शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

दास शब्द को प्रचीन और अर्वाचीन सन्दर्भ-

महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी 
यदि दास शब्द का अर्थ भक्त या सेवक करते हैं
तो शम्बर और वृत्र के लिए दास शब्द का प्रयोग वेदों में बहुतायत से हुआ है ।
और लौकिक ग्रन्थों में दास का अर्थ शूद्र है ।
दास शब्द का अर्थ भक्त तो आज कई उतार-चढ़ावों के बाद  हुआ है वह भी भक्ति काल बारहवीं तेरहवीं सदी से ...

मनीष नन्द जी यदि आप मानते हो कि वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ भक्त ही है 

तो वेदों की इन ऋचाओं में भी शम्बर और वृत्र के लिए भी दास शब्द का अर्थ भक्त ही होना चाहिए 
जिनका देवों के नेता इन्द्र से युद्ध हुआ था ।

महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी वेदो को ईश्वरीय रचना मानते हैं ऋषियों के द्वारा प्रकट 
और ये वेदों में इतिहास नहीं मानते हैं ।

'परन्तु ये सब अनर्थ ही है । 
क्योंकि प्रत्येक प्राचीन तथ्य स्वयं में इतिहास का मानक ही है ।

सबसे नीचे  महर्षि दयान्द की -विचार धारा के अनुयायी पं०  हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार
ऋग्वेद के दशम मण्डल की बासठवें  सूक्त की दशवीं ऋचा में दास का अर्थ "भक्त" बता रहे हैं ।
जो कि पूर्ण रूप से असंगत है ।
यह सब भाषा विज्ञान की जानकारी न होना ही है।
उनका अनुवाद भी सायण के भाष्य-पर आधरित है।
👇

 उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) 
सायण ने इस ऋचा का अर्थ किया " कल्याण करने वाले गायें से युक्त यदु और तुर्वसु नामक राजा मनु के भोजन के लिए पशु देतें हैं (सायण अर्थ१०/६२)१०) 

वास्तव में उपर्युक्त ऋचा का अर्थ असंगत ही है क्यों की वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ सेवा करने वाला गुलाम या भृत्य नहीं है👇
और भक्त भी नहीं जैसे आज कल तुलसी दास ,या कबीरदास शब्दों में है ।
क्योंकि ये दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम और आधुनिक अर्थ से विपरीत ही हैं ।

 अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇

 उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-२ /३ /६ ________________________________________ 

असुर शब्द दास का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ______________________________________

कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 

अर्थात् कुलितर यो कोलों की सन्तान होने से कौलितर 

“उत दासं कौलितरं वृहतः पर्व्वतादधि । 
अवाहान्निन्द्र” शम्बरम्” ऋ० ४ । ३० । १४ कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्” मा०

अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया ।

 विदित हो कि असुर संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा कुशल होता है । 
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में किया है ।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर महत्) था ।
फारसी में "स"वर्ण का उच्चारण "ह" वर्ण के रूप में होता है ।
जैसे असुर- अहुर !सोम -होम सप्ताह- हफ्ताह -हुर हुर 
सिन्धु - हिन्दु आदि ...

'परन्तु भारतीय पुराणों या वेदों में ईरानी मिथकों के समान अर्थ नहीं है ।
अपितु इसके विपरीत ही है क्योंकि शत्रुओं कभी भी शत्रुओं की प्रसंशा नहीं करता है ।

 इसी प्रकार असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
 असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है । ____________________________________________

 पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है । __________________________________________ 

परन्तु ये लोग असीरियन ही थे । 
जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन, से सम्बद्ध थे । 
दास देगिस्तान की जन-जाति है । 

यदु और तुर्वसु नामक दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं। 

यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। 
दास का सही अर्थ देव संस्कृति का विरोधी रूप है ।

 ! क्यों कि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में ।

यदु और तुर्वशु को गोप ही कहा है । 👇
 उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।। 
ऋग्वेद 10/62/10 वे गोप गो-पालन की शक्ति के द्वारा ( गोप: ईनसा सन्धि संक्रमण से वर्त्स्य नकार का मूर्धन्य णकार होने से गोपरीणसा रूप सिद्ध होता है ) अर्थात् यदु और तुर्वशु --जो दास अथवा असुर संस्कृति के अनुयायी हैं वे गोप गायों से घिरे हुए हैं । 

--जो मुस्कराहट पूर्ण दृष्टि वाले हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं ।। ऋग्वेद 10/62/10 
__________
 कुछ ग्रन्थों की सन्दर्भ सूची यहांँ है जो दास का अर्थ असुर या शूद्र करते हैं↑ यह गिनती विश्वबंधु शास्त्री के वैदिक कोश पर आधारित है। 
↑ व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु
 केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I, पृष्ठ 8. व्हीलर की राय है कि असभ्य खानाबदोशों (अर्थात् आर्यों) की चढ़ाई के कारण संगठित कृषि बिखर गई, पर अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर कहा जाए कि सैंधव शहरी सभ्यता के लोगों और आर्यों के बीच जमकर लड़ाई हुई। ↑ ऋग्वेद, X 83.1. ‘साह्यम दासमार्यं त्वयायुजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता’, जो अथर्ववेद, IV. 32.1 जैसा ही है। ↑ ऋग्वेद, X. 38.3; देखें अथर्ववेद, XX. 36.10. ↑ ऋग्वेद, VII. 83.1. ‘दासाच वृत्रा हतमार्याणि च सुदासम् इन्द्रावरुणावसावतम्’। ↑ ऋग्वेद, VI. 60.6. ↑ ऋग्वेद, VI. 33.3; ऋग्वेद X. 102.3. ↑ सात नदियों ↑ ऋग्वेद, VIII. 24.27. ‘य ऋक्षादंहसो मुचद्योवार्यात् सप्तसिन्धुषु; वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम्;’ गेल्डनर इस परिच्छेद का अर्थ लगाते हैं कि इंद्र ने दासों के अस्त्रों को आर्यों से विमुख कर दिया है। ↑ ऋग्वेद, VI. 33.3; 60.6; VII. 83.1; VIII. 24.27 (विवादास्पद कंडिका); X. 38.3, 69.6, 83.1, 86.19, 102.3. इनमें से चार निर्देशों को अंबेडकर ने सही रूप में उद्धृत किया है। अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़ पृष्ठ 83-4. ↑ वैदिक इंडेक्स, I. , ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’ ↑ ऋग्वेद, VII. 33.2-5, 83.8. वास्तविक युद्ध-स्तुति ऋग्वेद, VII. 18 में है। ↑ आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 245.। अन्य आर्यों के प्रति बैरभाव के कारण पुरुओं को ऋग्वेद, XII. 18.13 में मृध्रवाच: कहा गया है। ↑ रावी नदी ↑ पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. 11.) ↑ अथर्ववेद, V. 11.3; पैप्पलाद, VIII. 1.3. ‘नमे दासोनार्यों महीत्वा व्रतं मीमाय यदहम् धरिष्ये’। (सन्दर्भ-१)

प्रभु वैदिक कालीन सन्दर्भ में दास का तात्पर्य वह नहीं महर्षि दयान्द के अनुयायी दर्शा रहे हैं यदि उनका अर्थ सही है तो

फिर ये लौकिक ग्रन्थों में दास का तात्पर्य शूद्र से क्यों है ।

जैसा की ब्राह्मणों ने स्मृतियों में लिखा की शूद्र अपने नाम के पश्चात दास लगाए वैश्य गुप्त और क्षत्रिय वर्मा तथा ब्राह्मण शर्मा शब्द को लगाए !✍

 मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा हैं कि :

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3
 (अध्याय 2 मनुस्मृति)

शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।
भूतिर्दत्ताश्च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥
( यमसंहिता )॥

शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रा संयुतम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो: ।
(विष्णुपुराण)

अग्निपुराण अध्याय 153 निम्नलिखित श्लोकांश देखे 

शर्मान्तं ब्राह्मस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ।१५३.००४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३.००५
शर्मान्तं ब्रह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्यच।१५३.००६
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३.००७

सबका निचोड़ (सार ) यह हैं कि ''ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्त आदि और शूद्र के नामान्त में केवल दास शब्द लगाना चाहिए।

तो फिर ये लौकिक ग्रन्थ पुराण, स्‍मृति आदि इस बात का क्यों विरोध करें ?
वे तो वेदों का ही अनुकरण करेंगे ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। 

अब आप कहो कि दास शब्द का अर्थ इस ऋचा में सेवक है; तो वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ देव संस्कृति का विद्रोही है सेवक नहीं ।

ईरानी भाषाओं में दास शब्द का प्रतिरूप "दाहे" है जिसका  अर्थ है ; नेता अथवा दाता  दान करने वाला!
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में कृष्ण के समान की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करता हुआ वर्णित किया गया कि 
वह भी अदेव के रूप में 

और कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बन्द करायी ये आप जानते ही हैं ।
समस्त पुराणों में यह प्रतिध्वनित ही है ।

विद्वान पाठक 

पं० हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार की व्याख्या  का औचित्य और अनौचित्य बताकर प्रतिक्रियाऐ अवश्य दें 👇


प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि"
8077160219-

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

स्कन्द पुराण नागर खण्ड सावित्री चरित्र



स्कन्दपुराणम्-खण्डः ६ (नागरखण्डः)-अध्यायः (१९२)

               ॥ सूत उवाच ॥
अथ श्रुत्वा महानादं वाद्यानां समुपस्थितम्॥
नारदःसम्मुखःप्रायाज्ज्ञात्वा च जननीं निजाम् ।१॥

प्रणिपत्य स दीनात्मा भूत्वा चाश्रुपरिप्लुतः॥
प्राह गद्गदया वाचा कण्ठे बाष्पसमावृतः ॥२॥

आत्मनः शापरक्षार्थं तस्याः कोपविवृद्धये॥
कलिप्रियस्तदा विप्रो देवस्त्रीणां पुरःस्थितः ॥३॥

मेघगम्भीरया वाचा प्रस्खलंत्या पदेपदे॥
मया त्वं देवि चाहूता पुलस्त्येन ततः परम्॥४॥

स्त्रीस्वभावं समाश्रित्य दीक्षाकालेऽपि नागता।५।

ततो विधेः समादेशाच्छक्रेणान्या समाहृता ॥
काचिद्गोपसमुद्भूता कुमारी देव रूपिणी ॥ ६ ॥

गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्यमार्गेण तत्क्षणात्॥
आकर्षिता महाभागे समानीताथ तत्क्षणात्॥ ७॥

सा विष्णुना विवाहार्थं ततश्चैवानुमोदिता ॥
ईश्वरेण कृतं नाम गायत्री च तवानुगम् ॥ ८ ॥

______________
ब्राह्मणैः सकलैः प्रोक्तं ब्राह्मणीति भवत्वियम्।
अस्माकं वचनाद्ब्रह्मन्कुरु हस्तग्रहं विभो।९॥

 देवैः सर्वैः स सम्प्रोक्तस्ततस्तां च वराननाम्॥
ततः पत्न्युत्थधर्मेण योजयामास सत्वरम्॥६.१९२.१०॥

किं वा ते बहुनोक्तेन पत्नीशालां समागता ॥
रशना योजिता तस्या गोप्याः कट्यां सुरेश्वरि।११।

तद्दृष्ट्वा गर्हितं कर्म निष्क्रांतो यज्ञमण्डपात् ॥
अमर्ष वशमापन्नो न शक्तो वीक्षितुं च ताम् ॥ १२।

एतज्ज्ञात्वा महाभागे यत्क्षमं तत्समाचर ॥
गच्छ वा तिष्ठ वा तत्र मण्डपे धर्मवर्जिते ॥ १३ ॥

तच्छ्रुत्वा सा तदा देवी सावित्री द्विजसत्तमाः ॥
प्रम्लानवदना जाता पद्मिनीव हिमागमे ॥ १४ ॥

लतेव च्छिन्नमूला सा चक्रीव प्रियविच्युता ॥
शुचिशुक्लागमे काले सरसीव गतोदका ॥ १५ ॥

प्रक्षीणचन्द्रलेखेव मृगीव मृगवर्जिता ॥
सेनेव हतभूपाला सतीव गतभर्तृका ॥ १६ ॥

संशुष्का पुष्पमालेव मृतवत्सैव सौरभी ॥
वैमनस्यं परं गत्वा निश्चलत्वमुपस्थिताम् ॥
तां दृष्ट्वा देवपत्न्यस्ता जगदुर्नारदं तदा ॥ १७ ॥

धिग्धिक्कलिप्रिय त्वां च रागे वैराग्यकारकम् ॥
त्वया कृतं सर्वमेतद्विधेस्तस्य तथान्तरम् ॥१८॥


                     ॥ गौर्युवाच ॥ 
अयं कलिप्रियो देवि ब्रूते सत्यानृतं वचः ॥
अनेन कर्मणा प्राणान्बिभर्त्येष सदा मुनिः ॥१।

अहं त्र्यक्षेण सावित्रि पुरा प्रोक्ता मुहुर्मुहुः ॥
नारदस्य मुनेर्वाक्यं न श्रद्धेयं त्वया प्रिये ॥
यदि वांछसि सौख्यानि मम जातानि पार्वति ॥ ६.१९२.२०॥

ततःप्रभृति नैवाहं श्रद्दधेऽस्य वचः क्वचित् ॥
तस्माद्गच्छामहे तत्र यत्र तिष्ठति ते पतिः ॥ २१ ॥

स्वयं दृष्ट्वैव वृत्तांतं कर्तव्यं यत्क्षमं ततः ॥
नात्रास्य वचनादद्य स्थातव्यं तत्र गम्यताम् ॥२२ ॥   
                 ॥ सूत उवाच ॥    
गौर्या स्तद्वचनं श्रुत्वा सावित्री हर्षवर्जिता ॥
मखमण्डपमुद्दिश्य प्रस्खलन्ती पदेपदे ॥ २३ ॥

प्रजगाम द्विजश्रेष्ठाः शून्येन मनसा तदा ॥
प्रतिभाति तदा गीतं तस्या मधुरमप्यहो ॥ २४ ॥

कर्णशूलं यथाऽऽयातमसकृद्द्विजसत्तमाः ॥
वन्ध्यवाद्यं यथा वाद्यं मृदंगानकपूर्वकम् ॥ २५ ॥

प्रेतसंदर्शनं यद्वन्मर्त्यं तत्सा महासती ॥
वीक्षितुं न च शक्रोति गच्छमाना तदा मखे॥२६॥

शृंगारं च तथांगारं मन्यते सा तनुस्थितम् ॥
वाष्पपूर्णेक्षणा दीना प्रजगाम महासती ॥ २७ ॥

ततः कृच्छ्रात्समासाद्य सैवं तं यज्ञमंडपम् ॥
कृच्छ्रात्कारागृहं तद्वद्दुष्प्रेक्ष्यं दृक्पथं गतम्।२८॥

अथ दृष्ट्वा तु संप्राप्तां सावित्रीं यज्ञमण्डपम् ॥
तत्क्षणाच्च चतुर्वक्त्रः संस्थितोऽधोमुखो ह्रिया। २९॥

तथा शम्भुश्च शक्रश्च वासुदेवस्तथैव च॥
ये चान्ये विबुधास्तत्र संस्थिता यज्ञमंडपे॥ ६.१९२.३०॥

ते च ब्राह्मणशार्दूलास्त्यक्त्वा वेदध्वनिं ततः ॥
मूकीभावं गताः सर्वे भयसंत्रस्तमानसाः ॥३१॥

अथ संवीक्ष्य सावित्री सपत्न्या सहितं पतिम् ॥
कोपसंरक्तनयना परुषं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥


                 ॥ सावित्र्युवाच ॥

किमेतद्युज्यते कर्तुं तव वृद्ध तमाकृते ॥
ऊढवानसि यत्पत्नीमेतां गोपसमुद्भवाम् ॥३३॥

उभयोः पक्षयोर्यस्याः स्त्रीणां कांता यथेप्सिताः।
शौचाचारपरित्यक्ता धर्मकृत्यपराङ्मुखाः।३४।

यदन्वये जनाः सर्वे पशुधर्मरतोत्सवाः ॥
सोदर्यां भगिनीं त्यक्त्वा जननीं च तथा पराम्॥ ३५।

तस्याः कुले प्रसेवंते सर्वां नारीं जनाः पराम् ॥
यथा हि पशवोऽश्नंति तृणानि जलपानगाः ॥ ३६ ॥

विण्मूत्रं केवलं चक्रुर्भारोद्वहनमेव च।९।
तद्वदस्याः कुलं सर्वं तक्रमश्राति केवलम्।३७।

कृत्वा मूत्रपुरीषं च जन्मभोगविवर्जितम् ॥
नान्यज्जानाति कर्तव्यं धर्मं स्वोदरसं श्रयात् ।३८।

अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् ॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९।

अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ॥
त्वया वा ब्राह्मणी कापि प्रख्याता भुवनत्रये ॥ ६.१९२.४०।

नोढा विधे वृथा मुण्ड नूनं धूर्तोऽसि मे मतः ॥
यत्त्वया शौचसंत्यक्ता कन्याभावप्रदूषिता॥४१॥

प्रभुक्ता बहुभिः पूर्वं तथा गोपकुमारिका॥
एषा प्राप्ता सुपापाढ्या वेश्याजनशताधिका॥४२॥

अन्त्यजाता तथा कन्या क्षतयोनिः प्रजायते॥
तथा गोपकुमारी च काचित्तादृक्प्रजायते॥४३॥

मातृकं पैतृकं वंशं श्वाशुरं च प्रपातयेत्।
तस्मादेतेन कृत्येन गर्हितेन धरातले॥४४॥

न त्वं प्राप्स्यसि तां पूजां तथा न्ये विबुधोत्तमाः॥
अनेन कर्मणा चैव यदि मे स्ति ऋतं क्वचित्॥४५॥

______
पूजां ये च करिष्यंति भविष्यंति च निर्धनाः॥
कथं न लज्जितोसि त्वमेतत्कुर्वन्विगर्हितम्॥४६॥

पुत्राणामथ पौत्राणामन्येषां च दिवौकसाम्॥
अयोग्यं चैव विप्राणां यदेतत्कृतवानसि॥४७॥

अथ वा नैष दोषस्ते न कामवशगा नराः॥
लज्जंति च विजानंति कृत्याकृत्यं शुभाशुभम्॥४८॥
अकृत्यं मन्यते कृत्यं मित्रं शत्रुं च मन्यते॥
शत्रुं च मन्यते मित्रं जनः कामवशं गतः॥४९॥

द्यूतकारे यथा सत्यं यथा चौरं च सौहृदम्॥
यथा नृपस्य नो मित्रं तथा लज्जा न कामिनाम्॥६.१९२.५०॥


अपि स्याच्छीतलो वह्निश्चंद्रमा दहनात्मकः।
क्षाराब्दिरपि मिष्टः स्यान्न कामी लज्जते ध्रुवम्॥५१॥


न मे स्याद्दुखमेतद्धि यत्सापत्न्यमुपस्थितम्॥
सहस्रमपि नारीणां पुरुषाणां यथा भवेत्॥ ५२॥


कुलीनानां च शुद्धानां स्वजात्यानां विशेषतः॥
त्वं कुरुष्व पराणां च यदि कामवशं गतः॥५३॥


एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४ ॥


तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥


अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥ ५६।

अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥

भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ।५८ ।

एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि ॥५९ ।


न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥


करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता॥ ६१॥


पापिष्ठा नष्टचारित्रा यथैषा पंचभर्तृका ॥
विख्यातिं यास्यते लोके यथा चासौ तथैव सा ॥ ६२॥


एतस्या अन्वयः पापो भविष्यति निशाचर ॥
सत्यशौचपरित्यक्ताः शिष्टसंगविवर्जिताः ॥ ६३ ॥

अनिकेता भविष्यंति वंशेऽस्या गोप्रजीविनः ॥
एवं शप्त्वा विधिं साध्वी गायत्रीं च ततः परम् ॥ ६४ ॥

ततो देवगणान्सर्वाञ्छशाप च तदा सती ॥
भोभोः शक्र त्वयानीता यदेषा पंचभर्तृका ॥ ६५॥

तदाप्नुहि फलं सम्यक्छुभं कृत्वा गुरोरिदम् ॥
त्वं शत्रुभिर्जितो युद्धे बंधनं समवाप्स्यसि ॥ ६६ ॥

कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७ ॥

अनुमोदिता विधेः पूर्वं तस्माच्छप्स्याम्यसंशयम् ॥
त्वं चापि परभृत्यत्वं संप्राप्स्यसि सुदुर्मते ॥ ६८ ॥

समीपस्थोऽपि रुद्र त्वं कर्मैतद्यदुपेक्षसे ॥
निषेधयसि नो मूढ तस्माच्शृणु वचो मम ॥ ६९ ॥

जीवमानस्य कांतस्य मया तद्विरहोद्भवम् ॥
संसेवितं मृतायां ते दयितायां भविष्यति ॥ ६.१९२.७० ॥

यत्र यज्ञे प्रविष्टेयं गर्हिता पंचभर्तृका ॥
भवानपि हविर्वह्ने यत्त्वं गृह्णासि लौल्यतः ॥ ७१ ॥

तथान्येषु च यज्ञेषु सम्यक्छंकाविवर्जितः ॥
तस्माद्दुष्टसमाचार सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ ७२ ॥

स्वधया स्वाहया सार्धं सदा दुःखसमन्वितः ॥
नैवाप्स्यसि परं सौख्यं सर्वकालं यथा पुरा ॥ ७३ ॥

एते च ब्राह्मणाः सर्वे लोभोपहतचेतसः ॥
होमं प्रकुर्वते ये च मखे चापि विगर्हिते। ७४ ॥

वित्तलोभेन यत्रैषा निविष्टा पञ्चभर्तृका ॥
तथा च वचनं प्रोक्तं ब्राह्मणीयं भविष्यति ॥ ७५ ॥

दरिद्रोपहतास्तस्माद्वृषलीपतयस्तथा ॥
वेदविक्रयकर्तारो भविष्यथ न संशयः ॥ ७६ ॥

भोभो वित्तपते वित्तं ददासि मखविप्लवे ॥
तस्माद्यत्तेऽखिलं वित्तमभोग्यं संभविष्यति ।७७ ॥

तथा देवगणाः सर्वे साहाय्यं ये समाश्रिताः ॥
अत्र कुर्वंति दोषाढ्ये यज्ञे वै पांचभर्तृके ॥ ७८ ॥

संतानेन परित्यक्तास्ते भविष्यंति सांप्रतम्॥
दानवैश्च पराभूता दुःखं प्राप्स्यति केवलम् ॥ ७९ ॥

एतस्याः पार्श्वतश्चान्याश्चतस्रो या व्यवस्थिताः ॥
आभीरीति सप त्नीति प्रोक्ता ध्यानप्रहर्षिताः ॥ ६.१९२.८० ॥

मम द्वेषपरा नित्यं शिवदूतीपुरस्सराः ॥
तासां परस्परं संगः कदाचिच्च भविष्यति ॥ ८१ ॥


नान्येनात्र नरेणापि दृष्टिमात्रमपि क्षितौ ।
पर्वताग्रेषु दुर्गेषु चागम्येषु च देहिनाम् ।
वासः संपत्स्यते नित्यं सर्वभोगविवर्जितः ॥ ८२ ॥

              ।।सूत उवाच ॥

एवमुक्त्वाऽथ सावित्रीकोपोपहतचेतसा ॥
विसृज्य देवपत्नीस्ताःसर्वा याः पार्श्वतःस्थिताः॥ ८३॥

उदङ्मुखी प्रतस्थे च वार्यमाणापि सर्वतः ॥
सर्वाभिर्देवपत्नीभिर्लक्ष्मीपूर्वाभिरेवच ॥८४॥

तत्र यास्यामि नो यत्र नामापि किल वै यतः ॥
श्रूयते कामुकस्यास्य तत्र यास्याम्यहं द्रुतम् ॥८५॥

एकश्चरणयोर्न्यस्तो वामः पर्वतरोधसि ॥
द्वितीयेन समारूढा तस्यागस्य तथोपरि ॥८६॥

अद्यापि तत्पदं वामं तस्यास्तत्र प्रदृश्यते ॥
सर्वपापहरं पुण्यं स्थितं पर्वतरोधसि ॥८७॥

अपि पापसमाचारो यस्तं पूजयते नरः ॥
सर्वपातकनिर्मुक्तः स याति परमं पदम् ॥८८॥

यो यं काममभि ध्याय तमर्चयति मानवः॥
अवश्यं समवाप्नोति यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्॥८९॥


               ॥ सूत उवाच ॥ 
एवं तत्र स्थिता देवी सावित्री पर्वता श्रया ॥
अपमानं महत्प्राप्य सकाशात्स्वपतेस्तदा ॥ ६.१९२.९० ॥


यस्तामर्चयते सम्यक्पौर्णमास्यां विशेषतः॥
सर्वान्कामानवाप्नोति स मनोवांछितां स्तदा॥९१॥

या नारी कुरुते भक्त्या दीपदानं तदग्रतः ॥
रक्ततंतुभिराज्येन श्रूयतां तस्य यत्फलम् ॥ ९२ ॥

यावन्तस्तंतवस्तस्य दह्यंते दीप संभवाः॥
मुहूर्तानि च यावंति घृतदीपश्च तिष्ठति॥
तावज्जन्मसहस्राणि सा स्यात्सौभाग्यभांगिनी॥ ९३॥


पुत्रपौत्रसमोपेता धनिनी शील मंडना॥
न दुर्भगा न वन्ध्या च न च काणा विरूपिका॥९४।

या नृत्यं कुरुते नारी विधवापि तदग्रतः॥
गीतं वा कुरुते तत्र तस्याः शृणुत यत्फलम् ।९५॥

यथायथा नृत्यमाना स्वगात्रं विधुनोति च ॥
तथातथा धुनोत्येव यत्पापं प्रकृतं पुरा ॥ ९६ ॥

यावन्तो जन्तवो गीतं तस्याः शृण्वंति तत्र च ॥
तावंति दिवि वर्षाणि सहस्राणि वसेच्च सा ।९७॥

सावित्रीं या समुद्दिश्य फलदानं करोति सा ॥
फलसंख्याप्रमाणानि युगानि दिवि मोदते ॥ ९८ ॥

मिष्टान्नं यच्छते यश्च नारीणां च विशेषतः ॥
तस्या दक्षिणमूर्तौ च भर्त्राढ्यानां द्विजोत्तमाः ॥
स च सिक्थप्रमाणानि युगा नि दिवि मोदते ॥९९॥

यःश्राद्धं कुरुते तत्र सम्यक्छ्रद्धासमन्वितः॥
रसेनैकेन सस्येन तथैकेन द्विजोत्तमाः॥
तस्यापि जायते पुण्यं गयाश्राद्धेन यद्भवेत् ॥ ६.१९२.१००॥


यः करोति द्विजस्तस्या दक्षिणां दिशमाश्रितः॥
सन्ध्योपासनमेकं तु स्वपत्न्या क्षिपितैर्जलैः॥१०१॥

सायंतने च संप्राप्ते काले ब्राह्मणसत्तमाः॥
तेन स्याद्वंदिता संध्या सम्यग्द्वादशवार्षिकी॥१०२॥

यो जपेद्ब्राह्मणस्तस्याः सावित्रीं पुरतः स्थितः॥
तस्य यत्स्यात्फलं विप्राः श्रूयतां तद्वदामि वः॥ १०३॥

दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेन च पुरा कृतम् ॥
त्रियुगे तु सहस्रेण तस्य नश्यति पातकम् ॥१०४॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चमत्कारपुरं प्रति ॥
गत्वा तां पूजयेद्देवीं स्तोतव्या च विशेषतः।१०५॥

सावित्र्या इदमाख्यानं यः पठेच्छृणुयाच्च वा ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुखभागत्र जायते ॥ १०६ ॥

एतद्वः सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः॥
सावित्र्याः कृत्स्नं माहात्म्यं किं भूयः प्रवदाम्यहम् ॥ १०७॥

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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सावित्रीमाहात्म्यवर्णनंनाम द्विनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः॥१९२॥


        (स्कन्द पुराण नागर-खण्ड)

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स्कन्दपुराणम्-खण्डः ६ (नागरखण्डः)-अध्यायः १९३-

                 ॥ऋषय ऊचुः॥      
एवं गतायां सावित्र्यां सकोपायां च सूतज ॥
किं कृतं तत्र गायत्र्या ब्रह्माद्यैश्चापि किं सुरैः ॥१॥

एतत्सर्वं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः॥
कथं शापान्विता देवाः संस्थितास्तत्र मण्डपे॥२॥
                 ॥ सूत उवाच ॥
गतायामथ सावित्र्यां शापं दत्त्वा द्विजोत्तमाः ॥
गायत्री सहसोत्थाय वाक्यमेतदुदैरयत् ॥ ३ ॥

सावित्र्या यद्वचः प्रोक्तं तन्न शक्यं कथंचन ॥
अन्यथा कर्तुमेवाथ सर्वैरपि सुरासुरैः ॥ ४ ॥

महासती महाभागा सावित्री सा पतिव्रता ॥
पूज्या च सर्वदेवानां ज्येष्ठा श्रेष्ठा च सद्गणैः ॥ ५ ॥

परं स्त्रीणां स्वभावोऽयं सर्वासां सुरसत्तमाः॥
अपि सह्यो वज्रपातः सपत्न्या न पुनः कथा ॥६॥

मत्कृते येऽत्र शपिता सावित्र्या ब्राह्मणाः सुराः ॥
तेषामहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम् ।७।

अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मंत्रपुरःसरः ॥
सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरो त्तमाः ॥ ८ ॥

ब्रह्मस्थानेषु सर्वेषु समये धरणीतले ॥
न ब्रह्मणा विना किंचित्कृत्यं सिद्धिमुपैष्यति ।९॥

कृष्णार्चने च यत्पुण्यं यत्पुण्यं लिंग पूजने ॥
तत्फलं कोटिगुणितं सदा वै ब्रह्मदर्शनात् ॥
भविष्यति न सन्देहो विशेषात्सर्वपर्वसु ॥ ६.१९३.१०॥


त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥

तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि ॥
यत्तया कथितो वंशो ममायं गोपसंज्ञितः ॥
तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥ १२ ॥

एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः ॥
तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि ॥ १३ ॥

तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥ १४ ॥

यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वं शप्रभवानराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥ १५ ॥

भोभोः शक्र भवानुक्तो यत्तया कोपयुक्तया ॥
पराजयं रिपोः प्राप्य कारा गारे पतिष्यति ॥ १६ ॥

तन्मुक्तिं ते स्वयं ब्रह्मा मद्वाक्येन करिष्यति।१७॥

ततः प्रविष्टः संग्रामे न पराजयमाप्स्यसि ॥
त्वं वह्ने सर्वभक्षश्च यत्प्रोक्तो रुष्टया तया ॥१८॥

तदमेध्यमपि प्रायः स्पृष्टं तेऽर्च्चिर्भिरग्रतः ॥
मेध्यतां यास्यति क्षिप्रं ततः पूजामवाप्त्यसि।१९॥

स्वाहा नाम च भार्या या देवान्सन्तर्पयिष्यति ॥
स्वधा चाऽपि पितॄन्सर्वान्मम वाक्यादसंशयम् ॥६.१९३.२।

यद्रुद्र प्रियया सार्धं वियोगः कथितस्तया ॥
तस्याः श्रेष्ठ तरा चान्या तव भार्या भविष्यति॥
गौरीनामेति विख्याता हिमाचलसुता शुभा ॥२१ ॥

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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १९३ ॥ ॥


स्कन्दपुराणम्/खण्डः ६ (नागरखण्डः)/अध्यायः १९४

          ॥ सूत उवाच ॥ ॥
एवं सा तान्वरान्दत्त्वा सर्वेषां शापभागिनाम् ॥
मौनव्रतपरा भूत्वा निविष्टाऽथ धरातले ॥ १ ॥
ततो देवगणाः सर्वे तापसाश्च महर्षयः ॥
साधुसाध्विति तां प्रोच्य ततः प्रोचुरिदं वचः ॥ २ ॥
एतां देवीप्रसादेन ब्राह्मणानां विशेषतः ॥
पूजयिष्यंति मर्त्येऽत्र सर्वे लोकाः समाहिताः ॥ ३ ॥
ब्रह्माणं पूजयित्वा तु पश्चादेनां सुरेश्वरीम् ॥
पूजयिष्यंति ये मर्त्यास्ते तु यांति परां गतिम् ॥ ४ ॥
या कन्या पतिसंयोगं संप्राप्यात्र समाहिता ॥
ततः पादप्रणामं च गायत्र्याश्च करिष्यति ॥
पतिं प्रजापतिं प्राप्य सा भविष्यत्यसंशयम् ॥ ५ ॥
सर्वकामसुखोपेता धनधान्यसमन्विता ॥
या नारी दुर्भगा वंध्या भविष्यति च शोभना ॥ ६ ॥
॥ ऋषय ऊचुः ॥ ॥
यदेतद्भवता प्रोक्तं गते पंचोत्तरे शते ॥
पद्मजानां हरः प्रादादेतत्कथमनुत्त मम् ॥ ७ ॥
ब्राह्मणेभ्यः स संतुष्टः किंवाऽन्योऽस्ति महेश्वरः ॥
एतं नः संशयं भूयो यथावद्वक्तुमर्हसि ॥ ८ ॥
आयुष्यं शंकरस्यापि यत्प्रमाणं तथा हरेः ॥
ब्रह्मणोऽपि समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः ॥ ९ ॥
॥ सूत उवाच ॥ ॥
अहं वः कीर्तयिष्यामि विस्तरेण द्विजोत्तमाः ॥
त्रयाणामपि चायुष्यं यत्प्रमाणं व्यवस्थितम् ॥ ६.१९४.१० ॥
निमेषस्य चतुर्भागस्त्रुटिः स्यात्तद्द्वयं लवः ॥
लवद्वयं कला प्रोक्ता काष्ठा तु दशपंचभिः ॥ ११ ॥
त्रिंशत्काष्ठां कलामाहुः क्षणस्त्रिंशत्कलो मतः ॥
मुहूर्तमानं मौहूर्ता वदंति द्वादशक्षणम् ॥ १२ ॥
त्रिंशन्मुहूर्तमुद्दिष्टमहोरात्रं मनीषिभिः ॥
मासस्त्रिंशदहोरात्रैर्द्वौ मासावृतुसंज्ञितः ॥ १३ ॥
ऋतुत्रयं चायनं च अयने द्वे तु वत्सरम् ॥
दैविकं च भवेत्तच्च ह्यहोरात्रं द्विजोत्तमाः ॥ १४ ॥
उत्तरं चायनं तत्र दिनं रात्रिस्तथाऽपरम्॥
लक्षैः सप्तदशाख्यैस्तु मनुष्याणां च वत्सरैः ॥ १५ ॥
अष्टाविंशतिभिश्चैव सहस्रैस्तु तथा परैः ॥
आद्यं कृतयुगं चैव तद्भ विष्यति सद्द्विजाः ॥ १६ ॥
ततो द्वादशभिर्लक्षैः षोडशानां सहस्रकैः ॥
त्रेतायुगं समादिष्टं द्वितीयं द्विजसत्तमाः ॥ १७ ॥
द्वापरं चाष्टभिर्लक्षैस्तृ तीयं परिकीर्तितम् ॥
चतुःषष्टिसहस्रैस्तु यथावत्परिसंख्यया ॥ १८ ॥
चतुर्लक्षं समादिष्टं युगं कलिसमुद्भवम् ॥
द्वात्रिंशता सहस्रैस्तु चतुर्थं तद्विदुर्बुधाः ॥ १९॥
चतुर्युगसहस्रेण दिनं पैतामहं भवेत् ॥
तेषां त्रिंशद्दिनैर्मासो मासैर्द्वादशभिर्वत्सरो भवेत् ॥६.१९४.२॥।
ब्रह्मा तेषां शतं यावत्स जीवति पितामहः ॥
सांप्रतं चाष्टवर्षीयः षण्मासश्चैव संस्थितः ॥२१॥
प्रतिपद्दिवसस्यास्य प्रथमस्य तथा गतम् ॥
यामद्वयं शुक्रवारे वर्तमाने महात्मनः ॥ ॥२२॥
ब्रह्मणो वर्षमात्रेण दिनं वैष्णवमुच्यते ॥२३॥
सोपि वर्षशतंयावदात्ममानेन जीवति ॥
पंचपचाशदादिष्टास्तस्य जातस्य वत्सराः ॥ २४ ॥
तिथयः पंच यामार्द्धं सोमवारेण संगतम् ॥
वैष्णवेन तु वर्षेण दिनं माहेश्वरं भवेत् ॥ २५ ॥
शिवो वर्षशतं यावत्तेन रूपेण च स्थितः ॥
यावदुच्छ्वसितं वक्त्रं सदाशिवसमुद्भवम् ॥ २६ ॥
पश्चाच्छक्तिं समभ्येति यावन्निश्वसितं भवेत् ॥
निश्वासोच्छ्वसितानां च सर्वेषामेव देहिनाम् ॥ २७ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम् ॥
एकविंशत्सहस्राणि शतैः षड्भिः शतानि च ॥ २८ ॥
अहोरात्रेण चोक्तानि प्रमाणे द्विज सत्तमाः ॥
षड्भिरुच्छ्वासनिश्वासैः पलमेकं प्रवर्तते ॥ २९ ॥
नाडी षष्टिपला प्रोक्ता तासां षष्ट्या दिनं निशा ॥
निश्वासोच्छ्वसितानां च परिसंख्या न विद्यते ॥
सदाशिवसमुत्थानामेतस्मात्सोऽक्षयः स्मृतः ॥ ६.१९४.३० ॥
अन्येऽपि ये प्रगच्छंति ब्रह्मज्ञानसमन्विताः ॥
अक्षयास्तेऽपि जायंते सत्यमेतन्मयोदितम् ॥ ३१ ॥
॥ ऋषय ऊचुः ॥ ॥
यद्येवं सूतपुत्रात्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥
आत्मवर्षशते पूर्णे यांति नाशमसंशयम् ॥ ॥ ३२ ॥
तत्कथं मानुषाणां च मर्त्यलोकेल्पजीविनाम् ॥
कथयंति च ये मुक्तिं विद्वांसश्चैव सूतज ॥ ३३ ॥
नूनं तेषां मृषा वादो मोक्षमार्गसमु द्भवः ॥ ३४ ॥
॥ सूत उवाच ॥ ॥
अनादिनिधनः कालः संख्यया परिवर्जितः ॥
असंख्याता गता मोक्षं ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ३५ ॥
निजे वर्षशते पूर्णे वालुकारेणवो यथा ॥
निजमानेन या श्रद्धा ब्रह्मज्ञानसमुद्भवा ॥
तेषां चेन्मानुषाणां च तन्मुक्तिः स्यादसंशयम् ॥ ३६॥
यथैते दंशमशका मानुषाणां च कीटकाः ॥
जायंते च म्रियंते च गण्यंते नैव कुत्रचित् ॥
इन्द्रादीनां तथा मर्त्याः संभाव्या जगतीतले ॥ ३७ ॥
देवानां च यथा मर्त्याः कीटस्थाने च संस्थिताः ॥
तथा देवा अपि ज्ञेया ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ ३८ ॥
ब्रह्मणस्तु यथा देवाः कीटस्थाने व्यवस्थिताः ॥
तथा ब्रह्मापि विष्णोश्च कीटस्थाने व्यवस्थितः ॥ ३९ ॥
पितामहो यथा विष्णोः कीटस्थाने व्यवस्थितः ॥
तथा स शिवशक्तिभ्यां परिज्ञेयो द्विजोत्तमाः ॥ ६.१९४.४० ॥
यथा विष्णुः कृमिर्ज्ञेयस्ताभ्यामेव द्विजोत्तमाः ॥
सदाशिवस्य विज्ञेयौ तथा तौ कृमिरूपकौ ॥ ४१ ॥
एवं च विविधैर्यज्ञैः श्रद्धा पूतेन चेतसा ॥
ब्रह्मज्ञानात्परं यांति सदाशिवसमुद्भवम् ॥ ४२ ॥
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैः कृतैः संपूर्णदक्षिणैः ।।
तदर्थं ते दिवं यांति भुक्त्वा भोगान्पृथग्विधान् ॥ ४३ ॥
क्षये च पुनरायांति सुकृतस्य महीतले ॥
ब्रह्मज्ञानात्परं प्राप्य पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ४४ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन तत्राभ्यासं समा चरेत् ॥
जन्मभिर्बहुभिः पश्चाच्छनैर्मुक्तिमवाप्नुयात् ॥ ४५ ॥
एकजन्मनि संप्राप्तो लेशो ज्ञानस्य तस्य च ॥
द्वितीये द्विगुणस्तस्य तृतीये त्रिगु णो भवेत् ॥ ४६ ॥
एकोत्तरो भवेदेवं सदा जन्मनिजन्मनि ॥ ४७ ॥
॥ ऋषय ऊचुः ॥ ॥
ब्रह्मज्ञानस्य संप्राप्तिर्मर्त्यानां जायते कथम् ॥
एतन्नः सर्वमाचक्ष्व यदि त्वं वेत्सि सूतज ॥ ४८ ॥
।। सूत उवाच ॥ ॥
का शक्तिर्मम वक्तव्ये ज्ञाने मर्त्यसमुद्भवे ॥
स्वयमेव न यो वेत्ति स परस्य वदेत्कथम् ॥ ४९ ॥
उपदेशः परं यो मे पित्रा दत्तो द्विजोत्तमाः ॥
तमहं वः प्रवक्ष्यामि ब्रह्मज्ञानसमुद्भवम् ॥ ६.१९४.५० ॥
हाटकेश्वरजे क्षेत्रे ह्यस्ति तीर्थद्वयं शुभम् ॥
कुमारिकाभ्यां विहितं ब्रह्मज्ञानप्रदं नृणाम् ॥ ५१ ॥
ब्राह्मण्या चैव शूद्र्या च कुमारीभ्यां विनिर्मितम् ॥
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां यस्ताभ्यां स्नानमाचरेत् ॥ ५२ ॥
पश्चात्पूजयते भक्त्त्या प्रसिद्धे सिद्धिपादुके ॥
सुगुप्ते गर्तमध्यस्थे कुमार्या परिपूजिते ॥ ५३ ॥
तस्य संवत्सरस्यान्ते ब्रह्मज्ञानं प्रजायते ॥
शक्त्या विनिहिते ते च स्वदर्शनविवृद्धये ॥ ५४ ॥
लोकानां मुक्तिकामानां ब्रह्मज्ञानसुखावहे ॥
मम तातो गतस्तत्र ततश्च ज्ञानवान्स्थितः ॥ ५५ ॥
तस्यादेशादहं तत्र गतः संवत्सरं स्थितः ॥
पादुके पूजयामास ततो ज्ञानं च संस्थितम् ॥ ५६ ॥
यत्किञ्चिद्वा श्रुतं लोके पुराणाग्र्यं व्यवस्थितम् ॥
वर्तमानं भविष्यच्च तदहं वेद्मि भो द्विजाः ॥ ५७ ॥
तत्प्रसादादसंदिग्धं प्रमाणं चात्र संस्थितम् ॥
मुक्त्वैकं वेदपठनं सूतत्वं च यतो मयि ॥ ५८ ॥
तस्यापि वेद्मि सर्वार्थं भर्तृयज्ञो यथा मुनिः ॥
अस्मादत्रैव गच्छध्वं यदि मुक्तेः प्रयोजनम् ॥ ॥ ५९ ॥
किमेतैः स्वर्गदैः सत्रैः पुनरावृत्तिकारकैः ॥
आराधयध्वं ते गत्वा पादुके सिद्धिदे नृणाम् ॥
येन संवत्सरस्यान्ते ब्रह्मज्ञानं प्रजायते ॥ ॥ ६.१९४.६० ॥
॥ ऋषय ऊचुः ॥ ॥
साधुसाधु महाभाग ह्युपदेशः कृतो महान् ॥
तेन संतारिताः सर्वे वयं संसारसागरात् ॥ ६१ ॥
यास्यामोऽपि वयं तत्र सत्रे द्वादशवार्षिके ॥
समाप्तेऽस्मिन्न संदेहः सर्वे च कृतनिश्चयाः ॥ ६२ ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये ब्रह्मज्ञानप्राप्त्यर्थं कुमारिकातीर्थद्वयगर्तक्षेत्रस्थपादुकामाहात्म्यवर्णनंनाम चतुर्णवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ ॥ १९४ ॥






सूत जी कहते हैं ;- उस समय वहाँ उठ रहे महान वाद्यों के नाद को सुनकर नारद महर्षि अपनी माता सावित्री को समागत जानकर उनके सामने गये तथा उनको प्रणाम करके दीनतापूर्वक धर्रायी वाणी में अपने शाप मोचन के लिए तथा देवी की क्रोध-वृद्धि को देखकर मेघ-गम्भीर स्वर में कदम कदम पर रुकते रुकते कहने लगे- कलह-प्रिय ब्राह्मण नारद देव-स्त्रियों के सामने स्थित होकर कह रहे थे। हे देवी ! मैंने पहले आपको बुलाया था।
उसके बाद पुलस्त्य ने आपका आह्वान किया था। तो भी आपने स्त्री स्वभाव के कारण उसी समय आगमन नहीं किया इसी ब्रह्मा के आदेश से इन्द्र ने एक अन्य स्त्री को बुलाया। 
वे आभीर कन्या कुमारी और देवी रूपा हैं।१-६।
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उस आभीर कन्या को गो के मुख में प्रवेश कराया उसके बाद गो के गुदामार्ग से उसे खींचकर बाहर निकाला- भगवान विष्णु ने उसके साथ ब्रह्मा के विवाह  का अनुमोदन किया शंकर ने आपके नाम के ही अनुसार उसका नाम गायत्री रखा। 

तब ब्राह्मणों ने कहा था कि हे ब्रह्मन् यह ब्राह्मणी हो हमारे कथनानुसार आप इससे पाणिग्रहण कीजिए !
देवताओं द्वारा अभिहित होने पर ब्रह्मा ने दाक्षिण्य में योजित कर लिया। 
हे माता !
 आपसे और अधिक क्या कहा जाय-वे विधाता कि पत्नी-शाला में चलीं गयी। हे सुरेश्वरी दु:ख की बात क्या कहूँ।विधाता ने उस आभीर कन्या के कटि( कमर) में चन्द्रहार पहनाया। मैं यह गर्हित( निन्दित) कर्म देखकर यज्ञ मण्डप से गया। मैं क्रोधान्वित होकर यह दृश्य नहीं देख पाया।७-१२।

हे द्विज श्रेष्ठगण ! महर्षि नारद के मुख से यह वृतान्त सुनकर सावित्री की वह स्थिति हो गयी जिस प्रकार हिम पड़ने पर पद्मिनी की होती है। मूल कट जाने पर लता की,प्रिय से अलग हो जाने पर चकवी की प्रक्षीणा चन्द्रलेखा की हिरन से अलग हिरना की राजा के मर जाने पर सेना की और पति के मर जाने पर सती स्त्री की जो स्थिति होती है। जैसे सूखे फूलों की माला की स्थिति होती अथवा जैसे वह गाय जिसका बछड़ा मर गया हो  गायत्री की स्थिति इसी प्रकार परिलक्षित होने लगी। तब देवपत्नीयों ने गायत्री को बेमनवाली( वैमनस्य) तथा निश्चलत्व होते देखकर नारद से कहा-हे कलह-प्रिय तुमको धिक्कार है। तुमने हमारे इस राग को वैराग्य में बदल दिया। तुमने ब्रह्मा के साथ इसका मनमुटाव कराने लिए ही ऐसा किया है ।१४-१८।।


गौरी कहती हैं ;- हे देवी नारद तो कलह-प्रिय है।यह सच-झूँठ कहता ही रहता है। 
इस कर्म को करते हुए भी नारद प्राण-धारण करता है। हे सावित्री शंकर ने मुझसे पूर्वकाल में बारम्बार कहा था ।हे प्रिये पार्वति ! यदि तुम मेरे साथ सुखपूर्वक रहना चाहो तो नारद का वाक्य कभी भी मत सुनना- जब से मेने शंकर से यह सुना ! तब से मैं नारद के कथन या विश्वास नहीं करती हूँ। जहाँ तुम्हारे पति हैं हम सब वहाँ चलें वहाँ समस्त वृतान्त को जानकर जो कर्तव्य होगा।वह किया जाएगा ! अब चलो !हम इसकी बात मानकर वहाँ नहीं रुकेंगे।१९-२२।।

सूतजी कहते हैं!हे द्विजप्रवरवृन्दों! देवी सावित्री गौरी कि वाक्य सुनकर आनन्द से रहित स्थिति में लड़खड़ाते पैरों से यज्ञ मण्डप की ओर जाने लगी-तब वहाँ मधुर-गीत औरमृदंगादि वाद्यो की ध्वनि इनके कानों में शूल की तरह लगने लगी। जैसे मनुष्य प्रेत को नहीं देख सकते हैं  उसी प्रकार यह महा सती यज्ञ मण्डप की ओर जाते-जाते किसी को भी नहीं देख पा रहीं थी। उस समय उनको अपने अंगों के आभूषण अंगार के समान प्रतीत होने लगे । वे आँखों में आँसू भरे हुए दीन भाव से जा रहीं थी उन्होंने यज्ञ मण्डप में इस प्रकार से प्रवेश किया मानों किसी कारागार में जा रही हों-२३-२७।


सावित्री को यज्ञ मण्डप में प्रवेश करते देखकर लज्जा के कारण चतुर्मुखी ब्रह्मा नीचे मुख करके बैठे रह गये। 
शंकर, इन्द्र ,वासुदेव  ( विष्णु) जो भी देवता वहाँ उपस्थित थे। 
वे सभी नीचे मुख करके बैठे रह गये। 

ब्राह्मण लोग वेद-ध्वनि छोड़कर भय भीत हो शान्त भाव से स्थित हो गये। 

वहाँ सावित्री ने अपनी सौत के साथ अपने पति को देखा यह देखकर उसके नेत्र क्रोध से रक्तवर्ण हो गये। वह उनसे कठोर वाक्य कहने लगी-२८-३१।। 

सावित्री बोली- उसके बाद सावित्री पति को सौत के साथ एक ही आसन पर दौंनो को आसीन देखकर क्रोध से लाल नेत्र करके उनसे कहा । हे वृद्धतमाकृति ! क्या आपका ऐसा करना उचित है जिससे आपने विवाह किया है। वह गोप कन्या है। उनके दोनों कुल में स्त्रीयाँ इच्छा के अनुसार आपस में वरण की जाती हैं। उसके वंश के लोग शोचाचार- और धर्मकृत्य से विमुख (रहित )होते हैं।३२-३३।।

इस गोप कन्या के वंश के पुरुष सगी बहिन और माता के अतिरिक्त सभी स्त्रियों से संगत होकर कामाचार( मैथुन क्रिया) करते हैं।जिस प्रकार पशु तृण-घास कि भोजन करते हैं।
जलपान करके मलमूत्रत्याग और भारवहन करते हैं। इसी तरह इनके कुल वाले केवल दूध की जगह मठ्ठा( तक्र) ही पीते हैं।मलमूत्रत्यागना तथा अपना पेट-भरना ही इनके जन्म ग्रहण सा उद्देश्य रहता है। इनका इसके अतिरिक्त अन्य कर्तव्य और धर्म नहीं है।

अन्यज जाति के लोग भी जो घृणित कर्म नहीं करते अहीर जाति के लोग वह कर्म करते हैं।३४-३८।।

___________
हे व्यर्थमुण्ड वाले ब्रह्मा! यज्ञ मेंआपको क्या ऐसा पत्नी या प्रयोजन पड़ गया ।जिसके कारण आपने किसी प्रख्यात वंश वाली ब्राह्मण कन्या से विवाह न करके आभीर कन्या से विवाह किया ? आप अवश्य धूर्त हैं। तभी आपने (शौच-परित्यक्ता-कन्या- भावविदूषिता- बहुभुक्ता( बहुतों के द्वारा भोगी गयी) पापिनी तथा सौ वेश्याओं के बराबर गोप कन्या को ग्रहण किया? अत: आप अब पूजित नहीं होंगे  अन्त्यज कन्याऐं कन्या -अवस्था में ही क्षतयौनि हो जाती हैं ।इसी प्रकार कोई गोप कुमारी भी हो जाती है। ऐसी कन्या मातृ पितृ और श्वशुर कुल को भी पतित कर देती है।
इसलिए यदि मुझमें तनिक भी सत्य हो तो आप अन्य देव गणों की तरह जैसे वे पूजित होते हैं। पृथ्वी पर पूजित नहीं होंगे आपकी पूजा करने वाला धन हीन होगा। आप ऐसा घृणित कर्म करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते हैं। आपने ऐसा कर्म किया है । कि आपके पुत्र- पौत्र भी देवताओं और ब्राह्मणों के लिए अयोग्य हे गये। ३९-४६।






अथवा यह आपका दोष नहीं क्योंकि काम  भावना के वशीभूत  मनुष्य लज्जित नहीं होते वे क्या कृत्य है क्या अकृत्य है।क्या शुभ है क्या अशुभ है।क्या शुभ है क्या अशुभ है। इसकी पहचान नहीं कर पाते हैं काम ( sex) के वशीभूत लोग कर्तव्य को अकर्तव्य मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्रवत् मानने लगते हैं। जैसे जुआरी में सत्य चौर में सौहार्द राजा में  मित्रता नहीं होती है ।उसी रूप कामी में लज्जा नहीं होती है। भले ही अग्नि शीतल हो जाए चन्द्रमा जलाने लगे खार समुन्द्र मीठा हो जाए तो भी कामी में लज्जा नहीं होती यह ध्रुव सत्य है ।४७-५०।।




*

 मैं सौत के कारण दु:खी नहीं हूँ।
 हजारों स्त्रियों और पुरुषों के साथ ऐसा होता रहता है। 
यदि आप काम के वश में हो गये थे तो शुद्ध कुलीन स्वजातीय कन्या से विवाह क्यों नहीं किया।
 मुझे यही महान दु:ख है। कि तुमने वेश्या के समान नष्ट- चरित्रा अनेक पुरुषों वाली विगर्हिता आभीरी- कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है ।५१-५३।।
________________
 सावित्री ने कहा:-

हे कामलुब्ध निर्लज्ज ब्रह्मा ! मैं ऐसे स्थान पर जा रही हूँ।
जहाँ आपका कामलुब्ध नाम भी सुनायी न पड़ सके

 हे ब्रह्मा देवपत्नी, द्विज और देव गणों के समक्ष आपने मुझे विडम्बित किया ।
इस लिए आप किसी से भी पूजित नहीं होगें । 
आज से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कोई भी व्यक्ति  यदि अन्य देव गणों के समान तुम्हारी पूजा करेंगे तब वे और उनके आश्रित जन दरिद्र और दु:ख युक्त हो जाऐंगे-यह निन्दिता आभीर कन्या गायत्री जिसने मेरा स्थान छीन लिया है इसके सन्तान नहीं होगी।

 यह मेरा वचन है यह भी अन्य देव स्त्रीयों समान पूजित नहीं होगी इसकी पूजा करने वाली स्त्रीयाँ बाँझ और दुर्भगा( दूषित योनि) हो जाऐंगी। ५४-६१।।


यह पापिष्ठा नष्टचरित्रवाली पाँच पतियों वाली कहलाकर दु:ख्याति लाभ करेगी इसके साथी पापी निशाचर होंगे इसके वंशज सत्य-शौच रहित शिष्टसंग रहित अनिकेत( विनाघर के) तथा गौ से व्यवसाय जीविका चलाने वाले होंगे इस प्रकार सावित्री ने आभीर कन्या गायत्री को शाप दिया ।। ६२-६४।।





इसके बाद सावित्री ने सभी देवताओं को शाप प्रदान किया। उन्होंने कहा हे इन्द्र! पाँच पति वाली कन्या  को तुम ही लाये थे।इस प्रकार तुमने गुरु बृहस्पति का शुभ किया । अत: तुम नि: सन्देह कारागार में जाओगे- हे वासुदेव ( विष्णु) तुमने ही इस पञ्चपति वाली कन्या कि अनुमोदन किया था। इसलिए मैं तुमको शाप देती हूँ। हे दुर्मति ! 
तुम भी पराऐ के भृत्य( सेवक) होंगे। हे रूद्र ! तुमने पास रहकर देखते हुए भी इस कृत्य को नहीं रोका तथा उपेक्षा किया अत: तुम मेरा कथन  सुनो ! मैं जिस प्रकार पति के जीवित रहते हुए पति का विरह अनुभव कर रही हूँ।उसी प्रकार तुम भी अपनी पत्नी के मरने पर दु:ख अनुभव करोगे-।।६५-७०।।


हे अग्नि ! तुमने भी उस पाँच पतियों वाली ( अनेक पतियों वाली) के  प्रवेश करने पर लोलुपतावश हवि ग्रहण किया था। इस लिए तुम सर्वभक्षी हो जाओ-साथ ही तुम अपनी दौनों पत्नीयों स्वाहा और स्वधा के साथ दु:खी रहोगे- सर्वदा सुखी नहीं हो सकोगे और जिन ब्राह्मणों ने लोभ के वश में होकर इस यज्ञ में धन के लिए होम किया है। तथा पाँच पतियों वाली कन्या को यज्ञ मण्डप में प्रवेश कराया है। तथा इस कन्या को ब्रह्माणी कहा है। इस लिए ऐसे तुम सब ब्राह्मण दरिद्र वृषली स्त्री के पति तथा वेद-विक्रेता हो जाओगे  इसमें सन्देह नहीं है।७१-७६।।


हे धनपति कुबेर तुमने इस यज्ञ विप्लव में धनदान किया है इस लिए तुम्हारा सारा धन अयोग्य होगा। इस पाँच पतियों वाली के यज्ञ में जिन देवताओं ने सहायता की है वे सन्तान वर्जित और दानवों से पराजित होकर दु:ख भोग करेगे- इस आभीरीणी के चारों ओर( चतुर्पार्श्व) में रहने वाली जो  ध्यान- हर्षिता अहीरिणी हैं वे तथा शिवदूतीगण आपस में संग-लाभ नहीं कर सकेंगी मनुष्यों के अतिरिक्त जो लोग यहाँ उपस्थित हैं।वे मेरी दृष्टि मात्र से पूर्वाग्रह में दुर्ग तथा अगम्य स्थलों में सर्व भोग रहित होकर निवास करेंगे।।७७-८२।

सूत जी कहते हैं ;- कुपित भाव से सावित्री ने यह कहने के बाद देव पत्नी यों को वहीं छोड़ कर उत्तर सी ओक प्रस्थान किया।
 तब लक्ष्मी आदि देवपत्नीयाँ चारो दिशाओं में खड़ी होकर उन्हें रोकने लगीं।तो भी उन्होंने किसी के भी अनुरोध को नहीं माना ।८३-८४।। नागर खण्ड उत्तरार्द्ध १५-



सावित्री कहती है:- जहाँ इस कामुक का नाम भी सुनाई न पड़े मैं वहाँ जा रही हूँ। तब उन्होंने वाँया पैर पर्वतपाद और दाहिना पर्वत के शिखर पर रखा।आज भी उनका वाम चरण वहाँ दिखाई देता है ।यह चरण सर्वपापहारी और पुण्यप्रद है । जो पर्वतपाद पर स्थित है।
 जो पापी इस चरण की पूजा करता है। वह सर्व पाप रहित होकर परम पद का लाभ प्राप्त करता है। जो व्यक्ति जिस कामना को करके इस चरण का पूजन करता है । वह अपनी दुर्लभ कामना को भी प्राप्त कर लेता है।८५-८९।।


सूतजी कहते हैं:- सावित्री ने पति को पास से इस प्रकार अपमानित होने के बाद पर्वत या आश्रय लिया 
जो व्यक्ति पूर्णमासी के दिन इस चरण की पूजा करते हैं।

वे सब वांछित लाभ कर लेते हैं। नारी रक्त तन्तु ( लाल धागे की बत्ती) तथा घी से यहाँ दीप दान करती है उसको प्राप्त होने वाले फल को सुनिए -इस दीप की बत्ती और घृत दीप जब तक वर्तमान रहता है।दीप प्रदान करने वाली स्त्री उतने जन्मों तक सौभाग्यशाली बनी रहती है ।साथ ही वह पुत्र-पौत्र युक्ता।धनी शीलमण्डिता रहती है। वह कभी दुर्भाग्यशालिनी बन्ध्या, कानी और कुरूपा नहीं होती है ।९०-९४।।




यहाँ यदि विधवा स्त्री भी नृत्य-गीता आदि करती है तब उसको प्राप्त होने वाला  फल सुनिए-वह नृत्य काल में जैसे जैसे अंगों को कम्पित करती है ।वैसे वैसे उसके पाप भी कम्पित होते जाते हैं ।जितने प्राणी उसके गीत को सुनते हैं वह उतने हजार वर्ष तक स्वर्ग में निवास करते है। जो नारी सावित्री के उद्देश्य से फल दान करती है।वह जितने फल दान करती है उतने काल तक स्वर्ग में आनन्द का अनुभव करती रहता है।जो व्यक्ति इस स्थान पर पति और पत्नी को मिष्ठान्न देता है वह उसमे जितने दाने हैं उतने युग तक स्वर्ग में आनन्दित होता है।९५-९९।।


जो यहाँ पर श्रद्धा भाव से श्राद्ध प्रदान करता है। भले ही वह मात्र एक ही रस ( षड् रस में से एक ही रस युक्त दृव्य से)वाला अथवा एक ही अन्न से श्राद्ध करता है। उसे गया में श्राद्ध करने के समान फल कि प्राप्ति होती है। जो द्विज उसके दक्षिण  दिशा की ओर आश्रय करके अपनी पत्नी के साथ सायं सन्ध्या करता है। उसे २४ वर्ष सन्ध्या करने का फल तत्काल मिल जाता है । जो ब्राह्मण सावित्री के समक्ष तप करते हैं । हे विप्रो! उनको मिलने वाले फल को सुनिए-।१००-१०३।।

उनके दशशत जन्मार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं।तथा तीन हजार वर्षों में किए गये पापों कि नाश हो जाता है। अत: सभी लोग चमत्कार पुर जाकर इस देवी कि पूजा और स्तवन करें ।१०४-१०५।।




देवी गायत्री का उपाख्यान जो मानव पाठ करता है। अथवा सुनता है ।वह सर्वपापों से मुक्त होकर सुखी हो जाता है । हे द्विज गण आप लोंगों ने जो प्रश्न किया था उस सावित्री महात्मय को मैंने आप लोगों से कह दिया है ।
अब क्या कहना है वह पूछिए-१०६-१०७
१९२वाँ अध्याय समाप्त ।।
स्कन्द पुराण नागरखण्ड।।







अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ- 
अहीर जाति-
सेमेटिक पुरा कथाओं में जिस प्रकार यहुदह् ( यदु:) के पिता याकूव/ जैकव को अबीर नाम से वर्णन किया गया है जो की ईश्वर का एक नाम है।
और भारतीय पुराणों में ययाति का वर्णन भी उसी प्रकार है जिस प्रकार सेमेटिक मिथकों में याकूव का 
याकूव से जैकव तथा फिर हाकिम जैसे शब्द विकिसित हुए।
उसी प्रकार पद्म पुराण में अहीर जाति में ही अत्रि से लेकर ययाति तथा उनके वाद के यदु: और तुर्वसु को दर्शाया गया है।
 जबकि अत्रि ब्रह्मा को सात मानस पुत्रों में से एक हैं। 
जो स्वयं वेदों सी अधिष्ठात्री देवी गायत्री का विवाह जगतपिता ब्रह्मा के साथ कराते हैं।
यदि हम सैमेटिक मिथकों में याकूव की। 
बात करें तो यह शब्द यूरोप की अनेक भाषाओं में बहुत से उच्चारण भेदी रूपों में दृष्टिगोचर होता है।

इसी सा रूपान्तरण जेम्स( jems) एक अंग्रेजी भाषा का शब्द है; जिसे हिब्रू मूल का नाम दिया गया है, जो आमतौर पर पुरुषों के लिए उपयोग किया जाता है। यह मूलत: हिब्रू भाषा के याकूब शब्द का रूपान्तरण है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से याकूव और जेम्स शब्द मूलत: एक है।
यह एक आधुनिक  याकूव का वंशज शब्द है।जिसे हम जेम्स कहते हैं।

अरबी - हाकिम-
संस्कृत- ययाति-
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अबीर अर्थ-
बाइबिल हिब्रू में अबीर
मैं
अबीर श्रेणियां:
मैं
पुरुष नाम
मैं
दिव्य नाम
मैं
ע

🔼 नाम अबीर: सारांश
अर्थ- पराक्रमी, रक्षक, ढाल
शब्द-साधन( शब्द व्युत्पत्ति)
क्रिया אבר ( 'br ) से, बलवान होना या रक्षा करना। संस्कृत वृ(आवृणोति)
संबंधित नाम
• वाया ( ' br ) : इब्राहीम , अब्राम , 
🔼 बाइबिल में नाम अबीर
अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर( शक्तिशाली) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। (अवर)अबीर नाम बाईबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले नहीं; पाँच बार यह (याकूब) नाम के साथ और एक बार इस्राएल के साथ जोड़ा गया है।

यशायाह 1:24 में हम प्रभु के चार नामों को तेजी से उत्तराधिकार में पाते हैं जैसा कि यशायाह रिपोर्ट करता है: "इसलिए १-अदोन २-यहोवा ३-सबोत  ४अबीर  इज़राइल घोषित करता है । यद्यपि -"एलॉहिम"  भी ईश्वर का एक अन्य नाम है जोकि "एल" का बहुवचन रूप है ।

यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी मिलती है: "सभी मांस जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा मुक्तिदाता, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

पूरा नाम अबीर जैकब सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था।  अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों की आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजनहार ने राजा डेविड को याद किया, जिसने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक कि उसे (YHWH) "यह्व" के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132:2-5)।

🔼 अबीर नाम की व्युत्पत्ति
अबीर नाम जड़ אבר ( 'br' ) से आया है, जिसका मोटे तौर पर मतलब होता है मजबूत होना:

 क्रिया אבר ( 'br ) का अर्थ है मजबूत या दृढ़ होना, विशेष रूप से रक्षात्मक तरीके से (आक्रामक के बजाय)। व्युत्पन्न संज्ञाएं אבר ( ' एबर ) और אברה ( 'एब्रा ) पिनियन (ओं) को संदर्भित करती हैं; जो एक पक्षी के पंख बनाती हैं, जिसका अर्थ है कि पूर्वजों ने एवियन पंखों को उड़ने के बजाय रक्षा करने के साधन के रूप में देखा (हस्ताक्षर) इसलिए, स्वर्गदूतों की विशेषता उड़ने की क्षमता नहीं बल्कि रक्षा करने की प्रवृत्ति है)।

क्रिया ( ' अबार ) पिनियन से की जाने वाली गतिविधियों का वर्णन करती है, जो उड़ना या रक्षा करना है। विशेषण ( 'अब्बीर' ) , जिसका अर्थ है रक्षात्मक तरीके से मजबूत; सुरक्षात्मक।

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हमारे समाज और देश में बड़े बड़े अनुसन्धान कर्ता  हुए हैं। 
अभी अभी एक शूद्र वादी  विचारधारा के पोषक  विद्वान  लेखक "राकेश यादव जी" ने 'अहीर शब्द की कुण्डली को खोज कर इसकी व्युत्पत्ति की नयी थ्योरी ईजाद की  है।

उनके अनुसार अहीर शब्द वर्हि: शब्द का रूपान्तरण है।
न कि आभीर शब्द का

परन्तु  लेखक ने  संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण वर्हि; शब्द का अर्थ केवल मोर को ही माना हैं। जबकि वर्हि: का अर्थ मुर्गा भी होता है ।

("वर्हमस्य+ इन) -व्युपत्ति से जिसके वर्हम ( पूँछ-पंख हो  वह वर्हिण- या वर्हि: होने से मयूर तथा मुर्गा का वाचक है ।

यद्यपि अहीर लोग मोर अथवा मुर्गा तो नहीं पालते थे जिन्हें वर्हि से सम्बद्ध किया जाए।
 
परन्तु मोर पंख का मुकुट  अहीर  जाति में उत्पन्न यादवों के तत्कालिक नायक श्रीकृष्ण अवश्य धारण करते थे ।
 
मयूर पालना गुप्त काल में  मगध के  मौर्यों  का कार्य रहा है  ।
विदित हो कि ब्राह्मणीय-
वर्ण-व्यवस्था में यादवों अथवा अहीर जाति को समाहित नहीं किया जा सकता है।

क्यों कि जब वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा भी नहीं थी तब  भी अहीर जाति  थी।

क्यों कि अहीर जाति में ईश्वरीय विभूतियों के रूप में अनेक वैष्णवी शक्तियों ने अवतरण किया है।

आभीर जाति के नायक / नायिका "गायत्री "दुर्गा "राधा  और विन्ध्याचल वासिनी तथा कृष्ण और बलराम आदि के रूप में  गोप लीला करते हुए भी भागवत धर्म का द्वार समस्त शूद्र और स्त्रीयों के लिए खोल देते हैं ।

गोप अहीरों के द्वारा नारायणी सेना बना कर दुष्टों का संहार कर देते हैं ।
युद्ध- भूमि में कृष्ण सूत बनकर रथ भी हाँकते हैं।

और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में शूद्र बनकर उच्छिष्ट ( झूँठी) पत्तर भी  कृष्ण  उठाते हैं।
 
और वैश्यवृत्ति समझी जाने वाले कार्य  कृषि-और गोपालन  करने वाले होकर गायें भी चराते हैं ।

फिर अहीरों के लिए वर्ण- व्यवस्था के क्या मायने हैं ? 
अहीर हिन्दु नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में बनिया ब्राह्मण और ठाकुर या राजपूत  समझे जाने वाले लोग श्रीराम के नाम पर भगवा के बैनर तले एक जुट हैं ।
अहीरों तुम हिन्दू नहीं हो उन अर्थों में जिन अर्थों में तुम आज स्वयं को कह रहो हो ।
हिन्दू ब्राह्मण वाद या पूरक शब्द है ।

और हिन्दु को रूप में वर्णव्यवस्था को अन्तर्गत आपको शूद्र वर्ण में स्थित किया जाएगा ।

अहीर भागवत हैं  सात्वत हैं ।
जिसे मनु स्मृति कार ने पूर्वदुराग्रह वश शूद्र बनाने की कोशिश की है।

"वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।
"कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च॥10.23 )
 -मनुस्मृति-

वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और (सात्वत) कहते हैं।

जबकि पुराणों के अनुसार (सात्वत) यादवों का वह समुदाय है जिसने भागवत धर्म का प्रतिपादन किया।
सात्वत संहिता या सात्त्वत संहिता एक पञ्चरात्र संहिता है।
 सात्वतसंहिता, पौस्करसंहिता तथा जयाख्यासंहिता को सम्मिलित रूप से 'त्रिरत्न' कहा जाता है।
 सात्त्वत संहिता की रचना ५०० ई के आसपास हुई मानी जाती है। 

अतः यह सबसे प्राचीन पंचरात्रों में से एक है। यह गुप्त काल था जब भागवत धर्म अपने चरम पर था।सभी गुप्त राजा परमभागवत की उपाधि अपने नाम के अन्त में लगाते थे यही वो काल था जब भगवान श्रीकृष्ण सी बहुतायत नीतियों का निर्माण हुआ।

सातत्व का शाब्दिक अर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] (१) बलराम (२) श्रीकृष्ण (३) विष्णु (४) यदुवंशी । यादव (५) परन्तु मनुस्मृति-संहिता के अनुसार  सात्वत एक वर्ण संकर जाति है  ।जिसकी उत्पत्ति जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान  सात्वत के अनुयायी । प्राचीन ग्रन्थों में ये सात्वत  वैष्णव हैं (७) एक प्राचीन देश का नाम ।
विशेषण (१) विष्णु से संबंधित । वैष्णव (२) भक्त (३) पंचरात्र से संबंधित 
______
मनुस्मृतिकार ने तो अहीर जाति को भी वर्णसंकर बनाकर निम्नरूप में वर्णन किया है।

"ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतो नाम जायते।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः॥[मनु स्मृति 10.15]

उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) उसमें ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण कहते हैं ।
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जबकि स्मृतियों से पूर्व लिखित ग्रन्थ पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व सिद्ध होता है जब कोई वर्णसंकर जाति भी सृष्टि में नहीं थी तब अहीर थे । अत: अहीरों को वर्णसंकर कहना शास्त्रकार की मूढ़ता का परिचायक है ।
अहीर वह प्राचीनतम जाति है जिसमें सतयुग को प्रारम्भ में ही गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं। 
अत: अहीर प्रत्येक रूप में वैष्णव ही हैं । 
और इनकी सात्विकता तथा सदाचार या वर्णन सबसे प्राचीन पुराण पद्म पुराण भी करता है।

"धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया (गायत्र्या) तारितो  गच्छ ( युवां भो ! आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान् ।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
 
हिन्दी अनुवाद -★
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।१५।

हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति में यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।१६।

और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) तब होगी जब धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।१७।
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स्कन्दपुराणनागर खण्ड-में भी गायत्री की कथा-का वर्णन निम्न लिखित है।
"
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥
(तत्रापि परभृत्यत्वं परेषां ते भविष्यति ॥११॥ 

तत्कृत्वा रूपद्वितयं तत्र जन्म त्वमाप्स्यसि ॥
यत्तया कथितो वंशो ममायं (गोपसंज्ञितः) ॥
तत्र त्वं पावनार्थाय चिरं वृद्धिमवाप्स्यसि ॥ १२ ॥

एकः कृष्णाभिधानस्तु द्वितीयोऽर्जुनसंज्ञितः ॥
तस्यात्मनोऽर्जुनाख्यस्य सारथ्यं त्वं करिष्यसि ॥ १३॥

तेनाकृत्येऽपि रक्तास्ते गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् ॥
सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः।१४॥

यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥

भोभोः शक्र भवानुक्तो यत्तया कोपयुक्तया ॥
पराजयं रिपोः प्राप्य कारागारे पतिष्यति ॥ १६ ॥

तन्मुक्तिं ते स्वयं ब्रह्मा मद्वाक्येन करिष्यति।१७।

ततः प्रविष्टः संग्रामे न पराजयमाप्स्यसि ॥
त्वं वह्ने सर्वभक्षश्च यत्प्रोक्तो रुष्टया तया ॥ १८ ॥

तदमेध्यमपि प्रायः स्पृष्टं तेऽर्च्चिर्भिरग्रतः ॥
मेध्यतां यास्यति क्षिप्रं ततः पूजामवाप्त्यसि।१९ ।

स्वाहा नाम च भार्या या देवान्सन्तर्पयिष्यति॥
स्वधा चाऽपि पितॄन्सर्वान्मम वाक्यादसंशयम्॥६.१९३.२।

यद्रुद्र प्रियया सार्धं वियोगः कथितस्तया ॥
तस्याः श्रेष्ठ तरा चान्या तव भार्या भविष्यति ॥
गौरीनामेति विख्याता हिमाचलसुता शुभा ।२१ ॥

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इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठेनागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये गायत्रीवरप्रदानोनाम त्रिनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः।१९३।

____________

यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवानराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति॥१५॥

स्कन्दपुराण को नागर खण्ड में वर्णन है कि  गोपा अथवा आभीर जहाँ भी रहेंगे वहीं वहीं मेरे वंश के प्रभाव से सभी देवता और लक्ष्मी निवास करेंगे चाहें वह स्थान वन ही क्यों न हो!!

वास्तव में वैष्णव ही इन अहीरों का अपना वर्ण है विष्णु" का  एक मत्स्य मानव के रूप में  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णन है वे वहाँ भी विष्णु एक सुमियिन देवता है।
वे विष्णु ही वेदों में गोप के रूप में  गायों का पालन करता है।

वही विष्णु अहीरों में जन्म लेते हैं । और यह
अहीर शब्द भी अपने पूर्व में वीर शब्द का रूपान्तरण होता  है।
________
 "विदित हो की "आभीर शब्द  अभीर शब्द का समूह वाची रूप है। 

परन्तु परवर्ती शब्दकोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की। है जैसे क्रमश: देखें-
____

यह प्रथम उत्पत्ति अमरसिंह के शब्दकोश अमरकोश पर आधारित है ।

अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोशकार 
(२)-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति (अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर: ) के  रूप में की अमरसिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।

तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर ही गो और महिष पालने वाले "वीर" चरावाहे थे ! 

अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शलआर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 
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अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।

अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि "अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका के  जिम्बाब्वे में था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थी ।
________

प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

परन्तु परवर्ती पुराण तथा स्मृतियों में अहीरों की महानता से द्वेष रखने वाले पुरोहितों ने अहीरों को शूद्र और व्यभिचारी रूप में वर्णित किया है ।

जैसा कि वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को मानते हुए भी स्कन्द पुराण ,नान्दी उपपुराण, और लक्ष्मी नारायणसंहिता आदि ग्रन्थों में अहीरों को सावित्री के शाप के बहाने से दुराचारी तक बताया गया है । 

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा शक्रं प्रोवाच सादरम् ॥
कृतस्नानं सुरैः सार्धं विनयावनतं स्थितम् ॥४९॥

सहस्राक्षं त्वया कष्टं मन्मखे विपुलं कृतम् ॥
आनीता च तथा पत्नी गायत्री च सुमध्यमा ॥ ६.१९०.५० 
॥ -स्कन्दपुराण नागर खण्ड १९०

स्कन्द पुराण के १९२ वें अध्याय में प्रक्षेप रूप में
गायत्री का नामकरण कथानक का भाव कम शं भंग करके शंकर( ईश्वर) के द्वारा गायत्री का नामकरण कराया गया जबकि इससे इसी नागरखण्ड के पहले १९०वें अध्याय में  अहीर कन्या को गायत्री नाम पहले से ही ब्रह्मा को द्वारा संबोधित है।

और तो और इस पुराण के इस खण्ड में अहीरों को अपवित्र तथा उनकी स्त्रियों को बहुत से पतियों वाली बताकर दुराचारी रूप नें दर्शाया है ।

स्कन्दपुराणम्- खण्डः ६ (नागरखण्डः)अध्यायः १९२वाँ अध्याय-

                         ॥ सूत उवाच ॥ 
अथ श्रुत्वा महानादं वाद्यानां समुपस्थितम् ॥
नारदः सम्मुखः प्रायाज्ज्ञात्वा च जननीं निजाम्॥ १॥
प्रणिपत्य स दीनात्मा भूत्वा चाश्रुपरिप्लुतः॥
प्राह गद्गदया वाचा कण्ठे बाष्पसमावृतः ॥२॥

आत्मनः शापरक्षार्थं तस्याः कोपविवृद्धये ॥
कलिप्रियस्तदा विप्रो देवस्त्रीणां पुरः स्थितः ॥३॥

मेघगम्भीरया वाचा प्रस्खलंत्या पदेपदे ॥
मया त्वं देवि चाहूता पुलस्त्येन ततः परम् ॥४॥

स्त्रीस्वभावं समाश्रित्य दीक्षाकालेऽपि नागता॥५॥
___________________________________
ततो विधेः समादेशाच्छक्रेणान्या समाहृता ॥
काचिद्गोपसमुद्भूता कुमारी देव रूपिणी ॥ ६ ॥

गोमुख में प्रवेश कराकर गुदा मार्ग से निकालने पर गायत्री नाम का विधान तथा आभीर कन्या को ब्राह्मणी बनाना-★

गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्यमार्गेण तत्क्षणात् ॥
आकर्षिता महाभागे समानीताथ तत्क्षणात् ॥७॥

सा विष्णुना विवाहार्थं ततश्चैवानुमोदिता ॥
ईश्वरेण कृतं नाम गायत्री च तवानुगम् ॥८॥

ब्राह्मणैः सकलैः प्रोक्तं ब्राह्मणीति भवत्वियम्॥
अस्माकं वचनाद्ब्रह्मन्कुरु हस्तग्रहं विभो॥९॥
__________
 देवैः सर्वैः स सम्प्रोक्तस्ततस्तां च वराननाम् ॥
ततः पत्न्युत्थधर्मेण योजयामास सत्वरम् ॥६.१९२. १० ॥
किं वा ते बहुनोक्तेन पत्नीशालां समागता ॥
रशना योजिता तस्या गोप्याः कट्यां सुरेश्वरि॥११॥

तद्दृष्ट्वा गर्हितं कर्म निष्क्रांतो यज्ञमण्डपात् ॥
अमर्ष वशमापन्नो न शक्तो वीक्षितुं च ताम् ॥१२॥

एतज्ज्ञात्वा महाभागे यत्क्षमं तत्समाचर ॥
गच्छ वा तिष्ठ वा तत्र मण्डपे धर्मवर्जिते ॥ १३॥

तच्छ्रुत्वा सा तदा देवी सावित्री द्विजसत्तमाः ॥
प्रम्लानवदना जाता पद्मिनीव हिमागमे ॥१४ ॥

लतेव च्छिन्नमूला सा चक्रीव प्रियविच्युता ॥
शुचिशुक्लागमे काले सरसीव गतोदका ॥१५॥

प्रक्षीणचन्द्रलेखेव मृगीव मृगवर्जिता ॥
सेनेव हतभूपाला सतीव गतभर्तृका ॥ १६ ॥

संशुष्का पुष्पमालेव मृतवत्सैव सौरभी ॥
वैमनस्यं परं गत्वा निश्चलत्वमुपस्थिताम् ॥
तां दृष्ट्वा देवपत्न्यस्ता जगदुर्नारदं तदा ॥ १७ ॥

धिग्धिक्कलिप्रिय त्वां च रागे वैराग्यकारकम् ॥
त्वया कृतं सर्वमेतद्विधेस्तस्य तथान्तरम् ॥ १८ ॥
                      ॥ गौर्युवाच ॥
अयं कलिप्रियो देवि ब्रूते सत्यानृतं वचः ॥
अनेन कर्मणा प्राणान्बिभर्त्येष सदा मुनिः ॥ १९ ॥

अहं त्र्यक्षेण सावित्रि पुरा प्रोक्ता मुहुर्मुहुः ॥
नारदस्य मुनेर्वाक्यं न श्रद्धेयं त्वया प्रिये ॥
यदि वांछसि सौख्यानि मम जातानि पार्वति ॥ ६.१९२.२० ॥

ततःप्रभृति नैवाहं श्रद्दधेऽस्य वचः क्वचित् ॥
तस्माद्गच्छामहे तत्र यत्र तिष्ठति ते पतिः ॥ २१ ॥

स्वयं दृष्ट्वैव वृत्तांतं कर्तव्यं यत्क्षमं ततः ॥
नात्रास्य वचनादद्य स्थातव्यं तत्र गम्यताम् ॥२२॥

                       ॥ सूत उवाच ॥ 
गौर्या स्तद्वचनं श्रुत्वा सावित्री हर्षवर्जिता ॥
मखमण्डपमुद्दिश्य प्रस्खलन्ती पदेपदे ॥ २३ ॥

प्रजगाम द्विजश्रेष्ठाः शून्येन मनसा तदा ॥
प्रतिभाति तदा गीतं तस्या मधुरमप्यहो ॥२४॥

कर्णशूलं यथाऽऽयातमसकृद्द्विजसत्तमाः ॥
वन्ध्यवाद्यं यथा वाद्यं मृदंगानकपूर्वकम् ॥ २५ ॥

प्रेतसंदर्शनं यद्वन्मर्त्यं तत्सा महासती ॥
वीक्षितुं न च शक्रोति गच्छमाना तदा मखे ॥२६॥

शृंगारं च तथांगारं मन्यते सा तनुस्थितम् ॥
वाष्पपूर्णेक्षणा दीना प्रजगाम महासती ॥२७॥

ततः कृच्छ्रात्समासाद्य सैवं तं यज्ञमंडपम् ॥
कृच्छ्रात्कारागृहं तद्वद्दुष्प्रेक्ष्यं दृक्पथं गतम् ॥२८॥

अथ दृष्ट्वा तु संप्राप्तां सावित्रीं यज्ञमण्डपम् ॥
तत्क्षणाच्च चतुर्वक्त्रः संस्थितोऽधोमुखो ह्रिया।२९॥

तथा शम्भुश्च शक्रश्च (वासुदेवस्तथैव) च ॥
ये चान्ये विबुधास्तत्र संस्थिता यज्ञमंडपे ॥ ६.१९२.३०॥

ते च ब्राह्मणशार्दूलास्त्यक्त्वा वेदध्वनिं ततः ॥
मूकीभावं गताः सर्वे भयसंत्रस्तमानसाः ॥३१॥

अथ संवीक्ष्य सावित्री सपत्न्या सहितं पतिम् ॥
कोपसंरक्तनयना परुषं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
                  ॥ सावित्र्युवाच ॥
किमेतद्युज्यते कर्तुं तव वृद्ध तमाकृते ॥
ऊढवानसि यत्पत्नीमेतां गोपसमुद्भवाम्।३३।
_____________________
उभयोः पक्षयोर्यस्याः स्त्रीणां कांता यथेप्सिताः ॥
शौचाचारपरित्यक्ता धर्मकृत्यपराङ्मुखाः ॥३४॥
________________
यदन्वये जनाः सर्वे पशुधर्मरतोत्सवाः॥
सोदर्यां भगिनीं त्यक्त्वा जननीं च तथा पराम्॥ ३५॥
____________
तस्याः कुले प्रसेवंते सर्वां नारीं जनाः पराम् ॥
यथा हि पशवोऽश्नंति तृणानि जलपानगाः ॥३६॥

विण्मूत्रं केवलं चक्रुर्भारोद्वहनमेव च॥९
तद्वदस्याः कुलं सर्वं तक्रमश्राति केवलम् ॥३७॥
______________
कृत्वा मूत्रपुरीषं च जन्मभोगविवर्जितम् ॥
नान्यज्जानाति कर्तव्यं धर्मं स्वोदरसं श्रयात्॥३८।

अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् ॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९॥
___________________________________
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ॥
त्वया वा ब्राह्मणी कापि प्रख्याता भुवनत्रये ॥ ६.१९२.४०॥
_________________________
नोढा विधे वृथा मुण्ड नूनं धूर्तोऽसि मे मतः ॥
यत्त्वया शौचसंत्यक्ता कन्याभावप्रदूषिता॥४१॥

प्रभुक्ता बहुभिः पूर्वं तथा गोपकुमारिका॥
एषा प्राप्ता सुपापाढ्या वेश्याजनशताधिका॥४२॥

अन्त्यजाता तथा कन्या क्षतयोनिः प्रजायते॥
तथा गोपकुमारी च काचित्तादृक्प्रजायते॥४३॥

मातृकं पैतृकं वंशं श्वाशुरं च प्रपातयेत्।
तस्मादेतेन कृत्येन गर्हितेन धरातले॥४४॥

न त्वं प्राप्स्यसि तां पूजां तथा न्ये विबुधोत्तमाः॥
अनेन कर्मणा चैव यदि मेस्ति ऋतं क्वचित्॥४४॥

पूजां ये च करिष्यंति भविष्यंति च निर्धनाः॥
कथं न लज्जितोसि त्वमेतत्कुर्वन्विगर्हितम्॥४६॥
________________   
पुत्राणामथ पौत्राणामन्येषां च दिवौकसाम्॥
अयोग्यं चैव विप्राणां यदेतत्कृतवानसि॥४७॥

अथ वा नैष दोषस्ते न कामवशगा नराः॥
लज्जंति च विजानंति कृत्याकृत्यं शुभाशुभम्॥४८॥
अकृत्यं मन्यते कृत्यं मित्रं शत्रुं च मन्यते॥
शत्रुं च मन्यते मित्रं जनः कामवशं गतः॥४९॥

द्यूतकारे यथा सत्यं यथा चौरं च सौहृदम्॥
यथा नृपस्य नो मित्रं तथा लज्जा न कामिनाम्॥६.१९२.५०॥

अपि स्याच्छीतलो वह्निश्चंद्रमा दहनात्मकः।
क्षाराब्दिरपि मिष्टः स्यान्न कामी लज्जते ध्रुवम्॥५१॥

न मे स्याद्दुखमेतद्धि यत्सापत्न्यमुपस्थितम्॥
सहस्रमपि नारीणां पुरुषाणां यथा भवेत्॥ ५२॥

कुलीनानां च शुद्धानां स्वजात्यानां विशेषतः॥
त्वं कुरुष्व पराणां च यदि कामवशं गतः॥५३॥
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एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४॥

तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥

अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥५६ ॥

अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥

भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ॥५८॥

एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९॥

न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥

करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता ॥ ६१ ॥
______________
पापिष्ठा नष्टचारित्रा यथैषा पंचभर्तृका ॥
विख्यातिं यास्यते लोके यथा चासौ तथैव सा ॥ ६२ ॥

एतस्या अन्वयः पापो भविष्यति निशाचर ॥
सत्यशौचपरित्यक्ताः शिष्टसंगविवर्जिताः ॥ ६३ ॥

अनिकेता भविष्यंति वंशेऽस्या गोप्रजीविनः ॥
एवं शप्त्वा विधिं साध्वी गायत्रीं च ततः परम् ॥ ६४॥
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ततो देवगणान्सर्वाञ्छशाप च तदा सती ॥
भोभोः शक्र त्वयानीता यदेषा पंचभर्तृका ॥ ६५॥

तदाप्नुहि फलं सम्यक्छुभं कृत्वा गुरोरिदम् ॥
त्वं शत्रुभिर्जितो युद्धे बंधनं समवाप्स्यसि ॥ ६६ ॥

कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७ ॥

अनुमोदिता विधेः पूर्वं तस्माच्छप्स्याम्यसंशयम् ॥
त्वं चापि परभृत्यत्वं संप्राप्स्यसि सुदुर्मते ॥ ६८ ॥

समीपस्थोऽपि रुद्र त्वं कर्मैतद्यदुपेक्षसे ॥
निषेधयसि नो मूढ तस्माच्शृणु वचो मम ॥ ६९ ॥

जीवमानस्य कांतस्य मया तद्विरहोद्भवम् ॥
संसेवितं मृतायां ते दयितायां भविष्यति ॥ ६.१९२.७० ॥

यत्र यज्ञे प्रविष्टेयं गर्हिता पंचभर्तृका ॥
भवानपि हविर्वह्ने यत्त्वं गृह्णासि लौल्यतः ॥ ७१ ॥

तथान्येषु च यज्ञेषु सम्यक्छंकाविवर्जितः ॥
तस्माद्दुष्टसमाचार सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ ७२ ॥

स्वधया स्वाहया सार्धं सदा दुःखसमन्वितः ॥
नैवाप्स्यसि परं सौख्यं सर्वकालं यथा पुरा ॥ ७३ ॥

एते च ब्राह्मणाः सर्वे लोभोपहतचेतसः ॥
होमं प्रकुर्वते ये च मखे चापि विगर्हिते। ७४ ॥

वित्तलोभेन यत्रैषा निविष्टा पञ्चभर्तृका ॥
तथा च वचनं प्रोक्तं ब्राह्मणीयं भविष्यति ॥ ७५ ॥

दरिद्रोपहतास्तस्माद्वृषलीपतयस्तथा ॥
वेदविक्रयकर्तारो भविष्यथ न संशयः ॥ ७६ ॥

भोभो वित्तपते वित्तं ददासि मखविप्लवे ॥
तस्माद्यत्तेऽखिलं वित्तमभोग्यं संभविष्यति ॥७७ ॥
________
तथा देवगणाः सर्वे साहाय्यं ये समाश्रिताः ॥
अत्र कुर्वंति दोषाढ्ये यज्ञे वै पांचभर्तृके ॥ ७८॥

संतानेन परित्यक्तास्ते भविष्यंति सांप्रतम्॥
दानवैश्च पराभूता दुःखं प्राप्स्यति केवलम् ॥ ७९ ॥
एतस्याः पार्श्वतश्चान्याश्चतस्रो या व्यवस्थिताः ॥
आभीरीति सपत्नीति प्रोक्ता ध्यानप्रहर्षिताः ॥ ६.१९२.८० ॥

मम द्वेषपरा नित्यं शिवदूतीपुरस्सराः ॥
तासां परस्परं संगः कदाचिच्च भविष्यति ॥ ८१ ॥
नान्येनात्र नरेणापि दृष्टिमात्रमपि क्षितौ ॥
पर्वताग्रेषु दुर्गेषु चागम्येषु च देहिनाम् ॥
वासः संपत्स्यते नित्यं सर्वभोगविवर्जितः ॥ ८२ ॥
                ॥ सूत उवाच ॥
एवमुक्त्वाऽथ सावित्रीकोपोपहतचेतसा ॥
विसृज्य देवपत्नीस्ताः सर्वा याः पार्श्वतः स्थिताः ॥ ८३ ॥

उदङ्मुखी प्रतस्थे च वार्यमाणापि सर्वतः ॥
सर्वाभिर्देवपत्नीभिर्लक्ष्मीपूर्वाभिरेवच ॥८४॥

तत्र यास्यामि नो यत्र नामापि किल वै यतः ॥
श्रूयते कामुकस्यास्य तत्र यास्याम्यहं द्रुतम् ॥८५॥

एकश्चरणयोर्न्यस्तो वामः पर्वतरोधसि ॥
द्वितीयेन समारूढा तस्यागस्य तथोपरि ॥८६॥

अद्यापि तत्पदं वामं तस्यास्तत्र प्रदृश्यते ॥
सर्वपापहरं पुण्यं स्थितं पर्वतरोधसि ॥ ८७ ॥

अपि पापसमाचारो यस्तं पूजयते नरः ॥
सर्वपातकनिर्मुक्तः स याति परमं पदम् ॥ ८८ ॥

यो यं काममभि ध्याय तमर्चयति मानवः ॥
अवश्यं समवाप्नोति यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्॥ ८९ ॥
                  ॥ सूत उवाच ॥
एवं तत्र स्थिता देवी सावित्री पर्वता श्रया ॥
अपमानं महत्प्राप्य सकाशात्स्वपतेस्तदा ॥ ६.१९२.९० ॥
यस्तामर्चयते सम्यक्पौर्णमास्यां विशेषतः ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति स मनोवांछितां स्तदा ॥९१॥

या नारी कुरुते भक्त्या दीपदानं तदग्रतः ॥
रक्ततंतुभिराज्येन श्रूयतां तस्य यत्फलम् ॥ ९२ ॥

यावन्तस्तंतवस्तस्य दह्यंते दीप संभवाः ॥
मुहूर्तानि च यावंति घृतदीपश्च तिष्ठति ॥
तावज्जन्मसहस्राणि सा स्यात्सौभाग्यभांगिनी॥ ९३॥

पुत्रपौत्रसमोपेता धनिनी शील मंडना। ॥
न दुर्भगा न वन्ध्या च न च काणा विरूपिका ।९४ ॥

या नृत्यं कुरुते नारी विधवापि तदग्रतः ॥
गीतं वा कुरुते तत्र तस्याः शृणुत यत्फलम् ॥९५ ॥

यथायथा नृत्यमाना स्वगात्रं विधुनोति च ॥
तथातथा धुनोत्येव यत्पापं प्रकृतं पुरा ॥ ९६ ॥

यावन्तो जन्तवो गीतं तस्याः शृण्वंति तत्र च ॥
तावंति दिवि वर्षाणि सहस्राणि वसेच्च सा ॥९७॥

सावित्रीं या समुद्दिश्य फलदानं करोति सा ॥
फलसंख्याप्रमाणानि युगानि दिवि मोदते ॥ ९८ ॥

मिष्टान्नं यच्छते यश्च नारीणां च विशेषतः ॥
तस्या दक्षिणमूर्तौ च भर्त्राढ्यानां द्विजोत्तमाः ॥
स च सिक्थप्रमाणानि युगा नि दिवि मोदते ॥९९॥

यः श्राद्धं कुरुते तत्र सम्यक्छ्रद्धासमन्वितः ॥
रसेनैकेन सस्येन तथैकेन द्विजोत्तमाः ॥
तस्यापि जायते पुण्यं गयाश्राद्धेन यद्भवेत् ॥ ६.१९२.१०० ॥

यः करोति द्विजस्तस्या दक्षिणां दिशमाश्रितः॥
सन्ध्योपासनमेकं तु स्वपत्न्या क्षिपितैर्जलैः॥१०१॥

सायंतने च संप्राप्ते काले ब्राह्मणसत्तमाः॥
तेन स्याद्वंदिता संध्या सम्यग्द्वादशवार्षिकी ॥१०२॥
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यो जपेद्ब्राह्मणस्तस्याः सावित्रीं पुरतः स्थितः ॥
तस्य यत्स्यात्फलं विप्राः श्रूयतां तद्वदामि वः ॥ १०३ ॥
दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेन च पुरा कृतम् ॥
त्रियुगे तु सहस्रेण तस्य नश्यति पातकम् ॥१०४॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चमत्कारपुरं प्रति ॥
गत्वा तां पूजयेद्देवीं स्तोतव्या च विशेषतः ॥१०५॥

सावित्र्या इदमाख्यानं यः पठेच्छृणुयाच्च वा ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुखभागत्र जायते ॥१०६॥

एतद्वः सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः ॥
सावित्र्याः कृत्स्नं माहात्म्यं किं भूयः प्रवदाम्यहम् ॥१०७॥

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सावित्रीमाहात्म्यवर्णनंनाम द्विनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १९२ ॥
_____________________

जबकि पद्मपुराण अहीरों को सदाचारी को रूप में वर्णन करता है ।
______________

जिन अहीरों की जाति में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को  भी वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का भी जन्म होता है
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है ;।

"परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा अत: सभी यदुवंश को लोग कालान्तर में अहीर नाम से भी जाने जाते रहे हैं ।

यदु और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम् मण्डल के बासठवें सूक्त की दशम ऋचा में गायों से घिरा हुआ गायों के दाता और त्राता के रूप  में स्तुत्य किया गया है ।
____
न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे ॥९॥

उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
सावर्णेर्देवाः प्र तिरन्त्वायुर्यस्मिन्नश्रान्ता असनाम वाजम् ॥११॥
____________
प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते ॥८॥
पदपाठ-
प्र । नूनम् । जायताम् । अयम् । मनुः । तोक्मऽइव । रोहतु ।यः । सहस्रम् । शतऽअश्वम् । सद्यः । दानाय । मंहते ॥८।
भाष्य-
“अयं सावर्णिः “मनुः "नूनं क्षिप्रं “प्र “जायतां =प्रजातो भवतु । धनादिभिः पुत्रादिभिश्च “रोहतु प्रादुर्भवतु । तत्र दृष्टान्तः । “तोक्मेव । यथा जलक्लिन्नं बीजं प्रादुर्भवति एवं कर्मफलसंयुक्तः स मनुः पुत्रादिभिः रोहतु । “यः अयं मनुः “शताश्वं बह्वश्वसंयुक्तं “सहस्रं गवां “सद्यः तदानीमेव “दानाय= “मंहते अस्मा ऋषये दातुं प्रेरयति ॥८।

न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।

“तं सावर्णिं मनुं “कश्चन कश्चिदपि “आरभम् आरब्धुं स्वकर्मणा “न “अश्नोति न व्याप्नोति । यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् । “दिवइव द्युलोकस्य “सानु समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य “सावर्ण्यस्य मनोरियं गवादिदक्षिणा “सिन्धुरिव स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां “पप्रथे विप्रथते । विस्तीर्णा भवति।

उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा ।यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०

“उत =अपि च। "स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ। “गोपरीणसा= गोपरीणसौ =गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ।
 “दासा =दातारौ दासृ =दाने
 ( दासति ददास दासिता दासत इत्यादि ) दाशतिवत् 878 (क्षीरतरंगिणीधातुपाठ)

स्थितौ =तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे = माहमहे   । 

सहस्रऽदाः । ग्रामऽनीः । मा । रिषत् । मनुः । सूर्येण । अस्य । यतमाना । एतु । दक्षिणा ।सावर्णेः । देवाः । प्र । तिरन्तु । आयुः । यस्मिन् । अश्रान्ताः । असनाम । वाजम् ॥११

“सहस्रदाः गवादीनां सहस्रस्य दाता “ग्रामणीः ग्रामाणां नेता कर्ता जनपदानामयं “मनुः “मा “रिषत् न कैश्चिदपि रिष्टो हिंसितो भवतु । यद्वा । कर्मनेतॄनस्मान्मा हिनस्तु किंतु धनादिदानेन पूजयतु । “अस्य “यतमाना गच्छन्ती “दक्षिणा “सूर्येण सह “एतु संगच्छताम् । त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धा भवत्वित्यर्थः । तस्यास्य “सावर्णेः सवर्णपुत्रस्य मनोः “देवाः इन्द्रादयः “आयुः जीवन “प्र “तिरन्तु प्रवर्धयन्तु । “अश्रान्ताः कर्मसु अनलसाः सर्वं कर्म कुर्वन्तो वयं “यस्मिन् मनौ “वाजं गोलक्षणमन्नम् “असनाम संभजेमहि । नाभानेदिष्ठोऽहमलभ इत्याशास्ते ॥ २ ॥
_____
और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुष ,नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है  ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।

वर्तमान में  भारतीयों को इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है।

 क्यों कि अहीरों से यादव हैं नकि यादवों से अहीर।

अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
सप्तऋषियों में गिने गये अत्रि ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । नकि जैविक अथवा मैथुनीय पुत्र!

पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है कि प्रारम्भ में गोत्र नहीं थे ।

गोत्र की अवधारणा-"†
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं। 
जो ब्राह्मा के पुत्र अत्रि की भी माता सिद्ध होती है ‌

अत्रि- सप्तर्षियों में से एक । विशेष—ये ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं । इनकी स्त्री अनुसूया थीं । दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम  इनके पुत्र थे ।
 इनका नाम दस प्रजापतियों में भी है। 

और जब आभीर कन्या गायत्री का विवाह ब्रह्मा से होता है तब अत्रि ऋषि स्वयं पुरोहित बनते हैं।

अत: अहीरों का गोत्र अत्रि केवल पुरोहित के आधार पर है। सोम जो कि सैमेटिक जन जाति के एक पूर्वज गा नाम है ।

जिसे भारतीय पुराणकारों ने चन्द्रमा के रूप में कल्पित किया।

सोम का  सम्बन्ध भी आभीर जाति से सम्बन्धित है।

अत्रि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे  जिन्हें सैमेटिक मिथकों में "तिरह" अथवा तेराह के रूप में वर्णन कर दिया है और भारतीय पुराणों में ब्रह्मा का मानस पुत्र अत्रि कर दिया है ।
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अत्रिर्होतार्चिकस्तत्र पुलस्त्योऽध्वर्युरेव च॥
उद्गाताऽथो मरीचिश्च ब्रह्माहं सुरपुंगवः॥7.1.165.३०॥ 
(स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)‎ | प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्
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परन्तु अहीर जाति का अत्रि और सोम से क्या सम्बन्ध हैं भारतीय पुराणकार यह स्पष्ट नहीं कर पाए क्यों कि पुराण कारों नें यह कथाऐं कनानी और हिब्रू संस्कृतियों से ग्रहण की हैं ।

कनानी मिथकों में एब्राहम को जगत का पिता बताया गया है । 
सुमेर के "उर नामक नगर में जिनका जन्म हुआ था।

भारतीय पुराणों में वर्णित जगत पिता की जैविक समानता सैमेटिक मिथकों से मिलती जुलती है ।कुछ अतिरञ्जनीओं ने  कथाओं में परस्पर भिन्नताओं को स्थापित कर दिया है।
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 तेरह के पुत्र अब्राहम को ही सैमेटिक मिथकों में जगत का पिता माना गया है । एब्राहम  ब्रह्मा का रूपान्तरण है।

हिब्रू कुलपति
वैकल्पिक शीर्षक: अब्राम, अवराम, अवराम, इब्राहीमी

प्रमुख प्रश्न
इब्राहीम क्यों महत्वपूर्ण है?

इब्राहीम कहाँ का था?

इब्राहीम का परिवार कैसा था?

अब्राहम किस लिए जाना जाता है?

अब्राहम किसमें विश्वास करता था?
सांस्कृति रूप से इन मान्यताओं में भिन्नता है।

इब्राहीम , हिब्रू में अव्राहम , जिसे मूल रूप से अब्राम कहा जाता है या, हिब्रू में, अवराम , (शुरुआती दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में फला-फूला नाम ) , 

हिब्रू पितृसत्ताओं में से पहला और तीन महान एकेश्वरवादी धर्मों- यहूदी धर्म , ईसाई धर्म और इस्लाम द्वारा सम्मानित व्यक्ति का नाम।

बाइबिल की उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार , अब्राहम ने मेसोपोटामिया में ऊर नगर को छोड़ दिया , क्योंकि ईश्वर ने उसे एक अज्ञात भूमि में एक नया राष्ट्र खोजने के लिए बुलाया।

जिसे बाद में उसने सीखा कि वह देश कनान था । उसने निर्विवाद रूप से परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन किया

जिनसे उसे बार-बार वादे और एक वाचा मिली कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा।

यहूदी धर्म में वादा किया गया वंश समझा जाता है कि यहूदी लोग इब्राहीम के बेटे

यहूदी इसहाक से पैदा हुए थे, जो उनकी पत्नी सारा से पैदा हुए थे । 

इसी तरह, ईसाई धर्म में यीशु की वंशावली का पता इसहाक से लगाया जाता है,।

और इब्राहीम के इसहाक के निकट-बलिदान को क्रूस पर यीशु के बलिदान के पूर्वाभास के रूप में देखा जाता है।

 इस्लाम में यह इश्माएल है, इब्राहीम का जेठा पुत्र, हाजिरा से पैदा हुआ , जिसे ईश्वर के वादे की पूर्ति के रूप में देखा जाता है, और पैगंबर मुहम्मद उसके वंशज हैं।

जोजसेफ मोलनार: द मार्च ऑफ अब्राहम
जोज़सेफ मोलनार: अब्राहम का मार्च
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फला-फूला: c.2000 ईसा पूर्व - c.1501 ईसा पूर्व  उर
उल्लेखनीय परिवार के सदस्य: पत्नी सारा पुत्र इसहाक
अब्राहम की "जीवनी" की गंभीर समस्या
सामान्य अर्थों में अब्राहम की कोई जीवनी नहीं हो सकती।

सबसे अधिक जो किया जा सकता है वह यह है कि आधुनिक ऐतिहासिक खोजों की व्याख्या को बाइबिल सामग्री पर लागू किया जाए ताकि उसके जीवन में घटनाओं की पृष्ठभूमि और पैटर्न के बारे में एक संभावित निर्णय पर पहुंचा जा सके। 

इसमें पितृसत्तात्मक युग का पुनर्निर्माण शामिल है (अब्राहम, इसहाक , जैकब , और जोसेफ ; प्रारंभिक 2 सहस्राब्दी ईसा पूर्व ), जो 19 वीं शताब्दी के अंत तक अज्ञात था।

और लगभग अनजाना माना जाता था। यह माना गया था, काल्पनिक बाइबिल स्रोतों की एक अनुमानित डेटिंग के आधार पर , कि बाइबिल में पितृसत्तात्मक कथाएं बहुत बाद की अवधि (9वीं -5 वीं शताब्दी) की स्थिति और चिंताओं का एक प्रक्षेपण मात्र थीं।

ईसा पूर्व ) और संदिग्ध ऐतिहासिक मूल्य।

आख्यानों की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत विकसित किए गए थे- उदाहरण के लिए, कि पितृसत्ता पौराणिक प्राणी या जनजातियों या लोककथाओं या etiological (व्याख्यात्मक) आकृतियों के व्यक्तित्व थे जिन्हें विभिन्न सामाजिक, न्यायिक या सांस्कृतिक प्रतिमानों के लिए बनाया गया था।

 हालांकि, प्रथम विश्व युद्ध के बाद , पुरातात्विक अनुसंधान ने स्मारकों और दस्तावेजों की खोज के साथ काफी प्रगति की है, जिनमें से कई पारंपरिक खाते में पितृसत्ताओं को सौंपी गई अवधि के हैं।

 एक शाही महल की खुदाई उदाहरण के लिए, यूफ्रेट्स (फरात नदी) पर एक प्राचीन शहर मारी , हजारों क्यूनिफॉर्म टैबलेट (आधिकारिक अभिलेखागार और पत्राचार और धार्मिक और न्यायिक ग्रंथ) को प्रकाश में लाया और इस तरह व्याख्या को एक नया आधार प्रदान किया, जिसका उपयोग विशेषज्ञों ने यह दिखाने के लिए किया, बाइबिल की पुस्तक में उत्पत्ति , कथाएं अन्य स्रोतों से पूरी तरह से फिट बैठती हैं, 

जो आज दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में जानी जाती हैं, लेकिन बाद की अवधि के साथ अपूर्ण रूप से जानी जाती हैं। 

1940 के दशक में बाइबल के एक विद्वान ने इस परिणाम को "पुराने नियम की पुनः खोज" कहा।

इस प्रकार, पिता इब्राहीम की आकृति के पुनर्निर्माण के लिए दो मुख्य स्रोत हैं: उत्पत्ति की पुस्तक- तेरह (अब्राहम के पिता) की वंशावली से और अध्याय 11 में ऊर से हारान के लिए उनके प्रस्थान से अध्याय 25 में अब्राहम की मृत्यु तक और हाल ही में उस क्षेत्र और युग से संबंधित पुरातात्विक खोज और व्याख्या जिसमें बाइबिल का वर्णन होता है।

बाइबिल खाता

बाइबिल के खाते के अनुसार, अब्राम ("पिता [या भगवान] ऊंचा है"), जिसे बाद में इब्राहीम ("कई राष्ट्रों का पिता") नाम दिया गया, जो एक मूल निवासी थामेसोपोटामिया में उर , 
परमेश्वर (यहोवा) द्वारा अपने देश और लोगों को छोड़ने और एक अज्ञात भूमि की यात्रा करने के लिए कहा जाता है, जहां वह एक नए राष्ट्र का संस्थापक बन जाएगा।

 वह निर्विवाद रूप से कॉल का पालन करता है और (75 वर्ष की आयु में) अपनी बंजर पत्नी, सराय के साथ आगे बढ़ता है, जिसे बाद में नाम दिया गया सारा ("राजकुमारी"), उसका भतीजा लूत, और अन्य साथियों की भूमि के लिए कनान ( सीरिया और मिस्र के बीच )।

वहाँ निःसंतान सेप्टुजेनेरियन को बार-बार वादे और परमेश्वर से एक वाचा प्राप्त होती है कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा और एक असंख्य राष्ट्र बन जाएगा। 

आखिरकार, उनका न केवल एक बेटा है,इश्माएल , अपनी पत्नी की दासी द्वारा हाजिरा लेकिन, 100 वर्ष की आयु में, सारा द्वारा एक वैध पुत्र है,इसहाक , जो वचन का वारिस होगा।

 फिर भी इब्राहीम इसहाक को बलिदान करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार है, जो उसके विश्वास की परीक्षा है, जिसे अंत में पूरा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि परमेश्वर एक मेढ़े को प्रतिस्थापित करता है। 

सारा की मृत्यु पर, वह खरीदता है मकपेला की गुफा के पास हेब्रोन , साथ में आसपास के मैदान के साथ, एक परिवार के दफन स्थान के रूप में। 

यह इब्राहीम और उसकी भावी पीढ़ी द्वारा वादा की गई भूमि के एक टुकड़े का पहला स्पष्ट स्वामित्व है।

अपने जीवन के अंत में, वह यह देखता है कि उसका बेटा इसहाक एक कनानी महिला के बजाय मेसोपोटामिया में अपने ही लोगों की एक लड़की से शादी करता है।

 इब्राहीम की 175 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाती है और उसे सारा के बगल में मकपेला की गुफा में दफनाया जाता है।

_______

यद्यपि गायत्री को भारतीय पुराणों में ब्रह्मा की पत्नी तो बताया है परन्तु गायत्री को पुराणों में ब्राह्मी शक्ति न मानकर वैष्णवी शक्ति  का अवतार माना हैं ।

दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्र बनती हैं तब इनका नाम यदुवंशसमुद्भवा के रूप में नन्दजा भी होता है ।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माँ सावित्री है। 

पौराणिक इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया जो ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।

स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
_______________________________
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -

                           *-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।

                 *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
__________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
______
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
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*******************************
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।

अनया (गायत्र्या )तारितो गच्छ (यूयं भो आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
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अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
______________

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
___________________
भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

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ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।

- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
 स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।

पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था।

 दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।

उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 

उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’श्यप मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
 कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 

अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।

 प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 

धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥

मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥

उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।

पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥

धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥

हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥

छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥

वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥

तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥

नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥

तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥

तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥

स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥

कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 

चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।

                   ।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।

                 ।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

 उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 

इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।

फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए।
इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे।
 यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं। फिर भी इतिहास की इन कथाओं पर मिथकों और कल्पनाओं की मोटी परत चढ़ी हुई है।

अत: इन कथाओं को प्रतीकात्मक रूप में ही ग्रहण करें यथार्थ रूप में नहीं -

प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार रोहि"-

8077160219-
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स्कंद पुराण


यह पृष्ठ सावित्री की महानता का वर्णन करता है, जो अठारह महापुराणों में से सबसे बड़ा स्कन्द पुराण के संस्कृत का अनुवाद का अध्याय 192 है, जो प्राचीन भारतीय समाज और हिंदू परंपराओं को एक विश्वकोश प्रारूप में संरक्षित करता है, जिसमें धर्म (पुण्य जीवन शैली) जैसे विषयों का विवरण है।

कॉस्मोगोनी (ब्रह्मांड का निर्माण), पौराणिक कथाओं (इतिहास), वंशावली (वंश) आदि। यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ नब्बे-सेकंड अध्याय है।

अध्याय 192 - सावित्री की महानता

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

सीता ने कहा :

1-3. वाद्य यंत्रों के आने की जोरदार रिपोर्ट सुनकर, नारद को पता चला कि यह उनकी अपनी माँ है। इसलिए वह उससे आमने-सामने आ गया।

वह बेहद व्यथित था और पूरी तरह से आंसुओं से भीग गया था। आँसुओं के कारण उसके शब्द उसके गले में दब गए। वह झुक गया और लड़खड़ाकर बोला। दिव्य देवियों के सामने खड़े होकर, ब्राह्मण जो झगड़ों के शौकीन थे, अपना गुस्सा बढ़ाना चाहते थे, लेकिन साथ ही खुद को शापित होने से बचाना चाहते थे।

4. यद्यपि वह एक-एक शब्द से लड़खड़ाता था, उसकी वाणी बादल की गड़गड़ाहट के समान प्रतापी थी: "हे देवी, आपको मेरे द्वारा और उसके बाद पुलस्त्य द्वारा भी आमंत्रित किया गया था ।

5. लेकिन स्वाभाविक रूप से स्त्री की शिथिलता की प्रधानता के कारण आप दीक्षा के समय भी नहीं आए (बलिदान के लिए)।

6. तब विधि के कहने पर, एक अन्य महिला को शकरा द्वारा लाया गया , जो एक ग्वाले समुदाय की कुँवारी थी, लेकिन उत्कृष्ट दिव्य रूप थी।

7. उसे जबरदस्ती एक गाय के मुंह में डाल दिया गया, और उसे तुरंत गुदा के माध्यम से खींच लिया गया। जल्द ही उसे यहां लाया गया।

8. तब विष्णु द्वारा विवाह के संस्कार के लिए उन्हें स्वीकृति दी गई थी, आपके नाम का अनुकरण करते हुए, उन्हें गायत्री नाम ईश्वर ने दिया था ।

9. 'उसे एक ब्राह्मण महिला होने दो।' तो सभी ब्राह्मणों को घोषित किया और कहा, 'हे भगवान ब्रह्मा , उसका हाथ पकड़ लो , (विवाह में)।'

10. ऐसा सभी देवों ने भी कहा। तब (ब्रह्मा) ने तुरंत उसे एक 'पत्नि' ( यज्ञ करने वाले व्यक्ति की पत्नी) के सभी कर्तव्यों के साथ नियुक्त किया ।

11. बहुत अधिक बात क्यों होनी चाहिए? वह पटनाला (यज्ञ के आंतरिक कक्ष) में आई। हे सुरों की देवी, उस चरवाहे-लड़की की कमर पर पवित्र राणा (कपड़ा) बंधा हुआ था ।

12. इस निंदनीय गतिविधि को देखकर, मैं इसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं कर सका। मैं उसे देख नहीं पा रहा था। मैं यज्ञ मंडप से बाहर आया।

13. हे अति आदरणीय महिला, अब जब आपको यह पता चल गया है, तो इस अवसर पर वही करें जो आपको सूट करे। या तो चले जाओ या पवित्रता से रहित उस मंडप में रहो।"

14. यह सुनकर, हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, जब बर्फ गिरने लगती है, तो देवी सावित्री का चेहरा कमल-तालाब की तरह पीला पड़ जाता है।

15. वह एक लता की तरह थी जिसकी जड़ काट दी गई थी, एक सुर्ख हंस अपने प्यारे साथी से अलग हो गया था या तेज गर्मी के मौसम के आगमन पर एक सूखी झील की तरह था।

16. वह ढलते चन्द्रमा के अंक के समान, वा हिरन से रहित हिंद, वा मारे गए राजा की सेना के समान, वा पतिव्रता के चले जाने के कारण पवित्र स्त्री के समान थी।

17. इसके अलावा, वह मुरझाए फूलों की एक माला या मृत बछड़े के साथ एक गाय की तरह थी। उसे अनुपस्थित-मन की अवस्था में निश्चल बैठे देखकर, देवों की पत्नियों ने नारद से कहा:

18. “झगड़ों के शौकीन, हे (ऋषि) तुझ पर धावा बोल! जहां स्नेहपूर्ण आत्मीयता होती है वहां आप मनमुटाव पैदा करते हैं! विधि के (व्यवहार) में परिवर्तन पूरी तरह से आपके द्वारा लाया गया है।"

गौरी ने कहा :

19. हे देवी, वह झगड़ों का बहुत शौकीन है और आधा सच और आधा झूठ बोलता है। इस प्रकार के क्रियाकलाप से ही यह मुनि सदैव अपना जीवन निर्वाह करते हैं।

20. हे सावित्री, मुझे तीन-आंखों वाले भगवान द्वारा बार-बार चेतावनी दी गई थी: "हे प्रिय पार्वती , यदि आप चाहते हैं कि मैं खुश रहूं, तो आपको नारद के शब्दों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देना चाहिए।"

21. तब से अब तक मैं ने उसकी बातों पर कोई भरोसा नहीं किया। इसलिए, हम चलते हैं जहां आपका पति मौजूद है।

22. जो कुछ भी उचित है, उसे स्वयं देख कर ही हमें करना चाहिए। हमें यहां केवल इसलिए नहीं रुकना चाहिए क्योंकि वह ऐसा कहते हैं। हम वहाँ जाएँ।

सीता ने कहा :

23-26. गौरी के वचनों को सुनकर , सावित्री ने सभी प्रसन्नता खो दी, हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों। उसका दिमाग वैसे ही शून्य था। वह हर कदम पर लड़खड़ाती हुई यज्ञ मंडप की ओर बढ़ी।

यहाँ तक कि मधुर संगीत भी उसके कानों को झकझोरता हुआ प्रतीत हुआ क्योंकि वह लगातार आ रहा था, हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों । मृदंग, कनक आदि संगीत वाद्ययंत्रों की ध्वनि एक बंजर, कलहपूर्ण स्वर की तरह दिखाई दी 

जब वह यज्ञ के स्थान पर गई तो महान पवित्र महिला मानव भीड़ को देखने के लिए सहन नहीं कर सकती थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह लाशों को देख रही हो।

27. उसने अपने शरीर पर विभिन्न प्रकार के श्रृंगार की वस्तुओं के बारे में सोचा जैसे कि वे लकड़ी का कोयला जला रहे हों। इस प्रकार महान पवित्र महिला अपनी आँखों से आँसुओं के साथ और अधिक संकट में चली गई।

28. बड़ी मुश्किल से वह यज्ञ के मंडप में पहुंची, जो उसकी दृष्टि के दायरे में आता था, वह उसे देखने में बहुत ही घृणित कारागार जैसा प्रतीत होता था।

29. यह देखकर कि सावित्री यज्ञ मंडप में पहुँच गई है, चौमुखी भगवान शर्म के मारे मुंह फेर कर तुरंत खड़े हो गए।

30. शंभू , शकर, वासुदेव और अन्य सभी देवों की दुर्दशा वही थी जो उस यज्ञ मंडप में हुए थे।

31. बाघ जैसे (प्रख्यात) ब्राह्मणों ने अपना वैदिक मंत्रोच्चार अचानक बंद कर दिया। वे इतने डरे हुए थे कि बिलकुल गूंगे रह गए।

32. अपने पति को अपनी सह-पत्नी की संगति में देखकर, सावित्री की आँखें लाल हो गईं और क्रोधित हो गईं। उसने ये कठोर शब्द बोले:

सावित्री ने कहा :

33. हे बूढ़ी औरत के दीन, क्या यह आपकी ओर से उचित है कि आपको अपनी पत्नी के रूप में एक चरवाहा प्राप्त करना चाहिए?

34. उस लड़की के दोनों तरफ (पैतृक और मातृ) महिलाओं के पास कोई भी होता है जिसे वे अपने पति के रूप में पसंद करती हैं। उन्होंने अपनी साफ-सफाई और शालीनता को त्याग दिया है। वे धार्मिक कार्यों से विमुख होते हैं।

35-38. उसके परिवार के सभी लोग कामुकता और दुराचार के क्रूर तरीके से उत्साहपूर्वक खुश हो गए। पुरुष शायद अपनी गर्भाशय बहनों और माताओं को छोड़कर अन्य सभी महिलाओं से संपर्क करते हैं।

जैसे जानवर चरते और घास चबाते और पानी पीते रहते हैं, पेशाब करते हैं और गोबर फेंकते हैं और नम्रता से बोझ उठाते हैं, वैसे ही उनके परिवार का पूरा समूह अपना पेट भरने के लिए छाछ पीने के अलावा कुछ नहीं जानता। आंतों को खाली करना और उनके मूत्राशय को खाली करना उनके जीवन के दौरान बिना किसी बेहतर आनंद के उनका एकमात्र कर्तव्य है। पेट की चिंता के अलावा उनका और कोई कर्तव्य नहीं है।

39. शूद्र जैसे घिनौने कामों को करने से ये शूद्र भी नहीं हिचकिचाते। आपने अभी क्या किया है!

40-42. यदि यज्ञ के दौरान आपको दूसरी पत्नी की आवश्यकता ही थी, तो आपके द्वारा तीनों लोकों में प्रसिद्ध ब्राह्मण महिला का विवाह क्यों नहीं किया गया ? हे विधि, मैं तुम्हें गंजा-सिर वाला, ढीठ प्रवृत्ति का मूढ़ व्यक्ति मानता हूं, क्योंकि तुमने पत्नी के लिए एक चरवाहा-लड़की ली थी, जिसका कौमार्य दूषित हो चुका है, जो पहले से ही कई लोगों द्वारा आनंद लिया जा चुका है, जो कि एक सौ वेश्याओं को भी उत्कृष्ट पापी है। !

43. टूटी हुई हाइमन वाली लड़की शूद्र महिला बन जाती है। कोई भी ग्वाला-कन्या भी ऐसा ही हो जाता है।

44. ऐसी स्त्री (दुल्हन) इस घृणित कार्य से पृथ्वी पर अपनी माता, पिता और ससुर के पितरों का पतन करेगी।

45. यदि मेरे पास कोई सत्य (ईत) बचा है, तो मेरा मानना ​​है कि इस पापपूर्ण कृत्य के कारण आपको और अन्य देवताओं को कभी भी सम्मानित पूजा नहीं मिलेगी।

46. ​​जो (आप को) मानते हैं वे दरिद्र हो जाएंगे। यह कैसे हुआ कि आपको इस घिनौने काम को करने में जरा भी शर्म नहीं आती?

47. आपने जो किया है वह आपके पुत्रों, पौत्रों और अन्य स्वर्गवासियों के साथ-साथ ब्राह्मणों के लिए भी उचित नहीं है।

48. या, शायद यह आपकी गलती नहीं है। काम के वश में रहने वाले पुरुष बेशर्म होते हैं। उन्हें नहीं पता कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, क्या शुभ है और क्या अशुभ।

49. काम के प्रभाव में एक व्यक्ति जो नहीं करना चाहिए उसे अपना कर्तव्य मानता है। वह अपने दोस्त को अपना दुश्मन मानता है और इसके विपरीत।

50. जिस प्रकार जुआरी में ईमानदारी नहीं होती, चोर में भाईचारा नहीं होता और राजा का कोई वास्तविक मित्र नहीं होता, उसी प्रकार वासना वाले पुरुषों में भी शर्म की भावना नहीं होती है।

51. आग भी ठंडी हो सकती है। चन्द्रमा नीरी हो सकता है और चमकीला समुद्र स्वाद में मीठा हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से एक कामोत्तेजक व्यक्ति को शर्म नहीं आती।

52. मुझे इस बात का दुख नहीं है कि मुझे सह-पत्नी के साथ रहना पड़ रहा है। हजारों पुरुषों और महिलाओं के पास यह है।

53. यदि आप वह वासना हैं, तो आप पवित्रता और अपनी जाति की अन्य कुलीन महिलाओं से शादी करते हैं।

54. यह सबसे दर्दनाक दुख है कि एक 'भीरी', जो एक वेश्या के रूप में बहुत निंदा की जाती है, ने स्त्री शील को त्याग दिया है और उसके कई पति हैं, आपकी शादी हो गई है।

55. इसलिथे हे विधि, मैं उस स्थान पर जाऊंगा जहां तेरा नाम भी नहीं सुना जाता, क्योंकि तू लोभी और कामी और लज्जाहीन है।

56. हे विधि, मुझे यहां लाने के बाद, देवों, देवताओं और ब्राह्मणों की पत्नियों के सामने मेरा उपहास किया गया है। तो अब कोई तुम्हारी पूजा नहीं करेगा।

57-58। अब से, यदि पृथ्वी पर कोई भी व्यक्ति मंत्रों के साथ या बिना किसी मंदिर में आपकी पूजा करता है, जैसा कि अन्य स्वर्गवासियों के मामले में होता है, तो उसका वंश बेसहारा और दुखी हो जाएगा, चाहे वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय , वैश्य या ए शूद्र.

59. चूंकि मेरे स्थान पर एक अबीर की यह तिरस्कृत बेटी रखी गई है, वह मेरे शब्दों के अनुसार कभी भी परिवार नहीं बनाएगी।

60. अन्य देवी-देवताओं की तरह उन्हें कभी भी पूजा नहीं की जाएगी।

61. जो स्त्री किसी भी स्थान पर उसकी पूजा करती है वह दुखी, बदकिस्मत और बांझ हो जाती है।

62. वह पांच (यानी कई) पतियों वाली इस महिला की तरह अपनी शुद्धता का उल्लंघन करने वाली सबसे पापी बन जाएगी। वह इस महिला की तरह कुख्यात होगी।

63-64। इस महिला के परिवार के सदस्य पापी रात का पीछा करने वाले बन जाएंगे। जो अपने परिवार में गायों के माध्यम से अपना भरण-पोषण करते हैं, वे ईमानदारी और स्वच्छता से रहित होंगे। अच्छे लोगों से इनका जुड़ाव नहीं रहेगा। उनका स्थायी निवास कभी नहीं होगा।

इस प्रकार, उसने उसके बाद विधि और गायत्री को शाप दिया।

65-67ए। तब, पवित्र महिला ने देवों के सभी समूहों को शाप दिया; "हे शंकर, चूंकि पांच (अनेक) पतियों की यह महिला आपके द्वारा लाई गई थी और जाहिर तौर पर आपने अपने गुरु के लिए अच्छा किया था, इसके परिणामस्वरूप आप अपने दुश्मनों से पराजित होने के बाद बंधे और बंधन में होंगे।

निस्संदेह, आप लंबे समय तक जेल में रहेंगे।

67बी-68. हे वासुदेव, पहले आपने पांच पतियों की इस महिला को विधि के लिए उपयुक्त माना था। तो, मैं तुम्हें भी बिना किसी हिचकिचाहट के शाप दूंगा। हे दुष्ट मन वाले, तुम दूसरे के दास होने की स्थिति से गुजरोगे।

69. हे मूर्ख रुद्र , यद्यपि आप निकट थे, इस कृत्य के प्रति आप उदासीन थे। आपने इसे नहीं रोका। तो मेरी बात सुनो:

70. एक जीवित पति से बिछड़ने का जो दुख मैं अभी अनुभव कर रहा हूं, वह तुम्हारी पत्नी की मृत्यु के बाद तुम्हारा होगा।

71-72. हे वाहिनी ( अग्नि देव ), आपने उस यज्ञ में लोभ से हवस को स्वीकार किया जहां पांच पतियों की यह तिरस्कृत महिला बिना किसी हिचकिचाहट के अन्य यज्ञों में प्रवेश करती थी । तो तुम्हारा आचरण अपवित्र हो गया है। तुम सर्वभक्षी बन जाओगे।

73. पहले की तरह, आपको स्वाहा और स्वाधा के साथ कभी भी लंबे समय तक खुशी नहीं मिलेगी । आप दुखी होंगे!

74-75. सभी ब्राह्मण अपने मन में लालची थे। धन के लोभ के कारण, उन्होंने उस घृणित यज्ञ में होम किया, जहां पांच पतियों की इस महिला ने प्रवेश किया था और यह भी कहा था, 'वह ब्राह्मण बनेंगी '।

76. अत: ये सब दरिद्रता से ग्रसित होंगे और वालियों (शूद्र स्त्रियों या वेश्याओं) के प्रेमी बन जाएंगे। वे निस्संदेह वेदों को बेचेंगे ।

77. हे धन के देवता, आपने इस दुखी माख में मौद्रिक उपहार वितरित किए । इसलिए, आपकी सारी संपत्ति उपभोग और आनंद के लिए अनुपयुक्त होगी।

78-79. देवों के सभी समूह जिन्होंने पांच पतियों वाले एक से संबंधित एक दोषपूर्ण यज्ञ में अपना सहयोग और सहायता प्रदान की, संतान से रहित होंगे। दानवों द्वारा उन पर हमला किया जाएगा और पराजित किया जाएगा और दुख से मिलेंगे।

80. चार अन्य उसके पक्ष में बसे हुए हैं। उनका उल्लेख अबीर और सप्तनी (सह-पत्नी) के रूप में भी किया जाता है और वे उनके ध्यान में प्रसन्न होते हैं।

81. शिवादिति को अपना नेता मानकर वे हमेशा मुझसे घृणा करने में लगे रहते हैं। उनका आपस में कोई संबंध नहीं होगा।

82. उनका पृथ्वी पर किसी अन्य व्यक्ति से कोई संपर्क नहीं होगा, यहां तक ​​कि दृश्य संपर्क भी नहीं होगा। उनका निवास पहाड़ों की अभेद्य चोटियों तक सीमित होगा, जो सभी देहधारी प्राणियों के लिए अगम्य हैं, सभी सुखों और भोगों से रहित हैं।"

सीता ने कहा :

83. यह कहकर अत्यंत क्रुद्ध सावित्री ने उन सभी देव -पत्नियों को, जो उनके पक्ष में रह रही थीं, खारिज कर दीं।

84. वह उत्तर की ओर चल पड़ी, हालांकि लक्ष्मी सहित सभी देव-पत्नियों ने उसे चारों ओर से रोक दिया।

85. (उसने अपने आप से कहा:) 'मैं वहां जाऊंगी जहां इस कामोत्तेजक का नाम भी नहीं सुना जाएगा। मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा।'

86. उसने अपना एक पैर, बायां पैर, पहाड़ की चोटी पर रखा। दूसरे के साथ वह पहाड़ की चोटी पर चढ़ गई।

87. आज भी उनका बायां पदचिह्न वहां दिखाई देता है। यह पहाड़ के रिज पर प्रभावित है। यह मेधावी है और यह सभी पापों का नाश करने वाली है।

88. एक आदमी पापी आचरण का हो सकता है, लेकिन अगर वह उस पदचिन्ह की पूजा करता है, तो उसे सभी पापों से छुटकारा मिल जाएगा और वह सबसे बड़ा पद प्राप्त करेगा।

89. मनुष्य मन में किसी भी इच्छा से इसकी पूजा कर सकता है। अत्यंत दुर्लभ होने पर भी वह निश्चित रूप से इसे प्राप्त करेगा।

सीता ने कहा :

90. इस प्रकार, अपने ही पति से बहुत अपमान के बाद, देवी सावित्री वहां (शिखर) पर्वत पर बस गईं।

91. जो व्यक्ति विशेष रूप से पूर्णिमा के दिन उसकी पूजा करता है, वह उसके द्वारा मानसिक रूप से वांछित सभी इच्छाओं को प्राप्त करता है।

92. घी और लाल बत्ती से अपने सम्मुख एक स्त्री द्वारा दीपादान (दीपदान) का लाभ सुनें।

93. वह हजारों जन्मों के लिए दाम्पत्य सुख का आनंद उठाएगी क्योंकि दीपक और मुहूर्त में धागे जलते हैं, जिसके दौरान घी का दीपक जलता है।

94. उसे पुत्र और पौत्र के साथ-साथ धन की भी प्राप्ति होगी। वह कभी भी बदकिस्मत, बंजर, एक-आंखों वाली या सुविधाओं में घृणित नहीं होगी।

95. एक महिला द्वारा प्राप्त लाभ को सुनें, भले ही वह विधवा हो, जो उसके सामने नाचती या गाती है।

96. नृत्य करते समय जब भी वह शरीर की गति करती है, वह वास्तव में पहले किए गए पाप को छोड़ देती है।

97. वह हजारों वर्षों तक स्वर्ग में रहेगी क्योंकि उसके गीत सुनने वाले प्राणी हैं।

98. यदि कोई स्त्री सावित्री को ध्यान में रखकर फलों का उपहार देती है, तो वह उतने ही युगों तक स्वर्ग में आनन्दित होती है, जितने फल हैं।

99. हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, यदि कोई पुरुष विशेष रूप से पति वाली महिलाओं को अपनी दक्षिणामृति (दाहिनी ओर की छवि, या छवि के दाईं ओर) की उपस्थिति में मिठाई की पेशकश करता है, तो वह उतने युगों के लिए स्वर्ग में आनन्दित होता है पके हुए चावल के दाने हैं।

100. यदि कोई वहां एक रस (रस) और एक सस्य (सब्जी का पकवान ) अर्पित करके पूर्ण विश्वास के साथ वहां श्राद्ध करता है, तो उसे गायराध से प्राप्त होने वाला पुण्य प्राप्त होगा ।

101-102. एक ब्राह्मण (व्यक्ति) को दक्षिण दिशा (देवी की) की ओर मुड़ना चाहिए और शाम के समय अपनी पत्नी द्वारा डाले गए जल के माध्यम से कम से कम एक संध्या प्रार्थना करनी चाहिए, हे उत्कृष्ट ब्राह्मण। इससे उसे उतना ही लाभ मिलता है, जैसे बारह वर्ष तक संध्या पूजा करता रहा।

103. हे ब्राह्मणों, सावित्री मंत्र का जप करने वाले ब्राह्मणों का लाभ अवश्य सुनें । मैं इसे सुनाता हूँ।

104. यदि वह दस बार मंत्र का पाठ करता है, तो उस जन्म के दौरान किए गए पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि वह इसका सौ बार पाठ करता है, तो पहले किए गए सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और यदि वह मंत्र का एक हजार बार पाठ करता है, तो तीन युगों में किए गए सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

105. इसलिए व्यक्ति को परिश्रमपूर्वक कामतकारपुरा जाना चाहिए और उस देवी की पूजा करनी चाहिए। उसकी विशेष पूजा करनी चाहिए और उसकी स्तुति करनी चाहिए।

106. जो सावित्री की इस कहानी को पढ़ता या सुनता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाएगा और यहां खुश हो जाएगा।

107. इस प्रकार, हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, जो मुझसे पूछा गया था, वह आप सभी को सावित्री की महानता के बारे में पूरी तरह से बताया गया है। मैं तुम्हें और क्या बताऊँ?

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यह पृष्ठ गायत्री अनुदान बून्स का वर्णन करता है जो स्कंद पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 193 है, जो अठारह महापुराणों में सबसे बड़ा है, जो प्राचीन भारतीय समाज और हिंदू परंपराओं को एक विश्वकोश प्रारूप में संरक्षित करता है, धर्म (पुण्य जीवन शैली) जैसे विषयों पर विवरण देता है। कॉस्मोगोनी (ब्रह्मांड का निर्माण), पौराणिक कथाओं (इतिहास), वंशावली (वंश) आदि। यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ नब्बे-तिहाई अध्याय है।

अध्याय 193 - गायत्री वरदान देती है वरदान

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

ऋषियों ने कहा :

1-2. हे सीताज, जब क्रोधित सावित्री इस प्रकार विदा हुई, तो गायत्री और ब्रह्मा सहित सुरों ने क्या किया ? यह सब जरूर बताएं। हम जानने के लिए उत्सुक हैं। जो देव शापित थे, वे मंडप में कैसे रहे ?

सीता ने कहा :

3. हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों , जब उन्हें शाप देकर सावित्री चली गई, तो गायत्री तुरंत उठी और ये शब्द बोले:

4. “सावित्री ने जो शब्द कहे थे, उन्हें सुर और असुर भी बदल नहीं सकते ।

5. वह परम गुणी, महान, पवित्र महिला सावित्री शुभ गुणों में सबसे वरिष्ठ और सबसे श्रेष्ठ (सभी से) है। वह सभी सुरों की पूजा के योग्य है।

6. लेकिन, हे उत्कृष्ट सुरों, यह सभी महिलाओं का स्वभाव है। वज्र का प्रहार सहा जा सकता है लेकिन सह-पत्नी की (कड़वी) कहानी नहीं।

7. मेरे कारण ब्राह्मणों और सुरों को सावित्री ने श्राप दिया है। मैं अपनी शक्ति के द्वारा स्वयं उनकी दुर्दशा को सामान्य बना दूँगा।

8. हे उत्कृष्ट सुरों, विधि (ब्रह्मा भगवान) को उनके द्वारा ब्राह्मणों से शुरू होने वाली सभी जातियों के लिए मंत्रों के साथ पूजा करने के योग्य घोषित किया गया है ।

9. संपूर्ण पृथ्वी पर ब्रह्मा के सभी आसनों में, कोई भी पवित्र कर्म ब्रह्मा के बिना पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता है।

10. ब्रह्मा के दर्शन से कृष्ण और लिंग की पूजा की तुलना में एक करोड़ गुना अधिक लाभ मिलता है , निस्संदेह, विशेष रूप से सभी पर्व के दिनों में।

11. हे विष्णु , आपको उनके द्वारा कहा गया है कि जब आप मानव अवतार लेंगे, तो आप दूसरों के दास होने की स्थिति से गुजरेंगे।

12. वहां आप दो अलग-अलग रूप अपनाएंगे और वहां अवतार लेंगे। उसने मेरे परिवार को काउहर्ड नाम से जाना था। आपको ऐसे परिवार में पवित्र करने के लिए लंबे समय तक वहां लाया जाएगा।

13. एक रूप कृष्ण के नाम से और दूसरा अर्जुन के नाम से जाना जाएगा । आप अर्जुन नामक अपने स्वयं के सारथी के रूप में कार्य करेंगे,

14. इस प्रकार, वे चरवाहे दुराचार के लिए अपने शौक के बावजूद एक प्रशंसा योग्य स्थिति प्राप्त करेंगे। सभी लोगों द्वारा और विशेष रूप से देवों द्वारा उनकी प्रशंसा की जाएगी।

15. मेरे समुदाय के लोग जहां भी रहेंगे वहां श्री (भाग्य और समृद्धि) की उपस्थिति होगी, भले ही वह जंगल हो।

16. हे शंकर , क्या उस क्रुद्ध महिला ने आपको यह नहीं बताया कि शत्रु से पराजित होने के बाद आपको कैद कर लिया जाएगा?

17-18अ. मेरे कहने पर, ब्रह्मा स्वयं वहाँ से तुम्हारी मुक्ति करा देंगे। उसके बाद युद्ध के मैदान में भी तुम्हारी हार नहीं होगी।

18बी-19. हे वाहिनी , आपके मामले में, क्रोधित महिला ने कहा है कि आप सर्वाहारी होंगे। लेकिन गंदी कूड़ाकरकट भी जल्द ही पवित्रता और पवित्रता प्राप्त कर लेगा जब वह आपकी ज्वालाओं से छू जाएगा और आपको प्यार हो जाएगा।

20. मेरे कहने पर निस्संदेह आपकी स्वाहा नाम की पत्नी देवों को प्रसन्न करेगी और स्वाधा सभी पितियों को प्रसन्न करेगी ।

21. हे रुद्र , अपने प्रिय से वियोग आपको (शाप में) दिया गया है। लेकिन एक और बेहतर और बेहतरीन महिला आपकी पत्नी बनेगी। वह गौरी के नाम से प्रसिद्ध हिमकाल की वैभवशाली पुत्री होगी ।"


स्कंद पुराण


यह पृष्ठ तीर्थों के विवरण का वर्णन करता है जो स्कंद पुराण के अंग्रेजी अनुवाद का अध्याय 194 है, जो अठारह महापुराणों में सबसे बड़ा है, प्राचीन भारतीय समाज और हिंदू परंपराओं को एक विश्वकोश प्रारूप में संरक्षित करता है, धर्म (पुण्य जीवन शैली) जैसे विषयों पर विवरण देता है। कॉस्मोगोनी (ब्रह्मांड का निर्माण), पौराणिक कथाओं (इतिहास), वंशावली (वंश) आदि। यह स्कंद पुराण के नागर-खंड के तीर्थ-महात्म्य का एक सौ चौंसठवां अध्याय है।

अध्याय 194 - तीर्थों का विवरण

इस अध्याय के लिए संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]

सीता ने कहा :

1-2. शाप के उन सभी पीड़ितों को इस प्रकार वरदान देने के बाद, उन्होंने ( गायत्री ) मौन व्रत का पालन किया और जमीन पर बैठ गईं।

तब सभी देवों के समूह , ऋषियों और महान तपस्वियों ने कहा: "उत्कृष्ट! उत्कृष्ट!" और उससे ये शब्द बोले:

3. “ ब्राह्मणों की विशेष कृपा से , सभी लोग इस देवी को इस मानव संसार में बड़ी एकाग्रता के साथ पूजा करेंगे।

4. जो पुरुष ब्रह्मा की पूजा करके इस सुरों की देवी की पूजा करते हैं, वे सबसे बड़े लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।

5-6. जो लड़की पति पाकर गायत्री के चरणों में बड़ी एकाग्रता और मानसिक पवित्रता के साथ झुकती है, वह निस्संदेह प्रसन्न होगी जैसे कि एक प्रजापति को उसका पति मिल गया हो। वह सभी सुखों और इच्छाओं की प्राप्ति के साथ धन्य होगी। एक बांझ महिला या उसके पति द्वारा नापसंद की गई महिला एक शानदार महिला में बदल जाएगी। ”

ऋषियों ने कहा :

7-8. आपने कहा था कि हारा ने यह तब दिया था जब एक सौ पांच पद्मज ( ब्रह्मा ) चले गए थे और उन्होंने प्रसन्न होकर ब्राह्मणों को यह उत्कृष्ट वस्तु दी थी। यह कैसा है? या कोई और महेश्वर है ? हमारे इस संदेह को दूर करना आपका कर्तव्य है।

9. शंकर और हरि के जीवन काल के बारे में बताएं । ब्रह्मा का भी उल्लेख कीजिए। हमें इसमें बहुत दिलचस्पी है।

सीता ने कहा :

10. हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, मैं आप सभी से विस्तार से बात करूंगा, तीनों (देवताओं) के जीवन काल।

11. त्रुई निमेष का चौथा भाग है । दो नीमच एक लव बनाते हैं । दो लव एक कला बनाते हैं और पंद्रह कला एक काठ बनाते हैं

12. वे कहते हैं कि तीस काठ एक कला बनाते हैं और तीस कला एक कृष्ण बनाते हैं । जो लोग मुहूर्त से परिचित हैं, वे कहते हैं कि एक मुहूर्त में बारह कृष्ण होते हैं ।

13. विद्वान कहते हैं कि तीस मुहूर्त एक दिन और रात बनाते हैं। तीस अहोरात्र (दिन और रात) एक मास बनाते हैं। दो महीने की अवधि को tu (ऋतु) कहा जाता है।

14. तीन tus एक अयन (सूर्य का पारगमन) बनाते हैं । दो अयन एक वत्सर (वर्ष) बनाते हैं। वह देवताओं का एक दिन बन जाता है, हे उत्कृष्ट ब्राह्मण ।

15-16. उत्तरायण (उत्तरी पारगमन) दिन है और दूसरा (यानी दक्षिणायन ) रात (देवों की) है। एक लाख सात सौ अट्ठाईस हजार मानव वर्ष पहले, कृतयुग , हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों का निर्माण करेंगे।

17. एक लाख दो सौ निन्यानवे हजार वर्ष की अवधि [1] को दूसरा, त्रेता युग , हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों के रूप में वर्णित किया गया है।

18. द्वापर , तीसरा युग , आठ सौ चौंसठ हजार वर्षों से मिलकर बताया गया है।

19. कलियुग , चौथा, चार सौ बत्तीस हजार वर्षों का है। तो कहते हैं विद्वान पुरुष।

20. एक हजार चार-युग काल पितामह का एक दिन बनाते हैं ; ऐसे तीस दिन एक महीने और बारह महीने एक साल बनाते हैं।

21. ब्रह्मा, दादा, ऐसे सौ वर्षों तक जीवित रहते हैं। अब उसकी उम्र अस्सी साल छह महीने है।

22. इस पुण्यात्मा के पहले प्रतिपदा दिन में से एक दो यम वर्तमान शुक्रवार को बीत चुके हैं।

23. ब्रह्मा के एक वर्ष को विष्णु के एक दिन के रूप में वर्णित किया गया है ।

24. वह भी अपक्की गिनती के अनुसार सौ वर्ष जीवित रहता है। यह घोषित किया गया है कि उसके जन्म को पचपन वर्ष बीत चुके हैं।

25. इस सोमवार तक पांच तिथियां (चंद्र दिन) और एक यम का आधा समय बीत चुका है। विष्णु के एक वर्ष से महेश्वर का एक दिन बनता है।

26-29. शिव उस रूप में सौ वर्ष तक जीवित रहते हैं। वह तब तक रहता है जब तक सदाशिव का मुख (चेहरा) एक उच्छवसिता (साँस लेना) नहीं लेता, जब निस्विता (साँस छोड़ना) होता है तो वह शक्ति में विलीन हो जाता है ।

ब्रह्मा, विष्णु, शिव , गंधर्व , उरग , राक्षस आदि सभी देहधारी प्राणियों के मामले में , हे उत्कृष्ट ब्राह्मण, एक दिन और रात के दौरान साँस लेने और छोड़ने की संख्या इक्कीस हजार छह सौ है। छह उच्छवास और निवास एक पाल का गठन करते हैं ।

30. नाḍī का उल्लेख साठ पलों से मिलकर बना है । साठ नाई एक दिन और रात बनाते हैं । सदाशिव के निवास और उच्चवास की कोई सीमा नहीं है । इसलिए, उन्हें हमेशा के लिए याद किया जाता है।

31. अन्य भी जो ब्रह्म की प्राप्ति को प्राप्त करते हैं वे चिरस्थायी हो जाते हैं। यह सच है जो मेरे द्वारा बताया गया है।

ऋषियों ने कहा :

32-34. हे सीतापुत्र , यदि ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के सौ वर्ष पूरे होने पर निस्संदेह मृत्यु हो जाती है, तो विद्वान पुरुष यह कैसे कहते हैं कि नश्वर संसार में अल्प अवधि वाले मनुष्य मुक्ति (मुक्ति) प्राप्त करते हैं? निश्चय ही मोक्ष मार्ग को लेकर उनका विवाद झूठा है।

सीता ने कहा :

35. काल (समय) का न तो आदि है और न ही अंत । इसे सीमांकित नहीं किया जा सकता है। असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर मोक्ष प्राप्त कर आए और चले गए ।

36. वे रेत के कणों की तरह असंख्य हैं। जब उनकी सौ वर्ष की आवंटित अवधि पूरी हो जाती है, तो वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। यदि मनुष्य को ब्रह्म की प्राप्ति के परिणामस्वरूप विश्वास है तो उसे निस्संदेह मोक्ष प्राप्त होगा।

37. मनुष्य की नजर में मक्खियों और मच्छरों को बहुत ही तुच्छ जीव माना जाता है। इन्द्र और अन्य देवताओं की दृष्टि में पृथ्वी के धरातल पर मनुष्य भी ऐसे ही हैं ।

38. जैसे मनुष्य (देवताओं के लिए) कीड़ों की तरह (प्रकाशित) हैं, वैसे ही देवता भी (हैं) अव्यक्त मूल के ब्रह्मा।

39. जैसे देवता ब्रह्मा के लिए कीड़े और कीड़ों की स्थिति में रहते हैं, वैसे ही ब्रह्मा भी विष्णु के संबंध में कीड़ों की स्थिति में रहते हैं।

40. जैसे पितामह विष्णु के लिए कीड़े और कीड़ों की स्थिति में रहते हैं, हे उत्कृष्ट ब्राह्मण, उसी तरह उन्हें (विष्णु) को भी शिव और शक्ति द्वारा माना जाना चाहिए।

41. हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, जैसे विष्णु को उन दोनों (अर्थात शिव और शक्ति) द्वारा एक कीड़ा माना जाना चाहिए, वैसे ही सदाशिव द्वारा उन दोनों को कीड़े की तरह माना जाना चाहिए।

42. इस प्रकार, जब विभिन्न प्रकार के यज्ञों के बाद विश्वास के माध्यम से पवित्र मन के माध्यम से ब्रह्म का एहसास होता है , तो लोग महान सदाशिव को प्राप्त करते हैं।

43. जो लोग स्वर्ग के सुख के लिए अग्निशोम और अन्य यज्ञों को दक्षिणा के पूर्ण पूरक के साथ करते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं और विभिन्न प्रकार के सुखों का आनंद लेते हैं।

44. जब योग्यता समाप्त हो जाती है तो वे पृथ्वी पर लौट आते हैं। लेकिन अगर कोई ब्रह्म की प्राप्ति के माध्यम से सबसे बड़ा निरपेक्ष (मोक्ष) प्राप्त करता है, तो कोई पुनर्जन्म नहीं होता है।

45. इसलिए, हर तरह से, कई जन्मों के दौरान आध्यात्मिक पथ में बार-बार अभ्यास करना चाहिए। बाद में धीरे-धीरे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

46. ​​एक जीवन में एक व्यक्ति द्वारा अर्जित आध्यात्मिक ज्ञान का लेश (माध्यम) दूसरे जन्म में दोगुना और तीसरे जन्म में तिगुना हो जाएगा।

47. प्रत्येक जीवन के क्रम में यह प्रक्रिया एक-एक करके बढ़ती चली जाएगी।

ऋषियों ने कहा :

48. हे सीताज, यदि आप इसे जानते हैं, तो हमें बताएं कि मनुष्य ब्रह्म की प्राप्ति कैसे करते हैं।

सीता ने कहा :

49. मानव बोधों की व्याख्या करने के मामले में मेरे पास क्या शक्ति है! जो खुद को नहीं जानता वह दूसरों को कैसे समझा सकता है?

50. लेकिन, हे उत्कृष्ट ब्राह्मणों, मैं तुम्हें अपने पिता द्वारा ब्रह्म के ज्ञान के संबंध में दी गई शिक्षा के बारे में बताऊंगा।

51. हंकेश्वर के पवित्र स्थान में दो शुभ तीर्थ हैं । वे दो कुंवारियों द्वारा बनाए गए थे और वे (तीर्थ) पुरुषों को ब्रह्म का ज्ञान देते हैं।

52-55. तीर्थ एक ब्राह्मण लड़की और एक शूद्र लड़की द्वारा बनाए गए थे । एक भक्त आठवें और चौदहवें चंद्र दिवस पर उन तीर्थों में पवित्र स्नान का संस्कार करेगा। फिर उसे प्रसिद्ध सिद्धि - पादुकाओं (आध्यात्मिक उपलब्धि के सैंडल) की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। वे अच्छी तरह से संरक्षित हैं और गर्त (गहरी खाई, गड्ढे) के केंद्र में छिपे हुए हैं और दो कुंवारी लड़कियों द्वारा पूजा की जाती हैं। आत्म-दृष्टि को बढ़ाने के उद्देश्य से उन्हें (या द्वारा) शक्ति के साथ वहां जमा किया गया है। वर्ष के अंत तक, भक्त को ब्रह्म का एहसास होगा। वे मोक्ष के इच्छुक लोगों को ब्रह्म की प्राप्ति का आनंद देते हैं। मेरे पिता वहां गए और इसलिए उस ज्ञान से लैस बने रहे।

56. उसके कहने पर मैं भी वहां गया, और वहां एक वर्ष तक रहा, और जूतियों की पूजा की। इसलिए ज्ञान भी प्राप्त हुआ।

57. हे ब्राह्मणों, मैं जो कुछ भी सीखता हूं उसे उत्कृष्ट पुराण और जो कुछ वर्तमान है और जो भविष्य में होने की संभावना है, को सुनकर जानता हूं।

58. निःसंदेह यह उन्हीं की कृपा का परिणाम है कि यहां (उनमें) वैध ज्ञान के साधन मौजूद हैं क्योंकि मैं एक सीता (चैनोटीर [रथी?] जाति) होने की स्थिति (विकलांग) रहा हूं और इसलिए मुझे इससे बाहर रखा गया है। वेदों का अध्ययन ।

59. मैं उसका (अर्थात् वेदों का) सम्पूर्ण अर्थ जानता हूँ जैसे भर्त्यज्ञ ऋषि। इसलिए यदि आपका उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है तो अकेले ही इस स्थान पर जाएं।

60. ये सत्त्र किस काम के हैं जो स्वर्गीय सुख देते हैं लेकिन उससे वापसी का कारण बनते हैं? वहां जाकर सिद्धि प्रदान करने वाली उन दो जूतियों को प्रणाम करें। इसलिए वर्ष के अंत तक ब्रह्म की प्राप्ति हो जाएगी।

ऋषियों ने कहा :

61. बहुत बढ़िया! उत्कृष्ट! हे आदरणीय, आपने बहुत अच्छी सलाह दी है। इस प्रकार हम सांसारिक अस्तित्व के सागर से मुक्त हो गए हैं।

62. बारह वर्षों के इस सत्र की समाप्ति पर हमने वहाँ जाने का निश्चय किया है। इसमें तो कोई शक ही नहीं है।

फुटनोट और संदर्भ:

[1] :

शंशानाम सहस्रकै: के लिए शनावत्य सहस्रकै: पढ़ें ।