शुक्रवार, 24 मई 2019

जादौन चारण बंजारे


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श्रेष्ठ वंश में श्रेष्ठ सन्तानें का ही प्रादुर्भाव होता है ।

दोगले और गाँलि- गलोज करने वाले और अय्याश लोग नि: सन्देह अवैध यौनाचारों से उत्पन्न होते हैं ।

जिनके पास कुतर्क ,गाली और भौंकने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता !

जिनमें न क्षमा  होती है और न क्षमता ही ।
धैर्य हीन बन्दर के समान चंचल व लंगोटी से कच्चे होते हैं
मिथ्या अहं और मुर्दों जैसी अकड़ ही होती है ।
ज्ञान के नाम पर रूढ़िवादी पुरोहितों से सुनी सुनायीं किंवदन्तियाँ ही प्रमाण होती हैं ।

अहीरों को द्वेष वश गालियाँ  देने वाले कुछ लोग जो स्वयं को राजपूत अथवा क्षत्रिय कहते हैं ।

जबकि भारतीय शास्त्रों में जैसे पाराशर संहिता , ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड में 

राजपूतों को वर्ण संकर और शूद्रधर्मी कहा गया है ।

चारण  और भाट बंजारे समुदाय के लोग जो स्वयं को राजपूत कहते हैं ।

 और माली जन-जाति के लोग भी स्वयं को राजपूत कहते हैं। इसका प्रबल प्रमाण हैं ।

राजपूत संघ है जिसमें बहुतायत पिछल जातियों का समावेश है ।

जादौन - ये बंजारा समुदाय है हो भारत में आने से पहले अफगानिस्तान में जादून/ गादूँन पठान थे ।

ये पठान यहूदीयों से सम्बंधित  स्ववयं को बनी इजरायल ही कहते थे ।
भारत में बीकानेर और जैसलमैर में जादौन बंजारे हैं ।

परन्तु राजस्थान के ग्वालियर गजेटियर के अनुसार ब्रह्म पाल अहीर के वंशज हैं ।



सैैैै जो माली समाज से हैैं ।

ये ख़ुद को मालिया राजपूत कहते है . सैन्य में काम करने कारण ये सैनिक से सैनी उपनाम लगाने लगे .
और अब ये राजपूत सैनी को शूरसेन से जोड़ रहे है।
जबकि समस्त यदुवंशज स्वयं को गोप अथवा यादव ही मानते थे ।
कल को कोई वसुदेव सैनी भी लिखा सकता है ।
सूरसैनी नाम ये प्राचीनत्तम ग्रन्थों में किसी यदुवंशी का विवरण नहीं है ।

इस प्रकार के लोगों के विषय में कुछ ऐैतिहासिक तथ्य:-

अभी तक जादौन , राठौर और भाटी आदि राजपूत
पुष्य-मित्र सुंग कालीन काल्पनिक स्मृतियों और पुराणों तथा महाभारत आदि के हबाले से अहीरों को शूद्र तथा म्लेच्‍छ और दस्यु के रूप में दिखाते हैं

परन्तु समाज शास्त्री 

("Shashishekhar Gopal Deogaonkar) जी द्वारा रचित (tha banzara) पुस्तक के पेज 19 में 
जादौन  , चौहान भाटी कहीं चारण तो कहीं राजपूत हैं ।



इनको चाहिए कि पहले मुगल स्त्रियों से विवाह के कारण फैली संकरता पर विचार करें और ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कंद पुराण सह्याद्रि खण्ड,शब्दकल्पद्रुम और मुहम्मद कासिम आदि इतिहासकारों द्वारा बताई  गयी स्वयं की उत्पत्ति पर तनिक विचार करें!!

राजपूत थे भी नही तो पृथ्वीराज का राजपूत होने का तो सवाल ही नही पैदा होता क्योकि राजपूत शब्द का पुराने ग्रथो में कही भी कोई उल्लेख  नही है , ये शब्द ग्याहरवीं शताब्दी के बाद दिखाइ देता है।
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जिसे पुराणों तथा स्मृति कारों''ने इस प्रकार से वर्ण संकर (Hybrid) रूप में वर्णित किया है ।👇

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇
क्षत्रिय से करणी जाति की कन्या में उत्पन्न संतान राजपूत है ।

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है 
जिसके बैनर तले राजपूत एकजुट हो रहे हैं 
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇

( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया ये  भी बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं ।
परन्तु इतना अवश्य है कि ये राजपूत संघ में चारण भाट और अन्य बंजारा जाति के लोग समाहित हैं ।
जो स्वयं को रा

और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में 
वर्णित है ।

शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१
 तया वृत्या: सजीवेद् य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।।२।

कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का ऐसा ही वर्णन किया है ।
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स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःस्मृति )
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
जिसमें चारण भाट और अन्य पिछड़ी जातियों के लोग अधिक थे । पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं; ।

 कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है ।
कि जब राजा, अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे। 7-8👇
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सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009

[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

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विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं है क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है कि राजपूतों के अन्तर्गत कुछ वर्ण संकर जातियों या भी समावेश हुआ ।
परन्तु राजपूत सत्यनिष्ठा पर दिनचर्या वितीत करने वाले 
आन पर कुर्बान होने वाले और दु:खियों के रक्षक होते थे और आज हैं भी वे ही प्राचीन राजाओं के वंशज हैं !

कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गया
जिसमें कुछ अनेक  चारण'  भाट तथा विदेशी जातियों  शक  सीथियन का समावेश हो गया।

और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो ;
राजपूत एक संघ है ।
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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 'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में समायोजन हुआ है ।
ये चारण और भाट ब्रजभाषा की पिंगल और डिंगल शैली में गायन और कविताओं की रचना करते थे ।
करणी माता एक चारण कन्या थीं ।

आज राजपूतों कि गठन करणी सेना के बैनर तले हो रहा है  
मुगल काल से राजपूत शब्द प्रकाश में आया 
कुछ प्रसिद्ध इतिहास भी कहते हैं ।

तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं क्यों कि पुराणों या स्मृतियों ने जिन वेदों को आपना उपजीव्य माना है
उनमें भी यदु और तुर्वशु को दास, दस्यु और असुर तक कहकर वर्णित किया है।

जैसे- ऋग्वेद में --जो भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम ग्रन्थ है ।
और जिसके सूक्त ई०पू० २५०० से १५००के काल तक का दिग्दर्शन करते हैं --
इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है ।

वह भी दास अथवा असुर और गोप रूपों में
दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ देव संस्कृति के  के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।

परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।

ईरानीयों की भाषाओं में दास (दाहे) रूप में नेता या दाता का वाचक है।
और बाद में दास का अर्थ गुलाम भी हुआ।
परन्तु ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

वह भी गोपों को रूप में
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं
अन्यत्र ऋग्वेद में प्राय:  ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । 👇

प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद 7/19/8 ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड 20 /अध्याय 5/ सूक्त 37/ ऋचा 7)
हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)
ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।

और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---👇
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । 👇
किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।

यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् ।
👇
हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६।
पुराणों में भी वेदों के आधार पर किंवदन्तियों और काल्पनिकताओं के आधार पर लिखा गया ।
चलिए
आज इन अहीरों के प्रतिद्वन्द्वीयों का भी इतिहास देख लो
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जैसे जादौन (जिसे जादोैं के रूप में भी जाना जाता है) राजपूतों के एक कबीले (गोत्र) से सम्बद्ध हैं।

जादौन मूलतः बंजारा समुदाय रहा है ।
एक खानाबदोश समुदाय, माली (माली) जाति का एक समूह और भारत में यह जादौं कुर्मी जाति की एक उपजाति को भी सन्दर्भित करता है।


पहले हम नीचे भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री व
लेखक  एस.जी. देवगोनकर (S.G.DeoGaonkar) और उनकी सहायिका शैलजा एस. देवगोनकर के द्वारा लिखी बंजारा जन-जाति के गहन सर्वेक्षण पर आधारित पुस्तक "
"भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3"
से अंश उद्धृत करते हैं ।👇
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💐Sociologist Deu Gaonkar and his assistant Shelaja Gaonkar
Wrote in his book.
- which publishes books and lives on history.👇

"Mathurias ,Labhans and Dharias are The Charans Banjara ,
Who are more in numbers and important Among The Banjara are Divided into Five main class viz.
Rathod, Panwar, Chauhan, puri and Jadon or Burthia.
Each Class Sept is Divided into a Number of Sub-Septs  Among Rathods The important Sub-sept of Bhurkiya called After The Bhika,
Rathod Which is Again sub-divided into four groups viz Merji, Mulaysi, Dheda and Khamdar( The Groups based on the four son of Bhika Rathod ) ⛑

The Mathuriya Banjara already referred to Aabove derive their name from mathura and are supposed to be bramins Whith The secred thread ceremony monj.

They are who called Ahiwasi.
The third Devision the Labhans Probably  Derived  Their from Labana i.e.

Salt Which they used to Carry from place to place Another etymology relate the Lava The son of Lord Rama chandra connecting lineage to him .

The Dharis( Dhadis) are The bards of the caste who get the lowest rank According to their story, their ancestor was a disple  of Guru Nanak (The Sikh guru) Whith whom The Attended a feast given by mughal Emperor humanyun .

There he ete cow flesh and conseguently become a muhmmedan and and was circumcised .
He worked as a musicians at mughal court .his son joined at the Charans and became the Bards of the banjaras.
the Dharias are musicians and mendicants .
they worship sarswati and their marriage offer a he-got to Gagi and Gandha.

The two sons of original bhat who become Muhammedan.
    From the used tahsil of Yeotmal District.

where both he  sub-Groups of Rathods viz.
the bada Rathod and The chhota Rathod are present the following clans are reported

Bada -Rathod :
(1-khola 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedawat 5- Raslinaya 6- Didawat .

Chhota- Bajara (1-Meghawat 2- Gheghawat 3-Ralsot 4- Ramavat 5-Khelkhawat 6- Manlot 7-Haravat 8-Tolawat 9-Dhudhwat 10- Sangawat 11- Patolot ..

These two types are from the Charans banjara Alternativly are called "Gormati" in the area Another set of reported from the area are ..

"The Banjara caste and tribe of India -3 " 
writer S.G.DeoGaonkar
Shailja S. Deogaonkar .
इसी का हिन्दी रूपान्तरण निम्न है 👇
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भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3"
लेखक  एस .जी.देवगॉनकर (S.G.DeoGaonkar)
और शैलजा एस. देवगांवकर
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अध्याय द्वितीय पृष्ठ संख्या- 18-👇

--जो लोग राजपूत हैं उन्हीं के कुछ समुदाय बंजारे भी हैं

-जैसे मथुरिया ,लाभान और धारीस ये चारण (भाट) हैं
जो संख्या में अधिक हैं ;
और बंजारों के बीच  बंजारे रूप में ही महत्वपूर्ण पाँच मुख्य वर्गों में विभाजित हैं।

१-राठौड़, २-पंवार, ३-चौहान, ४-पुरी और ५-जादौन या बुर्थिया।

भाटी ये भी मूलतः चारण बंजारे हैं --जो अब स्वयं को यदुवंशी या जादौनों से सम्बद्ध करते हैं ।
वस्तुत वे भाट या चारण ही हैं ।
भाट शब्द संस्कृत भरत ( नट- वंशावलि गायक) शब्द का तद्भव रूप है।
और व्रात्य का रूपान्तरण भी भाट या  भट्टा हुआ ।
अंग्रेज़ी में बरड(Bard) शब्द भरत का रूपान्तरण है।
क्यों कि दौनों रूपों से भाट या भट्टा शब्द ही विकसित होता है ।

मध्यकालीन हिन्दी कोशों में जादौं का अर्थ  नीच कुल में उत्पन्न / नीच जाति का ।
✍✍
👇 प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी शब्द कोश में जादौं का एक अर्थ नीचजाति या नीच कुल में उत्पन्न लिखा है ।
प्रोफेसर, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, मानित विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से सम्बद्ध हैं ।

यद्यपि जादौन शब्द राजस्थानी भाषा में जादव का रूपान्तरण है ।
कुछ जादौन राजपूत स्वयं को करौली के यदुवंशी पाल ( आभीर) राजाओं का तो वंशज मानते हैं ;
परन्तु अहीरों से पीढ़ी दर पीढ़ी घृणा करते रहते हैं ।
दर असल मुगल काल में ये लोग मुगलों से जागीरें मिलने के कारण ठाकुर उपाधि धारण करने लगे ।

करौली के जादौनों का उदय  आठवीं सदी के उत्तरार्द्ध  नवीं सदी के पूर्वार्द्ध में  मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से हुआ जो दशवें अहीर राजा थे ।⬇🔄

राजा धर्मपाल बाद ईस्वी  सन्  879 में इच्छपाल (ऋच्छपाल) मथुरा के शासक हुए ।

 इनके ही दो पुत्र थे  प्रथम  पुत्र ब्रहमपाल जो मथुरा के शासक थे  हुए दूसरे पुत्र विनयपाल  जो महुबा (मध्यप्रदेश) के शासक हुए 

विजयपाल भी करौली के यादव अहीरों की जादौंन शाखा का मूल पुरुष/ आदि पुरुष/ संस्थापक विजयपाल माना गया परन्तु इतिहास में  ब्रह्मपाल ही मान्य हैं 
विजयपाल 999 ईस्वी सन् में शासक बने । 
 विजयपाल जिसने 1040 ईस्वी में अपने राज्य की राजधानी मथुरा से हटाकर बयाना
( विजय मंदिर गढ़) को बनाया ------------


और ब्राह्मणों ने इनका राजपूती करण करके इन्हे मूँज के जनेऊ पहनायी और इन्हें तभी क्षत्रिय प्रमाण पत्र दे दिया।

तब से अधिकतर बंजारे क्षत्रिय हो गये
और ब्राह्मण धर्म का पालन करने लगे ।

ठाकुर शब्द भी तुर्को के माध्यम से ईसा की नवम शताब्दी में प्रचलित होता है ।
यह मूलत: तेक्वुर (tekvur) रूप में है।
--जो संस्कृत कोश कारों ने ठक्कुर के रूप स्वीकार कर लिया।
विदित हो कि बाद में प्रत्येक वर्ग को राठौड़ बंजारों के बीच कई उप-वर्गों में विभाजित किया गया है।
अब राठौर और राठौड़ --जो अलग अलग रूपों में दो जातियाँ बन गयी हैं ।
वे भी मूलत: एक ही थे एक राजपूत के रूप में हैं तो दूसरी बंजारे के रूप में।
आज भी हैं ।

ऐसे ही जादौनों का हाल हुआ है-।
जादौन --जो बंजारे थे वे मुगलों के प्रभाव में ठक्कुर हो गये ।
इसी प्रकार गौड और गौड़ जन-जातियों के भेद
इतना ही नहीं अहीरों की शाखा गुज्जर और राजपूतों की गुर्ज्जरः दो हैं
'वह भी इसी प्रकार हुआ एक अपने को रघुवंश से सम्बद्ध मानते रहे हैं तो दूसरे नन्द या वृषभानु गोप अथवा अहीरों से सम्बद्ध मानते रहे हैं।
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क्यों कि राधा और वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री को अपने गुज्जर कबीले की मानने वाले अहीरों से सम्बद्ध हैं।
गुज्जर गायत्री और राधा को चैंची गोत्र की कन्या बताते हैं परन्तु पुराणों में इन्हें आभीर कन्या बताया गया

यद्यपि  पाश्चात्य इतिहास कार दोनों गुज्जर और गुर्ज्जरः को जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से भी सम्बद्ध मानते हैं।
इसी प्रकार जाट और जट्ट दो रूप हैं ।
जट्ट गुरूमुखी होकर गुरूनानक के अनुयायी हैं
और जाट मुसलमान और हिन्दु रूप में भी हैं ।
दर -असल  महाभारत के कर्ण पर्व में बल्ख अफगानिस्तान में तथा ईरान में रहने वाले जर्तिका जन -जाति-के रूप में हैं --जो पंजाब के अहीरों से सम्बद्ध हैं

वास्तव में जर्तिका शब्द पूर्व रूप में संस्कृत चारतिका का रूपान्तरण है
क्यों कि ये चरावाहों का समुदाय था ।
जिसे पाश्चात्य इतिहास विदों ने आर्य्य कहा ।
गुर्ज्जरः तो गौश्चर का परवर्ती रूपान्तरण है ही ।
अब बात करते हैं कि जादौन शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई👇
यद्यपि ये जादौन यदुवंशी की अफगानिस्तान के जादौन पठानों से निकल् हुई शाखा है ।
जो स्वयं को वनी- इज़राएल अर्थात्‌ यहूदियों के वंशज मानते हैं । 🐂


इस लिए ये भी यदुवंश की ही एक यायावर शाखा थी ।
कालान्तरण में इन्होंने करौली रियासत के पाल उपाधि धारक यदुवंशी शासकों को अपनाया।

पाल केवल अहीरों का गो-पालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है।
धेनुकर धनगर इन्हें की शाखा है ।
अन्यत्र भी पश्चिमीय एशिया के संस्कृतियों में पॉल और गेडेरी शब्द चरावाहों के लिए रूढ़ हैं ।

हिब्रू बाइबिल में पॉल ईसाई मिशनरीयों की उपाधि रही है --जो वपतिस्मा या उपनयन संस्कार करते थे ।
--जो मूलतः ये ईसाई भी  यहूदियों से सम्बद्ध थे ।
भारतीय चारण या भाट बंजारों में

जादौनों के बाद के भूरिया नामक महत्वपूर्ण उप-वर्ग, राठौड़ों में है;
जिसे फिर से चार समूहों में उप-विभाजित किया गया है , मुलसेई ,खेड़ा और खामदार और भीका ये राठौड़ के चार पुत्रों पर आधारित समूह) है ।
राजस्थान का भीकानगर ही बीकानेर हो गया ।

मथुरिया बंजारों का पहले ही ऊपर  उल्लेख किया है जो उनका नाम मथुरा से सम्बद्ध होता है और माना जाता है कि वे धार्मिकों  के रूप में थे।

ब्राह्मणों ने इन्हें मूँज का यज्ञोपवीत पहनाया।
ये ही कालान्तरण में ब्राह्मण धर्म के संरक्षक हुए
ये ही लोग अपने को करौली से जोड़ने लगे ।
तीसरा विभाजन  लावनांस👴

लबना (लवण)यानि साल्ट से सम्बद्ध है जो लवण (नमक)एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए इस्तेमाल किया था!

ये लोग फिर लव से स्वयं को  सम्बद्ध मानने लगे ।
लव भगवान राम के पुत्र हैं , जो लावांस को इस लव के वंश से जोड़ते हैं।
धारीस (धादी) जाति के गोत्र हैं।
सबसे निचली रैंक( श्रेणि) प्राप्त करें उनकी कहानी के अनुसार, उनके पूर्वज गुरु नानक (सिख गुरु) के एक शिष्य थे !

जिनका साथ मुगल सम्राट हुमायूं ने दी था।

वहाँ वह गाय का मांस खाता है और शंकुधारी होकर मुसलमान बन जाते हैं और उसका खतना कर दिया जाता है।
फिर उन्होंने मुगल दरबार में एक संगीतकार के रूप में काम किया।
यह भाट चारणों में शामिल होकर अन्त में बंजारों का आश्रय बन गये।

वे धारी संगीतकार अथवा गायक हैं।
वे सरस्वती की पूजा करते हैं और उनके विवाह की एक भेंट बकरा ,गगी और गन्ध से होती है।🚶🐂
मूलभाव के दो पुत्र जो भाट थे मुसलमान बने।
ये ओतमल जिले की प्रयुक्त तहसील से सम्बद्ध हैं ।
जहाँ दोनों ने राठौड़ों के उप-समूह मे स्वयं को समायोजित किया हैै
-जिन्हें इतिहास कारों ने १- बड़ा राठौड़ और २- छोटा राठौड़ रूपों में प्रस्तुत किया है।
इनके निम्नलिखित कबीले बताए गए हैं👇
बाड़ा-राठौड़:
(1-  खोला 2-रालोट 3- खटरोट 4- गेडावत 5- रसलिनया 6- डिडावत।

छोटा- राठौड़-बंजारा (१-मेघावत २- घेघावत ३-रालसोत ४- रामावत ५-खलखावत ६- मनलोत--हारावत ।
-तोलावत ९-धुधावत १०संगावत ११- पटोलोट ।।

ये दो प्रकार के हैं चारण बंजारा वैकल्पिक रूप से क्षेत्र में गोरमती कहा जाता है।
वास्तव आज  बंजारों का रूपान्तरण राजपूतों के रूप में है।
ये प्राय: कुछ भूबड़िया के रूप में भी हैं ।
--जो चीमटा फूकनी आदि बनाये हैं।


राजपूतों का इतिहास भी अजीव  या कहें निर्जीव है 

 जैसे कि माता हिंगलाज ने  दुश्मनों की नजर से चार

 राजपूतों  को छुपा दिया , जिसको मुह पेड़ की (जड़) मे छुपाया वो जाजडेजा कहलाए , 


और जिन्हे  चूलें छुपाया वे चुड मे छुपाया जाने से  चुडासमा कहलाए , और जो शेरी की भाटी (भाथी )में छुपाया वो भाटी कहलाए .)

___________________________________________
उद्धृत अंश भारत की बंजारा जाति और जनजाति -3"
लेखक S.G.DeoGaonkar
शैलजा एस. देवगांवकर पृष्ठ संख्या- (18)चैप्टर द्वितीय...
__________________________________&_&
Originally there were only one.
As a Rajput, then in the form of the second Banjara.
There has been a similar situation - -

After Bhuria, the important sub-class Bhuria is in Rathore;
Which is again subdivided into four groups, Mulsei Kheda and Khamdar (a group based on the four sons of Bhika Rathod).
Bhiknagar too became Bikaner.

Mathuria Bazar has already mentioned above that his name is associated with Mathura and it is believed that he was in the form of a religious.
These people started connecting themselves with Karauli.
Third partition lavanasanaSalt (salt) i.e. salt which they used to take from one place to another,
These people again believed to be associated with love.
Love is the son of Rama, who connects the lineage to the lineage.
Dharis (Dhari) are the tribes of caste.
Get the lowest rank according to his story, his ancestor was a disciple of Guru Nanak (Sikh Guru)
, With whom the Mughal emperor Humayun gave.

There he eats the flesh of the cow and becomes a conch, becomes a Muslim and is circumcised.
Then he worked as a musician in the Mughal court. This bhawan joined the barns and became a shelter for the buyers.

He is a striker composer and singer. They worship Saraswati and a gift from her marriage comes from herbs and smell.
Two sons of origin who became Muslims.
These are from the Tahsil used in Othamal district.
Where the two are the sub-groups of Rathodas - the history cars
1- Big Rathore and 2-small Rathore are presented,
The following clan has been described 👇
Bada-Rathod:
(1-Opened 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedavat 5- Russellia-6-
Chhote-Rathod-Banjara (1-Meghavat 2-Ghaghav 3-Resolutions 4- Ramavat 5-Khalkhawat-6-Manlot-Harawat
-Returning 9-stunned 10-sympathetic 11-footolote ..

These are of two types: Charan Banjara is alternatively called Gormati in the area.
Today the conversion of Banjars is in the form of Rajputs.
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The excerpted portion of India's Banjara caste and tribe-3 "
Author S.G.DeOGaonkar
Shelaja S. Devgaonkar page no- (18) chapter II ...


वर्तमान में करणी सेना के रूप में चारण और भाट समाज के लोग राजपूतों के रूप में एकत्रित हो रहे हैं 

राजपूत थे भी नही तो पृथ्वीराज का राजपूत होने का तो सवाल ही नही पैदा होता क्योकि राजपूत शब्द का पुराने ग्रथो में कही भी कोई उससे ख नही है , ये शब्द ग्याहरवीं शताब्दी के बाद दिखाइ देता है।
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जिसे पुराणों तथा स्मृति कारों''ने इस प्रकार से वर्ण संकर (Hybrid) रूप में वर्णित किया है ।👇

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है 

जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
_______
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇

( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं ।

और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
_______
स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में 
वर्णित है ।
शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१
 तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।।२।

कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा वर्णन किया है ।
_____________________________
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःस्मृति )
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं; ।

 कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
____________
सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है ।
कि जब राजा, 
अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे। 7-8👇
सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009

[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

________
विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं है क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है कि राजपूतों के अन्तर्गत कुछ वर्ण संकर जातियों या भी समावेश हुआ ।
परन्तु राजपूत सत्यनिष्ठा पर दिनचर्या वितीत करने वाले 
आन पर कुर्बान होने वाले और दु:खियों के रक्षक होते थे और आज हैं भी वे ही प्राचीन राजाओं के वंशज हैं 
कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गया
जिसमें कुछ अनेक  चारण'  भाट तथा विदेशी जातियों  शक  सीथियन का समावेश हो गया।

और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो ;
राजपूत एक संघ है ।
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
_____
 'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में समायोजन हुआ है ।
ये चारण और भाट ब्रजभाषा की पिंगल और डिंगल शैली में गायन और कविताओं की रचना करते थे ।
करणी माता एक चारण कन्या थीं 
आज राजपूतों कि गठन करणी सेना के बैनर तले हो रहा है  
मुगल काल से राजपूत शब्द प्रकाश में आया 
कुछ प्रसिद्ध इतिहास भी कहते हैं ।
इनके बचपन का नाम रिदु बाई था। बाल्यकाल में ही कई प्रकार के चमत्कार दिखलाने से रिदु बाई करणी माता कहलाई। इनका विवाह साठीका बीकानेर के देपाजी बीठू के साथ हुआ। इनके वंशज देपावत कहलाते है।
इनके बचपन का नाम रिदु बाई था। 
इन्हें बीकानेर के राठौड़ राजवंश अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है।

___________   

जादौन: यदुवंशी राजपूत कौन हैं | Who are Yaduvanshi Rajput? Jadon

जादौन या जादों अहीर जाति से उत्पन्न हुए राजपूत है, जिनका राजपूती करण 18 वीं शताब्दी में हुआ । जादौन राजवंश के संस्थापक ब्रह्मपाल अहीर और उनके सगे संबंधियों को छोड़कर अन्य जादौन यहूदियों के धर्म परिवर्तन के फलस्वरूप जादौन आहीरो में जुड़कर जादौन राजपूत समूह बना लिया और जो नहीं जुड़ पाए वे जादौन बंजारा ही रहे। इसीलिए बंजारा जाति के एक समुदाय को भी जादोन नाम से जाना जाता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ब्रम्ह पाल अहीर सीधे यादवों / अहीरों से नहीं उत्पन्न हुए है। यह यदुवंशियों की एक शाखा गड़रिया ( पाल जाति ) से सम्बन्ध रखते थे।

जादौन का यहुदयों से सम्बन्ध

Jadon is a clan or a sub group commonly found amongst Ahir and Rajput communities in India. The term Jadon also refers to a division of Banjara, a nomadic community.

जादौन राजपूत

Jadon the Meronothite

Jadon the Meronothite was one of the builders of the wall of Jerusalem in the Book of Nehemiah in the Hebrew Bible. जानकारी के लिऐ बता दें कि जादौन नाम यहुदयों से गहरा संबंध रखता है यादव से नहीं / ना के बराबर।

यद्यपि यदु: का  ही रूपान्तरण यहुदह है परन्तु यह परोक्ष रूप में है ।

The prophet Jadon

According to Flavius Josephus, Jadon was the name of a minor prophet referred to in his Antiquities of the Jews VIII,8,5 who is thought to have been “the man of God” mentioned in 1 Kings 13:1. In the Lives of the Prophets he is called Joad. A Rabbinic tradition identifies him with Iddo.

source : https://en.m.wikipedia.org/wiki/Jadon

Jadon : Bible Encyclopedias

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jā´don ( ידון , yādhōn , perhaps “he will judge” or “plead”): One who helped to rebuild the wall of Jerusalem in company with the men of Gibeon and of Mizpah ( Nehemiah 3:7 ). He is called the “Meronothite,” and another Meronothite is referred to in 1 Chronicles 27:30 , but there is no mention of a place Meronoth. Jadon is the name given by Josephus (Ant. , VIII, viii, 5; ix, 1) to “the man of God” from Judah who confronted Jeroboam as he burned incense at the altar in Bethel, and who was afterward deceived by the lie of the old prophet (1 Ki 13). Josephus may probably have meant Iddo the seer, whose visions concerning Jeroboam (2 Chronicles 9:29 ) led to his being identified in Jewish tradition with “the man of God”, from Judah.

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जादौन राजपूतों का इतिहास

source: https://www.studylight.org/encyclopedias/eng/isb/j/jadon.html




बुधवार, 30 मई 2018

भारतीय भाषाओं में प्रचलित शब्द टैंगॉर, ठाकरे तथा ठाकुर इसी तुर्की ईरानी मूल के टेक्फुर शब्द का रूपान्तरण हैं ।

टेकफुर शब्द का जन्म खिताबुक और प्रारम्भिक तुर्क  काल में हुआ था ।
भारतीय भाषाओं में प्रचलित शब्द टैंगॉर, ठाकरे तथा ठाकुर इसी तुर्की ईरानी मूल के टेक्फुर शब्द का रूपान्तरण हैं ।
जिसका प्रयोग  तुर्की सल्तनत में" स्वतंत्र या अर्ध-स्वतंत्र अल्पसंख्यक व ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बीजान्टिन गवर्नरों के सन्दर्भ में किया गया था ।
इतिहास की गहन परतों को उद्घाटित करते हुए ठाकुर शब्द का इतिहास तथा इसके धारकों की एैतिहासिकता पर संक्षेप में प्रकाशन मेरी कलम से ---
      यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र०----
उत्पत्ति और अर्थ  की दृष्टि से तुर्की भाषाओं में प्रचलित टेक्फुर (उपाधि) की उत्पत्ति अनिश्चित है।
भाषा वैज्ञानिकों द्वारा यह सुझाव दिया गया है ; कि यह अरबी निकोर शब्द  के माध्यम से बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है। 
कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह आर्मेनियाई टैगशेवर  शब्द से नि: सृत हुआ है ।
जिसका अर्थ होता है "क्राउन-बेयरर (Crown bearer )" अर्थात् राजमुकुट धारण करने वाला ।
13 वीं शताब्दी में फारसी या तुर्की में लिखने वाले इतिहासकारों द्वारा यह शब्द और इसके रूपों ( tekvur , tekur , tekir ,  का उपयोग  भू-खण्ड मालिकों के सन्दर्भ में शुरु किया गया था, ---जो एक प्रकर से  सामन्त अथवा छोटी छोटी जागीरों के मालिक होते थे ।
तक्वुर (tekvur) रूप में इतिहास कार "बीजान्टिन लॉर्ड्स या गवर्नरों को दर्शाते हैं ।
अनातोलिया ( बिथिनिया , पोंटस ) और थ्रेस में कस्बों और किलों के संरक्षक होते थे ।
तथा  टेक्फुर शब्द प्रायः बीजान्टिन के सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अक्रितई के कमाण्डरों को दर्शाता है ,
लेकिन बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को भी खुद को ", उदाहरण के लिए, " पैलेस ऑफ तुर्की के नाम तेकफुर सराय के मामले में कॉन्स्टेंटिनोपल में पोर्फिरोजेनिटस के मामले में भी यही शब्द प्रचलित है ।
(मॉड इस्तांबुल द्वारा सन्दर्भित तथ्य )

   इसी प्रकार  ( इब्न बीबी ---जो  एक फारसी [ इतिहासकार और 13 वीं शताब्दी के दौरान रूम के सेल्जूक सल्तनत के  इतिहास के लिए प्राथमिक स्रोत के लेखक के रूप में जाना जाता था।
उन्होंने कोन्या में सुल्तानत के कुलपति के प्रमुख के रूप में कार्य किया और समकालीन घटनाओं पर रिपोर्ट तैयार की , उनकी सबसे मशहूर किताब एल-इवामिरुएल-अलियाएे फिल-उमुरील-अलायिऐे  है )
यह भी सिक्किशिया के अर्मेनियाई राजाओं को टेक्वुर के रूप में सन्दर्भित करता है,।
जबकि वह और डेडे कॉर्कट महाकाव्य ट्रेबीज़ोंड के साम्राज्य के शासकों को " दंजित के टेकवुर " के रूप में संदर्भित करता है ।
प्रारम्भिक तुर्क अवधि में, इस शब्द का इस्तेमाल किले और कस्बों के बीजान्टिन गवर्नर तथा संरक्षक दौनों के लिए किया जाता था,
जिसके साथ तुर्क उत्तर-पश्चिमी अनातोलिया और थ्रेस में तुर्क विस्तार के दौरान लड़े थे,
लेकिन बीजान्टिन सम्राटों के लिए भी, मलिक ("राजा") के साथ एक दूसरे के साथ और शायद ही कभी, फासिलीयस
(बीजान्टिन शीर्षक बेसिलस का  प्रतिपादन)।
हसन  कोलक सुझाव देता है; कि यह उपयोग कम से कम वर्तमान राजनीतिक वास्तविकताओं और बीजान्टियम की गिरावट को प्रतिबिम्बित करने के लिए एक जानबूझकर विकल्प बनाया था,
जो 1371-94 के बीच और फिर 1424 के बीच और 1453 में कॉन्स्टेंटिनोपल के पतन के  कारण रूप बीजान्टिन राज्य एक सहायक वासल (Ottomans) के लिए प्रयुक्त हुआ ।
😎 वीं शताब्दी के तुर्क इतिहासकार एनवेरी कुछ हद तक अद्वितीय रूप से दक्षिणी ग्रीस के फ्रैंकिश शासकों और एजियन द्वीपों के  सरकारों के लिए टेक्फुर शब्द का उपयोग करते थे  ।

संदर्भ सूचिका:----
^ ए बी सी डी Savvides 2000 , पीपी 413-414।
^ ए बी Çolak 2014 , पी। 9।
^ कोलक 2014 , पीपी। 13 एफ ..
^ कोलक 2014 , पी। 19।
^ कोलक 2014 , पी। 14।
स्रोत -----
कोलक, हसन (2014)। " Tekfur , Fasiliyus और Kayser : ओटोमन दुनिया में बीजान्टिन इंपीरियल Titulature की अपमान, लापरवाही और स्वीकृति" । Hadjianastasis, Marios में।
ओटोमन इमेजिनेशन के फ्रंटियर: रोड्स मर्फी के सम्मान में अध्ययन । BRILL। पीपी 5-28। आईएसबीएन 978 9 004280 9 15 ।
Savvides, एलेक्सियो (2000)। "टेकफुर" । इस्लाम का विश्वकोश, नया संस्करण, खंड एक्स: टी-यू । लीडेन और न्यूयॉर्क: ब्रिल। पीपी 413-414। आईएसबीएन 90-04-11211-1 ।
__________________________________________
टेक्फुर खिताब का प्रयोग ज्ञात सन्दर्भों में अधिक तर विशेष बीजान्टिन साम्राज्य में किया गया था ।
बीजान्टिन साम्राज्य जिसे पूर्वी रोमन साम्राज्य के रूप में भी जाना जाता है, पूर्व में रोमन साम्राज्य की निरन्तरता अथवा सातत्य ।
विलुप्त हुए प्राचीन काल और मध्य युग के दौरान भी जारी थी , जब इसकी राजधानी शहर कॉन्स्टेंटिनोपल (आधुनिक इस्तांबुल ,
जो बीजान्टियम के रूप में स्थापित किया गया था)
आधुनिक इस्तांबुल , 5 वीं शताब्दी ईस्वी सन् में पश्चिमी रोमन साम्राज्य  के विखण्डन और पतन से बच गया और 1453 में तुर्क तथा तुर्की साम्राज्य गिरने तक एक अतिरिक्त हज़ार साल तक अस्तित्व में रहा।
इस  समय तक इस्लामीय शरीयत का भी उदय नहीं हुआ था । पठान , तुर्क समानान्तरण कबीलों के रूप में आक्रमण कार्यों का जीवन व्यतीत करते थे ।
इसके अधिकांश अस्तित्व के दौरान  शक सिथियन तथा हूणों कुषाणों का साम्राज्य भी शक्तिशाली था यूरोप में आर्थिक, सांस्कृतिक और सैन्य बल का विकास होरहा था
दोनों "बीजान्टिन साम्राज्य" और "पूर्वी रोमन साम्राज्य" इतिहास के अन्त के बाद बनाए गए ऐतिहासिक भौगोलिक शब्द हैं;
इसके नागरिकों ने अपने साम्राज्य को रोमन साम्राज्य के रूप में सन्दर्भित करना जारी रखा । ये रोमनों की वीरता को आदर्श मानते थे । ग्रीक-यूनानी सन्दर्भों में रोमानिया शब्द रोम का वाचक है
( ग्रीक : Βασιλεία τῶν Ῥωμαίων , tr। Basileia tôn Rhōmaiōn ; लैटिन : इंपीरियम रोमनम ), या रोमानिया ( Ῥωμανία ), और खुद को "रोमियों" के रूप में।
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अल -ए सालजूक ) ओघुज तुर्क सुन्नी मुस्लिम राजवंश था जो धीरे-धीरे एक फारसी बन गया समाज और मध्ययुगीन पश्चिम और मध्य एशिया में तुर्क-फारसी परम्पराओं में योगदान दिया।
अफगानिस्तान के पठानों का सम्बन्ध भी ईरानी संस्कृति से है ।सेल्जूक्स ने सेल्जुक साम्राज्य और सुल्तानेट ऑफ रूम की स्थापना की , जो उनकी ऊंचाई पर अनातोलिया से ईरान के माध्यम से फैली थी ; और प्रथम क्रूसेड के लक्ष्य थे।
सेल्जुक हुकमरानों की  वंशगत विवरण,:--
Seljuq राजवंश
देश तुर्की
Seljuk साम्राज्य
रूम के सल्तनत
स्थापित समय
10 वीं शताब्दी - सेल्जूक
टाइटल
सेल्जूक साम्राज्य के सुल्तान
रूम के सुल्तान
दमिश्क के अमीर
Aleppo के Emir
विघटन
दमिश्क :
1104 - तख्तटेक ग्रेट सेल्जूक द्वारा बाकताश को हटा दिया गया था :
1194 - तेखिश के साथ युद्ध में टोग्रुल 3 की मौत हो गई थी

रूम :
1307 - मेसूद द्वितीय की  मृत्यु हो गई
प्रारंभिक इतिहास:---
सेल्जूक्स ओघुज तुर्क की क्यनीक शाखा से निकले  , जो 9वीं शताब्दी में मुस्लिम बनकर दुनिया की परिधि पर रहते थे, कैस्पियन सागर के उत्तर में और अराल सागर अपने याबघु खगनेट में ओघज़ संघ की, तुर्किस्तान के कज़ाख स्टेप में 10 वीं शताब्दी के दौरान, विभिन्न घटनाओं के कारण, ओघुज़ मुस्लिम शहरों के साथ निकट सम्पर्क में आया था।

जब सेल्जूक कबीले के नेता सेल्जूक ओघुज के सर्वोच्च सरदार यबघू के साथ पतन को पाप्त कर रहे थे, तो उन्होंने टोकन-ओघुज के बड़े हिस्से से अपने कबीले को अलग कर दिया ;
और निचले सीर दाराय के पश्चिमी तट पर शिविर लगाया और ईस्वी सन् 9 85 के आसपास, सेल्जूक इस्लाम में धर्मांतरित हो गया;  तथा 11 वीं शताब्दी में सेल्जूक्स खुरासन प्रान्त में अपने पूर्वजों के घरों से मुख्य भूमि फारस में चले गए,।
जहां उन्हें गजनाविद साम्राज्य का सामना करना पड़ा। 1025 में, ओघुज़ तुर्क के 40,000 परिवार कोकेशियान अल्बानिया के क्षेत्र में स्थानान्तरित हो गए।
सेल्जूक्स ने 1035 में नासा मैदानी इलाकों की लड़ाई में गजनाविदों को हराया।
तुघरील, चघरी और याबघू को गवर्नर, जमीन के अनुदान का प्रतीक मिला, और उन्हें देहकान (डेकन) का खिताब दिया गया।
दंडानाकान की लड़ाई में उन्होंने एक गजनाविद सेना को हरा दिया, और 1050-51 में तुघ्रिल द्वारा इस्फ़हान की सफल घेराबंदी के बाद, उन्होंने बाद में एक साम्राज्य की स्थापना की जिसे बाद में ग्रेट सेल्जुक साम्राज्य कहा जाता है।

  Seljuqs (सेल्जुकों ) ने स्थानीय आबादी के साथ मिश्रित और कुछ दशकों में फारसी संस्कृति और फारसी भाषा अपनाया।

बाद की अवधि -----
फारस में पहुंचने के बाद, सेल्जूक्स ने फारसी संस्कृति को अपनाया और फारसी भाषा को सरकार की आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया था ।
और तुर्क-फारसी परम्परा के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें "तुर्किक शासकों द्वारा संरक्षित फारसी संस्कृति" शामिल  थी ।
आज, उन्हें फारसी संस्कृति , कला , साहित्य और भाषा के महान संरक्षक के रूप में याद किया जाता है। उन्हें पश्चिमीय तुर्क के आंशिक पूर्वजों के रूप में माना जाता है - वर्तमान में अजरबेजान गणराज्य के ऐैतिहासिक निवासियों (ऐैतिहासिक रूप से शिरवन और अरान के रूप में जाना जाता है),
अज़रबैजान (ऐतिहासिक अज़रबैजान, जिसे ईरानी अज़रबैजान भी कहा जाता है ), तुर्कमेनिस्तान , और तुर्की की सीमाओं में परिबद्ध है ।।

Seljuq नेताओं का का वंशगत परिचय -
सेल्जूक राजवंश "महान Seljuqs" परिवार के प्रमुख थे; सिद्धांत रूप में उनके अधिकार ने अन्य सभी सेल्जूक कतारों पर विस्तार किया, यद्यपि व्यवहार में अक्सर यह मामला नहीं था।
तुर्की कस्टम (पृथाओं ) ने परिवार के वरिष्ठ सदस्य को महान सेल्जूक होने के लिए बुलाया, हालांकि आमतौर पर यह स्थिति पश्चिमी फारस के शासकों  से जुड़ी थी।

तुर्की के इतिहास को तुर्क जाति के इतिहास और उससे पूर्व के इतिहास के दो अध्यायों में देखा जा सकता है।
सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ भारत के सीमा वर्ती क्षेत्रों में आकर बसीं।
इसी समय अरब से मौहम्मद बिन-काशिम ईरानी तथा अफगानिस्तानी क्षेत्रों में इस्लामी संस्कृति का प्रयास  करता हुआ हिन्द की सीमाओं में प्रवेश करता है ।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में आर्य देव संस्कृति के अनुयायी आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों  हूण , कुषाण तथा दाहे आदि जन-जातियाों  का बसाव रहा था।

तुर्की में ईसा के लगभग 7500 वर्ष पहले मानव बसाव के प्रमाण  मिले हैं।  क्योंकि यूनानीय महाकाव्यों के रचयिता होमर का समय ई०पू० 800 वर्ष है ।
ट्रॉय आधुनिक तुर्की में ही था ।ट्रॉय और यूनानीयों का युद्ध 1250 ई०पू० है।
हिट्टी साम्राज्य की स्थापना 1900-1300 ईसा पूर्व में हुई थी। तथा 1250 ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूत कर दिया और आसपास के इलाकों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।
1200 ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन आरम्भ हो गया।
छठी सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस ने अनातोलिया ( तुर्की ) पर अपना अधिकार जमा लिया। इसके करीब 200 वर्षों के पश्चात 334 ई०पू०
में सिकन्दर  ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया।
बाद में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था।
तब उसका मुकाबला ई०पू० 323 में चन्द्र गुप्त मौर्य से हू़ुआ ।
ईसापूर्व  130 इस्वी सन् में अनातोलिया  रोमन साम्राज्य का अंग बना।
ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन् 113 ईस्वी में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।
छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था ।
पर  100 वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।
सन् 1288 में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ और सन् 1453 में कस्तुनतुनिया का पतन।
इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

तुर्कों का प्रयाण

वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। मंगोलियन तथा तातारी हूण आदि जन-जातियाँ भारतीय धरातल पर पदारूढ़ हुईं ।
और छठी सदी ईस्वी में कुछ ब्राह्मणों  की सहमति से बौद्धों के खिलाफ संगठित की गयी जिनका हिन्धु धर्म के रक्षण के लिए क्षत्रिय करण किया गया ।
---जो भारतीय में राजपूत , ठाकुर तथा क्षत्रिय कहलाए ।
तुर्की ईरानी तथा आरमेनियन ( सीरिया आदि क्षेत्रों में
जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए कुछ भारतीय धरातल पर आगत हुए लगभग ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे।
नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई। ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी स्वयं को आर्य कहते थे । यदु और तुर्वसु का वर्णन बाइबिल के -सृष्टि खण्ड जेनेसिस में यहुदह् और तुरबजु के रूप में वर्णित है
ईरानी ग्रन्थ अवेस्ता ए जैन्द ऋग्वेद का ईरानी रूपान्तरण मात्र है ।मंगोलियन ये सल्जूक़ तुर्क थे ---जो वस्तुत: ईरानी संस्कृति तथा भाषाओं का जीवन में व्यवहार करते थे । अत: तुर्की भाषाओं पर ईरानी भाषाओं का प्रभाव परिलक्षित होता है
भारतीय धरातल पर 16वीं सदी के समकक्ष मुगलों ने राज दरवारों की भाषा फ़ारसी मान्य की  । नकि अरबी
सल्जूक़ तुर्क स्वयं को पठान तथा तक्वुर खिताबो से नवाज़ा करते थे ।
स्वयं अकबर ने राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए  तुर्की जन जाति का समन्वय  ईरानीयों से था ।
इसके साथ ही  ये सेल्जुक तुर्क कैस्पियन सागर के पश्चिम में व मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए।
सन् 1071 में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
एशिया माइनर कोयूरोप का प्रवेश द्वार कहा जाता है ।
आधुनिक तुर्की अथवा तुर्किस्तान ही एशिया माइनर था ।
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मध्य टर्की में कोन्या को राजधानी बनाकर उन्होंने उस्मान ख़लीफा के नैतृत्व में  इस्लामी संस्कृति को अपनाया।
और उसका विस्तार ब़भी किया ।
विल्व इतिहास में इस साम्राज्य को 'रुम सल्तनत' कहते हैं । क्योकि इस इलाके़ में पहले इस्तांबुल के रोमन शासकों का अधिकार था ।
जिसके नाम पर इस इलाक़े को जलालुद्दीन रुमी नामांकित किया इस लिए इसे रूम  कहते थे।
यह वही समय था; जब तुर्की के मध्य (और धीरे-धीरे उत्तर) भाग में ईसाई रोमनों (और ग्रीकों) का प्रभाव घटता गया।

इसी क्रम में यूरोपीयों का उनके पवित्र ईसाई भूमि अर्थात् येरुशलम और आसपास के क्षेत्रों से सम्पर्क टूट गया - क्योकि अब यहाँ ईसाईयों के बदले मुस्लिम शासकों का राज हो गया था।
अपने ईसाई तीर्थ स्थानों की यात्रा का मार्ग सुनिश्चित करने और कई अन्य कारणों की वजह से यूरोप में पोप ने धर्म युद्धों का आह्वान किया।
यूरोप से आए धर्म योद्धाओं ने यहाँ पूर्वी तुर्की पर अधिकार बनाए रखा पर पश्चिमी भाग में सल्जूक़ों का साम्राज्य बना रहा।
लेकिन इनके दरबार में फ़ारसी भाषा और संस्कृति को बहुत महत्व दिया गया; अपने सामानान्तर के पूर्वी सम्राटों, गज़नी के शासकों की तरह, इन्होंने भी तुर्क शासन में फ़ारसी भाषा को दरबार की भाषा बनाया।
सल्जूक़ दरबार में ही सबसे बड़े सूफ़ी कवि रूमी (जन्म 1215) को आश्रय मिला; और उस दौरान लिखी शाइरी को सूफ़ीवाद की श्रेष्ठ रचना माना जाता है।
सन् 1220 के दशक से मंगोलों ने अपना ध्यान इधर की तरफ  लगाया। कई मंगोलों के आक्रमण से उनके संगठन को बहुत क्षति पहुँची और 1243 में साम्राज्य को मंगोलों ने जीत लिया।
यद्यपि इसके शासक 1308 तक शासन करते रहे , पर साम्राज्य बिखर गया।
5-6 सदी में इन विखण्डित जन-जातियों का एक काँरवा हिन्द कुश के रास्ते भारत में आया । जिनका राजपूतीकरण हआ । कुछ राजपूत जातियाँ जो खुद को यादव वंश से जोड़ने का प्रयास कर रही है।
और चन्द्र वंशी कहते हैं । नि: सन्देह वे  ब्राह्मणों के भ्रम-जाल में  निबद्ध हैं  । सोम शब्द सेमेटिक जन-जातियों का वाचक रहा है  । जिसमें यहूदीयों तथा असीरियन तथा फॉनिशीयों का समावेश है ।
यहूदीयों की शाखा अबीर Abeer रूप में हिब्रू बाइबिल में वर्णित है । ---जो भारतीय अहीरों से साम्य परिलक्षित करती है । अहीर सेमेटिक जन-जाति होने से ही सोम वंशी है । और यादव भी वही हैं ।
हिब्रू बाइबिल में कूफ़ा तथा कॉफ्त अथवा कॉप्ट Copt विशेषण भी प्राप्त थे ।
वैदिक सन्दर्भों में पणियों का उल्लेख , वस्तुत. लेबनान जॉर्डन आदि में वसे फॉनिशीयों का ही वर्णन है।
और असीरियन तो असुर हैं ही ।
आज कुछ राजपूत समुदाय के लोग स्वयं को यदुवंशी बताकर अहीरों को नकली यादव बताने का दुष्प्रचार करते  हैं ; परन्तु वस्तु -स्थिति इसके विपरीत है
राजपूत विदेशी है ; जो हूण, कुषाण अथवा तुषार सीथियन (Scythian ) मंगोलियन तथा ईरानी मूल के पठानों से तालुकात रखते हैं ।
और कुछ तो फारसी मूल के हैं -जैसे अफगानिस्तान के जादौन पठान  ---जो छठी सदी में तक्वुर उपाधि से नवाजे जाते थे ।
राजस्थान इन विदेशीयों का पहला पढ़ाब हुआ ।
ये  प्राय: तुर्की ईरानी मूल के थे ।
ये अपने सरकारों के लिए टेक्फुर अथवा तक्वुर( tekvur) खिताब का इस्तेमाल करते थे ।
ये तक्वुर ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर हो गया
जिनका पाँचवी शताब्दी के पहले का कोई इतिहास नहीं है।
कुछ राजपूत जन-जातियाँ स्वयं को यादव घोषित करने की असफल कुचेष्टा कर रहे हैं ।
क्योंकि वे अहीरों से द्वेष रखते हैं ।
और वे नहीं चाहते की अहीरों की प्रतिष्ठा उनसे अधिक हो 
राजस्थान के भाटी, जडेजा और भी दुसरे राजपूत जैसे जादौन  यादवों में शामिल होने के लिए तड़पते हैं ।
हाँ जादौन तो यहूदी होने से यदुवंशी ही हैं ।

इसकी सम्भावना पाश्चात्य इतिहास कारों ने भी दर्शायी हैं
परन्तु ये अहीरों को प्रभास क्षेत्र में गोपिकाओं सहित अर्जुन को परास्त कर लूटने वाला लुटेरा बताते हैं ।
और उन्हें यदुवंशी नहीं मानते हैं ।
परन्तु  अहीरों ने अर्जुन को क्यों लूटा था ?
इस घटना की पृष्ठ-भूमि को पुराण कारों में अल्प मात्रा में ही वर्णित किया । और ये लोग इस घटना के मूल के नहीं जानते हैं । हम उस घटना की पृष्ठ-भूमि का  विश्लेषण करते हैं
इसका परिहार इस प्रकार है कि ...
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जब अर्जुन और दुर्योधन दौनों विपक्षी यौद्धा ;
कृष्ण के पास युद्ध में लिए सहायता माँगने के लिए गये तो ; श्री कृष्ण ने प्रस्तावित किया कि आप दौनों मेरे लिए समान रूप में हो !
आपकी युद्धीय स्तर पर सहायता के लिए :-
एक ओर तो मेरी गोपों (यादवों )की नारायणी सेना होगी !
और दूसरी और ---मैं स्वयं नि:शस्त्र रहुँगा !
दौनों विकल्पों में जो अच्छा लगे उसका चयन कर लो !
तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप - सेना को चयन किया !
और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को !
गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसमें कोई सन्देह नहीं !
इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया !
और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे !
क्योंकि यादवों की वीरता को धता बता कर अर्जुन ने दोखे से बलराम की बहिन सुभद्रा का अपहरण कर लिया था ।
कहते हैं कि इस अपहरण कृष्ण की सहमति थी ... परन्तु ये तो यादवों अथवा समस्त गोपों के पौरुष को ललकारना ही था
और गोप अथवा यादव इसे यदु वंश का अपमान समझ रहे थे ।
यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था ।
क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे
और यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ।
तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे करता ?
यादव किसी के साथ विश्वास घात कभी नहीं करते थे ।
क्यों कि यह क्षात्र-धर्म के विरुद्ध भी था ।
गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की कथा सुनने और गायन करने से मनुष्यों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं ;
एेसा वर्णन है ।
महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा ---जो अहीरों के द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना वर्णित की गयी है ।
निश्चित रूप से मूल भाव से मेल नहीं खाती है ।
क्योंकि यहाँ अर्जुन और यादवों (गोपों) के युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन नहीं है और अहीरों को अशुभ-दर्शी तथा पापकर्म करनेवाला लोभी के रूप में वर्णन करना महाभारत कार की अहीरों के प्रति विकृतिपूर्ण अभिव्यक्ति मात्र है ।
इतना ही नहीं भागवतपुराण पुराण कार ने भी आभीर के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा गोपों को दुष्ट विशेषण से अभिव्यक्ति किया है ।
अहीरों अथवा गोपों ने अर्जुन सहित कृष्ण की 16000 गोपिकाओं के रूप में पत्नियों को लूटा था ।
निश्चित रूप से गोपों द्वारा अर्जुन को परास्त करने की घटना को
कुछ मूर्ख रूढ़ि वादी ब्राह्मणों ने यादवों के प्रति द्वेष स्वरूप गलत रूप में प्रस्तुत किया है।
क्योंकि अर्जुन और यादवों (गोपों)के मध्य पूर्व युद्ध की पृष्ठ-भूमि को वर्णित ही नहीं किया है ।
यादवों की किसी कन्या का अपहरण उस समय उनकी प्रतिष्ठा का विषय था ।
अब गोपों ने भी एक स्त्री के अपहरण में अर्जुन के साथ चलने वाली हजारों स्त्रीयों का अपहरण किया ! और वे स्त्रीयाँ वृष्णि वंशी गोपों की पत्नी रूप में गोपिकाऐं ही थीं
और इसी लिए कुछ मूर्खों को अहीरों के विषय में यह कहने का अवसर मिल जाता है कि
" अहीरों ने गोपिकाओं सहित प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था ।
परन्तु जिसे द्वेष वश कुछ रूढ़ि वादीयों ने गलत रूप में प्रस्तुत किया है ।
कि जैसे अहीरों ने अर्जुन सहित यदुवंशी गोपिकाओं को लूट लिया था।
और राज पूत इस बात को अहीरों के यादव न होने के रूप में प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं ।
और मूर्ख स्वयं को यदुवंशी होने की दलील देते हैं।
महाभारत के विक्षिप्त (नकली )मूसल पर्व के अष्टम् अध्याय का वही श्लोक यह है 😃और जिसका प्रस्तुति करण ही गलत है ।
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।

अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर

क्यूँ कि आज भारतवर्ष में एक यादववंश ही ऐसा है जिसका प्रमाण कई धार्मिक पुस्तकों में है।
...गीता और हरिवंश पुराण तो शुद्ध रूप से यादवो का इतिहास है ।
  हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग है ; में तो  यथावत् यादवों को ईश्वरीय शक्तियों का स्वरुप माना गया है ।.
....अब इतना सम्मान व गौरव  कौन नहीं चाहेगा ? इसलिए ये लोग यदुवंश से  जुड़ने का तो प्रयास करते है
परन्तु अहीरों को गालियाँ देते हैं परोक्ष रूप से ।
'राजपूत' हूण , कुषाण जाति के हैं ।
.जिनका 5 वीं 6 वीं  शताब्दी के पूर्व का कोई इतिहास और प्रमाण ही नहीं है।
....यहाँ तक की कुछ बौद्ध धर्म की पुस्तकों में इन्हें विदेशी , लुटेरा बताया गया है जो 5th शताब्दी के आस-पास भारत खण्ड आये।
   ब्राह्मण राज पूतों से पहले आगये  थे ।
राजराज पूतों के भारत में आगमन काल से सम्बद्ध एैतिहासिक पुस्तकें तिब्बत से चीन तक पढाई जाती है
.
भाटी, जडेजा और जादौन वंश की नीव ही चौथी शताब्दी में पड़ी फिर कैसे ये यादव वंश में शामिल करने के लायक है..जबकि हम यादव तो सनातन है..युगों से हमारा अस्तित्व है

भाटों की कलम से ये बताया गया है की आबू पर्वत पर ब्राह्मणों ने एक यज्ञ किया जिसके फलस्वरूप -चोेैहान , सोंलकी , परमार , चालुक्य आदि चार राजपूत  हवन कुण्ड से पैदा हुए i
अब आप खुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं की ब्राह्मणों के द्वारा बनाये हुए ये कौन से क्षत्रिय हैं i यहाँ तक की द्वापर युग में हुए कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय तो इस नाम का कोई अस्तित्व ही नहीं था ।
मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अंतिम मुग़ल बादशाह तक , हर मुग़ल शासक के हरम में राजपूत कन्यायें होती थी ! और अकबर के बाद तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए ।
- जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि i मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया -
कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है।
और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
अत: बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है ।
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As Follows
(1) Dharawat (2)ghuglot
(3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat...

All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area.
  from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported :
1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat  5- Meghawat 6- khachkad  7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16-
borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat

the Rathor and jadon are Charan banjara  are more  common in the area
Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare.
      A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale.
These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time  marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted  the function along   with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function.

Rathod  is also used as a clan name among the Gormati Banjaras
which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra.

madren is a clan name reported from the Sonar Banjara....

हिन्दी अनुवाद:---निम्नलिखित के अनुसार
(1) धारवत (2) घुह्लोट
(3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत ...

उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं ।
जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है।
  लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है:
1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16-
बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि..

राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं
सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है।
      बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर  नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ;
जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले।
ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को  पीटते हैं। 
यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था ।
क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था।

राठोड और जादौन गोर्मती  के बीच एक कबीले नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है
जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है ।
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है।
      जादौन पठान---जो अफगानिस्तानी मूल के  उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे । पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में  यहूदीयों को सोने - चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफस व्यापारी भी बताया गया है
मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है।
   मिश्र में कॉप्ट Copt यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है ।जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि से साम्य परिलक्षित करती है।
मनिहार--

मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है।
इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है। यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं।
ये लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में  अब प्राय: सिद्दीकी ही लगाते हैं।
मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए ।

उत्पत्ति का इतिहास--

इस जाति की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ;
एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने। इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों क़े नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टी, सोलंकी, चौहान, बैसवारा, जादौन  आदि।
इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं;
दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास बस गये।

इन पठानों की कुछ उपजातियाँ ---

(1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन ।

पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा
पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा (Theory of Pashtun descent from Israelites) १९वीं सदी के बाद से बहुत पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बनी हुई है। पश्तून  लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था।

लिखाईयाँ----

पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईसवी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है।
अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है।
हालांकि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं। अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः १८३७ में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है इसमें संदेह नहीं लेकिन इसमें भी संदेह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करेंगे।
विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं ।
जे बी फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की
'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था।
जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने १८५८ में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बेनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा  (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया।

जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है ।
वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। वह लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्क्रति, उनका व उनके ज़िलों गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है।
[George Moore,The Lost Tribes]इसके अलावा सर जान मेक़मुन, Sir George Macmunn (Afghanistan from Darius to Amanullah, 215), कर्नल जे बी माल्लेसोन (The History of Afghanistan from the Earliest Period to the outbreak of the War of 1878, 39), कर्नल फ़ैलसोन (History of Afghanistan, 49), जार्ज बेल (Tribes of Afghanistan, 15), ई बलफ़ोर (Encyclopedia of India, article on Afghanistan), सर हेनरी यूल Sir Henry Yule (Encyclopædia Britannica, article on Afghanistan), व सर जार्ज रोज़ (Rose, The Afghans, the Ten Tribes and the Kings of the East, 26).भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं हालांकि उनमे से किसी को भी एक दूसरे के लेखों की जानकारी नहीं थी। मेजर ए व्ही बेलो (Major H. W. Bellew,) कन्दाहार राजनीतिक अभियान पर गया था, इस अभियान के बारे में Journal of a Mission to Kandahar, 1857-8. में फिर दोबारा 1879 में अपनी किताब Afghanistan and Afghans. में एवं 1880 में अपने दो लेक्चरों में जो the United Services Institute at Simla: "A New Afghan Question, or "Are the Afghans Israelites?" विषय पर कहता है एवं The Races of Afghanistan. नामक किताब में भी यही बात लिखता है फिर सारी बातें An Enquiry into the Ethnography of Afghanistan, जो 1891 में प्रकाशित हुई, यही सब बातें लिखता है। I
इस किताब में वह क़िला यहूदी का वर्णन करता है।
("Fort of the Jews") (H.W. Bellew, An Enquiry into the Ethnography of Afghanistan, 34), जो कि उनके देश की पूर्वी सीमा का नाम थे ।
वह दश्त ए यहूदी का भी वर्णन करता है। Dasht-i-Yahoodi ("Jewish plain") (ibid., 4), जो मर्दान ज़िले में एक जगह है। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि अफ़ग़ानों का याक़ूब, इसाइयाह मूसा एक्षोडस इस्राएली युद्धों फ़िलिस्तीन विजय आर्च ओफ़ कोवीनेंट साऊल का राज्याभिषेक आदि आदि के बारे में बताया जाना व सबूत मिलना जो कि केवल बाईबिल में ही मिल सकते थे ।
"अफगान जनजातियों, जिनमें से यहूदियों पीढ़ियों के लिए जी रहे हैं, वे लोग हैं जो आज तक दस जनजातियों से अपने वंश के बारे में उनकी अद्भुत परंपरा को बरकरार रखते हैं।
यह एक प्राचीन परंपरा है, और कुछ ऐतिहासिक व्यवहार्यता के बिना नहीं।
खोजकर्ता, यहूदी और गैर-यहूदी, जो समय-समय पर अफगानिस्तान गए थे, और साहित्यिक स्रोतों की जांच करने वाले अफगान मामलों के छात्रों ने इस परंपरा को संदर्भित किया है, जिस पर यूरोपीय भाषाओं में कई विश्वकोशों में भी चर्चा की गई थी।
तथ्य यह है कि यह परंपरा, और कोई अन्य, इन जनजातियों में से एक है जो खुद ही एक भारी विचार है। राष्ट्र आम तौर पर पीढ़ी से पीढ़ी तक मुंह के शब्द द्वारा पारित जीवित यादें रखते हैं, और उनका अधिकांश इतिहास लिखित अभिलेखों पर आधारित नहीं है बल्कि मौखिक परंपरा पर आधारित है। यह विशेष रूप से ऐसा था राष्ट्रों और Levant के समुदायों के मामले में।
अरब प्रायद्वीप के लोग, उदाहरण के लिए, एक मूल मूर्तिपूजा पंथ के अपने सभी ज्ञान व्युत्पन्न, जो वे एक इस्लाम के पक्ष में इस तरह की मौखिक परंपरा से बंधे।
तो ईरान के लोग, पहले जोरोस्टर के धर्म के उपासक थे; तुर्की और मंगोल जनजाति, पूर्व में बुद्धिस्ट और शमनवादियों; और उन अरामियों जिन्होंने इस्लाम के पक्ष में ईसाई धर्म को त्याग दिया।
इसलिए, यदि अफगान जनजाति लगातार इस परंपरा का पालन करती हैं कि वे एक बार इब्रानी थे और समय के दौरान इस्लाम को गले लगा लिया गया था, और उनके बीच एक वैकल्पिक परंपरा भी मौजूद नहीं है, तो वे निश्चित रूप से यहूदी हैं।

राजपूत विदेशी थे ।
ठाकुर (तक्वुर) उपाधि भी मूलत: तुर्की सामन्तों की थी
राजपूतो ने मुगलों को अपनी बेटियाँ-बहने ब्याही.....और राजपूत राजाओं ने अंग्रेजो को अपना सर्वेसर्वा माना ।
अत: ये जमीदार और ऊँचे औहदों पर आसीन हुए । इन्होने मुगलों की गुलामी की और
अंग्रेजो के  टुकड़ों पर पलते रहे ।

जो लोग ठाकुर अथवा क्षत्रिय उपाधि से विभूषित किये गये थे ।
जिसमे अधिकतर अफ़्ग़ानिस्तान के जादौन पठान भी थे, जो ईरानी मूल के यहूदीयों से सम्बद्ध थे।
यद्यपि पाश्चात्य इतिहास विदों के अनुसार यहुदह् ही यदु: शब्द का रूप है ।
एेसा वर्णन ईरानी इतिहास में भी मिलता है ।
जादौन पठानों की भाषा प्राचीन अवेस्ता ए झन्द से निकली भाषा थी , जो राजस्थानी पिंगल डिंगल के रूप में विकसित हुई है।
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क्योंकि संस्कृत भाषा का ही परिवर्तित निम्न रूप फ़ारसी है ।
अत: फारसी अथवा ईरानी भाषाओं में प्रचलित सभी शब्द संस्कृत भाषा के ही शब्द हैं । इस्लाम धर्म तो बहुत बाद में सातवीं सताब्दी में पश्चिमीय एशिया में आया ; इस्लामीय शरीयत का नुमाइन्दा बन कर ईरान होता हुआ मौहम्मद बिन-काशिम लगभग 712 ई०सन् में भारत आया
यहूदी वस्तुतः फलस्तीन के यादव ही थे ।
क्योंकि ईसवी सन् 571 में तो इस्लाम मज़हब के प्रवर्तक सलल्लाहू अलैहि वसल्लम शरवर ए आलम मौहम्मद साहिब का जन्म हुआ है । इजराइल में अबीर (Abeer)इन यहूदीयों की ही एक युद्ध -प्रिय शाखा है ।
जिसका मिलान भारतीय अहीरों से है । भारतीय जादौन समुदाय अहीरों को अपने समुदाय में भले ही नहीं मानता हो , परन्तु भारतीय पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण तथा पद्मपुराण में अहीरों को गोपालन वृत्ति (कार्य) के कारण गोप रूप में वर्णित किया है।
तथा गोप उपाधि यादवों की वंश- परम्परागत उपाधि है
क्योंकि विश्व के प्राचीनत्तम ग्रन्थ ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त संख्या बासठ (62) के दशमी ऋचा में
यदु और तुर्वसु को दास अथवा शूद्र के रूप में गोप रूप में वर्णित किया है ।
देखें--- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास---जो गायों से घिरे हुए हैं हम उनका वर्णन करते हैं (ऋ०10/62/10)
जो यहूदीयों को पश्चिमीय एशिया में जूडान (Joodan ) भी कहते हैं।
जादौन स्वयं को ठाकुर कहते हैं और इस समुदाय का सबसे अधिक जोर भी ठाकुर उपाधि पर है !
तो यह ठाकुर तुर्की ईरानी तथा आरमेनियन भाषाओं से निकला है छठी सदी में जब बौद्धों से युद्धीय स्तर पर मुकाबला करने के लिए तुर्की ईरानी तथा आरमेनियन मूल के हूण पख्तों मूल के गादौन अथवा जादौन पठानों को भी सहायक बना कर उनका क्षत्रिय- करण किया ।
विदित हो की ईरानी भाषा में किसी जागीर या भू-खण्ड के मालिक को तक्वुर (ठक्कुर) खिताबो से नवाज़ा जाने की रवायते पुश्तैनी थीं ।
अत: ठाकुर उपाधि धारक ईरानी अथवा मगोलिया मूल के हैं ।
क्योंकि ठाकुर संस्कृत भाषा का शब्द नहीं है ।
और इसको संस्कृत भाषा में खोजना केवल रूढ़िवादी शौच ( विचार) ही है ।
तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर )परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका जन्म हुआ । ________________________________________ अब तक्वुर ठक्कुर (खिताब) के सन्दर्भों में कुछ समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख भी विचारणीय है, कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर खिताब से सन्तनत की जानिब से नवाज़े जाते थे वे ही तक्वुर (ठक्कुर)कहलाते थे ।
अत: यह शब्द भी विदेशी और इसके धारक भी विदेशी _________________________________________ जादौन पठान जब सिन्धु और अफगानिस्तान आबाद थे।
तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन भारत तथा पश्चिमीय एशिया तथा मध्य एशिया में भी नहीं हो पाया था ।
वहाँ उस समय सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल छोटे ईसाई राजा होते थे ।
ये स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक ही होते थे ;
तब तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) उपाधि से नवाज़ा जाता जाता था !
उस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही
इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी। ________________________________________ Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace. ______________________________________ Origin and meaning - (व्युत्पत्ति- और अर्थ ) The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown". It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.
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सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ आकर बसीं। इससे पहले यहाँ से पश्चिम में आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था।
तुर्की में ईसा के लगभग 7500 वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण मिले हैं। हिट्टी साम्राज्य की स्थापना 1900-1300) ईसा पूर्व में हुई थी। ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे । 1250 ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया। और1200 ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन आरम्भ हो गया। तथा छठी सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया। इसके करीब 200 वर्षों के पश्चात  334 ई० पूर्व में ठक्कुर शब्द का प्रचलन- ________________________________________ सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया।.... ठक्कुर अथवा ठाकुर शब्द का इतिहास भारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भ होकर आज तक है । कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था। तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर उपाधि( title) लगाने लग गये थे । यहीं से भारती में राजपूतों ने इसे ग्रहण किया । ईसापूर्व 130 ईसवी सन् में अनातोलिया (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था । ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन 313 में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया। इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।सन्त शब्द का प्रचलन भी इसी समय में हुआ सन्त शब्द भारोपीय मूल से सम्बद्ध है । यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है । रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है । जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो । छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर 100 वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया। बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। 1288 सन्  में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन्  1453 में कस्तुनतुनिया का पतन। इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। _______________________________________ वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे। दाहिस्तान Dagestan में दाह्यु अथवा दाहे जन-जाति से सम्बद्ध थे यदु और तुर्वसु ऋग्वेद को दशम् मण्डल को सूक्त संख्या 62की ऋचा संख्या दश में । नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व में बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई। ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि title तेगॉर थी और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि प्रचलित थी ।
इसके साथ ही इसी शाखा को कुछ लोग कैस्पियन सागर के पश्चिम में वे मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए। यह समय ( सन् 1071) के लगभग है । इस समय में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। _________________________________________ मध्य टर्की में कोन्या को राजधानी बनाकर तुर्कों ने इस्लामी संस्कृति को अपनाया।
ये लगभग ग्यारह वीं सदी की घटना है ।
और तुर्कों के जागीरदार सरदार तक्वुर कहलाते थे । विदित हो कि  इससे पहले तुर्क ईरानी असुर की संस्कृति के अनुयायी थे ।
ईरानी भाषा में असुर शब्द अहुर हो गया असुर का अर्थ असु राति इति असुर: कथ्यते अर्थात् जो असु जीवन अथवा प्राण दे का है ,वह असुर है ।
असीरियन संस्कृति असुरों से सम्बद्ध थी । वैदिक सन्दर्भों में ..  इसी रूप में यदु और तुर्वसु को साथ-साथ वर्णित किया हैं । देखें---ऋग्वेद का दशम् मण्डल का ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा :--- " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।१०/६२/१०ऋग्वेद। _____________________________________ असुर अथवा दास ईरानी आर्यों से सम्बद्ध थे । आज भी दौनों शब्दों का उच्च अर्थ विद्यमान है । अहुर मज्दा और दय्यु तथा दाहे रूप में -- और दएव (देव) शब्द का अर्थ पश्तो तथा ईरानी भाषा में दुष्ट अथवा धूर्त है । पुराणों में यदु और तुर्वसु को शूद्र ही वर्णित किया है । तुर्वसु ने तुर्किस्तान को आबाद किया । तुर्कों ने ईरानी संस्कृति के अपनाया अब हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड Genesis में यहूदीयों के पूर्व-पिता यहुदह् तथा तुरबजु का वर्णन है । हिब्रू लेखक आब्दी - हाइबा के एक पत्र से उद्धृत अंश __________________________________________ देखें---, तुर्जाजु (तुरवसु)को मार दिया गया है जिला के द्वार में, फिर भी राजा स्वयं को वापस ले लेता है देखिए, लकिसी के ज़िम्रिडा - नौकर, जो हबीरु के साथ जुड़ गए हैं, ने उसे मारा है। (अब्दी-हाइबा के पत्र, यरूशलेम के राजा के पास फिरौन - एल अमरना पत्र को बताएँ - नंबर 4)... See, Turazuju has been killed In the gate of the district, the king still withdraws himself Look, Lizzie's Zimrida - Servant, Who has joined Habiru, has killed him. (Letters from Abdi-Haiba, near the King of Jerusalem Pharaoh - Tell El Ararna Letter - Number 4)... तथा तुर्बाजु (फिलीस्तीन कबीले) का नाम तुवरजु (इंडो-हिब्रू जनजाति) भारतीय वेदों में वर्णित तुर्वसु के वंशज । And Turbabu (Palestinian tribe) name Tuvarju (Indo-Hebrew tribe) descendants of Tervasa described in the Indian Vedas. __________________________________________ प्राचीन होने से कथाओं में मान्यताओं के व्यतिक्रम से भेद भी सम्भव है , और यह हुआ भी अतः इतिहास के चिन्ह ही शेष रह गये हैं । मध्य टर्की के कन्या से सम्बद्ध साम्राज्य को 'रुम सल्तनत' भी कहते रहे हैं । क्योकि इस इलाके़ में पहले इस्तांबुल के रोमन शासकों का अधिकार था । जिसके नाम पर इस इलाक़े को जलालुद्दीन ने रुमी ही कहा था । यह वही समय था , जब तुर्की के मध्य (और धीरे-धीरे उत्तर) भाग में ईसाई रोमनों (और ग्रीकों) का प्रभाव घटता जा रहा था । इसी क्रम में यूरोपीयों का उनके पवित्र ईसाई भूमि, अर्थात् येरुशलम और आसपास के क्षेत्रों से सम्पर्क टूट गया था । क्योकि अब यहाँ ईसाइयों के बदले मुस्लिम शासकों का राज हो गया था। अपने ईसाई तीर्थ स्थानों की यात्रा का मार्ग सुनिश्चित करने और कई अन्य कारणों की वजह से यूरोप में पोप ने धर्म युद्धों का आह्वान किया। _______________________________________ यूरोप से आए धर्म योद्धाओं ने यहाँ पूर्वी तुर्की पर अधिकार बनाए रखा पर पश्चिमी भाग में सल्जूक़ों का साम्राज्य बना रहा ये सेल्जुक तक्वुर सामन्त (knight) होते थे । लेकिन इनके दरबार में फ़ारसी (ईरानी) भाषा और संस्कृति को बहुत महत्व दिया गया। अपने समानान्तर के पूर्वी सम्राटों, गज़नी के शासकों की तरह, इन्होंने भी तुर्क शासन में फ़ारसी भाषा को दरबार की भाषा बनाया। भारतीय इतिहास में मध्य-काल अर्थात् सोलह वीं सदी मेैं तुर्की ईरानी मूल के मंगोल से आये हुए तुर्कों ने अरब़ी की अपेक्षा सल्तनत की भाषा फारसी को चुना । सल्जूक़ दरबार में ही सबसे बड़े सूफ़ी कवि रूमी (जन्म 1215) को आश्रय मिला और उस दौरान लिखी शाइरी को सूफ़ीवाद की श्रेष्ठ रचना माना जाता है। सन् 1220 के दशक से मंगोलों ने अपना ध्यान इधर की तरफ़ लगाया। कई मंगोलों के आक्रमण से उनके संगठन को बहुत क्षति पहुँची और 1243 में साम्राज्य को मंगोलों ने जीत लिया। यद्यपि इसके शासक 1308 तक शासन करते रहे पर साम्राज्य बिखर गया। ये शासक अपने लिए तक्वुर (ठक्कुर) उपाधि ही लगाते थे । अतः हिन्दू शब्द के समान ठाकुर शब्द भी फारसी मूल का है । इसी शब्द के वंशज शब्दों को भी देखें--- भारतीय भाषाओं में ठाकुर शब्द का आग़ाज( प्रारम्भ) तुर्कों के द्वारा हुआ। '________________________________________  _________________________________________ The Tsakhur (or Caxur) (Russian: цахурский) people are an ethnic group of northern Azerbaijan and southern Dagestan (Russia). They number about 30,000 and call themselves yiqy (pl. yiqby), but are generally known by the name Tsakhur, which derives from the name of a Dagestani village, where they make up the majority. History Tsakhurs are first mentioned in the 7th-century Armenian and Georgian sources where they are named Tsakhaik. After the conquest of Caucasian Albania by the Arabs, Tsakhurs formed a semi-independent state (later a sultanate) of Tsuketi and southwestern Dagestan. By the 11th century, Tsakhurs who had mostly been Christian, converted to Islam. From the 15th century some began moving south across the mountains to what is now the Zaqatala District of Azerbaijan. In the 18th century the capital of the state moved south from Tsakhur in Dagestan to İlisu and came to be called the Elisu Sultanate. West of the Sultanate Tsakhurs formed the Djaro-Belokani free communities. The sultanate was in the sphere of influence of the Shaki Khanate. It became part of the Russian Empire by the beginning of the 19th century. Geography Tsakhurs live in Azerbaijan's Zaqatala region, where they make up 14% of the population, and in Gakh, where they constitute less than 2%. In Dagestan, they live in the mountainous parts of the Rutulsky district. According to Wolfgang Schulze, there are 9 villages in Azerbaijan, where Tsakhurs make up the majority of the population, all of them in Zaqatala. 13 more villages in Zaqatala and Gakh have a significant Tsakhur minority.[3] Language ---( भाषा ) Most Tsakhurs speak the Tsakhur language as their native language. The rate of bilingualism in Tsakhur and Azeri is high. Other languages popular among Tsakhurs include Russian and Lezgian. References Russian Census 2010: Population by ethnicity (in Russian) State statistics committee of Ukraine - National composition of population, 2001 census (Ukrainian) The Sociolinguistic Situation of the Tsakhur in Azerbaijan by John M. Clifton et al. SIL International, 2005 External links http://geo.ya.com/travelimages/az-tsakhur.html Shakasana (site maintained by Tsakhur about their language, culture, history, et.c Tsakhur (also spelled Tsaxur or Caxur ; Azerbaijani : Saxur dili ; Russian : Цахурский , Tsakhurskiy) is a language spoken by the Tsakhurs in northern Azerbaijan and southwestern Dagestan ( Russia ). It is spoken by about... हिन्दी भाषा में अनुवाद निम्न देखें--- ________________________________________  देखें --- एक विवेचना: - कहीं भी त्सेकुर शब्द भी रूसी भाषा में मौजूद है ये लोग रूसी ईरानी क्षेत्र दाहिस्तान (डागेस्टान) में आबाद हो रहे थे , और इनके वंशज आज भी हैं । यह रूस का उत्तर अज़रवेज़न और दक्षिणी दहिस्तान है। दास जन-जाति का आवास होने से यह दहिस्तान है। दास शब्द का  गुलाम अर्थ तो भारतीय संस्कृति में बहुत बाद में रूढ़ हुआ क्योंकि वेदों में दास शब्द असुरों का वाचक है । इसी दास शब्द के समानांतर दस्यु और दक्ष (कुशल ) शब्द भी हैं _________________________________________ सेखुर (या कक्सूर) (रूसी: цахурский) ये लोग उत्तरी अजरबेजान और दक्षिणी दाहिस्तान (रूस) के एक जातीय समूह हैं। वे 30,000 के लगभग  हैं और खुद को यिक़ी (प्लयिक्वे) कहते हैं, लेकिन आम तौर पर नाम से जाना जाता है, सखुर, जो एक दाहिस्तानी गांव के नाम से प्राप्त होता है, जहां वे बहुमत को बनाते हैं। ऐतिहासिक रूप में  7 वीं शताब्दी के आर्मीनियाई और जॉर्जियाई स्रोतों में इनका सबसे पहले उल्लेख किया गया है । जहाँ उनका नाम तशाखिक है। अरबों द्वारा कोकेशियान अल्बानिया की विजय के बाद, तख्खुरों  ने एक अर्ध-स्वतंत्र राज्य (बाद में एक सल्तनत) का गठन किया ।
जो सुकुती और दक्षिण-पश्चिमी दाहिस्तान  था। इन पश्चिमीय एशिया तथा एशिया माइनर( तुर्की) में आबाद दास( दाहे) के सुल्तानों तथा छोटे राजाओं को भी तक्वुर कहा जाता था । 11 वीं शताब्दी तक, जो ज्यादातर ईसाई थे, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा 15 वीं शताब्दी से कुछ लोग दक्षिण की ओर पहाड़ के पार चले गए, जो अब अज़रबैजान के जक्कताला जिले हैं । दाहिस्तान (Dagestan ) की भाषाओं में दाहे शब्द का अर्थ अब पहाड़ या पर्वत हो गया है ।
18 वीं शताब्दी में राज्य की राजधानी दाहिस्तान से लेकर इलिसु तक सखुर से दक्षिण चले गए और इसे एलिसू सल्तनत कहा जाने लगा। सल्तनत सख्खुस के पश्चिम ने डर्जो-बलोकोनी मुक्त समुदायों का गठन किया। सल्तनत शाकी खानते के प्रभाव के क्षेत्र में था। यह 1 9वीं शताब्दी की शुरुआत से रूसी साम्राज्य का हिस्सा बन गया। भूगोल Tsakhurs अज़रबैजान के जकातला क्षेत्र में रहते हैं, जहां वे 14% आबादी बनाते हैं, और गख में, जहां वे 2% से कम का गठन करते हैं। दाहिस्तान में, कुछ रूटलस्की जिले के पहाड़ी इलाकों में रहते हैं। वोल्फगैंग स्कुलज़ के मुताबिक, अजरबैजान के 9 गांव हैं, जहां सैकुरस जनसंख्या में अधिकतर हैं, उनमें से सभी जक्कलला में हैं। जकातला और गख के 13 और गांव में एक महत्वपूर्ण सैकुर अल्पसंख्यक हैं। भाषा --- (भाषा) सबसे अधिक (Tsakhurs )अपनी मूल भाषा के रूप में सखुर भाषा बोलते हैं। सेखुर और अजेरी में द्विभाषावाद की दर उच्च है साख़ख़्स में लोकप्रिय अन्य भाषाएं रूसी और लेज़िअन में शामिल हैं संदर्भ रूसी जनगणना 2010: जातीयता द्वारा जनसंख्या (रूसी में) यूक्रेन की राज्य सांख्यिकी समिति - आबादी की राष्ट्रीय रचना, 2001 की जनगणना (यूक्रेनी) जॉन एम। क्लिफटन एट अल द्वारा अज़रबैजान में सखाखोरी की सामाजिक आबादी की स्थिति एसआईएल इंटरनेशनल, 2005 बाहरी कड़ियाँ http://geo.ya.com/travelimages/az-tsakhur.html शकना (साइट को उनकी भाषा, संस्कृति, इतिहास, एट सेखुर (अस्ज़ानी: सक्षुर डीली; रूसी: Цахурский, सेखुरस्की) एक भाषा है जो उत्तरी अज़रबैजान और दक्षिण-पश्चिमी डैगेस्टान (रूस) में तख्खुर द्वारा बोली जाने वाली एक भाषा है। इसके बारे में बात की जाती है ... अत: ठाकुर शब्द कोई जन-जाति विशेष का वाचक नहीं हैं । सायद किसी को कुछ अटपटा भी लगे कि हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रचलित जादौन, जाधव ,जाट्ट जादौं, तथा जाटव ( जटिया जन समुदाय) तथा यादव शब्द भी हिब्रू भाषा के यहुदह् शब्द के सहोदर हैं । जादौन पठान स्वयं को बनी इज़राएल अर्थात् यहुदह् की सन्तानें यहूदीयों को रूप में ही मानते हैं ।परन्तु विचार धारा से इस्लामीय शरीयत के नक्श ए क़दम पर चलते हैं । _________________________________________ मराठी शब्द जाधव भी इसी से विकसित हुआ तथा इससे (जाटव शब्द बना , यह घटना सन् १९२२ समकक्ष की है ।
साहू जी महाराज का वंश जादव (जाटव) था । ये शिवाजी महाराज के पौत्र तथा शम्भु जी महाराज के पुत्र थे ।
निश्चित रूप से इनमें से मगध के पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायीे ब्राह्मणों ने कुछ को शूद्र तथा कुछ को क्षत्रिय बना दिया , जो उनके संरक्षक बन गये , वे क्षत्रिय बना दिये गये । और जो विद्रोही बन गये , वे शूद्र बना दिये -- संस्कृत भाषा में बुद्ध के परवर्ती काल में ठक्कुर: शब्द का प्रयोग द्विज उपाधि रूप में था जो ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का वाचक था । परन्तु ब्राह्मणों ने इस शब्द का प्रयोग द्विज उपाधि के रूप में स्वयं के लिए किया । जैसे संस्कृत भाषा के ब्राह्मण कवि गोविन्द ठक्कुर: --- काव्य प्रदीप के रचयिता । वाचस्पत्यम् संस्कृत भाषा कोश में देव प्रतिमा जिसका प्राण प्रतिष्ठा की गयी हो , उसको ठाकुर कहा जाता है । ध्यान रखना चाहिए कि पुराणों में ठाकुर शब्द प्रयोग कहीं नहीं है । हरिवंश पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों के लिए केवल गोप शब्द का प्रयोग है । _________________________________________ इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत गवां कारणत्वज्ञ :सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति __________________________________________ अर्थात् वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव गोप के रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया -- कृष्ण के लिए ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग प्रथम वार वैष्णव पुष्टी-मार्गीय सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य वल्लभाचार्य के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने किया था श्री नाथ जी के विशेष निग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है ; और पुष्टी-मार्गीय सम्प्रदाय द्वारा कृष्ण जी के निग्रह को ठाकुर जी कहा जाता है ।
स्था--उकञ् ।१ स्थितिशीले २एकग्रामाधिकृते पुल्लिंग विशेषण शब्द (अमरकोशः) स्थावर: शब्द से ठाकरे शब्द विकसित हुआ । ठाकुर शब्द की यह ऐैतिहासिक गवेषणा पूर्ण रूपेण प्रबल प्रमाणों के दायरे में है । जिसमें सन्देह की कोई गुँजायश नहीं है । _________________________________________ यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें !
कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक तथ्य होता है । छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं, तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है , और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है अत: केवल प्रलाप करने से कोई विद्वान् अथवा विशेषज्ञ नहीं हो जाता है ।
शब्द स्वयं अपना इतिहास कहते है । _____________________________________

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