शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

अहीरों के विरोधी रूप-

भागवत पुराण लिखने वाला यदु की सन्तानों को म्लेच्छ जाति के रूप में वर्णन करता है तो यह यादवों के नायक कृष्ण का चरित्र हनन क्यों नहीं करेगा।

मगध देश का राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजय के अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा। 
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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।

यह ब्रह्माणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा।

 इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शुद्रप्राय: जनता की रक्षा करेगा ।

यादवों की जाति अहीर थी वही अहीर जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री जी का जन्म हुआ।
गायत्री के युग में आभीर पुण्यजन सदाचरण करने वाले और सुव्रतज्ञ कहे गये हैं।

अत्रि सप्तर्षियों में से एक ब्रह्मा के मानस पुत्र थे और गायत्री ब्रह्मा की पत्नी होते हुए भी कहीं वैष्णवी विन्ध्याचलवासिनी दुर्गा तो कहीं लक्ष्मी  स्वरूपा राधा भी हैं ।

अत: अत्रि ऋषि के ऊपर सदैव गायत्री की अहेतुकी  कृपा दृष्टि रही ।
गायत्री उपासक पुरुरवा के कुल में  आगे होने वाली सन्तानें ययाति से लेकर यदु तक  गोपालक रूप में  आभीर कहीं जाती रहीं हैं ।

तारानाथ वाचस्पति नें  अमीर शब्द की व्युत्पत्ति ""अभिमुखी ईरयति गा = अर्थात सामने मुख करके गायें घेरता है वह अभीर है के रूप में अहीरों की गोपालन वृति को दर्शाया । 

क्यो उस जमाने में गो सें देवों की ही नही अपितु विश्व की माता थीं 

गावो विश्वस्य मातरा" के उपनिषदीय वाक्य में गायों दुनिया की जननी कहा गया है।

गाय प्रथम पैल्य पशु है। 
और. यही पशु हमारे समाज की आर्थिक रीढ़ रहे हैं। 
पेैसा और फीस जैसे मौद्रिक रूपों का विकास भी ग्रीक/लैटिन मूल के  पशु ( पाउस) शब्द से ही हुआ है।

 तारानाथ वाचस्पति कलकत्ता की जॉन विलियम्स कॉलेज के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष थे ।
जिन्होंने संस्कृत भाषा या सबसे बड़ा शब्द कोश वाचस्पत्यम् " या सम्पादन किया।

अभीर शब्द को उन्होंने अभि-उपसर्ग पूर्वक ईर्=कम्पन करना ( घेरना, बटोरना, हँकना अर्थ के रूप में स्वीकार किया ।

वहीं इनसे पूर्व के शब्दकोशकार "अमर सिंह ने अपने अमरकोष में  "आभीर शब्द आ -समन्तात् भीयं राति शत्रूणां हृत्सु के रूप में प्रवृति मूलक दृष्टिकोण से व्युत्पन्न रूप में स्वीकार किया ।

अहीरों की वीरता उनके दुश्मन भी मानते थे।

खेर अहीर सदीयों से गो पालक और वीरता की मिसाल रहे हैं ।

तुलसीदास जैसा कट्टर सांप्रदायिक कवि भी  मजबूरी में कहीं अहीरों गाली देते हुए तों कहीं उनकी बहादुरी की ताली देते हुए देखे गये और सुने गयें  है।

तुलसी दास ने रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में छन्द १२९ से आगे यह भी लिखा है ।

पाई न केहिं गति पतित पावन
 राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध 
गजादिखल तारे घना।।

आभीर जमन किरात खस
 स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि 
पावन होहिं राम नमामि ते।।

भावार्थ: अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्रीराम को भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। 
अभीर,(अहीर) यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पाप से उत्पन्न  हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ।।

और इससे पूर्व इसी उत्तर काण्ड में तुलसी दास ने अहीरों को निर्मल और पवित्र मन कह कर जितेन्द्रिय (मन जिसका दास है) कहा है ।

वास्तव में ये दोगली व विरोधाभासी बातें हास्यास्पद ही हैं यो तो पुचकार के मारना ही है।

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे चौपाई लिखते हैं 

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
 जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। 
जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।

तेइ तृन हरित चरै जब गाई। 
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
 निर्मल मन अहीर निज दासा।।

परम धर्ममय पय दुहि भाई। 
अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।
 धृति सम जावनु देइ जमावै।।

मुदिताँ मथै बिचार मथानी।
 दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। 
बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।

भावार्थ: 

श्रीहरि की कृपा से यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गौ हृदयरूपी घरमें आकर बस जाय; असंख्यों जप, तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,।।

 उन्हीं [धर्माचाररूपी] हरे तृणों (घास) को जब वह गौ चरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। तो 
निवृत्ति (सांसारिक बिषयोंसे और प्रपंच से हटना) नोई (गौके दुतहे समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी के समान ) है, विश्वास [दूध दूहनेका[] बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वशमें है ), दुहनेवाला अहीर है।।
हे भाई ! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धा रूपी गौ से भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भलीभाँति औटावे।
 फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंढा करे औऱ धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावे।
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्त्वविचाररूपी मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन) के आधार पर (दमरूपी खम्भे आदि के सहारे) सत्य और सुन्दर वाणीरुपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर और अत्यन्त पवित्र बैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले। 

अगर हम समग्र धार्मिक ग्रंथों का सार समझे तो यही है कि ब्राह्मणों ने कहीं कहीं  यादवों को क्षत्रिय के रूप में श्रेष्ठ  और कहीं कहीं म्लेच्छ आदि रूपों में नीचा भी बताया। 

लेकिन यह जो भी विरोधाभासी रूप हैं । ,हमारी प्रभुता के चलते ही कहा गया है  वह हमारी कम से कम चर्चा करते हैं। 

आश्चर्य कि किसी अन्य दलित जाति की वह पुरोहित इतनी  चर्चा भी नही करते हैं।

इससे तो यही सिद्ध होता है कि यादवों में गुणों की कमी नही थी  ,चूंकि हम सवर्णों के वंश के नही है और आदिकाल से दबंग क्षत्रिय हैं । भले ही हमें उनकी सवर्ण  व्यवस्था ने क्षत्रिय का पूरा प्रमाणपत्र नही दिया तो भी इसका मतलब यह नही कि हम क्षत्रिय नही हैं। हम स्वनाम धन्य वीर  और प्रवृत्ति रूप में योद्धा हैं । 

तभी तो तुलसी को यह भी कहना पड़ा।

नोय निर्वृत्त पात्र विश्वासा ,
निर्मल मन अहीर निज दासा ।।

मतलब पवित्र मन का अहीर अपने मन का राजा है वह किसी का गुलाम नही।

इसलिए हमें यादवों को सिर्फ सकारात्मक चीजें ग्रहण करनी चाहिये। 
शूद्र मानसिकता वाले यादव इस पोस्ट से दूर रहें।

मनोविज्ञान का मान्य सिद्धांत है कि आप अपने को जो समझोगे आप वैसे ही हो जाओगे।
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सौजन्य से  प्रोफेसर डॉ० संतोष यादव 

जय श्रीकृष्ण

इसके पश्चात् अवभृति-नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कंक पृथ्वी का राज्य करेंगे।


श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः १
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्याय१-




अथ प्रथमोऽध्यायः 12.1
राजोवाच -
(अनुष्टुप्)
स्वधामानुगते कृष्ण यदुवंशविभूषणे ।
कस्य वंशोऽभवत् पृथ्व्यां एतद् आचक्ष्व मे मुने
श्रीशुक उवाच
योऽन्त्यः पुरञ्जयो नाम भाव्यो बार्हद्रथो नृप
तस्यामात्यस्तु शुनको हत्वा स्वामिनमात्मजम् १।


प्रद्योतसंज्ञं राजानं कर्ता यत्पालकः सुतः
विशाखयूपस्तत्पुत्रो भविता राजकस्ततः २।


नन्दिवर्धनस्तत्पुत्रः पञ्च प्रद्योतना इमे
अष्टत्रिंशोत्तरशतं भोक्ष्यन्ति पृथिवीं नृपाः ३।


शिशुनागस्ततो भाव्यः काकवर्णस्तु तत्सुतः
क्षेमधर्मा तस्य सुतः क्षेत्रज्ञः क्षेमधर्मजः ४।


विधिसारः सुतस्तस्या जातशत्रुर्भविष्यति
दर्भकस्तत्सुतो भावी दर्भकस्याजयः स्मृतः ५।


नन्दिवर्धन आजेयो महानन्दिः सुतस्ततः
शिशुनागा दशैवैते सष्ट्युत्तरशतत्रयम् ६।


समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कुरुश्रेष्ठ कलौ नृपाः
महानन्दिसुतो राजन्शूद्रा गर्भोद्भवो बली ७।


महापद्मपतिः कश्चिन्नन्दः क्षत्रविनाशकृत्
ततो नृपा भविष्यन्ति शूद्र प्रायास्त्वधार्मिकाः ८।


स एकच्छत्रां पृथिवीमनुल्लङ्घितशासनः
शासिष्यति महापद्मो द्वितीय इव भार्गवः ९।


तस्य चाष्टौ भविष्यन्ति सुमाल्यप्रमुखाः सुताः
य इमां भोक्ष्यन्ति महीं राजानश्च शतं समाः १०।


नव नन्दान्द्विजः कश्चित्प्रपन्नानुद्धरिष्यति
तेषां अभावे जगतीं मौर्या भोक्ष्यन्ति वै कलौ ११।


स एव चन्द्र गुप्तं वै द्विजो राज्येऽभिषेक्ष्यति
तत्सुतो वारिसारस्तु ततश्चाशोकवर्धनः १२।


सुयशा भविता तस्य सङ्गतः सुयशःसुतः
शालिशूकस्ततस्तस्य सोमशर्मा भविष्यति
शतधन्वा ततस्तस्य भविता तद्बृहद्रथः १३।


मौर्या ह्येते दश नृपाः सप्तत्रिंशच्छतोत्तरम्
समा भोक्ष्यन्ति पृथिवीं कलौ कुरुकुलोद्वह १४।


अग्निमित्रस्ततस्तस्मात्सुज्येष्ठो भविता ततः
वसुमित्रो भद्रकश्च पुलिन्दो भविता सुतः १५।


ततो घोषः सुतस्तस्माद्वज्रमित्रो भविष्यति
ततो भागवतस्तस्माद्देवभूतिः कुरूद्वह १६।


शुङ्गा दशैते भोक्ष्यन्ति भूमिं वर्षशताधिकम्
ततः काण्वानियं भूमिर्यास्यत्यल्पगुणान्नृप १७।


शुङ्गं हत्वा देवभूतिं काण्वोऽमात्यस्तु कामिनम्
स्वयं करिष्यते राज्यं वसुदेवो महामतिः १८।


तस्य पुत्रस्तु भूमित्रस्तस्य नारायणः सुतः
काण्वायना इमे भूमिं चत्वारिंशच्च पञ्च च
शतानि त्रीणि भोक्ष्यन्ति वर्षाणां च कलौ युगे १९।


हत्वा काण्वं सुशर्माणं तद्भृत्यो वृषलो बली
गां भोक्ष्यत्यन्ध्रजातीयः कञ्चित्कालमसत्तमः २०।


कृष्णनामाथ तद्भ्राता भविता पृथिवीपतिः
श्रीशान्तकर्णस्तत्पुत्रः पौर्णमासस्तु तत्सुतः २१।


लम्बोदरस्तु तत्पुत्रस्तस्माच्चिबिलको नृपः
मेघस्वातिश्चिबिलकादटमानस्तु तस्य च २२।


अनिष्टकर्मा हालेयस्तलकस्तस्य चात्मजः
पुरीषभीरुस्तत्पुत्रस्ततो राजा सुनन्दनः २३।


चकोरो बहवो यत्र शिवस्वातिररिन्दमः
तस्यापि गोमती पुत्रः पुरीमान्भविता ततः २४।


मेदशिराः शिवस्कन्दो यज्ञश्रीस्तत्सुतस्ततः
विजयस्तत्सुतो भाव्यश्चन्द्र विज्ञः सलोमधिः २५।


एते त्रिंशन्नृपतयश्चत्वार्यब्दशतानि च
षट्पञ्चाशच्च पृथिवीं भोक्ष्यन्ति कुरुनन्दन २६।


सप्ताभीरा आवभृत्या दश गर्दभिनो नृपाः
कङ्काः षोडश भूपाला भविष्यन्त्यतिलोलुपाः २७।


ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः
भूयो दश गुरुण्डाश्च मौला एकादशैव तु २८।


एते भोक्ष्यन्ति पृथिवीं दश वर्षशतानि च
नवाधिकां च नवतिं मौला एकादश क्षितिम् २९।


भोक्ष्यन्त्यब्दशतान्यङ्ग त्रीणि तैः संस्थिते ततः
किलकिलायां नृपतयो भूतनन्दोऽथ वङ्गिरिः ३०।


शिशुनन्दिश्च तद्भ्राता यशोनन्दिः प्रवीरकः
इत्येते वै वर्षशतं भविष्यन्त्यधिकानि षट् ३१।


तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बाह्लिकाः
पुष्पमित्रोऽथ राजन्यो दुर्मित्रोऽस्य तथैव च ३२।


एककाला इमे भूपाः सप्तान्ध्राः सप्त कौशलाः
विदूरपतयो भाव्या निषधास्तत एव हि ३३।

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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।


प्रजाश्चाब्रह्मभूयिष्ठाः स्थापयिष्यति दुर्मतिः
वीर्यवान्क्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि
अनुगङ्गमाप्रयागं गुप्तां भोक्ष्यति मेदिनीम् ३५।


सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवाः
व्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्र प्राया जनाधिपाः ३६।


सिन्धोस्तटं चन्द्रभागां कौन्तीं काश्मीरमण्डलम्
भोक्ष्यन्ति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चसः ३७।


तुल्यकाला इमे राजन्म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः
एतेऽधर्मानृतपराः फल्गुदास्तीव्रमन्यवः ३८।


स्त्रीबालगोद्विजघ्नाश्च परदारधनादृताः
उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुषः ३९।


असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसावृताः
प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिणः ४०।


तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः
अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यन्ति पीडिताः ४१।


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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 21-39 द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद

 कण्व वंश के चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुग में तीन सौ पैंतालिस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। प्रिय परीक्षित! कण्ववंशी सुशर्मा का एक शूद्र सेवक होगा-बली। वह अन्ध्रजाति का एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्मा को मारकर कुछ समय तक स्वयं पृथ्वी का राज्य करेगा। इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्ण का पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा। पौर्णमास का लम्बोदर और लम्बोदर का पुत्र चिविलक होगा।
चिविलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का अटमान, अटमान का अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्मा का हालेय, हालेय का तलक, तलक का पुरीषभीरु और पुरीषभीरु का पुत्र होगा राजा सुनन्दन। परीक्षित! सुनन्दन का पुत्र होगा चकोर; चकोर के आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे।
 इनमें सबसे छोटे का नाम होगा शिवस्वाति। वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओं का दमन करेगा। शिवस्वाति का गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान्। पुरीमान् का मेदःशिरा, मेदःशिरा का शिवस्कन्द, शिवस्कन्द का यज्ञश्री, यज्ञश्री का विजय और विजय के दो पुत्र होंगे-चन्द्रविज्ञ और लोमधि। परीक्षित! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्ष तक पृथ्वी का राज्य भोगेंगे। परीक्षित!
 इसके पश्चात् अवभृति-नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कंक पृथ्वी का राज्य करेंगे। 

ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे। इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुदण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे। 

मौनों के अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायेगा, तब किलिकिला नाम की नगरी में भूतनन्द नाम का राजा होगा। भूतनन्द का वंगिरि, वंगिरि का भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक-ये एक सौ छः वर्ष तक राज्य करेंगे।
 इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्लिक कहलायेंगे। 

उनके पश्चात् पुष्यमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्र का राज्य होगा। परीक्षित! बाह्लिकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशों में राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्र देश के तथा साथ ही कोसल देश के अधिपति होंगे, कुछ विदूर-भूमि के शासक और कुछ निषेध देश के स्वामी होंगे। इनके बाद 

मगध देश का राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजय के अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा। 
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मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः
करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३४।


यह ब्रह्माणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा।
इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शुद्रप्राय जनता की रक्षा करेगा।
यह अपने बल-वीर्य से क्षत्रियों को उजाड़ देगा और पद्मवतीपुरी को राजधानी बनाकर हरिद्वार से लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वी का राज्य करेगा। परीक्षित! 
ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायेगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देश के ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायेंगे 

तथा राजा लोग भी शूद्रतुल्य हो जायेंगे। सिन्धुतट, चन्द्रभागा का तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुत्री और

 काश्मीर-मण्डल पर प्रायः शूद्रों का, संस्कार एवं ब्रह्मतेजस से हीन नाम मात्र के द्विजों का और म्लेच्छों का राज्य होगा।


गुरुवार, 22 सितंबर 2022

द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः। पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥ (पहले जो राक्षस थे वही कलियुग में ब्राह्मण होते हैं।) पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः।११॥


देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०६/अध्यायः ११

< देवीभागवतपुराणम्‎ | स्कन्धः ०६
युगधर्मव्यवस्थावर्णनम्

               जनमेजय उवाच
भारावतारणार्थाय कथितं जन्म कृष्णयोः।
संशयोऽयं द्विजश्रेष्ठ हृदये मम तिष्ठति ॥ १॥

पृथिवी गोस्वरूपेण ब्रह्माणं शरणं गता ।
द्वापरान्तेऽतिदीनार्ता गुरुभारप्रपीडिता ॥ २ ॥

वेधसा प्रार्थितो विष्णुः कमलापतिरीश्वरः ।
भूभारोत्तारणार्थाय साधूनां रक्षणाय च ॥ ३ ॥

भगवन् भारते खण्डे देवैः सह जनार्दन ।
अवतारं गृहाणाशु वसुदेवगृहे विभो ॥४॥

एवं सम्प्रार्थितो धात्रा भगवान्देवकीसुतः ।
बभूव सह रामेण भूभारोत्तारणाय वै ॥ ५॥

कियानुत्तारितो भारो हत्वा दुष्टाननेकशः ।
ज्ञात्वा सर्वान्दुराचारान्पापबुद्धिनृपानिह ॥ ६ ॥

हतो भीष्मो हतो द्रोणो विराटो द्रुपदस्तथा ।
बाह्लीकः सोमदत्तश्च कर्णो वैकर्तनस्तथा ॥ ७ ॥

यैर्लुण्ठितं धनं सर्वं हृताश्च हरियोषितः ।
कथं न नाशिता दुष्टा ये स्थिताः पृथिवीतले॥८॥
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आभीराश्च शका म्लेच्छा निषादाः कोटिशस्तथा ।
भारावतरणं किं तत्कृतं कृष्णेन धीमता ॥ ९ ॥

सन्देहोऽयं महाभाग न निवर्तति चित्ततः।
कलावस्मिन्मजाः सर्वाः पश्यतः पापनिश्चयाः॥१०।

                   व्यास उवाच
राजन् यस्मिन्युगे यादृक्प्रजा भवति कालतः 
नान्यथा तद्‌भवेन्नूनं युगधर्मोऽत्र कारणम् ।११।

ये धर्मरसिका जीवास्ते वै सत्ययुगेऽभवन् ।
धर्मार्थरसिका ये तु ते वै त्रेतायुगेऽभवन् ॥ १२ ॥

धर्मार्थकामरसिका द्वापरे चाभवन्युगे ।
अर्थकामपराः सर्वे कलावस्मिन्भवन्ति हि॥ १३॥

युगधर्मस्तु राजेन्द्र न याति व्यत्ययं पुनः ।
कालः कर्तास्ति धर्मस्य ह्यधर्मस्य च वै पुनः।१४।

                      राजोवाच
ये तु सत्ययुगे जीवा भवन्ति धर्मतत्पराः ।
कुत्र तेऽद्य महाभाग तिष्ठन्ति पुण्यभागिनः॥१५॥

त्रेतायुगे द्वापरे वा ये दानव्रतकारकाः ।
वर्तन्ते मुनयः श्रेष्ठाः कुत्र ब्रूहि पितामह ॥१६॥

कलावद्य दुराचारा येऽत्र सन्ति गतत्रपाः।
आद्ये युगे क्व यास्यन्ति पापिष्ठा देवनिन्दकाः।१७।

एतत्सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण महामते ।
सर्वथा श्रोतुकामोऽस्मि यदेतद्धर्मनिर्णयम् ॥१८॥

                    व्यास उवाच
ये वै कृतयुगे राजन् सम्भवन्तीह मानवाः।
कृत्वा ते पुण्यकर्माणि देवलोकान्व्रजन्ति वै ।१९॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।
स्वधर्मनिरता यान्ति लोकान्कर्मजितान्किल॥ २०॥

सत्यं दया तथा दानं स्वदारगमनं तथा।
अद्रोहः सर्वभूतेषु समता सर्वजन्तुषु ॥२१॥

एतत्साधारणं धर्मं कृत्वा सत्ययुगे पुनः ।
स्वर्गं यान्तीतरे वर्णा धर्मतो रजकादयः ॥२२॥

तथा त्रेतायुगे राजन् द्वापरेऽथ युगे तथा ।
कलावस्मिन्युगे पापा नरकं यान्ति मानवाः ॥२३ ॥

तावत्तिष्ठन्ति ते तत्र यावत्स्याद्युगपर्ययः ।
पुनश्च मानुषे लोके भवन्ति भुवि मानवाः ॥ २४ ॥

यदा सत्ययुगस्यादिः कलेरन्तश्च पार्थिव ।
तदा स्वर्गात्पुण्यकृतो जायन्ते किल मानवाः॥२५॥

यदा कलियुगस्यादिर्द्वापरस्य क्षयस्तथा ।
नरकात्पापिनः सर्वे भवन्ति भुवि मानवाः ॥२६॥

एवं कालसमाचारो नान्यथाभूत्कदाचन।
तस्मात्कलिरसत्कर्ता तस्मिंस्तु तादृशी प्रजा॥२७॥

कदाचिद्दैवयोगात्तु प्राणिनां व्यत्ययो भवेत् ।
कलौ ये साधवः केचिद्‌द्वापरे सम्भवन्ति ते ॥२८॥

तथा त्रेतायुगे केचित्केचित्सत्ययुगे तथा ।
दुष्टाः सत्ययुगे ये तु ते भवन्ति कलावपि ॥२९॥

कृतकर्मप्रभावेण प्राप्नुवन्त्यसुखानि च ।
पुनश्च तादृशं कर्म कुर्वन्ति युगभावतः ॥३०॥

               जनमेजय उवाच
युगधर्मान्महाभाग ब्रूहि सर्वानशेषतः ।
यस्मिन्वै यादृशो धर्मो ज्ञातुमिच्छामि तं तथा॥३१।

                व्यास उवाच
निबोध नृपशार्दूल दृष्टान्तं ते ब्रवीम्यहम् ।
साधूनामपि चेतांसि युगभावाद्‌भ्रमन्ति हि।३२॥

पितुर्यथा ते राजेन्द्र वुद्धिर्विप्रावहेलने।
कृता वै कलिना राजन् धर्मज्ञस्य महात्मनः ॥३३॥

अन्यथा क्षत्रियो राजा ययातिकुलसम्भवः ।
तापसस्य गले सर्पं मृतं कस्मादयोजयत् ॥३४॥

सर्वं युगबलं राजन्वेदितव्यं विजानता ।
प्रयत्‍नेन हि कर्तव्यं धर्मकर्म विशेषतः ॥ ३५ ॥

नूनं सत्ययुगे राजन् ब्राह्मणा वेदपारगाः ।
पराशक्त्यर्चनरता देवीदर्शनलालसाः ॥३६॥

गायत्रीप्रणवासक्ता गायत्रीध्यानकारिणः ।
गायत्रीजपसंसक्ता मायाबीजैकजापिनः।३७॥

ग्रामे ग्रामे पराम्बायाः प्रासादकरणोत्सुकाः ।
स्वकर्मनिरताः सर्वे सत्यशौचदयान्विताः॥३८॥

त्रय्युक्तकर्मनिरतास्तत्त्वज्ञानविशारदाः ।
अभवन्क्षत्रियास्तत्र प्रजाभरणतत्पराः ॥३९॥

वैश्यास्तु कृषिवाणिज्यगोसेवानिरतास्तथा ।
शूद्राः सेवापरास्तत्र पुण्ये सत्ययुगे नृप।४०।

पराम्बापूजनासक्ताःसर्वे वर्णाः परे युगे।
तथा त्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संस्थितिः।४१।
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥
उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। 
उसके बाद | त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुगमेंजो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं । 41-42 ॥

पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥

दाम्भिका लोकचतुरा मानिनो वेदवर्जिताः।
शूद्रसेवापराः केचिन्नानाधर्मप्रवर्तकाः॥ ४४ ॥

वेदनिन्दाकराः क्रूरा धर्मभ्रष्टातिवादुकाः ।
यथा यथा कलिर्वृद्धिं याति राजंस्तथा तथा॥४५ ॥

धर्मस्य सत्यमूलस्य क्षयः सर्वात्मना भवेत् ।
तथैव क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च धर्मवर्जिताः ॥ ४६॥

असत्यवादिनः पापास्तथा वर्णेतराः कलौ ।
शूद्रधर्मरता विप्राः प्रतिग्रहपरायणाः ॥ ४७ ॥

भविष्यन्ति कलौ राजन् युगे वृद्धिं गताः किल ।
कामचाराः स्त्रियः कामलोभमोहसमन्विताः॥ ४८॥

पापा मिथ्याभिवादिन्यः सदा क्लेशरता नृप ।
स्वभर्तृवञ्जका नित्यं धर्मभाषणपण्डिताः॥४९॥

भवन्त्येवंविधा नार्यः पापिष्ठाश्च कलौ युगे ।
आहारशुद्ध्या नृपते चित्तशुद्धिस्तु जायते।५०।

शुद्धे चित्ते प्रकाशः स्याद्धर्मस्य नृपसत्तम ।
वृत्तसङ्करदोषेण जायते धर्मसङ्करः ॥५१॥

धर्मस्य सङ्करे जाते नूनं स्याद्वर्णसङ्करः ।
एवं कलियुगे भूप सर्वधर्मविवर्जिते ॥ ५२ ॥

स्ववर्णधर्मवार्तैषा न कुत्राप्युपलभ्यते ।
महान्तोऽपि च धर्मज्ञा अधर्मं कुर्वते नृप ॥ ५३ ॥

कलिस्वभाव एवैष परिहार्यो न केनचित् ।
तस्मादत्र मनुष्याणां स्वभावात्पापकारिणाम्॥ ५४॥

निष्कृतिर्न हि राजेन्द्र सामान्योपायतो भवेत् ।

           जनमेजय उवाच
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ॥ ५५ ॥

कलावधर्मबहुले नराणां का गतिर्भवेत् ।
यद्यस्ति तदुपायश्चेद्दयया तं वदस्व मे ॥ ५६ ॥

              व्यास उवाच
एक एव महाराज तत्रोपायोऽस्ति नापरः ।
सर्वदोषनिरासार्थं ध्यायेद्देवीपदाम्बुजम् ।५७।

न सन्त्यघानि तावन्ति यावती शक्तिरस्ति हि ।
नास्ति देव्याः पापदाहे तस्माद्‌भीतिःकुतो नृप।५८।

अवशेनापि यन्नाम लीलयोच्चारितं यदि ।
किं किं ददाति तज्ज्ञातुं समर्था न हरादयः ॥ ५९ ॥

प्रायश्चित्तं तु पापानां श्रीदेवीनामसंस्मृतिः ।
तस्मात्कलिभयाद्‌राजन् पुण्यक्षेत्रे वसेन्नरः ॥६०॥

निरन्तरं पराम्बाया नामसंस्मरणं चरेत् ।
छित्त्वा भित्त्वा च भूतानि हत्वा सर्वमिदं जगत्।६१॥

देवीं नमति भक्त्या यो न स पापैर्विलिप्यते।
रहस्यं सर्वशास्त्राणां मया राजन्नुदीरितम् ॥६२॥

विमृश्यैतदशेषेण भज देवीपदाम्बुजम्।
अजपां नाम गायत्रीं जपन्ति निखिला जनाः॥६३॥

महिमानं न जानन्ति मायाया वैभवं महत् ।
गायत्रीं ब्राह्मणाः सर्वे जपन्ति हृदयान्तरे ॥६४॥

महिमानं न जानन्ति मायाया वैभवं महत् ।
एतत्सर्वं समाख्यातं यत्पृष्टं तत्त्वया नृप ।
युगधर्मव्यवस्थायां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥६५॥
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥४२॥

पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥४३॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः।११।

युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन

जनमेजय बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलराम और श्रीकृष्णके अवतारकी बात आपने कही, किंतु मेरे मनमें एक संशय है ॥1॥ द्वापरयुगके अन्तमें अत्यन्त दीन तथा आतुर होकर भारी बोझसे दबी हुई पृथ्वी गौका रूप धारण करके ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ॥2।।तब ब्रह्माजीने लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु प्रार्थना की- 'हे भगवन्! हे विभो ! हे जनार्दन! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये और साधुजनोंकी रक्षाके लिये आप देवताओं के साथ भारतवर्ष में वसुदेवके घरमें शीघ्र ही अवतार लीजिये ॥3-4 ॥


ब्रह्माजीके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलरामके साथ देवकीके पुत्र हुए; तब उन्होंने अनेक दुष्टों तथा सभी दुराचारी और पापबुद्धि राजाओंको ज्ञात करके उन्हें मारकर पृथ्वीका कितना भार उतारा ? ॥ 5-6 ॥

भीष्म मारे गये, द्रोणाचार्य मारे गये इसी प्रकार विराट, द्रुपद, बाह्लीक सोमदन और सूर्यपुत्र कर्ण मारे गये। परंतु जिन्होंने कृष्णकी पत्नियोंका हरण किया और उनका सारा धन लूट लिया, उन दुष्टोंको तथा जो करोड़ों आभीर, शक, म्लेच्छ और निषाद पृथ्वीतलपर स्थित थे उन सबको उन्होंने नष्ट क्यों नहीं कर दिया? तब उन बुद्धिमान् श्रीकृष्णने पृथ्वीका कौन-सा भार उतार दिया! हे महाभाग ! मेरे चित्तसे यह सन्देह नहीं हटता है; इस कलियुगमें तो समस्त प्रजा पापपरायण ही दिखायी देती है ।।7-10॥
व्यासजी बोले—हे राजन्! जैसा युग होता है, कालप्रभावसे प्रजा भी वैसी ही होती है, इसके विपरीत नहीं होता; इसमें युगधर्म ही कारण है ।। 11 । जो धर्मानुरागी जीव हैं, वे सत्ययुगमें हुए; धर्म और अर्थसे प्रेम रखनेवाले प्राणी हैं, वे प्रेतायुग जो हुए: धर्म, अर्थ और कामके रसिक प्राणी द्वापरयुगमें हुए और अर्थ तथा काममें आसक्ति रखनेवाले सभी प्राणी इस कलियुगमें होते हैं । 12-13 ॥हे राजेन्द्र । युगधर्मका प्रभाव विपरीत नहीं होता है; काल ही धर्म और अधर्मका कर्ता है ।।14 ।।राजा बोले- हे महाभाग !सत्ययुगमें जो धर्मपरायण प्राणी हुए हैं, वे पुण्यशाली लोग इस समय कहाँ स्थित हैं ? हे पितामह। त्रेतायुग या द्वापरमें जो दान तथा व्रत करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हुए हैं, वे अब कहाँ विद्यमान हैं; मुझे बतायें। इस कलियुगमें जो दुराचारी, निर्लज्ज, देवनिन्दक और पापी लोग विद्यमान हैं, वे सत्ययुगमें कहाँ जायँगे ? हे महामते ! यह सब विस्तारपूर्वक कहिये; मैं इस धर्मनिर्णयके विषयमें सब कुछ सुनना चाहता
हूँ । ll15-18 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्! जो मनुष्य सत्ययुगमें उत्पन्न होते हैं, वे अपने पुण्यकार्योंके कारण देवलोकको चले जाते हैं ॥ 19 ॥

हे नृपश्रेष्ठ! अपने-अपने वर्णाश्रमधर्मो में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्मोंसे अर्जित लोकोंमें चले जाते हैं ॥ 20 ॥

सत्य, दया, दान, एकपत्नीव्रत, सभी प्राणियोंमें अद्रोहभाव तथा सभी जीवोंमें समभाव रखना यह सत्ययुगका साधारण धर्म है। सत्ययुगमें इसका धर्मपूर्वक पालन करके रजक आदि इतर वर्णके लोग भी स्वर्ग चले जाते हैं। हे राजन् ! त्रेता और द्वापरयुगमें यही स्थिति रहती है, किंतु इस कलियुगमें पापी मनुष्य नरक जाते हैं और वे वहाँ तबतक रहते हैं जबतक युगका परिवर्तन नहीं होता, उसके बाद मनुष्यके रूपमें पुनः पृथ्वीपर जन्म लेते हैं । ll21 - 24 ॥

हे राजन् ! जब कलियुगका अन्त और सत्ययुगका आरम्भ होता है, तब पुण्यशाली लोग स्वर्गसे पुनः मनुष्यके रूपमें जन्म लेते हैं ॥ 25 ॥

जब द्वापरका अन्त और कलियुगका प्रारम्भ होता है, तब नरकके सभी पापी पृथ्वीपर मनुष्यके रूपमें उत्पन्न होते हैं ॥ 26 ॥

इस प्रकार युगके अनुरूप ही आचार होता है, उसके विपरीत कभी नहीं। कलियुग असत् प्रधान होता है, इसलिये उसमें प्रजा भी वैसी ही होती है।दैवयोगसे कभी-कभी इन प्राणियोंके जन्म लेनेमें व्यतिक्रम भी हो जाता है। कलियुगमें कुछ जो साधुजन हैं, वे द्वापरके मनुष्य हैं। उसी प्रकार द्वापरके मनुष्य कभी-कभी त्रेतामें और त्रेताके मनुष्य सत्ययुग में जन्म लेते हैं। जो सत्ययुगमें दुराचारी मनुष्य होते हैं, वे कलियुगके हैं। वे अपने किये हुए कर्मके प्रभावसे दुःख पाते हैं और पुनः युगप्रभावसे वे वैसा ही कर्म करते हैं ।। 27-30 ॥

जनमेजय बोले- हे महाभाग ! आप समस्त युगधर्मोका पूर्णरूपसे वर्णन करें; जिस युगमें जैसा धर्म होता है, उसे मैं जानना चाहता हूँ ॥ 31 ॥

व्यासजी बोले—हे नृपशार्दूल! ध्यानपूर्वक सुनिये, इस सम्बन्धमें मैं एक दृष्टान्त कहता हूँ । साधुजनोंके मन भी युगधर्मसे प्रभावित होते हैं ॥ 32 ॥

हे राजेन्द्र ! आपके महात्मा और धर्मज्ञ पिताकी भी बुद्धि कलियुगने विप्रका अपमान करनेकी ओर प्रेरित कर दी थी; अन्यथा ययातिके कुलमें पैदा हुए क्षत्रिय राजा परीक्षित् एक तपस्वीके गलेमें मरा हुआ सर्प क्यों डालते ? ।। 33-34 ॥

हे राजन् विद्वान्को इसे युगका ही प्रभाव समझना चाहिये। इसलिये विशेषरूपसे धर्माचरण ही प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ll 35 ॥

हे राजन् ! सत्ययुगमें सभी ब्राह्मण वेदके ज्ञाता, पराशक्तिकी पूजामें तत्पर रहनेवाले, देवीदर्शनकी लालसासे युक्त, गायत्री और प्रणवमन्त्रमें अनुरक्त, गायत्रीका ध्यान करनेवाले, गायत्रीजपपरायण, एकमात्र मायाबीजमन्त्रका जप करनेवाले, प्रत्येक गाँवमें भगवती पराम्बाका मन्दिर बनानेके लिये उत्सुक रहनेवाले, अपने-अपने कर्मोंमें निरत रहनेवाले, सत्य-पवित्रता दयासे समन्वित, वेदत्रयी कर्ममें संलग्न रहनेवाले और तत्त्वज्ञानमें पूर्ण निष्णात होते थे। क्षत्रिय प्रजाओंके भरण-पोषण में संलग्न रहते थे। हे राजन् ! उस पुण्यमय सत्ययुगमें वैश्यलोग कृषि, व्यापार और गो-पालन करते थे तथा शूद्र सेवापरायण रहते थे । ll 36-40 ॥

उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। उसके बाद | त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुगमेंजो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं । 41-42 ॥ वे प्रायः पाखण्डी, लोगोंको ठगनेवाले, झूठ बोलनेवाले तथा वेद और धर्मसे दूर रहनेवाले होते हैं। उनमें से कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहारमें चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्गसे हटकर चलनेवाले, शूद्रोंकी सेवा करनेवाले, विभिन्न धर्मोंका प्रवर्तन करनेवाले, वेदनिन्दक, क्रूर, धर्मभ्रष्ट और व्यर्थ वाद-विवादमें लगे रहनेवाले होते हैं। हे राजन् ! जैसे-जैसे कलियुगकी वृद्धि होती है, वैसे-वैसे सत्यमूलक धर्मका सर्वथा क्षय होता जाता है और वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इतर वर्णोंके लोग भी धर्महीन, मिथ्यावादी तथा पापी होते हैं। ब्राह्मण शूद्रधर्म में संलग्न और प्रतिग्रहपरायण हो जाते हैं ॥ 43-47 ॥

हे राजन् ! कलियुगका प्रभाव और बढ़नेपर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी तथा काम, लोभ और मोहसे युक्त हो जायँगी हे राजन् ! वे पापाचारिणी, झूठ बोलनेवाली, सदा कलह करनेवाली, अपने पतिको ठगनेवाली और नित्य धर्मका भाषण करनेमें निपुण होंगी। कलियुगमें इस प्रकारकी पापपरायण स्त्रियाँ होती हैं ।। 48-493 ॥

हे राजन् ! आहारकी शुद्धिसे ही अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और हे नृपश्रेष्ठ ! चित्त शुद्ध होनेपर ही धर्मका प्रकाश होता है। आचारसंकरता (दूसरे वर्णोंके अनुसार आचरण ) - दोषसे धर्ममें व्यतिक्रम (विकार) उत्पन्न होता है और धर्ममें विकृति होनेपर वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। हे राजन् ! इस प्रकार | सभी धर्मोंसे हीन कलियुगमें अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मकी चर्चा भी कहीं नहीं सुनायी देती। हे राजन् ! धर्मज्ञ और श्रेष्ठजन भी अधर्म करने लग जाते हैं। यह कलियुगका स्वभाव ही है; किसीके भी द्वारा इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता। अतः हे राजेन्द्र ! इस कालमें स्वभावसे ही पाप करनेवाले मनुष्योंकी निष्कृति सामान्य उपायसे नहीं हो | सकती ॥। 50-543 ॥जनमेजय बोले- हे भगवन्! हे समस्त धर्मोक ज्ञाता ! हे समस्त शास्त्रोंमें निपुण ! अधर्मके बाहुल्यवाले | कलियुगमें मनुष्योंकी क्या गति होती है? यदि उससे निस्तारका कोई उपाय हो तो उसे दयापूर्वक मुझे बतलाइये ।। 55-56 ॥

व्यासजी बोले- हे महाराज ! इसका एक ही उपाय है दूसरा नहीं है; समस्त पापोंके शमनके लिये देवीके चरणकमलका ध्यान करना चाहिये। हे राजन्! देवीके पापदाहक नाममें जितनी शक्ति है, उतने पाप तो हैं ही नहीं। इसलिये भयकी क्या आवश्यकता ? यदि विवशतापूर्वक भी भगवतीके नामका उच्चारण हो जाय, तो वे क्या-क्या दे देती हैं, उसे जाननेमें भगवान् शंकर आदि भी समर्थ नहीं हैं ! ।। 57 - 59॥

भगवती देवीके नामका स्मरण ही समस्त पापोंका प्रायश्चित्त है, इसलिये हे राजन् ! मनुष्यको कलिके भयसे पुण्यक्षेत्रमें निवास करना चाहिये और पराम्बाके नामका निरन्तर स्मरण करना चाहिये। जो देवीको भक्तिभावसे नमस्कार करता है, वह प्राणियोंका छेदन-भेदन और सारे संसारको पीड़ित करके भी उन पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 60-613 ॥

हे राजन्! यह मैंने आपसे सम्पूर्ण शास्त्रोंके रहस्यको कह दिया, इसपर भलीभाँति विचारकर आप देवीके चरणकमलकी आराधना करें। [ वैसे तो ] | सभी लोग 'अजपा' नामक गायत्रीका जप करते हैं, लेकिन वे [मायासे मोहित होनेके कारण] उन महामायाकी महिमा और महान् वैभवको नहीं जानते। सभी ब्राह्मण अपने हृदयमें गायत्रीका जप करते हैं, परंतु वे भी उन महामायाकी महिमा और उनके महान् वैभवको नहीं जानते। हे राजन्! युगधर्मकी व्यवस्थाके विषयमें आपने जो कुछ पूछा था, यह सब मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 62-65 ॥

-संवाद शैली से तेरी भावनाऐं प्रतिबिम्बित हो गयी हैं ; शब्दों से न हमको भरमा अब मेरी वारगाह से तेरी बेवफाऐं निलम्बित हो गयी हैं ।
वाकई जो लोग अपने फरेब ऐब छुपा कर सादिकों को छला करते हैं ! 
वे औरों का तो क्या ? अपना भी कभी नहीं   भला करते हैं ।और वे कभी हमारे निष्कर्षों पर पहुँचना ही नहीं चाहते हैं ।


 "क्योंकि महान होने वाले ही सभी ख़य्याम नहीं होते उनकी महानता के भी 'रोहि' कोई  इनाम नहीं होते। फर्क नहीं पढ़ता उनकी शख्सियत में कुछ भी रोहि" ,ग़मों में सम्हल जाते हैं वे ,जो कभी नाकाम नहीं होते।।बड़ी सिद्दत से संजोया है, ठोकरों के अनुभवों को अनुभवों से प्रमाणित ज्ञान के कोई दाम नहीं होते ।।  
इस लिए यादव समाज की सेवा के लिए यह  एक क़दम है।आने वाली अगली पीढी़याँ उन्हें ज़ेहन में संजोती हैं, याद करती हैं उन्हें मुशीबतों में ,और तब उनके के लिए ही रोती हैं। जो समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए कुछ खा़स और नया उपक्रम करते हैं । सारी दुनियाँ जब सोती हैं ; परन्तु वे रात तक श्रम करते हैं । उनको मैं नमन करता हूँ।
                                                         

मंगलवार, 20 सितंबर 2022

सत्य नारायण व्रत कथा में अहीरों की भक्ति चर्या-

सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 

एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय: ॥ पप्रच्छुर्मुनय: सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ॥१॥                             ऋषय ऊचु:। 

व्रतेन तपसा किंवा प्राप्यते वाञ्छितं फलम् ॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: कथयस्व महामुने ॥२॥                           सूत उवाच। 

नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापित:॥    सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिता:॥३॥ एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया॥      पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागत:॥४॥ततो दृष्टवा जनान्सर्वान्नानाक्लेशसमन्वितान्॥ नानायोनिसमुत्पन्नान्क्लिश्यमानान् स्वकर्मभि:।५।  केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद ध्रुवम् ।      इति सञ्चिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा॥६॥तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् । शङखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम् ॥७॥द्दष्टवा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ॥                               -नारद उवाच ॥                          नमो वाङमनसातीतरूपायानन्तशक्तये ॥८॥आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणत्मने ॥ सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने ॥९॥श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत ॥                          -श्रीभगवानुवाच॥                       किमर्थमागतोऽसि त्वं कि ते मनसि वर्तते ॥१०॥कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ॥                          नारद उवाच ॥              मर्त्यलोके जना: सर्वे नानाक्लेशसमन्विता:॥ नानायोनिसमुत्पन्ना: पच्यन्ते पापकर्मभि:॥११॥

तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद॥ श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि॥१२॥

                   श्रीभगवानुवाच॥

साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकाङ्क्षया ॥ यत्कृत्वा मुच्यते मोहात्तच्छृणुष्व वदामि ते॥१३॥

व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम् ॥      तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाश:क्रियतेऽधुना॥१४॥

सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानत:॥        कृत्वा सद्य:सुखं भुक्त्त्वापरत्र मोक्षमाप्नुयात्॥१५॥

 तच्छुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत् ॥                             "नारद उवाच ॥

किंफलं किंविधानं च कृतं केनैव तद् व्रतम्॥१६॥
तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं हि तद व्रतम्॥ दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥१७॥

सौभाग्यसन्ततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम्।      यस्मिन् कस्मिन्दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वित:।१८।

सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे॥ ब्राह्मणैर्बान्धबैश्चैव सहितो धर्मतत्पर:॥१९॥

नैवेद्यं भक्तितो दद्यात्सपादं भक्तिसंयुतम् ॥ रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णाकम् ॥२०॥

अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा च गुडस्तथा ।     सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत् ॥२१॥

विप्राय दक्षिणां दद्यात्कथां श्रुत्वा जनै: सह ॥ ततश्च बन्धुभि: सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत् ॥२२॥

प्रसादं भक्षयेद्भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत् ॥    ततश्च स्वगृहं गच्छेत्सत्यनारायणं स्मरन् ॥२३॥

एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ विशेषत: कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले ॥२४॥

श्री व्यासजी ने कहा- एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि हजारों ऋषि-मुनियों ने पुराणों के महाज्ञानी श्री सूतजी से पूछा कि वह व्रत-तप कौन सा है, जिसके करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है। हम सभी वह सुनना चाहते हैं। कृपा कर सुनाएँ। श्री सूतजी बोले- ऐसा ही प्रश्न नारद ने किया था। जो कुछ भगवान कमलापति ने कहा था, आप सब उसे सुनिए।

परोपकार की भावना लेकर योगी नारद कई लोकों की यात्रा करते-करते मृत्यु लोक में आ गए। वहाँ उन्होंने देखा कि लोग भारी कष्ट भोग रहे हैं। पिछले कर्मों के प्रभाव से अनेक योनियों में उत्पन्न हो रहे हैं। दुःखीजनों को देख नारद सोचने लगे कि इन प्राणियों का दुःख किस प्रकार दूर किया जाए। मन में यही भावना रखकर नारदजी विष्णु लोक पहुँचे। वहाँ नारदजी ने चार भुजाधारी सत्यनारायण के दर्शन किए, जिन्होंने शंख, चक्र, गदा, पद्म अपनी भुजाओं में ले रखा था और उनके गले में वनमाला पड़ी थी।

नारदजी ने स्तुति की और कहा कि मन-वाणी से परे, अनंत शक्तिधारी, आपको प्रणाम है। आदि, मध्य और अंत से मुक्त सर्वआत्मा के आदिकारण श्री हरि आपको प्रणाम। नारदजी की स्तुति सुन विष्णु भगवान ने पूछा- हे नारद! तुम्हारे मन में क्या है? वह सब मुझे बताइए। भगवान की यह वाणी सुन नारदजी ने कहा- मर्त्य लोक के सभी प्राणी पूर्व पापों के कारण विभिन्न योनियों में उत्पन्न होकर अनेक प्रकार के कष्ट भोग रहे हैं।

यदि आप मुझ पर कृपालु हैं तो इन प्राणियों के कष्ट दूर करने का कोई उपाय बताएँ। मैं वह सुनना चाहता हूँ। श्री भगवान बोले हे नारद! तुम साधु हो। तुमने जन-जन के कल्याण के लिए अच्छा प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से व्यक्ति मोह से छूट जाता है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ। यह व्रत स्वर्ग और मृत्यु लोक दोनों में दुर्लभ है। तुम्हारे स्नेहवश में इस व्रत का विवरण देता हूँ।

सत्यनारायण का व्रत विधिपूर्वक करने से तत्काल सुख मिलता है और अंततः मोक्ष का अधिकार मिलता है। श्री भगवान के वचन सुन नारद ने कहा कि प्रभु इस व्रत का फल क्या है? इसे कब और कैसे धारण किया जाए और इसे किस-किस ने किया है। श्री भगवान ने कहा दुःख-शोक दूर करने वाला, धन बढ़ाने वाला। सौभाग्य और संतान का दाता, सर्वत्र विजय दिलाने वाला श्री सत्यनारायण व्रत मनुष्य किसी भी दिन श्रद्धा भक्ति के साथ कर सकता है।

सायंकाल धर्मरत हो ब्राह्मण के सहयोग से और बंधु बांधव सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करें। भक्तिपूर्वक खाने योग्य उत्तम प्रसाद (सवाया) लें। यह प्रसाद केले, घी, दूध, गेहूँ के आटे से बना हो। यदि गेहूँ का आटा न हो, तो चावल का आटा और शक्कर के स्थान पर गुड़ मिला दें। सब मिलाकर सवाया बना नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कथा सुनें, प्रसाद लें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दें और इसके पश्चात बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।

प्रसाद पा लेने के बाद कीर्तन आदि करें और फिर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए स्वजन अपने-अपने घर जाएँ। ऐसे व्रत-पूजन करने वाले की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। कलियुग में विशेष रूप से यह छोटा-सा उपाय इस पृथ्वी पर सुलभ है।


          इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे  सत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्याय: ॥१॥

                     सूत उवाच॥ अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विज॥ कश्चित्काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्विप्रोऽतिनिर्धन:॥१॥

क्षुतृडभ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले॥ दू:खितं ब्राह्मणं दृष्टवा भगवान् ब्राह्मणप्रिय:॥२॥

वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात् ॥    किमर्थं अमसे विप्र महीं नित्यं सुदु:खित:॥३॥

तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम ॥                          ब्राह्मण उवाच॥                        ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम् ॥४॥
उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।                              वृद्धब्राह्मण उवाच।                      सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रद:॥५॥
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम् ॥    यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥६॥
विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नत:॥ सत्यनारायणो वद्धस्तत्रैवान्तरधीयत ॥७॥
तदव्रतं सङ्करिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै॥      इति सञ्चिन्त्यविप्रोऽसौ रात्रौनिद्रांलब्धवान्।८।
तत प्रात: समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम् ॥      करिष्य इति सङ्कल्प्य भिक्षार्थमगमद् द्विज:॥९॥
तस्मिन्नेव दिने विप्र: प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान्।        तेनैव बन्धुभि: सार्द्धं सत्यस्य व्रतमाचरत्॥१०॥
सर्वदूःखविनिर्मुक्त: सर्वसम्पत्समन्वित:॥        बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावत:॥११॥
तत:प्रभृति कालं च मासि मासि व्रतं कृतम्॥      एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तम:॥१२॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ।      व्रतमस्य यदा विप्रा: पृथिव्यां सङ्करिष्यति॥१३॥
तदैव सर्वदुःखं च मनुजस्य विनश्यति।              एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने॥१४॥
मया तत्कथितं विप्रा: किमन्यत्कथयामि व:॥                               ऋषय ऊचु:।                          तस्माद्विप्राच्छ्रुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने॥    तत्सर्वं श्रोतुमिच्छाम: श्रद्धास्माकं प्रजायते॥१५॥
                       सूत उवाच॥                         
श्रृणुध्वं मुनय: सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि ॥          एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरै:॥१६॥

बन्धुभि:स्वजनै: सार्धं व्रतं  कर्तुं समुद्यत:॥ एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत्॥१७॥
बहि:काष्ठं च संस्थ्याप्य विप्रस्य गृहमाययौ॥ तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रंकृत व्रतम्॥१८॥
प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया ॥      कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद्वाद मे प्रभो ॥१९॥
                   विप्र उवाच॥                              सत्यनारायणस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम् ॥          तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत् ॥२०॥
तस्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा काष्ठविक्रेतातिहर्षित:॥      पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ ॥२१॥
सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत् ॥          काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद्‌धनम् ॥२२॥
तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम् ॥            इतिसञ्चिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके॥२३॥
जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थिति: ॥      तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ॥२४॥
तत: प्रसन्नहृदय: सुपक्वं कदलीफलम् ॥ शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम्॥२५॥
कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ ॥        ततो बन्धून्समाहूय चकार विधिना व्रतम् ॥२६॥
तदव्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्।    इहलोके सुखं भुंक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥२७॥


सूत जी बोले – हे ऋषियों ! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था।  भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था।  ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा – हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते होदीन ब्राह्मण बोला – मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ।  भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ।

हे भगवन् ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो कृपाकर बताइए।  वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो।  इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।  वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए।  ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे अवश्य करूँगा।  यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं आई।

वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उसने बंधु-बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया। भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा।

इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा। सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा। हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँऋषि बोले – हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को कियाहम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है। सूत जी बोले – हे मुनियों ! जिस-जिस ने इस व्रत को किया हैवह सब सुनो ।

एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला लकड़हाड़ा आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा ब्राह्मण को व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से क्या फल मिलेगाकृपया मुझे भी बताएँ।ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है।इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।

विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ ।चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया। लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को ले लकड़हारा सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे। उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिला ।

लकड़हारा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केलेशक्करघीदूधदही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने अपने बंधु-बाँधवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया।

        इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां द्वितीयोऽध्याय:॥२॥
                 सूत उवाच ॥                              पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥            पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासी:महामति:॥१॥
जितेन्द्रिय: सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति ॥        दिने दिने धनं दत्वा द्विजान्सन्तोषयत्सुधी:॥२॥
भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती ॥ भद्रशीला नदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥३॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेक: समागत: ॥ वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकै: परिवारित: ॥४॥
नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति ॥          दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वित:॥५॥
                   साधुरुवाच ॥                            किमिदं कुरुषे राजन्भक्तियुक्तन चेतसा ॥      प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम्॥६॥
                    राजोवाच ॥                        पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजस: ॥            व्रतं च स्वजनै: सार्वं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया॥७॥
भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधु: प्रोवाच सादरम् ॥      सर्वं कथय मे राज्यन्करिष्येऽहं तवोदितम् ॥८॥
ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्॥    ततो निवृत्य वाणिज्यात्सानन्दो गृहमागत:॥९॥
भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं सन्ततिदायकम् ॥        तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे सन्ततिर्भवेत् ॥१०॥
इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधु: स सत्तम:॥ एकस्मिन्दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती॥११॥
भर्तृयुक्ताऽऽनन्दचित्ताऽभवद्धर्मपरायणा ॥  गर्भिणी साऽभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादत:॥१२॥
दशमे मासि वै तस्या: कन्यारत्नमजायत ॥        दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी॥१३॥
सम्ना कलावति चेति तन्नामकरण कृतम् ॥        ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वच:॥१४॥
न करोषि किमर्यं वै पुरा सङ्कल्पितं व्रतं॥                               साधुरुवाच॥                            विवाहसमये त्वस्या: करिष्यामि व्रतं प्रिये ॥१५॥
इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति॥          तत: कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि॥१६॥
दृष्ट्वा कन्यां तत: साधुर्नगरे सखिभि:सह॥ मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्॥१७॥
विवाहार्थे च कन्याया: वरं श्रेष्ठं विचारय ॥ तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं ययौ ॥१८॥
तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि स: ॥       दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालंवणिक्पुत्रं गुणान्वितम्॥१९॥
ज्ञातिभिर्बन्धुभि: सार्धं परितुष्टेन चेतसा ॥    दत्तवान् साधु: पुत्राय कन्यां विधिविधानत:॥२०॥
ततो भाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम् ॥ विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टेऽभवत्प्रभु:॥२१॥
तत: कालेन नियतो निजकर्मविशारद:॥ वाणिज्यार्थं तत:शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्।२२।
रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपत:॥ वाणिज्यमकरोत्साधुर्जामात्रा श्रीमता सह॥२३॥
तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च॥  एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायण:प्रभु:॥२४॥
भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान् ॥      दारुणं कठिनं चास्य महद दुःखं भविष्यति॥२५॥
एकस्मिन्दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्कर:॥        तत्रैव चागतश्चौरो वणिजौ यत्र संस्थितौ॥२६॥
तत्पश्चाद्धावकान् दूतान्‌ दृष्ट्वा भीतेन चेतसा ॥ धनं संस्थाप्य तत्रैव स तु शीघ्रमलक्षित:॥२७॥
ततो दूता:समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्॥  दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बदध्वाऽऽनीतौ वणिक्सुतौ॥२८॥
हर्षेण धावमानाश्च ऊचुर्नृपसमीपत:॥            तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो॥२९॥
राज्ञाऽऽज्ञप्तास्तत: शीघ्रं दृढं बदध्वा तु तावुभौ ॥ स्थापितौ द्वौमहादुर्गे कारागारेऽविचारत:॥३०॥
मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वच: ॥ अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना ॥३१॥
तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदुःखिता ॥ चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम् ॥३२॥
आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासातिदुःखिता ॥ अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे ॥ कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम् ॥३३॥
एकस्मिन्दिवसे जाता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् ॥ गत्वाऽपश्यद व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च॥३४॥
उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं प्रार्थितवत्यपि । प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति ॥३५॥
माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमत: ॥      पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते ॥३६॥
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्॥ द्विजालये व्रतं मातर् दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम् ॥३७॥
तच्छत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता ॥      सा तदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च ॥३८॥
व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभि: स्वजनै: सह ॥ भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतांस्वामाश्रमम् ॥३९॥
अपराधं च मे भर्तुर्जामातु: क्षन्तुमर्हसि ।      व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायण: पुन:॥४०॥
दर्शयामास स्वप्नं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥    बन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम ॥४१॥
देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाधुना ॥              नो चेत्त्वां नाशयिष्यामि सराज्यं धनपुत्रकम्॥४२॥
एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत्प्रभु:॥      तत: प्रभातसमये राजा च स्वजनै: सह ॥४३॥
उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति॥      वृद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचयद्वौ वणिक्सुतौ॥४४॥
इति राज्ञो वच:श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ॥ समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते विनयान्विता:॥४५॥
आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तो निगडबन्धनात् ॥ ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥४६॥
स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविह्वलौ॥          राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वच:प्रोवाच सादरम्॥४७॥
दैवात्प्राप्तं महद्दुःखमिदानीं नास्ति वै भयम्॥      तदा निगडसंत्यागं क्षौरकर्माद्यकारयत् ॥४८॥
वस्त्रालङ्कारकं दत्वा परितोष्य नृपश्च तौ॥ पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोषयद् भृशम॥४९॥
पुराऽऽनीतं तु यद्- द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान् । प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम्।५०।
राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं त्वत्प्रासादत:॥ इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतु: स्वगृहं प्रति॥५१॥

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सूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियोंअब आगे की कथा कहता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था। राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा


हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैंमैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ। राजा बोला – हे साधु ! अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला – हे राजन ! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। राजा से व्रत का सारा विधान सुनव्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा।
साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया हैआप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये ! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा।

इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचनपुर नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।

एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से दो चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैंआप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया ।

और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। श्रीसत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए। शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई।

माता ने कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़तेरे मन में क्या हैकलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें। श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए ।

और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ।

दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।


     इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोऽध्याय:॥३॥

                  सूत उवाच॥                                यात्रां तु कृतवान् साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम् । ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ ॥१॥
कियद दूरे गते साधौ सत्यनारायण: प्रभु:॥ जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तव नौ स्थितम्।२।
ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै  ॥        कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां नेतुं किमिच्छसि।३।
लतापत्रादिकं चैव वर्तने तरणौ मम ॥            निष्ठुरं च वच: श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वच:॥४॥
एवमुक्त्वा गत: शीघ्रं दण्डी तस्य समीपत:॥ कियद् दूरे ततो गत्वा स्थित: सिन्धुसमीपत:॥५॥
गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा ॥ उत्थितां तरणिं द्दष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ ॥६॥
दृष्ट्वा लतादिकं चैव मूर्छितो न्यपतद भुवि ॥ लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत् ॥७॥
तदा तु दुहितु: कान्तो वचनं चेदमब्रवीत् ॥      किमथ क्रियते शोक: शापो दत्तश्च दण्डिना॥८॥
शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न संशय:। अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छितार्थो भविष्यति॥९॥
जामातुर्वचनं श्रत्वा तत्सकाशं गतस्तदा ॥      दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्तया नत्वा प्रोवाच सादरम्।१०।
क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ॥            एवं पुन: पुनर्नत्वा महाशोकाकुलोऽभेवत्॥११॥
प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च॥          मा रोदी:श्रृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुख:॥१२॥
ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहु:॥      तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यत:॥१३॥
                      साधुरुवाच॥                           त्वन्मायामोहिता: सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकस:॥     न जानन्ति गुणान् रूपं तवाश्चर्यमिदं प्रभो॥१४॥
मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया॥    प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरै:॥१५॥
पुरा वित्तं च तत्सर्वं त्राहि मां शरणागतम् ॥      श्रत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दन:॥१६॥
वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरि: ॥          ततो नौकां समारुह्य द्दष्ट्वा वित्तप्रपूरिताम्॥१७॥
कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम॥ इत्युक्त्वा स्वजनै:सार्द्धं पूजांकृत्वा यथाविधिम्।१८।
हर्षेण चाभवत्पूर्ण:सत्यदेवप्रसादत:।              नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम्॥१९॥
साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरी मम ॥              दुतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम्॥२०॥
दूतोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च॥ प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यंनत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा।२१।
निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक् ॥ आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युत:॥२२॥
श्रुत्वा दूतमुखाद्वाक्यं महाहर्षवती सती ॥ सत्यपूजां तत: कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति॥२३॥
व्रजामि शीधमागच्छ साधुसंदर्शनाय च ॥          इति मातृवच: श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च॥२४॥
प्रसादं च परित्यज्य गता सापि पतिं प्रति।          तेन रुष्ट: सत्यदेवो भर्तारं तरर्णि तथा॥२५॥
संहृत्य च धनै: सार्द्धं जले तस्यावमज्जयत् ॥ तत: कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम् ॥२६॥
शोकेन महता तत्र रुदती चापतद भुवि ॥             दृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च बहुदु:खिताम्।२७।
भीतेन मनसा साधु: किमाश्चर्यमिदं भवेत् ॥ चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहका: ॥२८॥
ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा विह्वलाभवत् ॥ विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत्॥२९॥
इदानीं नौकया सार्द्धं कथं सोऽभूदलक्षित:॥        न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता ॥३०॥
सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते ॥ इत्युक्त्वा विललापैव ततश्व स्वजनै:सह ॥३१॥
ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोद ह॥      तत: कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता॥३२॥
गृहीत्वा पादुकां तस्यानुगन्तुं च मनो दधे॥ कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्य: सज्जनो वणिक्।३३।
अतिशोकेन सन्तप्तश्चिन्तयामास धर्मवित् ॥        हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया॥३४॥
सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरै: ॥      इति सर्वान्समाहूय कथयित्वा मनोरथम्॥३५॥
नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुन: पुन: ॥ ततस्तुष्ट: सत्यदेवो दिनानां परिपालक:॥३६॥
जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सल: ॥        त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पर्ति द्रष्टुं समागता॥३७॥
अतोऽदृष्टोऽभवत्तस्या: कन्यकाया: पतिर्ध्रुवम् ॥ गृहं गत्वाप्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुन:।३८।
लब्धभर्त्री सुता साधो भविष्यति न संशय:॥ कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात्।३९॥
क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा॥        सा पश्चात्पुनरागत्य ददर्श स्वजनं पतिम् ॥४०॥
तत: कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति ॥      इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम् ॥४१॥
तच्छुत्वा कन्यकावाक्यं सन्तुष्टोऽभूद्वणिक्सुत: ॥ पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानत:॥४२॥
धनैर्बन्धुगणै: सार्धं जगाम निजमन्दिरम् ॥ पौर्णमास्यां च सङ्क्रा:तौकृतवा:सत्यपूजनम्।४३।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥४४॥

चतुर्थोऽध्यायः – 

सूतजी बोले- साधु नामक वैश्य मंगल स्मरण कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देअपने घर की ओर चला। अभी कुछ दूर ही साधु चला था कि भगवान सत्यनारायण ने साधु वैश्य की मनोवृत्ति जानने के उद्देश्य सेदंडी का वेश धरवैश्य से प्रश्न किया कि उसकी नाव में क्या है। संपत्ति में मस्त साधु ने हंसकर कहा कि दंडी स्वामी क्या तुम्हें मुद्रा (रुपए) चाहिए। मेरी नाव में तो लता-पत्र ही हैं। ऐसे निठुर वचन सुन श्री सत्यनारायण भगवान बोले कि तुम्हारा कहा सच हो।

इतना कह दंडी कुछ दूर समुद्र के ही किनारे बैठ गए। दंडी स्वामी के चले जाने पर साधु वैश्य ने देखा कि नाव हल्की और उठी हुई चल रही है। वह बहुत चकित हुआ। उसने नाव में लता-पत्र ही देखे तो मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। होश आने पर वह चिंता करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा ऐसे शोक क्यों करते हो। यह दंडी स्वामी का शाप है। वे दंडी सर्वसमर्थ हैं इसमें संशय नहीं है। उनकी शरण में जाने से मनवांछित फल मिलेगा।

दामाद का कहना मानवैश्य दंडी स्वामी के पास गया। दंडी स्वामी को प्रणाम कर सादर बोला। जो कुछ मैंने आपसे कहा था उसे क्षमा कर दें। ऐसा कह वह बार-बार नमन कर महाशोक से व्याकुल हो गया। वैश्य को रोते देख दंडी स्वामी ने कहा मत रोओ। सुनो! तुम मेरी पूजा को भूलते हो। हे कुबुद्धि वाले! मेरी आज्ञा से तुम्हें बारबार दुःख हुआ है। वैश्य स्तुति करने लगा। साधु बोला- प्रभु आपकी माया से ब्रह्मादि भी मोहित हुए हैं। वे भी आपके अद्भुत रूप गुणों को नहीं जानते।

हे प्रभु! मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं माया से भ्रमित मूढ़ आपको कैसे पहचान सकता हूं। कृपया प्रसन्न होइए। मैं अपनी सामर्थ्य से आपका पूजन करूंगा। धन जैसा पहले था वैसा कर दें। मैं शरण में हूं। रक्षा कीजिए। भक्तियुक्त वाक्यों को सुन जनार्दन संतुष्ट हुए। वैश्य को उसका मनचाहा वर देकर भगवान अंतर्धान हुए। तब वैश्य नाव पर आया और उसे धन से भरा देखा। सत्यनारायण की कृपा से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई हैयह कहकर साधु वैश्य ने अपने सभी साथियों के साथ श्री सत्यनारायण की विधिपूर्वक पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा प्राप्त कर साधु बहुत प्रसन्न हुआ। नाव चलने योग्य बना अपने देश की ओर चल पड़ा।

अपने गृह नगर के निकट वैश्य अपने दामाद से बोला- देखो वह मेरी रत्नपुरी है। धन के रक्षक दूत को नगर भेजा। दूत नगर में साधु वैश्य की स्त्री से हाथ जोड़कर उचित वाक्य बोला। वैश्य दामाद के साथ तथा बहुत-सा धन ले संगी-साथी के साथनगर के निकट आ गए हैं। दूत के वचन सुन लीलावती बहुत प्रसन्न हुई। भगवान सत्यनारायण की पूजा पूर्ण कर अपनी बेटी से बोली। मैं पति के दर्शन के लिए चलती हूं। तुम जल्दी आओ अपनी मां के वचन सुन पुत्री ने भी व्रत समाप्त माना।

प्रसाद लेना छोड़ अपने पति के दर्शनार्थ चल पड़ी। भगवान सत्यनारायण इससे रुष्ट हो गए और उसके पति तथा धन से लदी नाव को जल में डुबा दिया । कलावती ने वहां अपने पति को नहीं देखा। उसे बड़ा दुख हुआ और वह रोती हुई भूमि पर गिर गई। नाव को डूबती हुई देखा। कन्या के रुदन से डरा हुआ साधु वैश्य बोला- क्या आश्चर्य हो गया। नाव के मल्लाह भी चिंता करने लगे। अब तो लीलावती भी अपनी बेटी को दुखी देख व्याकुल हो पति से बोली।


इस समय नाव सहित दामाद कैसे अदृश्य हो गए हैं। न जाने किस देवता ने नाव हर ली है। प्रभु सत्यनारायण की महिमा कौन जान सकता है। इतना कह वह स्वजनों के साथ रोने लगी। फिर अपनी बेटी को गोद में ले विलाप करने लगी। वहां बेटी कलावती अपने पति के नहीं रहने पर दुखी हो रही थी। वैश्य कन्या ने पति की खड़ाऊ लेकर मर जाने का विचार किया। स्त्री सहित साधु वैश्य ने अपनी बेटी का यह रूप देखा। धर्मात्मा साधु वैश्य दुख से बहुत व्याकुल हो चिंता करने लगा। उसने कहा कि यह हरण श्री सत्यदेव ने किया है। सत्य की माया से मोहित हूं।

सबको अपने पास बुलाकर उसने कहा कि मैं सविस्तार सत्यदेव का पूजन करूंगा। दिन प्रतिपालन करने वाले भगवान सत्यनारायण कोबारंबार प्रणाम करने पर प्रसन्न हो गए। भक्तवत्सल ने कृपा कर यह वचन कहे। तुम्हारी बेटी प्रसाद छोड़ पति को देखने आई। इसी के कारण उसका पति अदृश्य हो गया। यदि यह घर जाकर प्रसाद ग्रहण करे 
और फिर आए। तो हे साधु! इसे इसका पति मिलेगा इसमें संशय नहीं है। साधु की बेटी ने भी यह आकाशवाणी सुनी।

तत्काल वह घर गई और प्रसाद प्राप्त किया। फिर लौटी तो अपने पति को वहां देखा। तब उसने अपने पिता से कहा कि अब घर चलना चाहिए देर क्यों कर रखी है। अपनी बेटी के वचन सुन साधु वैश्य प्रसन्न हुआ और भगवान सत्यनारायण का विधि-विधान से पूजन किया। अपने बंधु-बांधवों एवं जामाता को ले अपने घर गया। पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यनारायण का पूजन करता रहा। अपने जीवनकाल में सुख भोगता रहा और अंत में श्री सत्यनारायण के वैकुंठ लोक गयाजो अवैष्णवों को प्राप्य नहीं है और जहां मायाकृत (सत्यरजतम) तीन गुणों का प्रभाव नहीं है।


        इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्याय:॥४॥




        श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे अन्तर्गते सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्मोऽध्याय: प्रारम्भ ॥४॥

सत्य नारायण व्रत कथा के पात्र अहीर लोग-

सत्यनारायण व्रत - सत्य नारायण व्रत कथा

                 सत्यनारायणव्रतकथाः विशेषव्रतपूजाः - बुधाष्टमीव्रताङ्गपूजाविधि:

                    ॥ अथ कथा ॥
                    "व्यास उवाच ॥ 



                     सूत उवाच॥ 

अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमा: ॥ आसीत्तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥१॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप स:॥  एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान्पशून् ॥२॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् ॥    गोपा:कुर्वन्ति सन्तुष्टा भक्तियुक्ता: सबान्धवा:।३॥राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स:॥      ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥४॥संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्या सर्वे यथेप्सितम् ॥ तत: प्रसादं सन्त्यज्य राजा दुःखमवाप स: ॥५॥तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् ॥ सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६॥अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम् ॥      मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह ॥ भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप:॥८॥
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ॥        इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥९॥
य इदं कुरुने सत्यव्रतं परमदुर्लभम् ॥          श्रुणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तांफलप्रदाम्।१०।

धनधान्यादिकं तस्य भवेत्सत्यप्रसादत: ॥        दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात्॥११॥
भीतो भयात्प्रसुच्येत् सत्यमेव न संशय:॥    ईप्सितं च फलं भुक्त्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत्।१२।
इति व: कथितं विप्रा; सत्यनारायणव्रतम् ॥ यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानव:॥१३॥
विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा ॥ केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥१४॥
सत्यनारायणं केचित्सत्यदेवं तथापरे ॥ नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद: ॥१५॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:॥ श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥
य इदं पठते नित्यं श्रृणोति मुनिसत्तमा: ॥        तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादत:॥१७॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च ॥          तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा:॥१८॥
शतानन्दो महाप्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणो ह्मभूत ॥ तम्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह।१९।
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह ॥ तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् ॥ श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥
धार्मिक: सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् ॥ देहार्धं क्रकचैश्छित्वा दत्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥
तुङ्गध्वजो महाराज: स्वायम्भुरभवत्किल॥      सर्वान्भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्।२३।

सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँउसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा। अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।


लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।

तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।

सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा  कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।

 इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायः समाप्तः ॥ 

          इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे सत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्याय:।५।  इति श्रीसत्यनारायणकथा समाप्त।।

_______________________________

सत्यनारायण व्रत कथा करवाने का संकल्प किए हुए व्रती को प्रातः उठकर नित्यक्रिया से निवृत होकर दिनभर व्रत (उपवास)करे। संध्याबेला (शाम)को पुजा करने वाली स्थल को गोबर से लीप कर धान्य या आटा(रंगोली)से सुंदर चौंक बनावे,उस पर पाटा रख दें । गौरी-गणेश ,नवग्रह ,कलश की स्थापना,पूजन  करें। फिर इन्द्रादि दशदिक्पालपंच लोकपाल,लक्ष्मी-नारायणमहादेव-पार्वती और ब्रह्मा-सरस्वतीजी की पूजा करें। तत्पश्चात् पाटा पर सत्यनारायण भगवान  या शालिग्राम रखें पाटा के चारों कोर पर केलापत्ता लगा देवें। पूजन की समस्त सामाग्री,आटे या सूजी से बना प्रसाद या पंजरी इकट्ठा कर आचार्य को बुलवाकर  सत्यनारायण भगवान का पूजन करें  व व्रत कथा का श्रवण करेंआरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। आचार्य को दक्षिणा एवं वस्त्र दे व भोजन कराएं। आचार्य के भोजन के पश्चात् उनसे आशीर्वाद लेकर आप स्वयं समस्त कुटुम्बसहित  भोजन करें।

 ___________________________________                                                                  

श्रीसत्यनारायण जी की

        श्रीसत्यनारायण  की आरती 

जय लक्ष्मी रमणाजय श्रीलक्ष्मी रमणा ।सत्यनारायण स्वामी जन – पातक – हरणा ।। जय ।।टेक 
रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।       नारद करत निराजन घंटा-ध्वनि बाजै ।। जय ।।
प्रकट भये कलि-कारणद्विजको दरस दियो । बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो ।। जय ।।
दुर्बल भील कठारोजिन पर कृपा करी । चन्द्रचूड़ एक राजाजिनकी बिपति हरी ।। जय ।।
वैश्य मनोरथ पायोश्रद्धा तज दीन्हीँ ।  सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं ।जय । 
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो । श्रद्धा धारण कीनीतिनको काज सरयो ।। 
जय ।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी । मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी ।। जय ।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफलमेवा । धूप –दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।। जय ।। 
सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै । तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल पावै ।। जय॥ 

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

श्रीमार्कण्डेयपुराणे वंशानुचरिते नाभागाख्यानं नाम दशाधिकशततमोऽध्यायः । ११० । क्षत्रिय वैश्य के साथ युद्ध नहीं कर सकता है।


मार्कण्डेयपुराणम्/अध्यायाः १०६-११०

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अध्यायाः १०६-११०
वेदव्यासः
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106
अथ षडधिकशततमोऽध्यायः
भानुस्तववर्णनम्
क्रौष्टुकिरुवाच
भगवन्कथितः सम्यग्भानोः सन्ततिसम्भवः ।
माहात्म्यमादिदेवस्य स्वरूपं चातिविस्तरात् ।१

भूयोऽपि भास्वतः सम्यङ्माहात्म्यं मुनिसत्तम ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं तन्मे प्रसन्नो वक्तुमर्हसि ।२
मार्कण्डेय उवाच
श्रूयतामादिदेवस्य माहात्म्यं कथयामि ते ।
विवस्वतो यच्चकार पूर्वमाराधितो जनैः ।३

दमस्य पुत्रो विख्यातो राजाभूद्राज्यवर्धनः ।
स सम्यक्पालनं चक्रे पृथिव्या पृथिवीपतिः ।४

धर्मतः पाल्यमानं तु तेन राष्ट्रं महात्मना ।
ववृधेऽनुदिनं विप्र जनेन च धनेन च ।५

हृष्टपुष्टमतीवासीत्तस्मिन्राजन्यशेषतः ।
निर्भयः सकलश्चोर्व्यां पौरजानपदो जनः ।६

नोपसर्गो न च व्याधिर्न च व्यालोद्भवं भयम् ।
न चावृष्टिभयं तत्र दमपुत्रे महीपतौ । ७

स ईजे च महायज्ञैर्ददौ दानानि चार्थिनाम् ।
सुधर्मस्याविरोधेन बुभुजे विषयानपि ।८

तस्यैवं कुर्वतो राज्यं सम्यक्पालयतः प्रजाः ।
सप्त वर्षसहस्राणि जग्मुरेकमहर्यथा ।९

विदूरथस्य तनया दाक्षिणात्यस्य भूभृतः ।
तस्य पत्नी बभूवाथ मानिनी नाम मानिनी । 106.१०

कदाचित्तस्य सा सुभ्रुः शिरसोऽभ्यञ्जनादृता ।
पश्यतो राजलोकस्य मुमोचाश्रूणि मानिनी ।११

तदश्रुबिन्दवो गात्रे यदा तस्य महीपतेः ।
तदा वीक्ष्याश्रुवदनां तामपृच्छत मानिनीम् ।१२

निःशब्दमश्रुमोक्षेण रुदन्तीं तां विलोक्य वै ।
किमेतदिति पप्रच्छ मानिनीं राज्यवर्धनः ।१३

पृष्टा सा तु ततस्तेन भर्त्रा प्राह मनस्विनी ।
न किञ्चिदिति तां भूयः पप्रच्छ स महीपतिः ।१४

बहुशः पृच्छतस्तस्य भूभृतः सा सुमध्यमा ।
(न किञ्चिदिति होवाच सा भूयो राज्यवर्धनम् । ।
किमेतदिति पप्रच्छ मानिनीं पार्थिवः पुनः ।
बहुशः प्रेरिता तेन सा भर्त्रा तत्र भामिनी । ।)
दर्शयामास पलितं केशभारान्तरोद्भवम् । १५

एतत्पश्येति भूपाल किमन्यन्मन्युकारणम् ।
ममातिमन्दभाग्याया जहासाथ नृपस्ततः । १६

स विहस्याह तां पत्नीं शृण्वतां सर्वभूभृताम् ।
पौराणां च महीपाला ये तत्रासन्समावृताः । १७

शोकेनालं विशालाक्षि रोदितव्यं न ते शुभे ।
जन्मर्द्धिपरिणामाद्या विकाराः सर्वजन्तुषु ।१८

अधीताः सकला वेदा इष्टा यज्ञाः सहस्रशः ।
दत्तं द्विजानां पुत्राश्च समुत्पन्ना वरानने ।१९

भुक्ता भोगस्त्वया सार्द्धं ये मर्त्यैरतिदुर्लभाः ।
सभ्यञ्च पालिता पृथ्वी शौर्यं युद्धेष्वनुष्ठितम् । 106.२०

मित्रैः सहेष्टैर्हसितं विहृतं च वनान्तरे ।
किमन्यत्र कृतं भद्रे पलितेभ्यो बिभेषि यत् । २१

भवन्तु केशाः पलिता वलयः सन्तु मे शुभे ।
शैथिल्यमेतु मे कायः कृतकृत्योऽस्मि मानिनि। २२

मूर्ध्नि यद्दर्शितं भद्रे भवत्या पलितं मम ।
चिकित्सामेव तस्याहं करोमि वनसंश्रयात् ।२३

बाल्ये बालक्रियापूर्वं तद्वत्कौमारके च या ।
यौवने चापि या योग्या वार्द्धके वनसंश्रया ।।२४

एवं मत्पूर्वजैर्भद्रे कृतं त्वत्पूर्वजैश्च यत् ।
अतो न तेऽश्रुपातस्य किञ्चित्पश्यामि कारणम्।२५

अलं ते मन्युना भद्रे नन्वभ्युदयकारि मे ।
दर्शनं पलितस्यास्य मा रोदीर्निष्प्रयोजनम् ।२६


                  मार्कण्डेय उवाच
ततः प्रणम्य तं भूपाः पौराश्चैव समीपगाः ।
साम्ना प्रोचुर्महीपाला महर्षे राज्यवर्धनम् ।२७

न रोदितव्यमनया तव पत्न्या नराधिप ।
रोदितव्यमिहास्माभिरथवा सर्वजन्तुभिः ।२८

त्वं ब्रवीषि यथा नाथ वनवासाश्रितं वचः ।
पतन्ति तेन नः प्राणा लालितानां त्वया नृप ।२९

सर्वे यास्यामहे भूप यदि याति भवान्वनम् ।
ततोऽशेषक्रियाहानिः सर्वपृथ्वीनिवासिनाम् ।।106.३०

भविष्यति न सन्देहस्त्वयि नाथ वनाश्रमे ।
सा च धर्मोपघाताय यदि तत्प्रविमुच्यताम् ।३१

सप्त वर्षसहस्राणि त्वयेयं पालिता मही ।
तत्समुत्थं महापुण्यमालोकय नराधिप ।३२

वने वसन्महाराज त्वं करिष्यसि यत्तपः ।
तन्महीपालनस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।३३

राजोवाच
सप्त वर्षसहस्राणि मयेयं पालिता मही ।
इदानीं वनवासस्य मम कालोऽयमागतः ।३४

ममापत्यानि जातानि दृष्ट्वा मेऽपत्यसन्ततीः ।
स्वल्पैरेवमहोभिर्मे ह्यन्तको न सहिष्यति ।३५

यदेतत्पलितं मूर्ध्नि तद्विजानीत नागराः ।
दूतभूतमनार्यस्य मृत्योरत्युग्रकर्मणः ।३६

सोऽहं राज्ये सुतं कृत्वा भोगांस्त्यक्त्वा वनाश्रयः ।
तपस्तप्स्ये समायान्ति न यावद्यमसैनिकाः ।३७

मार्कण्डेय उवाच
ततो यियासुः स वनं दैवज्ञानवनीपतिः ।
पुत्रराज्याऽभिषेकाय दिनलग्नान्यपृच्छत ।३८

श्रुत्वा च ते तु नृपतेर्वचो व्याकुलचेतसः ।
दिनं लग्नं च होराश्च न विदुः शास्त्रदृष्टयः । ३९

ऊचुश्च तं महीपालं दैवज्ञा बाष्पगद्गदम् ।
ज्ञानानि नः प्रणष्टानि श्रुत्वैतत्ते वचो नृप।106.४०

ततोऽन्यनगरेभ्यश्च भृत्यै राष्ट्रेभ्य एव च ।
ततस्तस्माच्च नगरात्प्राचुर्येणाभ्युपागमन् । ४१

समुत्पत्य महीपालं तं यियासुं मुने वनम् ।
प्रकम्पिशिरसो भूत्वा प्रोचुर्ब्राह्मणसत्तमाः । ४२

प्रसीद पाहि नो राजन्पालिताः स्म यथा पुरा ।
सीदिष्यत्यखिलो लोकस्त्वयि भूप वनाश्रये । ४३

त्वं कुरुष्व तथा राजन्यथा नो सीदते जगत् ।
यावज्जीवामहे वीर स्वल्पकालमिमे वयम् । ।
नेच्छामश्च भवच्छून्यं द्रष्टुं सिंहासनं विभो ।४४

मार्कण्डेय उवाच
इत्येवं तैस्तथान्यैश्च द्विजैः पौरपुरःसरैः ।
भूपैर्भृत्यैरमात्यैश्च राजा प्रोक्तः पुनः पुनः । ४५

वनवासविनिर्बन्धं नोपसंहरते यदा ।
क्षमिष्यत्यन्तको नेति ददौ स च तदोत्तरम् । ४६

ततोऽमात्याश्च भूपाश्च पौरवृद्धास्तथा द्विजाः ।
समेत्य मन्त्रयामासुः किमत्र क्रियतामिति । ४७

तेषां मन्त्रयतां विप्र निश्चयोऽयमजायत ।
अनुरागवतां तत्र महीपालेऽतिधार्मिके ।४८

सम्यग्ध्यानपरा भूत्वा प्रार्थयामः समाहिताः ।
तपसाराध्य भास्वन्तमायुरस्य महीपतेः ।४९

तत्रैकनिश्चयाः कार्ये केचिद्गेहे च भास्करम् ।
सम्यगर्घोपचाराद्यैरुपहारैरपूजयन् ।106.५०

अपरे मौनिनो भूत्वा ऋग्जापेन तथापरे ।
यजुषामथ साम्नां च तोषयाञ्चक्रिरे रविम् ।५१

अपरे च निराहारा नदीपुलिनशायिनः ।
तपांसि चक्रुरिच्छंतो भास्कराराधनं द्विजाः ।५२

अग्निहोत्रपराश्चान्ये रविसूक्तान्यहर्निशम् ।
जेपुस्तत्रापरे तस्थुर्भास्करे न्यस्तदृष्टयः ।५३

इत्येवमतिनिर्बन्धं भास्कराराधनं प्रति ।
बहुप्रकारं चक्रुस्ते तं तं विधिमुपाश्रिताः ।५४

तथा तु यततां तेषां भास्कराराधनं प्रति ।
सुदामा नाम गन्धर्व उपगम्येदमब्रवीत् ।५५

यद्याराधनमिष्टं वो भास्करस्य द्विजातयः ।
तदेतत्क्रियतां येन भानुः प्रीतिमुपैष्यति ।५६

तस्माद्गुरुविशालाख्यं वनं सिद्धनिषेवितम् ।
कामरूपे महाशैले गम्यतां तत्र वै लघु ।५७

तस्मिन्नाराधनं भानोः क्रियतां सुसमाहितैः ।
सिद्धक्षेत्रं हितं तत्र सर्वकामानवाप्स्यथ । ५८

मार्कण्डेय उवाच
इति ते तद्वचः श्रुत्वा गत्वा तत्काननं द्विजाः ।
ददृशुर्भास्वतस्तत्र पुण्यमायतनं शुभम् ।५९

तत्र ते नियताहारा वर्णा विप्रादयो द्विज ।
धूपपुष्पोपहाराढ्या पूजां चक्रुरतन्द्रिताः । 106.६०

पुष्पानुलेपनाद्यैश्च धूपगन्धादिकैस्तथा ।
जपहोमान्नदानाद्यं पूजनं ते समाहिताः ।
कुर्वन्तस्तुष्टुवुर्ब्रह्मन्विवस्वन्तं द्विजातयः ।६१

ब्राह्मणा ऊचुः
देवदानवयक्षाणां ग्रहाणां ज्योतिषामपि ।
तेजसाभ्यधिकं देवं व्रजाम शरणं रविम् ।६२

दिवि स्थितं च देवेशं द्योतयन्तं समन्ततः ।
वसुधामन्तरिक्षं च व्याप्नुवन्तं मरीचिभिः ।६३

आदित्यं भास्करं भानुं सवितारं दिवाकरम् ।
पूषाणमर्यमाणं च स्वर्भानुं दीप्तदीधितिम् ।६४

चतुर्युगान्तकालाग्निदुष्प्रेक्ष्यं प्रलयान्तगम् ।
योगीश्वरमनन्तं च रक्तं पीतं सितासितम् ।६५

ऋषीणामग्निहोत्रेषु यज्ञदेवेष्ववस्थितम् ।
व्रजाम शरणं देवं तेजोराशिं तमच्युतम् । ।
अक्षरं परमं गुह्यं मोक्षद्वारमनुत्तमम् ।६६

छन्दोभिरश्वरूपैश्च सकृद्युक्तैर्विहङ्गमम् ।
उदयास्तमने युक्तं सदा मेरोः प्रदक्षिणे ।६७

अनृतं च ऋतं चैव पुण्यतीर्थं पृथग्विधम् ।
विश्वस्थितिचिन्त्यं च प्रपन्नाः स्म प्रभाकरम् ।६८

यो ब्रह्मा यो महादेवो यो विष्णुर्यः प्रजापतिः ।
वायुराकाशमापश्च पृथिवीगिरिसागराः ।६९

ग्रहनक्षत्रचन्द्राद्या वानस्पत्यं द्रुमौषधम् ।
व्यक्ताव्यक्तेषु भूतेषु धर्माधर्मप्रवर्त्तकः ।106.७०

ब्राह्मी माहेश्वरी चैव वैष्णवी चैव ते तनुः ।
त्रिधा यस्य स्वरूपं तु भानोर्भास्वान्प्रसीदतु । ७१

यस्य सर्वमयस्येदमङ्गभूतं जगत्प्रभोः ।
स नः प्रसीदतां भास्वाञ्जगतां यश्च जीवनम् । ७२

यस्यैकमक्षरं रूपं प्रभामण्डलदुर्दृशम् ।
द्वितीयमैन्दवं सौम्यं स नो भास्वान्प्रसीदतु ।७३

ताभ्यां च तस्य रूपाभ्यामिदं विश्वं विनिर्मितम् ।
अग्नीषोममयं भास्वान्स नो देवः प्रसीदतु । ७४

मार्कण्डेय उवाच
इत्थं स्तुत्या तदा भक्त्या सम्यक्पूजाविधानतः ।
तुतोष भगवान्भास्वांस्त्रिभिर्मासैर्द्विजोत्तम । ७५

ततः स मण्डलादुद्यन्निजबिम्बसमप्रभः ।
अवतीर्य ददौ तेभ्यो दुर्दृशो दर्शनं रविः । ७६

ततस्ते स्पष्टरूपं तं सवितारमजं जनाः ।
पुलकोत्कम्पिनो विप्रा भक्तिनम्राः प्रणेमिरे ।७७

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्ररश्मे सर्वस्य हेतुस्त्वमशेषकेतुः ।
पाता त्वमीड्योऽखिलयज्ञधामध्येयस्तथा योगविदां प्रसीद । । ७८


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे भानुस्तवो नाम षडधिकशततमोऽध्यायः । १०६ ।
107
अथ सप्ताधिकशततमोऽध्यायः
भानोर्माहात्म्यवर्णनम्
मार्कण्डेय उवाच
ततः प्रसन्नो भगवान्भानुराहाखिलाञ्जनान् ।
व्रियतां यदभिप्रेतं मत्तः प्राप्तुं द्विजादयः ।१।

मार्कण्डेय उवाच
ततस्ते प्रणिपत्योचुर्विप्रक्षत्रादयो जनाः ।
ससाध्वसमशीतांशुमवलोक्य पुरः स्थितम् ।२।

प्रजा ऊचुः
भगवन्यदि नो भक्त्या प्रसन्नस्तिमिरापह ।३
दश वर्षसहस्राणि ततो नो जीवतां नृपः ।
निरामयो जितारातिः सुकोशः स्थिरयौवनः ।४
मार्कण्डेय उवाच
तथेत्युक्त्वा जनान्भास्वानदृश्योऽभून्महामुने ।
तेऽपि लब्धवरा हृष्टाः समाजग्मुर्जनेश्वरम् । । ५
यथा वृत्तं च ते तस्मै नरेन्द्राय न्यवेदयन् ।
वरं लब्ध्वा सहस्रांशो सकाशादखिलं द्विज । । ६
तच्छ्रुत्वा जहृषे तस्य सा पत्नी मानिनी द्विज ।
(प्रहर्षं परमं याता हर्षोद्गततनूरुहा) । ।
स च राजा चिरं दध्यौ नाह किञ्चिच्च तं जनम् । ७
ततः सा मानिनी भूपं हर्षापूरितमानसा ।
दिष्ट्याऽऽयुषा महीपाल वर्द्धस्वेत्याह तं पतिम् ८

तथा तया मुदा भर्ता मानिन्याथ सभाजितः ।
नाहं किञ्चिन्महीपालश्चिन्ताजडमनाद्विज । । ९
सा पुनः प्राह भर्त्तारं चिन्तयानमधोमुखम् ।
कस्मान्न हर्षमभ्येषि परमाभ्युदये नृप । । 107.१०
दशवर्षसहस्राणि नीरुजः स्थिरयौवनः ।
भावी त्वमद्यप्रभृति किं तथापि न हृष्यसे । । ११
किन्तु तत्कारणं ब्रूहि यच्चिन्ताकृष्टमानसः ।
परमाभ्युदयेऽपि त्वं सम्प्राप्ते पृथिवीपते । । १२
राजोवाच
कथमभ्युदयो भद्रे किं सभाजयसे च माम् ।
प्राप्तो दुःखसहस्राणां किं सभाजनमिष्यते । । १३
दशवर्षसहस्राणि जीविष्याम्यहमेककः ।
न त्वं तव विपत्तौ मे किन्न दुःखं भविष्यति । १४
पुत्रान्पौत्रान्प्रपौत्रांश्च तथान्यानिष्टबान्धवान् ।
पश्यतो मे मृतान्दुःखं किमल्पं हि भविष्यति ।१५
भृत्येषु चातिभक्तेषु मित्रवर्गे तथा मृते ।
भद्रे दुःखमपारं मे भविष्यति तु सन्ततम् ।१६
यैर्मदर्थं तपस्तप्तं कृशैर्धमनिसन्ततैः ।
ते मरिष्यन्त्यहं भोगी जीविष्यामीति धिक्करम् । १७
सेयमापद्वरारोहे प्राप्ता नाभ्युदयो मम ।
कथं वा मन्यसे न त्वं यत्सभाजयसेऽद्य माम् ।१८
मानिन्युवाच
महाराज यथात्थ त्वं तथैतन्नात्र संशयः ।
मया पौरैश्च दोषोऽयं प्रीत्या नालोकितस्तव ।१९
एवं गतेऽत्र किं कार्यं नरनाथ विचिन्त्यताम् ।
नान्यथा भावि यत्प्राह प्रसन्नौ भगवान्रविः ।  107.२०
राजोवाच
उपकारः कृतः पौरैः प्रीत्या भृत्यैश्च यो मम ।
कथं भोक्ष्याम्यहं भोगान्गत्वा तेषामनिष्कृतिम् । २१
सोऽहमद्यप्रभृत्यद्रिं गत्वा नियतमानसः ।
( पौरलोकहितार्थं च तोषयिष्यामि भास्करम् ।
यथा पौरा मम कृते बान्धवाश्च समन्ततः ।
आराधनाय देवेशं तथाहमपि साम्प्रतम्) । 
तपस्तप्स्ये निराहारो भानोराराधनोद्यतः ।२२
दशवर्षसहस्राणि यथाहं स्थिरयौवनः ।
तस्य प्रसादाद्देवस्य जीविष्यामि निरामयः ।२३
तथा यदि प्रजाः सर्वा भृत्यास्त्वं च सुताश्च मे ।
पुत्रा पौत्रा प्रपौत्राश्च सुहृदश्च वरानने ।२४
जीवन्त्येतं प्रसादं च करोति भगवान्रविः।
ततोऽहं भविता राज्ये भोक्ष्ये भोगांस्तथा मुदा।२५

न चेदेवं करोत्यर्कस्तदाद्रौ तत्र मानिनि ।
तपस्तप्स्ये निराहारो यावज्जीवितसंक्षयः । २६
मार्कण्डेय उवाच
इत्युक्ता सा तदा तेन तथेत्याह नराधिपम् ।
जगाम तेन च समं साऽपि तं धरणीधरम् । । २७
स तदायतनं गत्वा भार्यया सह पार्थिवः ।
भानोराराधनं चक्रे शुश्रूषानिरतो द्विज । । २८
निराहारा कृशा सा च यथासौ पृथिवीपतिः ।
तेपे तपस्तथैवोग्रं शीतवातातपक्षमा । । २९
तस्य पूजयतो भानुं तप्यतश्च तपो महत् ।
साग्रे सम्वत्सरे याते ततः प्रीतो दिवाकरः । । 107.३०
समस्तभृत्यपौरादिपुत्राणां च कृते द्विज ।
ददौ यथाभिलषितं वरं द्विजवरोत्तम । । ३१
लब्ध्वा वरं स नृपतिः समभ्येत्यात्मनः पुरम् ।
चकार मुदितो राज्यं प्रजा धर्मेण पालयन् । । ३२
ईजे यज्ञान्स च बहून्ददौ दानान्यहर्निशम् ।
मानिन्या सहितो भोगान्बुभुजे च स धर्मवित् । । ३३
दश वर्षसहस्राणि पुत्रपौत्रादिभिः सह ।
भृत्यैः पौत्रैः प्रमुदितः सोऽभवत्स्थिरयौवनः । । ३४
तस्येति चरितं दृष्ट्वा प्रमतिर्नाम भार्गवः ।
विस्मयाकृष्टहृदयो गाथामेतामगायत । । ३५
भानुभक्तेरहो शक्तिर्यद्राजा राज्यवर्द्धनः ।
आयुषो वर्द्धने जातः स्वजनस्य तथात्मनः । । ३६
इति ते कथितं विप्र यत्पृष्टोऽहं त्वयोदितः ।
आदिदेवस्य माहात्म्यमादित्यस्य विवस्वतः । । ३७
विप्रैतदखिलं श्रुत्वा भानोर्माहात्म्यमुत्तमम् ।
पठंश्च मुच्यते पापैः सप्तरात्रकृतैर्नरः । । ३८
अरोगी धनवानाढ्यः कुले महति धीमताम् ।
जायते च महाप्राज्ञो यश्चैतद्धारयेद्बुधः । । ३९
( यजते च महायज्ञैः समाप्तवरदक्षिणः ।
श्रुत्वा चरितमेतद्धि समानं लभते फलम् । ।
मन्त्राश्च येऽत्राभिहिता भास्वतो मुनिसत्तम ।
जपः प्रत्येकमेतेषां त्रिसंध्यं पातकापहः । । 107.४०
समस्तमेतन्माहात्म्यं यत्र चायतने रवेः ।
पठ्यते तत्र भगवान्सान्निध्यं न विमुञ्चति । । ४१
तस्मादेतत्त्वया ब्रह्मन्भानोर्माहात्म्यमुत्तमम् ।
धार्यं मनसि जाप्यं च महत्पुण्यमभीप्सता । । ४२
सुवर्णशृङ्गीमतिशोभनाङ्गीं पयस्विनीं गां प्रददाति यो हि ।
शृणोति चैतत्त्र्यहमात्मवान्नरः समं तयोः पुण्यफलं द्विजाग्र्य । । ४३


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे भानोर्माहात्म्यवर्णनं नाम सप्ताधिकशततमोऽध्यायः । १०७ ।
108
अथाष्टाधिकशततमोऽध्यायः
वंशानुक्रमवर्णनम्
मार्कण्डेय उवाच
एवंप्रभावो भगवाननादिनिधनो रविः ।
यस्य त्वं क्रौष्टुके भक्त्या माहात्म्यं परिपृच्छसि । । १
परमात्मा स योगिनां युञ्जतां चेतसां लयम् ।
क्षेत्रज्ञः सांख्ययोगानां यज्ञेशो यज्विनामपि । । २
सूर्याधिकारं वहतो विष्णोरीशस्य वेधसः ।
मनुस्तस्याभवत्पुत्रश्छिन्नसर्वार्थसंशयः । । ३
मन्वन्तराधिपो विप्र यस्य सप्तममन्तरम् ।
इक्ष्वाकुर्नाभगो रिष्टो महाबलपराक्रमः । । ४
नरिष्यन्तोऽथ नाभागः पृषध्रो धृष्ट एव च ।
एते पुत्रा मनोस्तस्य पृथग्राज्यस्य पालकाः । । ५
विख्यातकीर्त्तयः सर्वे सर्वे शस्त्रास्त्रपारगाः ।
विशिष्टतरमन्विच्छन्मनुः पुत्रं तथा पुनः । । ६
मित्रावरुणयोरिष्टिं चकार कृतिनां वरः ।
यत्र चापहुते होतुरपचारान्महामुने । । ७
इला नाम समुत्पन्ना मनोः कन्या सुमध्यमा ।
तां दृष्ट्वा कन्यकां तत्र समुत्पन्नां ततो मनुः । । ८
तुष्टाव मित्रावरुणौ वाक्यं चेदमुवाच ह ।
भवत्प्रसादात्तनयो विशिष्टो मे भवेदिति । । ९
कृते मखे समुत्पन्ना तनया मम धीमतः ।
यदि प्रसन्नौ वरदौ तदियं तनया मम । । 108.१०
प्रसादाद्भवतो पुत्रो भवत्वतिगुणान्वितः ।
तथेति चाभ्यामुक्ते देवाभ्यां सैव कन्यका । । ११

______
इला समभवत्सद्यः सुद्युम्न इति विश्रुतः ।
पुनश्चेश्वरकोपेन मृगयामटता वने । । १२

स्त्रीत्वमासादितं तेन मनुपुत्रेण धीमता ।
पुरूरवसनामानं चक्रवर्तिनमूर्जितम् । । १३
जनयामास तनयं यत्र सोमसुतो बुधः ।
जाते सुते पुनः कृत्वा सोऽश्वमेधं महाक्रतुम् । । १४
पुरुषत्वमनुप्राप्तः सुद्युम्नः पार्थिवोऽभवत् ।
सुद्युम्नस्य त्रयः पुत्रा उत्कलो विनयो गयः । । १५

पुरुषत्वे महावीर्या यज्विनः पृथुलौजसः ।
पुरुषत्वे तु ये जातास्तस्य राज्ञस्त्रयः सुताः ।१६।
बुभुजुस्ते महीमेतां धर्मे नियतचेतसः ।
स्त्रीभूतस्य तु यो जातस्तस्य राज्ञः पुरूरवाः । । १७
न स लेभे महाभागं यतो बुधसुतो हि सः ।
ततो वसिष्ठवचनात्प्रतिष्ठानं पुरोत्तमम् । ।
तस्मै दत्तं स राजाभूत्तत्रातीव मनोहरे । । १८
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे वंशानुक्रमो नामाष्टाधिकशततमोऽध्यायः । १०८ ।

109

अथ नवाधिकशततमोऽध्यायः
पृषध्रोपाख्यानवर्णनम्
मार्कण्डेय उवाच
पृषध्राख्यो मनोः पुत्रो मृगयामगमद्वनम् ।
तत्र चंक्रममाणोऽसौ विपिने निर्जने वने । । १
नाससाद मृगं कञ्चिद्भानुदीधितितापितः ।
क्षुत्तृट्तापपरीताङ्गः इतश्चेतश्च चंक्रमन् । । २
स ददर्श तदा तत्र होमधेनुं मनोहराम् ।
लतान्तर्देहछिन्नार्धां ब्राह्मणस्याग्निहोत्रिणः । । ३
स मन्यमानो गवयमिषुणा तामताडयत् ।
पपात सापि तद्बाणविभिन्नहृदया भुवि । । ४
ततोऽग्निहोत्रिणः पुत्रो ब्रह्मचारी तपोरतिः ।
शप्तवान्स पितुर्दृष्ट्वा होमधेनुं निपातिताम् । । ५
गोपालः प्रेषितः पुत्रो बाभ्रव्यो नाम नामतः ।
कोपामर्षपराधीनचित्तवृत्तिस्ततो मुने । । ६
चुकोप विगलत्स्वेदजललोलाविलेक्षणः ।
तं क्रुद्धं प्रेक्ष्य स नृपः पृषध्रो मुनिदारकम् । । ७
प्रसीदेति जगौ कस्माच्छूद्रवत्कुरुषे रुषम् ।
न क्षत्रियो न वा वैश्य एवं क्रोधमुपैति वै । ।
यथा त्वं शूद्रवज्जातो विशिष्टे ब्रह्मणः कुले । । ८
मार्कण्डेय उवाच
इति निर्भत्सितस्तेन स राज्ञा मौलिनः सुतः ।
शशाप तं दुरात्मानं शूद्र एव भविष्यसि । । ९
प्रयास्यति क्षयं ब्रह्मन्यत्तेऽधीतं गुरोर्मुखात् ।
होमधेनुर्मम गुरोर्यदियं हिंसिता त्वया । । 109.१०
एवं शप्तो नृपः क्रुद्धस्तच्छापपरिपीडितः ।
प्रतिशापपरो विप्र तोयं जग्राह पाणिना । । ११
सोऽपि राज्ञो विनाशाय कोपं चक्रे द्विजोत्तमः ।
तमभ्येत्य त्वरायुक्तो वारयामास वै पिता । । १२
वत्सालमलमत्यर्थं कोपेनातीव वैरिणा ।
ऐहिकामुष्मिकहितः शम एव द्विजन्मनाम् । । १३
कोपस्तपो नाशयति क्रुद्धो भ्रश्यत्यथायुषः ।
क्रुद्धस्य गलते ज्ञानं क्रुद्धश्चार्थाच्च हीयते । । १४
न धर्मः क्रोधशीलस्य नार्थं चाप्नोति रोषणः ।
नालं सुखाय कामास्ति कोपेनाविष्टचेतसाम् । । १५
यदि राज्ञा हता धेनुरियं विज्ञानिना सता ।
युक्तमत्र दयां कर्तुमात्मनो हितबोधिना । । १६
अथवाऽजानता धेनुरियं व्यापादिता मम ।
तत्कथं शापयोग्योऽयं दुष्टं नास्य मनो यतः । । १७
आत्मनो हितमन्विच्छन्बाधते योऽपरं नरः ।
कर्तव्या मूढविज्ञाने दया तत्र दयालुभिः । । १८
अज्ञानतः कृते दण्डं पातयन्ति बुधा यदि ।
बुधेभ्यस्तमहं मन्ये वरमज्ञानिनो नराः । । १९
नाद्य शापस्त्वया देयः पार्थिवस्यास्य पुत्रक ।
स्वकर्मणैव पतिता गौरेषा दुःखमृत्युना । । 109.२०
मार्कण्डेय उवाच
पृषध्रोऽपि मुनेः पुत्रं प्रणम्यानम्रकन्धरः ।
प्रसीदेति जगादोच्चैरज्ञानाद्घातितेति च ।।२ १
मया गवयबुद्ध्या गौरवध्या घातिता मुने ।
अज्ञानाद्धोमधेनुस्ते प्रसीद त्वं च नो मुने ।।२२
ऋषिपुत्र उवाच
आजन्मनो महीपाल न मया व्याहतं मृषा ।
क्रोधश्चाद्य महाभाग नान्यथा मे कदाचन ।।२३
तन्नाहमेनं शक्नोमि शापं कर्तुं नृपान्न्यथा ।
यस्ते समुद्यतः शापो द्वितीयः स निवर्तितः ।।२४
इत्युक्तवन्तं तं बालमादाय स पिता ततः ।
जगाम स्वाश्रमं सोऽपि पृषध्रः शूद्रतामगात् ।।२५
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे वंशानुचरिते पृषध्रोपाख्याने नवाधिकशततमोऽध्यायः । १ ०९।
110
अथ दशाधिकशततमोऽध्यायः
नाभागाख्यानवर्णनम्
मार्कण्डेय उवाच
कारुषाः क्षत्रियाः शूराः करुषस्याभवन्सुताः ।
ते तु सप्तशतं वीरास्तेभ्यश्चान्ये सहस्रशः ।। १
दिष्टपुत्रस्तु नाभागः स्थितः प्रथमयौवने ।
ददर्श वैश्यतनयामतीव सुमनोहराम् ।।२
तस्यां संदृष्टमात्रायां मदनाक्षिप्तमानसः ।
बभूव भूपतनयो निःश्वासाक्षेपतत्परः ।।३


तस्याः स गत्वा जनकं वव्रे तां वैश्यकन्यकाम् ।
ततोऽनङ्गपराधीनमनोवृत्तिं नृपात्मजम् । । ४
तं चाह स पिता तस्या राजपुत्रं कृताञ्जलिः ।
बिभ्यत्तस्य पितुर्विप्र प्रश्रयावनतं वचः । । ५
भवन्तो भूभुजो भृत्या वयं वः करदायकाः ।
कथं सम्बन्धमसमैरस्माभिरभिवाच्छसि । । ६
राजपुत्र उवाच
साम्यं मानुषदेहस्य काममोहादिभिः कृतम् ।
तथापि काले तैरेव योज्यते मानुषं वपुः । । ७
तथैव चोपकाराय जायन्ते तस्य तान्यपि ।
अन्यानि चान्ये जीवन्ति भिन्नजातिमतां सताम् । । ८
तथान्यान्यप्ययोग्यानि योग्यतां यान्ति कालतः ।
योग्यान्ययोग्यतां यान्ति कालवश्या हि योग्यता । । ९
आप्याय्यते यच्छरीरमाहारादिभिरीप्सितैः ।
कालं ज्ञात्वा तथा भुक्तं तदेव परिशिष्यते । । 110.१०
इत्थं ममैषाभिमता तनया दीयतां त्वया ।
अन्यथा मच्छरीरस्य विपत्तिरुपलक्ष्यते । । ११
वैश्य उवाच
परतन्त्रा वयं त्वं च परतन्त्रो महीभुजः ।
पित्रा तेनाभ्यनुज्ञातस्त्वं गृहाण ददाम्यहम् । । १२
राजपुत्र उवाच
प्रष्टव्या सर्वकार्येषु गुरवो गुरुवर्तिभिः ।
न त्वीदृशेष्वकार्येषु गुरूणां वाक्यगोचरः । । १३
क्व मन्मथ कथालापो गुरूणां श्रवणं क्व च ।
विरुद्धमेतदन्यत्र प्रष्टव्या गुरवो नृभिः । । १४
वैश्य उवाच
एवमेतत्स्मरालापस्तवायं पृच्छ मा गुरुम् ।
अहं पृच्छामि नालापो मम कामकथाश्रयः । । १५
मार्कण्डेय उवाच
इत्युक्तः सोऽभवन्मौनी राजपुत्रः स चापि तत् ।
तत्पित्रे सर्वमाचष्ट राजपुत्रस्य यन्मतम् । । १६
ततस्तस्य पिता विप्रानृचीकादीन्द्विजोत्तमान् ।
प्रवेश्य राजपुत्रं च यथाख्यानं न्यवेदयत् । । १७
निवेद्य च ततः प्राह मुनीनेवं व्यवस्थिते ।
यत्कर्तव्यं तदादेष्टुमर्हन्ति द्विजसत्तमाः । । १८
ऋषयः ऊचु
राजपुत्रानुरागस्ते यद्यस्यां वैश्यसन्ततौ ।
तदस्तु धर्म एवैष किं तु न्यायक्रमेण सः । । १९
मूर्धाभिषिक्ततनयापाणिग्राहोत्सवः पुरा ।
भवत्वनन्तरं चेयं तव भार्या भविष्यति । । 110.२०
एवं न दोषो भवति तथेमामुपभुञ्जतः ।
अन्यथाऽभ्येति ते जातिरुत्कृष्टा बालकानयात् । । २१
मार्कण्डेय उवाच
इत्युक्तस्तदपास्येव वचस्तेषां महात्मनाम् ।
विनिष्क्रम्य गृहीत्वा तामुद्यतासिरथाब्रवीत् । । २२
राक्षसेन विवाहेन मया वैश्यसुता हृता ।
यस्य सामर्थ्यमत्रास्ति स एतां मोचयत्विति । । २३
ततः स वैश्यस्तां दृष्ट्वा गृहीतां तनयां द्रुतम् ।
त्राहीति पितरं तस्य प्रययौ शरणं द्विज । । २४
ततस्तस्य पिता क्रुद्ध आदिदेश बलं महत् ।
हन्यतां हन्यतां दुष्टो नाभागो धर्मदूषकः । । २५
ततस्तद्युयुधे सैन्यं तेन भूभृत्सुतेन वै ।
कृतास्त्रेण तदास्त्रेण तत्प्राचुर्येण पातितम् । । २६
स श्रुत्वा निहतं सैन्यं राजपुत्रेण भूपतिः ।
स्वयमेव ययौ योद्धुं स्वसैन्यपरिवारितः । । २७
ततो युद्धमभूत्तस्य भूभुजः स्वसुतेन यत् ।
राजपुत्रेण शस्त्रास्त्रैस्तत्रातिशयितः पिता । । २८
ततोऽन्तरिक्षादागत्य परिव्राट् सहसा मुनिः ।
प्रत्युवाच महीपालं विरमस्वेति संयुगात् । । २९
त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप । । 110.३०



ब्राह्मण्या ब्राह्मणः पूर्वं कुर्वन्दारपरिग्रहम् ।
ब्राह्मण्यात्सर्ववर्णेषु न हानिमुपगच्छति । । ३१
तथैव क्षत्रियसुतां क्षत्रियः पूर्वमुद्वहन् ।
इतरे च ततो राजंश्च्यवते न स्वधर्मतः । । ३२
पूर्वं वैश्यस्तथा वैश्यां पश्चाच्छूद्रकुलोद्भवाम् ।
न हीयते वैश्यकुलादयं न्यायः क्रमोदितः । । ३३
ब्राह्मणः क्षत्रिया वैश्याः सवर्णापाणिसंग्रहम् ।
अकृत्वाऽन्यभवापाणेः पतन्ति नृप संग्रहात् । । ३४
यस्या यस्या हि हीनाया कुरुते पाणिसंग्रहम् ।
अकृत्वा वर्णसयोगं सोऽपि तद्वर्णभाग्भवेत् । । ३५
सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः ।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह । । ३६
वयमेतन्न जानीमः कारणं नृपनन्दन ।
यथा भविष्यतीदं च निवर्त्त रणकर्मतः । । ३७
इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे वंशानुचरिते नाभागाख्यानं नाम दशाधिकशततमोऽध्यायः । ११० ।





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अध्याय 101-1 मार्कंडेय पुराण
अध्याय 106-110
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106 अध्याय साठ-छह भानु प्रार्थना का विवरण क्रौसुकी
ने कहा: हे भगवान, मैंने आपको सम्यग्भानु की संतान का वर्णन किया है । मूल देवता की महानता और भगवान के स्वरूप का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। . 1 फिर से, हे श्रेष्ठ ऋषियों, प्रभु की महानता की तेजोमय पूर्णता। मैं इसे सुनना चाहता हूं, तो कृपया मुझे बताएं। . 2 मार्केशेय ने कहा: अब कृपया मुझे सुनें क्योंकि मैं भगवान के मूल सर्वोच्च व्यक्तित्व की महिमा का वर्णन करता हूं । विवस्वान ने अतीत में जो कुछ भी किया, लोगों ने उसकी पूजा की। . 3 दम का पुत्र एक प्रसिद्ध राजा बना जिसने उसके राज्य को बढ़ाया पृथ्वी के राजा ने पृथ्वी की अच्छी देखभाल की . 4 उस महापुरुष ने उस जाति पर धर्म के अनुसार शासन किया हे ब्राह्मण, वह जनसंख्या और धन में दिन-ब-दिन बढ़ता गया। . 5 शेष राज्य बहुत सुखी और समृद्ध था नगर के नगरों और गांवों के सभी नागरिक निडर थे . 6. 6
कोई हमला नहीं है, कोई बीमारी नहीं है, सांप का डर नहीं है।
दामपुत्र के राज्य में वर्षा का भय नहीं था। . 7
उस ने बड़े बड़े यज्ञ किए, और मांगनेवालोंको भेंट दी
सुधारा का विरोध किए बिना, उन्होंने कामुक सुखों का भी आनंद लिया। . 8
जब वह ऐसा कर रहा था, तब प्रजा ने राज्य पर ठीक रीति से शासन किया
एक दिन की तरह सात हजार साल बीत गए। . 9
विदुरथ की बेटी, जो पृथ्वी के दक्षिणी भाग पर राज्य करती थी।
उनकी मानिनी नाम की एक पत्नी थी, जिसे खुद पर गर्व था। . 106.10
एक बार उस सुन्दर भौहें ने अपना सिर सहलाया
जैसे ही शाही परिवार ने देखा, अभिमानी महिला के आंसू छलक पड़े। . 11
जब राजा के शरीर पर आंसू गिरे
फिर, उस अभिमानी महिला को देखकर, जिसका चेहरा आंसुओं से भरा था, उसने उससे पूछा। . 12
उसकी आंखों में आंसू लिए उसे चुपचाप रोता देख
राज्य के प्रवर्तक ने अभिमानी स्त्री से पूछा कि यह क्या है? . 13
जब उसके पति ने पूछा तो कुलीन महिला ने उत्तर दिया
राजा ने उससे फिर पूछा कि क्या उसने कुछ नहीं कहा? . 14
जमींदार ने उससे उसकी खूबसूरत कमर के बारे में कई सवाल किए
(उसने उत्तर दिया "कुछ नहीं"
फिर से गर्वित महिला ने अपना राज्य बढ़ाया राजा ने गर्वित महिला से पूछा "यह क्या है?"
अपने पति द्वारा प्रोत्साहित किया गया कई बार सुंदर महिला
वहां थी . 15
हे राजा, उसके क्रोध का और क्या कारण है, जब वह कहता है, इसे देख
तब राजा मुझ पर हँसे, जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था। . 16
और उस ने हंसकर अपक्की पत्नी से कहा, जो पृय्वी के सब हाकिमोंकी सुनती या।
वहाँ के नागरिक और पृथ्वी के शासक चारों ओर से घिरे हुए थे . 17
हे बड़ी आंखों वाले, तू शोक में नहीं रोना चाहिए, हे शुभ!
जन्म, वृद्धि, परिणाम और अन्य परिवर्तन सभी जीवों में होते हैं। . 18
मैंने सारे वेदों का अध्ययन किया है और हजारों वांछित यज्ञ किए हैं
हे सुन्दरी, मैंने ब्राह्मणों को दान दिया और उन्होंने पुत्रों को जन्म दिया । . 19. 19
मैंने आपके साथ ऐसे सुखों का आनंद लिया है जो नश्वर लोगों के लिए बहुत दुर्लभ हैं।
पृथ्वी को सभ्य बनाए रखा गया और युद्धों में वीरता दिखाई गई . 106.20
दोस्त और साथी हँसे और जंगल में खेले
हे सज्जन महिला, आपने और क्या किया है कि आप उठाए जाने से डरते हैं? . 21
हे सुन्दरी, मेरे बाल बढ़े, और मेरी बालियां बढ़ाई जाएं।
मेरा शरीर शिथिल हो जाए, क्योंकि मैंने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है, हे अभिमानी। . 22
हे सज्जनो, जो कुछ तू ने मुझे मेरे सिर पर दिखाया है, वह मेरे द्वारा उठाया गया है
मैं उसका इलाज सिर्फ इसलिए कर रहा हूं क्योंकि वह जंगल में है। . 23
बचपन में, बचपन की गतिविधियों से पहले और किशोरावस्था में।
अपनी जवानी में वह बुढ़ापे में जंगल में शरण लेने के लिए उपयुक्त थी 24 हे सज्जन महिला जो कुछ भी मेरे पूर्वजों
और तुम्हारे पूर्वजों ने इस तरह किया था
इसलिए मुझे आपके आंसुओं का कोई कारण नहीं दिख रहा है,
हे सज्जन महिला, आपका मुझसे नाराज होना ही काफी है, यह निश्चित रूप से मेरे लिए शुभ है।
उसे बड़ा देखकर व्यर्थ मत रोओ
मारकणेय ने कहा:
तब राजा और नागरिक उन्हें प्रणाम करते हुए उनके पास पहुंचे ।
पृय्वी के हाकिमों ने उस बड़े ऋषि से उसी रीति से राज्य की वृद्धि के विषय में बातें कीं 27
हे मनुष्यों के स्वामी, तेरी पत्नी को इस कारण मत रोना। क्या हम या सभी जीवों
को यहाँ रोना चाहिए हे राजा हमारा जीवन नष्ट हो रहा है जैसे तूने हमें लाड़ किया है 29 हे राजा यदि आप जंगल में जाते हैं तो हम सब चलेंगे तत्पश्चात समस्त पृथ्वी के निवासी निःसंदेह अपनी समस्त गतिविधियों को खो देंगे 106.30 हे स्वामी वन आश्रम में यदि वह धर्म का नाश करने के लिये हो, तो उसे छोड़ दिया जाए 3 1 तू ने इस पृथ्वी पर सात हजार वर्ष तक राज्य किया है हे मनुष्यों के स्वामी उस परम पवित्र स्थान को देखो जो उत्पन्न हुआ है 32 हे महान राजा तुम वन में रहकर तपस्या करेंगे इसलिए वे पृथ्वी पर शासन करने की सोलहवीं कला के योग्य नहीं हैं। 3 राजा ने कहा

मैंने इस पृथ्वी पर सात हजार वर्षों तक शासन किया है।
अब मेरे लिए जंगल में रहने का समय हो गया है 34
मैं ने अपक्की सन्तान उत्पन्न होते और अपक्की सन्तान के वंश को देखा है।
मौत मुझे ऐसे कुछ दिनों में बर्दाश्त नहीं करेगी 35 नागरिकों को पता होना चाहिए कि
उनके सिर पर क्या गिर गया है
वह अज्ञानियों का दूत और मृत्यु का सबसे हिंसक दूत बन गया। . 36
इसलिथे मैं ने राज्य में पुत्र उत्पन्न करके अपक्की भोग-विलास छोड़कर वन में शरण ली।
यम के सैनिक तपस्या करने नहीं आते . 37
मरकनेय ने कहा:
तब वन के स्वामी इयासु, जो वन को जानते थे, वन में गए।
उन्होंने अपने बेटे के राज्याभिषेक की तारीखों के बारे में पूछताछ की। . 38
राजा की बातें सुनकर वे कांप उठे
जिन्होंने शास्त्रों को देखा है, वे दिन, नक्षत्रों और राशिफलों को नहीं जानते हैं। . 39
भविष्यवक्ताओं ने राजा से बात की, जो आँसुओं से घुट गया था।
हे राजा, आपकी ये बातें सुनकर हमारा ज्ञान नष्ट हो गया है। . 106.40
फिर उसने दूसरे शहरों और देशों से सेवकों को भेजा।
वे वहाँ से और उस नगर से बड़ी संख्या में आए . 41
हे ऋषि राजा उठकर वन को गया
सबसे बड़े ब्राह्मणों ने सिर हिलाया और इस प्रकार बोले: . 42
हे राजा, हमारी रक्षा कर, क्योंकि हम पहिले की नाईं सुरक्षित हुए हैं।
हे राजा, जंगल में शरण लिए हुए तेरे कारण सारा संसार संकट में पड़ जाएगा। . 43
हे राजा, ऐसा ही कर, कि जगत हमारे लिये दुख न सहे।
जब तक हम जीवित हैं, हे नायक, हम यहाँ थोड़े समय के लिए हैं। .
हे सर्वशक्तिमान, हम आपके सिंहासन को खाली नहीं देखना चाहते। . 44
मार्केनेय ने कहा: इस प्रकार
ये और अन्य ब्राह्मण नागरिकों के नेतृत्व में बोले।
राजा, सेवक और मंत्री बार-बार राजा को सम्बोधित करते थे। . 45
जब निर्वासन का बंधन समाप्त न हो।
उसने उत्तर दिया कि विध्वंसक उसे माफ नहीं करेगा। . 46
तब मंत्री, राजा, प्रजा के पुरनिये और ब्राह्मण आए
वे एक साथ इकट्ठे हुए और एक साथ परामर्श किया कि उन्हें यहां क्या करना चाहिए। . 47
हे ब्राह्मण, जैसा कि उन्होंने एक साथ परामर्श किया, एक निर्णय पर पहुंचा ।
एक बहुत ही धार्मिक राजा था जो प्रजा से स्नेह करता था। . 48
आइए हम पूर्ण ध्यान में लीन होकर एकाग्रता के साथ प्रार्थना करें।
राजा ने तपस्या करके एक शानदार जीवन व्यतीत किया। . 49
काम में एक ही निश्चय होता है, और कोई घर में धूप में।
उन्होंने उचित गरघा, हवन और अन्य उपहारों के साथ उनकी पूजा की। . 106.50 अन्य लोग
चुप रहे और अन्य ने ऋग्वेद का जाप किया।
फिर उन्होंने सूर्य-देवता को प्रसन्न करने के लिए यजुर्वेद और सामवेद का पाठ किया। . 51
और लोग बिना भोजन के नदी के तट पर पड़े रहे
ब्राह्मणों ने सूर्य देवता की पूजा करने की इच्छा से तपस्या की। . 52
अन्य जो अग्निहोत्र के प्रति समर्पित हैं वे प्रतिदिन सूर्य सूक्त का पाठ करते हैं।
अन्य लोग वहीं खड़े थे, उनकी निगाहें सूर्य पर टिकी थीं। . 53
इस प्रकार सूर्य की उपासना बहुत ही सीमित है।
उन्होंने प्रत्येक विधि का अनुसरण करते हुए कई कार्य किए। . 54
परन्तु वे सूर्य की उपासना करने का यत्न करें
सुदामा नाम का एक गंधर्व उनके पास आया और इस प्रकार बोला। . 55
हे ब्राह्मण यदि तुम सूर्य की उपासना करना चाहते हो तो
सूर्य को प्रसन्न करने के लिए आप जो कुछ भी कर सकते हैं वह करें। . 56
उस स्थान से सिद्धों का निवास गुरुविशाला नामक वन है।
चलो इच्छा के रूप में महान पर्वत पर चलते हैं, और यह वहां थोड़ा सा है। . 57
आओ हम उस स्थान पर बड़े ध्यान से सूर्य की उपासना करें
सिद्धक्षेत्र आपके लिए अच्छा है और आप वहां अपनी सभी इच्छाओं को प्राप्त करेंगे। . 58
मारकणेय ने कहा:
इन शब्दों को सुनकर ब्राह्मण वन में चले गए
वहाँ उन्होंने एक पवित्र और शुभ मंदिर को चमकते हुए देखा . 59
वहाँ, हे ब्राह्मण, वे उसी जाति के थे जो ब्राह्मण थे, जो नियमित रूप से खाते थे।
वे बिना आलस्य के, धूप, फूलों और उपहारों से भरपूर पूजा करते थे। . 106.60
फूल, मलहम, धूप, सुगंध और अन्य प्रसाद।
उन्होंने जप, यज्ञ, भोजन और अन्य पूजा-अर्चना पर ध्यान केंद्रित किया। .
इन अनुष्ठानों को करते हुए, ब्राह्मणों ने भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व, विवस्वान की प्रशंसा की। . 61
ब्राह्मणों ने कहा
: देवताओं, राक्षसों, यक्षों, ग्रहों और प्रकाशकों के बीच,
हम सूर्य की शरण लेते हैं, जिस देवता का तेज हमारे से अधिक है।62।

देवताओं का यहोवा चारों ओर से चमकते हुए आकाश में विराजमान था।
मिर्च ने पृथ्वी और अंतरिक्ष को ढँक दिया। . 63
सूर्य सूर्य देवता है, और सूर्य देवता सूर्य देवता है।
सूर्य देवता, पूणा, आकाश में तेज चमक रहे थे। . 64
चार युगों के अंत में समय की आग अदृश्य है और विनाश के अंत में है
योगियों के भगवान अनंत हैं और लाल, पीले, सफेद और काले रंग के हैं। . 65 यह
ऋषियों के यज्ञ और देवताओं में स्थित है
हम अचूक भगवान की शरण लेते हैं, जो सभी तेज का स्रोत हैं। .
अविनाशी परम रहस्य और मुक्ति का सर्वोच्च द्वार है। . 66
छंदों में एक बार घोड़े के रूप में पक्षी की रचना की गई है
सूर्योदय और सूर्यास्त के समय मेरु पर्वत की परिक्रमा करना हमेशा उचित होता है . 67
विभिन्न प्रकार के पवित्र स्थान हैं, अर्थात् असत्य और सत्य।
हमने ब्रह्मांड के प्रकाश और उसके विचारों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। . 68
वह जो ब्रह्मा हैं, जो महादेव हैं, जो विष्णु हैं, जो रचयिता हैं।
वायु, आकाश, जल, पृथ्वी, पर्वत और महासागर। . 69
ग्रह, तारे, चंद्रमा, आदि पौधे, पेड़ और जड़ी-बूटियाँ हैं।
वह प्रकट और अव्यक्त प्राणियों में धर्म और अधर्म के प्रवर्तक हैं। . 106.70
ब्रह्मा, माहेश्वरी और वैष्णव आपके शरीर हैं।
त्रिगुणी रूप वाला सूर्य सूर्य के तेज से प्रसन्न हो। . 71 ब्रह्मांड का स्वामी,
जिसका सर्वव्यापी शरीर उसी का अंश है।
वह, जो ब्रह्मांड का प्रकाश और ब्रह्मांड का जीवन है, हम पर प्रसन्न रहें। . 72
जिसका एक अक्षर रूप दीप्ति के क्षेत्र में अदृश्य है
दूसरा चंद्रमा, कोमल चंद्रमा, हम पर प्रसन्न हो, उज्ज्वल रूप से चमक रहा हो। . 73
और उन्हीं के इन दो रूपों से इस ब्रह्मांड की रचना हुई।
अग्नि और यज्ञ के दीप्तिमान देवता हम पर प्रसन्न हों। . 74
मार्केय ने कहा:
इस प्रकार भक्ति के साथ भगवान की स्तुति करने के बाद, पूर्ण पूजा के निर्धारित अनुष्ठानों के अनुसार,
हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, तीन महीने के बाद भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व, भास्वन संतुष्ट थे। . 75
तब वह अपनी मूरत के समान चमकते हुए घेरे में से उठा।
सूरज उतरा और उन्हें एक अदृश्य दृष्टि दी। . 76
तब लोगों ने अजन्मे सूर्य को उसके स्पष्ट रूप में देखा
जिन ब्राह्मणों की भौहें कांप रही थीं, वे नम्रता और भक्ति से नतमस्तक हुए। . 77
हे हजार किरणों वाले, आप सभी चीजों के कारण हैं, और आप अनंत तारा हैं।
आप रक्षक, पूज्य और सभी यज्ञों के केंद्र हैं। कृपया उन पर दया करें जो रहस्यवादी शक्तियों को जानते हैं। . 78
यह श्री मारकनेय पुराण में भानुस्तव का 160वां अध्याय है। 106.
107 अध्याय 107
भानु मार्केशेय की महानता का वर्णन
शिव
ने कहा
:
हे ब्राह्मणों और अन्य, कृपया जो कुछ भी आप मुझसे प्राप्त करना चाहते हैं उसे चुनें। . 1
मारकणेय ने कहा:
तब ब्राह्मण, क्षत्रिय और अन्य लोग झुके और इस प्रकार बोले।
उसने अपने सामने खड़े ठंडे सूरज को सदमे से देखा। . 2
लोगों ने कहा
, हे यहोवा, यदि तू हमारी भक्ति से प्रसन्न है, तो अन्धकार को दूर कर। . 3
तब, हे राजा, हम दस हजार वर्ष जीवित रहें।
वह स्वस्थ है, शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुका है, उसकी कोशिका अच्छी है और वह युवावस्था में स्थिर है। . 4
मार्केशेय ने कहा: हे महान ऋषि,
ऐसा कहकर, भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व लोगों के लिए अदृश्य हो गए।
वे भी वरदान पाकर प्रसन्न हुए और प्रजा के यहोवा की सभा में लौट आए। . 5
और उन्होंने जो कुछ हुआ था वह सब राजा को बता दिया।
वरदान प्राप्त करने के बाद, ब्राह्मण ने उन्हें पूरे उपहार का एक हजारवां हिस्सा दिया। . 6
हे ब्राह्मण उसकी अभिमानी पत्नी यह सुनकर प्रसन्न हुई
(वह परम आनंद में चली गई, उसका शरीर खुशी से उठ गया)। .
राजा ने इस बारे में बहुत देर तक सोचा और लोगों से कुछ नहीं कहा . 7
तब अभिमानी महिला खुशी से भरकर राजा के पास पहुंची
सौभाग्य से, हे राजा, क्या आप जीवन में बड़े हो सकते हैं, उसने अपने पति से कहा। . 8
और उस ने अपके पति का आदर करके प्रसन्नतापूर्वक उसका आदर किया।
मैं कुछ भी नहीं हूँ, हे राजा, क्योंकि मैं चिंतित और सुस्त हूँ, हे ब्राह्मण । . 9
उसने अपने पति से फिर बात की, जो नीचे देख रहा था।
हे राजा, आप अपनी परम समृद्धि में आनन्दित क्यों नहीं होते? . 107.10
दस हजार साल का नीलापन और स्थिर यौवन
आप आज से भविष्य में होने वाले हैं, लेकिन फिर भी आप आनन्दित क्यों नहीं होते? . 11
परन्तु मुझे इसका कारण बताओ कि तुम्हारा मन चिन्ता से क्यों भरा हुआ है
हे पृथ्वी के स्वामी, आपने सर्वोच्च समृद्धि भी प्राप्त कर ली है। . 12
राजा
ने कहा, हे मेरी नम्र स्त्री, तू कैसे सफल हुआ है, और क्यों मेरा आदर कर रहा है?
हजारों दुखों को प्राप्त करने का गौरव क्या है? . 13
मैं दस हजार वर्ष तक अकेला रहूंगा
आप अपनी परेशानी में नहीं हैं, और मैं परेशानी में नहीं जा रहा हूं। . 14
उसके बेटे, पोते, परपोते और अन्य अवांछित रिश्तेदार थे।
जब मैं मरे हुओं को देखूंगा तो क्या थोड़ा दर्द होगा? . 15
उन सेवकों में जो उसके बहुत समर्पित हैं, और उन मित्रों में जो मर गए हैं
हे सज्जन महिला, मैं हमेशा बड़े संकट में रहूंगा। . 16
जिन्होंने मेरे निमित्त पतली रक्तवाहिनियों से कठोर तपस्या की है
वे मर जाएंगे, और मैं, भोक्ता, जीवित रहूंगा, लानत है। . 17
यह मेरी अब तक की सबसे अच्छी सवारी है, और मैं उठ नहीं सका।
तुम कैसे नहीं सोचते कि तुम आज मेरा सम्मान कर रहे हो? . 18
घमण्डी
ने कहा, हे महान् राजा, इसमें कोई सन्देह नहीं, कि जैसा तू ने कहा है, वैसा ही है।
मैंने और देशवासियों ने आपके इस दोष को मजे से नहीं देखा। . 19
हे मनुष्यों के स्वामी, अब जब कि तू ऐसा ही चला गया है, तो विचार कर, कि तुझे यहां क्या करना चाहिए।
भविष्य में और कुछ नहीं था कि भगवान, सूर्य-देवता, ने दो प्रसन्न लोगों से बात की थी। . 107.20
राजा ने कहा, नगर के
लोगों और दासों ने मुझ पर प्रीति से जो करूणा की है, वह मुझ पर प्रगट की है
जब उन्हें क्षमा नहीं किया जाता है तो मैं जीवन के सुखों का आनंद कैसे ले सकता हूँ? . 21
आज से मैं निश्चिन्त होकर पहाड़ पर जाऊंगा
(मैं विश्व के नागरिकों के कल्याण के लिए सूर्य-देवता को प्रसन्न करूंगा, जैसे
मेरे लिए देवताओं के
स्वामी की पूजा करने से सभी पक्षों के नागरिक और रिश्तेदार प्रसन्न होते हैं) .
उन्होंने तपस्या के लिए उपवास किया और सूर्य-देवता की पूजा करना शुरू कर दिया। . 22
दस हजार साल क्योंकि मैं एक स्थिर युवा हूं।
उस प्रभु की कृपा से मैं अच्छे स्वास्थ्य में रहूंगा . 23
और यदि सब लोग मेरे दास हों, तो तू और मेरी सन्तान।
मेरे पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और मित्र, हे सुन्दरी। . 24
वे जीवित हैं, और यहोवा उन पर अनुग्रह करता है।
तब मैं राज्य में रहूंगा और सभी सुखों और सुखों का आनंद लूंगा . 25
यदि सूर्य ऐसा न करे, तो हे अभिमानी, पहाड़ हैं।
मैं जीवन के अंत तक तपस्या और उपवास करूंगा। . 26
मार्कंडेय ने कहा
जब उसे यह बताया गया, तो उसने राजा से कहा, "ऐसा ही हो।"
वह उसके साथ जमीन पर चली गई। . 27
तब राजा और उसकी पत्नी मन्दिर को गए
उनकी सेवा में लगे ब्राह्मण ने सूर्य देव की पूजा की। . 28
वह पृय्वी के राजा के समान भूखी और दुबली थी।
उसने भी कठोर तपस्या की और ठंड, हवा और गर्मी का सामना करने में सक्षम थी। . 29
उसने सूर्य की उपासना की और बड़ी तपस्या की।
सूर्य वर्ष बीतने से प्रसन्न था। . 107.30
सभी सेवकों, नागरिकों और अन्य पुत्रों के लिए, हे ब्राह्मण।
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, उसने उसे वह वरदान दिया जो उसने चाहा था। . 31
वरदान पाकर राजा अपने नगर को लौट गया
उसने राज्य पर खुशी-खुशी शासन किया और अपनी प्रजा पर धार्मिकता के अनुसार शासन किया। . 32
उस ने बहुत से यज्ञ किए और प्रति दिन दान किया
धर्मी राजा ने अपनी अभिमानी पत्नी के साथ सुख भोगा। . 33
अपने पुत्रों और पौत्रों समेत दस हजार वर्ष।
अपने नौकरों और पोते-पोतियों द्वारा आनंदित होकर वह एक स्थिर युवा बन गया . 34
भौगु वंश के प्रमति नाम के एक पुत्र ने उस स्त्री का चरित्र देखा
उसका हृदय आश्चर्य से भर गया और उसने यह कहानी गाई। . 35
ओह, सूर्य की भक्ति की शक्ति, जो राजा के राज्य को बढ़ाती है।
उनका जन्म अपने रिश्तेदारों और खुद के जीवन काल को बढ़ाने के लिए हुआ था। . 36
हे ब्राह्मण, जो कुछ तूने मुझ से पूछा है, उसका वर्णन मैंने इस प्रकार किया है ।
मूल देवता, सूर्य-देवता, विवस्वान की महानता । . 37
हे ब्राह्मण, यह सब सुनकर, उन्होंने सूर्य की उत्कृष्ट महिमा की व्याख्या की।
इस मंत्र का जाप करने वाला व्यक्ति सात रातों के पापों से मुक्त हो जाता है . 38 वह
बुद्धिमानों के एक बड़े परिवार में स्वस्थ, धनी और धनवान है।
जो इस पर ध्यान करता है वह एक महान बुद्धिजीवी पैदा होता है . 39
(हे श्रेष्ठ तपस्वियों जो महान यज्ञ करता है और जिसने अपने वरदानों और उपहारों को पूरा कर लिया है , उसे भास्वता
के चरित्र और यहां वर्णित मंत्रों को सुनकर वही पुरस्कार प्राप्त होता है )

इन मंत्रों में से प्रत्येक का तीन शाम तक पाठ करने से पापों का नाश होता है। . 107.40 यह सब
उस स्थान की महानता है जहां सूर्य मंदिर में है।
जब कोई इसे पढ़ता है, तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान अपनी उपस्थिति नहीं छोड़ते हैं। . 41 इसलिए,
हे ब्राह्मण, आपने सूर्य की महानता की व्याख्या की है ।
इसे ध्यान में रखना चाहिए और महान पुण्य की इच्छा रखने वाले को इसका जाप करना चाहिए। . 42
जो सोने के सींग वाली गाय, और अति सुन्दर शरीर और दूध देनेवाली गाय देता है
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों, इस मंत्र को तीन दिनों तक सुनने वाला आत्म-संयमी व्यक्ति दोनों को समान रूप से पुरस्कृत करता है। . 43
यह श्रीमारकनेय पुराण का 177वां अध्याय है, जिसका शीर्षक है सूर्य की महानता का वर्णन। 107.
108
अध्याय 108 राजवंश का वर्णन मार्केय
ने कहा
: सूर्य-देव, जो नित्य अमर हैं, इस प्रकार शक्तिशाली हैं। आप श्रद्धापूर्वक मगरमच्छ में भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की महानता के बारे में पूछताछ कर रहे हैं। . 1 परमात्मा उन योगियों के मन का विलय है जो उसमें लगे हुए हैं।

वह क्षेत्र का ज्ञाता, सांख्य-योगों के यज्ञों का स्वामी और यज्ञ करने वालों का स्वामी है। . 2
वेधासा, विष्णु के स्वामी, जो सूर्य पर अधिकार रखते हैं।
उनका मनु नाम का एक पुत्र था, जिसकी सारी संपत्ति के बारे में संदेह दूर हो गया था . 3
सातवें मन्वंतर, ब्राह्मण, मन्वन्तरों के राजा हैं ।
इक्ष्वाकु, नभग, रिश्ता, बहुत बलवान और पराक्रमी थे। . 4
नरिष्यंत, नाभाग, पादध्र और धृत ।
मनु के ये पुत्र उसके पृथक राज्य के संरक्षक थे। . 5
वे सब के सब नामी थे और शस्त्र चलाने में कुशल थे
मनु एक और विशिष्ट पुत्र वगैरह चाहते थे। . 6
श्रेष्ठ कर्मों ने मित्र और वरुण का यज्ञ किया।
हे महान ऋषि, जब अग्नि में धनुष चढ़ाया जाता है, तो पुजारी अनुष्ठान करता है। . 7
मनु की इला नाम की एक पुत्री थी, जो सुन्दर कमर की थी।
तब मनु ने वहां जन्मी कन्या को देखा। . 8
उसने मित्र और वरुण की स्तुति की और ये बातें कहीं।
आपकी कृपा से मेरा एक विशेष पुत्र होगा। . 9
मेरे बुद्धिमान पुत्र की पुत्री उस यज्ञ में उत्पन्न हुई थी
यदि आप उपहारों से प्रसन्न हैं, तो यह मेरी बेटी है। . 108.10 आपकी कृपा
से आपका पुत्र अनेक गुणों से संपन्न हो
जब दो देवताओं ने ऐसा कहा, तो बेटी वही हो गई। . 11
इला का जन्म हुआ और वह तुरन्त सुद्युम्न के नाम से विख्यात हो गया।
फिर से, भगवान के क्रोध में, वह जंगल में शिकार करने के लिए भटक गया। . 12
मनु के बुद्धिमान पुत्र ने स्त्रीत्व प्राप्त किया
उस नगर का नाम पुरुरवासा था, और वह बहुत शक्तिशाली था। . 13
उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसमें चन्द्रमा के पुत्र बुध का जन्म हुआ।
जब उनके पुत्र का जन्म हुआ, तो उन्होंने फिर से घोड़े का महान बलिदान किया। . 14
सुद्युम्न पुरुषत्व प्राप्त कर राजा बना।
सुद्युम्न के तीन पुत्र उत्कल, विनय और गया थे। . 15
वे अपने पुरुषत्व में बहुत शक्तिशाली थे और बहुत शक्तिशाली थे।
राजा के तीन पुत्र थे जो उसके एक पुरुष के रूप में उत्पन्न हुए . 16
उन्होंने धर्म में मन लगाकर इस धरती का आनंद लिया।
राजा का पुत्र जो स्त्री हुआ, वह पुरिरवा था। . 17
उसे महान भाग्य नहीं मिला क्योंकि वह बुध का पुत्र था
तब वशिष्ठ के कहने पर श्रेष्ठ नगरों की स्थापना हुई। .
वह उसे दिया गया और वह बहुत ही सुन्दर स्थान पर राजा बना। . 18
वंश-अनुक्रम नामक श्रीमारकणेय पुराण का यह 180वां अध्याय है। 108.
109 अध्याय 109
PRISHADHRAH
मार्केशेय की कहानी में
कहा गया है:
मनु का एक पुत्र पूधरा नाम का एक जंगल में शिकार करने के लिए गया था।
वहाँ वह एक सुनसान जंगल में घूमता रहा। . 1 वह
किसी मृग के पास न पहुंचा, जो सूर्य की किरणों से तड़प रहा था।
वह जगह-जगह भटकता रहा, उसका शरीर भूख, प्यास और गर्मी से तड़प उठा। . 2
तब उस ने वहां एक सुन्दर बलि की गाय देखी
अग्नि में यज्ञ करने वाले ब्राह्मण के शरीर को एक लता द्वारा आधा काट दिया गया था। . 3. 3
यह सोचकर कि वह गाय है, उसने उसे तीर से मारा।
वह भूमि पर गिर पड़ी, उसका हृदय तीर से छेदा गया। . 4 तब
अग्निहोत्री का पुत्र आया, जो ब्रह्मचारी और तपस्वी था।
जब उसने बलि की गाय को नीचे फेंका देखा तो उसने अपने पिता को श्राप दे दिया। . 5
चरवाहे ने बाभ्रव्य नाम के एक पुत्र को भेजा।
हे ऋषि, तब मन क्रोध और आक्रोश के अधीन हो जाता है। . 6 वह क्रोधित था,
उसकी आंखें पिघलते पसीने से लुढ़क रही थीं।
राजा पादद्र ने ऋषि के पुत्र को क्रोधित देखा . 7
कृपया मुझ पर प्रसन्न हो, उसने कहा, “तू शूद्र के समान क्रोधित क्यों है?
न कोई क्षत्रिय और न ही वैश्य इतना क्रोधित हो सकता है। .
जैसे आप ब्राह्मण के एक प्रतिष्ठित परिवार में एक शूद्र के रूप में पैदा हुए थे . 8
मार्केय ने कहा:
जब राजा ने उसे इस प्रकार डांटा, तो मौलीना का पुत्र उसका पुत्र हुआ।
उसने दुष्ट व्यक्ति को श्राप दिया, "तुम शूद्र बन जाओगे।" . 9
हे ब्राह्मण, जो कुछ तुमने अपने आध्यात्मिक गुरु के मुख से सीखा है, वह तुम्हें नष्ट करने का प्रयास करेगा ।
अगर आपने मेरे आध्यात्मिक गुरु की इस बलि गाय को मार डाला है . 109.10
इस प्रकार शापित राजा क्रोधित हो गया और शाप से तड़प उठा
श्राप का मुकाबला करने के लिए दृढ़ संकल्पित ब्राह्मण ने पानी अपने हाथ में ले लिया। . 11
श्रेष्ठ ब्राह्मण भी राजा के विनाश पर क्रोधित हो गए
उसके पिता आनन-फानन में उसके पास पहुंचे और उसे रोक लिया। . 12
बछड़ा बड़े क्रोध और बड़े बैर से गन्दा था।
ब्राह्मणों के लिए, शांति सांसारिक और आध्यात्मिक का कल्याण है। . 13
क्रोध से तपस्या का नाश होता है और क्रोधी व्यक्ति की जान चली जाती है
जब क्रोधी व्यक्ति गलत होता है तो वह अपना ज्ञान खो देता है और उसका क्रोध अपना अर्थ खो देता है . 14
जो क्रोधित है उसके लिए कोई धर्म नहीं है, और क्रोध उपयोगी नहीं है
जिनका मन क्रोध से भरा होता है, उनके लिए सुख की कोई इच्छा नहीं होती। . 15
यदि राजा इस गाय को किसी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा मार डाले तो
अपने कल्याण को समझने वाले पर दया करना उचित है। . 16
या शायद मुझे नहीं पता था कि इस गाय को प्रताड़ित किया जा रहा है।
तो यह आदमी शापित होने के योग्य कैसे हो सकता है, क्योंकि उसके पास कोई बुरा दिमाग नहीं है? . 17
जो अपना भला चाहता है, वह दूसरे को सताता है।
दयालु को अपने ज्ञान में मूर्खों पर दया करनी चाहिए। . 18
यदि बुद्धिमान अज्ञानता का दण्ड छोड़ दें।
मुझे लगता है कि अज्ञानी लोग बुद्धिमानों से बेहतर होते हैं . 19
हे मेरे पुत्र, आज तू इस पृथ्वी को शाप न देना।
यह गाय अपने ही कार्यों से नीचे गिर गई और दर्दनाक मौत हो गई। . 109.20
मारकणेय ने कहा कि
पादद्र ने भी अपने कंधों को झुकाकर ऋषि के पुत्र को नमन किया।
वह ऊँची आवाज़ में चिल्लाया 'कृपया मुझ पर कृपा करें ' और
'मैंने तुम्हें अज्ञानता से मार डाला है'
हे ऋषि आप अपने अज्ञान के कारण बलिदान की गाय हैं, कृपया हम पर दया
करें हे परम सौभाग्यशाली मैं आज क्रोधित हूँ अन्यथा कभी नहीं


इसलिए मैं उसे राजा के अलावा अन्य शाप नहीं दे सकता।
दूसरा श्राप जो
तुम पर पड़ने वाला था, वापस ले लिया गया है 24 तब पिता ने बालक को ले लिया
वह अपने आश्रम में गया और पादद्र भी शूद्र
बन गया। 1 09.
110 अध्याय 110
नाभग
मरकजेय की कहानी का वर्णन में
कहा गया है:
करुणा के पुत्र थे जो बहादुर क्षत्रिय थे।
वे सात सौ नायक और हजारों अन्य थे 1
दिष्ट का पुत्र नभग अपनी पहली युवावस्था में ही रहा।
उन्होंने एक वैश्य की एक बहुत ही सुंदर बेटी को देखा 2
उसे देखते ही उसका मन जोश से भर गया
राजा के बेटे को सांस लेने का जुनून सवार हो गया 3
उसने जनक के पास जाकर एक वैश्य की बेटी से शादी कर ली
तब राजकुमार, जिसका मन अनंग के वश में था, . 4
तब उसके पिता ने हाथ जोड़कर राजकुमार को सम्बोधित किया
हे ब्राह्मण, उसके पिता, जो भयभीत थे, नम्रता और विनम्रता से बोले। . 5
तुम जमींदार और दास हो, और हम तुम्हारे करदाता हैं।
आप हमारे साथ कैसे संबंध बनाना चाहते हैं जो असमान हैं? . 6
राजकुमार ने कहा:
मानव शरीर की समानता वासना, मोह और अन्य कारकों के कारण होती है।
फिर भी, समय के साथ, वे वही हैं जो मानव रूप धारण करते हैं। . 7
उसी तरह, वे उसके लाभ के लिए पैदा हुए हैं।
अन्य लोग गुणी लोगों की विभिन्न जातियों में रहते हैं। . 8
इसी प्रकार अन्य वस्तुएं जो योग्य नहीं हैं, समय के साथ योग्य हो जाती हैं।
योग्य अयोग्य बन जाते हैं, क्योंकि योग्यता समय के अधीन है। . 9
वह जो शरीर की अभिलाषाओं से पोषित होता है, जैसे भोजन।
समय जानने के बाद उस तरह से जो भी खाया जाता है उसमें डाला जाता है। . 110.10 इस प्रकार
, कृपया मुझे यह पुत्री दे जो मैंने चुनी है।
नहीं तो मेरा शरीर संकट में पड़ जाएगा। . 11
वैश्य ने कहा:
हम दूसरों से स्वतंत्र हैं, और आप दूसरों से स्वतंत्र हैं, हे पृथ्वी के स्वामी।
अपने पिता की अनुमति से, कृपया इसे स्वीकार करें और मैं इसे आपको दूंगा। . 12
हाकिम ने कहा,
जो अपके गुरुओं का अनुसरण करते हैं, वे सब बातोंमें अपने गुरुओंसे परामर्श करें।
ऐसी निष्क्रियता में शिक्षकों के शब्द स्पष्ट नहीं हैं। . 13
जोशीला वार्तालाप कहाँ है, और शिक्षकों की सुनना कहाँ है?
इसके विपरीत पुरुषों को अपने आध्यात्मिक गुरुओं से कहीं और पूछना चाहिए। . 14 वैश्य
ने कहा, मैं ने तुम्हारा यह स्मरण इस प्रकार सुनाया है, और अपने गुरु से मत पूछो। मैं आपसे पूछता हूं, क्या बातचीत मेरी वासनापूर्ण बातचीत पर आधारित नहीं है? . 15 मारकण्य ने कहा: इस प्रकार संबोधित करते हुए राजकुमार चुप हो गया और वह भी उसने अपने पिता को वह सब कुछ बताया जो राजकुमार ने सोचा था। . 16 तब उसके पिता ने शुक और अन्य उत्कृष्ट ब्राह्मणों को नियुक्त किया






वह राजकुमार को अंदर ले आई और उसे सारी कहानी सुनाई। . 17
फिर उस ने यह बताकर उस ऋषि से जो इस प्रकार ठहरा हुआ था, कहा।
सबसे अच्छे ब्राह्मणों को आपको निर्देश देना चाहिए कि आपको क्या करना चाहिए। . 18
ऋषियों ने कहा
: यदि आप राजकुमार से जुड़े हुए हैं, तो आप वैश्य के वंशज हैं।
यह सही है, लेकिन यह न्याय का क्रम है। . 19
पहिले एक पर्व होता था, कि जिस पुत्र के सिर पर अभिषेक किया गया था, उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया जाता था
और आपका काम हो जाने के बाद, वह आपकी पत्नी होगी। . 110.20
इस प्रकार इस भोजन को उसी तरह खाने में कुछ भी गलत नहीं है
नहीं तो तुम्हारी जाति बच्चे पैदा करने की जाति से श्रेष्ठ होगी। . 21
मारकणेय ने कहा: जब उन्होंने ऐसा कहा, तो
ऐसा लगा कि वे महान ऋषियों के वचनों को दूर कर रहे हैं ।
उसने बाहर आकर उसे पकड़ लिया, और जब वह अपनी तलवार उठा रही थी, तब उस ने उस से बातें कीं। . 22
मैं ने वैश्य की कन्या का अपहरण दैत्य से विवाह करके किया है
जिसके पास यहां शक्ति है, उसे छोड़ दें। . 23
तब वैश्य ने उसे देखा और जल्दी से अपनी बेटी को ले गया।
ब्राह्मण ने अपने पिता को पुकारा, "कृपया मुझे बचाओ!" और शरण के लिए उनके पास गया। . 24
तब उसके पिता ने क्रोधित होकर एक बड़ी सेना को आज्ञा दी
उसे मार डालो, उसे मार डालो, दुष्ट नाभाग, धर्म के बिगाड़ने वाले। . 25
तब राजा की सेना राजा के पुत्र से लड़ी।
दानव द्वारा इस्तेमाल किया गया हथियार बहुतायत में गिर गया . 26
जब राजा ने सुना कि सेना को राजकुमार ने मार डाला है
अपनी सेना से घिरे हुए वह स्वयं युद्ध करने गया . 27
तब राजा और उसके पुत्र के बीच लड़ाई हुई
वहाँ पिता को राजकुमार ने शस्त्रों से वश में कर लिया . 28
तभी अचानक परिव्रत ऋषि आकाश से नीचे उतर आए
उसने राजा को उत्तर दिया, "लड़ना बंद करो।" . 29 हे परम सौभाग्यशाली, यह
तेरे पुत्र महान आत्मा का अधर्म है।
आपको भी वैश्य से नहीं लड़ना चाहिए, जैसा धर्मी है, हे राजा। . 110.30

अतीत में एक ब्राह्मण ने एक ब्राह्मण महिला से विवाह किया
ब्राह्मण होने से सभी जातियों के किसी को भी नुकसान नहीं होता है . 31
इसी प्रकार एक क्षत्रिय ने पूर्व में एक क्षत्रिय की पुत्री से विवाह किया।
तब, हे राजा, अन्य लोग अपने स्वयं के धार्मिक कर्तव्यों से विचलित नहीं होते हैं। . 32
पहले वे वैश्य थे और बाद में एक शूद्र परिवार में पैदा हुई एक वेश्या
न्याय के आदेश से वैश्य परिवार और अन्य लोग कमतर नहीं हैं। . 33
__________________
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य एक ही जाति के हाथों का संग्रह हैं।
हे राजा, यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे दूसरों के हाथों में पड़ जाते हैं। . 34
जब कभी उसे किसी वस्तु से वंचित किया जाता है, तब वह हाथ जोड़े रहती है
वर्णों के संयोजन के बिना, वह भी उस वर्ण का हिस्सा बन जाता है। . 35
यह तेरा पुत्र है जो वैश्य हो गया है और बहुत धीमी बुद्धि का है
उसे आपसे लड़ने का कोई अधिकार नहीं है, एक क्षत्रिय। . 36
हे राजा के सन्तान, हम इसका कारण नहीं जानते।
और जैसा होगा, लड़ना बंद करो। . 37
यह श्री मारकशेय पुराण में वंश का वर्णन करते हुए नाभाग-अख्यान का 110 वां अध्याय है। 110.