यथा प्रवृत्तिस्तेषां वै प्रवृत्तानां तथा क्षयः ।। ३७.४४० ।।
सप्तर्षयो विदुस्तेषां दीर्घायुष्ट्वाक्षयन्तु ते।
एतेन क्रमयोगेन ऐलेक्ष्वाक्वन्वया द्विजाः ।। ३७.४४१ ।।
उत्पद्यमानास्त्रेतायां क्षीयमाणे कलौ पुनः।
अनुयान्ति युगाख्यां तु यावन्मन्वन्तरक्षयः ।। ३७.४४२ ।।
जामदग्न्येन रामेण क्षत्रे निरवशेषिते।
कृते वंशकुलाः सर्वाः क्षत्रियैर्वसुधाधिपैः।
द्विवंशकरणाश्चैव कीर्त्तयिष्ये निबोधत ।। ३७.४४३ ।।
ऐलस्येक्ष्वाकुनन्दस्य प्रकृतिः परिवर्त्तते।
राजानः श्रेणिबद्धास्तु तथान्ये क्षत्रिया नृपाः ।। ३७.४४४ ।।
ऐलवंशस्य ये ख्यातास्तथैवैक्ष्वाकवा नृपाः ।
तेषामेकशतं पूर्णं कुलानामभिषेकिनाम् ।। ३७.४४५ ।।
तावदेव तु भोजानां विस्तारो द्विगुणः स्मृतः ।
भजते त्रिंशकं क्षत्रं चतुर्धा तद्यथादिशम् ।३७.४४६ ।
तेष्वतीताः समाना ये ब्रुवतस्तान्निबोधत।
शतं वै प्रतिविन्ध्यानां शतं नागाः शतं हयाः ।। ३७.४४७ ।।
धृतराष्ट्राश्चैकशतमशीतिर्जनमेजयाः।
शतञ्च ब्रह्मदत्तानां शीरिणां वीरिणां शतम् ।३७.४४८।

ततः शतं पुरोमानां श्वेतकाशकुशादयः ।
ततोऽपरे सहस्रं वै येऽतीताः शतबिन्दवः ।। ३७.४४९ ।।

ईजिरे चाश्वमेधैस्ते सर्वे नियुतदक्षिणैः ।
एवं राजर्षयोऽतीताः शतशोऽथ सहस्रशः ।। ३७.४५० ।।

मनोर्वैवस्वतस्यास्मिन् वर्त्तमानेऽन्तरे तु ये ।
तेषां निबोधतोत्पन्ना लोके सन्ततयः स्मृताः ।। ३७.४५१ ।।

नु शक्यं विस्तरं तेषां सन्तानानां परम्परा।
तत्पूर्वापरयोगेन वक्तुं वर्षशतैरपि ।। ३७.४५२ ।।
अष्टाविंशद्युगाख्यास्तु गता वैवस्वतेऽन्तरे।
एता राजर्षिभिः सार्द्धं शिष्टा यास्ता निबोधत ।। ३७.४५३ ।।
चत्वारिंशच्च ये चैव भविष्याः सह राजभिः।
युगाख्यानां विशिष्टास्तु ततो वैवस्वतक्षये ।। ३७.४५४।।
एतद्वः कथितं सर्व्वं समासव्यासयोगतः।
पुनरुक्तं बहुत्वाच्च न शक्यन्तु युगैः सह ।। ३७.४५५ ।।
एते ययातिपुत्राणां पञ्चविंशा विशां हिताः।
कीर्त्तिताश्चामिता ये मे लोकान् वै धारयन्त्युत ।। ३७.४५६ ।।
लभते च वरेण्यञ्च दुर्लभानिह लौकिकान्।
आयुः कीर्त्तिं धनं पुत्रान् स्वर्गं चानन्त्यमश्नुते ।। ३७.४५७ ।।
धारणाच्छ्रवणाच्चैव ते लोकान् धारयन्त्युत।
इत्येष वो मयो पादस्तृतीयः कथितो द्विजाः।
विस्तरेणानुपूर्व्वी च किम्भूयो वर्त्तयाम्यहम् ।। ३७.४५८ ।।
___________________
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते अनुषङ्गपादो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।। ३७।। इत्यनुषङ्गपादः ।।


दुष्यन्तं प्रति राजानं वागुवाचाशरीरिणी ।
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।। ११ ।।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ।
रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात् ।। १२ ।।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ।
भरतस्य विनष्टेषु तनयेषु महीपतेः ।। १३ ।।
मातॄणां तात कोपेन मया ते कथितं पुरा ।
बृहस्पतेराङ्गिरसः पुत्रो राजन् महामुनिः ।
संक्रामितो भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिर्विभुः ।।१४ ।।
अत्रैवोदाहरन्तीमं भरद्वाजस्य धीमतः ।
धर्मसंक्रमणं चापि मरुद्भिर्भरताय वै ।। १५ ।।
अयाजयद् भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिर्हि तम् ।
पूर्वं तु वितथे तस्य कृते वै पुत्रजन्मनि ।। १६ ।।
ततोऽथ वितथो नाम भरद्वाजसुतोऽभवत् ।
ततोऽथ वितथे जाते भरतस्तु दिवं ययौ ।। १७ ।।
वितथं चाभिषिच्याथ भरद्वाजो वनं ययौ ।
स राजा वितथः पुत्राञ्जनयामास पञ्च वै ।। १८ ।।
सुहोत्रं च सुहोतारं गयं गर्गं तथैव च ।
कपिलं च महात्मानं सुहोत्रस्य सुतद्वयम् ।। १९ ।।
काशिकश्च महासत्त्वस्तथा गृत्समतिर्नृपः ।
तथा गृत्समतेः पुत्रा ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः ।। 1.32.२० ।।






अथ चित्ररथस्यापि पुत्रो दशरथोऽभवत् ।
लोमपाद इति ख्यातो यस्य शान्ता सुताभवत्।। ४६ ।।
तस्य दाशरथिर्वीरश्चतुरङ्गो महायशाः ।
ऋष्यशृङ्गप्रसादेन जज्ञे कुलविवर्धनः ।। ४७ ।।