बुधवार, 4 जनवरी 2023

सैय्यतन-


"त्रित और त्रैतन का इतिहास"

    🐞🌸त्रित और त्रैतन 🌸🐞

हिब्रू भाषा में शब्द (לְשָׂטָ֣ן) (शैतान) अथवा सैतन  (שָׂטָן ) का अरबी भाषा में शय्यतन (شيطان‎ ) रूपान्तरण है । जो कि प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में त्रैतन तथा अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन के रूप में है । परन्तु अर्वाचीन पहलवी , तथा फारसी भाषाओं में यह "थ्रएतओन शब्द "शय्यतन या सेहतन के रूप में विकसित हो गया है । यही शब्द ग्रीक पुरातन कथाओं में त्रिटोन है । और सिरिया की संस्कृति में सय्यतन है ।आज विचार करते हैं इसके प्रारम्भिक व परिवर्तित सन्दर्भों पर---
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त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट है ।

त्रैतनु त्रीणि तनूनि यस्य स: इति त्रैतनु
अर्थात् तीन शरीर हैं जिसके वह त्रैतन है ।

परन्तु यह शब्द आरमेनियन , असीरियन आदि सेमैेटिक भाषाओं में भी अपने पौराणिक रूपों विद्यमान है जैसा कि पूर्व वर्णित किया गया ।
यह शय्यतन अथवा शैतान शब्द मानव संस्कृतियों की उस एक रूपता को अभिव्यञ्जित करता है ;
जो प्रकाशित करती है ; कि प्रारम्भिक दौर में संस्कृतियाँ  समान थीं ; और सेमैेटिक, हैमेटिक , ईरानी तथा यूनानी और भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायी कभी एक स्थान पर  ही  सम्पर्क में आये हुए थे ।
शैतान शब्द आज अपने जिस अर्थमूलक एवं वर्णमूलक रूप में विन्यस्त है ।
वह निश्चित रूप से इसका बहुत बाद का परिवर्तित रूप है ।  
           🌸--- वेदों में त्रैतन के रूप में ---🌸
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शैतान शब्द ऋग्वेद में त्रैतन के रूप में है ;
जो ईरानी ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द में थ्रेतॉन (Traetaona) के रूप में प्रतिरूपित हुआ है ;
और परवर्ती फ़ारसी ,पहलवी या पार्थेनियन आदि में यह शब्द"सेहतान अथवा शैतान रूप में परिवर्तित हो गया है ।"क्यों कि ? भाषाई प्रवृत्ति के अनुसार कुछ परिवर्तन स्वाभाविक ही हैं।"त्रि " तीन का वाचक संस्कृत शब्द फारसी में "सिह" के रूप में है ।

जैसे संस्कृत त्रितार वाद्य यन्त्र को फारसी भाषा में  सितार कहा जाता है । इसी  भाषायी पद्धति से वैदिक शब्द  त्रैतन - सैतन और सैतान के रूप में परिवर्तित हो जाता है ।____________________________________

"सितार शब्द की व्युपत्ति के समान इस शब्द की व्युत्पत्ति पर भी वैचारिक साम्य परिलक्षित है।
जैसे हिन्दी भाषा में  सितार ( Sitar ) / उर्दू में  ستار ( sitār ) के रूप से सम्बन्धित है । अथवा शैतान  फारसी भाषा के  سهتار ( se-târ) सि -तार) रूप से साम्य है  जिसका शाब्दिक अर्थ है ; " तीन -तार " ) वस्तुत यह तीन ही तारों से बना हुआ वाद्य-यन्त्र है ।

व्युत्पत्ति और इतिहास सन्दर्भ में इतना तो सर्व विदित है- कि दारा प्रथम के समय ईरानी संस्कृति में गायन वादन था । और सि-तार भी ई०पू० 400 के समकक्ष निर्मित है सितार नाम फारसी भाषा से आता है। जो संस्कृत के त्रितार का प्रतिरूप है । "त्रि" संख्या वाचक शब्द फ़ारसी (Persian) में-سه  (se) तीन है । अर्थात तीन तार का एक वाद्य यन्त्र (sehtar)- सेहतार- संस्कृत रूप त्रितार- इसी के सादृश्य पर बना है अत: त्रैतन से शेैय्यतन शब्द स्वत:सिद्ध ही है-

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अरबी भाषा अक्सर हिब्रू से सम्बद्ध रही है । यहाँ तक कि अरब की हजरत मौहम्मद साहब के द्वारा मज़हबी विचार धारा भी यहूदी परम्पराओं से प्रभावित और उसकी उपजीव्य- हैं। और शैतान अथवा सय्यतन पात्रों की परिकल्पना भी अरबी में यहूदी परम्पराओं से नि:सृत है।  जबकि कुछ पूर्वाग्रहवादी इस्लामिक आलिमों ने  व्युपत्ति के दृष्टि कोण से यह शब्द  (स्यत् )-किया - मूल से व्युत्पन्न माना है। जबकि ये शब्द हिब्रू भाषा का है। परन्तु इस्लामिक विद्वान् अपने ही मत पर अडिग हैं। और उनके द्वारा अक्सर इसी  धातु ( मूल) से आने के रूप में शय्यतन शब्द की व्याख्या की जाती है। ش ي ط ( š-y-ṭ ) धातु का अर्थ है " जला देना , छिड़कना " और ان ( -ān ) प्रत्यय है । अर्थात् शय्यतन का अर्थ है:-अग्नि  से जला देने वाला 

यद्यपि शैतान शब्द अरबी मूल का कदापि नहीं है परन्तु फिर भी अरबी भाषा के आलिम जो इसकी व्युत्पत्ति अरबी भाषा से दर्शाते हैं उनके अनुसार इसकी व्युत्पत्ति विवरण इस प्रकार है। एक नजर उस पर भी-

"मूल शब्द-

ش ي ط  ( š-y-ṭ )

  1. जलाना से संबंधित शब्द बनते हैं

 "सय्यतन शब्द की व्युत्पत्ति- 

हिब्रू ग्रन्थों की ऐतिहासिक प्राथमिकता को देखते हुए, जिसमें शब्द प्रासंगिकता भी है, यह सम्भव है कि अरबी शब्द बहुतायत से हिब्रू शब्दों की ही पुनरावृत्ति हैं ।

शास्त्रीय सिरिएक (सीरियायी) भाषा के साथ संज्ञानात्मक रूप में  sܢܐ ( साईंना) सैतान का वाचक है।

यहूदी धर्म में, शैतान को भगवान के अधीन एक नुमाइन्दे के रूप में देखा जाता है।
जिसे आमतौर पर एक गिरे हुए (पतित) देवदूत या जिन्न के रूप में देखा जाता है।
कुरान में, शैतान, जिसे इब्लिस के नाम से भी जाना जाता है, आग से बनी एक इकाई है।
हा-शैतान ("शैतान") के रूप में जाना जाने वाला एक व्यक्ति पहली बार हिब्रू बाइबिल में एक स्वर्गीय अभियोजक के रूप में प्रकट होता है। जो यहोवा (परमेश्वर) के अधीनस्थ है, जो स्वर्गीय अदालत में यहूदा राष्ट्र पर मुकदमा चलाता है और यहोवा के अनुयायियों की वफादारी का परीक्षण करता है। हालांकि उत्पत्ति की पुस्तक (बाइबिल के जेनेसिस खण्ड) उसका उल्लेख नहीं करती है, ईसाई अक्सर अदन के बगीचे में साँप की पहचान शैतान के रूप में करते हैं।
रहस्योद्घाटन की पुस्तक में, शैतान एक बड़े लाल ड्रैगन (सर्प) के रूप में प्रकट होता है, जिसे महादूत माइकल (मैकाइल) द्वारा पराजित किया जाता है और स्वर्ग से नीचे गिरा दिया जाता है। 

बाइबिल में शैतान की उपस्थिति का कभी भी वर्णन नहीं किया गया है, लेकिन, नौवीं शताब्दी के बाद से, उसे अक्सर ईसाई कला में सींग,  और खुरों ,और असामान्य रूप से बालों वाले पैरों के साथ एक पूंछ  वाला दिखाया गया है।
जो अक्सर नग्न और एक पिचकारी पकड़े हुए है। ये विभिन्न बुतपरस्त देवताओं से प्राप्त लक्षणों का एक मिश्रण हैं, जिनमें यूनान के पैन( pan), पोसीडॉन और बेस देवत शामिल हैं। 
अरामाईक (शास्त्रीय सिरिएक:  सीरियायी-ܐܪܡܝܐ, रोमानीकृत: अरामाया; पुरानी अरामाईक: 𐤀𐤓𐤌𐤉𐤀;   

राज्य-संबंधी अरामाईक: 𐡀𐡓𐡌𐡉𐡀; यहूदी बेबीलोनियन अरामाईक: אֲרָמִית) अरमाईक एक उत्तर-पश्चिमी सामी भाषा है जो जल्दी से सीरिया और मेसोटास के प्राचीन क्षेत्रों में फैली हुई है पूर्वी अनातोलिया जहां यह भाषा तीन हजार से अधिक वर्षों से लगातार विभिन्न किस्मों में लिखी और बोली जाती रही है। ईसा-मसीह भी इसी भाषा को बोलते थे। अरामाईक ने प्राचीन साम्राज्यों और साम्राज्यों के सार्वजनिक जीवन और प्रशासन की भाषा के रूप में और दिव्य पूजा और धार्मिक अध्ययन की भाषा के रूप में भी  कार्य किया। कई आधुनिक किस्में, अर्थात् नव-अरामाईक भाषाएँ अभी भी बोली जाती हैं।

अरामाईक सेमिटिक भाषा परिवार के उत्तर-पश्चिमी समूह से संबंधित है, जिसमें कनानी भाषाएँ भी शामिल हैं जैसे कि हिब्रू, एदोमाइट, मोआबाइट और फोनीशियन, साथ ही एमोराइट और युगैरिटिक
अरामी भाषाएं अरामाईक वर्णमाला में लिखी जाती हैं, जो फोनीशियन वर्णमाला की वंशज है, और सबसे प्रमुख वर्णमाला संस्करण सिरिएक (सीरियायी) वर्णमाला है।
अरामाईक वर्णमाला भी कुछ अन्य सामी भाषाओं, जैसे हिब्रू वर्णमाला और अरबी वर्णमाला में विशिष्ट लेखन प्रणालियों के निर्माण और अनुकूलन के लिए एक आधार बन गई।

अरामी भाषाओं को अब लुप्तप्राय माना जाता है, क्योंकि कई किस्मों का उपयोग मुख्य रूप से पुरानी पीढ़ियों द्वारा किया जाता है। शोधकर्ता विलुप्त होने से पहले नियो-अरामाईक भाषाओं की शेष सभी किस्मों को रिकॉर्ड और विश्लेषण करने के लिए काम कर रहे हैं। अरामाईक बोलियाँ आज अश्शूरियों( असुरों) और मांडियनों के साथ-साथ कुछ सीरियाक अरामियों और मिजराही यहूदियों की मातृभाषाएँ बनाती हैं।

प्रारंभिक अरामाईक अभिलेख 11वीं शताब्दी ईसा पूर्व के हैं।, जो इसे लिखी जाने वाली सबसे पुरानी भाषाओं में रखते हैं। अरामाईसिस्ट "होल्गर गेज़ेला" ने नोट किया, "नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व में पहले शाब्दिक स्रोतों की उपस्थिति से पहले अरामाईक का भाषाई इतिहास अज्ञात है।"

शैतान शब्द अरामाईक भाषा में भी है। शैतान शब्द की व्युत्पत्ति - इसका मौलिक अर्थ
विरोध या आरोप से संबंधित है। तुलनात्मक रूप से अरबी का شَيْطَان (Sayṭān), तथा Aramaic का סָטָנָא‎, Ge'ez ሰይጣን (säyṭan), और शास्त्रीय सिरियाक का ܣܛܢܐ (sāṭānā) शब्द प्रस्तुत है।

संज्ञा -
שָׂטָן • (Saṭān) m (बहुवचन अनिश्चितकालीन שְטָנִים)
१- विरोधी, विरोधी
२-शैतान

इब्रानी शब्द "सतन (हिब्रू:- שָׂטָן) एक सामान्य संज्ञा है जिसका अर्थ है "अभियोक्ता" या "प्रतिकूल", और यह हिब्रू की एक क्रिया से लिया गया है जिसका अर्थ मुख्य रूप से "बाधा डालना, विरोध करना"  आदि है। पहले की बाइबिल की किताबों में, उदाहरण देखें ।   1-शमूएल 29:4, यह मानव विरोधियों को संदर्भित करता है, लेकिन बाद की पुस्तकों में, विशेष रूप से अय्यूब 1-2 और जकर्याह 3, एक अलौकिक इकाई को। जब निश्चित वस्तु (सिर्फ शैतान) के बिना इस्तेमाल किया जाता है, तो यह किसी भी आरोप लगाने वाले को संदर्भित कर सकता है, लेकिन जब इसे निश्चित लेख (हा-शैतान) के साथ प्रयोग किया जाता है, तो यह आमतौर पर विशेष रूप से स्वर्गीय अभियुक्त, शाब्दिक, शैतान को संदर्भित करता है।
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निश्चित लेख वाला शब्द हा-शैतान (हिब्रू: הַשָּׂטָן hasSāṭān) मैसोरेटिक पाठ में 17 बार आता है, हिब्रू बाइबिल की दो पुस्तकों में: जॉब च। 1–2 (14×) और जकर्याह 3:1–2 (3×)। अंग्रेजी बाइबिल में इसका ज्यादातर 'शैतान' के रूप में अनुवाद किया गया है।
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निश्चित लेख के बिना शब्द का प्रयोग 10 उदाहरणों में किया गया है, [उद्धरण वांछित] जिनमें से दो का अनुवाद सेप्टुआजेंट में डायबोलोस के रूप में किया गया है। इसे आम तौर पर अंग्रेजी बाइबिल में 'एक अभियुक्त' (1x) या 'एक विरोधी' (9x के रूप में संख्याओं की पुस्तक, 1 और 2 शमूएल और 1 किंग्स) के रूप में अनुवादित किया जाता है। कुछ मामलों में, इसका अनुवाद 'शैतान' के रूप में किया जाता है:
1 इतिहास 21:1, "शैतान इस्राएल के विरुद्ध खड़ा हुआ" (केजेवी) या "और इस्राएल के विरुद्ध एक विरोधी खड़ा हो गया है" (यंग का शाब्दिक अनुवाद)
भजन संहिता 109:6बी "और शैतान को अपनी दाहिनी ओर खड़ा रहने दे" (केजेवी) या "आरोपी को अपनी दाहिनी ओर खड़ा रहने दे।" (ईएसवी, आदि)

यह शब्द उत्पत्ति की पुस्तक में नहीं पाया जाता है, जो केवल एक बात करने वाले साँप का उल्लेख करता है और किसी अलौकिक इकाई के साथ साँप की पहचान नहीं करता है। एक अलौकिक आकृति के संदर्भ में हिब्रू बाइबिल में "शैतान" शब्द की पहली घटना संख्या 22:22 से आती है, जिसमें यहोवा के दूत का उसके गधे पर बलाम का सामना करने का वर्णन है: "बालाम के जाने से एलोहीम और दूत का क्रोध भड़क उठा यहोवा मार्ग में शैतान बनकर खड़ा रहा उसके खिलाफ।"2 शमूएल 24 में, यहोवा "यहोवा के दूत" को तीन दिनों के लिए इस्राएल के खिलाफ एक प्लेग भेजने के लिए भेजता है, 70,000 लोगों को दाऊद की स्वीकृति के बिना जनगणना करने के दंड के रूप में मारता है। 1 इतिहास 21:1 इस कहानी को दोहराता है, लेकिन "यहोवा के दूत" को "शैतान" के रूप में संदर्भित एक इकाई के साथ बदल देता है।
शैतान" (हिब्रू: שָּׂטָן शैतान, जिसका अर्थ है "प्रतिकूल") के मूल व्युत्पत्ति संबंधी अर्थ को अपनाते हैं। पीटर एच के अनुसारगिलमोर, "चर्च ऑफ शैतान ने शैतान को अपने प्राथमिक प्रतीक के रूप में चुना है क्योंकि हिब्रू में इसका अर्थ है विरोधी, विरोधी, आरोप लगाने वाला या सवाल करने वालाहम स्वयं को इन शैतानों के रूप में देखते हैं; सभी आध्यात्मिक विश्वास प्रणालियों के विरोधी, विरोधी और आरोप लगाने वाले जो एक इंसान के रूप में हमारे जीवन के आनंद को बाधित करने की कोशिश करेंगे।"
अत: अरबी भाषा में "सय्यतन शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक है । क्यों कि इसकी पूर्व स्थिति  हिब्रू ,आरमेनियन, असीरियन और भारोपीयवर्ग की फारसी और वैदिक भाषाओं में यह उपलब्ध है।  सेमैेटिक भाषाओं में स्थित  यह शब्द वैदिक भाषा के "त्रैतन" है।

"ऋग्वेद में "त्रैतन" शब्द का विकास क्रम-💐 ")

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ऋग्वेद में मण्डल (1) तथा सूक्त (158) पर देखें त्रैतन के विषय में क्या लिखा है ?👇____________________________________

न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥५॥
(ऋग्वेद में 10/99/5)

दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥६॥____________________________________

ऋषि - दीर्घतमा । देवता -अश्विनौ। छन्द- त्रिष्टुप, अनुष्टुप ।

"अनुवाद:- हे ! अश्वनिद्वय ! मातृ रूपी नदीयों का जल भी  मुझे न डुबो सके । दस्युओं ने मुझे इस युद्ध में बाँध कर फैंक दिया । तो "त्रैतन" दास(असुर) ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह भी स्वयं ही कन्धों पर  आहत हो गया।5।___________________

महाभारत में इनसे सम्बन्धित एक कथा है जिसका सारांश हम प्रस्तुत करते हैं-एक ऋषि जो उतथ्य के पुत्र थे । विशेष— महाभारत में इनकी कथा इस प्रकार लिखी है । उतथ्य नामक एक  मुनि थे, जिनकी पत्नी का नाम ममता था । ममता जिस समय गर्भवती थी उस समय उतथ्य के छोटे भाई देवगुरु बृहस्पति उसके पास आए और सहवास की इच्छा प्रकट करने लगे । ममता न कहा 'मुझे तुम्हारे बडे़ भाई से गर्भ है अतः इस समय तुम जाओ' । बृहस्पति ने नहीं माना और वे सहवास में प्रवृत हुए । गर्भस्थ बालक ने भीतर से कहा— 'बस करो ? एक गर्भ में दो बालकों की स्थिति नहीं हो सकती । जब बृहस्पति ने इतने पर भी न सुना तब उस तेजस्वी गर्भस्थ शिशु ने अपने पैरों से वीर्य को रोक दिया । इस पर बृहस्पति ने कुपित होकर गर्भस्थ बालक को शाप दिया कि दू दीर्घतामस में पड़ (अर्थात् अंधा हो जा)' । बृहस्पति के शाम से वह बालक अंधा होकर जन्मा और दीर्घतमा के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रद्वेषी नाम की एक ब्राह्मण कन्या से दीर्घतमा का विवाह हुआ, जिससे उन्हें गौतम आदि कई पुत्र हुए । ये सब पुत्र लोभ मोह के वशीभूत हुए । इस पर दीर्घतमा कामधेनु से गोधर्म शिक्षा प्राप्त करके उससे श्रद्धापूर्वक मैथुन आदि में प्रवृत्त हुए । दीर्घतमा को इस प्रकार मर्यादा भंग करते देख आश्रम के मुनि लोग बहुत बिगडे़ । उनकी स्त्री प्रद्वेषी भी इस बात पर बहुत अप्रसन्न हुई । एक दिन दीर्घतमा ने अपनी स्त्री प्रद्वेषी से पूछा कि 'तू मुझसे क्यों दुर्भाव रखती है ।' प्रद्वेषी ने कहा 'स्वामी स्त्री का भरण पोषण करता है इसी से भर्ता कहलाता है पर तुम अंधे हो, कुछ कर नहीं सकते । इतने दिनों तक मैं तुम्हारा और तुम्हारे पुत्रों का भरण पोषण करती रही, पर अब न करुँगी' । दीर्घतमा ने क्रुद्ध होकर कहा—'ले' आज से मैं यह मर्यादा बाँध देता हूँ कि स्त्री एकमात्र पति से ही अनुरक्त रहे । पति चाहे जीता हो या मरा वह कदापि दूसरा पति नहीं कर सकती । जो स्त्री दूसरा पति ग्रहण करेगी वह पतित हो जायगी । प्रद्वेषी ने इसपर बिगड़कर अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि 'तूम अपने अंधे वाप को बाँधकर गंगा में डाल आओ ।' पुत्र आज्ञानुसार दीर्घतमा को गंगा मे डाल आए । उस समय बलि नाम के कोई राजा गंगा- स्नान कर रहे थे । वे ऋषि को इस अवस्था में देख अपने घर ले गए और उनसे प्रार्थना की कि 'महाराज ! मेरी भार्या से आप योग्य संतान उत्पन्न कीजिए ।' जब ऋषि सहमत हुए तब राजा ने अपनी सुदेष्णा नाम की रानी को उनके पास भेजा । रानी उन्हें अंधा और बुढ्ढा देख उनके पास न गई और उसने अपनी दासी को भेजा। दीर्घतमा ने उस शूद्रा दासी से कक्षीवान् आदि ग्यारह पुत्र उत्पन्न किए । राजा ने यह जानकर फिर सुदेष्णा को ऋषि के पास भेजा । ऋषि ने रानी का सार अंग टटोलकर कहा 'जाओ, तुम्हें अंग, बंग, कलिंग, पुंड्र और सुंभ नामक अत्यंत तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होंगे जिनके नाम से देश विख्यात होंगे'। यद्यपि उपर्युक्त कथा केवल किंवदन्ती है जिसमें पूर्वाग्रह पूर्वक कल्पनाओं का समावेश है। भारतीयों ने अपने सामाजिक गतिविधियों व मनस प्रवृत्तियों  के अनुरूप मिथकों का सृजन किया ऋग्वेद के पहले मण्डल में सूक्त १४० से १६० तक में  भी दीर्घतमा के रचे मंत्र हैं

इनसें कई मंत्र ऐसे हैं जिनसे उनके जीवन की घटनाओं का पता चलता है। महाभारत में उनकी स्त्री के संबंध में जिस घटना का वर्णन है उसका उल्लेख भी कई मंत्रों में है । सूक्त १५७ के मन्त्र ५ में वर्णन है कि  जब लोगों ने उन्हें एक संदूक में बंद कर दिया था । "दीर्घतमा ने उस समय  अश्विनी देवों से उद्धार पाने के लिये प्रार्थना की है । 

उतथ्य एक प्रसिद्ध ऋषि थे। इनका जन्म आंगिरस ऋषि के कुल में हुआ था। इनकी भार्या का नाम 'भद्रा' था, जो बड़ी ही रूपवती और सौन्दर्य की मूर्ति थी। उतथ्य की पत्नी भद्रा का अपहरण कर वरुण ने छिपा लिया था और लौटाने से इंकार किया। नारद मुनि की मध्यस्थता से भी वरुण ने भद्रा को लौटाना स्वीकार नहीं किया, तब उतथ्य ने सरस्वती को सूख जाने और ब्रह्मर्षि देश को अपवित्र हो जाने का अभिशाप दे दिया। उतथ्य के इस शाप के भय से वरुण ने भद्रा को लौटा दिया। महाभारत के 'आदिपर्व'-अध्याय-98.5-16 उतथ्य का वर्णन है और 'शांतिपर्व'  अध्याय-328 में भी उतथ्य की एक अन्य पत्नी 'ममता' का भी उल्लेख मिलता है। उतथ्य के कनिष्ठ (छोटे) भ्राता बृहस्पति थे, जो सुंदरी ममता पर आसक्त हो गए थे। बृहस्पति ने अपनी भाभी ममता से उस समय बलात संभोग करना चाहा, जब वह गर्भवती थी, किंतु गर्भस्थ शिशु ने इनके इस कार्य का विरोध किया। इससे क्रुद्ध होकर बृहस्पति ने गर्भस्थ शिशु को अंधा होने का शाप दे दिया। जन्म लेने पर इस अंधे बालक का नाम 'दीर्घतमा औतथ्य' हुआ।

आश्चर्य है कथा निर्माण करनेवालों का कि वे बलात्कारी दोषी व्यक्ति के शाप को भी निर्दोष व्यक्ति पर आरोपित कर देते हैं। जो वस्तुतः शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत ही है। परन्तु पात्रों की ऐतिहासिकता में कोई व्यवधान नहीं है। क्योंकि  विश्व की अन्य संस्कृतियो या पुराण कथाओं में भी ये पात्र मिलते हैं।

ऋग्वेद की निम्न ऋचाओं में "ममता और "त्रित आदि का वर्णन है।

तमु द्युमः पुर्वणीक होतरग्ने अग्निभिर्मनुष इधानः।
स्तोमं यमस्मै ममतेव शूषं घृतं न शुचि मतयः पवन्ते ॥२॥ ऋग्वेद- ६/१०/२

(ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 158) ऋग्वेद में ही अन्यत्र  त्रित:  ममता दीर्तमा आदि पात्रों का वर्णन है जो प्रागैतिहासिक व विश्व की दूसरी अन्य पुराण कथाओं में वर्णित है।

ऋग्वेदः - मण्डल -१ सूक्तं -१५८ में दीर्घतमा औतथ्यः का वर्णन है - जो सायणभाष्यसहित प्रस्तुत है।

वसू रुद्रा पुरुमन्तू वृधन्ता दशस्यतं नो वृषणावभिष्टौ।दस्रा ह यद्रेक्ण औतथ्यो वां प्र यत्सस्राथे अकवाभिरूती॥१॥

(1)-हे “वृषणौ= कामानां वर्षितारौ( कामनाओं की वर्षा करने वाले “दस्रा= अस्मद्विरोध्युपक्षपयितारौ हे अश्विनौ युवां -  हमारे विरोधीयों का उपनक्षय(नाश) करने वाले “नः= अस्मभ्यं-हमको “दशस्यतं= दत्तं दित्सितं फलम्- दिए हुए फल को। कीदृशौ युवाम् ।  “वसू =वासयितारौ प्रजानाम्- प्रजा को वसाने  वाले। वसुना =धनेन धन के द्वारा तद्वन्तौ वा ॥ मत्वर्थो लुप्यते ॥ "रुद्रा= रुद्रौ = रुद्दुःखं तद्धेतुभूतं पापं वा । तस्य द्रावयितारौ । संग्रामे भयंकरं शब्दयन्तौ वा । रुद्रो रौतीति सतः ' (निरुक्त- १०. ५) इति यास्कः। “पुरुमन्तू= बहूनां ज्ञातारौ ॥ मनेरौणादिकः तुन्प्रत्ययः ॥ “वृधन्ता= वर्धमानौ स्तोत्रादिना “अभिष्टौ आभिमुख्येन पूजितौ अभीष्टसाधकौ वा । हशब्दः उक्तगुणप्रसिद्धिद्योतनार्थः । किमर्थं दीयते इति चेत् । “यत् यस्मात् “{औतथ्यः= उचथ्यस्य पुत्रो दीर्घतमाः} “वां= युवां “रेक्णः= धनं स्तुतिव्याजेन= प्रार्थयते तदर्थम् । यद्वा । अयं यजमानो यद्यस्मात् रेक्णो हविर्लक्षणमन्नं वां युवाभ्यां दास्यति =ददातीति शेषः । यस्माच्च “अकवाभिः= अकुत्सितैः “ऊती =ऊतिभिः रक्षणैः  ‘ सुपां सुलुक्° ' इति तृतीयायाः पूर्वसवर्णदीर्घः “प्र “सस्राथे प्रसारयथः प्रकर्षेण दत्थः तस्माद्दशस्यतम् यस्मादभिमतप्रदौ यस्माच्चायं प्रार्थयते ददाति वा हविः तस्माद्दशस्यतमित्यर्थः ॥

को वां दाशत्सुमतये चिदस्यै वसू यद्धेथे नमसा पदे गोः। जिगृतमस्मे रेवतीः पुरन्धीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता॥२॥

हे “वसू= वासयितारावश्विनौ “वां= युवयोः संबन्धिन्यै “अस्यै वक्ष्यमाणरूपायै "सुमतये= “चित् शोभनबुद्ध्यै । चित् पूजायामप्यर्थे वा । स्वल्पेनैव हविषा महत्फलप्रदानरूपायै ईदृश्यै अपि बुद्ध्यै प्रीणनाय “कः “दाशत् को दद्यात् दातुं शक्नुयात् । युवयोः प्रभावस्यातिमहत्त्वादिति भावः॥ दाशतेर्लेट्यडागमः ॥ कथं मतेः सौष्ठवमिति तदुच्यते । “यत्= यस्मात्कारणात् गोः “पदे= भूम्याः सर्वैर्गन्तव्यायाः स्तुत्याया वा वेदिरूपायाः स्थाने। एतावती वै पृथिवी यावती वेदिः' (तैत्तिरीय. संहिता २. ६. ४. ३ ) इति श्रुतेः। गौरिति भूमिनाम । तथा च निरुक्तं गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद्दूरं गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति गातेर्वौकारो नामकरणः ' (निरुक्त २. ५ ) इति । तादृशे स्थाने अस्माभिः प्रार्थितौ सन्तौ “नमसा हविर्लक्षणेन यवमात्रप्रकारेणान्नेन’ “धेथे धारयथो बहुप्रदानविषयां बुद्धिम् ।। दधातेर्लटि • बहुलं छन्दसि ' इति विकरणस्य लुक् । धातोर्ह्रस्वत्वम् । ‘ आतो ङितः ' (पा. सू. ७. २. ८१ ) इति इयादेशः ॥ यस्मादेवं तस्मात् “अस्मे अस्मभ्यं “रेवतीः क्षीरादिधनवतीः “पुरंधीः शरीरधारिकाः शरीराभिवृद्धिहेतूः गाः “जिगृतं शब्दयतं दत्तमित्यर्थः॥‘गॄ शब्दे'। छान्दसः शपः श्लुः । अभ्यासस्येत्वं ह्रस्वत्वं च ॥ पुनस्तावेव विशेष्येते । “कामप्रेणेव । इव शब्दः एवकारार्थः । कामपूरकेणैव “मनसा सह “चरन्ता चरन्तौ । यजमानस्य कामाः पूरणीया इति कृतसंकल्पावित्यर्थः ॥ ‘ प्रा पूरणे'। कामं प्रातीति कामप्रः । आतोऽनुपसर्गे कः' ।

युक्तो ह यद्वां तौग्र्याय पेरुर्वि मध्ये अर्णसो धायि पज्रः। उप वामवः शरणं गमेयं शूरो नाज्म पतयद्भिरेवैः॥३॥

(3)-अत्रेतिहासमाहुः । तौग्र्यनामकं राजानं युद्धे शत्रवः पराभाव्य पाशैर्दृढं बद्ध्वा समुद्रमध्ये प्रचिक्षिपुः । स च उत्तरीतुमशक्तः सन् अश्विनौ तुष्टाव । तौ च तुष्टौ शीघ्रमेव रथमश्वैर्योजयित्वा समुद्रमागत्य तमुत्तार्य अपालयतामिति । अयमर्थः ‘अजोहवीदश्विना तौग्र्यः' (ऋ. सं १. ११७. १५) इत्यादिमन्त्रान्तरे प्रसिद्धः । सोऽत्रोच्यते । हे अश्विनौ “वां युवयोः संबन्धी “पेरुः पारणकुशलो रथः “युक्तो "ह अश्वैर्युक्तः खलु । हशब्दो मन्त्रान्तरप्रसिद्धिद्योतनार्थः । स च उदाहृतः । कस्मै । “तौग्र्याय एतन्नाम्ने राज्ञे तद्बन्धमोचनार्थम् । कुत्रेति तदुच्यते । “अर्णसः अम्भसः “मध्ये समुद्रस्य मध्ये । स च “पज्रः पाजसा बलेन तीर्णः सन् "वि “धायि धारितः स्थापितः । यस्मादेवं तस्मात् “वां युवयोः “अवः रक्षणं “शरणम् “उप “गमेयं संप्राप्नुयाम् ऐहिकदुःखाद्विमुक्तो युष्मत्स्थानं संभजेयम् । गतौ दृष्टान्तः । “पतयद्भिरेवैः अश्वैः “शूरो “न शूर इव । स यथा “अज्म जित्वा निर्भयं स्वगृहं प्राप्नोति तद्वत् ॥

उपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येन्मा मामिमे पतत्रिणी विदुग्धाम्।मा मामेधो दशतयश्चितो धाक्प्र यद्वां बद्धस्त्मनि खादति क्षाम्॥४॥

(4)-अत्राख्यानमाहुः । जराझर्झरितगात्रं जात्यन्धं दीर्घतमसं मामतेयं वरिवसितुमशक्नुवानाः स्वगर्भदासा अग्नौ प्रदाहाय प्रचिक्षिपुः । तत्र क्षिप्तोऽश्विनावस्तावीत् । तौ चैनमरक्षताम् । ततोऽप्यम्रियमाणमुदकेषु अपातयन्। तत्र निमग्नः पुनरश्विनौ तुष्टाव । तुष्टौ सन्तौ तौ जलादुदहार्ष्टाम् । एवमवध्यं तं त्रैतनो नामकः कश्चिद्दासः अस्य शिरो वक्षश्च व्यतक्षत् । ततोऽप्यपालयतामिति । तदिदम् ऋग्द्वयाभ्यामुच्यते । हे अश्विनौ “उपस्तुतिः युवां बुद्ध्योपेत्य क्रियमाणा स्तुतिः “औचथ्यम् उचथस्य पुत्रं दीर्घतमसं माम् “उरुष्येत् रक्षेत् दाहाद्युपद्रवात् । 'उरुष्यती रक्षाकर्मा' (निरु. ५. २३) इति यास्कः । एवं सामान्येनोक्त्वा विशेषेण प्रत्युपद्रवपरिहारं प्रार्थयते । “इमे प्रसिद्धे “पतत्रिणी पतनशीले पुनरावर्तनशीले अहोरात्रे “मां “मा “वि “दुग्धां विशेषेण दोहगतसारं मा कार्ष्टां प्राणनिर्गमनानुकूल्यं मा कुरुतामित्यर्थः । किंच “मां “दशतयः दशवार: “चितः संचितः संपादितः “एधः प्रज्वालितेन्धनसंघः “मा “धाक् मा धाक्षीत् ॥ दहतेर्लुङि सिचि हलन्तलक्षणा वृद्धिः। ‘बहुलं छन्दसि ' इति इडभावः । हल्ङ्यादिसंयोगान्तलोपौ ॥ दुःसहदुःखप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “वां युवयोः संबन्धी अयं जनः “बद्धः पाशैः गाढं वेष्टितः सन् “त्मनि आत्मनि आत्मना “क्षां भूमिं “खादति भक्षयति गन्तुमशक्तः सन् भूमौ परिलुठतीत्यर्थः । तस्मादुपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येत् इति ॥

अस्याः पञ्चम्या विनियोगमाह शौनकः - ‘ आततायिनमायान्तं दृष्ट्वा व्याघ्रमथो वृकं । न मा गरन्निति जपंस्तेभ्य एव प्रमुच्यते । त्रिरात्रोपोषितो रात्रौ जपेदा सूर्यदर्शनात् । आप्लुत्य प्रयतः सूर्यमुपतिष्ठेद्दिवाकरं । पश्यन्ति तस्करा नैनं तथान्ये पापबुद्धयः । एकः शतानि त्रायेत तस्करेभ्यश्चरन् पथि ' ( ऋग्वेद १. १४१ ) इति ॥

"न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥५॥

(5-)“नद्यः नदनशीला: "मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः “मा मां दीर्घतमसं “गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां “सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः॥

"दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे।        अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥६॥

(6)“दीर्घतमाः एतन्नामा महर्षिः स च “मामतेयः ममतायाः पुत्रः “दशमे “युगे दशयुगपर्यन्तं महानुभावयोरश्विनोः प्रभावात् पूर्वोक्ताद्दुःखाद्विमुक्तोऽत्यन्तसुखी स्वपुत्रभार्यादिभिः सहितो जीवितवान्। दशमे युगे अतीते सति जुजुर्वान् जीर्णः वलीपलितगात्रो बभूव । एवंभूतः सन् “अर्थं पुरुषैरर्थ्यमानं कर्मफलं स्वर्गादिकं “यतीनां प्राप्नुवतीनाम् “अपाम् अप्कार्याणां प्रजानाम् । यद्वा । अपाम् अपसां कर्मणाम् अर्थं प्रयोजनं यतीनां तासां प्रजानाम् “ब्रह्मा ब्रह्मसदृशः परिवृढः भवति । किंच "सारथिः तद्वन्निर्वाहको भवति देवो भवतीत्यर्थः । एवमस्य वृत्तान्तं मन्त्रोऽनुवदति। स्वयं वा स्वात्मानं पारोक्ष्येण अश्विनोर्महानुभावत्वं प्रकटयितुं ब्रवीति ॥१॥ स इद्दासं तुवीरवं पतिर्दन्षळक्षं त्रिशीर्षाणं दमन्यत्। अस्य त्रितो न्वोजसा वृधानो विपा वराहमयोअग्रया हन्।६।(ऋगवेद-10/99/6)

पदपाठ-सः । इत् । दासम् । तुविऽरवम् । पतिः । दन् । षट्ऽअक्षम्। त्रिऽशीर्षाणम् । दमन्यत् । अस्य । त्रितः । नु । ओजसा । वृधानः । विपा । वराहम् । अयःऽअग्रया । हन्निति हन् ॥६॥

-(सः) वह (त्रितः) त्रित (यतिः) नियन्ता (तुवीरवम्) बहुत  (दासम्) उपक्षयकारी कामभाव­ (षळक्षम्) पाँच नेत्रादि इन्द्रिय और एक मन व्यक्त करने के साधन जिसके हैं, उस ऐसे (त्रिशीर्षाणम्) तीन-लोभ राग मोह शिर के समान जिसके हैं, उस ऐसे को (इत्) ही (दन्-दमन्यत्) दमन करता हुआ द

“स “इत् स एवेन्द्रः “पतिः सर्वस्य स्वामी “दासम् उपक्षपयितारं “तुवीरवं बहुशब्दं संग्रामे भयंकरं शब्दं कुर्वाणं वृत्रं "दन् दमयन् “षळक्षम् अक्षिषट्कोपेतं “त्रिशीर्षाणं त्रिशिरस्कं त्वष्टुः पुत्रं विश्वरूपं “दमन्यत् दमितुं प्रहर्तुमैच्छत् । अवधीदित्यर्थः । यद्वा । दमयतीति दमनः । नन्द्यादित्वात् ल्युः । स इवाचरति । उपमानादाचारे ' (पा. सू. ३. १. १०) इति क्यच्यन्त्यलोपश्छन्दसः । ततो लङि • बहुलं छन्दसि ' इत्यडभावः । किंच “त्रितः एतन्नामा महर्षिः अस्य इन्द्रस्य “ओजसा बलेन “वृधानः वर्धमानः “विपा अङ्गुल्या । कीदृश्या  “अयोअग्रया अयोवत्कठिननखया “वराहं वराहारम् उदकवन्तं मेघं व्यहन् विहतवान् ॥ १४ ।।

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न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥५॥
(ऋग्वेद में 10/99/5)

दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥६॥

सायण- भाष्य-

(5)-१-नद्यः= नदनशीला: २-"मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः ३-“मा मां दीर्घतमसं ४-“गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् ५-“दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां ६-“सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥७- ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “८-अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । किंच "अस्य मम “शिरः सः१०- “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् ११-“वितक्षत्- विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् १२-“उरः- वक्षःस्थलम्' “अंसौ च १३-“ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः ॥

(6)-१-“दीर्घतमाः एतन्नामा महर्षिः स च २-“मामतेयः ममतायाः पुत्रः ३-“दशमे “युगे दशयुगपर्यन्तं महानुभावयोरश्विनोः प्रभावात् पूर्वोक्ताद्दुःखाद्विमुक्तोऽत्यन्तसुखी स्वपुत्रभार्यादिभिः सहितो जीवितवान्। दशमे युगे अतीते सति ४-जुजुर्वान् जीर्णः वलीपलितगात्रो बभूव । एवंभूतः सन् “अर्थं पुरुषैरर्थ्यमानं कर्मफलं स्वर्गादिकं “यतीनां प्राप्नुवतीनाम् ५-“अपाम् अप्कार्याणां प्रजानाम् । यद्वा । अपाम् अपसां कर्मणाम् अर्थं प्रयोजनं यतीनां तासां प्रजानाम् । “ब्रह्मा ब्रह्मसदृशः परिवृढः “भवति । किंच "सारथिः तद्वन्निर्वाहको भवति देवो भवतीत्यर्थः । एवमस्य वृत्तान्तं मन्त्रोऽनुवदति। स्वयं वा स्वात्मानं पारोक्ष्येण अश्विनोर्महानुभावत्वं प्रकटयितुं ब्रवीति ॥

अर्थात् इस त्रित ने ओज के द्वारा लोह- समान तीक्ष्ण नखों से वराह को मार डाला था ।

विदित हो कि आयरिश पुराणों में "थ्रित" सूकर या वराह के रूप में है ।

ऋग्वेद में  अन्यत्र वर्णित है कि-"आरण्वासो युयुधयोन सत्वनं त्रितं नशन्त प्रशिषन्त इष्टये।ऋग्वेद-10/115/4

सायण ने त्रित का अर्थ " त्रितं -त्रिष्वाहवनीयादिषु स्थानेषु ततं विस्तृतं त्वाम्( तीन आहवाहनीय स्थानों उस विस्तृत को- परन्तु त्रित एक ऋषि का नाम जो ब्रह्मा के मानस- पुत्र माने जाते हैं ये तीन भाई थे— एकत, द्वित और त्रित ।  गौतम मुनि के तीन पुत्रों में से एक का  नाम त्रित था जो अपने दोनों भइयों से अधिक तेजस्वी और विद्वान् थे । विशेष—एक बार ये अपने भाइयों के साथ पशुसंग्रह करने के लिये जंगल में गए थे । वहाँ दानों भाइयों ने इनके संग्रह किए हुए पशु छीनकर और इन्हें अकेला छोड़कर घर का रास्ता लिया । वहाँ एक भेड़िए को देखकर ये डर के मारे दौड़ते हुए एक गहरे अंधे कुएँ में जा गिरे वहीं इन्होंने सोमयाग आरंभ किया जिसमें देवता लोग भी आ पहुँचे उन्हीं देवताओं ने उस कुएँ से इन्हें निकाला महाभारत में लिखा है कि सरस्वती नदी इसी कुएँ से निकली थी ।

वैदिक सन्दर्भों में त्रित-आप्त्य पद कई ऋचाओं में सामुद्रिक घटनाओं से सम्बन्धित  है। जैसे

"यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये। यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः (अथर्ववेद/20/111/1)

"यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये
यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः॥१॥
यद्वा शक्र परावति समुद्रे अधि मन्दसे ।
अस्माकमित्सुते रणा समिन्दुभिः॥२॥
यद्वासि सुन्वतो वृधो यजमानस्य सत्पते ।
उक्थे वा यस्य रण्यसि समिन्दुभिः॥३॥
(अथर्ववेदः‎ -काण्डं २०-सूक्तं१११ मन्त्र-१-२-३)
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तथा ऋग्वेद 8/12/16 में भी यही ऋचा है।
यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये
यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः॥१६॥
सायण-भाष्य=
हे “इन्द्र “विष्णवि= विष्णौ( सूर्य में) ! पानार्थमागते =सत्यन्यदीये यागे “सोमं “यत् यदि तेन विष्णुना सार्धं पिबसि । “यद्वा यदि च “आप्त्ये =अपां पुत्रे “त्रिते एतत्संज्ञे राजर्षौ यजमाने सोमं पिबसि । “घ इति पूरणः । “यद्वा यदि च “मरुत्सु च सोमपानायागतेष्वन्यदीये यज्ञे “मन्दसे माद्यसि । तथाप्यस्मदीयैरेव "इन्दुभिः सोम “सं सम्यक् माद्य।
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तथा सामवेद -384 वां मन्त्र ( ऋचा) है ।
सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 384 | (कौथोम) 4 » 2 » 5 » 4 | (रानायाणीय) 4 » 4 » 4
यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये । यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः॥३८४॥

हे (इन्द्र)  ! (यत्) क्योंकि, (विष्णवि)  विष्णु में /सूर्य में  (सोमम्) सोम को (यत् वा) और क्योंकि, आपने (घ) निश्चय ही (आप्त्ये-त्रिते) आप्त त्रित के लिए  (सोमम्)   सोम को निहित किया है, (यद् वा) और क्योंकि (मरुत्सु) पवनों  में (सोमम्)  सोम को  (मन्दसे) प्रशंसनीय हैं। आप हमें भी (इन्दुभिः) सोमों से (सम्) संयुक्त कीजिए ॥३८४॥

इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार माधव ने त्रित और आप्त्य ये पृथक्-पृथक् दो ऐतिहासिक ऋषियों के नाम माने हैं। भरतस्वामी के मत में आप्त का पुत्र कोई त्रित है। सायण के अनुसार आपः का पुत्र त्रित नाम का राजर्षि है। परन्तु ये गाथाऐं प्रागैतिहासिक होने से व्युतक्रमित तो  हैं ही परन्तु इनके ऐतिहासिक होने में कोई व्यवधान नहीं है । इसका ग्रीक पुराणों में "एम्फीत्रीत"- (Amphitrite)रूप दृष्टव्य है। भारतीय और यूरोपीय मिथकों का श्रोत अपने प्रारम्भिक काल में समान रहा होगा दौनों संस्कृतियों का भाषाई साम्य भी इस बात का साक्ष्य है।।
एनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से एम्फीट्रीट के  निम्न तथ्य उद्धृत हैं।
 ़"Amphitrite in Greek mythology, the goddess of the sea, wife of the god Poseidon, and one of the 50 (or 100) daughters (the Nereids) of Nereus and Doris ( she is the daughter of Oceanus). 
Poseidon chose Amphitrite from among her sisters as the Nereids performed a dance on the isle of Naxos. 
Refusing his offer of marriage, she fled to Atlas, from whom she was retrieved by a dolphin sent by Poseidon.
Amphitrite then returned, becoming Poseidon’s wife;
अनुवाद:-
एम्फिट्राइट, ग्रीक पौराणिक कथाओं में, समुद्र की देवी,जोकि  पोसीडॉन देव की पत्नी, तथा नेरेस और डोरिस जोकि (ओशनस की बेटी)है  उनकी 50 (या 100) बेटियों (नेरीड्स) में से एक का नाम एम्फिट्राइट है। विदित हो कि
(Poseidon) पॉसीडन ( वैदिक-विष्णु/पूषण) ने एम्फीत्रीत की बहनों में से केवल (Amphitrite) को चुना क्योंकि (Nereids) ने Naxos के टापू पर एक नृत्य किया।
उसके विवाह के प्रस्ताव को ठुकराते हुए, वह एटलस भाग गई, जिनसे उसे "पोसीडॉन" द्वारा भेजी गई डॉल्फ़िन द्वारा पुनः प्राप्त किया गया था। एम्फ़ाइट्राइट फिर लौट आया, पोसिडॉन की पत्नी बन गई। एम्फीट्रीट शब्द की व्युत्पत्ति मूलत: भारोपीय ( भारत- यूरोपीय) है ।
"Amphitrite is
Greek sea-nymph, wife of Poseidon; the first element appears to be amphi एम्फी- ="round about, on both sides, all around" , the second word trite-,ट्राइट- female of tritos "third, त्रित" "but the this sense intended by the compound is unclear -लेकिन इस यौगिक द्वारा अभिप्रेत अर्थ स्पष्ट नहीं है
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It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: १-Sanskrit abhitah-अभित: "on both sides," abhi अभि- "toward, to;"- Avestan =aibi;। ३-Greek =amphi "round about;" । ४-Latin =ambi- "around, round about;"। ५-Gaulish= ambi-, ६-Old Irish= imb- "round about, about;" ७-Old Church Slavonic =oba; ८-Lithuanian= abu -"both;" ९-Old English ymbe, १०-German um "around."
एम्फीट्राइट- ग्रीक समुद्र-की अप्सरा( पोसाइडन की पत्नी; पहला तत्व एम्फी = "चारों ओर, दोनों तरफ, चारों ओर", दूसरा ट्राइटोस महिला "तीसरा" प्रतीत होता है, लेकिन यौगिक का अर्थ स्पष्ट नहीं है
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अप्सं रूपमस्त्यस्याः प्राशस्त्ये कुञ्जा० र । दिव्य- रूपवत्यां स्वर्वेश्यायाम् “उद्भिन्दतीं संजयन्तीमप्सराम्” अ० ४, ३८, १ ।
विशेष—इसलिये अप्सरा कहलाती है कि समुद्र मंथन के समय उसमें समुद्र के जल  से ये निकली थीं ।अप्सरस् [apsaras] [अद्भ्यः( जलेभ्यः ) सरन्ति (उद्गच्छन्ति) अर्थात् जो समुद्र के जल से उत्पन्न होकर बाहर निकली- अप्सु निर्मथनादेव रसात्तस्माद्वर- स्त्रियः । उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसो$भवन् ॥
अप्सु निर्मथनादेव रसात् तस्माद् वरस्त्रियः।
उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्॥ ३३॥

षष्टिः कोट्योऽभवंस्तासामप्सराणां सुवर्चसाम्।
असंख्येयास्तु काकुत्स्थ यास्तासां परिचारिकाः॥ ३४॥
न ताः स्म प्रतिगृह्णन्ति सर्वे ते देवदानवाः।
अप्रतिग्रहणादेव ता वै साधारणाः स्मृताः॥ ३५॥
अनुवाद:-नर श्रेष्ठ ! मन्थन करने से ही अप( जल) में उसके रस से वे सुन्दरी स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं इसलिए वे अप्सरा कहलायीं।३३।
काकुत्थ ! राम उन सुन्दर कान्तिवाली अप्सराओं की संख्या साठ करोड़ थी और उन अप्सराओं की परिचारिकाऐं थी उनकी गणना नहीं की जा सकती थी वे सब असंख्य थीं।३४।
उन अप्सराओं को  समस्त देव और दानव कोई भी अपनी पत्नी रूप में ग्रहण न कर सकेइस लिए वे सामान्या मानी गयीं।३५।
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग-(45)
 अर्थात्‌ अप्सरा जलीय देव स्त्रीयाँ हैं। विदित हो कि एक वचन में अप्सरा: और बहुवचन में अप्सरस: शब्द का प्रयोग होता है।
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यह इसके अस्तित्व का अवधारणा मूलक स्रोत/साक्ष्य है: संस्कृत -अभित: "दोनों ओर," अभि- "की ओर, को;" अवेस्ता में ऐबी; यूनानी= एम्फ़ी "चारों ओर;" लैटिन =एंबी- "चारों ओर, चारों ओर;" गॉलिश= अम्बी-, ओल्ड आइरिश= -इम्ब "राउंड अबाउट, अबाउट;" ओल्ड चर्च स्लावोनिक= ओब; लिथुआनियाई=अबू "दोनों;" पुरानी अंग्रेज़ी =इम्बे, जर्मन =उम "चारों ओर।"
Nereid, in Greek religion, any of the daughters (numbering 50 or 100) of the sea god Nereus (eldest son of Pontus, a personification of the sea) and of Doris, daughter of Oceanus (the god of the water encircling the flat Earth).
नेरीड, ग्रीक धर्म में, समुद्री देवता नेरेस  जोकि (पोंटस का सबसे बड़ा पुत्र है जो , समुद्र का एक अवतार भी है)  उसकी संख्या 50 या 100)  पुत्रीयों में से कोई एक वस्तुतः नेरियस की पत्‍नी  डोरिस, है जोकि ओशनस की पुत्री है ओशनश (समतल  पृथ्वी को घेरने वाला पानी के देवता है।
यूनानी मिथकों की ये घटनाएँ समुद्र से सम्बन्धित हैं और वेदों में भी "आप्त्यत्रित" पूषण विष्णु आदि का प्रसंग सामुद्रिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। वही ग्रीक पुरातन कथाओं में भी टाइटन व एम्फिट्राइट के रूप में ट्रिटॉन की माता है ।
यथा कलां यथा शफं यथ ऋणं संनयामसि ।*
एवा दुष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये सं नयामस्यनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥१७॥ (ऋग्वेद ८/४७/१७)

मनुष्य (यथा) जैसे (कलाम्) अपनी अङ्गुली से मृत नख को (संनयामसि) दूर फेंक देते हो, (यथा+शफम्) जैसे पशुओं के मृत खुर को कटवा कर अलग कर देते हो अथवा (यथा) जैसे (ऋणम्) ऋण को दूर करते हो (एव) वैसे ही (आप्त्ये) आप्त्य के लिए  (दुःस्वप्न्यम्) दुःस्वप्न को (सर्वम्) उस सबको (सन्नयामसि ) दूर फेंक देते हो  ॥१७ ॥ऋग्वेद 8/47/17  में वर्णित है ; 

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वाचस्पत्यम् कोश में १४६६ । ६७ पृ० पर  एकत शब्दोक्ते आप्त्ये
१ देवभेदे ब्रह्मणो मानसपुत्ररूपे
२ ऋषिभेदे च त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानः
त्रिषु विस्त्रीर्णतमे अर्थात् जो तीनों लोगों मे तना हुआ है । वही त्रैतन  त्रित है ।
३ प्रख्यातकीर्त्तौ च त्रितन ।
ऋग्वेद में अन्यत्र भी 👇
यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्द्दयत्”
ऋ० १। १८७।१। सायण भाष्य:-ओजसा बलेन सामर्थ्येन {“त्रितः =विस्तीर्णतमः प्रख्यातकीर्तिः त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानोऽपि इन्द्रः} त्रित जब ऐतिहासिक पात्र तो यहाँ त्रित का अर्थ विस्तीर्णत्तम करना प्रसंगाकूल नहीं है।

ऋग्वेद के पञ्चम मण्डल के 41वें सूक्त की निम्न ऋचाऐं  त्रित और आप्त्य शब्दों को पूषण देव से सम्बन्धित करती हैं 

"प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः। पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥४॥

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प्र वो रयिं युक्ताश्वं भरध्वं राय एषेऽवसे दधीत धीः।सुशेव एवैरौशिजस्य होता ये व एवा मरुतस्तुराणाम् ॥५॥

प्र वो वायुं रथयुजं कृणुध्वं प्र देवं विप्रं पनितारमर्कैः । इषुध्यव ऋतसापः पुरन्धीर्वस्वीर्नो अत्र पत्नीरा धिये धुः॥६॥

उप व एषे वन्द्येभिः शूषैः प्र यह्वी दिवश्चितयद्भिरर्कैः । उषासानक्ता विदुषीव विश्वमा हा वहतो मर्त्याय यज्ञम् ॥७॥

अभि वो अर्चे पोष्यावतो नॄन्वास्तोष्पतिं त्वष्टारं रराणः । धन्या सजोषा धिषणा नमोभिर्वनस्पतीँरोषधी राय एषे ॥८॥

तुजे नस्तने पर्वताः सन्तु स्वैतवो ये वसवो न वीराः। पनित आप्त्यो यजतः सदा नो वर्धान्नः शंसं नर्यो अभिष्टौ ॥९॥

वृष्णो अस्तोषि भूम्यस्य गर्भं त्रितो नपातमपां सुवृक्ति । गृणीते अग्निरेतरी न शूषैः शोचिष्केशो नि रिणाति वना ॥१०॥

"उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्न्योऽज एकपादुत । त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधेऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि ॥६।(ऋग्वेद:-२।०३१।६)

हे अन्तरिक्ष के देवता अहि, सूर्य, त्रित ,इन्द्र और सविता हमको अन्न दें ।

त्रितो न यान् पञ्च होतृनभिष्टय आववर्त दवराञ्चक्रियावसे ।14।
अभीष्ट सिद्धि के निमित्त प्राण, अपान, समान,ध्यान, और उदान । इन पाँच होताओं को त्रित  सञ्चालित करते हैं ।

ऋग्वेद मण्डल 1 अध्याय 4 सूक्त 34 ऋचा 14
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मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तम् मे अस्य रोदसी ।8।
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभि:आतिता।
त्रितस्यद् वेद आप्त्य: स जामित्ववाय
रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ।9।
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दो सौतिनों द्वारा पति को सताए जाने के समान कुँए की दीवारे मुझे सता रही हैं । हे इन्द्र! चूहा द्वारा अपने शिश्न को चबाने के समान मेरे मन की पीड़ा मुझे सता रही है। हे रोदसी मेरे दु:ख को समझो ! इन सूर्य की सात किरणों से मेरा पैतृक सम्बन्ध है।
इस बात को आप्त्य ( जल )का पुत्र त्रित जानता है इस लिए वह उन किरणों की स्तुति करता है । हे रोदसी मेरे दु :ख को समझो।

ऋग्वेद के अन्य संस्करणों में क्रम संख्या भिन्न है।जैसे ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करणों में 👇
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शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दासः
ऋ०१।१५८ । ५ ।
त्रैतन एतन्नामको दासोऽत्यन्तनिर्घृणः”सायण- भाष्य 

१-नद्यः नदनशीला:=सरितः २-"मातृतमाः= मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः ३-“मा= मां दीर्घतमसं ४-“गरन् = न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात्५- “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः ६-“ईम् =एनं दीर्घतमसं मां ७-“सुसमुब्धं= सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः =एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः ॥

 - (दास:) दास जन (सुसमुब्धम्) अति सूधे स्वभाववाले (यत्) जिस मुझे (ईम्) सब ओर से (अबाधुः) पीड़ित करें उस (मा) मुझे (मातृतमाः) माताओं के समान मान करने-करानेवाली (नद्यः) नदियाँ (न) न (गरन्) निगलें न गलावें, (यत्) जो (त्रैतनः) तीन अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सुखों का विस्तार करनेवाला (दासः) सेवक (अस्य) इस मेरे (शिरः) शिर को (वितक्षत्) विविध प्रकार की पीड़ा देवे वह (स्वयम्) आप अपने (उरः) वक्षःस्थल और (अंसौ) स्कन्धों को (अपि, ग्ध) काटे ॥ ५ ॥

अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्त्रुरुतय: ।
इन्द्रो यद् वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद् वलस्य परिधीरिव त्रित:।5। (ऋग्वेद 1/52/5)

उपर्युक्त ऋचा पर सायण का भाष्य - देखें

ऊतयः मरुतः "मदे= सोमपानेन हर्षे सति “अस्य= इन्द्रस्य “युध्यतः वृत्रेण सह युध्यमानस्य पुरतः “स्ववृष्टिं स्वभूतवृष्टिमन्तं वृत्रम् “अभि आभिमुख्येन 'सस्रुः जग्मुः । "रघ्वीरिव “प्रवणे । यथा गमनस्वभावा आप निम्नदेशे गच्छन्ति । “यत् यदा “अन्धसा सोमलक्षणेनान्नेन पीतेन “धृषमाणः प्रगल्भः सन् "वज्री वज्रवान् “इन्द्रः “वलस्य = संवृण्वतः एतत्संज्ञकमसुरं “भिनत्=. व्यदारयत् अवधीदित्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः । “त्रितः= “परिधीनिव। देवानां हविर्लेपनिघर्षणाय 

(अग्नेः सकाशात् अप्सु एकतो द्वितस्त्रित इति त्रयः पुरुषा जज्ञिरे )

तैतिरीय  ब्राह्मण. ३. २. ८. १०-११

    
ऋग्वेदः - मण्डल १-
सूक्तं १०५

सायणभाष्यम् :- 

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त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये.
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहुरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१७) ।
अनुवाद:- कुएं में गिरा हुआ त्रित ऋषि अपनी रक्षा के लिए देवों को बुलाता है. बृहस्पति ने उसे पाप रूप कुएं से निकालकर उसकी पुकार सुनी. हे धरती और आकाश! हमारी बात जानो (१७)

अरुणो मा सकृद्वृक: पथा यन्तं ददर्श हि.
उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी. (१८)

अनुवाद:- 
लाल रंग के वृक ने मुझे एक बार मार्ग में जाते हुए देखा. वह मुझे देखकर इस प्रकार ऊपर उछला, जिस प्रकार पीठ की वेदना वाला काम करते-करते सहसा उठ पड़ता है. हे धरती और आकाश! मेरे इस कष्ट को जानो.(१८)

एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः.
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः(१९)

अनुवाद:- 
घोषणा योग्य इस स्तोत्र के कारण इंद्र का अनुग्रह पाए हुए हम लोग पुत्र, पौत्रों आदि के साथ संग्राम में शत्रुओं को हरावें. मित्र, वरुण, अदिति, सिंधु, पृथ्वी एवं आकाश हमारी इस प्रार्थना का आदर करें. (१९)


त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये ।
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१७॥

सायण-भाष्य:-“कूपेऽवहितः पातितः “त्रितः एतत्संज्ञः ऋषिः “ऊतये =रक्षणाय “देवान् “हवते= स्तुतिभिराकारयति । यदेतत् त्रितस्याह्वानं बृहस्पतिः =बृहतां महतां देवानां रक्षकः एतत्संज्ञो देवः एतत् आह्वानं “शुश्राव =श्रुतवान् । किं कुर्वन् । “अंहूरणात् =अंहसः पापरूपादस्मात् कूपपातादुन्नीय “उरु= विस्तीर्णं शोभनं कृण्वन्= कुर्वन् ॥ हवते । ह्वयतेर्लटि ‘ बहुलं छन्दसि' इति संप्रसारणम् । शब्गुणावादेशाः । ऊतये ।' ऊतियूति इत्यादिना क्तिन उदात्तत्वम् । बृहस्पतिः । ‘ तदबृहतोः करपत्योः ' ( पा. सू. ६. १. १५७.ग. ) इति पारस्करादिषु पाठात् सुट्तलोपौ ।' उभे वनस्पत्यादिषु" ' इति पूर्वोत्तरपदयोः युगपत्प्रकृतिस्वरत्वम् । अंहूरणात् । “अहि गतौ । इदित्वात् नुम् । ‘ स्वर्जिपिञ्ज्यादिभ्य ऊरोलची ' (उ. सू. ४. ५३० ) इति भावे ऊरप्रत्ययः । दुःखप्राप्तिहेतुभावा गतिरस्यास्तीति पामादिलक्षणो मत्वर्थीयो नः (पा. सू. ५. २. १०० )। आङ्पूर्वात् हन्तेर्वा रूपमुन्नेयम् ॥

अरुणो मा सकृद्वृकः पथा यन्तं ददर्श हि ।
उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१८

सायण भाष्य:-अरुणवर्णः =लोहितवर्णः ."वृकः= अरण्यश्वा "सकृत्= एकवारं “पथा= “यन्तं मार्गेण गच्छन्तं मां “ददर्श =“हि दृष्टवान् । हिः पादपूरणः। “निचाय्य दृष्ट्वा च मां जिघृक्षुः सन् उज्जिहीते उद्गच्छति स्म। तत्र दृष्टान्तः । “तष्टेव “पृष्ट्यामयी। यथा तक्षणजनितपृष्ठक्लेशः तष्टा वर्धकिः तदपनोदनाय ऊर्ध्वाभिमुखो भवति तद्वत् । हे द्यावापृथिव्यौ मदीयमिदं दुःखं “वित्तं जानीतम् । यद्वा । वृक इति विवृतज्योतिष्कः चन्द्रमाः उच्यते । अरुणः आरोचमानः कृत्स्नस्य जगतः प्रकाशकः मासकृत् मासार्धमासर्त्वयनसंवत्सरादीन् कालविशेषान् कुर्वन् । तिथिविभागज्ञानस्य चन्द्रगत्यधीनत्वात् । स चन्द्रमाः आकाशमार्गे यन्तं गच्छन्तं नक्षत्रगणं ददर्श । हिरवधारणे। नक्षत्रगणमेव ददर्श न कूपपतितं मामित्यनादरो द्योत्यते । यदि मां पश्येत् उद्धरेत् कूपात् । निचाय्य नक्षत्रगणं दृष्ट्वा चोज्जिहीते । येन नक्षत्रेण संयुज्यते तेन सहोद्गच्छति । न मामभिगच्छतीत्यर्थः । अन्यत् पूर्ववत् । अत्र मासकृत् इति यास्कः एकं पदं मन्यते शाकल्यस्तु पदद्वयम् । तस्मिन्पक्षेऽयमर्थः । दक्षप्रजापतेर्दुहितृभूताः स्वभार्याः अश्विन्याद्यास्तारकाः पुनःपुनर्ददर्श। मां सकृदेव पश्यतीति सकृद्दृष्ट्वा चोज्जिहीते। ताराभिः सहोर्ध्वमेव गच्छति । न मां कूपादुत्तारयति । अत इदमनुचितम् । हे द्यावापृथिव्यौ मदीयमिमं वृत्तान्तं जानीतम् ॥ अत्र निरुक्तं-' वृकश्चन्द्रमा भवति विवृतज्योतिष्को वा विकृतज्योतिष्को वा विक्रान्तज्योतिष्को वा । अरुण आरोचन: मासकृन्मासानां चार्धमासानां च कर्ता भवति चन्द्रमा वृकः पथा यन्तं ददर्श नक्षत्रगणमभिजिहीते निचाय्य येन येन योक्ष्यमाणो भवति चन्द्रमास्तक्ष्णुवन्निव पृष्ठरोगी' (निरु. ५.२०-२१) इति । सकृत् । एकस्य सकृञ्च' ( पा. सू. ५. ४.१९) इति क्रियाभ्यावृत्तिगणने निपातितः । वृकः । वृञ् वरणे'। सृवृभूशुचिमुषिभ्यः कित् ' ( उ. सू. ३. ३२१ ) इति कप्रत्ययः । जिहीते । “ओहाङ गतौ ' । जौहोत्यादिकः । ‘भृञामित्' इति अभ्यासस्य इत्वम् । निचाय्य । 'चायृ पूजानिशामनयोः । अत्र दर्शनार्थो धातूनामनेकार्थत्वात् । समासेऽनम्पूर्वे क्त्वो ल्यप्'। पृष्टयामयी। ‘स्पृश संस्पर्शने। 'स्पृश्यतेऽनेनेति स्पृष्टिः । छान्दसो वर्णलोपः । पृष्टावामयः पृष्ट्यामयः । तद्वान् पृष्ट्यामयी।। चन्द्रमाः' इति एकोनविंशत्यृचं द्वादशं सूक्तम् । अपां पुत्रस्य त्रितस्य कूपे पतितस्य कुत्सस्य वा आर्षम् । तथा चोभयोः कूपपातः आम्नायते--’ त्रितः कूपेऽवहितः ' (ऋ. सं. १. १०५. १७ ) ‘ काटे निबाळ्ह ऋषिरह्वदूतये (ऋ. सं. १. १०६. ६) इति च । त्रितस्य च अपां पुत्रत्वं तैत्तिरीयाः स्पष्टमामनन्ति- ' तत एकतोऽजायत स द्वितीयमभ्यपातयत् ततो द्वितोऽजायत स तृतीयमभ्यपातयत ततस्त्रितोऽजायत यददभ्योऽजायन्त तदाप्यानामाप्यत्वम् ' ( तैतिरीय  ब्राह्मण. ३. २. ८. १०-११ ) इति । तमेतमाप्यं • त्रितस्तद्वेदाप्त्यः ' ( ऋ. सं. १. १०५. ९) इति तकारोपजनेन वयमधीमही इति । अन्त्या त्रिष्टुप् । ' सं मा तपन्ति' इत्येषा यवमध्या महाबृहती । आद्यौ द्वावष्टाक्षरौ पादौ द्वादशाक्षरस्तृतीयस्ततो द्वावष्टाक्षरौ सा यवमध्या महाबृहती । चत्वारोऽष्टका जागतश्च महाबृहती ' (अनु. ९. ९) इत्युक्त्वा' ' मध्ये चेद्यवमध्या' (अनु. ९. १०) इत्युक्तलक्षणोपेतत्वात् । शिष्टाः पङ्क्तयः । विश्वे देवाः देवता । तथा चानुक्रान्तं- चन्द्रमा एकोनाप्त्यस्त्रितो वा वैश्वदेवं हि पाङ्क्तमन्त्या त्रिष्टुप् अष्टमी महाबृहती यवमध्या' इति । 'हि' इत्यभिधानादिदमादीनि त्रीणि सूक्तानि वैश्वदेवानि । विनियोगः । अत्र शाट्यायनिन इतिहासमाचक्षते-एकतो द्वितस्त्रित इति पुरा त्रय ऋषयो बभूवुः । ते कदाचिन्मरुभूमावरण्ये वर्तमानाः पिपासया संतप्तगात्राः सन्त एकं कूपमविन्दन् । तत्र त्रिताख्यः एको जलपानाय कूपं प्राविशत् । स्वयं पीत्वा इतरयोश्च कूपादुदकमुद्धत्य प्रादात् । तौ तदुदकं पीत्वा त्रितं कूपे पातयित्वा तदीयं धनं सर्वमपहृत्य कूपं च रथचक्रेण पिधाय प्रास्थिषाताम् । ततः कूपे पतितः स त्रितः कूपादुत्तरीतुमशक्नुवन् सर्वे देवा मामुद्धरन्त्विति मनसा सस्मार । ततस्तेषां स्तावकमिदं सूक्तं ददर्श । तत्र रात्रौ कूपस्यान्तश्चन्द्रमसो रश्मीन् पश्यन् परिदेवयते ॥

एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥१९॥

सायण भाष्य:-

एना अनेन “आङ्गूषेण आघोषणयोग्येन स्तोत्रेण हेतुभूतेन “इन्द्रवन्तः अनुग्राहकेणेन्द्रेण युक्ताः “सर्ववीराः सर्वैर्वीरैः पुत्रैः पौत्रादिभिश्चोपेताः सन्तः “वयं वृजने संग्रामे “अभि “ष्याम शत्रूनभिभवेम । “तत् इदमस्मदीयं वचनं मित्रादयः “ममहन्तां पूजयन्तु पालयन्त्वित्यर्थः । उतशब्दो देवतासमुच्चये। अत्र यास्कः-’ आङ्गूषः स्तोम आघोषः । अनेन स्तोमेन वयमिन्द्रवन्तः' (निरु. ५.११) इति । एना । ' द्वितीयाटौःस्वेनः '(पा. सू. २. ४. ३४) इति तृतीयायाम् इदम एनादेशः ।' सुपां सुलुक् ' इति विभक्तेः आजादेशः । चित्स्वरेणान्तोदात्तत्वम्। आङ्गूषेण । आङ्पूर्वात् घुषेः कर्मणि घञ् । आङो ङकारलोपाभावश्छान्दसः । घोषशब्दस्य गूषभावश्च पृषोदरादित्वात् । थाथादिना उत्तरपदान्तोदात्तत्वम् । स्याम । अस्तेः प्रार्थनायां लिङि' असोरल्लोपः' इति अकारलोपः । ' उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः' (पा. सू. ८. ३. ८७ ) इति षत्वम् 


 तथा च तैत्तिरीयैः समाम्नातं- ‘ सोऽङ्गारेणापः । अभ्यपातयत् । तत एकतोऽजायत । स द्वितीयमभ्यपातयत् । ततो द्वितोऽजायत । स तृतीयमभ्यपातयत् । ततस्त्रितोऽजायत' (तैतिरीय. ब्राह्मण. ३. २. ८. १०-११) इति । तत्रोदकपानार्थं प्रवृत्तस्य कूपे पतितस्य प्रतिरोधाय असुरैः परिधयः परिधायकाः कूपस्याच्छादकाः स्थापिताः । तान्यथा स अभिनत् तद्वत् ॥ स्ववृष्टिम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् । युध्यतः । ' युध संप्रहारे । दैवादिकः । व्यत्ययेन शतृ । अदुपदेशात् लसार्वधातुकानुदात्तत्वे श्यनो नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । रघ्वीः । रघि गत्यर्थः । ‘ रङ्घिबंह्योर्नलोपश्च' ( उ. सू. १. २९) इति उप्रत्ययः । ‘वोतो गुणवचनात्' इति ङीष् । जसि ‘वा छन्दसि ' इति पूर्वसवर्णदीर्घत्वम् । ङीष्स्वरः शिष्यते । धृषमाणः ।' ञिधृषा प्रागल्भ्ये ' । श्नुप्रत्यये प्राप्ते व्यत्ययेन शः आत्मनेपदं च । अदुपदेशात् लसार्वधातुकानुदात्तत्वे विकरणस्वरः शिष्यते । भिनत् । लङि ‘ बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि ' इति अडभावः । विकरणस्वरः । यद्वृत्तयोगादनिघातः । वलस्य । वल संवरणे'। वलति संवृणोति सर्वमिति वलः । पचाद्यच् ।' क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्' इति कर्मणः संप्रदानत्वात् चतुर्थ्यर्थे षष्ठी । परिधीन् । परिधीयन्ते इति परिधयः ।' उपसर्गे घोः किः '(पा, सू. ३. ३.९२ ) इति दधातेः कर्मणि किप्रत्ययः । ‘ आतो लोप इटि च' इति आकारलोपः । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ १२ ॥

यत्) जो (स्ववृष्टिम्) अपनी वृष्टि को (धृषमाणः)  प्रगल्भता करते हुए (वज्री) वज्रधारी (इन्द्रः)  (मदे) हर्ष में (अस्य) इस (युध्यतः) युद्ध करते हुए का (बलस्य) बल का (त्रितः)  त्रित ने  (परिधींरिव)  गोल रेखा के समान (अभि भिनत्)  भेदन करता है, (अन्धसा) अन्नादि वा जल से (रघ्वीरिव) जैसे जल से पूर्ण नदियाँ के समान(प्रवणे) नीचे स्थान में जाती हैं, वैसे (ऊतयः) रक्षा आदि (सस्रुः) गमन करती हैं।५।

जिस प्रकार गमनशील जल नीचे जाता है। उसी प्रकार इन्द्रदेव के साहयक मरुद्गण सोमपान द्वारा हृष्ट होकर युद्ध में लगे हुए इन्द्र के सामने वर्षा सम्पन्न वृत्र के समीप गये जिस प्रकार त्रित ने परिधि समुदाय का भेदन किया उसी प्रकार इन्द्र ने अन्न  से पोषित होकर बल नामक असुर का भेदन किया।।

ऋग्वेद मण्डल 1सूक्त 54का 5 वाँ सूक्त

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अथर्ववेद के कतिपय स्थलों पर  त्रित को त्रैतन  तुल्य दर्शाया है । 👇

अथर्ववेदः काण्डं ६/सूक्तम् ११३। देव. पूषा। त्रिष्टुप्, ३ पङ्क्तिः।

त्रितेदेवा-अमृजतैतदेनस्त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु॥१॥

मरीचीर्धूमान् प्र विशानु पाप्मन्न् उदारान् गच्छोत वा नीहारान्। नदीनं फेनामनु तान् वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन् दुरितानि मृक्ष्व ॥२॥

द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥३॥

सायणभाष्यम्

'मा ज्येष्ठम्' (अ ६,११२) 'त्रिते देवाः' (अ ६,११३) इति तृचाभ्यां परिवित्तिपरिवेत्तृप्रायश्चित्तार्थम् उदकघटं संपात्य अभिमन्त्र्य तयोः पर्वाणि मौञ्जपाशैर्बद्ध्वा आप्लावनम् अवसेकं वा कुर्यात् । अत्र 'नदीनां फेनान्' (अ ६,११३,२) इत्यर्धर्चेन उत्तरपाशान् नदीफेने निदध्यात् । सूत्रितं हि - “'मा ज्येष्ठम्', 'त्रिते देवाः' इति परिवित्तिपरिविविदानावुदकान्ते' मौञ्जैः पर्वसु बद्ध्वा पिञ्जूलीभिराप्लावयति । अवसिञ्चति । फेनेषूत्तरान् पाशान् आधाय 'नदीनां फेनान्' इति प्रप्लावयति । सर्वैश्च प्रविश्य" (कौसू ४६,२६-२९) इति ।

(१)अत्र इयमाख्यायिका । पुरा खलु देवाः पुरोडाशादिकं हविः संभृत्य तल्लेपजनितपापमार्जनाय एकतो द्वितस्त्रित इति त्रीन् पुरुषान् आप्याख्यान् अग्न्युदकसंपर्कवशाज्जनयामासुः। तेषु च तत् पापं निमृष्टवन्तः। ते च आप्याः सूर्याभ्युदितादिषु परंपरया पापं निमृष्टवन्त इति । तद् एतत् सर्वं तैत्तिरीये समाम्नायते - 'देवा वै हविर्भृत्वाऽब्रुवन्' (तैब्रा ३,२,८,९) इति प्रक्रम्य 'ते देवा आप्येष्वमृजत । आप्या अमृजत सूर्याभ्युदिते । सूर्याभ्युदितः सूर्याभिनिम्रुक्ते । सूर्याभिनिम्रुक्तः कुनखिनि । कुनखी श्यावदति । श्यावदन्नग्रदिधिषौ । अग्रदिधिषुः परिवित्ते । परिवित्तो वीरहणि। वीरहा ब्रह्महणि तद् ब्रह्महणं नात्यच्यवत' (तैतिरीय ब्रा० ३,२,८,११,१२) इति । तदिदमुच्यते - एतत् परिवित्तसमवेतम् एनः पापं पूर्वं देवास्त्रिते एतत्संज्ञे आप्त्ये अमृजत निमृष्टवन्तः । स च त्रितः एतत् स्वात्मनि समवेतं पापं मनुष्येषु सूर्याभ्युदितादिषु ममृजे मृष्टवान् निमार्जनेन स्थापितवान् । ततः तस्माद्धेतोः हे परिवित्त त्वा त्वां ग्राहिः ग्रहणशीला पापदेवता यदि । निपातानामनेकार्थत्वाद् अत्र यदिशब्दो यच्छब्दार्थे । या ग्राहिरानशे प्राप ते त्वदीयां तां ग्राहिं प्रागुक्ता देवाः ब्रह्मणा मन्त्रेण नाशयन्तु।

(२)हे पाप्मन् परिवेदनजनितपाप मरीची: अग्निसूर्यादिप्रभाविशेषान् अनु प्र विश। परिवित्तं विसृज्य प्रगच्छेत्यर्थः । अथवा धूमान् अग्नेरुत्पन्नान् अनु प्र विश । यद्वा उदारान् ऊर्ध्वं गतान् मेघात्मना परिणतांस्तान् गच्छ प्रविश । उत वा अपि वा तज्जन्यान् नीहारान् अवश्यायान् गच्छ । निपूर्वात् हरतेः कर्मणि घञ् । 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' (पा ६,३,१२२ ) इति दीर्घः । तथा च तैत्तिरीये सृष्टिं प्रक्रम्य आम्नायते - 'तस्मात् तेपानाद् धूमोऽजायत । तद् भूयोऽतप्यत । xxx तस्मात् तेपानान्मरीचयोऽजायन्त । xxx तस्मात् तेपानाद् उदारा अजायन्त । तद् भूयोऽतप्यत । तद् अभ्रम् इव समहन्यत' (तैब्रा २,२,९,१;२) इति । हे पाप्मन् नदीनाम् सरितां तान् प्रसिद्धान् फेनान् फेनिलान् प्रवाहान् अनु वि विक्ष्व अनुप्रविश्य विविधं गच्छ । 'नेर्विशः' (पा १,३,१७ ) इति आत्मनेपदम् । व्यत्ययेन शपो लुक् । अन्यद् व्याख्यातम् ।

३-त्रितस्य आप्त्यस्य संबन्धि प्रागुक्तरीत्या अपमृष्टं तद् एनः द्वादशधा निहितम् द्वादशसु स्थानेषु स्थापितम् । प्रथमं देवेषु पश्चात् त्रिषु आप्येषु ततः सूर्याभ्युदितादिषु अष्टसु एवं द्वादशसु स्थानेषु निक्षिप्तम् । तद् एनः मनुष्यैनसानि भवन्ति मनुष्यसमवेतानि इदानींतनानि पापानि संपद्यन्ते । उत्तरोऽर्धर्चो व्याख्यातः ।

इति पञ्चमं सूक्तम् ।

इति सायणार्यविरचिते अथर्वसंहिताभाष्ये षष्ठकाण्डे एकादशोऽनुवाकः_

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अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया ।
त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।
हे  परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र शक्ति से दूर भगा।
हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर ।
हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।
त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।
वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है।
हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !
 इस प्रकार उपर्युक्त ऋचा में  "त्रित" में "त्रैतन" का भाव समाहित हो गया-

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एक बात विचार-विमर्श का विषय है कि अवेस्ता और वैदिक सन्दर्भों में प्राप्त साक्ष्यों से विदित होता है कि ईरानी संस्कृति और भारतीयों की संस्कृति में परस्पर भेद था तो भी भाषायी साम्य होते हुए भी अर्थ भेद भी स्पष्ट है।
क्यों जहाँ वेदों में देवों की महिमा वर्णित है ।
और विशेषत: देवों के अधिपति इन्द्र की  वहीं इरानी में देव शब्द का अर्थ दुष्ट किया गया है ।
यद्यपि लिथुआनियन , ग्रीक, तथा नॉर्स संस्कृतियों में इन्द्र क्रमशः इन-द-र ,एण्डरो, (Andro) है ।
जिसका अर्थ है । शक्ति से युक्त मानव एनर परन्तु अ"वेस्ता ए जन्द़" में "इन्दर" को एक दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिरूप बताया है ।👇
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अवेस्ता ए जन्द़ में इन्दर (इन्द्र) को  वेन्दीदाद( Vendidâd; ) फर्गद- 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि बताया गया है ।

VENDIDAD (English): Fargard 10. - Avesta.

After thou hast thrice said those Thris-amrutas, thou shalt say aloud these victorious, most healing words:-

'"I drive away Indra, I drive away Sauru, I drive away the daeva Naunghaithya,7 from this house, from this borough, from this town, from this land; from the very body of the man defiled by the dead, from the very body of the woman defiled by the dead; from the master of the house, from the lord of the borough, from the lord of the town, from the lord of the land; from the whole of the world of Righteousness.

7. Indra, Sauru, Naunghaithya, Tauru, and Zairi are (with Akemmano [Akoman], here replaced by the Nasu), the six chief demons, and stand to the Amesha Spentas in the same relation as Angra Mainyu to Spenta Mainyu. Indra opposes Asha Vahishta and turns men's hearts from good works; Sauru opposes Khshathra Vairya, he presides over bad government; Naunghaithya opposes Spenta Armaiti, he is the demon of discontent; Tauru and Zairi oppose Haurvatat and Ameretat and poison the waters and the plants. -- Akem-mano, Bad Thought, opposes Vohu-mano, Good Thought.

तीन बार उन त्रि-अमृतों को कहने के बाद, आप इन विजयी, सबसे उपचारात्मक शब्दों को जोर से कहेंगे: -

.'"मैं इंद्र को दूर भगाता हूं, मैं सौरू को भगाता हूं, मैं इस घर से, इस नगर से, इस नगर से, इस भूमि से देव नौनघैथ्य को भगाता हूं, इस भूमि से, मरे हुए व्यक्ति के शरीर से, मृत व्यक्ति से उस स्त्री की देह भी मरे हुओं से अशुद्ध हो गई है, घर के स्वामी की ओर से, उसके स्वामी की ओर सेनगर, नगर के स्वामी की ओर से, भूमि के स्वामी की ओर से; धार्मिकता की पूरी दुनिया से।

.7. इंद्र, सौरु, नौंघैथ्य, टौरू, और ज़ैरी (अकेमानो [अकोमन] के साथ, यहाँ नासु द्वारा प्रतिस्थापित), छह प्रमुख  देव (राक्षस) हैं, और अमेशा स्पेंटास के साथ उसी संबंध में खड़े हैं जैसे अंग्रा मेन्यू से स्पेंटा मेन्यू। इंद्र आशा वहिष्ठ का विरोध करते हैं और पुरुषों के दिलों को अच्छे कामों से दूर कर देते हैं; सौरु क्षत्र वैर्य का विरोध करता है, वह बुरी सरकार की अध्यक्षता करता है; नौंघैथ्य ने स्पेंटा अरमैती का विरोध किया, वह असंतोष का दानव है; टौरू और ज़ैरी हौरवाट और अमेरेटैट का विरोध करते हैं और पानी और पौधों को जहरीला बना देते हैं। -- अकेम-मनो,बुरा विचार, वोहू-मनो का विरोध करता है, अच्छा विचार।

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इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्.धइत्थ्य , और दएव (देव) शब्द नकारात्मक अर्थो में हैं ।
यस्न संख्या-27,1,57,18, यस्त 9,4
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उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव, सुर आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं।
इसके विपरीत असुर दस्यु, दास , तथा वृत्र ईरानी संस्कृति में पूज्य अर्थों में हैं ।
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अर्थ और इतिहास

पुरानी ईरानी का आधुनिक फारसी रूप * थ्रैटौना जिसका अर्थ है "तीसरा" । 10वीं शताब्दी के फ़ारसी महाकाव्य शाहनामा में यह एक गुणी राजा का नाम है जिसने 500 वर्षों तक शासन किया। 𐬚𐬭𐬀𐬉𐬙𐬀𐬊𐬥𐬀 (थ्रैटोना) नाम का अवेस्तान रूप अवेस्ता के पहले के ग्रंथों में प्रकट होता है ।

(thraetaona )थ्रेतॉन  ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में वर्णित देव है। इसका सामञ्जस्य वैदिक
त्रित -आपत्या के साथ है ।
अवेस्ता में यम को यिमा (Yima) के रूप में महिमा- मण्डित किया गया है ।
अवेस्ता में अज़िदाहक को मार डाला जाता है ।
जिसे वैदिक सन्दर्भों में अहि-दास कहा गया है ।
भारतीय वैदिक सन्दर्भों में --- एकत: द्वित: और त्रित: के विषय में अनेक रूपक विद्यमान हैं ।👇
कुए में गिरे हुए त्रित ने देवों का आह्वान किया उसे देवों के पिता अथवा गुरु बृहस्पति ने सुना और त्रित को बाहर निकाला ।
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त्रित: कूपे८वहितो देवान् हवत ऊतये ।
तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु
वित्तं मे अस्य रोदसी ।
(ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 16 सूक्त 105 ऋचा 17)
कुए में गिरे हुए त्रित ने रक्षार्थ  देवाह्वान किया ;
तब उसे बृहस्पति (ज्यूस) ने सुना और पाप रूप कुऐं से उसे निकाला। हे रोदसी मेरे दु:ख को सुनो  त्रित इस प्रकार आकाश और पृथ्वी से प्रार्थना करता है

अब  यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को  त्रित पुन: जोड़ता है ; सम्भवतया त्रित ही त्रैतन के नाम  से चिकित्सक के रूप में प्रतिष्ठित है ।
यहाँ त्रित को रहस्य मयी नियमों वाला बताया गया है ।
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यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो  अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट 2।
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन
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यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित ने जोड़ा
इन्द्र ने इस पर प्रथम वार सवारी की ।
गन्धर्व ने इस की रास पकड़ी ; हे देवताओं तुमने इसे सूर्य से प्राप्त किया
हे अश्व तू यम रूप है।
सूर्य रूप है ;और गोपनीय नियम वाला त्रित है 
यही इसका रहस्यवादी सिद्धान्त है ।
मण्डल 1अध्याय 22सूक्त
163 ऋचा संख्या 2-3
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त्रित को वैदिक सन्दर्भों में चिकित्सा का देवता मान लिया गया । अंग्रेजी भाषा में प्रचलित ट्रीट (Treat )
शब्द वस्तुत त्रित मूलक है ।
अवेस्ता ए जेन्द़ में 
त्रिथ  चिकित्सक का वाचक है ।
तथा त्रैतन का रूप थ्रैतान फारसी रूप फरीदून प्रद्योन /प्रद्युम्न - चिकित्सक का वाचक है।
फरीदून नाम  फ़ारसी ग्रन्थ शाहनाम में त्रैतन शब्द का तद्भव रूप है ।

Iranian mythical king and hero from the Pishdadian dynasty For other people named Freydun, see Freydun (given name).For other uses, see Fereydun (disambiguation).

Fereydun (Avestan: 𐬚𐬭𐬀𐬉𐬙𐬀𐬊𐬥𐬀, romanized: Θraētaona, Middle Persian: 𐭯𐭫𐭩𐭲𐭥𐭭, Frēdōn; New Persian: فریدون, Fereydūn/Farīdūn) is an Iranian mythical king and hero from the Pishdadian dynasty. He is known as an emblem of victory, justice, and generosity in Persian literature.

Quick Facts Pishdadian Shah Ferydun A hero of Iranian myths and legends, Born ...

According to Abolala Soudavar, Fereydun is partially a reflection of Cyrus the Great (r. 550 – 530 BC), the first Achaemenid King of Kings.

Etymology

All of the forms of the name shown above derive, by regular sound laws, from Proto-Iranian *Θraitauna- (Avestan Θraētaona-) and Proto-Indo-Iranian *Traitaunas

Traitaunas is a derivative (with augmentative suffix -una/-auna) of Tritas, the name of a deity or hero reflected in the Vedic Trita and the Avestan Θrita. Both names are identical to the adjective meaning "the third", a term used of a minor deity associated with two other deities to form a triad. In the Indian Vedas, Trita is associated with thunder gods and wind gods. Trita is also called Āptya, a name that is probably cognate with Āθβiya, the name of Thraetaona's father in the Avestā, Zoroastrian texts collated in the third century. Traitaunas may therefore be interpreted as "the great son of Tritas". The name was borrowed from Parthian into Classical Armenian as Hrudēn.In Zoroastrian literature

In the Avestā, Thraetaona is the son of Aθβiya, and so is called Āθβiyāni, meaning "from the family of Aθβiya". He was recorded as the killer of the dragon Zahhak (Aži Dahāk).

On the contrary, in Middle Persian texts, Dahāka/Dahāg was instead imprisoned on Mount Damavand in Amol.

In the Shahnameh

According to Ferdowsi's Shahnameh, Fereydun was the son of Ābtin, one of the descendants of Jamšid. Fereydun, together with Kāve, revolted against the tyrannical king, Zahāk, defeated and arrested him in the Alborz Mountains. Afterwards, Fereydun became the king, married Arnavāz and, according to the myth, ruled the country for about 500 years. At the end of his life, he allocated his kingdom to his three sons, Salm, Tur, and Iraj.

Iraj was Fereydun's youngest and favored son, and inherited the best part of the kingdom, namely Iran. Salm inherited Anatolia ("Rûm", more generally meaning the Roman Empire, the Greco-Roman world, or just "the West"), and Tur inherited Central Asia ("Turān", all the lands north and east of the Amu Darya, as far as China), respectively. This aroused Iraj's brothers' envy, and encouraged them to murder him. After the murder of Iraj, Fereydun enthroned Iraj's grandson, Manučehr. Manučehr's attempt to avenge his grandfather's murder initiated the Iranian-Turanian wars.

Iranian literature Persian mythology Triton (mythology)References

[1]Tafazzoli 1999, pp. 531–533.

[2]Soudavar 2012, p. 53.

Sources

ईरानी पौराणिक राजा और पिशदादियन वंश के नायक Freydun (दिया गया नाम) देखें।अन्य उपयोगों के लिए, फेरेडुन (बहुविकल्पी) देखें।

फेरेयडुन (अवेस्टान: 𐬚𐬭𐬀𐬉𐬙𐬀𐬊𐬥𐬀, रोमानीकृत: Θraētaona, मध्य फारसी: 𐭯𐭫𐭩𐭲𐭥𐭭, फ्रेडॉन; नई फारसी: فریدون, Fereydun/Faridun) एक ईरानी वंश का नायक है। फ़ारसी साहित्य में उन्हें विजय, न्याय और उदारता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।

त्वरित तथ्य पिशदादियन शाह फेरीदुन ईरानी मिथकों और किंवदंतियों के नायक, जन्मे ...

अबोलाला सौदावर के अनुसार, फेरेडुन आंशिक रूप से साइरस द ग्रेट -सन् 550 - 530 ईसा पूर्व) का प्रतिबिंब है, जो राजाओं का पहला एकेमेनिड राजा है।

शब्द व्युत्पत्ति-

ऊपर दिखाए गए नाम के सभी रूप प्रोटो-ईरानी * Θraitauna- (Avestan Θraētaona-) और प्रोटो-इंडो-ईरानी * Traitaunas से, नियमित ध्वनि कानूनों द्वारा प्राप्त होते हैं।

ट्रेटाउनास, त्रितास का एक व्युत्पन्न (संवर्धित प्रत्यय -उना/-औना के साथ) है, एक देवता या नायक का नाम जो वैदिक त्रिता और अवेस्टन Θरिटा में परिलक्षित होता है। 

दोनों नाम "तीसरे" अर्थ वाले विशेषण के समान हैं, एक त्रय बनाने के लिए दो अन्य देवताओं से जुड़े एक छोटे देवता के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द। भारतीय वेदों में, त्रिता वज्र देवताओं और पवन देवताओं से जुड़ी है। ट्रिटा को आप्त्य भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम जो शायद अवेस्ता में थ्रेटोना के पिता के नाम, अवेस्ता में थ्रेटोना के पिता के नाम के साथ संगत है, तीसरी शताब्दी में पारसी ग्रंथों का मिलान किया गया। इसलिए त्रातुणों की व्याख्या "त्रितों के महान पुत्र" के रूप में की जा सकती है। नाम पार्थियन से शास्त्रीय अर्मेनियाई में ह्रुडेन के रूप में उधार लिया गया था।

पारसी साहित्य में अवेस्ता में, थ्रेटोना आसिया का पुत्र है, और इसलिए इसे आसियानी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "अथिया के परिवार से"। उसे ड्रैगन ज़हाक (अज़ी दहाक) के हत्यारे के रूप में दर्ज किया गया था।

इसके विपरीत, मध्य फ़ारसी ग्रंथों में, दहाका / दहाग को इसके बजाय अमोल में दमावंद पर्वत पर कैद किया गया था।

शाहनामे में -फ़िरदौसी के शाहनामा के अनुसार, फ़ेरेदुन अब्टिन का बेटा था, जो जमशेद के वंशजों में से एक था। फेरेयडुन, कावे के साथ, अत्याचारी राजा ज़हाक के खिलाफ विद्रोह किया, उसे अल्बोर्ज़ पर्वत में हराया और गिरफ्तार किया। बाद में, फेरेदुन राजा बने, अर्नवाज़ से शादी की और मिथक के अनुसार, लगभग 500 वर्षों तक देश पर शासन किया। अपने जीवन के अंत में, उसने अपना राज्य अपने तीन पुत्रों, सालम, तूर और इराज को आवंटित कर दिया।

इराज फेरेडुन का सबसे छोटा और इष्ट पुत्र था, और उसे राज्य का सबसे अच्छा हिस्सा, अर्थात् ईरान विरासत में मिला। सालम विरासत में मिला अनातोलिया ("रम", जिसका आमतौर पर अर्थ रोमन साम्राज्य, ग्रीको-रोमन दुनिया, या सिर्फ "पश्चिम") है, और तूर विरासत में मिला मध्य एशिया ("तुरान", अमु दरिया के उत्तर और पूर्व की सभी भूमि, जहाँ तक चीन), क्रमशः। इसने इराज के भाइयों की ईर्ष्या को जगाया और उन्हें उसकी हत्या करने के लिए प्रोत्साहित किया। इराज की हत्या के बाद, फेरेयडुन ने इराज के पोते, मनुचेहर को गद्दी पर बिठाया। अपने दादा की हत्या का बदला लेने के लिए मनुचेहर के प्रयास ने ईरानी-तुरानी युद्धों की शुरुआत की।

संदर्भ

[1]तफ़ाज़ोली 1999, पीपी। 531–533।

[2]सौदावर 2012, पृ. 53.

        🌹 अवेस्ता में वर्णित थ्रएतओन 🌹
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अवेस्ता में वर्णित है कि ----
यो ज़नत अजीम् दहाकँम् थ्रित फ़नँम थ्रिक मँरँधँम्
क्षृवश् अषीम् हजृडृ़.र  यओक्षीम् अश ओड्. हैम दएवीम् द्रुजँम् अघँम् 
गएथाव्यो द्रवँतँन् यॉम् ओजस्तँ माँम्  द्रुजँम्  फ्रच कँरँ तत् अङ्गरो मइन्युश् अओइयॉम् अरत्वइतीम् गएथाँम् मइकॉई अषहे गएथनाम्।
...(यस्न 9,8 अवेस्ता )----
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अर्थात् जिस "थ्रएतओन" जिसे वैदिक सन्दर्भों में (त्रैतन) या त्रित कहा है । वह  आप्त्य का पुत्र है ।
उसने  ही अज़िदाहक (अहि दास) को मारा था।
जो अहि तीन जबड़ो वाला , तीन खोपड़ियों वाला, छ: आँखों वाला
यह हजार युक्तियों वाला बहुत ही शक्तिशाली है । धूर्त ,पापी , जीवित प्राणीयों को धोखा देने वाला था ।
जिस बलशाली को "अङ्गरामइन्यु"  ने सृष्टि के विरोधी रूप में अश (सत्य) की सृष्टि के विनाश के लिए  निर्मित किया था ।
वस्तुत उपर्युक्त कथन अहिदास के लिए है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में (त्रिक मूर्धम् ) की तुलना  ऋग्वेद के उस स्थल से कर सकते  हैं । जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है । (ऋग्वेद-10/8/8 देखें👇
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"अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य । सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥७॥
स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रेषित आप्त्यो अभ्ययुध्यत् ।त्रिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान्त्वाष्ट्रस्य चिन्निः ससृजे त्रितो गाः ॥८॥
भूरीदिन्द्रउदिनक्षन्तमोजोऽवाभिनत्सत्पतिर्मन्यमानम् ।त्वाष्ट्रस्य चिद्विश्वरूपस्य गोनामाचक्राणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क् ॥९॥

सायण-भाष्य:-

7-अस्मिंस्तृच इममर्थं ब्रवीति । हे त्रित सर्वेषामायुधानि वेत्ता त्वं त्वष्टृपुत्रस्य त्रिशिरसो वधार्थं मम साहाय्यं कुर्वितीन्द्रेणैवं पृष्टस्त्रितः स्ववीर्यवृद्ध्यर्थं यज्ञभागं वव्रे । स चेन्द्रस्तस्मै पाणिप्रक्षालनार्थं च जलं यज्ञभागं च दत्तवान् । अनेन यज्ञभागेन वृद्धवीर्यः “त्रितः एतत्संज्ञक ऋषिः “एवैः आत्मनो रक्षणैर्युक्तः “अन्तः यज्ञस्य मध्ये “धीतिं भागम् “इच्छन् “परस्य उत्कृष्टस्य “पितुः सर्वस्य जगतः पालयितुः “अस्य इन्द्रस्य “क्रतुना त्रिशिरसो मम वधार्थं साहाय्यभूतेन कर्मणा निमित्तेन “वव्रे सखायं वृतवान् । किंच “पित्रोः मातापितृभूतयोर्द्यावापृथिव्योः “उपस्थे समीपस्थे यज्ञे “सचस्यमानः ऋत्विग्भिः सेव्यमानस्त्रितः “जामि योग्यमिन्द्रस्यानुरूपं स्तोत्रं “ब्रुवाणः इन्द्रस्य बलवृद्ध्यर्थमुच्चारयन् “आयुधानि स्वभूतानि “वेति । त्वष्टृपुत्रस्य मम वधार्थमागच्छति ॥

8-“आप्त्यः आप्त्यस्य पुत्रोऽपां पुत्रो वा। तकारोपजनश्छान्दसः । “सः त्रितः “पित्र्याणि स्वपितृसंबन्धीनि “आयुधानि “विद्वान् जानन् “इन्द्रेषितः त्रिशिरसा मया सह युद्धार्थमिन्द्रेण प्रेषितः सन् "अभ्ययुध्यत् अभिमुख्येन युद्धवान् । तदनन्तरं सप्तरश्मिं शत्रुनियमनार्थं सप्तप्रग्रहहस्तम् । यद्वा । सप्तरश्मिरादित्यः । तत्सदृशम् । “त्रिशीर्षाणं त्रिशिरस्कं मां “जघन्वान् हतवान् । मूर्च्छितं कृतवानित्यर्थः । किं च “त्रितः “त्वाष्ट्रस्य “चित् त्वष्टृपुत्रस्य ममापि “गाः पशून् “निः “ससृजे विसृष्टवान् । अपहृतवानित्यर्थः ॥

9-“सत्पतिः सतां पालकः “इन्द्रः भूरीत् बह्वेव पूर्वतुल्यमतिरिक्तं वा “ओजः बलम् "उदिनक्षन्तं व्याप्नुवन्तं “मन्यमानं शूरमित्यात्मानं चिन्तयन्तम् । यद्वा । मन्यतिर्दीप्तिकर्मा क्रोधक वा । दीप्यमानं क्रुध्यन्तं वा । त्वष्टृपुत्रं माम् “अवाभिनत् वज्रेण विदारितवान् । विदार्य “त्वाष्ट्रस्य “चित् त्वष्टृपुत्रस्यापि “गोनां गवाम् । स्वामिन इति शेषः । “विश्वरूपस्य मम “त्रीणि “शीर्षा शीर्षाणि “आचक्राणः आ समन्ताच्छब्दं कुर्वन् "परा “वर्क् पराङ्मुखस्य वृक्णवान् छिन्नवानित्यर्थः । ईदृशं भावि वस्तु विश्वरूपः स्वप्नान्तेऽनेन तृचेन दृष्टवान् ॥ ४॥

स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रे त्रित-आप्त्यो अभ्यध्यत्
त्रीशीर्षाणं सप्त रश्मिं जघन्वान् (ऋग्वेद-10/8/8)
जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है
इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी अहि और त्रित एक दूसरे के शत्रुओं के रूप में हैं।

जिस प्रकार अहि को मार कर त्रित ऋग्वेद में गायों को स्वतन्त्र करते हैं।👇

उसी प्रकार अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन  सय्यतन द्वारा अज़िदाहक को मार कर दो युवतियों को स्वतन्त्र करने की बात कही गयी है ।
अब उपर्युक्त उद्धरणों में भी थ्रएतओन वैदिक रूप (त्रैतन)
ऋग्वेद में ये सन्दर्भ इन ऋचाओं में वर्णित है-
👉 १३२, १३ १८५९।३३२।६ तथा
३६।८।४ ।१७।१।६।
अतः यह सन्दर्भ अ़हि (अज़ि) वृत्र (व्रथ्र) या वल (इबलीश)(evil)के साथ गोओं ,ऊषस् या आप:
सम्बन्धी देव शास्त्रीय भूमिका का द्योतन करता है  ऋग्वेद १३२/१८७/१ तथा १/५२/५

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नॉर्स  पुरा-कथाओं में (Thridiथ्रिडी  ओडिइन का पुराना  नाम जिसका साम्य त्रिता के साथ है।
और ट्रिथ- समुद्र के लिए एक पुराने आयरिश नाम भी है । ध्वन्यात्मक रूप से इसका साम्य वैदिक त्रित से है ।
ट्राइटन Triton (Τρίτων ) पॉसीडॉन एवं एम्फीट्रीट का पुत्र एक यूनानी  समुद्र का देवता है। जिसका ध्वन्यात्मक साम्य वैदिक त्रित को रूप में है ।
वैदिक और ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के सन्दर्भ समानार्थक रूप में विद्यमान हैं !

THRIDI
नोर्स ज्ञान का देवता

इसे Þriðji के रूप में भी जाना जाता है
यह एक और अजीब ऋषि है ।
वह हर और जफरहर के साथ रहस्यमय-तीन (त्रिक )का तीसरा सदस्य है।

उनका नाम ' थ्रर्त ' है और जब बैठने की व्यवस्था और स्थिति की बात आती है तो वह तीसरे स्थान पर ही होता है। लेकिन वह अपने सहयोगियों के रूप में स्पुल के थ्रूडिंग के बारे में उतना ही जानता है।

थ्रिडी तथ्य और फिगर
नाम: THRIDI

ओडिन, विली और वी 19 वीं शताब्दी के चित्रों में लोरेन्ज़ फ्रॉलीच द्वारा ब्रह्माण्ड बनाते हैं
विली और वी (क्रमशः "विली-ए" और "वेय", भगवान ओडिन  के दो भाई हैं, जिनके साथ उन्होंने ब्रह्मांड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई।

मध्ययुगीन आइसलैंडिक विद्वान स्नोरी स्टर्लुसन हमें बताता है कि ओडिन, विली और वी पहले सत्य थे जो अस्तित्व में थे। उनके माता-पिता प्रोटो-गॉड बोर और विशालकाय बेस्टला थे।
तीन भाइयों ने विशाल यमिर ( यम-अथवा हिम  )को मार डाला, जो अस्तित्व में आया था, और ब्रह्मांड को अपनी मास से बना दिया।
जबकि स्नोरी आम तौर पर एक विशेष रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं है, इस विशेष जानकारी को पूर्व-ईसाई नोर्स विचारों के प्रामाणिक खाते के रूप में स्वीकार करने के अच्छे कारण भी  हैं, यह देखते हुए कि यह अन्य सबूतों के साथ कितना अच्छा है, जिसे हम नीचे देखेंगे।
यम कनानी संस्कृतियों तथा प्राचीन ईरानी संस्कृतियों में
एवं नॉर्स और भारतीयों संस्कृतियों में समान रूप से है। केवल इसकी भूमिकाओं में भेद है ।

'विली' और 'वी' भी एक अन्य कहानी में शामिल हैं जो हमारे पास आ गया है: जब ओडिन अस्थायी रूप से एस्सार से , अस्सी देवताओं के दिव्य गढ़ को "अमानवीय" जादू का  अभ्यास करने के लिए निर्वासित कर दिया गया था, विली और वी अपनी पत्नी फ्रिग के साथ सो गए थे।

दुर्भाग्यवश, घटनाओं की इस श्रृंखला में उनकी भूमिका के बारे में और अधिक जानकारी नहीं है।

पुराने नोर्स साहित्य में विली और वी के अन्य स्पष्ट सन्दर्भ ओडिन के भाई के रूप में विली के उत्तीर्ण होने तक सीमित हैं।
स्माररी के प्रोज एडडा ग्रन्थ में हहर ("हाई"), जफरहरर  ("जस्ट एज़ हाई"), और Þriði ("तीसरा"), जिनकी नाममात्र कथाओं में भूमिका पूरी तरह से व्यावहारिक है, ओडिन, विली, और वी,
लेकिन यह संभावना है कि वे ओडिन तीन अलग-अलग रूपों के तहत हैं, क्योंकि ओल्ड नर्स कविता में अन्य तीन नाम ओडिन पर लागू होते हैं। विली और वी के बारे में सबसे अधिक आकर्षक जानकारी उनके नामों में मिल सकती है। पुराने नर्स में , विली का अर्थ है "विल,"

और वे का अर्थ "मंदिर"है और यह उन शब्दों के साथ निकटता से निकटता से संबंधित है जो पवित्र के साथ करना है, और विशेष रूप से पवित्र हैं।
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रुचिकर  बात यह है कि ओडिन, विली और "वी" के प्रोटो-जर्मनिक नाम क्रमशः वुंडानाज़ ,  वेल्जोन ,  और विक्सन थे ।
यह अलगाव शायद ही संयोगपूर्ण हो सकता है, और हम्हें सुझाव देता है कि त्रैमासिक समय उस समय की तारीख है जब प्रोटो-जर्मन भाषा बोली जाती थी - लगभग 800 ईस्वी में वाइकिंग एज शुरू होने से पहले, और सम्भवतः दो सहस्राब्दी या उससे  कम नहीं उस तारीख से पहले।

यद्यपि वे केवल वाइकिंग (समुद्र के लुटेरों )का युुग था।
इन्हें  साहित्य में स्पोराडिक रूप से वर्णित किया गया है। और इसके तत्काल  बाद, विली और वी नॉर्स और अन्य जर्मन लोगों के लिए कम से कम जर्मनिक जनजातियों के समय, और सम्भवतः बाद में भी प्रमुख महत्व के देवताओं के रूप में होना चाहिए।
क्यों जर्मनिक भारतीयों के सहवर्ती हैं ।
और उनके और भारतीयों के पूर्वज तथा देव सूची भी समान है । जैसे मनु, को जर्मन संस्कृति में मेनुस् 🐩

रोमन लेखक टैसिटस (रोमन इतिहास कार समय ईस्वी सन् 68 के लगभग)  के मुताबिक, मोनुस , जर्मनिक जनजातियों के निर्माता है ;  मिथकों में जो एक आंकड़ा था। टैसिटस ही इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
टैसिटस ने जर्मन संस्कृति को गहनता से जाना ।

टैसिटस ने लिखा था कि मानुस तुइस्टो (वैदिक रूप त्वष्टा )का बेटा था और जो तीन जर्मनिक जनजातियों इंजेवोन्स , हर्मिनोन्स और इस्तवाइन्स का  पिता हुआ ।  जर्मन जनजातियों पर चर्चा करने में टैसिटस ने लिखा: कि

प्राचीन काल में, उनकी एकमात्र ऐतिहासिक परम्परा है,कि वे पृथ्वी से बाहर लाए गए एक देवता तुइस्टो का जश्न मनाते हैं। वे उन्हें एक बेटे, मानस, उनके लोगों के स्रोत और संस्थापक और मानुस के तीन पुत्रों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, जिनके नाम महासागर के नजदीकी नाम हैं, उन्हें इल्वाइओन्स कहा जाता है, जो मध्य हर्मिनोन में हैं, और बाकी इस्तावाइन्स हैं।
कुछ लोग, प्राचीन काल के रूप में अटकलों को मुक्त कर देते हैं, यह सुनिश्चित करते हैं कि भगवान से पैदा हुए अधिक बेटे थे और इसलिए अधिक जनजातीय पदनाम- मंगल , गाम्ब्रिवी , सुबेई और वंदिली- और ये नाम वास्तविक और प्राचीन हैं।
(  पुस्तक जर्मनिया , अध्याय संख्या 2)

कई लेखकों ने टैक्सीटस के काम में मानस नाम को इंडो-यूरोपीय मूल से रोकने के लिए माना;
पूर्व-जर्मनिक रूप मन्नाज़ , है ।
"
16 वीं शताब्दी में मैनियस फिर से साहित्य में लोकप्रिय हो गया, लेखक एनीस डी विटरबो और जोहान्स एवेन्टिनस  द्वारा प्रकाशित कार्यों के बाद जर्मनी और सरमातिया पर एक प्रमुख राजा के रूप में उन्हें सूचीबद्ध करने के लिए कहा गया।

19 वीं शताब्दी में, एफ नोर्क ने लिखा था कि मानुस के तीन पुत्रों के नामों को इंगुई, इरमिन और इस्ताव या इस्सीओ (इक्कियो) या (वैदिक रूप इक्ष्वाकु )के रूप में निकाला जा सकता है।
राल्फ टी ग्रिफिथ जैसे कुछ विद्वानों ने मन्नस और अन्य प्राचीन संस्थापक-राजाओं के नामों जैसे ग्रीक पौराणिक कथाओं के मिनोस और भारतीय परम्परा के मनु के बीच एक सम्बन्ध व्यक्त किया है।

जर्मन अल्पसंख्यक सक्रिय उपयोग में हजारों सालों के इतने बड़े अनुपात में केवल मामूली महत्व का कोई पौराणिक आंकड़ा बरकरार रखा नहीं गया था, जिसके दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किए थे। तथ्य यह है कि विली और वी ओडिन के भाइयों के रूप में वर्णित किए जाते हैं, शायद इस समय के अधिकांश में सबसे ज्यादा जर्मनिक देवता, उनके ऊंचे स्तर का एक और सुझाव है।

वस्तुत , ओडिन, विली, और वी - क्रमशः प्रेरणा, चेतना का इरादा, और पवित्र - तीन सबसे बुनियादी ताकतों या विशेषताओं के प्रतिनिधि हैं जो अराजकता से किसी भी ब्रह्माण्ड को अलग करते हैं।
इसलिए यह तीन देवताओं थे जो मूल रूप से ब्रह्माण्ड बनाते थे, और निश्चित रूप से इसके निरन्तर रख रखाव और समृद्धि के सबसे आवश्यक स्तम्भों में से तीन बने रहे।👇
सन्दर्भ तालिका

[1] स्नोरी स्टर्लुसन। प्रोज एडडा। Gylfaginning।

[2] पोएटिक एडडा। लोकसेंना, स्टेन्ज़ा 26।

[3] स्नोरी स्टर्लुसन। यंग्लिंग सागा, अध्याय 3।

[4] शिमेक, रूडोल्फ। 19 93।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश।
एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ संख्या। 362।

[5] एलिस-डेविडसन, हिल्डा रोडरिक। 19 64.
उत्तरी यूरोप के देवताओं और मिथक। पृष्ठ-संख्या 201।

[6] शिमेक, रूडोल्फ। 1 99 3।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश। एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ संख्या। 177।

[7] इबिड। 362।

[8] इबिड। 355।

[9] ओरल, व्लादिमीर। 2003.
जर्मनिक एटिमोलॉजी की एक पुस्तिका। पृष्ठ। 453।
अर्थात् "थ्रिडी" ज्ञान का नॉर्स देवता ।
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ग्रीक पौराणिक कथाओं में ट्रिटॉन Triton , (Τρίτων) एक मर्मन (जल मत्स्य मानव)है  , जो एक समुद्र का देवता है जो वस्तुत वैदिक त्रैतन का प्रतिरूप है ।
यूनानी पुराणों में  त्रैतन  (Triton) समुद्र के देवता, पोसीडॉन और उसकी पत्नी अम्फिट्राइट (Amphitrite) का पुत्र था।
जिन्हें वैदिक सन्दर्भों में क्रमश: त्रैतन , पूषन् तथा आप्त्य कहा गया है।
वेदों में पूषण के लिए  निम्न ऋचाऐं देखें -👇
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यस्य ते पूषन्सख्ये विपन्यवः क्रत्वा चित्सन्तोऽवसा बुभुज्रिर इति क्रत्वा बुभुज्रिरे ।
तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे ।
अहेळमान उरुशंस सरी भव वाजेवाजे सरी भव॥३॥ऋग्वेद2/138/3

नहि त्वा पूषन्नतिमन्य आघृणे न ते सख्यमपह्नुवे॥४॥ऋग्वेद 1/138/4
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हे पूषा ! शीघ्र गामी मनुष्य को मार्ग में उचित दिशा बताने के समान तुम्हें स्तोत्र में प्रेरणा करता हूँ । जिससे तुम हमारे शत्रुओं को दूर करो। मेैं तुम्हारा आह्वान करता हूँ । तुम मुझे युद्ध में बलवान बनाओ।
पॉसीडॉन (Poseidon) यूनानी पुरा-कथाओं के अनुसार समुद्र और जल का देवता है।
जो सूर्य के रूप में भी प्रकट होता है । 

यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति ।
ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः॥ ऋगवेद-6.58.3॥

-हे (कृत) किये हुए विद्वन् ! (पूषन्) पूषण ! (याः) जो (ते) आपकी (हिरण्यययीः) तेजोमयी सुवर्णादिकों से सुभूषित (नावः)  नौकायें (समुद्रे) समुद्र वा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (अन्तः) भीतर (चरन्ति) जाती हैं (ताभिः) उनसे (कामेन) कामना के द्वारा (श्रवः) प्रसिद्धि /  अन्नादिक की (इच्छमानः) इच्छा करते हुए (सूर्यस्य) सूर्य्य के (दूत्याम्) दूती को (यासि) प्राप्त होते हो॥३॥

भावार्थभाषाः - हे पूषण ! जो  तुम्हारी नावों को समुद्र में  भीतर चलाते हैं।  उन कामनाओं के द्वारा वे धन-धान्य  की इच्छाकरते हुए। सूर्य के दूत भाव को प्राप्त हो जाते हैं॥३।
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शैतान का प्रारम्भिक रूप एक सन्त अथवा ईश्वरीय सत्ता के रूप में था । यह तथ्य स्वयं ऋग्वेद में भी विद्यमान हैं ।👇
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन
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त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन्मनुष्येषु ममृजे। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥१। -अथर्वेद-/6/113/1

मरीचीर्धूमान्प्र विशानु पाप्मन्नुदारान्गच्छोत वा नीहारान्। नदीनां फेनाँ अनु तान्वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन्दुरितानि मृक्ष्व ।।२॥ अथर्वेद- 6/113/2

द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥ अथर्वेद:+6/113/3

सायणभाष्यम्

'मा ज्येष्ठम्' (अथर्व- ६,११२) 'त्रिते देवाः' (अथर्व- ६,११३) इति तृचाभ्यां परिवित्ति-परिवेत्तृप्रायश्चित्तार्थम् उदकघटं संपात्य अभिमन्त्र्य तयोः पर्वाणि मौञ्जपाशैर्बद्ध्वा आप्लावनम् अवसेकं वा कुर्यात् । अत्र 'नदीनां फेनान्' (अथर्ववेद- ६,११३,२) इत्यर्धर्चेन उत्तरपाशान् नदीफेने निदध्यात् । सूत्रितं हि - “'मा ज्येष्ठम्', 'त्रिते देवाः' इति परिवित्तिपरिविविदानावुदकान्ते' मौञ्जैः पर्वसु बद्ध्वा पिञ्जूलीभिराप्लावयति । अवसिञ्चति । फेनेषूत्तरान् पाशान् आधाय 'नदीनां फेनान्' इति प्रप्लावयति । सर्वैश्च प्रविश्य" (कौसू ४६,२६-२९) इति ।

(१-)अत्र इयमाख्यायिका । पुरा खलु देवाः पुरोडाशादिकं हविः संभृत्य तल्लेपजनितपापमार्जनाय एकतो द्वितस्त्रित इति त्रीन् पुरुषान् आप्याख्यान् अग्न्युदकसंपर्कवशाज्जनयामासुः। तेषु च तत् पापं निमृष्टवन्तः। ते च आप्याः सूर्याभ्युदितादिषु परंपरया पापं निमृष्टवन्त इति । तद् एतत् सर्वं तैत्तिरीये समाम्नायते - 'देवा वै हविर्भृत्वाऽब्रुवन्' (तैब्रा ३,२,८,९) इति प्रक्रम्य 'ते देवा आप्येष्वमृजत । आप्या अमृजत सूर्याभ्युदिते । सूर्याभ्युदितः सूर्याभिनिम्रुक्ते । सूर्याभिनिम्रुक्तः कुनखिनि । कुनखी श्यावदति । श्यावदन्नग्रदिधिषौ । अग्रदिधिषुः परिवित्ते । परिवित्तो वीरहणि। वीरहा ब्रह्महणि तद् ब्रह्महणं नात्यच्यवत' (तैब्रा ३,२,८,११,१२) इति । तदिदमुच्यते - एतत् परिवित्तसमवेतम् एनः पापं पूर्वं देवास्त्रिते एतत्संज्ञे आप्त्ये अमृजत निमृष्टवन्तः । स च त्रितः एतत् स्वात्मनि समवेतं पापं मनुष्येषु सूर्याभ्युदितादिषु ममृजे मृष्टवान् निमार्जनेन स्थापितवान् । ततः तस्माद्धेतोः हे परिवित्त त्वा त्वां ग्राहिः ग्रहणशीला पापदेवता यदि । निपातानामनेकार्थत्वाद् अत्र यदिशब्दो यच्छब्दार्थे । या ग्राहिरानशे प्राप ते त्वदीयां तां ग्राहिं प्रागुक्ता देवाः ब्रह्मणा मन्त्रेण नाशयन्तु।

(२-)हे पाप्मन् परिवेदनजनितपाप मरीची: अग्निसूर्यादिप्रभाविशेषान् अनु प्र विश। परिवित्तं विसृज्य प्रगच्छेत्यर्थः । अथवा धूमान् अग्नेरुत्पन्नान् अनु प्र विश । यद्वा उदारान् ऊर्ध्वं गतान् मेघात्मना परिणतांस्तान् गच्छ प्रविश । उत वा अपि वा तज्जन्यान् नीहारान् अवश्यायान् गच्छ । निपूर्वात् हरतेः कर्मणि घञ् । 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' (पाणिनि- ६,३,१२२ ) इति दीर्घः । तथा च तैत्तिरीये सृष्टिं प्रक्रम्य आम्नायते - 'तस्मात् तेपानाद् धूमोऽजायत । तद् भूयोऽतप्यत तस्मात् तेपानान्मरीचयोऽजायन्त ।  तस्मात् तेपानाद् उदारा अजायन्त । तद् भूयोऽतप्यत । तद् अभ्रम् इव समहन्यत' (तैतिरीय -ब्राह्मण- २,२,९,१;२) इति । हे पाप्मन् नदीनाम् =सरितां तान् प्रसिद्धान् फेनान् =फेनिलान् प्रवाहान् अनु वि विक्ष्व =अनुप्रविश्य विविधं गच्छ । 'नेर्विशः' (पाणिनि १,३,१७ ) इति आत्मनेपदम् । व्यत्ययेन शपो लुक् । अन्यद् व्याख्यातम् ।

(३)-त्रितस्य आप्त्यस्य संबन्धि प्रागुक्तरीत्या अपमृष्टं तद् एनः द्वादशधा निहितम् द्वादशसु स्थानेषु स्थापितम् । प्रथमं देवेषु पश्चात् त्रिषु आप्येषु ततः सूर्याभ्युदितादिषु अष्टसु एवं द्वादशसु स्थानेषु निक्षिप्तम् । तद् एनः मनुष्यैनसानि भवन्ति मनुष्यसमवेतानि इदानींतनानि पापानि संपद्यन्ते । उत्तरोऽर्धर्चो व्याख्यातः ।

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अथर्ववेदे  इति पञ्चमं सूक्तम् । षष्ठम् काण्ड एकादशोनुवाक्।

 ★-अर्थानुवाद:- अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।
हे  परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र-शक्ति से दूर भगा ।
हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर  अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर ।
हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।
त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया। वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है।
हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !

"सम्भवतया देवों के द्वारा "त्रित" में पाप स्थापित किए जाने के कारण वह देव विरोधी हो और उसका ही इतर रूप त्रैतन ईरानी धर्म में थ्रैतॉन तथा हिब्रू अरमाईक तथा अरबी में  सैतान { शैतान)  और "सय्यतन हो गया।

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एक ऋषि तथा देवता ।
परंतु निरुक्त में इसे एक द्रष्टा कहा है [नि.४.६] ।

सनेम ये त ऊतिभिस्तरन्तो विश्वा स्पृध आर्येण दस्यून् ।
अस्मभ्यं तत्त्वाष्ट्रं विश्वरूपमरन्धयः साख्यस्य त्रिताय ॥१९॥
अस्य सुवानस्य मन्दिनस्त्रितस्य न्यर्बुदं वावृधानो अस्तः ।
अवर्तयत्सूर्यो न चक्रं भिनद्वलमिन्द्रो अङ्गिरस्वान् ॥२०॥

 त्रित ने त्रिशीर्ष का [ऋ.१०.८.८] ।, एवं त्वष्ट्रपुत्र विश्वरुप का वध किया [ऋ.१०.८.९] । मरुतों ने युद्ध में त्रित का सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया [ऋ.८.७.२४] ।

अनु त्रितस्य युध्यतः शुष्ममावन्नुत क्रतुम् ।
अन्विन्द्रं वृत्रतूर्ये ॥२४॥

“१-त्रितस्य =आप्त्यस्यैतत्संज्ञस्य २-"युध्यतः-= शत्रून् संप्रहरतो राजर्षेः "शुष्मं- परेषां शोषकं बलं मरुतः "अनु "आवन् =साहाय्यार्थमन्वगच्छन् । यद्वा । अनुगुणमरक्षन् । "उत अपि च "क्रतुं तदीयं कर्म चारक्षन् । अपि च “वृत्रतूर्ये वृत्रवधार्थे संग्रामे "इन्द्रं च "अनु आवन् अरक्षन् ॥

त्रित ने सोम दे कर सूर्य को तेजस्वी बनाया
[ऋ.९.३७.४]। त्रित तथा त्रित आप्त्य, एक ही होने का भाव संभव है ।
त्रिंत को आप्त्य विशेषण लगाया गया है ।
इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है [ऋ.९.४७.१५] । यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है [ऋ.१.१०५,८.४७,६.३३,३४,१०२,१०.१-७] । एक स्थान पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्याऊ के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो
[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है [ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इन्द्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है [.९.३२.२.१०,.८.७-८] ।
त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ सम्बन्ध था, ऐसा प्रतीत होता है [ऋ.२.११.१९] ।
त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है [ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं [ऋ. ५.४१.४] प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः । पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥४॥

 । त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है [ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की [ऋ.१.१०५.१७]
भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा [ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है । एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे ।
त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये ।
तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की
[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बन्धु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे [श. ब्रा.१.२.१.१-२];[तैतिरीय.ब्रा ३.२.८.१०-११] ।

महाभारत में त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है ।
गौतम के एकत:, द्वित: तथा त्रित: नामक पुत्र थे  यह सभी  ज्ञाता ( ज्ञानी ) थे ।
परन्तु कनिष्ठ पुत्र त्रित का तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था दौनों भाइयों को ।
और एकत और द्वित को पिता की ओर से विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था ।
एक बार  गौतम ने त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की ।
गौए ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था ।
दोनों भाई गौओं को हाँकते हुए पीछे जा रहे थे ।
इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी ।
त्रित निःशंक मन से जा रहा था ।
इतने में सामने से एक भेडिया आया ।
उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा,
तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा ।
इसने काफी चिल्लाहट मचाई ।
परन्तु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया ।
भेडिया का डर तो था ही ।
जल-हीन, धूलियुक्त तथा घास से भरे कुएें में गिरने के बाद, त्रित ने सोचा कि, ‘मृयु भय से मैं कुए में गिरा । इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’।
इस विचार से, कुएँ में लटकने वाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया ।
देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला ।
आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया । घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया ।
उनकी सन्ततियों को इसने बन्दर, रीछ आदि बना दिया बलराम जब त्रित के कूप के पास आये, उस समय उन्हें  यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी
[महाभारत शान्तिपर्व ३५];
[ भागवत.१०.७८]
। आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है [स्कन्द पुराण ] ।
पुराणों तथा महाभारत की ये कथाऐं पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा लिपि-बद्ध हैं ।
जो आनुमानिक व कल्पना-रञ्जित हैं ।
अब बात करते हैं यूरोपीय मिथकों की तो
उधर यूरोप के प्रवेश-द्वार -यूनान में
यूनानी महाकाव्य इलियड में वर्णित त्रेतन (Triton) एक समुद्र का देवता है ।
जो पॉसीडन ( Poisidon ) तथा एम्फीट्रीट(Amphitrite) का पुत्र है ।👇
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Triton is the a minor sea-good Son of the Poisson & Amphitrite " he is the messenger of sea "
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त्रेतन की कथा पारसीयों के धर्म - ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द़ में थ्रेतॉन के रूप में वर्णित है !
इनके धर्म-ग्रन्थों में थ्रेतॉन अथव्यय से अजि-दहाक (वैदिक अहिदास) की लड़ाई हुई
यूनानी महाकाव्यों में अहि  (Ophion) के रूप में है ।
ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों में त्रेतन समुद्र तथा समुद्र का देवता है ।
वस्तुत: तीनों लोकों में तनने के कारण तथा समुद्र की यात्रा में नाविकों का सहायता करने से होने के कारण इसके यह नाम मिला ..
वस्तुत: वैदिक , यूनानी और ईरानी मिथकों में साम्य है ।
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वेद तथा ईरानी संस्कृति में त्रेतन  तथा त्रित को चिकित्सा का देवता माना गया ----
यत् सोमम् इन्द्र विष्णवि यद् अघ त्रित आपत्यये---अथर्वेद-२०/१५३/५
अंगेजी भाषा में प्रचलित शब्द( Treat )
लैटिन Tractare तथा Trahere के रूप संस्कृत भाषा के त्रा -- तर् से साम्य रखते है ।
बाद में इसका  पद सोम ने ले लिया जिसे ईरानी आर्यों ने होम के रूप में वर्णित किया है ।

परवर्ती वैदिक तालीम संस्कृति में  त्रेतन को  दास तथा वाम -मार्गीय घोषित कर दिया गया था । और यहीं से प्रारम्भ होता है ।
 इसके शैतानी रूप का उपक्रम 
देखें--- 👇🐞🐞🐞🐞🐞
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यथा न मा गरन् नद्यो मातृतमा
दास अहीं समुब्धम बाधु: ।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत
स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध ।।
                             ऋग्वेद--१/१५८/५
अर्थात्--हे अश्वनि द्वय माता रूपी समुद्र का जल  भी मुझे न डुबो सके ।
दस्यु ने युद्ध में बाँध  कर मुझे फैंक दिया .
त्रेतन ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ..
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वेदों की ये ऋचाऐं संकेत करती हैं कि आर्य इस समय सुमेरियन बैबीलॉनियन आदि संस्कृतियों के सानिध्य में थी ।
क्योंकि सुमेरियन संस्कृति में त्रेतन को शैतान के रूप में वर्णित किया गया है ।
यही से यह त्रेतन पूर्ण रूप से हिब्रू ईसाई तथा इस्लामीय संस्कृतियों में नकारात्मक तथा अवनत अर्थों को ध्वनित करता है।
यहूदी पुरातन कथाओं में ये तथ्य सुमेरियन संस्कृति से ग्रहण किये गये ।
तब सुमेरियन बैवीलॉनियन असीरियन तथा फॉनिशियन संस्कृतियों के सानिध्य में ईरानी आर्य थे । असीरियन संस्कृति से प्रभावित होकर ही ईरानी आर्यों ने असुर महत् ( अहुर-मज्द़ा)को महत्ता दी निश्चित रूप से यह शब्द यूनानीयों तथा भारतीय आर्यों में समान है ।
संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द त्रि -(तीन ) फ़ारसी में सिह (सै)हो गया ..
फ़ारसी में जिसका अर्थ होता है ---तीन ..
जैसे संस्कृत भाषा का शब्द त्रितार (एक वाद्य)
फ़ारसी में सिहतार हो गया है ।
इसी प्रकार त्रितान, सिहतान हो गया है ।
क़ुरान शरीफ़ मे शय्यतन शब्द का प्रयोग हुआ है ऋग्वेद में एक स्थान पर त्रेतन के मूल रूप त्रित का वर्णन इस प्रकार हुआ है ।
कि जब देवों ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित में ही स्थापित कर दिया  तो त्रित त्रेतन हो गया ।अनिष्ट उत्पादन जिसकी प्रवृत्ति बन गयी ।👇
देखिए-- त्रित देव अमृजतैतद् एन: त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे --- अथर्ववेद --६/२/१५/१६

अर्थात् त्रित ने स्वयं को पाप रूप में सूर्योदय के पश्चातआत्मा लेते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित कर दिया ।
वस्तुत: त्रेतन पहले देव था ।
हिब्रू परम्पराओं में शैतान /सैतान को अग्नि से उत्पन्न माना है ।और ऋग्वेद में भी त्रित अग्नि का ही पुत्र है ।
अग्नि ने यज्ञ में गिरे हुए हव्य को  धोने के लिए जल से तीन देव बनाए --एकत ,द्वित तथा त्रित
जल (अपस्) से उत्पन्न ये आप्त्य हुए जिसे होमर के महाकाव्यों में (Amphitrite)...
कहा गया है ।
अर्थात् इस तथ्य को उद्धृत करने का उद्देश्ययही है कि वेदों का रहस्य असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों के विश्लेषण कर के ही उद्घाटित होगा ..
____________________________________ तथ्य-विश्लेषक --- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़।🌷🌷🌷🌷🌷🌷

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बाइबिल में शैतान का वर्णन - इस प्रकार है ।👇

परमेश्वर के द्वारा शैतान को एक पवित्र स्वर्गदूत के रूप में रचा गया था।
यशायाह 14:12 सम्भवत: शैतान को गिरने से पहले लूसीफर का नाम देता है।
यहेजकेल 28:12-14 उल्लेख करता है कि शैतान को एक करूब के रूप में रचा गया था, जो कि स्वर्गदूतों में सबसे उच्च प्राणी के रूप में दिखाई देता हुआ जान पड़ता था ।
वह अपनी सुन्दरता और पद के कारण घमण्ड से भर गया और परमेश्वर से भी ऊँचे सिहांसन पर विराजमान होना चाहता था (यशायाह 14:13-14; यहेजकेल 28:15;1 तिमुथियुस 3:6)।
यही शैतान का घमण्ड उसके पतन का कारण बना। यशायाह 14:12-15 में दिए हुए कथनानुसार " उसके पाप के कारण, परमेश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया।
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शैतान इस संसार का हाकिम और वायु की शाक्ति का राजकुमार बन गया (यूहन्ना 12:31; 2 कुरिन्थियों 4:4; इफिसियों 2:2)।
वह दोष लगाने वाला है (प्रकाशितवाक्य 12:10), परीक्षा में डालने वाला है (मत्ती 4:3; 1 थिस्सलुनीकियों 3:5), और धोखा देने वाला है (उत्पत्ति 3; 2 कुरिन्थियों 4:4; प्रकाशितवाक्य 20:3)।
उसका नाम ही "शत्रु" है या वह जो "विरोध करता" है। उसके एक और पद, इबलीस है, जिसका अर्थ "निन्दा करने वाला" है।"

हांलाकि उसे स्वर्ग से निकाल बाहर किया है, परन्तु वो अभी भी अपने सिहांसन को परमेश्वर से ऊपर लगाना चाहता है। जो कुछ परमेश्वर करता है उस सब की वो नकल, यह आशा करते हुए करता है कि वह संसार की अराधना को प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर के राज्य के विरोध में लोगों को उत्साहित करता है।
शैतान ही सभी तरह की झूठी शिक्षाओं और संसार के धर्मों के पीछे अन्तिम स्त्रोत है।
शैतान परमेश्वर और परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के विरोध में अपनी शाक्ति में कुछ और सब कुछ करेगा। परन्तु फिर भी, शैतान का गंतव्य – आग की झील में अनन्तकाल के लिए डाल दिए जाने के द्वारा मुहरबन्द कर दिया गया है ।
(प्रकाशितवाक्य 20:10)।
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इय्योब नामक काव्य ग्रन्थ में शैतान एक पारलौकिक सत्व है जो ईश्वर के दरबार में इय्योब पर पाखंड का आरोप लगाता है।यहूदियों के निर्वासनकाल के बाद (छठी शताब्दी ई. पू.) शैतान एक पतित देवदूत है जो मनुष्यों को पाप करने के लिए प्रलोभन देता है।

बाइबिल के उत्तरार्ध में शैतान बुराई की समष्टिगत अथवा व्यक्तिगत सत्ता का नाम है।
उसको पतित देवदूत, ईश्वर का विरोधी, दुष्ट,
प्राचीन सर्प, परदार साँप (ड्रैगन), गरजनेवाला सिंह, इहलोक का नायक आदि कहा गया है।
त्रैतन

जहाँ मसीह अथवा उनके शिष्य जाते, वहाँ शैतान अधिक सक्रिय बन जाता क्योंकि मसीह उसको पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे।
किंतु मसीह की वह विजय संसार के अंत में ही पूर्ण हो पाएगी (दे. कयामत)। इतने में शैतान को मसीह और उसके मुक्तिविधान का विरोध करने की छुट्टी दी जाती है। दुष्ट मनुष्य स्वेच्छा से शैतान की सहायता करते हैं। संसार के अंत में जो ख्राीस्त विरोधी (ऐंटी क्राइस्ट) प्रकट होगा वह शैतान की कठपुतली ही है।
उस समय शैतान का विरोध अत्यंत सक्रिय रूप धारण कर लेगा किंतु अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा। ईसा पर अपने विश्वास के कारण ईसाई शैतान के सफलतापूर्वक विरोध करने में समर्थ समझे जाते हैं।

बाइबिल के उत्तरार्ध तथा चर्च की शिक्षा के अनुसार शैतान प्रतीकात्मक शैली की कल्पना मात्र नहीं है; पतित देवदूतों का अस्तित्व असंदिग्ध है। दूसरी ओर वह निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा एक सृष्ट सत्व मात्र है जो ईश्वर के मुक्तिविधान का विरोध करते हुए भी किसी भी तरह से ईश्वर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।

ग्रीक कवि हेसियोड के अनुसार, ट्राइटन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहते था। 
कभी-कभी वह विशिष्ट नहीं था लेकिन कई ट्राइटनों में से एक था।
एक मछली की पूँछ के साथ, वह अपने कमर के लिए मानव के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया था।
ट्राइटन की  विशेषता एक मुड़कर सीशेल (मछली) थी, जिस पर उसने स्वयं को शान्त होने या लहरों को बढ़ाने के लिए उड़ा दिया।
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Poseidon
पोसीडोन, ग्रीक धर्म में, समुद्र के देवता (और आम तौर पर पानी), भूकम्प और घोड़े के रूप वह है।
Amphitrite )
एम्फिट्राइट, यूनानी पौराणिक कथाओं में समुद्र की देवी, भगवान पोसीडॉन की पत्नी ।
ग्रीक : Τρίτων Tritōn  ) एक पौराणिक ग्रीक देवता , समुद्र के दूत है ।
वह क्रमशः समुद्र के देवता और देवी क्रमश: पोसीडोन और एम्फिट्राइट का पुत्र है।
और उसके पिता के लिए हेराल्ड है । उन्हें आम तौर पर एक मर्मन के रूप में दर्शाया जाता है जिसमें ओवीड [1 के अनुसार, मानव और पूंँछ, मुलायम पृष्ठीय पंख, स्पाइनी पृष्ठीय पंख, गुदा फिन, श्रोणि पंख और मछली के कौडल फिन का ऊपरी शरीर होता है।

ट्रिटॉन की  विशेषता एक मुड़ता हुआ शंख  खोल था, जिस पर उसने शांत होने या लहरों को बढ़ाने के लिए तुरही की तरह स्वयं को उड़ा दिया।
इसकी आवाज इतनी शोक थी, कि जब जोर से उड़ाया गया, तो उसने दिग्गजों को उड़ान भर दिया, जिसने इसे एक अंधेरे जंगली जानवर की गर्जना की कल्पना की।
सायद सूकर के सादृश्य पर --

हेसियोड के थेसिस  के अनुसार,  ट्रिटॉन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहता था; होमर एगे से पानी में अपना आसन रखता है  त्रिटोनियन झील" ले जाया गया तब से उसका नाम  त्रिटोनियन हुआ।
, ट्राइटोनिस झील , जहां ट्राइटन, स्थानीय देवता ने डायोडोरस सिकुलस द्वारा " लीबिया पर शासक"
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ट्राइटन पल्लस के पिता थे और देवी एथेना के लिए पालक माता-पिता थे।
दो देवी के बीच एक विचित्र लड़ाई के दौरान गलती से एथेना ने पल्लस की हत्या कर दी थी।
ट्राइटन को कभी-कभी ट्राइटोन , समुद्र के डेमोनों में गुणा किया जा सकता है ।
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जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, वेल्श शब्द twrch त्रुच  का मतलब है "जंगली सूअर, हॉग, तिल है " तो Twrch Trwyth का अर्थ है "सूअर Trwyth"। इसका आयरिश संज्ञान ट्रायथ, स्वाइन का राजा (पुरानी आयरिश: ट्रायथ  टॉर्राइड) या लेबर गैबला इरेन में वर्णित टोरक ट्रायथ हो सकता है।
को सनस कॉर्माइक में ओल्ड आयरिश ओआरसी ट्रेथ "ट्रायथ्स सूअर" के रूप में भी रिकॉर्ड किया गया है।
राहेल ब्रॉमविच ने भ्रष्टाचार के रूप में ट्रविथ के रूप में फॉर्म का सम्मान किया।
प्रारंभिक पाठ हिस्टोरिया ब्रितोनम में, सूअर को ट्रिनट या ट्रॉइट कहा जाता है, जो वेल्श ट्र्वाइड से लैटिनिकरण की संभावना है।

प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में ,
एम्फिट्राइट ( æ m f ɪ t r aɪ t iː / ; ग्रीक रूप Ἀμφιτρίτη )
एक समुद्री देवी और पोसीडोन की पत्नी यह  समुद्र जगत्  की साम्राज्ञी थी।
ओलंपियन पंथ के प्रभाव में, वह केवल पोसीडोन की पत्नी बन गई और समुद्र के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के लिए कवियों द्वारा इसे वर्णित कर दिया गया।
रोमन पौराणिक कथाओं में , तुलनात्मक रूप से मामूली आकृति, नेप्च्यून की पत्नी, साल्शिया , खारे पानी की देवी थी। जो संस्कृत शब्द सार अथवा सर से साम्य रखता है ।
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पौराणिक कथाओं का सन्दर्भ में
बिस्ली ओथेका के मुताबिक, एम्फिट्राइट हेरियस की थीगनी के अनुसार, न्यूरियस और टेरीस (और इस प्रकार एक महासागर ) के अनुसार, नेरियस और डोरिस (और इस प्रकार एक नेरीड ) की बेटी थी, जो वास्तव में उसे नीरिड्स और महासागर ।
दूसरों ने उसे समुद्र के व्यक्तित्व ( नमकीन पानी ) कहा। एम्फिट्राइट की संतान में सील  और डॉल्फ़िन शामिल थे।
पोसीडॉन और एम्फिट्राइट का एक बेटा था, ट्राइटन जो एक मर्मन था, और एक बेटी, रोडोस  (यदि यह रोडो वास्तव में हेलिया पर पोसीडॉन द्वारा नहीं पैदा किया गया था या अन्य लोगों के रूप में (Asopus )की बेटी नहीं थी) तो भी इनके साम्य सूत्र भारतीयों के सरस्वती , राधा , पूषन्, त्रैतन आदि पौराणिक पात्रों से हैं ।
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बिब्लियोथेका (3.15.4) में पोसीडॉन और एम्फिट्राइट की एक बेटी भी बेंथेशेइक नाम का उल्लेख करती है ।

एम्फिट्राइट कुरिंथ से एक पिनएक्स पर एक ट्राइडेंट (575-550 ईसा पूर्व)
एम्फिट्राइट होमरिक महाकाव्यों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं है: "खुले समुद्र में, एम्फिट्राइट के ब्रेकर्स में" ( ओडिसी iii.101), "एम्फिट्राइट moaning" सभी गिनती के पीछे संख्याओं में मछलियों को पोषण "( ओडिसी xii.119)।
वह थियिसिस  के साथ अपने होमरिक एपिथेट हेलोसिडेन ("समुद्री-पोषित")  को कुछ अर्थों में साझा करती है, समुद्र- नीलम दोहराए जाते हैं।

प्रतिनिधित्व और पंथ
यद्यपि एम्फिट्राइट यूनानी संस्कृति में नहीं दिखता है, एक पुरातन अवस्था में वह उत्कृष्ट महत्व का था, क्योंकि होमरिक हिमन से डेलियन अपोलो में, वह ह्यूग जी। एवलिन-व्हाइट के अनुवाद में अपोलो के बीच में दिखाई देती है, "सभी प्रमुख देवियों, दीओन और रिया और इकेनिया और थीम्स और जोर से चिल्लाते हुए एम्फिट्राइट ; " हाल ही के अनुवादकों [9] एक अलग पहचान के रूप में "Ichnae" के इलाज के बजाय "Ichnaean थीम्स" प्रस्तुत करने में सर्वसम्मति से हैं। बैकचलाइड्स के एक टुकड़े के अनुसार, उनके पिता पोसीडॉन के पनडुब्बी हॉल में इनस नेरस की बेटियों को तरल पैर के साथ नृत्य और "अगस्त, बैल आंखों वाले एम्फिट्राइट" को देखा, जिन्होंने उन्हें अपनी शादी की पुष्पांजलि के साथ पुष्पित किया। जेन एलेन हैरिसन ने काव्य उपचार में मान्यता प्राप्त एम्फिट्राइट के शुरुआती महत्व की एक प्रामाणिक गूंज: "पोसीडॉन के लिए अपने बेटे को पहचानना बहुत आसान होता था ... मिथक पौराणिक कथाओं के शुरुआती स्तर से संबंधित है जब पोसीडोन अभी तक भगवान का देवता नहीं था समुद्र, या, कम से कम, कोई बुद्धिमान सर्वोच्च नहीं - एम्फिट्राइट और नेरीड्स ने अपने नौकरों के साथ ट्राइटन्स के साथ शासन किया। यहां तक ​​कि इतने देर हो चुकी है कि इलियड एम्फिट्राइट अभी तक 'नेप्च्यूनी उक्सर' नहीं है [नेप्च्यून की पत्नी] "।

हाउस ऑफ नेप्च्यून और एम्फिट्राइट, हरक्यूलिनियम , इटली में एक दीवार पर एक रोमन मोज़ेक
एम्फिट्राइट, "तीसरा जो [समुद्र] घेरता है", समुद्र और उसके प्राणियों के प्रति अपने अधिकार में पूरी तरह से सीमित था कि वह पूजा के उद्देश्यों या कार्यों के लिए लगभग अपने पति से कभी जुड़ी नहीं थी कला के अलावा, जब उसे समुद्र को नियंत्रित करने वाले भगवान के रूप में स्पष्ट रूप से माना जाता था। एक अपवाद एम्फिट्राइट की पंथ छवि हो सकती है कि पौसानीस ने कुरिंथ के इस्तहमस में पोसीडोन के मंदिर में देखा

अपने छठे ओलंपियन ओडे में पिंडार ने पोसीडॉन की भूमिका को "समुद्र के महान देवता, एम्फिट्राइट के पति, सुनहरे स्पिंडल की देवी" के रूप में पहचाना। बाद के कवियों के लिए, एम्फिट्राइट बस समुद्र के लिए एक रूपक बन गया: साइप्रॉप्स (702) और ओविड , मेटामोर्फोस , (i.14) में यूरिपिड्स।

यूस्टैथीस ने कहा कि पोसीडॉन ने पहली बार नरेक्स में अन्य नेरेड्स के बीच नृत्य किया, [12] और उसे ले जाया गया। [13] लेकिन मिथक के एक और संस्करण में, वह समुद्र के सबसे दूर के सिरों पर एटलस की प्रगति से भाग गई, [14] वहां पोसीडॉन के डॉल्फ़िन ने उसे समुद्र के द्वीपों के माध्यम से खोजा, और उसे ढूंढकर, पोसीडोन की तरफ से दृढ़ता से बात की, अगर हम हाइजिनस [15] पर विश्वास कर सकते हैं और तारों के बीच नक्षत्र डेल्फीनस के रूप में रखा जा रहा है। [16]

पूषल्यु । कुमारानुचरमातृभेदे भा० शा० ४७ अ० । पूष्णः पृथिव्याः इदम् अण् वेदे न वृद्धिः नोपधा लोपः । पार्थिवे पदार्थे त्रि० ऋ० १० । ५ । ५ ।

पूष् + कनिन् । १ सूर्य्ये आदित्यभेदे भा० आ० ६ श्लो० ङौ तु पूष्णि पूषणि पूषि ।
२ पृथिव्यां स्त्री निघण्टुः ।
पूषणा शब्देदृश्यम् ।
अयमन्तोदात्तः । स्वार्थे क ।
तत्रार्थे ।
पूषा अस्त्यस्य मतुप् वेदे नुट् णत्वम् । पूषण्वत् सूर्य्य- युक्ते पृथिवीयुक्ते च त्रि० । ऋ० १ । ८२ । ६ । भा०

हिब्रू शब्द לְשָׂטָ֣ן, शैतान , मूसा द्वारा पेंटाटेच में उपयोग किया जाता है (लगभग 1500 ईसा पूर्व में) विरोधी का मतलब है और मानव व्यवहार का वर्णन करने वाले सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। एक नाम के रूप में यह बाइबिल की कई हिब्रू किताबों में होता है और उसके बाद यूनानी अक्षरों σαταν, शैतान  में लिप्यंतरित किया जाता है, और इसके बाद 40 एडी और 9 0 ईस्वी के बीच लिखे गए नए नियम के लेखन में वर्णनात्मक नाम के रूप में उपयोग किया जाता है।

इस इकाई को पवित्रशास्त्र में दस वर्णनात्मक नाम दिए गए हैं (जिन्हें मैं जानता हूं) सर्प, शैतान, लूसिफर , डायबोलोस, बेल्जबुल या बेल्जबब ( बाल-ज़बूब से ), पोनेरोस, ड्रैकॉन, श्रेणियां, एंटीडिकोस और एनीमोस होने के बारे में जानते हैं ।

लगभग 5 9 0 ईस्वी में, कोलंबिया पोप बोनिफेस चतुर्थ (शायद लैटिन में) लिखता है और पोप ग्रेगरी को भेजे गए पिछले पत्रों को संदर्भित करता है:

त्रैतनु अथवा त्रैतन हिब्रू संस्कृतियों में कैसे गया

असुर संस्कृति के अनुयायी आर्यों का आगमन और फारसके सन्दर्भ में ऐैतिहासिक अवधारणाओं से यह तथ्य भी प्रकाशित है ।कि

ईरान में पहले पुरापाषाणयुग कालीन लोग रहते थे। यहाँ पर मानव निवास एक लाख साल पुराना हो सकता है। लगभग ५००० ईसापूर्व से खेती आरंभ हो गई थी। मेसोपोटामिया की सभ्यता के स्थल के पूर्व में मानव बस्तियों के होने के प्रमाण मिले हैं।

ईरानी लोग (आर्य) लगभग २००० ईसापूर्व के आसपास उत्तर तथा पूरब की दिशा से आए।
जिसे अवेस्ता ए जन्द़ में अजर-बेजान कहा गया है
इन्होंने यहाँ के लोगों के साथ एक मिश्रित संस्कृति की आधारशिला रखी जिससे ईरान को उसकी पहचान मिली।
आधिनुक ईरान इसी संस्कृति पर विकसित हुआ।
ये यायावर लोग ईरानी भाषा बोलते थे और धीरे धीरे इन्होंने कृषि करना आरम्भ किया।

आर्यों का कई शाखाए ईरान (तथा अन्य देशों तथा क्षेत्रों) में आई।
इनमें से कुछ मीदि, कुछ पार्थियन, कुछ फारसी, कुछ सोगदी तो कुछ अन्य नामों से जाने गए।
मिदि तथा फारसियों का ज़िक्र असीरियाई स्रोतों में 836 ईसापूर्व के आसपास मिलता है।
लगभग इसी समय जरथुस्ट्र (ज़रदोश्त या ज़ोरोएस्टर के नाम से भी प्रसिद्ध) का काल माना जाता है।
हालाँकि कई लोगों तथा ईरानी लोककथाओं के अनुसार ज़रदोश्त बस एक मिथक था कोई वास्तविक आदमी नहीं।
पर चाहे जो हो उसी समय के आसपास उसके धर्म का प्रचार उस पूरे प्रदेश में हुआ।

असीरिया के शाह ने लगभग 720 ईसापूर्व के आसपास इसरायल पर अधिपत्य जमा लिया।
उसने यहूदियों को अपने धर्म के कारण यातनाएँ दी। उनके सोलोमन (यानि सुलेमान) मंदिर को तोड़ डाला गया और कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। 530 ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन का क्षेत्र फ़ारसी नियंत्रण में आ गया।
फ़ारस के शाह अर्तेखशत्र (465ईसापूर्व ) ने यहूदियों को उनके धर्म को पुनः अपनाने की इजाज़त दी और कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए।
इस दौरान जो यहूदी मीदि में रहे उनपर ज़रदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया।

बाइबल के पुराने ग्रंथ (पहला अहदनामा) (Old Texament ) में पारसियों के इस क्रम का वर्णन मिलता है।

fereydun (फारसी: فریدون - Feraydūn या फरीदून; मध्य फारसी: Frēdōn; अवेस्टान: Θraētaona), Freydun, फरीदोन और अफरीडुन भी उच्चारण और वर्तनी, एक ईरानी पौराणिक राजा और वीर के राज्य से नायक का नाम है। वह फारसी साहित्य में जीत, न्याय और उदारता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।

व्युत्पत्ति का विकास-

उपरोक्त दिखाए गए नाम के सभी रूप प्रोटो-ईरानी Θraitauna- (अवेस्तान Θraētaona-) और प्रोटो-इंडो-ईरानी ट्रातिनास से नियमित ध्वनि कानूनों से प्राप्त होते हैं।

Traitaunas एक व्युत्पन्न (त्रिगण के संवर्धन प्रत्यय -una / -auna के साथ), एक देवता या नायक का नाम वैदिक त्रिता और अवेस्तान rrita में परिलक्षित है। दोनों नाम विशेषण के समान हैं "अर्थात्" तीसरा ", एक शब्द जो दो अन्य देवताओं से जुड़े एक नाबालिग देवता का प्रयोग होता है, जो त्रिभुज बनता है। भारतीय वेदों में, त्रिता गरज और हवा के देवताओं से जुड़ा हुआ है। ट्रिता को इप्तिया भी कहा जाता है, यह नाम शायद अस्तास्ता में थ्रायेटोना के पिता का नाम Āθβiya के साथ संज्ञेय है, जो तीसरी शताब्दी में ज़ोरोस्ट्रियन ग्रंथों को मिलाया गया था। इसलिए Traitaunas को "Tritas के महान पुत्र" के रूप में व्याख्या किया जा सकता है। नाम पार्थियन से शास्त्रीय अर्मेनियाई में हुरुडन के रूप में उधार लिया गया था।

ज़ोरस्ट्रियन साहित्य में त्रैतन ---

अवेस्ता में, थ्रायेटोना एस्त्रतिया का पुत्र है, और इसे Āθβiyani कहा जाता है, जिसका अर्थ है "अस्त्रुतिया के परिवार से"। मूल रूप से, उन्हें ड्रैगन जहाक (अज़ी दहाक) के हत्यारे के रूप में दर्ज किया गया हो सकता है, लेकिन मध्य फारसी ग्रंथों में, दहाका / दहाग को अमोल में माउंट दमवंद पर कैद किया जाता है।

शाहनम में ---

फिरदोसी के शाहनाम के अनुसार, फेरेदुन जब्सिद के वंशजों में से एक Ābtin का पुत्र था। फेरेडुन, एक साथ कव के साथ, अत्याचारी राजा, जहाक के खिलाफ विद्रोह, उसे हराकर अल्बोरज़ पहाड़ों में गिरफ्तार कर लिया। बाद में, फेरेडुन राजा बन गए, अर्नावाज़ से विवाह किया और मिथक के अनुसार, देश को लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। अपने जीवन के अंत में, उन्होंने अपने राज्य को अपने तीन बेटों सल्म, तुर और इराज में आवंटित किया।

इराज फेरेदुन का सबसे छोटा और पसंदीदा पुत्र था, और ईरान साम्राज्य का सबसे अच्छा हिस्सा विरासत में मिला। सल्म विरासत में अनातोलिया ("रुम", आमतौर पर रोमन साम्राज्य, ग्रीको-रोमन दुनिया, या सिर्फ "पश्चिम" का अर्थ है), और टूर ने मध्य एशिया ("तुरण", अमू दाराय के उत्तर और पूर्व में सभी भूमि विरासत में ली, चीन तक) क्रमशः।
इसने इराज के भाइयों की ईर्ष्या को उत्तेजित किया, और उन्हें मारने के लिए प्रोत्साहित किया। इराज की हत्या के बाद, फेरेडुन ने इराज के पोते, मनुचहर का सिंहासन किया।
मनुकाहर ने अपने दादा की हत्या का बदला लेने का प्रयास ईरानी-टुरानियन युद्धों की शुरुआत की।

इराज फेरेडुन का सबसे छोटा और पसंदीदा पुत्र था, और ईरान साम्राज्य का सबसे अच्छा हिस्सा विरासत में मिला। सल्म विरासत में अनातोलिया ("रुम", आमतौर पर रोमन साम्राज्य, ग्रीको-रोमन दुनिया, या सिर्फ "पश्चिम" का अर्थ है), और टूर ने मध्य एशिया ("तुरण", अमू दाराय के उत्तर और पूर्व में सभी भूमि विरासत में ली, चीन तक) क्रमशः।
इसने इराज के भाइयों की ईर्ष्या को उत्तेजित किया, और उन्हें मारने के लिए प्रोत्साहित किया। इराज की हत्या के बाद, फेरेडुन ने इराज के पोते, मनुचहर का सिंहासन किया।
मनुकाहर ने अपने दादा की हत्या का बदला लेने का प्रयास ईरानी-टुरानियन युद्धों की शुरुआत की!
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अन्वेषक :- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम आजा़दपुर पत्रालय -पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़

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