गुरुवार, 27 जुलाई 2023

गाय , भैंस और अहीरों का वर्ण वैष्णव-

"गोमहिष्यादि यत्किञ्चित्तत्सर्वं कर्षयेतन्नृपते न वस्त्रादिभि: सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत्।२५०। 
- महर्षि पुलस्त्य भीष्म को सतयुग के प्राचीन इतिहास की बात बताते हैं । और  इसी ऐतिहासिक संवाद को सूत जी राजा जनमेजय को सुनाते हैं ।
अतः यहाँ नृपते ! इस पद का सम्बोधन कारक में प्रयोग हुआ है - और इस श्लोक मेंं गाय के साथ महिषी( भैंस) शब्द भी विचारणीय है कि सतयुग में भी आभीर जनजाति के लोग गाय-भैंस दोनों ही सजातीय पशुओं को पालते थे ।

अर्थ– गाय भैंस जो कुछ भी है वह सब वस्त्रादि से सुसज्जित करके तोरण –अर्थात् (बहिर्द्वार) पर प्रतिष्ठित करें।
विशेषतः वह द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार तथा मालओं और पताकाओं आदि से सजाया गया हो । 
प्राय: शोभा या सजावट के लिए बनाए जाने वाला अस्थायी स्वागत-द्वार होते थे। 

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का दो सौ पचासवाँ श्लोक ) गाय और भैंस की समान रूप से प्रशंसा करता है ।
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गाय और भैंस सदैव यादवों की पाल्या ( पालने योग्य) रहीं थीं और भारतीय पुराणों में दोैनों पशुओं को सजातीय और सुरभि गाय की सन्तान कहा गया है जो सुरभि भगवान कृष्ण के वाम भाग से ही गोलोकधाम उत्पन्न हुई थीं। इस लिए भी गाय भैंस का गोपों से सनातन सम्बन्ध है।
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महाभारत का खिलभाग (हरिवंशपुराण) में भी गोवर्धन प्रकरण में गोवर्धन- यजन समारोह के अवसर पर जो पशु  जैसे महिषी( भैंस) आदि भोजन करने योग्य थे  उनका पूजन किया और समस्त गोप समुदाय को  उनकी पूजा में जुट जने का आदेश कृष्ण के द्वारा  दिया गया था। 
देखें हरिवंश पुराण का निम्न श्लोक-
"विशस्यन्तां च पशवो भोज्या  ये महिषादयः। प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ।१५।
शब्दार्थ:- विशस्यन्तां=   अभ्यर्चना की जाए ।  च= और।  ये महिषादयः   भोज्या= जो भैंस गाय आदि पशु  हैं जिन्होंने अभी भोजन नहीं किया है अर्थात् जो भोजन करने योग्य है उन्हें भोजन कराय जाए। प्रवर्त्यतां= प्रारम्भ किया जाए। यज्ञोऽयं = यह यजन कार्य। सर्वगोपसुसंकुलः = सभी गोप समुदाय ।

(हरिवंश पुराण विष्णु पर्व 17 वा अध्याय)

प्रसंग - इन्द्र की यज्ञ बन्द कराकर कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत का यज्ञ कराया था उसका ही यहाँ वर्णन है।
अर्थ-
भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उनकी बड़ी अभ्यर्चना (सम्मान सत्कार) करें और साथ ही उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस गोवर्द्धन गिरि की  यज्ञ का आरम्भ किया जाये।१५।
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महिषी की कभी पूज्या रही होगी इसी कारण से प्राचीन काल में पौराणिक ऋषियों ने इसको महिषी संज्ञा दी होगी -क्योंकि महिला" महिमा" और महिमान्य जैसे शब्द (मह्=पूजा करना)धातु से व्युत्पन्न हैं। महिषी शब्द भी इसी मह्= पूजा करना! धातु से उत्पन्न है।
 
मंहति पूजयति लोका तस्या: इति महिषी नाम: ख्यातो" के रूप में इस शब्द की व्युत्पत्ति (महि + “ अधिमह्योष्टिषच् / ड़ीष् )  “ उणादि सूत्र से मह्=पूजायाम् धातु में "टिषच्" और स्त्रीलिंग में "ड़ीष्" प्रत्यय लगाने से महिषी शब्द सिद्ध होता है । १ । ४६ । स्वनामख्यातपशुविशेषः । 
सन्दर्भ•
(हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व के १७ वाँ अध्याय )

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और अन्यत्र भी ब्रह्मपुराण के अध्याय (190) के अन्तर्गत कंस -अक्रूर संवाद में कंस अक्रूर जी को गोकुल में नन्द के पास कृष्ण और बलराम को अपने साथ लाने के लिए तथा गोपों से महिषी ( भैंस) के उत्तम घृत और दधि को उपहार स्वरूप पाने की बात कहता है । देखे वह श्लोक-

"तदा निष्कंटकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीरगम्यताम् ।२१।
यथा च माहिषं सर्पिर्दधिचाप्युपहार्य वैै।
गोपास्समानयंत्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२।

यही श्लोक विष्णु पुराण में भी है।
"तदा निष्कण्टकं सर्वंराज्यमे तदयादवम्। प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीर गम्यताम्।। २१। श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५)
"यथा च महिषीं सर्पदधि चाप्युपहार्य वै ।             गोपास्समानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२। 
श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५ )
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ये ही श्लोक ब्रह्म पुराण के १९० वें अध्याय में कुछ अन्तर के साथ हैं ।

ततो निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्या वीर गम्यताम्।। १९०.१८ ।।

यथा च महिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
गोपाः समानयन्त्याशु त्वया वाच्यास्तथा तथा।। १९०.१९ ।।
{-ब्रह्मपुराणअध्याय-(१९०)

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अर्थ-
तत्पश्चात आपके अतिरिक्त ( अक्रूर) समस्त गोकुल वासी यादवों के बध का उपक्रम करुँगा ।  तब सम्पूर्ण राज्य का शासन आप की कृपा से  निष्कण्टक होकर कर भोग सकुँगा ।   हे वीर मेरी प्रसन्नता के लिए आप गोकुल जायें और वे गोप जल्दी ही भैंस का सर्पि (घी) और दहि आदि उपहार स्वरूप लेकर आयें  आप उनसे ऐसा कहना।१९।।
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विष्णु पुराण में पाराशर वक्ता हैं तो ब्रह्म पुराण में व्यास जी को वक्ता बना दिया गया है ।

                श्रीपराशर उवाच
इत्याज्ञप्तस्तदाऽक्रूरो महाभागवतो द्विज
प्रीतिमानभवत्कृष्णं श्वो द्रक्ष्यामीति सत्वरः ।२३।

तथेत्युक्त्वा च राजानं रथमारुह्य शोभनम्
निश्चक्राम ततः पुर्य्या मथुराया मधुप्रियः ।२४।
 (श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५ )

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ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वाँ श्लोक में गाय और भैंस दौनों बहिनों की उत्पत्ति एक ही माता से हुई है ।

सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा।
सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चितम्।१७।

ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय नवम का १७ वाँ श्लोक  तथा इसी अध्याय नवम का ४६ वाँ श्लोक भी है इसी तथ्य को सूचित करता है ।
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"गावश्चमहिषाश्चैवसुरभि प्रवरा इमे।
सर्वे वै सारमेयाश्च बभूवुः सरमासुताः।४६।

जो सिद्ध करते हैं की गाय और भैंस सजातीय और सहोदरा( सगी) बहिनें हैं ।

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और चमत्कार तो तब हुआ जब भैंस की प्रतिष्ठा गाय से भी बढ़कर हुई ।
नारद पुराण का निम्न श्लोक यही प्रकाशित करता है ।
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महिषीदो जयत्येव ह्यपमृत्युं न संशयः
गवां तृणप्रदानेन रुद्र
 लोकमवाप्नुयात्।११२।
(नारद पुराण पूर्वार्ध १३ वाँ अध्याय)
अर्थ-
महिषी दान करने से अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है इसमें कोई संशय नहीं और गाय को चारा देने से रूद्र (शिव) लोक की प्राप्ति होती है ।
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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (प्रकृतिखण्डः) अध्यायः ४६ में वर्णन है कि सुरभि गाय जो विश्व की समस्त गाय और भैंसों की माता है उसका प्रादुर्भाव (जन्म) भी कृष्ण के गोलोक धाम में कृष्ण के वामांग (बायें अंग ) से हुई है देखें निम्न श्लोक-
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              ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
            खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)
                    "नारद उवाच"
का वा सा सुरभी देवी गोलोका दागता च या ।।
तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।१।
                  "नारायण उवाच" 
गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः ।।
गवां प्रधाना सुरभी गोलोके च समुद्भवा ।। २।


यही सुरभि से सम्बन्धित श्लोक यथावत देवीभागवत पुराण में भी प्राप्त होते हैं देखें निम्न श्लोक
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देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः(०९) अध्यायः (४९)
     देवीभागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः ०९
         सुरभ्युपाख्यानवर्णनम्

                'नारद उवाच'
का वा सा सुरभिर्देवी गोलोकादागता च या ।
तज्जन्मचरितं ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि यत्‍नतः ॥ १ ॥

             "श्रीनारायणाय उवाच"
गवामधिष्ठातृदेवी गवामाद्या गवां प्रसूः ।
गवां प्रधाना सुरभिर्गोलोके सा समुद्‍भवा ॥ २ ॥

(देवीभागवतपुराणनवम स्कन्ध उनपचास वाँ अध्याय)

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ततः सर्वदशार्हाणामाहुकस्य 
च याः स्त्रियः।
नन्दगोपस्य महिषी यशोदा लोकविश्रुता।।
इतना ही नहीं नन्द की पत्नी का भी नाम यशोदा था और उनकी एक भैंस का नाम भी यशोदा था जो संसार में प्रसिद्ध थी ।
(2-59-1 महाभारत सभापर्व )
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जघान सहितान्सर्वानङ्गराजं च माधवः।।
एष चैव शतं हत्वा रथेन क्षत्रपुङ्गवान्।
गान्धारीमवहत्कृष्णो महिषीं यादवर्षभः।।
गाँधारी ने कृष्ण को शाप दिया कदाचित् श्लिष्ट अर्थ में भैसों और उनकी मुख्य रानीयों को लक्ष्य करके महिषी शब्द का प्रयोग किया है।-
( 2-61-13 महाभारत सभापर्व इकसठवाँ अध्याय)

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महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः।।
(2-57-31)महाभारत सभापर्व
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महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
प्रसादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः।।
(2-57-32 ) महाभारत सभापर्व

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वासुदेव राजा अवश्य थे परन्तु लोकतान्त्रिक प्रणाली से इसी लिए राजा शब्द का प्रयोग उनके लिए हुआ अन्यथा ययाति के शाप के परिणाम स्वरूप यदु वंश में कभी किसी ने पैत्रिक राजसत्ताको अधिग्रहण किया हो  यह सम्भव नहीं है ? अत: राजा शब्द यदुवंश के शासकों को एक दो बार ही प्रयुक्त है देखें वराह पुराण का ४६ वाँ अध्याय का छठवाँ श्लोक भी-

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वसुदेवोऽभवद् राजा यदुवंशविवर्द्धनः ।
देवकी तस्य भार्या तु समानव्रतधारिणी  ।४६.६।

इति श्रीवराहपुराणे भगवच्छास्त्रे षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ।। ४६ ।।
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यादवों द्वारा भैंसे के पालने का द्वारिका में वर्णन

महाभारत के सभापर्व के प्रथम अध्याय में दक्षिणात्य प्रति में श्लोक है जो द्वारिका में यादवों द्वारा गाय के साथ भैंस पालने का भी विवरण देता है ।
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बभूवु: परमोपेता: सर्वे जगति पर्वता: तत्रैव  गजयूथानि तत्र  गोमहिषास्तथा निवाश्च कृतास्तत्र वराह मृगपक्षिणाम् ।।
अनुवाद:-
उस गृहोद्यान में जगत के सभी श्रेष्ठ पर्वत अँशत: संग्रहीत हुए हैं । 
वहाँ हाथियों यूथ तथा गाय भैंसों के समूह भी रहते हैं वहीं वराह और मृग तथा पक्षियों के रहने योग्य निवास भी बनाये गये ।

वास्तव में वराह सूकर से भिन्न होता है इसे विष्णु का रूप मानकर पूजा भी की जाती है ।
परन्तु सूकर पूजा का कहीं विधान नहीं हैं 
देखे वरापुराण-
और ये उद्यान को रखाने के लिए रखे जाते थे। इनके दान्त होते थे  जबकि सूअर के दाँत बाहर नहीं होते हैं।
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अब लक्ष्मीनारायणसंहिता‎
खण्डः १(सतयुगसन्तानः)अध्यायः ४३१  में वर्णन है कि - 

               "श्रीनारायण उवाच-
गोमहिष्यादि यच्छ्रेष्ठं नष्टं पशुधनं हि तत् ।
अजाविकं समस्तं च वन्यं मृगादिकं तथा ।५।
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अनुवाद:-
गाय" महिषी (भैंस) आदि जो श्रेष्ठ पशु धन  और बकरी भेड़ और हिरण आदि थे  वह सब लुप्त हो गये

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भविष्यपुराण के ब्रह्म खण्ड में  गाय और भैंस की पूजा करते हुए वर्णन किया गया है ।

"दिव्यं नीराजनं तद्धि सर्वरोगविनाशनम् ।
गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं भूषयेन्नृप ।२५।

(भविष्य पुराण ब्रह्म पर्व का अठारह वाँ अध्याय)
अनुवाद:-
राजन् ! गाय और भैंस को सज्जित करके तथा दिव्य- दीप-आरती करने से जो कुछ भी रोग आदि है वह सब नष्ट हो जाता है ।
(पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह)  में वर्णन है।
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गोमहिष्यादि यत्किंचित्तत्सर्वं कर्षयेन्नृप ।
तेन वस्त्रादिभिः सर्वैस्तोरणं बाह्यतो न्यसेत् ॥ २५० ॥ (पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह का 250वाँ श्लोक)

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इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि प्रतिपत्कल्पसमाप्तिवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ।१८।
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ब्राह्मण" अजा के सजातीय और सहजन्मा होने से बकरी के परिवार के ही हैं इसी लिए प्राचीनतम ग्रन्थों में ब्राह्मण बकरी ही पालते थे गाय तो बाद में पालने लगे थे 
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                      "रूद्रोवाच- 
तेषां धनं च पुत्राश्च दासीदासम् अजा अविकम्
कुलोत्पन्नाश्च वै नार्यो मयि तुष्टे भवन्विह।७४।
अनुवाद:-
उन ब्राह्मणों के यहाँ धन' पुत्र' दासी' दास' बकरी भेड़ आदि पशु हों  मेरी कृृृृपा से उनके यहाँ कुलीन (सदकुुुल) में उत्पन्न नारियाँ भी हों ।७४। 
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड (अध्याय सत्रह)
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ऋग्वेद में महषी का वर्णन है।
कमेतं त्वं युवते कुमारं पेषी बिभर्षि महिषी जजान।
पूर्वीर्हि गर्भः शरदो ववर्धापश्यं जातं यदसूत माता ॥२॥

हिरण्यदन्तं शुचिवर्णमारात्क्षेत्रादपश्यमायुधा मिमानम् ।
ददानो अस्मा अमृतं विपृक्वत्किं मामनिन्द्राः कृणवन्ननुक्थाः ॥३॥

क्षेत्रादपश्यं सनुतश्चरन्तं सुमद्यूथं न पुरु शोभमानम्।
न ता अगृभ्रन्नजनिष्ट हि षः पलिक्नीरिद्युवतयो भवन्ति ॥४॥
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के मे मर्यकं वि यवन्त गोभिर्न( गोभि:) येषां गोपा अरणश्चिदास ।
य ईं जगृभुरव ते सृजन्त्वाजाति पश्व उप नश्चिकित्वान् ॥५॥

उपरोक्त ऋचाओं महिषी और गोप शब्द सूचित करते हैं कि यहा प्रकरण पशुपालक गोपों से ही सम्बन्धित है ।
भले सायण ने इसका भाष्य करते हुए महिष को राक्षस रूप में मान्य किया हो 
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कम् । एतम् । त्वम् । युवते । कुमारम् । पेषी । बिभर्षि । महिषी । जजान ।

पूर्वीः । हि । गर्भः । शरदः । ववर्ध । अपश्यम् । जातम् । यत् । असूत । माता ॥२

अत्राग्नेरुत्पाद्यमानत्वात् कुमारशब्देन व्यवहारः । हे "युवते =“त्वं "कमेतं= "कुमारं "पेषी =हिंसिका पिशाचिका सती “बिभर्षि । एवं वृशाख्यो महर्षिः कशिपुनाच्छन्नम् अग्नेर्हरो ब्रूते । त्वयानुत्पादितत्वात् धारणमनुचितमित्यर्थः। "महिषी= महती पूजनीयारणिः एनं "जजान अजनयत् । तदेवाह। "गर्भः शिशोर्ग्राहकोऽरण्याः संबन्धी गर्भः “हि यस्मात् "पूर्वीः "शरदः गताननेकान् संवत्सरान् "ववर्ध ववृधे । अहं च ततो "जातम् "अपश्यम् । "यत् यस्मात् "माता अरणिः "असूत उदपादयत् । राजकुमारपक्षे हे युवते भूदेवि कमेतं कुमारं पेषी सती बिभर्षि । अवशिष्टं कुमारजननपरतया योज्यम् । एवमुत्तरत्रापि कुमाराग्निहरसोः परत्वेन यथोचितं व्याख्येयम् ॥
ऋग्वेद ५/२/२   सूक्त/ऋचा
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वधूरियं पतिमिच्छन्त्येति य ईं वहाते महिषीमिषिराम्
आस्य श्रवस्याद्रथ आ च घोषात्पुरू सहस्रा परि वर्तयाते ॥३॥

न स राजा व्यथते यस्मिन्निन्द्रस्तीव्रं सोमं पिबति गोसखायम् ।
आ सत्वनैरजति हन्ति वृत्रं क्षेति क्षितीः सुभगो नाम पुष्यन् ॥४॥

वधूः । इयम् । पतिम् । इच्छन्ती । एति । यः । ईम् । वहाते । महिषीम् । इषिराम् ।
आ । अस्य । श्रवस्यात् । रथः । आ । च । घोषात् । पुरु । सहस्रा । परि । वर्तयाते ॥ ३ ॥

"इयं “वधूः इन्द्रस्य पत्नी पतिमिच्छन्ती स्वप्रियं यज्ञगमनाय प्रवृत्तमिच्छन्ती “ऐति अनुगच्छति । “यः “इन्द्रः "ईम् एनां 
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“महिषीं “महाते =वहति “इषिरां =गमनवतीम् “अस्य= इन्द्रस्य “रथः इन्द्र के गमन करते हुए रथ को वहन करने वाली महिषी  को

अर्वागस्मदभिमुखं “श्रवस्यात् अन्नमिच्छति । “आ “च “घोषात् आघुष्यति । शब्दयति । “पुरु अत्यधिकं “सहस्रा सहस्राणि धनानि “परि परितः "वर्तयाते वर्तयति । प्रापयति । श्रवस्यादा च घुष्यादिति वा ॥

ऋग्वेद-संहिता
५/३७/३
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महिषी -
महिषी शब्द संस्कृत भाषा में मह् = पूजायाम् (पूजन के अर्थ में) है धातु पाठ में (१/४८५ तथा १०/२९२ यह धातु उभयपदीय है ।
 उ० महयति अर्थात् मह् धातु में संज्ञा भाव में "टिषच् " प्रत्यय तथा स्त्री लिड़्ग भाव में "टाप् "प्रत्यय लगाने से बनता है ।

जिसकी पूजा या महिमा सर्वत्र है अर्थात्
( महयति पूजयति यस्माय सा महिषी )और हम सब आज भी भैंस का सबसे अधिक दूध पीते हैं ! और हमने जिसका एक वार दूध पी लिया वह हमारी वस्तुतः माता ही है।

इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं क्योंकि माता निर्माता भवति भैंस दूध से ही शरीर का पोषण होता है । हमने रूढ़िवादी लोगों की कुसंगति करके सत्य का कभी मूल्यांकन ही नहीं किया
सरे आम हम एहसान फरामोश और आँखों पर परदा डाले खामोश बने रहे ।

परन्तु तेरा सत्यानाश हो ! स्वार्थ
आज भौतिकता की चकाचोंध अन्धा व स्वार्थ प्रवण होकर हम कितने भ्रान्त,क्लान्त अशान्त व ,रोगी और अल्प आयु होते चले आ रहे हैं ! 
क्योंकि अब भैंस के मस्तिष्क वर्धक मस्तुम( मट्ठा) को सेवन नहीं कर पाते हैं ।

परन्तु फिर भी हमने कभी एक क्षण भी रुक कर,धैर्य पूर्वक अपने इस जीवन की विकृत प्रवृत्तियों का तनिक भी निश्पक्ष दृष्टि से आत्म कल्याण की भावना से ,निरीक्षण नहीं किया है ? और हम अपनी अन्तरात्मा की सात्विकता के साथ निरन्तर व्यभिचार करते रहे ,जीवन के समग्र नैतिक मूल्यों का भौतिकता की ध्वान्त वेदी पर हमने हवन कर दिया है ,और आज भी" " अज्ञान की दीर्घ कालिक तमस् निशा में समय के पथ पर कभी मूर्छित हो और कभी ठोकरें खाकर जीवन की गाड़ी को घसीट रहे हैं !

हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतनाऐं " " अन्धविश्वास और रूढि वादिता की गिरफ्त में आज दम तोड़ रहीं है ।
आज हम धनवान् होते हुए भी निर्धन हैं क्यों ? कि हमारी संस्कृति की फ़सल उजड़ गयी ,हमारा चरित्र रूपी वित्त(धन)भी लुट गया ,हमारे पास अब कोई अक्षय सम्पत्ति नहीं बची है !!! 

हमने अपने आप को लुटने दिया ,मिटने दिया !! इतना ही नहीं हमने अपनी उस माता को भी नीलाम कर दिया ,जिसने हम्हें जीवन दिया था .......
वह माता जो निर्माण करती है ,जीवन के हर पक्ष का "माता निर्माता भवति" के पवित्र भाव को हम विस्मृत कर बैठे , गो और भैंस हमारी माताएें हैं माता (माँ) माननीय ,सम्माननीय ही नहीं,हमारे जीवन का सर्वथा आधार भी है | 

प्राचीन काल में गौ (cow ) विश्व संस्कृति की आत्मा थी प्राचीन मैसोपोटामिया अर्थात् आज का ईराक की सुमेरियन संस्कृति में गौ (🐂🐂🐂) एक पवित्र पशु था और सुमेरियन गाय की पूजा करते थे।
आर्य संस्कृति की सम्वाहक भी गाय थी ; परन्तु गौ की महानता को आधार मानकर आर्यों में ही पश्चिमीय एशिया के धरातल पर एक विभेदक रेखा खिंच गयी यद्यपि पवित्र तो गाय को दौनों शाखाऔं ने माना ,परन्तु उनकी पवित्रता के मानक भिन्न भिन्न थे | 
भारतीय ऋषियो के ग्रन्थ ऋग्वेद-१०/८६/१४ पर तथा १०/९१/१४पर भी तथा १०/७२/०६ पर भी देवों की वलि के लिए गौ वध के उद्धरण हैं वाजसनेयी संहित्ता तथा तैत्तीरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मणों के द्वारा गौ-मेध के पश्चात् गौ मांस भक्षण का उल्लेख भी है इतना ही नहीं बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ग्रन्थ मनुस्मृति में भी ब्राह्मणों द्वारा बलि के पश्चात् बहुतायत से मांस खाने का उल्लेख है।

 "यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याःप्रशस्ता मृगपक्षिणाः मनुस्मृति (५/२३ ) अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं !!!

अतः मनुस्मृति में ब्राह्मणों द्वारा पशुओ का वध करके मांस खाने का जिक्र बहुत से स्थलों पर है | परन्तु फिर भी ब्राह्मणों में ही परस्पर पशुओं की बलि (मेध) को लेकर वैचारिक भिन्नताऐं थी उपनिषद कालीन ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु वध के सशक्त विरोधी भी थे ।

वस्तुतः वह गौः ही थी जो हमारे जीवन के भौतिक (सभ्यता परक )और आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दौनो ही पक्षों को गति प्रदान करने वाली रही है और आज भी है ! 

यह तथ्य अब भी प्रासंगिक है स्वयं गौः शब्द का व्युत्पत्ति परक ( etymologically) विश्लेषण इसी तथ्य का प्रकासन करता है

 "गम्यते निर्भयेन अनेन इति गौः :- जिसके द्वारा निर्भय होकर गमन किया जाऐ " गम् धातु में संज्ञा करण में " डो" प्रत्यय करने पर गौः शब्द बनता है।
गाय प्राचीन काल मैं निर्भय होकर गमन करती थी आज गाय की इस प्रवृत्ति के अनुकूल परिस्थतियाँ नहीं रह गयीं हैं ।
आज गाय का जीवन संकट ग्रस्त है ।
.🌴🌱 विश्व की माता गाय --गावो विश्वस्य मातरः आज विपत्ति में भटक रही है गौः सृष्टि का प्रथम पाल्य पशु है !! 

भारोपीय ( भारत और यूरोप ) वर्ग की सभी भाषाओं में गौः शब्द अल्प परिवर्तन के साथ विद्यमान है ।

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 संस्कृत गौः ईरानी भाषा में (गाव) के रूप में है तो जर्मन भाषा में (कुह kuh) पुरानी अंग्रेजी में (कु ku) इसी का बहुवचन रूप काइ (cy) या काँइनस् शब्द बना ( coins) = सिक्के फ्राँस भाषा में काँइन coin = बिल्ला - वेज़ जिससे सटाम्प मनी (money) को रंगा जाता था यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में क्वनियस् ( cuneus) = wedge बिल्ला , जर्मन भाषा से निकली हुई मध्य इंग्लिश में यह शब्द क्येन( kyen) आयर्लेण्ड की भाषा में यह शब्द बहुवचन रूप में काँइन है।

अर्थात् बहुत सी गायें काँइन coin शब्द आज धन ,मुद्रा पैसा आदि के अर्थ में रूढ़ है !!!

 Coin कॉइन अंग्रेजी शब्द पाइस ( piece) समान अर्थक है ।
💰 और यह इतिहास का एक प्रमाणित तथ्य है कि प्राचीन विश्व में हमारी व्यापारिक गतिविधियों का माध्यम प्रत्यक्ष वस्तु प्रणाली थी अर्थात् वस्तुऔं की आपस में अदला बदली थी यह गौः नामक पशु ही हमारी धन सम्पदा थी।

संस्कृत पशु शब्द का ग्रीक (यूनानी) भाषा में पाउस ( pouch) रूप है।

 पुरानी अंग्रेजी में यह शब्द फ्यू ( feoh) = पोए है जर्मन भाषा में यह शब्द वीह( vieh) है पुरानी नॉर्स में ,फी, रूप है जो बाद में फ़ीस ( शुल्क) हो गया थी वास्तव में गाय और भैंस दूर के रिश्ते में सगी वहिनें थीं।

 अतः दौनो ही पूज्या मौसी और माताऐं है यह कोई उपहास नहीं वल्कि सत्य कथन है यह शोध भाषा विज्ञान ( philology) और प्राचीन विश्व संस्कृति के विशेषज्ञ योगेश कुमार रोहि के द्वारा किया गया है।

 जो कि प्रमाणौं के दायरे में है उन्होने प्रमाणित किया कि भूमध्य रेखीय दक्षिणा वर्ती भूस्थलों में जब आर्यों का स्कैण्डीनेविया ( बाल्टिक सागर) की ओर से प्रथम आगमन हुआ तब उन्होने गाय के समान जिस काले विशाल पशु को देखा उसे महिषः(🐃कहा अर्थात् महि = गाय क्यों कि गाय पूजनीया थी मह् = पूजा करना धातु मूलक शब्द है महि और महि के समान होने से भैंस भी महिषी कह लायी थी महिषी रूप प्राचीन मैसो- पोटामिया की सैमेटिक शाखा असीरी संस्कृति का सम्वाहक था जिसे पुराणों में असुर कहा है |
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ग्रीक ( यूनान) के आर्यों ने महिषी ( भैंस को बॉबेलॉस ( Boubalos) कहा ,तथा इटालियन भाषा में यह शब्द बुफैलॉ ( buffalo) है जिसका अर्थ होता है गाय के समान ग्रीक भाषा में बॉस् 
( bous ) का अर्थ है गौः भारोपीय भाषा ओं म, "ब," वर्ण कभी कभी " ग" रूप म में परिवर्तित होता है ,जैसे जर्मन में वॉडेन woden से गॉडेन शब्द बना और फिर गॉडेन से गॉड god शब्द बना है।

सांस्कृतिक द्वेष के कारण भी गौः शब्द का अर्थ पूज्य व भगवती के रूप में रूढ़ भी हुआ| 
और महिषी का भोग परक अर्थ हुआ जैसे राजा की पटरानी, दासी ,सैरन्ध्री तथा व्यभिचारिणी स्त्रीयों को महिषी की संज्ञा दी गयी इतिहास में प्रमाण है कि पुराने समय में पारसी जरत्उष्ट्रः के अनुयायी भी गाय की पूजा करते थे।

 इतना ही नही इस्लामीय शरीयत में भी गाय के पूज्य व महान होने का प्रमाण है।
 ...देखें बुख़ारी की हदीस "कंसुलअम्बिया पृष्ठ १५/ हदीसी व़ाकयात इस प्रकार है।

कि "जिब्राईल फरिश्ता ख़लीक़ सलल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत मोहम्मद को बताते हैं कि फिरदौस( paradise ) 
जिसे वेदौं में( प्रद्यौस् )भी कहा है उस फिरदौस में एक गाय जिसके सत्तर हजार सींग हैं ,जिसके सींग ज़मीन में गढे हुए हैं और वह गाय मछली की पीठ पर खड़ी है अगर वह तनिक हिल जाय तो सारी का़यनात नेस्तनाबूद हो जाय ।

भारतीय पौराणिक मान्यता के अनुसार पाताल के जल पर खडी़ हुई जिस गौ के सींग पर पृथ्वी खण्ड टिका है वस्तुतः यह वर्णन प्रतीकात्मक ही है। और इन धारणाओं का श्रोत प्राचीन सुमेरियन संस्कृति है।

इस्लामीय शरीयत मैं जो ""व़कर ईद़"" शब्द है वह सुमेरियन है जैसे आदम ,तथा नूह और नवी शब्द भी है अरबी भाषा में पहले वक़र ईद़ का अर्थ गाय की पूजा था । 

अरबी में वक़र शब्द का एक अर्थ है "" महान "" संस्कृत भाषा में वर्करः गाय तथा बकरी का वाचक भी  है।

कृष्ण हों, अथवा ईसा या ,फिर मोहम्मद गाय की महानता का सभी ने बख़ान किया है परन्तु प्राक् इतिहास के कुछ काले पन्ने भी थे गौ की महत्ता को आधार मान कर पश्चिमीय एशिया में आर्यों की दो विरोधी संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं ऋग्वेद में अतिथि का वाचक गौघ्न =गां हन्ति तस्मै =उसके लिए गाय मारी जाय जो अतिथि आया हुआ है। आरे ते गौघ्नयुत पुरूषघ्नं क्षयत्वीरं सुम्न भस्मेते अस्तु त्रग्वेद ० १/११४/१० इतना ही नहीं वेद में अतिथि का वाचक गविष्टः शब्द भी आया है "प्रचिकित्सा गविष्टौः ऋग्वेद:- ६/३१/३ तथा युध्यं कुयवं गविष्टोः अग्रेजी में यही शब्द गैष्ट (guest) बन गया है।

अर्थात् गाय जिसके लिए इष्ट (इच्छित) हो वह गविष्ट वास्तव में शब्द संस्कृतियों के सम्प्रेषक होते हैं अथर्ववेद में गौ वध करने बालों को कहा है  कि यदि गौ हन्ता कहीं मिल जाय तो उसे मार दो ? ! यदि नो गाम् हंसि तम् त्वा सीसेन वध्यामो ऋग्वेद:-१/१५/५ 

"
प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत । 
तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम । 
ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।। 
तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।। 
मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता। 
अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
 (तैत्तिरीयसंहिता--७/१/१/४/)।👇 ____________________________________________
 अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं। 

( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए । ये उनके पारिवारिक सदस्य हैं।
_______ 
हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ। (भेड़ क्षत्रियों की सजातीय है इन्हें भेढ़  पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए। इसी लिए भेड़ मेढ्र कहा जाता है मेढ़े को । 
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए इनकी संख्या बहुत है । 
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए। 
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।

पीछे अनुष्टुप छन्द वैराज साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए ।
यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है ।
क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए। 


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ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) 
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ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। 
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं और वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति भी है इस संसार में है ।४३।

उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।

गोपों को ही पुराणों में आभीर और यादव कहा गया है परन्तु आभीर एक जनजातीय नाम है अहीर जाति का वर्णन सतयुग त्रेता और द्वापर तथा कलियुग तक मिलता है सबसे बड़े और प्राचीन पुराण पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में अध्याय द्वादश से लेकर सप्तदश अध्याय तक यदुवंश का वर्णन है परन्तु अध्याय सप्तदश में उस प्राचीन काल का वर्णन है जब जातीयों का भी प्रादुर्भाव नहीं हुआ था परन्तु वेदों की अधिष्ठात्री देवी माता गायत्री को आभीर या गोप कन्या के रूप में वर्णन किया गया है तथा जब इसी समय ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री विवाह यज्ञ के आयोजन कर्ता देवता शिव विष्णु और देवताओं की पत्नियों को क्रोधित होकर शाप देती है तो इन्द्र की पत्नी शचि को पुरुरवा के पौत्र आयुस् के पुत्र नहुष की पत्नी बन जाने का शाप देती हैं तो इसका कारण तो यही है कि उस समय तो नहुष के पुत्र ययाति के पुत्र यदु भी जन्म नहीं होता है और ये भविष्य के गर्त में समाहित है परन्तु आभीर जाति उस समय भी अच्छे व्रत और आचरणों की ज्ञाता( सुवृतज्ञ) रूप में वर्णित है और विष्णु गायत्री का कन्या दान करने वाले हैं । 

तभी सभी अहीरों को वरदान देते हैं कि मैं देव कार्य की सिद्धि के लिए तुम्हारी जाति के यदुवंश में नन्दादि के अवतरण ते समय जन्म लुँगा और इसी कारण से योगमाया को यादवी तथा गायत्री माता को यदुवंशसमुद्भवा (यदुवंश में उत्पन्न होने वाली) कहा गया है देवीभागवतपुराण में गायत्रीसहस्र नामों में वास्तव में दुर्गा गायत्री राधा आदि सभी वैष्णव शक्तियाँ ही थी। 
वेदों में विष्णु को गोप ' गोविद / गोविन्द रूप में वर्णन यही सिद्ध करता है कि विष्णु गोपों के ही सनातन देवता हैं और इनका अवतरण भी गोपों के उद्धार के लिए ही होता है ।
और फिर गोपों की किसी से तुलना वर्चस्व के स्तर पर कदापि नहीं क्यों कि नारद पुराण में वर्णन है कि  ब्रह्मा विष्णु और महेश जैसे देव त्रयी के देवता भी गोपों की चरणधूलि को प्राप्त करना अपना सौभाग्य मानते हैं ।

क्या ब्राह्मण की चरणधूलि भी ये देवता लेते हैं सायद नहीं ! 
गाय भैंस सजातीय पशु हैं जिन्हें आदि काल से आभीर लोग पालते रहे हैं ।

यद्यपि कालांतर में कुछ द्वेष वादी पुरोहितों ने 
गोपों की उत्पत्ति एक वर्णसंकर जाति के रूप में ही मनु स्मृति में लिपिबद्ध करादी - परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखा है कि गोप विष्णु के रेमकूपों से उत्पन्न होने के कारण वैष्णव वर्ण के होते हैं। 
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ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय (१०) के निम्न श्लोक बहुत परवर्ती काल के हैं।
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काश्यपः कश्यपाज्जातो भरद्वाजो बृहस्पतेः।
(स्वयं वात्स्यश्च पुलहात्सावर्णिर्गौतमात्तथा।१२ ।।
शाण्डिल्यश्च रुचेः पुत्रो मुनिस्तेजस्विनां वरः।)
बभूवुः पञ्चगोत्राश्च एतेषां प्रवरा भवे ।१३।
बभूवुर्ब्रह्मणो वक्त्रादन्या ब्राह्मणजातयः।
ताः स्थिता देशभेदेषु गोत्रशून्याश्च शौनक ।१४।
चन्द्रादित्यमनूनां च प्रवराः क्षत्रियाः स्मृताः ।
ब्रह्मणो बाहुदेशाच्चैवान्याः क्षत्रियजातयः ।१५।

ऊरुदेशाच्च वैश्याश्च पादतः शूद्रजातयः ।।
तासां सङ्करजातेन बभूवुर्वर्णसङ्कराः ।१६।
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" गोप नापित भिल्लाश्च तथा मोदक कूबरौ।       ताम्बूलि स्वर्णकारौ च वणिगजातय एव च।१७ -ब्रह्मवैववर्तपुराण  ब्रह्मखण्ड दशमोऽध्याय
 ___________________    

इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्त्तिताः ।
शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्यद्विजन्मनोः।१८।
विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्य्याधानं चकार सः ।
ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ।१९।
मालाकारः शङ्खकारः कर्मकारः कुविन्दकः ।।
कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः। 1.10.२० ।।
_________________________________
       (ब्रह्म वैवर्त पुराण)
       (अध्याय/खण्ड/श्लोक1/5/41)
लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागण:।४१।
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"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य:सद्यो गोप गणो मुने।        आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्सम:।४२।   
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 {ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड दशमोऽध्याय का श्लोक   संख्या (४२)         

त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणःश्रुतौ।४३।
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"कृष्णस्यलोमकूपेभ्य: सद्यश्चाविर्बभूव ह।            नाना वर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवन:।।४४।
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{ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड दशमोऽध्याय का श्लोक   संख्या (४४)
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इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः(5)


"गा वर्धयति नित्यं यस्तेन गोवर्धनः स्मृतः ।।
गोवर्धनसमस्तात पुण्यवान्न महीतले ।। ८७ ।।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण)

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स्वामी योगेशाचार्य रोहि-

सोमवार, 24 जुलाई 2023

विष्णु गोप-

गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीनत्तम प्रसंग ऋग्वेद मैं प्राप्त होता है। कथाओ- प्रागैतिहासिक दौर की हैं सम्भव है कुछ तो इनके उपाख्यानों में  व्यतिक्रम हुआ ही होगा परन्तु इन प्राचीन पात्रों के अस्तित्व को खारिज नहीं किया जा सकता तथा यह भी मानना ही पड़ेगा कि भारतीय संस्कृति में  "शक्ति" "भक्ति"  "सौन्दर्य" और "ज्ञान" की जो अधिष्ठात्री देवीयाँ हुई हैं। उनका जन्म  भी अहीर जाति में  लेने का वर्णन भारतीय शास्त्रों में वर्णित हुआ है।

स्वयं भगवान विष्णु आभीर जाति में मानव रूप में जब -जब अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" दुर्गा "गायत्री" और उर्वशी" आदि को भी इन अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त  'गोप', 'गोपति' और बहुवचन में  'गोपा:' जैसे विशेषण-शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।

विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है।
इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप से परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने की सूचना ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में प्राप्त होता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही विष्णु को वैदिक सन्दर्भों गोप विशेषण से अभिहित किया गया है।

'त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥
 (ऋग्वेद १/२२/१८)
पदों का अर्थ व अन्वय:-
(अदाभ्यः) सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र  (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालकों के रूप, (विष्णुः) संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे) गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि) धर्मों को धारण करते हैं॥18॥
विशेष:- गोपों अथवा चावाहों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है।  चाहें वह इजराएल अथवा फलिस्तीन  हो अथवा भारत भगवान विष्णु ही गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
विष्णु देव का प्रमाण सुमेरियन संस्कृति में भी प्राप्त होता है।

प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन पिस्क-नु के बराबर माना जाता है, और " जल के बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा। और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी सूर्य-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है। ।
वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है !
इस संकेत को" वृद्धि हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गानू, बी, 6925) कहा जाता है, जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, संस्कृत व्याकरणिक शब्द गत के साथ समान रूप से होता है।

विसारः, पुं० रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ + “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ” ३ । ३ । १७ ।
इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)।
इति अमर कोश ॥
विसार शब्द ऋग्वेद में आया है ।
जो मत्स्य का वाचक है ।👇


आभीर  लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में जन्म लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक हैं :-जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दी गयी है।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा(अवतारं करिष्येहं  ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
शास्त्र में लिखा है कि  वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है। 
क्यों कि ये गोप विष्णु के रोमकूपों से विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुए है। गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक(अलग)है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से इसी लिए गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट( included)
 
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
"तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६
भावार्थ
'विष्णुर्गोपा' अदाभ्यः (ऋग्वेद १/२२/१८)   
तात्पर्य:- विष्णु  गोप का दमन अथवा हिंसा नही की सकती हैं, वे गोपाल हैं, रक्षक हैं और उनके गोलोक धाम में बड़े सींगों वाली गायें रहती हैं - 

'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि     नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।  
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें  त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या  भगवत्   कहा  जाता है।     

इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी      जाना जाता है -                                          जो भगवत् का भक्त हो वह भागवत्।              श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है।उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है'परब्रह्म तु कृष्णो हि'
(सिद्धान्त मुक्तावली-३)                           वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।

भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं  और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति  परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि  और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ। तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार  पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध -ये चार व्यूह माने गये हैं।                                
राधा जी भक्ति की अधिष्ठात्री देवता के रूप में इस समस्त व्रजमण्डल की स्वामिनी बनकर "वृषभानु गोप के घर में जन्म लेती हैं। 

और वहीं दुर्गा जी ! वस्तुत: "एकानंशा" के नाम से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। विन्ध्याञ्चल पर्वत पर निवास करने के कारण इनका नाम विन्ध्यावासिनी भी होता है। यह  दुर्गा समस्त सृष्टि की शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें ही शास्त्रों में आदि-शक्ति कहा गया है। तृतीय क्रम में  वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन/ नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है।
यह उसी परम्परा अवशेष हैं। 

गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए
स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। 

गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है। 
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे 

 इसी क्रम में अहीरों की जाति में उत्पन्न उर्वशी 
 के जीवन -जन्म के विषय में भी साधारणत: लोग नहीं जानते हैं । उर्वशी सौन्दर्य की अधिष्ठात्री देवता बनकर स्वर्ग और पृथ्वी लोक से वे  सम्बन्धित रहीं हैं ।
मानवीय रूप में यह महाशक्ति अहीरों की जाति में पद्मसेन नाम के आभीर की  कन्या के रूप में जन्म लिया और कल्याणिनी नामक महान व्रत करने से जिन्हें सौन्दर्य की अधिष्ठत्री का पद मिला और जो स्वर्ग की अप्सराओं की स्वामिनी हुईं ।  विष्णु अथवा नारायण के उर जंघा अथवा हृदय से उत्पन्न होने के कारण कारण भी इन्हें उर्वशी कहा गया । प्रेम" सौन्दर्य और प्रजनन ये तीनों ही भाव परस्पर सम्बन्धित व सम्पूरक भी हैं।

"नारायणोरुं निर्भिद्य सम्भूता वरवर्णिनी ।      ऐलस्य दयिता देवी योषिद्रत्नं किमुर्वशी” ततश्च ऊरुं नारायणोरुं कारणत्वेनाश्नुते प्राप्नोति"
उर्वरा एक अन्य अप्सरा का नाम है।
और उर्वशी एक अन्य दूसरी अप्सरा का नाम है।

"उर्वशी मेनका रंभा चन्द्रलेखा तिलोत्तमा ।
वपुष्मती कान्तिमती लीलावत्युपलावती ।९१।
अलम्बुषा गुणवती स्थूलकेशी कलावती ।
कलानिधिर्गुणनिधिः कर्पूरतिलक- उर्वरा ।९२।
सन्दर्भ:-
"श्रीस्कांदमहापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्धे अप्सरः सूर्यलोकवर्णनंनामनवमोऽध्यायः।९।
तथा 
लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः ४५६ में श्लोक संख्या 92 में भी यह श्लोक है।
__________________________________

सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है!  इसी कारण 
स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी के रूप में नियुक्त हुईं।

"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।

"ततो गान्धर्वलोकश्च यत्र गन्धर्वचारणाः ।
ततो वैद्याधरो लोको विद्याध्रा यत्र सन्ति हि ।८३।

ततो धर्मपुरी रम्या धार्मिकाः स्वर्गवासिनः।
ततः स्वर्गं महत्पुण्यभाजां स्थानं सदासुखम् ।८४।

ततश्चाऽप्सरसां लोकः स्वर्गे चोर्ध्वे व्यवस्थितः ।
अप्सरसो महासत्यो यज्ञभाजां प्रियंकराः ।८५।

वसन्ति चाप्सरोलोके लोकपालानुसेविकाः।
युवत्यो रूपलावण्यसौभाग्यनिधयः शुभाः ।८६।

दृढग्रन्थिनितम्बिन्यो दिव्यालंकारशोभनाः।
दिव्यभोगप्रदा गीतिनृत्यवाद्यसुपण्डिताः।८७।

कामकेलिकलाभिज्ञा द्यूतविद्याविशारदाः ।
रसज्ञा भाववेदिन्यश्चतुराश्चोचितोक्तिषु ।८८।

नानाऽऽदेशविशेषज्ञा नानाभाषासुकोविदा ।
संकेतोदन्तनिपूणाः स्वतन्त्रा देवतोषिकाः ।८९।

लीलानर्मसु साभिज्ञाः सुप्रलापेषु पण्डिताः ।
क्षीरोदस्य सुताः सर्वा नारायणेन निर्मिताः ।1.456.९०।
"स्कन्दपुराण /खण्डः4 (काशीखण्डः)/अध्याय(9)

प्रस्तुतिकरण:-
यादव  योगेश कुमार रोहि-

शनिवार, 22 जुलाई 2023

उर्वशी, उरवशी उरु-अशी, 21 परिभाषाएँ


उर्वशी, उरवशी उरु-अशी,  21 परिभाषाएँ

परिचय:

"भारतीय वैदिक तथा पौराणिक सन्दर्भों में विशेषत:  , संस्कृत भाषा में लिखित पुराणों तथा, जैन धर्म , में उर्वशी का कुछ न कुछ उर्वरता से सम्बन्ध  होता है। यदि आप इस शब्द का सटीक अर्थ, इतिहास, व्युत्पत्ति या अंग्रेजी अनुवाद जानना चाहते हैं तो इस पोष्ट  पर विवरण देखें। 


छवियां (फोटो गैलरी)

वैष्णववाद ( भागवतधर्म-धर्म)


उर्वशी (उरवशी).—स्वर्गीय अप्सराओं में से एक जो सौन्दर्य की अधिष्ठात्र देवी हुई। जब अर्जुन स्वर्ग में थे तो उर्वशी ने अर्जुन की परीक्षा के  लिए उसे लुभाने- बहकाने की कोशिश की। अर्जुन ने उर्वशी के प्रति श्रद्धा रखते हुए  वह उसे कुरु वंश की माता मानता था क्योंकि उसने पुरुरवा को अपना पति बना लिया था।

अर्जुन को कुछ अप्सराओं की अवहेलना के  कारण  अर्जुन को एक वर्ष के लिए नपुंसक बनने का शाप प्राप्त हुआ।

इस शाप का प्रभाव विराट राज्य में पांडवों के निर्वासन के अंतिम वर्ष के दौरान हुआ; स्वर्गीय ग्रहों की एक महिला जो राजा पुरुरवा पर मोहित हो गई।

वैष्णव धर्म पुस्तक कवर
संदर्भ जानकारी

 (वैष्णववाद) विष्णु को सर्वोच्च भगवान के रूप में पूजा करने की हिंदू धर्म की परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। शक्तिवाद और शैववाद परंपराओं के समान, वैष्णववाद भी एक व्यक्तिगत आंदोलन के रूप में विकसित हुआ, जो दशावतार ('विष्णु के दस अवतार') के प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध है।


पुराण और इतिहास (महाकाव्य इतिहास)


स्रोत : बुद्धि पुस्तकालय: वराह-पुराण

वाराहपुराण अध्याय 91 के अनुसार, उर्वशी (उरवशी) काले घुंघराले बालों और लाल होंठों वाली एक खूबसूरत  ( कन्या ) का नाम है। उर्वशी (और अन्य असंख्य महिलाएं) वैष्णवी के उत्तेजना से उत्पन्न हुई थीं, जब वह विशाला में तपस्या कर रही थीं। इन युवा महिलाओं के लिए, वैष्णवी ने देवीपुरा शहर का निर्माण किया, जिसमें सुनहरी बालकनी, क्रिस्टल सीढ़ियाँ और पानी के फव्वारे, रत्नजड़ित खिड़कियों और बगीचों वाली कई हवेलियाँ थीं।

वैष्णवी त्रिकाल का रूप है जिसका लाल शरीर विष्णु की ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है। त्रिकला ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर (शिव) के संयुक्त रूप से उत्पन्न देवी का नाम है।

The Varāhapurāṇa is categorised as a Mahāpurāṇa, and was originally composed of 24,000 metrical verses, possibly originating from before the 10th century. It is composed of two parts and Sūta is the main narrator.

Source: archive.org: The Garuda puranam

Puraravā (the son of Budha) begat on the nymph Urvasi six sons who were named Śrutātmaka, Viśvāvasu, Śatāyu, Āyu, Dhīmān, and Amāvasu.

Source: archive.org: Puranic Encyclopedia

1) Urvaśī (उर्वशी).—A famous celestial damsel. (See full article at Story of Urvaśī from the Puranic encyclopaedia by Vettam Mani)

2) Urvaśī (उर्वशी).—Another name of Gaṅgā. As she sat on the Ūru (thigh) of Bhagīratha, Gaṅgā got the name Urvaśī. (Mahābhārata Droṇa Parva, Chapter 60, Stanza 6).

Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: The Purana Index

1a) Urvaśī (उर्वशी).—An apsaras born of Nārāyaṇa; worshipped for success in love affairs.1 While she was plucking flowers in Badari āśrama Mitra and Varuṇa saw her, when she gave birth to Agastya and Vasiṣṭha.2 Satyadhṛti saw her, and she was mother of Śaradvata.3 Heard of the beauty of Purūravas from Nārada, when she came to the earth due to a curse of Mitra and Varuṇa, and gave enjoyment to him so long as he satisfied her two conditions—keeping her two sheep safe, and not showing himself naked before her except in sexual intercourse. When after 64 years she saw him naked one day, she left him. He looked for her and saw her at the R. Sarasvati playing with her friends. At his request she promised a day's enjoyment with him every year. On her advice he prayed to Gandharvas, and got an Agnisthāli. Mother of six sons by Purūravas.4 Returned to Heaven.5 The Goddess enshrined at Badari.6 When she danced before Indra, she forgot her abhinaya and was cursed by Bharata to become an invisible creeper for 55 years on the earth. During that time Purūravas was in the guise of Paiśāca. After the lapse of the period she bore him 8 sons.7 In the sabhā of Hiraṇyakaśipu.8 Mother of six sons by Aila.9 Also ūrvaśī (s.v.).

1b) The Apsaras presiding over the month of saha.1 With the sun in the hemanta;2 in the sun's chariot in the mārgaśīrṣa month;3 a brahmavādinī.4

1c) An Ābhīra kanyā who observed the bhīmadvādaśī, and became Urvaśī.*

2) Ūrvaśī (ऊर्वशी).—Born out of the thigh of Nārāyaṇa. (See urvaśī).*

Source: JatLand: List of Mahabharata people and places

Urvaśī (उर्वशी) refers to the name of a Lady mentioned in the Mahābhārata (cf. I.70.21). Note: The Mahābhārata (mentioning Urvaśī) is a Sanskrit epic poem consisting of 100,000 ślokas (metrical verses) and is over 2000 years old.

पुराण पुस्तक आवरण
context information

The Purana (पुराण, purāṇas) refers to Sanskrit literature preserving ancient India’s vast cultural history, including historical legends, religious ceremonies, various arts and sciences. The eighteen mahapuranas total over 400,000 shlokas (metrical couplets) and date to at least several centuries BCE.

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Kavya (poetry)

[«previous  next»] — Urvashi in Kavya glossary
Source: Wisdom Library: Kathāsaritsāgara

Urvaśī (उर्वशी) is the name of an apsaras (heavenly nymp) whose story is told in the “story of Urvaśī”, according to the Kathāsaritsāgara, chapter 17. Accordingly, when king Purūravas (a devoted worshipper of Viṣṇu) was sauntering in the Nandana garden he crossed paths with Urvaśī and they instantly fell in love.

The Kathāsaritsāgara (‘ocean of streams of story’), mentioning Urvaśī, is a famous Sanskrit epic story revolving around prince Naravāhanadatta and his quest to become the emperor of the vidyādharas (celestial beings). The work is said to have been an adaptation of Guṇāḍhya’s Bṛhatkathā consisting of 100,000 verses, which in turn is part of a larger work containing 700,000 verses.

काव्य पुस्तक कवर
context information

Kavya (काव्य, kavya) refers to Sanskrit poetry, a popular ancient Indian tradition of literature. There have been many Sanskrit poets over the ages, hailing from ancient India and beyond. This topic includes mahakavya, or ‘epic poetry’ and natya, or ‘dramatic poetry’.

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Chandas (prosody, study of Sanskrit metres)

Source: Shodhganga: a concise history of Sanskrit Chanda literature

Urvaśī (उर्वशी) refers to one of the 135 metres (chandas) mentioned by Nañjuṇḍa (1794-1868 C.E.) in his Vṛttaratnāvalī. Nañjuṇḍa was a poet of both Kannada and Sanskrit literature flourished in the court of the famous Kṛṣṇarāja Woḍeyar of Mysore. He introduces the names of these metres (e.g., Urvaśī) in 20 verses.

चंदस पुस्तक कवर
context information

Chandas (छन्दस्) refers to Sanskrit prosody and represents one of the six Vedangas (auxiliary disciplines belonging to the study of the Vedas). The science of prosody (chandas-shastra) focusses on the study of the poetic meters such as the commonly known twenty-six metres mentioned by Pingalas.

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General definition (in Hinduism)

Source: Apam Napat: Indian Mythology

Urvashi is an Apsara in the court of Indra. Once, the primordial twin sages Nara and Naryana were performing a particularly severe penance. As was his wont, Indra feared for his crown and sent his divine dancers, the Apsaras, to disrupt this penance. Much angered, the sages struck their thighs, and from thence was born Urvashi, who was more beautiful than the other Apsaras. (In Sanskrit, Uru means 'thigh'). Seeing her divine beauty, the other dancers ran away in shame. Indra apologized for his effrontery and the sages pardoned him. They also sent Urvashi to be a dancer in his court. This story is told in more detail in 'Birth of Urvashi'.

Source: WikiPedia: Hinduism

Urvashi is an Apsara (nymph) in Hindu legend. She was a celestial maiden in Indra's court and was considered the most beautiful of all the Apsaras. She became the wife of king Pururavas (Purūrávas, from purū+rávas "crying much or loudly"), an ancient chief of the lunar race. ShBr 11.5.1, and treated in Kalidasa’s drama Vikramōrvaśīyam.

Birth: There are many legends about the birth of Urvashi but the following one is most prevalent. Once the revered sages Nara-narayana was meditating in the holy shrine of Badrinath Temple situated in the Himalayas. Indra, the king of the Gods, did not want the sage to acquire divine powers through meditation and sent two apsaras to distract him. The sage struck his thigh and created a woman so beautiful that Indra’s apsaras were left matchless. This was Urvashi, named from ur, the Sanskrit word for thigh. After his meditation was complete the sage gifted Urvashi to Indra, and she occupied the pride of place in Indra’s court.

etymology: Urvashi (Urvaśī, from Uras "heart" + Vashi "one who controls", "one who controls the heart") Monier Monier-Williams proposes a different etymology in which the name means "widely pervasive," and suggests that in its first appearances in Vedic texts it is a name for the dawn goddess.

In Jainism

General definition (in Jainism)

Source: archive.org: Trisastisalakapurusacaritra

Urvaśī (उर्वशी) is the name of an Apsaras, instructed by Śakra to help in the preparations of Ṛṣabha’s wedding-preparations, according to chapter 1.2 [ādīśvara-caritra] of Hemacandra’s 11th century Triṣaṣṭiśalākāpuruṣacaritra (“lives of the 63 illustrious persons”): a Sanskrit epic poem narrating the history and legends of sixty-three important persons in Jainism.

Accordingly,

“[...] Then having ascertained the Lord’s purpose, Purandara at once summoned gods for the tasks of the wedding-preparations.—‘[...] O Lambhā, make the wreaths; prepare the dūrvā-grass, Urvaśī; Ghṛtācī, bring the ghee, curd, etc., for the groom’s reception. [...]’. From the bustling of the Apsarases instructing each other in this way, and frequently calling names, a mighty tumult arose”.

General definition book cover
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Jainism is an Indian religion of Dharma whose doctrine revolves around harmlessness (ahimsa) towards every living being. The two major branches (Digambara and Svetambara) of Jainism stimulate self-control (or, shramana, ‘self-reliance’) and spiritual development through a path of peace for the soul to progess to the ultimate goal.

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Languages of India and abroad

Sanskrit dictionary

Source: DDSA: The practical Sanskrit-English dictionary

Urvaśī (उर्वशी).—[urūn mahato'pi aśnute vaśīkaroti, uru-aś-ka gaurā° ṅīṣ Tv.]

1) Name of a famous Apsaras or nymph of Indra's heaven who became the wife of Purūravas. [Urvaśī is frequently mentioned in the Ṛigveda; at her sight the seed of Mitra and Varuṇa fell down, from which arose Agastya and Vaśiṣṭa; (see Agastya). Being cursed by Mitra and Varuṇa she came down to the world of mortals, and became the wife of Purūravas, whom she chanced to see while descending, and who made a very favourable impression upon her mind. She lived with him for some time, and went up to heaven at the expiration of her curse. Purūravas was sorely grieved at her loss, but succeeded in securing her company once more. She bore him a son named Āyus, and then left him forever. The account given in the Vikramorvaśīyam differs in many respects, where Indra is represented to have favoured Purūravas with her lifelong company though he had himself cursed her. Mythologically she is said to have sprung from the thigh of the sage Nārāyaṇa, q. v.] उर्वशी वै रुपिण्यप्सरसाम् (urvaśī vai rupiṇyapsarasām) Mahābhārata 5.2.95; मर्त्तासश्चिदुर्वशीरकृप्रन् (marttāsaścidurvaśīrakṛpran) Av. 18.3.23; स्त्रीरत्नेषु ममोर्वशी प्रियतमा यूथे तवेयं वशा (strīratneṣu mamorvaśī priyatamā yūthe taveyaṃ vaśā) V.4.47.

2) Wish, ardent desire.

Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: Shabda-Sagara Sanskrit-English Dictionary

Urvaśī (उर्वशी) or Urvvaśī.—f. (-śī) The name of one of the courtezans of Swarga or Indra'S heaven. E. uru great, vaś to tame, ac and ṅīṣ affixes; also urvasī and ūrvasī.

--- OR ---

Ūrvasī (ऊर्वसी) or Ūrvvasī.—f. (-sī) A nymph of Swarga: see urvaśī. Also written ūrvaśī.

Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: Benfey Sanskrit-English Dictionary

Urvaśī (उर्वशी).—f. The name of an Apsaras, [Vikramorvaśī, (ed. Bollensen.)] [distich] 110, etc.

Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: Cappeller Sanskrit-English Dictionary

Urvaśī (उर्वशी).—[feminine] ardour, wish, desire; [Name] of an Apsaras.

Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: Monier-Williams Sanskrit-English Dictionary

1) Urvaśī (उर्वशी):—f. ([from] uru and √1. , ‘to pervade’ See M.M., Chips, vol. ii, p.99), ‘widely extending’, Name of the dawn (personified as an Apsaras or heavenly nymph who became the wife of Purū-ravas), [Ṛg-veda; Atharva-veda xviii, 3, 23; Vājasaneyi-saṃhitā; Śatapatha-brāhmaṇa; Vikramorvaśī] etc.

2) Name of a river, [Mahābhārata xii.]

3) Ūrvaśī (ऊर्वशी):—f. [varia lectio] for urvaśī q.v.

Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: Yates Sanskrit-English Dictionary

1) Urvaśī (उर्वशी):—(śī) 3. f. A name of one of the celestial courtezans.

2) Ūrvasī (ऊर्वसी):—(sī) 3. f. A nymph of Paradise.

Source: DDSA: Paia-sadda-mahannavo; a comprehensive Prakrit Hindi dictionary (S)

Urvaśī (उर्वशी) in the Sanskrit language is related to the Prakrit word: Uvvasī.

[Sanskrit to German]

Urvashi in German

context information

Sanskrit, also spelled संस्कृतम् (saṃskṛtam), is an ancient language of India commonly seen as the grandmother of the Indo-European language family (even English!). Closely allied with Prakrit and Pali, Sanskrit is more exhaustive in both grammar and terms and has the most extensive collection of literature in the world, greatly surpassing its sister-languages Greek and Latin.

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Kannada-English dictionary

Source: Alar: Kannada-English corpus

Urvasi (ಉರ್ವಸಿ):—[noun] (myth.) a famous and most beautiful nymph in the court of Indra, the Lord of gods.

--- OR ---

Ūrvaśi (ಊರ್ವಶಿ):—

1) [noun] (myth.) a nymph, born from the thighs of sage Nārāyaṇa, known for her exquisite beauty.

2) [noun] (fig.) a very beautiful woman.

context information

Kannada is a Dravidian language (as opposed to the Indo-European language family) mainly spoken in the southwestern region of India.

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