मंगलवार, 28 मार्च 2017

(प्रेम की यथार्थ परिभाषा )

जहाँ आधार- प्रेम का नहि ,
                वहाँ लोभ- स्वार्थ व्यापार ||
शरीर के प्रति आकर्षण ,
                        सद्गुण का नहीं विचार ||
सद्गुण का नहीं विचार
          - प्रेम वह क्षणिक है" रोहि "
कर्तव्यों को कहाँ , वहन कर पाता मोहि ?
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लोभ के भँवर मोह के गोते ,
                       जीवन गुजरे रोते रोते 
नहीं सम्बल पाता कोई ,
                               बड़ी तेज ये धार  !
थोड़ी सी मौज़ो में पड़कर ,
                  जीवन की किश़्ती डुबोहि !
वासनाओं की उद्वेलित लहरें |
                              हमारे टूटे सब पतवार,
अब भीसंयम से ना तैरे हम. 
                                  तो डूब जायें मझधार !! *********************** *****************
*******************************†******
अर्थात् जहाँ प्रेम के नाम पर
लोभ से प्रेरित स्वार्थ के सारे व्यवहार सम्पन्न होते हैं ! वह प्रेम नहीं है ! हमारी संस्कृति में प्रेम भक्ति का पर्याय है --- और भक्ति है आत्म - समर्पण की पवित्र अहंकार शून्य भावना ---
इसमें गुणानुवाद का बाहुल्य है ....रूप का नहीं...
🌺🌺🌺🌺🌺🌺
हम फूल की रंगत के नहीं
महज खुशुबू के दिवाने हैं !
जमाने के लोगो से कह दो .
हमारे अब नये ठिकाने हैं!!
🌻🌻🌻🌻🌻🌻
प्रेम के सम्बन्ध में जो पाश्चात्य धारणाऐं हैं
वह उनकी ही संस्कृति के अनुरूप हैं-----
________________,____________________
प्रेम के लिए अंग्रेजी में लव love शब्द
का प्रयोग असंगत है ..लव तो केवल लोभः और वासना का विशेषण है .....
भारतीय आध्यात्मिकता में प्रेम का भाव तत्व- ज्ञान का वाचक है ...////....//////////................
""" जैसा की भगवान् सन्त कबीर ने कहा है ...
पोथी पढ़ पढ़ जग मरा ,
     भया न पण्डित कोय !
ढ़ाई आखर प्रेम के ,
      पढ़े सो पण्डित होय !!
*************,******
विचार- विश्लेषक योगेश कुमार रोहि ग्राम आजादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ उ०प्र० सम्पर्क
8077160219 ... ..
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~­~~~
यह पाश्चात्य संस्कृति का वासना मयी प्रदूषण है ...यहाँ प्रेम भी वस्तुतत: - लोभ व वासना का अभिव्ञ्जक हो गया है
,वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव. Love शब्द संस्कृत भाषा में लुभःअथवा लोभः के रूप में प्रस्तावित है ..जोकि लैटिन में लिबेट Libet तथा लुबेट Lubet के रूप में विद्यमान है ..जिसका संस्कृत में लुब्ध ( लुभ् + क्त )
भूतकालिक  कर्मणि कृदन्त रूप से व्युत्पन्न होता है ...संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है ..काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना ..
वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ दिखाई देता है परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि है
अंग्रेजी भाषा में यह शब्द Love लव शब्द के रूप में है ...
तथा जर्मन में लीव Lieve है
ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में Lufu लूफु के रूप में है
यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में वासना का उन्मुक्त ताण्डव है ..
.....जबकि प्रेम निः स्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है प्रेम तो भक्ति है
राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी . और कृष्णः ज्ञान योग के द्वारा कर्षण करने बाले आभीर शिरोमणि तत्कालीन यादव समाज के महानायक थे .
संस्कृत भाषा में राधा का अर्थ ही प्रेम , भक्ति और सिद्धि है ..और आज के नवयुवक और नव युवतियाँ पूर्णतः प्रेम के नाम पर दिग्भ्रमित है ..
...अतः ये नव युवक व युवतीयाँ लोभ और वासना के पुजारी ....
प्रेम के तत्व को ये क्या समझ सकते है ?...मित्रों मेरे इस वक्तव्य पर प्रतिक्रिया दें ! योगेश
कुमार रोहि ग्राम आजादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ उ०प्र० सम्पर्क ---  सूत्र-----8077160219 ☎☎☎
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
काम भाव से अब मुक्त नहिं
            गाँव शहर घर द्वार  !
विचर रहे देखो कहीं
       पार्कों में गलबहियाँ डारि |
पार्कों में गलबहियाँ डारि
     हाइ प्रॉफाइल विद्यार्थी
विद्या की अरथी को
          आज ढ़ो रहा विद्यार्थी  !
स्कूल या इश्क़ हॉल हैं
अब कहाँ ज्ञान की आरती !
जो विद्या अँधेरे में दिया
       बनाकर जीवन सारथी
हमने नकल उनका कर डाली
जिनकी संस्कृतियों थी एक गाली
मैकाले की सह- शिक्षा प्रणाली
          रोहि हम सबको  बेकार थी
  उस भोग - लिप्सा की संस्कृति में .
        बन गये हम सब  स्वार्थी !!
________________________
वह प्रेम नहीं है जहाँ केवल रूप सौन्दर्य की महत्ता हो
गुण सौन्दर्य की कोई मूल्यांकन न हो
हमारी संस्कृति में प्रेम भक्ति का पर्याय है --- और भक्ति है आत्म - समर्पण की पवित्र अहंकार शून्य भावना --- इसमें गुणानुवाद का बाहुल्य है ....रूपाकर्षण का नहीं... 🌺🌺🌺🌺🌺🌺
हम फूल की रंगत के नहीं
               महज खुशुबू के दिवाने हैं !
जमाने के लोगो से कह दो रोहि
              . हमारे अब नये ठिकाने हैं!
🌻🌻🌻🌻🌻🌻 प्रेम के सम्बन्ध में जो पाश्चात्य धारणाऐं हैं वह उनकी ही संस्कृति के अनुरूप हैं----- ________________,__ प्रेम के लिए अंग्रेजी में लव love शब्द का प्रयोग असंगत है ..लव तो केवल लोभः और वासना का विशेषण है ..... भारतीय आध्यात्मिकता में प्रेम का भाव तत्व- ज्ञान का वाचक है ...
............... """ जैसा की भगवान् सन्त कबीर ने कहा है ... पोथी पढ़ पढ़ जग मरा , भया न पण्डित कोय ! ढ़ाई आखर प्रेम के , पढ़े सो पण्डित होय !! *************,****** विचार- विश्लेषक योगेश कुमार रोहि ग्राम आजादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ उ०प्र० . ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~­~~~ यह पाश्चात्य संस्कृति का वासना मयी प्रदूषण है ...यहाँ प्रेम - लोभ व वासना का अभिव्ञ्जक हो गया है ,वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव. Love शब्द संस्कृत भाषा में लुभःअथवा लोभः के रूप में प्रस्तावित है ..जोकि लैटिन में लिबेट Libet तथा लुबेट Lubet के रूप में विद्यमान है ..जिसका संस्कृत में लुब्ध ( लुभ् + क्त ) भूतकालिक कृदन्त रूप व्युत्पन्न होता है ...संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है ..काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना .. वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ दिखाई देता है परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि है अंग्रेजी भाषा में यह शब्द Love लव शब्द के रूप में है ... तथा जर्मन में लीव Lieve है ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में Lufu लूफु के रूप में है यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में वासना का उन्मुक्त ताण्डव है .. .....जबकि प्रेम निः स्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है प्रेम तो भक्ति है राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी . और कृष्णः ज्ञान योग के द्वारा कर्षण करने बाले आभीर शिरोमणि तत्कालीन यादव समाज के महानायक थे . संस्कृत भाषा में राधा का अर्थ ही प्रेम , भक्ति और सिद्धि है ..और आज के नवयुवक और नव युवतियाँ पूर्णतः प्रेम के नाम पर दिग्भ्रमित है .. ...अतः ये नव युवक व युवतीयाँ लोभ और वासना के पुजारी .... प्रेम के तत्व को ये क्या समझ सकते है ?...मित्रों मेरे इस वक्तव्य पर प्रतिक्रिया दें ! योगेश कुमार रोहि ग्राम आजादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ उ०प्र० सम्पर्क --- सूत्र--------- 8445730852☎☎☎ 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻 काम भाव से अब मुक्त नहिं गाँव शहर घर द्वार ! विचर रहे देखो कहीं पार्कों में गलबहियाँ डारि | पार्कों में गलबहियाँ डारि हाइ प्रॉफाइल विद्यार्थी विद्या की अरथी को आज ढ़ो रहा विद्यार्थी ! स्कूल या इश्क़ हॉल हैं अब कहाँ ज्ञान की आरती ! जो विद्या अँधेरे में दिया बनाकर जीवन सारथी मैकाले की सह- शिक्षा प्रणाली बिल्कुल बेकार थी भोग - लिप्सा की संस्कृति में . बनते है छात्र जहाँ स्वार्थी !! _______________________________________
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दुहिता दो कुलों की हित- कारणी --

       
दो कुलों की हित कारणी है
           दुहिता      _____________________

महर्षि दयानन्द ने निरुक्त को आधार मान कर यह व्युत्पत्ति दुहिता शब्द की ===दूरे हिता इति दुहिता अर्थात् दूर देश में ही जिसका हित सम्भव है की है ... परन्तु यह व्युत्पत्ति आनुमानिक तथा कालपनिक है , दुहिता शब्द की वास्तविक व सार्थक व्युत्पत्ति योगेश कुमार रोहि ने भारोपीय भाषा के तीन हज़ार शब्दों की व्युत्पत्ति श्रृंखला के सन्दर्भ में की है .......जो दुहिता जीवन की वास्तविकता को अभिव्यञ्जित करती है ! परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वे महर्षि दयानन्द के प्रतिद्वन्द्वी हैं .... महर्षि दयानन्द के आर्य - समाजीय सुधारात्मक प्रयासों के कारण ही आज भारतीय संस्कृति जीवन्त है --- अन्यथा हम्हें वेदों में भी विज्ञान है .... इस पर विचार विश्लेषण करने का अवसर ही नहीं मिलता !!!!!! "निरूक्त में लिखा है कि कन्या का 'दुहिता' नाम इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश (स्थान) में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं |" ~/~ स्वामी दयानन्द सरस्वती ( सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास ) ... **************** हमारी व्युत्पत्ति के अनुसार .दुहिता = !!! द्वे हिते यया सा पितृ ग्रहेव पति ग्रहेव च इति दुहिता कथ्यते ..!!! अर्थात् जिसके द्वारा पति तथा पिता दौनौं के गृहों ( कुलों )का हित सम्पादित होता है .. वह दुहिता है --- देवर शब्द की व्युत्पत्ति के साम्य पर ... वास्तव में पुत्री इसी लिए दुहिता संज्ञा से अभिहित की गयी है सामाजिक तथा सांस्कृतिक विश्लेषणों से यह बात पूर्ण रूपेण सार्थक व प्रमाणित भी है ... अत: प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं .... दुहिता का सबसे अधिक हित भाव पिता के ही प्रति होता है तथा उसके बाद पति के हितभाव के प्रति ... ....समस्त भारत - यूरोपीय भाषाऔं में यह शब्द विद्यमान है फारसी में दुख़्तर के रूप में अंग्रेजी में डॉटर Doughter ग्रीक में दुग्दर आदि ... ज्ञान की गहराईयों में प्रेषित यह महान सन्देश योगेश कुमार रोहि की जानिब से.. सम्पर्क- सूत्र 8077160219 ☎...... ------प्रेरणा- श्रोत .. श्रद्धेय वीत- राग महामनस्वि स्वामी मुकेशानन्द पिप्पराचार्य चौदह सौ इक्यावन उपकार- मूर्ति ..वञ्चितो की करते पूर्ति ............................. आज़ादपुर ग्राम की पावन धरा को अपने स्नेहिल उदार - व्यवहार से कृतार्थ कर रहे हैं .. समस्त जिज्ञासु भक्तों से निवेदन है कि कृपया ..पूर्व- सूचना देकर ही सम्पर्क करे ... क्यों कि स्वामी मुकेशानन्द जी नित्य- क्रिया में संलग्न रहते हैं ________________________ 🌴. ........ 🌾. ..🌱 (( दो कुलों की हित- कारिणी है दुहिता---)) _______________________ ********************* _____________________ महर्षि दयानन्द ने निरुक्त को आधार मान कर यह व्युत्पत्ति दुहिता शब्द की ===दूरे हिता इति दुहिता अर्थात् दूर देश में ही जिसका हित सम्भव है परन्तु यह व्युत्पत्ति आनुमानिक तथा काल्पनिक है .... निश्चित रूप इस प्रकार आनुमानिक व्युत्पत्ति करने के मूल मे तत्कालिक समाज की पुत्रीयों के प्रति भावना ध्वनित होती है ... दुहिता शब्द की वास्तविक व सार्थक व्युत्पत्ति योगेश कुमार रोहि के द्वारा भारोपीय भाषा के तीन हज़ार शब्दों की व्युत्पत्ति श्रृंखला के सन्दर्भ में है ... परन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वे महर्षि दयानन्द के प्रतिद्वन्द्वी हैं ! महर्षि दयानन्द वस्तुत दुहिता शब्द की यह व्युत्पत्ति स्वयं नहीं की, अपितु यास्क की व्युत्पत्ति उद्धृत की है .. महर्षि दयानन्द के आर्य- समाज के रूप में सुधारात्मक प्रयासों के कारण ही आज भारतीय संस्कृति जीवन्त है ! अन्यथा हम्हें इन तथ्यों पर विचार विश्लेषण करने का अवसर ही नहीं मिलता कि वेदों में भी विज्ञान है ....... ____________________ "निरूक्त में लिखा है कि कन्या का 'दुहिता' नाम इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश (स्थान) में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं |" ~/~ स्वामी दयानन्द सरस्वती ( सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास ) ...योगेश कुमार रोहि की व्युत्पत्ति के अनुसार .दुहिता = . .... !!! द्वे हिते यया सा पितृ ग्रहेव पति ग्रहेव च इति दुहिता कथ्यते ..!!! अर्थात् जिसके द्वारा पति तथा पिता दौनौं के गृहों (कुलों )का हित होता है .. वह दुहिता है ----------------------------------- वास्तव में पुत्री इसी लिए दुहिता संज्ञा से अभिहित की गयी है यह सामाजिक तथा सांस्कृतिक विश्लेषणों स भीे यह बात पूर्ण रूपेण सार्थक व प्रमाणित भी है .... दुहिता का सबसे अधिक हित भाव पिता के ही प्रति होता है तथा उसके बाद पति के हितभाव के प्रति .समर्पित है दुहिता -----
       
          (विचार-विश्लेण---योगेश कुमार रोहि ) ____________________________________

मंगलवार, 21 मार्च 2017

ओ३म् की व्युत्पत्ति---- मूलक व्याख्या .....


      {.  ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----
  एक वैश्विक विश्लेषण -- योगेश कुमार रोहि
    के द्वारा ......
_____________________________________

ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है ...
🌜🌴🌲🌴🌲🌴🌲🌛 कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् ogham शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था !.............कि  उनका विश्वास था ! कि इस प्रकार Ow- ma अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है ...
और उनका मान्यता भी थी..
प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति ( syllable prosperity ) यथावत् रहती है
इसके उच्चारण प्रभाव से
...ओघम् का मूर्त प्रारूप ***🌞 सूर्य के आकार के सादृश्य पर था ...जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ... वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है .
जैसे सूर्य से प्रकाश 🌞☀⚡☀⚡⛅☁प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा ( ammon - ra ) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है .. आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है .. ... ..... .सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अोमन् शब्द आमीन के रूप में है .. तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ..मिश्र की संस्कृति ............ ...... में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए
.. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि ..अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !! ..... ....इन्हीं से ईसाईयों में Amen तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था ..... .इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था .. ...यही woden अंग्रेजी मेंgoden बन गया था ..
जिससे कालान्तर में गॉड(god )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ************************* वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है ************************* भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! ...... जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ *******"*"* **************************** पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ! ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे ! वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था ... ...द्रुज जनजाति ...प्राचीन इज़राएल .. जॉर्डन ..लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है .. .द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा..पुनर्जन्म .. कर्म फल के भोग के लिए होता है ...
..ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति druid द्रयूडों  पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप  में मान्य  थी ! केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था ! ❄❄❄❄❄📝📄📃📑📜📜 📜... द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य - वेत्ता और तत्व दर्शी थे ! जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड   द्रव + विद --  समाक्षर लोप से द्रविड  ...
...मैं योगेश कुमार रोहि भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ ! जो संक्षिप्त ही है *********************** ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !! इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है यूनानी आर्य ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !!!!!!! भारतीय सांस्कृतिक संन्दर्भ में भी ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति परक व्याख्या आवश्यक है वैदिक ग्रन्थों विशेषतः ऋग्वेद मेंओमान् के रूप में भी है संस्कृत के वैय्याकरणों के अनुसार ओ३म् शब्द धातुज ( यौगिक) है 🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔जो अव् घातु में मन् प्रत्यय करने पर बना है पाणिनीय धातु पाठ में अव् धातु के अनेक अर्थ हैं ************************* अव्-- --१ रक्षक २ गति ३ कान्ति४ प्रीति ५ तृप्ति ६ अवगम ७ प्रवेश ८ श्रवण ९ स्वामी १० अर्थ ११ याचन १२ क्रिया १३ इच्छा १४ दीप्ति १५ अवाप्ति १६ आलिड्.गन १७ हिंसा १८ आदान १९ भाव वृद्धिषु ( १/३९६/ ************************* भाषायी रूप में ओ३म् एक अव्यय ( interjection) है जिसका अर्थ है -- ऐसा ही हो ! ( एवमस्तु !) it be so इसका अरबी़ तथा हिब्रू रूप है आमीन् ************************** लौकिक संस्कृत में ओमन् ( ऊँ) का अर्थ--- औपचारिकपुष्टि करण अथवा मान्य स्वीकृति का वाचक है --- मालती माधव ग्रन्थ में १/७५ पृष्ट पर-- ओम इति उच्यताम् अमात्यः" तथा साहित्य दर्पण --- द्वित्तीयश्चेदोम् इति ब्रूम १/"" हमारा यह संदेश प्रेषण क्रम अनवरत चलता रहेगा **** मैं योगेश कुमार रोहि निवेदन करता हूँ !! कि इस महान संदेश को सारे संसार में प्रसारित कर दो !!! आमीन् .............. योगेशकुमार रोहि के द्वारा अनुसन्धानित भारतीयही नहीं अपितु विश्व इतिहास का यह एक नवीनत्तम् सांस्कृतिक शोध है | 

____________________________'_________
आज के परिप्रेक्ष्य में .. ~•• अरे वो क्या समझ पाते उसके ग़म ए द़िल को मज़लूम असहाय वह कोई बे पनाह थी!
ज़ुल्म कर डाला हवश की आग में उस पर . उन ज़ालिमों की उसके जिस्म पर निगाह थी !!
फिर हवश की आग में उसको जला डाला .
एक बेबसी और चीख वहाँ पर गवाह थी !!
फिर सो गयी वो मौत के आगोश में रोहि !!
फिर दुबारा जगने की उसको न चाह थी !!? .
... योगेश कुमार रोहि की जानिब से. 8077160219
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शुक्रवार, 17 मार्च 2017

( यथार्थ का एक अवलोकन ...

Philosophy of druid tribe in celtic culture कैल्टिक अथवा किरात संस्कृति में द्रविडों की ड्रयूड नाम से दार्शनिकता .... विश्लेषक - योगेश कुमार रोहि ग्राम --आजादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ --- यूरोपीय सन्दर्भों का पुट लेते हुए .. ________________________________ Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean":---- ......... अर्थात् द्रविड द्रव तत्व के विश्व में प्रथम वेत्ता थे ! द्रव + विद = समाक्षर लोप से द्रविड शब्द वना ...अत: इस कारण से उनका द्रविड नाम हुआ .... आत्मा की अमरता तथा कर्म के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त के खोज कर्ता ये ही विश्व के प्रथम व्यक्ति थे .... ओ३म् इनका ही भाषा तथा चेतना का अधिष्ठात्री देवता था . .जिसे भारतीय ब्राह्मणों ने एकाधिकृत कर लिया ... और फिर पुष्यमित्रसुँग के शासन काल में जो कि स्वयं एक रूढ़िवादी ब्राह्मण था .... उसके शासन काल में नये सिरे से मनु- स्मृति आदि की रचना हुई ..उसमें ब्राह्मणों की सर्वोपरिता को दृष्टि में रखकर धार्मिक व सामाजिक ... नियम बनाए गये .. तथा ओ३म् का उच्चारण शूद्रों के लिए निषिद्ध किया गया .. और यदि वे उच्चारण भी करते तो उच्चारण करने पर उनकी जिह्वा काट देना ... जैसे विधान बनाऐ गये ... जबकि शूद्र जो कोल जन जाति का विशेषण था. द्रविड ही थे .... अन्वेषक ---- योगेश कुमार रोहि के प्रमाणों पर आधारित तथ्य ....... ---------------------------------- यूरोप में वाल्टिक सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में..केल्ट वेल्स .. तथा ब्रिटॉन् सिमरी गोल आयरी जॉर्जियन ... तथा स्कोटिस् मूल के सुटर Souter --- जन जाति की संस्कृतियों के रूप में विस्तार हुआ. यद्यपि पिक्ट योद्धाओं से सम्बद्ध थे जो रोमन संस्कृति में सॉडियर Sodier अथवा Soldsier . सॉल्ज़र कह गये ये लोग बड़े वीर थे ... .. .आयरी या जॉर्जिया शब्द की एक रूपता आभीर और गुर्जर से है .. जो गायों को चराने वाले ....गौश्चर ही थे .... शूद्र शब्द अपने आप में यथावत है ... अब भारत के इतिहास को भाषा वैज्ञानिक आधार पर तथा सांस्कृतिक विश्लेषण के आधार पर फिर से लिखने की आवश्यकता है .... जिन्हें भारतीय पुराणों में क्रमश: किरात (कोल जन जाति का उपवर्ग )वराह ....भरत ( भारत की एक मूल जंगली जनजाति इन्ही लोगों के कारण भारत नाम हुआ ...ना कि शंकुन्तला के पुत्र भरत के आधार पर ... ऋग्वेद में शम्बर को कोलितर कहा है ... जिससे कालान्तरण में चम्बर या चमार शब्द वना ... वाद में चर्मकार शब्द से इसे समायोजित कर दिया गया .... जोकि आनुमानिक है .. भारतीय आर्यों नें द्रविडों की सांस्कृतिक विरासत को यथावत् ग्रहण कर लिया कृष्ण आर्य संस्कृति के उद्घोषक नहीं अपितु द्रविड संस्कृति के उद्घोषक थे .. ऋग्वेद दशम् मण्डल मे ६२ वें सूक्त के दशवें श्लोकांश में ...कृष्ण के आदि पुरुष यदु को दास कहा है ... तथा इनके साथ तुर्वसु का भी उल्लेख हुआ है __________देखें उत दासा परिविषे स्मत्दिष्टी गोपरिणषा यदुश्तुर्वसुश्च महामहे ---- ऋ० १०/६२/१० यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों ... दास के रूप में हैं... हिब्रू बाइबिल में इनको यहुद: तथा तुरबर्जू के रूप में वर्णित किया है ! जेनेसिस खण्ड... ------- कृष्ण की गीता यद्यपि द्रविड दार्शनिकता पर आधारित है .. परन्तु उसमें आध्यात्मिक तथ्य तो यथावत है किन्तु इसको लिपिबद्ध करने वाले ब्राह्मण ही थे .... परन्तु ये द्रविड ब्राह्मणों के द्रोहि ही थे .... फिर भी इसमे मिलावट नहीं हुई......... आध्यात्मिक विवेचनाओं के रूप मे तो यह यथावत् ही है ...यूरोपीय सन्दर्भ में अब हम कुछ विचार करें ....जैसा कि कैल्टिक मायथॉलॉजी में है ... "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis). Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 Diodorus Siculus, writing in 36 BCE, described how the druids followed "the Pythagorean doctrine", that human souls "are immortal and after a prescribed number of years they commence a new life in a new body."[29] In 1928, folklorist Donald A. Mackenzie speculated that Buddhist missionaries had been sent by the Indian king Ashoka.[30] ______________________________ This co cept has been edited by Yogesh kumar Rohi ...... ______________________________