रविवार, 30 जून 2019

किसन_का_संबंध_किसान से  है। वैदिक कोश को देखा । कृष्ण का एक अर्थ है- काला और दूसरा अर्थ है-  किसान ।

👉किसान एक ट्राइब्स हैं।
ये नेपाल में भी हैं और भारत के झारखंड और उड़ीसा जैसे प्रांतों में भी। इनकी जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में 31,568 है।
ये मूलतः #मुंडारी भाषा बोलते हैं। इन्हें बंगला में हलधर भी कहा जाता है। किसन ( कृष्ण ) के भाई हलधर थे। किसन का संबंध किसान से  है।
किसान ट्राइब्स के लोग आस्ट्रिक प्रजाति के हैं।
इसका सबूत उनका मुंडारी भाषा है।

👉#आस्ट्रिक_प्रजाति के लोग ही " #हो " भाषा भी बोलते हैं ।
इसी " हो " भाषा का शब्द #अहीर है जिसका मूल प्रतिरूप अयेर ( पशुओं से संबंधित ) है जो उस भाषा का काफी उर्वर शब्द है।

👉आस्ट्रिक प्रजाति के लोगों को भारत के संदर्भ में शबर भी कहा जाता है ।
डी.डी. कोसंबी ने लिखा है कि भारत में #बाँसुरी का आविष्कार शबरों ने किया है अर्थात आस्ट्रिकों ने किया है।

👉आइए, कदम्ब के पेड़ का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं । अमेरिकन भाषावैज्ञानिक प्रजिलुस्की ने बताया है कि " म्ब " नामांत शब्द मुंडाओं का है अर्थात आस्ट्रिकों का है।
इसीलिए कदम्ब भी आस्ट्रिकों का है ।
ये निष्कर्ष अम्बा, कुटुम्बा, तुम्बा जैसे भौगोलिक स्थानों पर आधारित है।

👉कुल मिलाकर बात ये कि #किसान_अहीर_बाँसुरी_और_कदम्ब के पेड़ आस्ट्रिकों के हैं।
यदि किसन का वास्तविक नाम किसान मान लें तो ये निष्कर्ष आश्चर्य में डालता है।

श्रीमद्भगवत् गीता देव संस्कृति को नकारती है

वैदिक ऋचाओं और श्रीमद्भगवद्गीता का विषयगत विश्‍लेषण किया जाय तो दौनों में परस्पर विरोधी मान्यताऐं प्रतिध्वनि होती हैं।
दोनों धर्म ग्रन्थ एक ही 'धर्म' के नहीं हो सकते और ना ही इन का र‍चयिता एक ही तथाकथित परमात्‍मा हो सकता है।
श्रीमद्भगवत् गीता गुप्त कालीन आभीरों के भक्ति मूलक भागवत धर्म का प्रकाशन करती है ।
जिसे पञ्चमी सदी में ब्राह्मण धर्म के अनुरूप परिष्कृत किया गया ।

वेदों में जगह जगह इच्‍छा और कामना पर बल दिया गया है-
कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्‍छतं समाः एवं त्‍वयि नान्‍य‍थेतोऽस्ति न कर्म लिप्‍यते नरे।।
यजुर्वेद अध्याय का द्वितीय श्लोक 40/2
ईशावास्योपनिषद में भी सही श्लोक है।

अर्थातः हे मनुष्‍यों, कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्‍छा करनी चाहिए-
विदित हो कि वेदों में केवल पुरोहित भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र का स्तवन करते हैं ।
कहीं सुन्दर स्त्रीयों की कामना की जाती है तो कहीं
सुन्दर शक्ति शाली पुत्रों की कामना की जाती है।

जबकि श्रीमद्भगवतद् गीता कहती है- अर्थात फल की इच्‍छा रखने वाले व्‍यक्ति फल में आसक्‍त होते हैं और बंधन में पड़ते हैं ।

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥18.6॥

हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।

यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों साथ-साथ मनुष्य को पठन-पाठन, खेती-बाड़ी, जीविका हेतु तथा नित्य कर्म खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शारीरिक कर्म और परिस्थिति जन्य आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करके जरूर करना चाहिये।

अपनी कामना, ममता, और आसक्ति का त्याग करके कर्मों को केवल प्राणी मात्र के भले के लिए करने से कर्मों का प्रवाह संसार के लिए और योग का प्रवाह स्वयं के लिये हो जाता है।
अपने हेतु किया गया कर्म बन्धन कारक हो जाता है और अपना व्यक्तित्व परमात्मा में विलय नहीं होने देता।
🎹
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥18.10॥

जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्व गुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है तथा अपने स्वरूप में स्थित है अर्थात्‌ स्वयं में स्थित होकर स्वस्थ है।
🐂अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रविधं कर्मणः फलम्। भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥18.12॥

कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो इष्ट-अच्छा, बुरा-अनिष्ट और मिश्रित-मिला हुआ;
ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग करने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।

... वेदों की इस प्रकार की धज्जीयाँ  तो चार्वाक आदि नास्तिकों ने भी नहीं उड़ाई होंगी।

जैसी श्रीमद्भगवद्गीता ने उड़ाई है,

पुरूषोत्तम न कह कर पुरुष कहा गया है।
लेकिन गीता के 15 वें अध्‍याय में गीता का वक्‍ता ईश्वर के प्रतिनिधि रूप में  कहता हैः

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित- पुरूषोत्तमः - 15/18 अर्थात में लोक और वेद में 'पुरूषोत्तम' के नाम से प्रसिद्ध हूं।

..... गीता में अवतारवाद का सिद्धान्त है परन्तु वेदों में परमात्‍मा के अवतार धारण करने का कहीं उल्‍लेख नहीं मिलता, पर गीता का यह एक प्रमुख सिद्धान्त है।

यही तो भागवत धर्म का मूल सिद्धान्त है जिसका प्रादुर्भाव यहूदियों के नवीवाद का एक रूपान्तरण है।

."यदा यदा हि धर्मस्‍य ग्‍लानिर्भवति भारत अभ्‍युतथानमधर्मस्‍य तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम !
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्‍कृताम् धर्म संस्‍थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे - श्रीमद्भगवद्गीता (4/7-8)

अर्थात जब जब धर्म की ग्‍लानि होती और अधर्म की उन्‍नति होती है, तब तब मैं अर्थात (भगवान कृष्‍ण) पैदा होता हूं, साधुओ की रक्षा और पापियों के विनाश के लिए तथा धर्म को स्थापित करने के लिए मैं हर युग में पैदा होता हूं!

एक धर्म के दो धर्मग्रंथों में ऐसा पारस्‍पारिक विरोध
ध्वनित करता है कि भागवत धर्म प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म के प्रतिद्वन्द्वी रूप में उदय होता है ।

विद्वानों का एक वर्ग विशेषतः आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्‍दी में ही वेद और गीता के इस पारस्‍पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था।

स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के शिष्‍य पंडित भीमसेन शर्मा ने इस ओर सब से पहले ध्‍यान दिया और कदम भी उठाया। उन्‍होंने देखा कि गीता का ईश्‍वर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्‍वर के सिद्धांत के विपरीत है, अत- उन्‍होंने जिस जिस श्‍लोक में भी 'अहं' या पद 'मा' पद देखा उस उस श्‍लोक को झट अर्ध चन्‍द्र दे कर बाहर निकाल दिया और लगभग 238 श्‍लोकों को प्रक्षिप्‍त बता कर निकाल बाहर किया,

इस दिशा में एक दूसरे आर्यसमाजी विद्वान प. आर्य मुनि ने इस यक्ष प्रशन के समाधान के लिए एक और ढंग अपनाया, उन्‍होंने जहां 'अहं' पद देखा, वहां उस का अर्थ ' ईश्‍वर' कर दिया और जहां मा शब्‍द मिला, वहां उसका अर्थ वैदिक-धर्म कर दिया (देखें प. नरदेव शास्‍त्री वेदतीर्थ कृत 'आर्य समाज का इतिहास, पृ. 235)
किंतु प. भीमसेन के प्रयास की तुलना में यह दूसरा प्रयास भी उपहास्‍पद है. इनके अतिरिक्‍त इस दिशा में और भी प्रयास किए गए, पञ्च भूमित्र शर्मा आर्योपदेशक और प. शिदत्त शास्‍त्री ने भास्‍कर प्रेस मेरठ से गीता एक संस्‍करण छपवाया जिस में केवल 13 अध्‍याय रखे, बाद में लाहौर से एक और संस्‍करण निकाला गया उसमें केवल 70 श्‍लोक रख्‍ो गए,
शेष 630 श्लोकों को बाहर निकाल फेंके गए, यह काटछांट का तरीका ऊपरी लीपापोती ज्‍यादा कारगार सिद्ध न हुआ,
आर्य समाजी वेद और गीता में से एक के वरण और दूसरे के परित्‍याग पर उतारू हैं।

आर्यसमाजियों के विद्वतापूर्ण् प्रयासों से वेद और गीता के मध्‍य की खाई और गहरी हो गयी है,
लगता है गीता भक्‍तों और वेदानुयायियों में ध्रुवीकरण हो जायेगा, इस के साथ ही जनता में फैलाया गया व फैला यह अंधविश्‍वास कि 'वेद और गीता एक ही चीज हैं' भी समाप्‍त हो जाएगा

.......... गीता एक ही ब्रह्म के रचे हुए हैं,.. सुनिए कृष्‍ण के द्वारा ही- ॐ तत्‍सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्‍पृतः ब्राह्मणास्‍तेन वेदाश्‍च यज्ञाश्‍च विहिता पुरा - गीता 17/23 अर्थात हे अर्जुन, ओम् तत, सत ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदधन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेदा यज्ञ आदि रचे गए हैं गीता में कृष्‍ण स्‍पष्‍ट घोषणा कर रहे हैं कि सब से प्रमुख वेद सामवेद है गीता के आधार पर  मैं ही हूं- वेदानां सामवेदा स्मि - गीता 10/22 .

परन्तु मनुःस्मृति में समावेद को हेय माना गया।

.....

राम और सीता

राम और सीता के भाई-बहिन माना जाने के मूल में अर्थों का प्रासंगिक न होना ही है
__________________________________________ प्राचीन संस्कृत में बन्धु शब्द का अर्थ भाई और पति दौनों के लिए प्रयोग होता था।

कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के 14 वे सर्ग के 33 वें श्लोक में श्री राम को सीता का बन्धु कहा है:
वैदेहि बन्धोर्हृदयं विदद्रे’।

अर्थात् वैदेहि (विदेह राजा जनक की पुत्री ने बन्धु राम को हृदय में धारण किया "

संस्कृत भाषा में बन्धु शब्द से समान भगिनी शब्द के भी दो अर्थ हैं भगिनी शब्द के व्यापक अर्थों का प्रकाशन संस्कृत साहित्य में कालान्तरण में --दो रूपों में हुआ भगिनी = पत्नी तथा भगिनी = बहिन (सहोदरा) ।

तात्पर्य्यायः- १स्वसा २ स्त्री । इत्यमरःकोश ।२ ।६।२९ ॥
कोश कारों ने काल्पनिक व्युत्पत्ति कर डाली हैं।

भगं यत्नः पित्रादितो द्रव्यदाने विद्यतेऽस्या इति इनिप्रत्ययेन भगिनी ।
इति तट्टीकायां भरतः ॥
(भगं योनिरस्या अस्तीति । भग + इनिः डीप् ) स्त्रीमात्रम् ।
यथा -“ परिगृह्या च षामाङ्गी भगिनी प्रकृतिर्नरी ॥
“ इति शब्दचन्द्रिका ॥

यहाँ भगिनी शब्द स्त्री का वाचक है ।
स्वयं ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त तीन की ऋचा तीन में देखें सीता को
राम की स्वसार कहा है ।

( स्वसृ शब्द भारोपीय भाषा परिवार में (Sister ) के रूप में विकसित हुआ है ।
देखें---ऋग्वेद में सीता को लिए स्वसार (स्वसृ ) शब्द का प्रयोग- __________________________________________ भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥ _________________________________________ (ऋग्वेद १०।३।३) भावार्थ: श्री रामभद्र (भद्र) सीता जी के साथ (भद्रया) [ वनवास के लिए ] तैयार होते हुए (सचमान ) दण्डकारण्य वन (स्वसारं) यहाँ पत्नी अर्थ में अथवा -बहिन ) दौनों अर्थों में ।
जब आये थे (आगात्) , तब (पश्चात ) कपट वेष में कामुक (जारो) रावण सीता जी का हरण करने के लिए आता है (अभ्येति ), उस समय अग्नि देव हीं सीता जी के साथ थे ।
( अर्थात स्वयं सीता माँ अग्नि में स्थित हो चुकी थी राम जी के कथन के अनुसार), अब रावण वध के पश्चात, देदीप्यमान तथा लोहितादी वर्णों वाली ज्वालाओं से युक्त स्वयं अग्नि देव हीं (सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि) हीं शुभ-लक्षणों से युक्त कान्तिमयी सीता जी के साथ [सीता जी का निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए] श्री राम के सम्मुख उपस्थित हुए (राममस्थात्) | ________________________________________
उपर्युक्त ऋचा में सीता के लिए स्वसा शब्द है;
जो राम और सीता को भाई-बहिन मानने के लिए भ्रमित करता है ।
और यह वैदिक ऋचाओं में प्राचीनत्तम हैं मिश्र की पुरातन कथाओं में रेमेशिस तथा सीतामुन शब्द राम और सीता का ही रूपान्तरण हैं ।

यद्यपि मिश्र की संस्कृति में भाई-बहिन ही पति - पत्नी के रूप में राजकीय परम्पराओं का निर्वहन करते हैं ।

कदाचित प्राचीन काल में किन्हीं और संस्कृतियों में भी ऐसी परम्पराओं का निर्वहन होता हो।
यम और यमी सूक्त पर विचार विश्लेषण करना चाहिए
कि यमी यम से भाई होने पर भी
प्रणय नवेदन करती है ।

पाली भाषा में रचित जातकट्ठवण्णना के दशरथ जातक में राम और सीता की कथा का संक्षेप में भाई-बहिन के रूप में वर्णन है।

इन कथाओं के अनुसार दशरथ वाराणसी के राजा हैं दशरथ की बड़ी रानी की तीन सन्तानें थीं ।

राम पण्डित (बुद्ध) लक्खण (लक्ष्मण ) तथा एक पुत्री सीता जिसे वाल्मीकि-रामायण में सान्ता कर दिया गया है ।

दशरथ जातक के अनुसार राम का वनवास बारह वर्ष से लिए है ।
नौवें वर्ष में जब भरत उन्हें वापस लिवाने के लिए आते हैं तो राम यह कहकर मना कर देते कि मेरे पिता ने मुझे बारह वर्ष के लिए वनवास कहा था ।
________________________________________
अभी तो तीन वर्ष शेष हैं ।
तीन वर्ष व्यतीत होने पर राम पण्डित लौटकर अपना बहन सीता से विवाह कर लेते हैं ।

और सोलह हजार वर्ष ✍ तक राज्यविस्तार करने से वाद स्वर्ग चले जाते हैं ।
जिसमें वंश में महात्मा बुद्ध हुए थे; उस शाक्य (शाकोई) वंश में भाई-बहिन के परस्पर विवाह होने का उल्लेख मिलता है ।

क्योंकि मिश्र आदि हैमेटिक जन जातियाँ स्वयं को एक्कुस (इक्ष्वाकु) और मेनिस (मनु) का वंशज मानती हैं ।

इसी लिए यम और यमी के काल तक भाई-बहिन के विवाह की परम्पराओं के अवशेष मिलते हैं ।

जैन पुरा-कथाओं के अनुसार भोग-भूमियों में सहोदर भाई-बहिन के विवाह की स्थिर प्रणाली रही है ।

मिश्र में रेमेशिस तथा सीतामुन शब्द राम और सीता शब्द के अवशेष हैं ।
वैदिक ऋचाओं में यम और यमी भाई-बहिन थे और ये सूर्य की सन्तानें थे ; और यमी यम से प्रणय याचना करती है ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशम -सूक्त यम-यमी सूक्त है।
इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृद्धि  सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक अथर्ववेद (18/1/1-16) में दृष्टिपथ होते हैं, अब विचारणीय है कि- यम-यमी क्या है?
अर्थात् यम-यमी किसको कहा । इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

इस अश्लील परक अर्थ को कोई भी सभ्य समाज का नागरिक कदापि स्वीकार नहीं कर सकता है।
परन्तु सृष्टि में सभ्यताओं का विकास तो अनैतिकताओं के धरातल से हुआ।

यम और मनु दौनों को भारतीय पुराणों में भाई भाई कहा है मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी ।
वैसे भी आधुनिक थाइलेण्ड में अयोध्या है ।
और सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों में अयोध्या को अजेडा तथा दशरथ को तसरत राम को रॉम सीता को सिता कहा गया है ।
हम्बूरावी की विधि संहिता और गिलगमेश के महाकाव्य में ये अवशेष प्राप्त हैं ।

प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।
जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
.. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ ( Pro -Genitor )के रूप में स्वीकृत की है !

मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं । वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है ।
जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था , वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् "Menis" संज्ञा से अभिहित था मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था
और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था , मेंम्फिस प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है । तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है ।

मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है , जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे। इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेअॉनिया Maionia भी था .
ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में --- मनु को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिअॉन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon)और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य विचारणीय है-

यम: यहाँ भी भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है ....कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था ।

स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्.गल
परन्तु कनान एक हैमेटिक पुरुष है ।

यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं । और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल.. परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था ।

जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ.. तब ... मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनकी दर्शन हुआ ... तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी ... .......और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट( Crete )की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया के आर्यों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए । भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनु) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) का मानवीय-करण (personification) रूप है |

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है ।
तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु तथा श्रृद्धा से ही मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है । सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में " मनवे वै प्रात: "वाक्यांश से घटना का उल्लेख आठवें अध्याय में मिलता है ।

सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है;--श्रृद्धा देवी वै मनु (काण्ड-१--प्रदण्डिका १) श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु और श्रृद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है--
"ततो मनु: श्राद्धदेव: संज्ञायामास भारत श्रृद्धायां जनयामास दशपुत्रानुस आत्मवान" ------------------------------------------------------ (९/१/११) छन्दोग्य उपनिषद में मनु और श्रृद्धा की विचार और भावना मूलक व्याख्या भी मिलती है ।
"यदा वै श्रृद्धधाति अथ मनुते नाSश्रृद्धधन् मनुते " __________________________________________ जब मनु के साथ प्रलय की घटना घटित हुई तत्पश्चात् नवीन सृष्टि- काल में असुर पुरोहितों की प्रेरणा से ही मनु ने पशु-बलि दी ..
. " किल आत्आकुलीइति ह असुर ब्रह्मावासतु:। तौ हो चतु: श्रृद्धादेवो वै मनु: आवं नु वेदावेति। तौ हा गत्यो चतु:मनो वाजयाव तु इति।। .

जर्मन वर्ग की प्राचीन सांस्कृतिक भाषों में क्रमशः यमॉ Yemo- (Twice) -जुँड़वा यमल तथा मेन्नुस Mannus- मनन (Munan )करने वाला अर्थात् विचार शक्ति का अधिष्ठाता .फ्राँस भाषा में यम शब्द (Jumeau )के रूप में है ।

रोमन इतिहास कारों में टेकट्टीक्स (Tacitus) जर्मन जाति से सम्बद्ध इतिहास पुस्तक "जर्मनिका " में लिखता है ।

" अपने प्राचीन गाथा - गीतों में वे ट्युष्टो अर्थात् ऐसा ईश्वर जो पृथ्वी से निकल कर आता है ।

मैनुस् उसी का पुत्र है वही जन-जातिों का पिता और संस्थापक है ।
जर्मनिक जन-जातियाँ उसके लिए उत्सव मनाती हैं । मैनुस् के तीन पुत्रों को वह नियत करते हैं । जिनके पश्चात मैन (Men)नाम से बहुत से लोगों को पुकारा जाता है |

( टेकट्टीक्स (Tacitus).. जर्मनिका अध्याय 2. 100ईसवी सन् में लिखित ग्रन्थ.... यम शब्द.... रोमन संस्कृति में यह शब्द (Gemellus )है , जो लैटिन शब्द (Jeminus) का संक्षिप्त रूप है. ....रोमन मिथकों के मूल-पाठ (Text )में मेन्नुस् (Mannus) ट्युष्टो (Tuisto )का पुत्र तथा जर्मन आर्य जातियों के पूर्व पुरुष के रूप में वर्णित है -- A. roman text(dated) ee98) tells that Mannus the Son of Tvisto Was the Ancestor of German Tribe or Germanic people ". ........

इधर जर्मन आर्यों के प्राचीन मिथकों "प्रॉज़एड्डा आदि में "में उद्धरण है ...Mannus progenitor of German tribe son of tvisto in some Reference identified as Mannus उद्धरण अंश (प्रॉज- एड्डा ).....
वस्तुतः ट्युष्टो ही भारतीय आर्यों का देव त्वष्टा है ,जिसे विश्व कर्मा कहा है ..जिसे मिश्र की पुरा कथाओं में तिहॉती ,जर्मन भाषा में प्रचलित डच (Dutch )का मूल त्वष्टा शब्द है ।
गॉथिक शब्द (Thiuda )के रूप में भी त्वष्टा शब्द है । प्राचीन उच्च जर्मन में सह शब्द (Diutisc )तथा जर्मन में (Teuton )है ... और मिश्र की संस्कृति में (tehoti) के रूप में वर्णित है. .जर्मन पुराणों में भारतीयों के समान यम और मनु सजातीय थे ।

.भारतीय संस्कृति में मनु और यम दोनों ही विवस्वान् (सूर्य) की सन्तान थे ,इसी लिए इन्हें वैवस्वत् कहा गया ...यह बात जर्मन आर्यों में भी प्रसिद्ध थी. .,The Germanic languages have lnformation About both ...Ymir (यम ) यमीर( यम)and (Mannus) मनुस् Cognate of Yemo and Manu"..
मेन्नुस् मूलक मेन Man शब्द भी डच भाषा का है जिसका रूप जर्मन तथा ऐंग्लो - सेक्शन भाषा में मान्न Mann रूप है ।

प्रारम्भ में जर्मन आर्य मनुस् का वंशज होने के कारण स्वयं को मान्न कहते थे ।

यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई .. नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है ।

यमीर यम ही है ; हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए यथावत है।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river ...... earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" ________________________________________ This thesis has been explored by Yadav Yogesh kumar 'Rohi

......... (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए ... ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी ।
वहाँ यम को यम रूप में ही ..नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में ... जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी ।

मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव -सृष्टि के आदि प्रवर्तक एवम् समग्र मानव जाति के आदि- पिता के रूप में किया गया है। वैदिक सन्दर्भों मे प्रारम्भिक चरण में मनु तथा यम का अस्तित्व अभिन्न था कालान्तरण में मनु को जीवित मनुष्यों का तथा यम को मृत मनुष्यों के लोक का आदि पुरुष माना गया . जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया .. मैने प्रायःउन्हीं तथ्यों का पिष्ट- पेषण भी किया है .जो मेरे बलाघात का लक्ष्य है ।

और मुझे अभिप्रेय भी जर्मन माइथॉलॉजी में यह तथ्य प्रायः प्रतिध्वनित होता रहता है ! " जावा द्वीप में प्रचलित राम कथा के सन्दर्भों में कहा जाय तो जाना के रामकेलि , मलय के सेरीराम तथा हिकायत महाराज रावण नामक ग्रन्थ में वर्णित है ; कि सीता दशरथ की पुत्री थी ।
पाली भाषा में "जातकट्ठ वण्णना" के दशरथ जातक में राम कथा के अन्तर्गत सीता राम की -बहिन हैं

प्रो. मैक्समूलर के मत में यम-यमी कोई मानवीय सृष्टि के पुरुष न थे किन्तु दिन का नाम यम और रात्री का नाम यमी है इन्हीं दोनों से विवाह विषयक वार्तालाप है। इस कल्पना में दोष यह है कि जब यम और यमी दोनों दिन और रात हुए तो दोनों ही भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं।
इससे यहाँ इनको रात्री तथा दिन रूप देना सर्वथा विरुद्ध है।
अनेक भारतीय लेखकों ने भी इन मन्त्रों के व्याख्यान को अलंकार बनाकर यम-यमी को दिन-रात सिद्ध किया है, इनके मत में भी कथा सर्वथा निरर्थक ही प्रतीत होती है, क्योंकि न कभी दिन-रात को विवाह की इच्छा हुई और न कोई इनके विवाह के निषेध से अपूर्वभाव ही उत्पन्न होता है।
आचार्य यास्क जी ने ‘यमी’ का निर्वचन लिंभेद मात्र से ‘यम’ से माना है।
‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात् यम को यम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों को नियन्त्रित करता है। (निरुक्त चन्द्रमणिभाष्य-10/12) निरुक्त भाष्यकर्ता स्कन्दस्वामी जी ने यम-यमी को आदित्य और रात्रि मानकर (10/10/8) मन्त्र की व्याख्या की है।

स्वामी ब्रह्ममुनि यम-यमी को पति-पत्नी, दिन-रात्री और वायु-विद्युत् का बोधक मानते हैं।
चन्द्रमणि विद्यालप्रार जी ने अपने निरुक्त परिशिष्ट में सम्पूर्ण यम-यमी सूक्त की व्याख्या की है, जो भाई-बहन परक है, किन्तु सहोदर भाई बहन न दिखा कर सगोत्र दिखाने का प्रयास किया है।
‘‘ अब हम व्याकरण कि दृष्टि से यम-यमी शब्द को जानने का यत्न करते हैं।
महर्षि पाणिनि के व्याकरण के अनुसार ‘पुंयोगादाख्याम्’(अष्टा.-4/1/48) इस सूक्त से यमी शब्द में ङीष् प्रत्यय हुआ है।
इससे ही पत्नी का भाव द्योतित होता है।
यदि यम-यमी का अर्थ भाई-बहन लिया जाता तब यम-यमा ऐसा प्रयोग होना चाहिए था, जबकि ऐसा प्रयोग नहीं है।

जैसे हम लोकव्यवहार में देखते हैं कि आचार्य की स्त्री आचार्याणी, इन्द्र की स्त्री इन्द्राणी आदि प्रसिध्द है न कि आचार्याणी से आचार्य की बहन अथवा इन्द्राणी से इन्द्र की बहन स्वीकार की जाती है।
ऐसे ही यमी शब्द से पत्नी और यम शब्द से पति स्वीकार करना चाहिए।
अर्थात् यम की स्त्री यमी ही होगी।
सायण के यम-यमी सम्वाद भाई-बहन का सम्वाद कदापि नहीं हो सकता।
ये तो सायण ने अपनी पूर्व वर्ती संस्कृतियों से अनुप्रेरित होकर भाई-बहिन अर्थ को जन्म दे दिया है।

जब मनुष्यों में नैतिक रूप का सर्वथा अभाव था । तब यम और यमी के काल तक भाई -बहिन का सम्बन्ध पूर्व संस्कृतियों में पति पत्नी के रूप में भी विद्यमान थी परन्तु स्वसा शब्द भारोपीय मूल का है ।
संस्कृत भाषा में इसका व्युत्पत्ति- मूल इस प्रकार दर्शायी है ।
संस्कृत भाषा कोश कारों ने स्वसार (स्वसृ) शब्द की आनुमानिक व्युत्पत्ति- करने की चेष्टा की है । (सुष्ठु अस्यते क्षिप्यते इति । सु + अस् + “ सुञ्यसेरृन् । “ उणा० २ । ९७ । इति ऋन् यणादेशश्च । भगिनी । इत्यमरःकोश । २। ६।२९ ॥ (यथा मनुः । २ । ५० । यूरोपीय भाषा परिवार में मे स्वसृ किं
Etymology व्युत्पत्ति :---- From Middle English sister, suster, partly from Old Norse systir (“sister”) and partly from Old English swustor, sweoster, sweostor (“sister, nun”); both from Proto-Germanic *swestēr (“sister”), from Proto-Indo-European (भारत - यूरोपीय ) swésōr (“sister”). Cognate with Scots sister, syster (“sister”), West Frisian sus, suster (“sister”), Dutch zuster (“sister”), German Schwester (“sister”), Norwegian Bokmål søster (“sister”), Norwegian Nynorsk and Swedish syster (“sister”), Icelandic स्वीडन के भाषा परिवार से सम्बद्ध -systir (“sister”), Gothic आद्य जर्मनिक -(swistar, “sister”), Latin soror (“sister”), Russian сестра́ - सेष्ट्रा (sestrá, “sister”), Lithuanian sesuo -सेसॉ (“sister”), Albanian (अलबेनियन रूसी परिवार की भाषा ) vajzë वाजे भगिनी तथा हिब्रू तथा अरब़ी भाषा में व़ाजी -बहिन । (“girl, maiden”), Sanskrit -स्वसृ (svásṛ, “sister”), Persian अवेस्ता ए झन्द में خواهر‏ (xâhar, -ज़हरा “ “ मातरं वा स्वसारं वा मातुलां भगिनीं निजाम् । भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत् ॥ ) भगं यत्नः पित्रादीनां द्रव्यादानेऽस्त्यस्याः इनि ङीप् । १ सोदरायाम् स्वसरि अमरः । “भगिनीशुल्कं सोदर्य्याणाम्” दायभागः । २स्त्रीमात्रे च शब्दच० ३ भाग्यात्वितस्वीमात्रेऽपि तेन सर्वस्त्रीणां तत्पदेन सम्बोधन विहितम् । “परपत्नी च या स्त्री स्यादसम्बन्धाश्च योनितः । तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च” मनुः स्मृति । अब बन्धु शब्द पर विचार करें :-- (बन्ध बन्धने + “ शॄस्वृस्निहित्रपीति । “उणा० १ । ११ । इति उः प्रत्यय । ) स्नेहेन मनो बध्नाति यः बन्धु: तत्पर्य्यायः । १ सगोत्रः २ बान्धवः ३ ज्ञातिः ४ स्वः ५ स्वजनः इत्यमरःकोश । २ । ६ । ३४ ॥ दायादः ७ गोत्रः ८ । इति शब्दरत्नावली ॥
बन्धवश्च त्रिविधा । आत्मबन्धवःपितृबन्धवो मातृबन्धवश्चति ।
यथोक्तम् ।

“ आत्मपितृष्वसुः पुत्त्रा आत्ममातृष्वसुः सुताः । आत्ममातुलपुत्त्राश्च विज्ञेया ह्यात्मबान्धवाः ॥
पितुः पितृष्वसुः पुत्त्राः पितुर्मातृष्वसुः सुताः । पितुर्मातुलपुत्त्राश्च विज्ञेयाः पितृबान्धवाः ॥ मातुःपितृष्वसुः पुत्त्रा मातुर्मातृष्वसुः सुताः , मातुर्मातुलपुत्त्राश्च विज्ञेया मातृबान्धवाः ॥ तत्रचान्तरङ्गत्वात् प्रथममात्मबन्धवो धनभाजस्तदभावे पितृबन्धवस्तदभावे मातृबन्धव इति क्रमो वेदितव्यः । बन्धूनामभावे आचार्य्यः । इति मिताक्षरा । (यथा मनुः । २ । १३६ । “ वित्तं बन्धुर्वयः कर्म्म विद्या भवति पञ्चमी । एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥ बन्धुः पितृव्यादिः । “ इति तट्टीकायां कुल्लूकभट्टः ॥ ) बन्धूकः । (यथा अशोकवधे । २९ । “ अभ्यर्च्य बन्धुपुष्पमालयेति ) मित्रम् । (यथा मेघदूते । ३४ । “ बन्धुप्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारः ॥) भ्राता । इति मेदिनी रघुवंश महाकाव्य में बन्धु शब्द भाई का भी वाचक है । ॥ (यथा रघुवंशम् । १२ । १२ । “ अथानाथाः प्रकृतयो मातृबन्धुनिवासिनम् । मौलैरानाययामासुर्भरतं स्तम्भिताश्रुभिः ॥

“ प्राचीनत्तम मिश्र में रेमेशिस तथा सीतामुन के रूप में दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करने वाले भाई -बहिन ही राज्य शासन परम्पराओं का निर्वहन करते थे । बौद्ध-ग्रन्थों विशेषत: दशरथ जातक में राम और सीता को भाई-बहिन के रूप में वर्णित किया गया है ।

कलीदास ने राम को सीता का बन्धु कहा है ।
और बन्धु का अर्थ भाई के रूप में वर्णित है ।
वेदों में सीता को स्वसार अर्थात् -बहिन रूप में वर्णन विचारणीय है । ______________________________________

भद्रो भद्रया सचमान आगात् स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्। सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥
बौद्ध-ग्रन्थों में भी राम की कथाओं का समायोजन है । यहाँ राम और सीता पति और पत्नी न होकर भाई -बहिन को रूप में वर्णित हैं ।
दशरथ जातक- बौद्ध रामायण कथा में स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा जेतवन विहार में एक जमींदार की कथा बताई गयी थी , जिसके पिता की मृत्यु हो गयी थी , वह जमींदार ने अपने पिता की मृत्यु पर इतना दुखी हुआ की सारे काम छोड़ दिए और दुःख में डूब गया , तब उस सन्दर्भ में तथागत ने उसे यह कथा बताई थी , वैसे इतिहासकारो का मानना है की रामायण को मौर्या काल और गुप्त काल के समय लिखा गया था ।
जो बुद्ध के बाद का है और इस में करीब 900 वर्ष का समयान्तराल है । ------------------------------------------------------------------- जातक कथाओं का बौद्ध धम्म में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है , यह ईसवी सन् से 300 वर्ष पूर्व की घटना है।
इन कथाओं मे मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।
जातक खुद्दक निकाय का दसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। बौद्ध जातक कथाओ में करीब 500 कथाये हैं इन कथाओ में एक कथा है " दशरथ जातक" - जिस में रामायण के सभी पात्र है , लेकिन इस बौद्ध कथा में दशरथ आयोध्या का राजा न हो कर वाराणसी का राजा हैं , और सीता राम की पत्नी न हो कर बहन है , इस के आलावा राम का वनवास 14 साल न हो कर 12 साल का है , परन्तु वाल्मीकि-रामायण के समान रावण और हनुमान का कोई स्थान नहीं है इस बौद्ध जातक में , न सीता का अपरहण है ना ही युद्ध का वर्णन । ------------------------------------------------------------------- वाराणसी के महाराजा दशरथ की सोलह हजार रानीयाँ थी ।
बड़ी पटरानी ने दो पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया । पहले पुत्र का नाम राम-पण्डित ,दूसरे का नाम लक्खन कुमार तथा पुत्री का नाम सीता देवी रखा गया । आगे चलकर पटरानी का देहान्त हो गया । अमात्यों के द्वारा दूसरी पटरानी बनाई गयी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भरत कुमार रखा गया । राजा ने पुत्र-स्नेह से रानी से कहा --"भद्रे ! हम तुझे एक वर देता हैं मांगो ! " रानी ने वर मांग कर रख लिया और जब कुमार बड़ा हुआ तो राजा के पास पहुंचकर बोली "देव ! तुमने मेरे पुत्र को वर दिया था ।

अब मैं मांगती हूँ मेरे पुत्र को राज्य दो ।
" राजा को अच्छा नही लगा । उसने उसे डराते हुए कहा --"चण्डालिनी! तेरा नाश हो । मेरे दोनों पुत्र राम पण्डित और लक्खन कुमार गुण सम्पन्न हैं ।
उन्हें मरवाकर अपने पुत्र को राज्य देना चाहती है।" वह डर कर अपने शयनागार में चली गयी और बार-बार राजा से राज्य की याचना करती रही ।
राजा सोंचने लगा --" स्त्रियां मित्रद्रोही होती हैं ।
कहीं झूठी राजाज्ञा या झूठी राज-मोहर के द्वारा मेरे दोनों पुत्रों को मरवा न दे " उसने राम पण्डित और लक्खन कुमार को चुपचाप बुलाया और कहा --"तात !
यहाँ तुम्हारे जीवन को खतरा है तुम किसी जंगल में जाकर रहो और मेरी मृत्यु के बाद अपने वंश के राज्य पर अधिकार कर लेना ।" फिर उसने राज-ज्योतिषी से अपनी आयु की सीमा पूँछी ।
उन्होंने बारह वर्ष बताई । तब वह उनसे बोला --"तात! अब से बारह वर्ष बाद छत्र धारण करना ।" यह सुनकर दोनों ने पिता को प्रणाम किया और महल से बाहर निकले ।
सीता देवी बोली-" मैं भी भाइयों के साथ जाउँगी ।
" उसने भी पिता को प्रणाम किया ।
इस प्रकार तीनों दुखी मन से नगर से बाहर निकले ।
राज्य की जनता भी उसी के पीछे-पीछे चल दी ।
राम पण्डित ने उन्हें समझाकर वापस लौटाया ।
इस प्रकार वे तीनों हिमालय में ऐसी जगह पहुँचे जहाँ पानी और फल सुलभ हों । वहाँ आश्रम बनाकर वे जीवन निर्वाह करने लगे ।लक्खन कुमार और सीता देवी ने राम पण्डित से प्रार्थना की कि तुम हमारे अग्रज हो , पिता-तुल्य हो , तुम आश्रम में रहो ।
हम दोनों भाई-बहन जंगल से फल-फूल लाकर तुम्हारा पोषण करेंगे । तब से राम पण्डित आश्रम में ही रहे और वे उनकी सेवा करने लगे । इस प्रकार नौ वर्ष बीत गए ।
उधर राजा दशरथ मर गए ।
उसके बाद रानी ने अपने पुत्र भरत कुमार से कहा - "छत्र धारण कर राज्य संभालो ।" लेकिन अमात्यों को यह अच्छा न लगा । उन्होंने बाधा डाली और कहा -- "छत्र के असली स्वामी तो जंगल में रहते है । भरत कुमार ने सोंचा ,मैं अपने बड़े भाई राम पण्डित को जंगल से लाकर छत्र धारण कराऊंगा ।

वह अपनी चतुरंगिनी सेना लेकर राम पण्डित के आश्रम पर पहुंचा और थोड़ी दूर पर छावनी डाल दी ।
इस समय लक्खन कुमार और सीता देवी जंगल में फल-फूल लेने गए थे । राम पण्डित अकेले में ध्यान भावना में सुखपूर्वक बैठे हुए थे ।
भरत कुमार ने उन्हें प्रणाम किया और पिता की मृत्यु का समाचार कह अमात्यों सहित उनके पैरों पर गिर कर रोने लगे ।
राम पण्डित न चिंतित हुआ और न रोया ।
उसकी आकृति में विकृति नही आई ।
इसी समय लक्खन कुमार और सीता देवी आश्रम में आयीं । पिता की मृत्यु का समाचार सुन वे दोनों बेहोश हो गए ।होश आने पर विलाप करते रहे ।
भरत कुमार ने सोंचा--"मेरा भाई लक्खन कुमार और सीता देवी पिता के मरने की खबर सुनकर शोक सहन न कर सके ,किन्तु राम पण्डित न सोंच करता है ,न रोता है । उसके पास शोक-रहित रहने का क्या कारण है ?
मैं उससे पूछूँगा ।

केन रामप्पभावेन ,सोचितब्बम् न सोचसि।
पितरं कालकतं सुत्वा,न तं पसहते दुखं।।
अर्थ : हे राम ! तू किस प्रभाव के कारण सोचनीय के लिये चिन्ता नही करता ?
पिता के मर जाने का समाचार सुन कर तुझे दुःख नही होता ।
दहरा च हि बुद्धा च, ये बाला ये च पण्डिता। अद्दा चेव दलिद्दा च, सब्बे मच्चुपरायणा।। अर्थ: तरुण,बुद्ध,मुर्ख,पण्डित,धनी तथा दरिद्र --सभी मरणशील है ।
इस प्रकार संसार में सभी नाशवान है,। अनित्य है ।
जैसे आदमी बहुत विलाप करके भी जीवित नही रह सकता ,उसके लिये कोई बुद्धिमान मेधावी अपने आप को कष्ट क्यों दे ।

इसलिए रोने-पीटने से मृत आदमी का पोषण नही होता ,रोना-पीटना निर्रथक है ।
जो धीर है ,बहुश्रुत है, इस लोक और परलोक को देखता है ,उसके हृदय और मन को बड़े भारी शोक भी कष्ट नही देते हैं । राम पण्डित के इस धर्मोपदेश को सुनकर सभी शोक रहित हो गए । तब भरत कुमार ने राम पण्डित को प्रणाम करके प्रार्थना की --"वाराणसी चलकर अपना राज्य संभालें ।" "तात! लक्खन कुमार और सीता देवी को ले जा कर राज्य का अनुशासन करो ।
और देव ! तुम ?" " तात !मुझे पिता ने कहा था कि बारह वर्ष के बाद आकर राज्य करना । मैं अभी गया तो उनकी आज्ञा का पालन न होगा ।अभी तीन वर्ष शेष है ।
बीतने पर आऊंगा ।" "इतनी देर तक कौन राज्य "तुम करो " "हम नही चलाएंगे " "तो जब तक मैं नही आता ये पादुका राज्य संभालेगी।" तीनो जने राम पण्डित की पादुका ले , प्रणाम कर वाराणसी लौट आये । तीन वर्ष पादुकाओं ने राज्य किया । राम पण्डित तीन वर्ष बाद जंगल से निकलकर वाराणसी नगर पहुंचा ,राजोद्यान में प्रवेश किया । अमात्यों ने राम पण्डित को राजमहल में ला राज्याभिषेक किया ।

दस वस्सहस्सानि,सट्ठि वस्सतानि च।
कम्बुगीवो महाबाहु ,रामो रज्जमकारयीति ।।
अर्थ: स्वर्ण-ग्रीवा महान बाहु राम ने दस हजार और छः हजार (अर्थात सोलह हजार )वर्ष तक राज्य किया । राम का जन्म अयोध्या में हुआ था ; परन्तु अयोध्या भारत में कहीं नहीं है । आज जिसे अयोध्या माना जाता है । वह फैजाबाद पहले साकेत रहा है ।
अयोध्या अथवा अवध थाई लेण्ड का प्राचीन राजधानी है ।
जिसका भौगोलिक विवरण निम्न है । __________________________________________ राजधानी :अयोथया क्षेत्रफल :२,५५७ किमी² जनसंख्या(२०१४): • घनत्व :८,०३,५९९ ३१४/किमी² उपविभागों के नाम:अम्फोए (ज़िले) उपविभागों की संख्या:१६ मुख्य भाषा(एँ):थाई फ्र नखोन सी अयुथया थाईलैण्ड का एक प्रान्त है। यह मध्य थाईलैण्ड क्षेत्र में स्थित है।

नामोत्पत्ति--- " अयुथया " शब्द रामायण की अयोध्या नगरी का थाई रूप है ;
और "सी" शब्द श्री का रूप है।

इसी प्रकार "नखोन" संस्कृत के "नगर " अपभ्रंश नगुल ( नगला ) का रूप है।

"फ्र" शब्द थाई में संस्कृत के "देव " (प्रिय ) शब्द का रूप है। अर्थात "फ्र नखोन सी अयुथया" का अर्थ " देव नगरी श्री अयोध्या " है। थाईलैण्ड के प्रान्त मध्य थाईलैण्ड ("फ्र नखोन सी अयुथया") राम कथा के सन्दर्भों में दूसरा पहलू राष्ट्रकवि का विरुद (यश) पाये दिनकरजी का यह गद्यांश हमने उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय` से लिया है। दिनकरजी न केवल कवि थे, बल्कि एक गंभीर संस्कृति-चिंतक भी थे। राम कथा पर उनका यह लेख कई जरूरी पहलुओं को सामने लाता है। रामधारीसिंह दिनकर की राम-कथा का मूल स्रोत क्या है ? तथा यह कथा कितनी पुरानी है, इस प्रश्न का सम्यक् समाधान अभी नहीं हो पाया है।

इतना सत्य है कि बुद्ध और महावीर के समय जनता में राम के प्रति अत्यन्त आदर का भाव था, जिसका प्रमाण यह है कि जातकों के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में एक बार राम होकर भी जनमे थे और जैन-ग्रन्थों में तिरसठ महापुरुषों में राम और लक्ष्मण की भी गिनती की जाती थी। इससे यह अनुमान भी निकलता है कि राम, बुद्ध और महावीर, दोनों के बहुत पहले से ही समाज में आदृत रहे होंगे। विचित्रता की बात यह है कि वेद में राम-कथा के अनेक पात्रों का उल्लेख है।

और स्वयं सीता और राम का भी वर्णन दशम् मण्डल में वर्णित है । इक्ष्वाकु, दशरथ, राम, अश्वपति, कैकेयी, जनक और सीता, इनके नाम वेद और वैदिक साहित्य में अनेक बार आये हैं, किन्तु, विद्वानों ने अब तक यह स्वीकार नहीं किया है ; कि ये नाम, सचमुच, राम-कथा के पात्रों के ही नाम हैं। विशेषत: वैदिक सीता के सम्बन्ध में यह समझा जाता है कि यह शब्द लांगल-पद्धति (खेत में हल से बनायी हुई रेखा) का पर्याय है, इसीलिए, उसे इन्द्र-पत्नी और पर्जन्य-पत्नी भी कहते हैं।

😁 संस्कृत भाषा में सि धातु से सीता शब्द व्युत्पन्न है । सि + त पृषो० दीर्घः । १ लाङ्गलपद्धतौ अमरःकोश २ जनकराजदुहितरि ३ भद्राश्ववर्षस्थितगङ्गायाञ्च ।
“अथ मे कर्षतः क्षेत्रं लाङ्गलादुत्थिता ततः । क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतति विश्रुता । भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा” रामायण बाल-काण्ड “ अथ लोकेश्वरो लक्ष्मीर्जनकस्य पुरे खतः ।
शुभक्षेत्रे हलोत्खाते तारे चोत्तरफाल्गुने ।
अयोनिजा पद्मकरा वालार्कशतसन्निभा ।
सीतामुखे समुत्पन्ना बालभावेन सुन्दरी ।
सीतामुखोद्भवात् सीता इत्यख्या नाम चाकरोत्” पद्मपुराण । भद्राश्ववर्षनदीभेदश्च स्वर्गगङ्गाया धारा मेदः जम्बुद्वीपशब्दे ३०४६ पृ० दृश्यः ।

४ सक्ष्म्याम् ५ उमायां ६ सस्याधिदेवतायां नानार्थमञ्जरी ७ गदिरायां राजनि० । सीता खेत की सिरोर (हल-रेखा) का नाम था, इसका समर्थन महाभारत से भी होता है, जहां द्रोणपर्व जयद्रथ-वध के अन्तर्गत ध्वजवर्णन नामक अध्याय में (७.१०४) कृषि की अधिष्ठात्री देवी, सब चीजों को उत्पन्न करने वाली सीता का उल्लेख हुआ है। हरिवंश के भी द्वितीय भाग में दुर्गा की एक लम्बी स्तुति में कहा गया है कि 'तू कृषकों के लिए सीता है! तथा प्राणियों के लिए धरणी` (कर्षुकानां च सीतेति भूतानां धरणीति च)। इससे पण्डितों ने यह अनुमान लगाया है कि राम-कथा की उत्पत्ति के पूर्व ही, सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वैदिक साहित्य में पूजित हो चुकी थीं। पीछे वाल्मीकि-रामायण में जब अयोनिजा, सीता की कल्पना की जाने लगी, तब उस पर वैदिक सीता का प्रभाव, स्वाभाविक रूप से, पड़ गया।
राम-कथा का उद्गम खोजते-खोजते पण्डितों ने एक अनुमान लगाया है कि वेद में जो सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी थीं, वे ही, बाद में, आयोनिजा कन्या बन गयीं, जिन्हें जनक ने हल चलाते हुए खेत में पाया।
राम के सम्बन्ध में इन पण्डितों का यह मत है ।
कि वेद में जो इन्द्र नाम से पूजित था, वही व्यक्तित्व, कालक्रम में, विकसित होकर राम बन गया। इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता यह थी कि उसने वृत्रासुर को पराजित किया था।
राम-कथा में यही वृत्रासुर रावण बन गया है। ऋग्वेद (मंडल १, सूक्त ६) में जो कथा आयी है कि ब्रुंं ने गायों को छिपा कर गुफा में बन्द कर दिया था ।
और इन्द्र ने उन गायों को छुड़ाया, उससे पंडितों ने यह अनुमान लगाया है कि यही कथा विकसित होकर राम-कथा में सीता-हरण का प्रकरण बन गयी। किन्तु, ये सारे अनुमान, अन्तत:, अनुमान ही हैं और उनसे न तो किसी आधार की पुष्टि होती है, न किसी समस्या का समाधान ही।

राम-कथा के जिन पात्रों के नाम वेद में मिलते हैं, वे निश्चित रूप से, राम-कथा के पात्र हैं या नहीं इस विषय में सन्देह रखते हुए भी यह मानने में कोई बडी बाधा नहीं दीखती कि राम-कथा ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। अयोध्या, चित्रकूट, पञ्चवटी, रामेश्वरम्, अनन्त काल से राम-कथा से सम्पृक्त माने जाते रहे हैं। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि दाशरथि राम, सचमुच, जनमे थे और उनके चरित्र पर ही वाल्मीकि ने अपनी रामायण बनायी ? इस सम्भावना का खण्डन यह कहने से भी नहीं होता कि वाल्मीकि ने आदि रामायण में केवल अयोध्या-काण्ड से युद्ध-काण्ड तक की ही कथा लिखी थी; बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड बाद में अन्य कवियों ने मिलाये। अनेक बार पंडितों ने यह सिद्ध करना चाहा कि रामायण बुद्ध के बाद रची गयी और वह महाभारत से भी बाद की है।

किन्तु, इससे समस्याओं का समाधान नहीं होता। भारतीय परम्परा, एक स्वर से, वाल्मीकि को आदि कवि मानती आयी है और यहां के लोगों का विश्वास है कि रामवतार त्रेता युग में हुआ था। इस मान्यता की पुष्टि इस बात से होती है कि महाभारत में रामायण की कथा आती है, किन्तु, रामायण में महाभारत के किसी भी पात्र का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार, बौद्ध ग्रन्थ तो राम-कथा का उल्लेख करते हैं, किन्तु, रामायण में बुद्ध का उल्लेख नहीं है। वाल्मीकि-रामायण के एक संस्करण अयोध्या काण्ड के सर्ग 108 के 34 वें छन्द में जावालि-वृत्तान्त के अन्तर्गत बुद्ध का जो उल्लेख मिलता है ।

(यथा हि चौर: स तथा हि बुद्ध: तथागत नास्तिकं अत्र विद्धि) उसे अनेक पण्डितों ने क्षेपक माना है। यह भी कहा जाता है कि सीता का हिंसा के विरुद्ध भाषण तथा राम के शान्त और कोमल स्वभाव की कल्पना के पीछे 'किंचित् बौद्ध प्रभाव` है। किन्तु, यह केवल अनुमान की बात है।
अहिंसा की कल्पना बुद्ध से बहुत पहले की चीज है।
उसका मूल भारत को प्राग्वैदिक संस्कृति में रहा होगा। बुद्ध ने सिर्फ उस पर जोर दिया है।
बुद्ध के पहले की संस्कृति में ऐसी कोई बात नहीं थी जो रामायण के वातावरण के विरुद्ध हो। रामायण प्राग्-बौद्ध काव्य है, इस निष्कर्ष से भागा नहीं जा सकता। राम-कथा की व्यापकता रामायण और महाभारत भारतीय जाति के दो महाकाव्य हैं। महाकाव्यों की रचना तब सम्भव होती है, जब संस्कृतियों की विशाल धाराएं किसी संगम पर मिल रही हों। भारत में संस्कृति-समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, ये दोनों काव्य उसकी अभिव्यक्ति करते हैंं। रामायण में इस प्रक्रिया के पहले सोपान हैं और महाभारत में उसके बाद-वाले।

रामायण की रचना तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई। पहली कथा तो अयोध्या के राजमहल की है, जो पूर्वी भारत में प्रचलित रही होगी; दूसरी रावण की जो दक्षिण में प्रचलित रही होगी; और तीसरी किष्किन्धा वानरों की, जो वन्य जातियों में प्रचलित रही होगी।

आदि कवि ने तीनों को जोड़कर रामायण की रचना की किन्तु, उससे भी अधिक सम्भव यह है कि राम, सचमुच ही, ऐतिहासिक पुरुष थे और, सचमुच ही, उन्होंने किसी वानर-जाति की सहायता से लंका पर विजय पायी थी।

हाल से यह अनुमान भी चलने लगा है कि हनुमान नाम एक द्रविड़ शब्द 'आणमन्दि` से निकला है, जिसका अर्थ 'नर-कपि` होता है।

यहां फिर यह बात उल्लेखनीय हो जाती है ; कि ऋग्वेद में भी 'वृषाकपि` का नाम आया हैं वानरों और राक्षसों के विषय में भी अब यह अनुमान, प्राय: ग्राह्य हो चला है कि ये लोग प्राचीन विन्ध्य-प्रदेश और दक्षिण भारत की आदिवासी आर्येतर जातियों के सदस्य थे; या तो उनके मुख वानरों के समान थे, जिससे उनका नाम वानर पड़ गया अथवा उनकी ध्वजाओं पर वानरों और भालुओं के निशान रहे होंगे।

अथवा ये वनों में रहने वाले नर (व्यक्ति) थे । वाननर समाक्षर लोप Haplology की क्रिया से वानर रूप का उदय । रामायण में जो तीन कथाएं हैं, उनके नायक क्रमश: राम, रावण और हनुमान हैं , और ये तीन चरित्र तीन संस्कृतियों के प्रतीक हैं, जिनका समन्वय और तिरोधान वाल्मीकि-रामायणकार ने एक ही काव्य में दिखाया है। यद्यपि वर्तमान वाल्मीकि-रामायण वाल्मीकि द्वारा रचित नहीं है केवल इस पर मौहर वाल्मीकि नाम की है सम्भव है, यह बात सच हो कि 'राम, रावण और हनुमान के विषय में पहले स्वतंत्र आख्यान-काव्य प्रचलित थे ।
और इसके संयोग से रामायण काव्य की उत्पत्ति हुई हो। जिस प्रकार, आर्य देव संस्कृति से सम्बद्ध और आर्येतर अर्थात् द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध जातियों के धार्मिक-संस्कारों से शैव धर्म की उत्पत्ति हुई हो । उसी प्रकार, वैष्णव धर्म की रामााश्रयी शाखा में भी आर्येतर जातियों के योगदान हैं।
रामावतार कृष्णाश्रयी वैष्णव धर्म की विशेषता यह थी कि उसमें कृष्ण विष्णु पहले माने गये एवं उनके सम्बन्ध की कथाओं का विस्तृत विकास बाद में हुआ ।
राम-मत के विषय में यह बात है कि राम-कथा का विकास और प्रसार पहले हुआ, राम विष्णु का अवतार बाद में माने गये ।

भण्डार कर साहब ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि विष्णु के अवतार के रूप में राम का ग्रहण ग्यारहवीं सदी में आकर हुआ। किन्तु, अब यह मत खण्डित हो गया है।
अब अधिक विद्वान यह मानते हैं कि ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व वासुदेव कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे और उनके अवतार होने की बात चलने के बाद, बाकी अवतार भी विष्णु के ही अवतार माने जाने लगे; तथा उन्हीं दिनों राम का अवतार होना भी प्रचलित हो गया।

वैसे अवतारवाद की भावना ब्राह्मण-ग्रन्थों में ही उदित हुई थी।
--जो भागवत धर्म से प्रादुर्भूत हुई ..
शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि प्रजापति ने (विष्णु ने नहीं) मत्स्य, कूर्म और वराह का अवतार लिया था।
तैत्तिरीय-ब्राह्मण में भी प्रजापति के वराह रूप धरने की कथा है। बाद में, जब विष्णु की श्रेष्ठता सिद्ध हो गयी, तब मत्स्य, कूर्म और वराह, ये सभी अवतार उन्हीं के माने जाने लगे। केवल वामनावतार के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वामन, आरम्भ से ही, विष्णु के अवतार माने जाते रहे हैं। वामन के त्रिविक्रम रूप का उल्लेख ऋग्वेद के प्रथम मण्डल द्वितीय अध्याय के बारहवें सूक्त में है। राम-कथा के विकास पर रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के ने जो विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित किया है, उसके अनुसार वेद में रामकथा-विषयक पात्रों के सारे उल्लेख स्फुट और स्वतंत्र हैं रामकथा-सम्बन्धी आख्यान-काव्यों की वास्तविक रचना वैदिक काल के बाद, इक्ष्वाकु-वंश के राजाओं के सूतों ने आरंभ की।

इन्हीं आख्यान-काव्यों के आधार पर वाल्मीकि ने आदि-रामायण की रचना की। इस रामायण में अयोध्या-काण्ड से लेकर युद्ध-काण्ड तक की ही कथावस्तु का वर्णन था और उसमें सिर्फ बारह हजार श्लोक थे।
किन्तु, इस रामायण का समाज में बहुत प्रचार था।

कुशी-लव उसका गान करके और उसके अभिनेता उसका अभिनय दिखाकर अपनी जीविका कमाते थे। काव्योपजीवी कुशी-लव अपने श्रोताओं की रुचि का ध्यान रखकर रामायण के लोकप्रिय अंश को बढ़ाते भी थे।
इस प्रकार, आदि-रामायण का कलेवर बढ़ने लगा। ज्यों-ज्यों राम-कथा का यह मूल-रूप लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों, जनता को यह जिज्ञासा होने लगी कि राम कैसे जनमे? सीता कैसे जन्मीं? रावण कौन था?

आदि-आदि।
इसी जिज्ञासा की शांति के लिए बाल-काण्ड और उत्तर-काण्ड रचे गये। इस प्रकार, राम की कथा रामायण (राम-अयन अर्थात राम का पर्यटन) न रहकर, पूर्ण रामचरित के रूप में विकसित हुई। इस समय तक रामायण नरकाव्य ही था और राम आदर्श क्षत्रिय के रूप में ही भारतीय जनता के सामने प्रस्तुत किये गये थे। इसका आभास भगवद्गीता के उस स्थल से मिलता है, जहां कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि श धारणा करने वालों में मैं राम हूं-'राम: शभ़ृतामहम्।` रामचरित, ज्यों-ज्यों लोकप्रिय होता गया, त्यों-त्यों, उसमें अलौकिकता भी आती गयी।
अन्तत: ईसा के सौ वर्ष पूर्व तक आकर राम, निश्चित रूप से, विष्णु के अवतार हो गये।
किन्तु, यह कोई निश्चयात्मक बात नहीं है।

क्योंकि राम की, बोधिसत्व के रूप में, कल्पना ई.पू. प्रथम शती के पूर्व ही की जा चुकी थी। इसलिए, सम्भव है, अवतार भी वे पहले से ही माने जाते रहे हों। किन्तु, बाद के साहित्य में तो राम की महिमा अत्यन्त प्रखर हो उठी तथा पूरे-भारवर्ष की संस्कृति, दिनों-दिन, राममयी होती चली गयी। बौद्ध और जैन साहित्य को छोड़कर और सभी भारतीय साहित्य में राम विष्णु के अवतार के रूप में सामने आते हैं।

हां, बुद्ध धर्म के साथ राम-कथा का जो रूप भारत से बाहर पहुंचा, उसमें वे विष्णु के अवतार नहीं रहे, न उनके प्रति भक्ति का ही कोई भाव रह गया। राम को लेकर समन्वय भारत में संस्कृतियों का जो विराट समन्वय हुआ है, राम-कथा उसका अत्यन्त उज्जवल प्रतीक है।

सबसे पहले तो यह बात है कि इस कथा से भारत की भौगोलिक एकता धवनित होती है। एक ही कथासूत्र में अयोध्या, किष्किन्धा और लंका, तीनों के बंध जाने के कारण, सारा देश एक दीखता है। दूसरे, इस कथा पर भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामायणों की रचना हुई, जिनमें से प्रत्येक, अपने-अपने क्षेत्र में, अत्यन्त लोकप्रिय रही है तथा जिनके प्रचार के कारण भारतीय संस्कृति की एकरूपता में बहुत वृद्धि हुई है।

संस्कृत के धार्मिक साहित्य में राम-कथा का रूप, अपेक्षाकृत, कम व्यापक रहा; फिर भी, रघुवंश, भटि्टकाव्य, महावीर-चरित, उत्तर-रामचरित, प्रतिमा-नाटक, जानकी-हरण, कुन्दमाला, अनर्घराघव, बालरामायण, हनुमान्नाटक, अध्यात्म-रामायण, अद्भूत-रामायण, आनन्द-रामायण आदि अनेक काव्य इस बात के प्रमाण हैं कि भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों के कवियों पर वाल्मीकि-रामायण का कितना गम्भीर प्रभाव पड़ा था। जब आधुनिक देश-भाषाओं का काल आया, तब देशी-भाषाओं में भी रामचरित पर एक-से-एक उत्त्म काव्य लिखे गये और आदि कवि के काव्य-सरोवर का जल पीकर भारत की सभी भाषाओं ने अपने को पुष्ट किया।

राम-कथा की एक दूसरी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से शैव और वैष्णव मतों का विभेद दूर किया गया। आदि-रामायण पर शैव मत का कोई प्रभाव नहीं रहा हो, यह सम्भव है, किन्तु, आगे चलकर राम-कथा शिव की भक्ति से एकाकार होती गयी।

जातक कथाएं वैदिक हिन्दुओं के पुराणों को बौद्धों और जैनों ने अपनाया और उनके माध्यम से वे अपने अहिंसावाद का प्रतिपादन करने लगे। इस क्रम में हम देखते हैं कि विमलसूरिकृत पउमचरिय (पदम-चरि, तीसरी-चौथी शती ई.) में बालि वैरागी बनकर सुग्रीव को अपना राज्य दे देता है और स्वयं जैन-दीक्षा लेकर तपस्या करने चला जाता है।

अनामकं जातकं (इसका भारतीय पाठ अप्राप्य है। तीसरी शताब्दी में कांड्ग-सड्ग-हुई के द्वारा जो चीनी अनुवाद हुआ था वह उपलब्ध है।) में राम पिता की आज्ञा से वन नहीं जाते, प्रत्युत, अपने मामा के द्वारा आक्रमण की तैयारियों की वार्ता सुनकर स्वयं राज्य छोड़ कर वन में चले जाते हैं, जिससे रक्तपात न हो। इस जातक के अनुसार, राम ने बालि का भी वध नहीं किया।
प्रत्यतु, राम के शर-सन्धान करते ही बालि, बिना वाण खाये हुए भी, भाग खड़ा हुआ।

राम-चरित का हिन्दू-हृदयों पर जो प्रभाव था, उसका भी शोषण बौद्ध और जैन पंडितों ने अपने धर्म की महत्ता स्थापित करने को किया।

दशरथ-जातक (पांचवीं शताब्दी ई. की एक सिंहली पुस्तक का पाली अनुवाद है), अनामकं जातकं तथा चीनी त्रिपिटक के अंतर्गत त्सा-पौ-त्सग-किड्ग (भारतीय मूल अप्राप्य; चीनी अनुवाद का समय ४७२ ई.) में आए हुए दशरथ-कथानम् एवं खोतानी-रामायण और स्याम के राम-जातक के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में राम थे, ऐसा कहा गया है। संभव है, जब बौद्ध पंडित बुद्ध को राम (या विष्णु के) अवतार के रूप में दिखाने लगे, तब हिंदुओं ने बढ़कर उन्हें दशावतार में गिन लिया हो।

एक विचित्रता यह भी कि रावण पर जैन और बौद्ध पुराणों की श्रद्धा दीखती है। गुणभद्र के उत्तर-पुराण में राम-कथा का जो वर्णन मिलता है, उसमें कहा गया है कि लंका-विजय करने के बाद लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरे और मरने के बाद उन्हें नरक प्राप्त हुआ, क्योंकि उन्होंने रावण का वध किया था। इस कथा में रावण के जेता राम नहीं, लक्ष्मण दिखलाये गये हैं।

इस कथा की एक विचित्रता यह भी है कि इसके अनुसार, सीता मन्दोदरी के पेट से जन्मी थीं। किन्तु, ज्योतिषियों के यह कहने पर कि यह बालिका आपका नाश करेगी, रावण ने उसे सोने की मंजूषा में बंद करके दूर देश मिथिलाा में कहीं गड़वा दिया था। जैन-पुराणों में महापुरुषों की संख्या तिरसठ बतायी गयी है।

इनमें से २४तो तीर्थंकर हैं, ८ बलदेव, ८ वासुदेव और ८ प्रतिवासुदेव। राम आठवें बलदेव, लक्ष्मण आठवें वासुदवे और रावण आठवें प्रतिवासुदवे हैंं नव वासुदेवों में एक वासुदेव कृष्ण भी गिने जाते हैं। बौद्ध ग्रंथ लंकावतार-सूत्र में रावण तथा बुद्ध का, धर्म के विषय में संवाद उद्धृत है। इससे भी रावण के प्रति बौद्ध मुनियों का आदर अभिव्यक्त होता है। रावण जैनों के अनुसार जैन और बौद्धों के अनुसार बौद्ध माना गया है।

रामकथा के विषय में जैन और बौद्ध पुराणों में कितनी ही अद्भुत बातों का समावेश मिलता है। उदाहरण के लिए, दशरथ-जातक में सीता राम की बहन बतायी गयी हैं और यह भी उल्लेख आया है कि लंका से लौटने पर राम ने सीता से विवाह किया। पउमचरिय में दशरथ की तीन नहीं, चार रानियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता है, जिनके नाम १. कौशल्या अथवा अपराजित, २. सुमित्रा, ३.कैकेयी और ४. सुप्रभा थे। इसमें राम का एक नाम पद्म भी मिलता है। पउमचरिय में यह भी कथा है कि हनुमान जब सीता की खोज करते हुए लंका गये, तब उन्होंने वहां वज्रमुख की कन्या लंकासुन्दरी से विवाह किया।

गुणभद्र की राम-कथा (उत्तर-पुराण) में राम की माता का नाम सुबाला मिलता है।
दशरथ-जातक और उत्तर-पुराण में यह भी लिखा है कि दशरथ वाराणसी के राजा थे, किन्तु, उत्तर-पुराण में इतना और उल्लेख है कि उन्होंने साकेतपुरी में अपनी राजधानी बसायी थी।

इन विचित्रताओं को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि ये कथाएं वाल्मीकि-रामायण से पूर्व की हैं और वाल्मीकि ने इनका परिष्कार करके अपनी राम-कथा निकाली। वाल्मीकि-रामायण इन सब से प्राचीन है।
फिर भी, रामायण से इनकी जो भिन्नता दीखती है, उसका कारण यह हे कि बौद्ध और जैन मुनि अपने सम्प्रदाय का पुराण रचने के समय, केवल रामायण पर ही अवलम्बित नहीं रहते थे, प्रत्युत, वे उस विशाल कथा-साहित्य से भी सामग्री ग्रहण करते थे जो जनता में, मौखिक रूप से, फैला हुआ था।

विशेषत:, जब जनश्रुतियों से अथवा उन्हें मोड़-माड़कर अहिंसा का प्रतिपादन करने में सुविधा दीखती, तब उस सुविधा का लोभ ये लोग संवरण नहीं कर सकते थे।
केवल अहिंसा ही नहीं, बौद्ध एवं जैन शैलियों और परंपराओं की दृष्टि से भी जो बातें अनुकूल दीखती होंगी, उन्हें ये मुनि अवश्य अपनाते होंगे।
दशरथ-जातक की अप्रामाणिकता तो इससे भी प्रमाणित होती है कि दशरथ-जातक का जो रूप जातककट्टवराणना में प्रस्तुत है, वह शताब्दियों तक अस्थिर रहने के बाद पांचवीं शताब्दी ईसवी में लिपिबद्ध किया गया।
अत:, इसमें परिवर्त्तन की संभावना रही है, विशेष करके दूर सिंहलद्वीप में, जहां रामायण की कथा उस समय कम प्रचलित थी। इसके अज्ञात लेखक का भी कहना है कि 'मैंने अनुराधापुर की परंपरा के आधार पर यह रचना की है`।

यह समझना भूल है कि बौद्ध और जैन पंडितों ने वैदिक धर्म का तिरस्कार करने के लिए राम-कथा अथवा दूसरी कथाओं में फेर-फार कर दिया, क्योंकि ऐसे फेर-फार वैदिक धर्मावलंबी कवियों ने भी किये हैं।
उदाहरण के लिए, रघुवंश में कालिदास ने यह कहीं भी नहीं लिखा है कि सीता विष्णु की शक्ति की अवतार हैं।
दशावतार-चरित्रम् में क्षेमेन्द्र ने रावण को तपस्वी के रूप में रखा है तथा यह बताया है कि रावण सीता को पुत्री-रूप में प्राप्त करना चाहता था। दशरथ-जातक में सीता राम की बहन बतायी गयी हैं और फिर राम और सीता के विवाह का भी उल्लेख किया गया है।
ऐसा सम्बन्ध कुछ बौद्ध पंडितों की दृष्टि में दूषित नहीं था।

बुद्धघोष-कृत सुत्त-निपात-टीका में शाक्यों की उत्पत्ति बताते हुए कहा गया है कि वाराणसी की महारानी के चार पुत्र और पांच पुत्रियां थीं। इन नव सन्तानों को रानी ने वनवास दिया।
उन्हीं की सन्तानों ने 'कपिलवत्थु` नामक नगर बसाया और चूंकि राजसन्तान के योग्य वन मेंं कोई नहीं था, इसलिए चारों राजुकमार अपनी बहनों से ब्याह करने को बाध्य हुए। ज्येष्ठा कन्या 'पिया` अविवाहित रहकर सबों की माता मानी जाने लगी।
यही शाक्यों की उत्पत्ति की कथा है।
खोतान में प्रचलित एक राम-कथा में कहा गया है कि वन में राम और लक्ष्मण, दोनों ने सीता से विवाह किया।
वैदिक, बौद्ध एंव जैन पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं, उनमें से कितनी ही तो एक ही कथा के विभिन्न विकास हैं। सभी जातियों की संस्कृतियों का समन्वय ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, त्यों-त्यों विभिन्न कथाएं भी, एक दूसरी से मिलकर, नया रूप लेने लगीं, और जो कथाएं पहले एृक रूप में थीं, उनमें भी वैविध्य आ गया। विशेषत:, रामकथा पर तो केवल भारत ही नहीं, सिंहल, स्याम, तिब्बत, हिन्देशिया, बाली, जावा, सुमात्रा आदि द्वीपों में बसने वाली जनता की रुचि का भी प्रभाव दृष्टिगोचार होता है।
आदिवासी कथा के अनुसार गिलहरी को पीठ पर जो रेखाएं हैं, वे रामचन्द्र के द्वारा खींची गयी थीं, क्योंकि गिलहरी ने उन्हें मार्ग बताया था।
तेलुगु रामायण (द्विपाद रामायण) के अनुसार, लक्ष्मण जब राम के साथ वन जाने लगे, तब उन्होंने निद्रा-देवी से दो वरदान प्राप्त किये-एक तो पत्नी उर्मिला के लिए चौदह वर्ष की नींद तथा दूसरा अपने लिए वनवास के अंत तक जागरण।
सिंहली रामकथा में 'बालि हनुमान का स्थान लेता है, वह लंका दहन करके सीता को राम के पास ले जाता है।` कश्मीरी रामायण के अनुसार, सीता का जन्म मन्दोदरी के गर्भ से हुआ था। बंगाल के कृत्तिवासी रामायण के बहुत-से स्थलों पर शाक्त-सम्प्रदाय की छाप पायी जाती है।
खोतानी रामायण (पूर्वी तुर्किस्तान में प्रचलित) में राम जब युद्ध में मूच्र्छित होते हैं, तब उनकी चिकित्सा के लिए सुषेण नहीं, प्रत्युत, बौद्ध वैद्य जीवक बुलाये जाते हैं तथा 'आहत रावण का वध नहीं किया जाता है।` स्यामदेश में प्रचलित 'राम कियेन` रामायण में हनुमान की बहुत-सी प्रेम-लीलाओं का वर्णन किया गया है।
प्रभा, बेड. काया, नागकन्या, सुवर्णमच्छा और अप्सरा वानरी के अतिरिक्त, वे मन्दोदरी के साथ भी क्रीड़ा करते हैं। स्याम में ही प्रचलित राम-जातक में 'राम तथा रावण चचेरे भाई माने गये हैं।

पुराणों की महाकथाओं में ये जो विविधताएं मिलती हैं, उनकी ऐतिहासिकता चाहे जो हो किन्तु यह सत्य है कि वे अनेक जातियों और जनपदों की रुचियों के कारण बढ़ी हैं, और यह भी हुआ है कि जिस लेखक को अपने सम्प्रदाय के समर्थन में जो कथा अनुकूल दीखी, उसने उसी कथा को प्रमुखता दे डाली अथवा कुछ फेर-फार करके उसे अपने मत के अनुकूल बना लिया। मिश्र की पुरातन कथाओं में यम को हेम कहा गया और भाई-बहिन के पति पत्नी के रूप में कथाओं का सृजन . ओ चित सखायं सख्या वव्र्त्यां तिरः पुरू चिदर्णवंजगन्वन |
पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि कषमिप्रतरं दिध्यानः ||
2. न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत सलक्ष्मा यद विषुरूपाभवाति | महस पुत्रसो असुरस्य वीरा दिवो धर्तारौर्विया परि खयन 3. उशन्ति घा ते अम्र्तास एतदेकस्य चित तयजसं मर्त्यस्य | नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्वमाविविश्याः 4. न यत पुरा चक्र्मा कद ध नूनं रता वदन्तो अन्र्तंरपेम | गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिःपरमं जामि तन नौ 5. गर्भे नु नौ जनिता दम्पती कर्देवास्त्वष्टा सविताविश्वरूपः | नाकिरस्य पर मिनन्ति वरतानि वेद नावस्यप्र्थिवि उत दयौः || 6. को अस्य वेद परथमस्याह्नः क ईं ददर्श क इह परवोचत | बर्हन मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु बरव आहनोवीच्या नॄन 7. यमस्य मा यम्यं काम आगन समाने योनौ सहशेय्याय जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद वर्हेव रथ्येव चक्रा || 8. न तिष्ठन्ति न नि मिषन्त्येते देवानां सपश इह येचरन्ति अन्येन मदाहनो याहि तुयं तेन वि वर्ह रथ्येवचक्रा || 9. रात्रीभिरस्मा अहभिर्दशस्येत सूर्यस्य चक्षुर्मुहुरुन्मिमीयात | दिवा पर्थिव्या मिथुना सबन्धू यमीर्यमस्यबिभ्र्यादजामि || 10. आ घा ता गछानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कर्णवन्नजामि | उप बर्ब्र्हि वर्षभाय बाहुमन्यमिछस्व सुभगेपतिं मत || 11. किं भ्रातासद यदनाथं भवाति किमु सवसा यन निरतिर्निगछत | काममूता बह्वेतद रपामि तन्वा मे तन्वं सम्पिप्र्ग्धि || 12. न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पप्र्च्यां पापमाहुर्यःस्वसारं निगछात | अन्येन मत परमुदः कल्पयस्व न तेभ्रात सुभगे वष्ट्येतत ||
13. बतो बतसि यम नैव ते मनो हर्दयं चाविदाम |
अन्या किलत्वां कक्ष्येव युक्तं परि षवजाते लिबुजेव वर्क्षम ||
14. अन्यमू षु तवं यम्यन्य उ तवां परि षवजाते लिबुजेवव्र्क्षम | तस्य वा तवं मन इछा स वा तवाधा कर्णुष्वसंविदं सुभद्राम || ऋग्वेद "शाकल संहिता" ,

~~~ (स्रोत: बौद्ध-ग्रन्थों में परिगणित दशरथ जातक -461 से उद्धृत तथ्य )