रविवार, 28 अप्रैल 2019

नारायणी सेना के गोप

अब की वार कुछ नया अहीरों को सम्मान के लिए प्राय:  कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से
यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।
अर्थात्  वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की  सलाह की ।४७।
अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द  सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।
इसे देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । 
सख्या  प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(  श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।
सम्भवत: यह घटना का समायोजन इस प्रकार है कि
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मत्सहननं तुल्यानाँ , गोपानामर्बुद महत् ।
नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।
नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि 108।
महाभारत के उद्योग पर्व अ०7,18,22,में
जब अर्जुन और दुर्योधन दौनों विपक्षी यौद्धा कृष्ण के पास सहायक मागने के लिए गये तो  श्री कृष्ण ने प्रस्तावित किया कि आप दौनों मेरे लिए समान हो
आपकी युद्धीय स्तर पर सहायता के लिए एक ओर मेरी  गोपों की नारायणी सेना होगी ! और दूसरी और ---मैं  स्वयं नि: शस्त्र  ---जो  अच्छा लगे वह मुझसे मांगलो !
तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप सेना को माँगा ! और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को !
गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही
इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया!
यही कारण था कि गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट किया था ।
क्योंकि नारायणी सेना को ये यौद्धा दुर्योधन को पक्ष में थे ।
और यादव अथवा अहीर किसी को साथ विश्वास घात नहीं करते थे ।
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गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की सुनने और गायन करने से मनुष्यों को सब पार नष्ट हो जाते हैं ।
और यही भाव कदाचित महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा वर्णित किया गया है ।
परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करती है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर वर्णित है ।
अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।

बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये. महाभारत का मूसल पर्व और वाल्मीकि-रामायण का अन्तिम उत्तर काण्ड धूर्त और मूर्खों की ही रचनाऐं हैं।
क्योंकि गायों से गदहा और खच्चरियों से हाथी तथा कुत्तों से विलौटा भी उत्पन्न होते हैं।
व्यजानयन्त खरा गोषु करभा८श्वतरीषु च ।
शुनीष्वापि बिडालश्च मूषिका नकुलीषु च।९।
अर्थात् गायों के पेट से गदहे तथा खच्चरियों से हाथी । कुतिया से बिलोटा ,और नेवलियों के गर्भ से चूहा उत्पन्न होने लगे ।
महाभारत मूसल पर्व द्वित्तीय अध्याय
महाभारत मूसल पर्व में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों
का भी उल्लेख भागवतपुराण के ही समान है ।
किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा:
आभीर शका यवना खशादय :।
येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:। (श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८)
अर्थात् किरात, हूण ,पुलिन्द ,पुलकस तथा आभीर शक यवन ( यूनानी) खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जातियाँ यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ; उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है।
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८
अब महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; एेसा वर्णन है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक  55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१। कि  हे कश्यप  अापने अपने जिस तेज से  प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

निश्चित रूप से भागवतपुराणकार तथा महाभारत का प्रक्षिप्त (नकली) मूसल पर्व लिखने वाले ने -यादवों तथा गोपों अथवा आभीरों के इतिहास को विकृत करने की चेष्टा की है ।
परन्तु पुराणों के द्वारा ही यह भी सिद्ध ही है कि यदु को वेदों में गायों से घिरे रहने वाले गोपालन करने वाला गोप  रूप में सम्बोधन है ।
ऋग्वेद १० /६२/ १०
और गायत्री भी नरेन्द्र सेन आभीर अथवा गोप की कन्या थी ।

वेद की अधिष्ठात्री देवी गायत्री अहीर ( गोप ) की कन्या  और ज्ञान के अधिष्ठाता  कृष्ण भी अहीर( गोप) वसुदेव के पुत्र देखें प्रमाणों के दायरे में ---
पुराणों के आधार पर ---
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पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री को  नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
      सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या
      शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध
देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर और न  असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।
इन्द्र ने तब  उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ? ।८।
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गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो  इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया   कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द । अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं ।
जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है ।
क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह
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  गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।

१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें---
देवी भागवत पुराण :--१०/१/२२ में भी स्पष्टत: गायत्री  आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि में भी  देवताओं का अवतार बताया गया है

" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..
तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।
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आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे  ४०
एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका  ५४
आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः

(इति श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)

ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।

हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; 
क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।

हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
और घोष भी गोपों का प्राचीन विशेषण है ।
द्रोण नन्दो८भवद् भूमौ,  यशोदा साधरा स्मृता ।
कृष्ण ब्रह्म वच: कर्तु, प्राप्त घोषं पितु: पुरात् ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः। यथाह
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )

“इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत!। गवां का-रणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम्। येनांशेन हृता गावःकश्यपेन महात्मना। स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्व-मेष्यति। या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणी। उभे ते तस्य वै भार्य्ये सह तेनैव (यास्यतः। ताभ्यांसह स गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। तदस्य कश्यपस्यां-शस्तेजसा कश्यपोपमः वसुदेव इति ख्यातो गोषु ति-ष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्द्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।
तत्रासौ गोष्वभिरतः कंसस्य करदायकः। तस्यभार्य्या-द्वयञ्चैव अदितिः सुरभिस्तथा।
देवकी रोहिणी चैववसुदेवस्य धीमतः। तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन !।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्द्धयन्ति दिवौकसः। आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले।
देवकीं रो-हिणीञ्चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
तत्रत्वं शिशुरेवादौगोपालकृतलक्षणः।
वर्द्धयस्व महाबाहो! पुरा त्रैविक्रमेयथा॥ छादयित्वात्मनात्मानं मायया गोपरूपया।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।
गाश्च ते र-क्षिता विष्णो! वनानि परिधावतः। वनमालापरिक्षिप्तंधन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।
विष्णो! पद्मपलाशाक्ष!
गोपाल-वसतिङ्गते। बाले त्वयि महाबाहो।
लोको बालत्व-मेष्यति। त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष!
तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततन्तव। वने चार-यतो गास्तु गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायान्तुरतिमाप्स्यन्ति ते भृशम्। जीवितं वसुदेवस्य भविष्यतिसुजीवितम्।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।
अथ वा कस्यं पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते।
का वा धारयितुं शक्ता विष्णो! त्वामदितिं विना।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छत्व विजयाय वै” इति विष्णुं प्रतिब्रह्मोक्तिः।
ताभ्यां तस्योत्पत्तिकथा च तत्र .........
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हे अच्यत् ! वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव के रूप में गोप (अहीर)होकर जन्म लेने का शाप दे दिया ।

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; एेसा वर्णन है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।

"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
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गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक  55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१। कि  हे कश्यप  अापने अपने जिस तेज से  प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य    " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह  आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)
इतना कुुछ शास्त्रीय प्रमाण होने को बावजूद भी
रूढ़ि वादी लोग चिल्ला चिल्ला कर कहते रहते हैं कि
अहीरों को बुद्धि 12 बजे आती है ।
इतना ही नहीं अहीरों के सीधेपन को मूर्खता  सहन शीलता को कमजोरी समझ कर  इनका उपहास उड़ाने वाले भी समाज में चौराहे चौराहे पर खड़े मिल- जाते हैं-----

नि:सन्देह जिस यदु वंश में गायत्री सदृश्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का जन्म नरेन्द्र सेन अहीर के घर में हुआ हो ।
और उन्हीं अहीरों के समाज में कृष्ण का जन्म हुआ हो
फिर अहीरों को मूर्खों की उपाधियाँ क्यों दी गयी ?

अहीरों को पृथ्वी पर ईश्वरीय शक्तियाँ का रूप माना गया है ।
समस्त ब्राह्मणों की साधनाऐं गायत्री अहीरों की कन्या को प्रसन्न करने के लिए हैं ।
अत: अहीर तो ब्राह्मणों को लिए सदैव पूज्य हैं ।

परन्तु अहीरों को द्वेष की दृष्टि से ब्राह्मण समाज द्वारा शूद्र अथवा दस्यु कहना कहाँ तक संगत है  ?

अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
और सुनो !
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित किया  था ।
तो यह दोष ब्राह्मणों का ही है ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।
(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं ।
(ऋ०10/62/10/) 
विशेष:-  व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।

परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)

स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।

गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ

यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय  बहुवचन रूप  अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।

पुराणों में कहीं गोपों को क्षत्रिय कहा गया है तो स्मृति-ग्रन्थों में उन्हीं गोपो को शूद्र रूप में वर्णित कर दिया है ।

अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा  सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: -----------------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। -----------------------------------------------------------------  वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन  करना चाहिए तब शुद्धि  होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।     (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________ (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) -------------------------------------------------------------- स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
_________________________________________ " वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
__________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।

देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
अत:मह् धातु का अर्थ प्रशंसायाम् के सन्दर्भों में नहीं है ।

ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !

दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है ।
---जो  एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है । ---जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं ।
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं ।
दास जन-जाति के विषय में ऐतिहासिक विवरण निम्न है ।
The Dahae (दाहे) , also known as the Daae, Dahas(दहास) or Dahaeans
(Latin: Dahae; Ancient Greek: Δάοι, Δάαι, Δαι, Δάσαι Dáoi, Dáai, Dai, Dasai; Sanskrit: Dasa; Chinese Dayi  大益)
were a people of ancient Central Asia.
A confederation of three tribes – the Parni पणि , Xanthii जन्थी and Pissuri पिसूरी
– the Dahae lived in an area now comprising much of modern Turkmenistan तुर्कमेनिस्तान .
The area has consequently been known as Dahestan, Dahistan and Dihistan.
दाहेस्तान ,दाहिस्तान , दिहिस्तान ।
present-day Turkmenistan
Branches
Parni, Xanthii and Pissuri
Relatively little is known about their way of life. For example, according to the Iranologist
A. D. H. Bivar, the capital of "the ancient Dahae (if indeed they possessed one) is quite unknown."

The Dahae dissolved, apparently, some time before the beginning of the 1st millennium. One of the three tribes of the Dahae confederation, the Parni, emigrated to Parthia (पार्थियन ---जो आधुनिक समय में उत्तर पूर्वीईरान है ।) 
(present-day north-eastern Iran),
where they founded the Arsacid dynasty.

Origins---

The Dahae may be connected to the Dasas  ( Sanskrit दास Dāsa),
mentioned in ancient Hindu texts such as the Rigveda as enemies of the  follower of dev Culture .
The proper noun Dasa appears to share the same root as the Sanskrit dasyu (दस्यु ), meaning "hostile people" or "demons
" The person --- who revolts against the stoic plaintiffs and the injustice of complete social mischief. He was called a  Dacoit दस्यु ( bandit) .

This thesis has been explored by Yadav Yogesh kumar 'Rohi....

अर्थात् वह व्यक्ति जो रूढ़ि वादी तथा अन्याय पूर्ण सामाजिक दुर्व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह करता हो । वह दस्यु  कहा  जाता था।

यही कारण है कि अहीरों ने किसी गुलामी स्वीकार न करके दस्यु बन जाना स्वीकार किया था ।

हर काल में  इतिहास पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर लिखीं गया आधुनिक इतिहास हो या प्राचीन इतिहास या पौराणिक आख्यानकों में अहीरों को (Criminal tribe ) अापराधिक जन-जाति के रूप में दुर्दान्त हत्यारे और लूटेरे ही कहा गया है।
पता नहीं इतिहासकारों की कौन सी भैंस अहीरों ने चुरा ली थी  ।
इतिहास कार भी विशेष समुदाय वर्ग के ही थे ।
अहीरों के विषय में ऐसा ऐैतिहासिक विवरण पढ़ने वाले गधों से अधिक कुछ नहीं हैं।
अहीर क्रिमिनल ट्राइब कदापि  नही हैं अपितु विद्रोही ट्राइब अवश्य रही है ; वो भी अत्याचारी शासन व्यवस्थाओं  के खिलाफ ,
क्योंकि इतिहास भी शासन के प्रभाव में ही लिखा जाता था। और कोई शासक विद्रोहियों को सन्त तो कहेगा नहीं परन्तु जनता क्यूँ सच मान लेती है ये सारी काल्पनिक बाते यही समझ में नहीं आता  ?
ऐसी ऊटपटांग बातें आजादी के बाद यादवों के बारे में वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने ही पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होकर लिखीं ।
परन्तु यथार्थोन्मुख सत्य तो ये है कि यादवों ने ना कभी कोई  अापराधिक कार्य अपने स्वार्थ या अनुचित माँगों को मनवाने के लिए किया हो !
कोई तोड़ फोड़ कभी  की हो !
और ना ही -गरीबों की -बहिन बेटीयों  को सताया हो ।
केवल कुकर्मीयों , व्यभिचारीयों के खिलाफ विद्रोह अवश्य किया, वो भी हथियार बन्ध होकर ,
यादवों का विद्रोह शासन और उस  शासक के खिलाफ रहा हमेशा से , जिसने समाज का शोषण किया ना की आम लोगों के खिलाफ !
जनता को सोचना-समझना चाहिए ! न कि रूढ़ि वादी लोगो के कहने पर विश्वास करने चाहिए
जिस प्रकार से आज समाज में अहीरों के खिलाफ सभी रूढ़ि वादी समुदाय एक जुट हो गये हैं ।
यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है ।
क्योंकि अहीरों को कभी कोई परास्त नहीं कर पाया ।
चाहें वह महा यौद्धा अर्जुन हो अथवा ब्राह्मणों के द्वारा कल्पित मनगढ़न्त कथा के राम ---जो निर्जीव, जड़ ,चेतना हीन समु्द्र के कहने पर उत्तर दिशा में स्थित द्रुमकुल्य देश में अहीरों को अपने अमोघ वाण से भी नहीं मार पाए ।

    
                      जय श्री कृष्णा !