राम और अहीरों का पारस्परिक विरोध- पुरोहितों द्वारा स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी
भले ही आज ब्राह्मण समाज के बहुतायत लोग यादवों के पक्ष में हों परन्तु शंकराचार्यों को कौन समाझाएगा जो अहीरों को शूद्र ही मानते हैं
कुछ मात्र कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का हवाला देकर ?
और इसीलिए बहुत लोग मानते होंगे कि अहीर और यादव वास्तव में अलग हैं अहीर शूद्र हैं और यादव क्षत्रिय " परन्तु ये भी मानना भ्रम ही है। यादवों को तो ऋग्वेद से लेकर पुराणों में भी म्लेच्छ और देवद्रोही विशेषत: इन्द्र नामक देव का और इस लिए उन्हें देवद्रोही भी घोषित किया गया है।
जबकि पुराणों में वर्णन ये भी है कि सारे देवगण अहीरों के रूप में यादव रूप में व्रज के ग्वाल बन गये। पहले इसी से सम्बन्धित कुछ पूर्व पक्ष के रूप में शास्त्रीय आलेखों के हवाले से हम प्रस्तुत करते हैं।
कि यदु के वंशजों को बाद में किस प्रकार यादवों को म्लेच्छ जाति बता दिया जबकि उसी ग्रन्थ में पूर्व में उनके वंश का कीर्तन करने पापों से मुक्त होने वाला बताया।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते । यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यंपरं ब्रह्मनराकृति ॥ ४,११.४ । विष्णु पुराण चतुर्थांश अध्याय(11) तथा भागवत पुराण-9/23/19 में यदुवंश की स्तुति है।
और अहीरों के शासक होने का भी है तो फिर इसके विपरीत कैसे लिखा गया।
सप्तषष्टिं च वर्षाणि दशाभीरास्ततो नृपाः । सप्त गर्दभिनश्चैव भोक्ष्यन्तीमां द्विसप्ततिम् ॥ १७४ ॥ (ब्रह्माण्डपुराण मध्यम भाग) अध्याय 74-
भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में यदु के वंशजों को म्लेच्छ कहा गया है कि
"मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय।
करष्यति अपरो वर्णान् पुलिन्द' यदु"मद्रकान् ।३६।
मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को पुलिन्द , यदु ( यादव) और मद्र आदि म्लेच्छ प्राय: जातियों में बदल देगा ।३६।
ये पुराण इत्यादि। बौद्ध काल के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं।
जिसके सूत्रधार ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र सुंग
(ई०पू०१४८ ) के अनुयायी ब्राह्मण हैं।
यहाँ यदु पुत्रो को म्लेच्छ जाति बताया है। ये तुर्वसु के भाई यदु ही हैं। जिनके विरुद्ध तो कुछ पुरोहित वैदिक काल से ही थे ।
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 37 के ऋचा में तथा ऋग्वेद 7/19/8 में भी यही समानता है।
प्रियास इत् ते मघवन्न् अभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः |
नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्य् अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन्।ऋ०7/19/8
(मघवन्) हे इन्द्र ! (अभिष्टौ) सब प्रकार इष्टसिद्धि में (नरः) हम लोग (ते इत्) तेरे ही (प्रियासः) प्यारे (सखायः) मित्र होकर (शरणे) शरण में (मदेम) प्रसन्न होवें। (शंस्यम्) बड़ाई योग्य कर्म (करिष्यन्) करता हुआ तू (तुर्वशम्) तुर्वशु को (याद्वम्) यदु को (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिये (नि) निश्चय ही।
(नि) नित्य (शिशीहि) क्षीण करो।
____________________________________ ऋग्वेद की अन्य ऋचा भी देखें-
अया वीती परि स्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन्नवतीर्नव ॥१॥
पुरः सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरम् ।
अध त्यं तुर्वशं यदुम् ॥२॥ ऋ० 9/61/1-2
हे “इन्दो =सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते =तव “यः रसः “मदेषु =संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन= जघान अमुं =सोमरसं पीत्वा मत्तः= सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥
“सद्यः =एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम्"अध इन्दो=यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥
(सद्यः) शीघ्र ही (शम्बरम्) शम्बर को (अध) और (त्यम्) उस (तुर्वशम्) तुर्वशु को और (यदुम्) यदु को (पुरः) और उनकी नगरियों को (अवाहन्) नष्ट-भ्रष्ट कर दो [यहाँ लङ् लकार में अव+हन्=अवाहन् हनन कर दिया।
अवाहन् ‘अवाहन्’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है ॥२॥
निश्चित रूप से यदु और तुर्वसु को अपने अधीन करने के लिए और उनके नगरों को ध्वस्त करने के लिए पुरोहित लोग इन्द्र से प्रार्थना करते हैं। यदु और तुर्वसु के पिता ययाति द्वारा किए गये अमर्यादित कार्य के लिए भी तत्कालीन पुरोहित वर्ग को भी हम दोषी मानते हैं ।
क्यों कि यदु और तुर्वशु के पिता ययाति की ही बातों का समर्थन उन पुरोहितों ने किया। यदु ने ही अलोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के खिलाफ बगावत के स्वर मुखर किए जिनकी अन्तिम परिणति कृष्ण के देव विरोधी कार्यों के रूप में पुराणों में परिलक्षित हुई।
यदु ने स्वयं पशुपालन के रूप गायों की सेवा का कार्य किया और उनके वंशज वसुदेव और नन्द कृष्ण आदि से लेकर आज तक यही कार्य परम्परागत रूप से कर रहे हैं।
इसलिए यादव ही गोप अथवा अहीर हैं।
"यह पोष्ट केवल यादव (आभीर) समाज के लिए है अन्य जाति समाज के लोग अपना ज्ञान अपने ही पास रखें )👇
राम से हमारा कोई एक द्वेष नहीं ! परन्तु राम के कन्धो पर बन्दूक या बाण रखकर अहीरों पर जिसने चलाया वह भी बच नहीं पाएंगे !
अभिवादन के तौर पर " राम-राम बोलना भी हम यादवों पर थोपा गया है" हम कृष्ण ते उपासक थे। और फिर राम एक ऐतिहासिक नहीं अपितु प्रागैतिहासिक पात्र हैं।
जिनका जीवन काल मिथको के भँवर में समाया हुआ है।
जिनका जन्म और जीवन अस्वाभाविक व इतिहास की सीमाओं से परे है । फिर भी अहीर लोग राम का नाम लेते ही हैं। यह उनकी सहिष्णुता ही है।
👇जहाँ -सुमेर, मिश्र, ईरान ईराक, दक्षिणी अमेरिका, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया तथा थाईलेण्ड की संस्कृतियों में भी राम का वर्णन उनकी लोक परम्पराओं के अनुरूप है ।
और वहीं राम का वर्णन भारतीय संस्कृति में भी सुमेरियन संस्कृति से ही आयात है ।
परन्तु पुष्यमित्र सुँग काल में राम के मिथकीय चरित्रों का सृजन पुरोहितों द्वारा अपनी मान्यताओं और लोकाचारों के अनुरूप किया ही गया ।
भारतीय पुरोहितों ने तो द्वेषवश राम को अहीरों का हत्यारा तक लिख डाला।
👇-फिर अहीर राम को इस आधार भी क्यों महिमा मण्डित करें । फिर भी वे कर रहे हैं
राम ने तो अहीरों को खत्म करने के लिऐ अग्नि बाण चलाया इसलिए अहीर क्यों बनाऐं राम मन्दिर ? फिर थी वे मन्दिर बनवा ही रहे हैं ।
यद्यपि मेरे व्यक्तिगत शोधों के अनुसार राम का चरित्र केवल भारतीय ही नही अपितु थाई भी है।
यूनेस्को ने थाईलेण्ड की अयोध्या को ही असली अयोध्या माना है।
और वहाँ काम के वंशज आज भी राजा या शासक अपने को मानते हैं।
राम का युद्ध अहीरों से कभी नहीं हुआ परन्तु पुष्यमित्र शुग कालीन पाखण्डी ब्राह्मणों नें अपनी रामायण मे लिखा है कि जड़ अथवा चेतनाहीन समु्द्र द्वारा राम से यह कहने पर कि पापी अहीर मेरा जल पीकर मुझे अपवित्र करते हैं।
इसलिए इन अहीरों को मारिये ! तो राम अपना अग्नि बाण अहीरों पर छोड़ देते हैंँ।
कमाल की बात तो ये है कि जड़ अथवा चेतनाहीन समुद्र भी राम से बाते करता है और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ बाण से त्रेता युग में ही मार देते हैं।
परन्तु अहीर मरते नहीं रामबाण भी निष्फल ही हो जाता है ।
और अहीर आज भी पूरे भारत में छाऐ हुऐ हैं। अहीरों के मारने में तो राम का अग्निबाण भी फेल हो गया।
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निश्चित रूप से अहीरों (यादवों) के विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
ब्राह्मणों ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन धर्म ग्रन्थों के रूप में इस कारण से किया है ।
ताकि अहीरों को लोक मानस में हेय व दुष्ट घोषित किया जा सके"।
परन्तु ब्राह्मण सभी ऐसे ही नहीं थे। कुछ ब्राह्मण अहीरों के सदाचार और धर्मवत्सलता के कायल थे
अन्यथा पद्म पुराण के रचनाकार ब्राह्मण अहीरों के विषय में उन्हें सदाचारी नहीं लिखते।
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं स्वयं अवतरण करुँगा, और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी उस समय धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा
परन्तु वाल्मिकी रामायण के युद्ध काण्ड में और तुलसी दास की रामचरित मानस के सुंदर काण्ड में तथा परवर्ती काल में लिखे पुराणों में भी अहीरों को जिस हीनता और नीचता पूर्वक वर्णन किया है । वह अहीरों को सरे-आम गाली देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
उसका इस रूप में वर्णन अवैज्ञानिक व मिथ्या और अस्वाभाविक तो है ही। परन्तु समाज को तोड़ने वाला भी है।
तुलसी ने तो जातिवाद की हद ही पार कर दी
"आभीर" जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । —राम चरितमानस -उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०(क) काल
—आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥१॥
गरुड़ और कागभुषुण्डि के संवाद के बहाने से तुलसी ने अहीरों को पाप से उत्पन्न लिख दिया।
तुलसी की ये प्रक्षिप्त बाते रूढ़िवादी लोग बड़े भक्ति भाव से गा गा कर अहीरों को गालीयाँ देते रहते हैं ।
और संस्कृत भाषा में वाल्मीकि रामायण के रूप में भी यही तुलसी को जिसका आधार मिला
समुद्र जिसमें चेतना ही नहीं है वह भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है।
अहीरों को वैदिक काल में भी यदु और तुरसु के रूप में नकारात्मक और हेय रूप मे वर्णन इस बात का प्रबल साक्ष्य है कि अहीर कभी भी पुरोहित वाद की धूर्तता के समक्ष नतमस्तक नहीं हुए।
👇गायत्री, दुर्गा और राधा जैसी महान शक्तियों को अहीरों की जाति में जन्म लेने का सौभाग्य मिला
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड और स्कन्द पुराण नागर और प्रभास माहात्म्य खण्डों में वर्णन है कि स्वयं विष्णु भगवान ब्रह्मा के साथ गायत्री के विवाह के सन्दर्भ में स्वयं एक पिता के समान अहीरों की कन्या गायत्री का कन्यादान ब्रह्मा को करते हैं ।
और गायत्री के माता-पिता बन्धु-बान्धवों को आश्वासन ही नहीं अपितु वरदान भी देते हैं कि द्वापर युग में नन्द और वसुदेव आदि गोपों (अहीरों ) के सानिध्य में मेरा अवतरण होगा।
पद्म पुराण के लेखक ने ये बाते तत्कालीन अवधारणाओं के अनुरूप ही लिखीं थीं।
पद्म पुराण का सृष्टि खण्ड ही प्राचीन है परन्तु पद्मपुराण में भी बाद में जोड़- तोड़ का क्रम चलता रहा है।
पद्म पुराण में गायत्री को कई मर्तबा यादवी, आभीर -कन्या तथा गोप कन्या भी कहा है।
त्रेता काल में भी अहीर लोग व्रजप्रदेश में ही निवास करते थे ।
और कुछ आभीर आवर्त देश( गुजरात) में भी रहते थे । परन्तु धूर्तों ने द्वेष और काल्पनिकता की सरहदें ही पार कर दीं हैं उनके खिलाफत में ।
कि निर्जीव समुद्र राम से बातें भी करता है। और समुद्र के निवेदन पर राम ने द्रुमकुल्य देश में अहीरों को बिना कारण के मारा फिर भी क्यों कि वे पापी हैं परन्तु अहीर मरे नहीं ।
👇ब्राह्मणों ने राम को ही अहीरों का हत्यारा' बना दिया। सात्वत अहीरों ने भागवत धर्म का सूत्रपात किया तो मनुस्मृति कार नें उन्हे वर्णसंकर और शूद्र घोषित कर दिया। फिर भी हम मनुस्मृति को धर्म का कानून मान लेते हैं ।
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास के अनुसार राम ने अहीरों को त्रेता युग में ही अपने रामबाण से "द्रुमकुल्य" देश में मार दिया था लेकिन फिर भी अहीर आज कलयुग में करोड़ों की संख्या में मजबूती से जिन्दा हैं । यह उनकी मानवेतर जिजीविषा की ही परिणाम है।
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अहीरों को कोई नहीं जीत सकता; अहीर अजेय हैं। ऐसा तो भारतीय पुराण भी कह रहे हैं । अत: अहीरों से भिड़ने वाले नेस्तनाबूद हो जाऐगे।
अहीरों को वैसे भी हिब्रू बाइबिल और भारतीय पुराणों में देव स्वरूप और ईश्वरीय शक्तियों से युक्त माना है। भले ही कृष्ण ने देवों के राजा इन्द्र की पूजा पर रोक लगा दी हो
हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम अहीर हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही माने बैठे हैं जो अहीरों के खिलाफ लिख डाली क्योंकि मनन-रहित और विवेकहीन श्रृद्धा (आस्था) ने हमें इतना दबा दिया है कि हमारा मन गुलाम हो गया। यह पूर्ण रूपेण से वह अन्धभक्ति में आप्लावित है। यह आश्चर्य ही नहीं घोर आश्चर्य है।
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महर्षि वाल्मीकि जी अपनी रामायण के युद्ध-काण्ड के २२वें सर्ग में अहीरों के विरुद्ध लिखते हैं: यद्यपि यह दावा नहीं कि यह सब वाल्मीकि ने ही लिखा है या उनके हाथ से किसी अहीर विरोधी ने लिखा है ! नीचे वह श्लोक हम उद्धृत कर रहे हैं।
👇
रामस्य वचनं श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा महाशरम्।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥३१॥
उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्॥ ३२॥
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम॥३३॥
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः॥३४॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात्॥३५॥
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्।
निपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः॥३६॥
(वाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड सर्ग 22)
हिन्दी अनुवाद:-अर्थात् समुद्र राम से बोला हे प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है।३२।
वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।
हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए / अर्थात् वाण छोड़िए ।३४।
समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार अहीरों के उसी देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह अग्निवाण छोड़ दिया।३५।
तुलसी दासजी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए राम और समुद्र के सम्वाद रूप में लिखते हैं:
"आभीर यवन किरात खल अति अघ रूपजे
अर्थात् आभीर (अहीर), यवन (यूनानी) और किरात ये दुष्ट और पाप रूप हैं ! हे राम इनका वध कीजिए। (गीता प्रैस गोरखपुर ने इस पंक्तियों को बदल दिया है)
निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है। क्योंकि अहीरों ने कभी भी ब्राह्मणों का वर्चस्व समाज में स्थापित नहीं होने दिया।
तत्कालीन ब्राह्मण समाज भी अहीरों उसी प्रभाकर खिसियाया हुआ था जैसे जैन और बौद्धों से खिसियाया हुआ था।
वर्णव्यवस्था में अहीरों ने कभी भी अपने आप को समायोजित नहीं किया भले ही ब्राह्मण समाज ने अपने आप ही उन्हें शूद्र वर्ण के रूप में निम्न पायदान पर स्थापित करना चाहा हो !
राम को अहीरों का हत्यारा वर्णित करने के मूल मे पुरोहित समाज का यही दुरुदेश्य रहा है ।
ताकि इन कथाओं पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातों को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
👇अब आप ही बताओ, केवल निर्जीव जड़ समु्द्र के कहने पर त्रेता युग में राम अहीरों को मारने के लिऐ अपना राम-वाण अहीरों के "द्रुमकुल्य" देश पर चला देते हैं, लेकिन अहीरों का संहार करने में रामवाण भी निष्फल हो जाता है। क्या यह राम की पराजय नहीं
फिर भी राम मन्दिर बनाने के लिए अहीर तो करें अपना बलिदान और मन्दिरों के रूप में धर्म की दुकान चलाऐं पाखण्डी, कामी और धूर्त कलियुगी ब्राह्मण ।
दान दक्षिणा हम चढ़ाऐं और और ब्राह्मण उससे ऐशो-आराम करें।
इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ?
(द्रुमकुल्य देश कहाँ था ? तो इस पर भी कुछ विचार आवश्यक है।)
द्रुमकुल्य भारत और श्रीलंका के बीच के समुद्र के उत्तर की ओर स्थित एक देश था।
रामायण काल में यहाँ आभीरों का निवास था।
वाल्मीकि-रामायण में उल्लेख है कि
समुद्र की प्रार्थना पर श्रीराम ने अपने चढ़ाए हुए बाण को, जिससे वह समुद्र को दंडित करना चाहते थे, द्रुमकुल्य की ओर फेंक दिया था।
जिस स्थान पर वह बाण गिरा था, वहाँ समुद्र सूख गया और मरुस्थल बन गया, किन्तु यह स्थान राम के वरदान से पुन: हरा-भरा हो गया-
'तन्मरुकान्तारं पृथिव्या किल विश्रुतम्, निपातित: शरो यत्र बज्राशिनसमप्रभ:।
विख्यात त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेक्च, शोषयित्वात् तं कुक्षि रामो दशरथात्मज:।
वर तस्मै ददौविद्वान् मखेऽमरविक्रम:, पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुत:, बहुस्नेहो बहुक्षीर: सुगंधिर्विविधौषधि:
अध्यात्म रामायण के, युद्ध काण्ड में भी द्रुमकुल्य का उल्लेख है-
"रामोत्तरप्रदेशे तु द्रुमकुल्य इति श्रुत:'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 455 |
वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड 22, 29-30-31-33-37-38.
अध्यात्म रामायण, युद्ध काण्ड 3, 81
राम नाम को आधार पर आज जिस पकार भगवाधारी गैंग एक उग्रवाद को अंजाम दे रहा है जातिवाद का उन्माद और दंगा-फसाद फैला रहा है।
यह भारती समाज और संस्कृति के लिए घातक ही है यह भी सर्वविदित है ।
अभी अयोध्या में "राम मन्दिर ट्रस्ट में रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज के परामर्श स्वरूप किसी भी यादव को संरक्षक सदस्य मनोनीत नहीं किया गया।
और राम मन्दिर ट्रस्ट का चन्दा-घोटाला भी अभी प्रकाशन में आ गया है।
यदि राम ने अपनी गर्भ वती पत्नी को किसी रजत( धोबी) के कहने मात्र से भयंकर जंगल में त्याग दिया सम्बूक नामक निम्न जाति के व्यक्ति को तपस्या करने से रोकते हुए बध कर दिया तो फिर ऐसे राम का भगवान होना भी सन्दिग्ध और अमान्य ही है।
-ऐसे राम को हम नहीं मानते भले ही कोई लाख कुतर्क पेश करे उनके निर्दोषीकरण के लिए।
"राम-नाम का अभिवादन के रूप में उत्तरभारतीयों पर आरोपण अकबर के समय में हुआ था ।
मुग़ल सम्राट सलीमजादे का विवाह सबन्ध स्थापित होने पर मुगल बादशाह अकबर ने आमेर नाम का एक नया राज्य बनाकर राजा "भारमल" को सौप दिया वहीं आमेर- राज्य का राज कवि गोस्वामी तुलसीदास को मनोनीत किया गया।
आमेर का राजा ख़ुद को श्री राम का वंशज मानते थे इसलिये राजा "भारमल" के कहने पर तुलसीदास ने रामचरितमानस नामक ग्रन्थ अवधी बोली में लिखा था ।
एक मर्तबा अकबर ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर मन्नत माँगने व्रजभूमि से होते हुए अजमेर जा रहा था साथ में तुलसीदास भी थे यहाँ चारों तरफ यादवो_के_इष्टदेव भगवान श्री_कृष्ण की मंदिरों में पूजा अर्चना भजन कीर्तन का कृष्ण- नाद सुन और वहाँ कि रौनक देख कर तुलसीदास ने श्री कृष्ण पर कटाक्ष किया ।
"राधा-राधा रटत हैं आक-ढ़ाक व कैर।
तुलसी या व्रज भूमि में क्यों राम से बैर" ।।
" व्रजभूमि के पेड़ पौधे का पत्ता पत्ता भी राधे -कृष्ण राधे- कृष्ण का नाम जप रहें हेैं।
तुलसीदास इस भूमि पर राम से क्यों बेर किया जा रहा है तभी अकबर ने एक अध्यादेश जारी कर जन अभिवादन में "जय_श्री_कृष्ण की जगह राम राम की " परम्परा लागू कर दी और आज्ञा का उल्लंघन करने पर कठोर दंड की जोगवाई की सजा के डर के चलते लोगो ने जय श्री कृष्ण की जगह राम- राम परम्परा को अपना लिया और जो कालान्तर में यह परम्परा समाज पर रूढ़ हो गयी।
शिष्टाचार में जय श्री कृष्ण बोलना शुरू करे ,जैसे गुजरात मे आपस मे आहिर लोग जय मोरलीधर जरूर बोलते है। भारवाड़- भी जोकि अहीरों की एक पिछड़ी शाखा है ।
अपने पारस्परिक अभिवादन में "जय मुरलीधर" का ही उच्चारण करते हैं।
और अन्य जातियों भी आहिरों से बात करने मिलने से पहले जय मोरलीधर अवश्य बोलते है
बोलों मेरे साथ जय श्री कृष्ण जय मोरलीधर
★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★
एक शर्मा जी ने हमसे कुछ कहा वह आप भी पढ़ो-
"आपके समस्त तर्क, तथ्यात्मक, अकाट्य और शिरोधार्य हैं. केवल स्वलिखित इस भाष्य को ही आधार मान कर पुनर्विचार की कृपा कीजिये (समुद्र राम से बोला हे प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है{३२} वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं।{३३}
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।
हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए/अर्थात् वाण छोड़िए {३४}, इस स्थान पर समुद्र के माध्यम से पापचारियों के नाश की प्रार्थना है ना कि अभीरों के वंश नाश या अहीरों के सर्वनाश की) आपसे, मेरी यह याचना है, यदुश्रेष्ठ, इसे मेरे जैसे तुच्छ भक्त की भिक्षा ही मान लीजिये, बाकी जो आपका आगे निर्णय होगा वह शिरोधार्य होगा. ब्लॉगर पर एक शर्मा जी घबराकर उपर्युक्त बाते सुझाव देने शर्मा जी
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शर्मा जी हम मान भी जाते आपकी बात परन्तु आप भी अर्थों की खींच तान करके अहीरों के प्रति जो वाल्मीकि रामायण और राम चरित मानस में लिखा है वह सबके संज्ञान में आ गया है। स्पष्ट ही रहने दें ।
स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है । क्योंकि वह जन्म से ब्राह्मण है इसलिए ___________________________________और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है। क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर, शील वती गधी को कौन दुहेगा ? ____________________________
"दु:शीलोऽपि द्विज पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रीय: क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।. ( पराशर स्मृति )
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स्मृतियों के पक्षपात पूर्ण विधान समाजिक विषमता का कारक- स्मृतियों का उद्देश्य मनुष्यों का अचार व्यवहार एवं व्यवस्था की शिक्षा देना था परन्तु इसकी आड़ में खूब स्वार्थों का खेल खेला गया एक समुदाय विशेष के द्वारा।
महाभारत में वर्णन है कि ब्राह्मण विद्या हीन होने पर भी देवता के समान और परम पवित्र पात्र है। फिर जो विद्वान है उसके लिए तो कहना ही क्या वह महान देवता के समान है और भरे हुए महासागर के समान सदगुण संपन्न है👇।
(महाभारत अनुशासनपर्व के दानधर्मपर्व) पृष्ठ संख्या -6056..
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।21।
परन्तु इसमें जातिगत विधानों की नियमावली कैसे बन गयी ?
अन्य शब्दों में कहें तो स्मृतियों में व्यवहार- कुशल पुरोहितों ने वैदिक सिद्धान्तों को क्रियात्मक एवं व्यवहारिक रूप तो दिया परन्तु द्वेष और अहंवाद के विधानों पर खड़े होकर ?
यदि मनुष्य ब्रह्म ज्ञान अध्यात्म और दर्शन के उच्च सिद्धान्तों को जान जाए अर्थ व्याख्या करने में समर्थ हो जाए !
तो मानवता में कैसा जाति भेद ?
परन्तु स्मृतियों में बहुतायत से स्त्रीयों और शूद्रों को लक्ष्य करके उन्हें मर्यादित रहने लिए बनाए गये विधान पुरोहितों के वास नाम सी स्वार्थ के अवयव के रूप में उद्भासित है।
जो सत्काय में ल्पनिक पृष्ठ -भूमि पर ही स्थित हैं। ये विधान पुरोहितों की खोपड़ी की उपज हैं।
परन्तु यदि ब्राह्मण उस आध्यात्मिक विचारों के अनुकूल आचरण न करें तो या उन्हें कर्म रूप में परिणित करके ना दिखाएं तो उनका ज्ञान और विज्ञान सीखना निरर्थक है।
मिथ्या है । एक ढ़कोसला है । स्मृतियों में विधान तो आचार, व्यवहार और प्रायश्चित/ 'दण्ड' विषयगत होने चाहिए।
स्मृति शास्त्रों को धर्म के ज्ञाता या धर्म के निर्धारक रूढिवादीयों ने स्मृतियों के विधानों को तीन भागों में विभाजित किया। व्यवहार और प्रायश्चित अथवा दंड यह तीनों विषय ऐसे हैं जिनके बिना व्यक्ति अथवा समाज का विकास हो नहीं सकता है!
यदि मानव जन्म का लक्ष्य खाना-पीना भोग और प्रजनन ही समझ लिया जाए तो उसकी स्थिति अन्य पशुओं से कुछ ही (आकारीय )भिन्न हो सकती है ! अधिक नहीं !
उस अवस्था में यदि वह अपने मस्तिष्कीय शक्ति का प्रयोग करके वैज्ञानिक विषयों की उन्नति रक्षा और उपभोग के साधनों की वृद्धि करके शारीरिक सुख का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ होता है । तो भी उसकी स्थिति का विशेष उत्थान ! इस पर भी नहीं कहा जा सकता।
पतन की ओर अग्रसर होता है इस तथ्य को सत्य का अनुभव करके भारतवर्ष के प्राचीन मनीषियों ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान के स्मरण निष्कर्षों क़ा स्मृति शास्त्र के रूप में मानव समाज की नैतिकता के अर्थ में प्रकट किया ।
परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोपाल और गोप जैसे शब्द शूद्रता को ग्रहण करते हैं यह बड़े दुर्भाग्य का विषय है आइए विचार करते हैं इस विषय पर👇 शूद्रेषु दास गोपाल कुल मित्रार्द्ध सीरिण:। भोज्यान्न नापितस्यश्चैव यश्चात्मानं निवेदयेत्।16। (याज्ञवल्क्य -स्मृति)
गर्भ -दास , गायों का पालन करने वाला गोप कुल का मित्र, खेती में सामी, नाई और जो मन वाणी तथा शरीर द्वारा अपने आपको निवेदन कर चुका हो ! शूद्र होते हुए भी इन छ: का अन्न खाने योग्य होता है।16।
व्यास-स्मृति में वर्णन हा कि 👇
" ब्राह्मण्यां शूद्र जनितश्चचाण्डालस्त्रिविधि: स्मृत:। वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक:।10। वणिक् किरातकायस्थमालाकार कुटुम्बिन:।
एते चान्ये च बहव शूद्रा भिन्न: स्वकर्मभि:।
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: । वरटोमेदचण्डालदास(श)स्वपचकोलका:।11।एतेऽन्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना 12। (व्यास-स्मृति)
=बड़ाई ,नाई ,गोप आशाप , कुम्भकारक वणिक, किरात कायस्थ और माली कुटुम्बिन यह सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र होते हैं:- चमार ,भट्ट ,भील, धोबी पुष्कर नट वरट मेद चांडाल दास स्वपच और कोल यह सब अन्त्यज कहे जाते हैं !
और जो गोमांस भक्षक हैं वह भी अन्त्यज होते हैं इनके साथ सम्भाषण करने से स्नान करना चाहिए। और उनके दर्शन करके सूर्य को देखना चाहिए तब शुद्धि होती है।👇
अभोज्यान्ना: स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:। नापितान्वयपित्रार्द्धसीरिणो दासगोपका:।49।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाऽन्न नैव दुष्यति। (व्यास-स्मृति) नापित वंश परंपरा व मित्र अर्धसीरि,दास और गोप यह सब शूद्र हैं तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर भी दूषित नहीं होते हैं।49।
अब शूद्रों के प्रति घृणा का चरम यहाँं देखो - कि किस प्रकार किसी को शूद्र घोषित करके उसको नाम को ही घृणा से युक्त कर दिया जाए! 👇
माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य बलवत् क्षत्रियस्य धनोपेतं वैश्यस्य। जुगुप्सितं शूद्रस्य ( विष्णु -स्मृति) 👇 ब्राह्मण का नाम मांगलिक अर्थ का सूचक होना चाहिए और क्षत्रिय का बल वत्ता सूचक वैश्य का धनयुक्तता सूचक और शूद्र का घृणा सूचक होना चाहिए! ____________________________________ ब्राह्मण को कभी भी शूद्रा- स्त्री को धर्मार्थ में संलग्न नहीं रखना चाहिए वह तो केवल का कामान्ध ब्राह्मण को रति प्रदान करने के लिए होती है👇
द्विजस्य भार्या शूद्रा धर्म्मार्थे न भवेत् क्वचित् रत्यर्थ नैव सा यस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता। ( विष्णु-स्मृति)
_________
बाल्ययौवनबार्द्धकेष्वपि पितृभर्तृपुत्राधीना । मृते भर्त्तरिब्रह्मचर्य्य तदन्वाग्नीरोहणं वा। (विष्णु-स्मृति)
बालावस्था ,युवावस्था तथा वृद्धावस्था में भी क्रमश पिता, भर्ता और पुत्रों की अधीनता मे रहना स्त्रियों का धर्म है । अपने स्वामी के मर जाने पर ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन अथवा उसके साथ चिता पर आरोहण करना स्त्री का परम धर्म है। ____________________________________ अथ ब्राह्मणसं वर्णानुक्रमेण चतस्रो भार्य्या भवन्ति तिस्रा क्षत्रियस्य द्वे वैश्यस्य । (विष्णु-स्मृति) ब्राह्मण की वर्णों के अनुक्रम से चार स्त्रियां होती हैं यानी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र तथा क्षेत्रीय की तीन स्त्रियां होती हैं स्वयं क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र और वैश्य की दो वैश्य और शूद्रा । तथा शूद्र की एक ही पत्नी होती है केवल शूद्र।
तिस्त्रो ब्राह्मणस्य भार्य्या वर्णानुपूर्व्येण। द्वे राजन्यस्य एकैका वैश्यशूद्रयो:24। (वशिष्ठ -स्मृति)
अनुवाद:-ब्राह्मण की वर्णानुपूर्वी रूप से तीन पत्नियां होती हैं। क्षत्रिय की दो पत्नियां होती हैं अर्थात ब्राह्मण की पत्नियां हुईं क्षत्रिय और वैश्य कन्या से ब्राह्मण विवाह कर सकता है और क्षत्रिय स्वयं क्षत्रिय तथा वैश्य की कन्या से और वैश्य और शूद्र की एक एक ही पत्नियां होती है यही वैश्य और शूद्र की एक एक बार होती है कुछ पुरोहितों के मतानुसार वैश्य कि एक शुद्र वर्ण की भार्या होती है किन्तु मन्त्र वर्जित।
अधिकतर स्मृतियों की रचना पुराणों के पश्चात् हुई शान्तातप -स्मृति की रचना हरिवंश पुराण के बाद हुई। वासुदेव जगन्नाथसर्वभूताशयस्थित: । पातकार्णवमग्नं मां तारय प्रणतार्तिहृत्।55। हे वासुदेव हे जगत के स्वामी हे प्रणतों( नम्रता पूर्वक झुके हुए) को पीड़ा का नाश करने वाले ,समस्त प्राणियों के अंतःकरण में विराजमान पापों की सागर में निमग्न मेरा उद्धार करो। ब्राह्मणोद्वाहनञ्चैव कर्तव्यं तेन शुद्धये श्रवणं हरिवंशस्य कर्तव्यञ्च यथाविधि।।61।
इस पाप से छुटकारा पाने के लिए किसी ब्राह्मण का उद् वाहन करना चाहिए और विधि पूर्वक "हरिवंश पुराण" का श्रवण करना चाहिए।61। आपस्तम्बः -स्मृति द्वितीय अध्याय।
कारूहस्तगतं पुण्यं यच्च प्रामाद्विनि: स्तनम । स्त्रीबालवृद्धाचरितं प्रत्यक्षाद्दृष्ममेव च ।1। शिल्पी के हाथ गई हुई वस्तु पवित्र मानी जाती है और जो पात्र व्यायाम से निकली हुई हो वह भी पवित्र है इस्त्री वाला कोई व्यक्ति के द्वारा जो कुछ किया जावे और पवित्र हैं जो प्रत्यक्ष में अपनी आंखों से नहीं देखी जाए वह भी पवित्र मानी जाती है।
न दुष्येत् सन्तता धारा वाताद्धृताश्च रैणव:। स्त्रीयो वृद्धाश्च बालाश्च न दुष्यति कदाचन।3। निरंतर बहने वाली धारा दूषित नहीं होती है और वायु द्वारा उठाए गए रेणुका भी दूषित नहीं माने जाते । उसी प्रकार स्त्री बालक वृद्ध कभी भी दूषित नहीं होते हैं।3।
आपने सही अपना वस्त्र ,जाया ,संतति और अखंड अन्न यह सब अपनी तो शुद्ध होते हैं और यह दूसरों के अशुद्ध कहीं गए हैं।
नारी के संदर्भ में कबीरदास का दृष्टिकोण तुलसी दास से पूर्णत: पृथक है। जहाँ कबीर वासना-व्यापिनी स्त्रीयों की ही निन्दा करते हैं और सात्वती तथा आध्यात्मिका स्त्रीयों की स्तुति भी करते हैं ।
परन्तु वहीं तुलसी ने तो केवल नारियों को भोग और प्रताणना तक ही सीमित मानकर उन्हें ढोल और पशु के समान प्रताड़ित(तड्=आघाते) करने का विधान पारित किया है।
यह उनकी मान्यता बुद्ध के परवर्ती काल में लिखीं स्मृतियों(धर्म शास्त्रों) और भोगवादी विचारधाराओं से प्रेरित थी। परन्तु तुलसी ने इसके अतिरिक्त अपना पूर्वदुराग्रह पक्षपात और विषमता मूलक वर्णव्यवस्था के स्थापन हेतु प्रदर्शित किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।
किसी ब्राह्मण के व्यभिचारी और लम्पट होने पर भी उसकी पूजा का विधान भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं का सत्यानाश करना ही है ।
और तुलसी ने वही किया। आज भी बहुत से वे ब्राह्मण समुदाय के लोग जो स्वयं को बुद्धिजीवि और आधुनिक कहते हैं ।
वर्णव्यवस्था के पक्ष में होकर ब्राह्मण समाज द्वारा की गयी गलतियों को खारिज करने के मुड़ में नहीं होते हैं उल्टे ही शास्त्रों में लिखे शूद्र और महिला विरोधी तथ्यों की अपने स्वार्थ के अनुकूल अर्थ करने में लगे रहते हैं।
भारतीय जनमानस को नियंत्रित करने में धर्म की भूमिका काफी महत्वपूर्ण व केन्द्रीय रही है। भारतीय समाज, खासकर हिंदू समाज स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी धार्मिक रीतियों-नियमों व धर्मग्रंथों से ही निर्देशित होता है। हिंदू जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों में बँधा रहता है।
ये संस्कार यह दर्शाते हैं कि हिंदू जीवन व हिंदू मानस पर धर्म का प्रभाव कितना गहरा है। कहने को तो आज हमारे पास संविधान है, जिसने सभी को समान रूप से सामाजिक व राजनीतिक अधिकार दे रखे हैं, किंतु सामाजिक संरचना में यह जमीनी हकीकत पर क्रियान्वित अगर नहीं हो पा रहा है , तो उसका एक बड़ा कारण सामाजिक संरचना पर धर्म का प्रभाव व उसके धर्मग्रंथों में उल्लेखित नियमों द्वारा निर्देशित होना है।
हिंदू धर्म को निर्देशित करने वाले ग्रंथों में ‘मनुस्मृति’ भूमिका सबसे प्रमुख है।
यह ग्रंथ भारत का पहला लिखित संविधान माना जाता है। इस ग्रंथ की सामाजिक व्याप्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय वर्णाश्रम पद्धति को बरकरार रखने में इसकी केन्द्रिय भूमिका है।
ब्राह्मणों को श्रेष्ठ स्थिति प्रदान करने से लेकर शूद्रों को मानसिक व भौतिक स्तर पर गुलाम बनाये रखने में इसके नियमों-कायदों का बहुत बड़ा हाथ है।
एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सा स्मृताङ्गना। ९.४५। मनुस्मृति अध्याय अध्याय( 9)
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत्।९.३१७।
श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते ।९.३१८।
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु ।
सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्।३१९। मनुस्मृति अध्याय (9)
यही श्लोक महाभारत में भी हैं परन्तु आर्यसमाजी मनुस्मृति के श्लोक तो प्रक्षिप्त बताते हैं महाभारत क्यों नहीं बताते हैं ये भी प्रक्षिप्त हैं।
अविद्वान्ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत्।
विद्वान्भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसन्निभः।20।
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत्।।21।
श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हविर्यज्ञे च विधिवद्भूय एवाभिशोभते।।22।
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु।
सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम्।।23।
श्रीमन्महाभारत अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः। 256।
अब महाभारतकार एक तरफ तो अहीरों की कन्या गायत्री के विषय में वर्णन करता है कि
गायत्री सम्पूर्ण वेदों का प्राण कहलाती है ।
गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है गायत्री के बिना
सम्पूर्ण वेद निर्जीव हैं ।👇
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत वैष्णव
धर्मपर्व पृष्ठ संख्या -6320👇
तस्मात् तु सर्ववेदानां गायत्री प्राण उच्यते ।
निर्जीवा हीतरे वेदा विना गायत्र्या नृप।।
___________________
महाभारत में एक स्थान रर वर्णन है
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।21।
अर्थ;-कि ब्राह्मण विद्या हीन होने पर भी देवता के समान और परम पवित्र पात्र माना गया है।
जैसे अग्नि सर्वत्र महत्( पूज्य)होती है। फिर जो विद्वान है उसके लिए तो कहना ही क्या
वह महान देवता के समान है और भरे हुए
महासागर के समान सदगुण संपन्न है👇
(महाभारत अनुशासनपर्व के दानधर्मपर्व)
पृष्ठ संख्या -6056 गीताप्रेस)..
महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: मे ठीक इसके विपरीत कथन है।
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत्।
अपि शूद्रं च धर्मज्ञं सद्वृत्तमभिपूजयेत्।११। (48)
अनुवाद:-ऊंची जाति का मनुष्य भी यदि उत्तमशील अर्थात आचरण से हीन हो तो उसका सत्कार( पूजा) न करें और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर( पूजा) करनी चाहिये।११।
आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः
सुशीलचारित्रकुलैः शुभाशुभैः।
प्रनष्टमप्यात्मकुलं तथा नरः
पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मतः।48।
अनुवाद:-
मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुल के द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाश में ला देता है।48।
योनिष्वेतासु सर्वासु सङ्कीर्णास्वितरासु च।
यत्रात्मानं न जनयेद्बुधस्तां परिवर्जयेत्।49।
अनुवाद:-
इन सभी उपर बतायी हुई नीच योनियों में तथा अन्य नीच जातियों में भी विद्वान पुरुष को संतानोत्पति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्याग करना ही उचित है।49।
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण अनुशासन पर्व अध्याय(48) बम्बई संस्करण अध्याय(83) 3-7
___________________
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-10 का हिन्दी अनुवाद
महाभारत, मनुस्मृति, अंगों सहित चारों वेद और आयुर्वेद शास्त्र- ये चारों सिद्ध उपदेश देने वाले हैं, अत: तर्क द्वारा इनका खण्डन नहीं करना चाहिये। धर्म को जानने वाले पुरुष को देव सम्बन्धी कार्य में ब्राह्मणों की परीक्षा करने से यजमान की बड़ी निन्दा होती है।
ब्राह्मणों की निन्दा करने वाला मनुष्य कुत्ते की योनि में जन्म लेता है, उस पर दोषारोपण करने से गदहा होता है और उसका तिरस्कार करने से कृमि होता है तथा उसके साथ द्वेष करने से वह कीड़े की योनि में जन्म पाता है।
ब्राह्मण चाहे दुराचारी हों या सदाचारी, संस्कारहीन हों या संस्कारों से सम्पन्न, उनका अपमान नहीं करना चाहिये; क्योकि वे भस्म से ढकी हुई आग के तुल्य हैं।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि क्षत्रिय, सांप और विद्वान ब्राह्मण यदि कमज़ोर हों तो भी कभी उनका अपमान न करें।
क्योंकि वे तीनों अपमानित होने पर मनुष्य को भस्म कर डालते हैं।
इसलिये बुद्धिमान पुरुष को प्रयत्नपूर्वक उनके अपमान से बचना चाहिये। जिस प्रकार सभी अवस्थाओं में अग्नि महान देवता हैं, उसी प्रकार सभी अवस्थाओं में ब्राह्मण महान देवता हैं। अंगहीन, काने, कुबड़े और बौने- इन सब ब्राह्मणों को देवकार्य में वेद के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों के साथ नियुक्त करना चाहिये।
उन पर क्रोध न करे, न उनका अनिष्ट ही करे; क्योंकि ब्राह्मण क्रोधरूपी शस्त्र से ही प्रहार करते हैं, वे शस्त्र हाथ में रखने वाले नहीं हैं। जैसे इन्द्र असुरों का वज्र से नाश करते हैं; क्योंकि ब्राह्मण जाति मात्र से ही महान देवभाव को प्राप्त हो जाता है।
कुन्तीनन्दन! सारे प्राणियों के धर्मरूपी खजाने की रक्षा करने के लिये साधारण ब्राह्मण भी समर्थ हैं, फिर जो नित्य संध्योपासन करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या है? जिसके मुख से स्वर्गवासी देवगण हविष्य का और पितर कव्य का भक्षण करते हैं, उससे बढ़कर कौन प्राणी हो सकता है? ब्राह्मण जन्म से ही धर्म की सनातन मूर्ति है। वह धर्म के लिये ही उत्पन्न हुआ है और वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होने में समर्थ है ब्राह्मण तो अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। दूसरे मनुष्य ब्राह्मण की दया से ही भोजन पाते हैं। अत: ब्राह्मणों का कभी अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे सदा ही मुझमें भक्ति रखने वाले होते हैं। जो ब्राह्मण बृहदारण्यक- उपनिषद में वर्णित मेरे गूढ़ और निष्फल स्वरूप का ज्ञान रखते हैं, उनका यत्नपूर्वक पूजन करना।
पाण्डुनन्दन! घर पर या विदेश में, दिन में या रात में मेरे भक्त ब्राह्मणों की निरन्तर श्रद्धा के साथ पूजा करते रहना चाहिये ब्राह्मण के समान कोई देवता नहीं है, ब्राह्मण के समान कोई गुरु नहीं है, ब्राह्मण से बढ़कर बन्धु नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर कोई खजाना नहीं है।
कोई तीर्थ और पुण्य भी ब्राह्मण से श्रेष्ठ नहीं है। ब्राह्मण से बढ़कर पवित्र कोई नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर पवित्र करने वाला कोई नहीं है। ब्राह्मण से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं और ब्राह्मण से उत्तम कोई गति नहीं है। पाप कर्म के कारण नरक में गिरते हुए मनुष्य का एक सुपात्र ब्राह्मण भी उद्धार कर सकता है।
______________
खेर कबीर ने स्त्रीयों के विषय में क्या कहा यह भी जान लें
शास्त्रों का सार है " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला:" जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवता रहते हैं और जहाँ पर नारी का अपमान होता है वहां तमाम तरीके से पूजा पाठ के बाद भी देवता निवास नहीं करते हैं।
लेकिन निराशा का विषय है की जो कबीर समाज में व्याप्त धार्मिक कर्मकांड, हिन्दू मुस्लिम वैमनष्य, पोंगा पंडितवाद, भेदभाव और कुरीतियों का विरोध करते हुए एक समाज सुधारक की भूमिका में नजर आते हैं वो स्त्री के बारे में निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं रख पाए।
शायद इसका कारन उस समय के समाज के हालात रहे होंगे जो पुरुष प्रधान था। अथवा अज्ञान और गुलामी की जञ्जीरों में जोड़ी हुई नारी कि सामाजिक स्थिति-
मध्यकालीन कवियों ने नारी को दोयम दर्जे में रख कर उसका अस्तित्व पुरुष की सहभागी, सहचारिणी सहगामिनी तक ही सीमित कर रखा था।
नारी को कभी भी स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में चित्रित नहीं किया गया यह तो शास्त्रों की उपजीव्यता है।
कबीर के विचार हर युग और काल में प्रासंगिक रहे हैं। वर्तमान समय के विश्लेषण से ज्ञात होता है की छह सौ साल बाद भी कबीर के विचार प्रासंगिक हैं। भले ही साम्प्रदायिकता, धार्मिक कर्मकांड, और समाज में व्याप्त भेदभाव हो, कबीर के विचार प्रासंगिक हैं।
कबीर के अनुसार दो तरह की नारियों के दो रूप होते हैं । जैसा कि पुरुषों के भी दो रूप होते हैं
एक नारी तो साधना में बाधा नहीं पहुँचाती है और स्वयं साधिका अथवा साध्वी होती है वही पतिव्रता भी होती है और दूसरी नारी जो साधना में अवरोध पैदा करती है।
भौतिक आकाँक्षाओं से व्याप्त होती है। उसे कबीर ने साध्वी को स्वीकार और भौतिकवादी नारी का बहिष्कार किया है।
जिससे ज्ञात होता है की मूलतः कबीर नारी विरोधी नहीं थे। कबीर का मानना था की उपासना और ध्यान में नारी का त्याग आवश्यक है। कबीर ने ना तो हर जगह नारी की स्तुति की है और ना ही हर जगह भर्त्सना ही उन्होंने मध्यम मार्ग को चुना है।
कबीर के नारी संबधी विचारों में एक बात और निकल कर आती है वो है, पुरुष प्रधान समाज का अहम्। ये अहम् ही है जो नारी को मायावी, पुरुषों को जाल में फांसने वाली और ठगिनी ठहराता है। ये बाते कबीर को सन्तों की शास्त्रीय परम्पराओं से प्राप्त हुईं ।
स्त्री के मात्र कामिनी कहना उसके शरीर की व्याख्या हो सकती है लेकिन स्त्री भी एक स्वंतंत्र व्यक्तित्व होता है, जिसे मध्यकालीन कवियों ने नजरअंदाज किया है। धर्म के साथ नारी का क्या विरोध है, समझ से परे है लेकिन ये तो सत्य है की जो भी व्यक्ति धर्म से जुड़ा है वो थोड़ा बहुत नारी के विरोध में तो होता ही है। जबकि सारी कमी उसी व्यक्ति की होती है। जो
स्वयं नारी को उपभोग की दृष्टिकोण से देखता है
क्या नारी सिर्फ पुरुष की सेवा के लिए है ? क्या उसे हरदम घर में घुट कर रहना चाहिए ? ये कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर पुरुष प्रधान भक्तिकालीन कवियों ने मूल्यांकन में चूक की है। क्यों उन्हने
ये शास्त्रीय परम्पराओं का पालन किया इसलिए परन्तु शास्त्र भी पुरुषों ने ही अपने कल्याण के लिए लिखे। और महिलाओं का कल्याण उन्होंने पुरुषों के द्वारा उपभोगत्व में निहित कर दिया।
कबीर ने केवल फूअड़ और मूढ़मति स्त्री को नरक का कुण्ड, काली नागिन, कूप समान, माया की आग, विषफल, जगत की जूठन, खूँखार सिंहनी, आदि उपमाओं से नवाजा परन्तु साध्वी यो
के प्रति कबीर का दृष्टिकोण कोण सकारात्मक ही था।
कुछ दोहे जो नारी के विषय में कबीर के विचार प्रदर्शित करते हैं व्याख्या सहित निम्न हैं :-
पतिबरता मैली भली, काली कुचिल कुरुप
पतिबरता के रुप पर बारौं कोटि स्वरुप।
अर्थ:-
ऐसी नारी जो अपने पति के प्रति समर्पित हो, पतिव्रता हो वो भले ही मैली कुचैली हो, कुरूप हो श्रेष्ठ है, ऐसी पतिव्रता नारी को कबीर नमन करते हैं। यहाँ कबीर ने नारी जो पक्ष रखा है वो नारी अस्मिता के पक्ष में है। नारी के रूप पर ना जाकर उसके गुणों की तारीफ की है जो की एक पुरुष या नारी के मूल्याङ्कन का आधार है। यद्यपि पुरुष की दृष्टि में नारी सौन्दर्य उसकी कोमलता और वाणी का तारत्व( तारसप्तक के स्वर) ही हैं पुरुष की प्रवृति में पुरुषता( कठोरता) है। और वाणी में भी मन्द्रता( भारी और मोटापन) कबीर ने कहा कि
"नारी निन्दा ना करो, नारी रतन की खान
नारी से नर होत है, ध्रुब प्रहलाद समान।
कबीर ने नारी का पक्ष रखते हुए कहा है की नारी की निंदा नहीं की जानी चाहिए, नारी से ही रत्न पैदा होते हैं, ध्रुव और प्रह्लाद जैसे नर भी नारी ने ही पैदा किये हैं।
नारी नरक ना जानिये, सब सन्तन की खान
जामे हरिजन उपजै, सोयी रतन की खान।
अर्थ:-
उपरोक्त दोहे में कबीर का कहना है की नारी को नरक मत समझो। नारी से ही सभी संत पैदा हुए हैं। भगवत पुरुषों की उत्पत्ति नारी से हुयी है इसलिए वो रत्नो की खान है।
कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फंद
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूॅ मै बंद।
अर्थ:-
कलयुग में नारी और धन व्यक्ति को अपने फंदे में बाँध लेते हैं। माया और स्त्री को यहाँ एक समान बताया गया है जहाँ दोनों ही व्यक्ति को अपने फंदे में फंसा लेते हैं। जो व्यक्ति इन दोनों फंदों से बच जाता हैं उसके हृदय में ईश्वर वास करते हैं। यहाँ नारी को मायावी बताया है और उस नारी के बारे में कहा गया है जो साधना में बाधा डालती हो।कबीर का यहाँ तमोगुणी नारि की ओर संकेत है।
नागिन के तो दोये फन, नारी के फन बीस
जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।
अर्थ:-
नागिन के दो फन होते हैं लेकिन नारी के बीस फन होते हैं, नारी का डसा हुआ कोई भी जीवित नहीं बचता है। बीस के बीस लोग मर जाते हैं।
चलो चलो सब कोये कहै, पहुचै बिरला कोये
ऐक कनक औरु कामिनि, दुरगम घाटी दोये।
अर्थ:-
सब लोग ईश्वर की प्राप्ति हेतु चलो चलो कहते हैं, मुक्ति की और अग्रसर होते हैं, लेकिन माया और नारी इसमें बाधा हैं। माया और नारी दो ऐसी दुर्गम घाटियां हैं जिनको पार करके ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। नारी और माया के साथ ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं हैं।
छोटी मोटी कामिनि, सब ही बिष की बेल
बैरी मारे दाव से, यह मारै हंसि खेल।।
अर्थ:-
नारी चाहे कमजोर हो या फिर बलवान दोनों ही विष की बेल हैं। दुश्मन दाव से मारता है जबकि नारी हंस खेल कर ही व्यक्ति को समाप्त कर देती है।
कामिनि काली नागिनि, तीनो लोक मंझार
राम सनेही उबरै, विषयी खाये झार।
अर्थ:-
कामिनी स्त्री काली नागिनी की तरह से होती है जो तीनो लोकों में रहती हैं। भगवान के भक्त ही इससे बच सकते हैं और लोगों को ये विष से मार देती हैं।
कपास बिनुथा कापड़ा, कादे सुरंग ना पाये
कबीर त्यागो ज्ञान करि, कनक कामिनि दोये।
अर्थ:-
गंदे कपास से कपडे को रंगा नहीं जा सकता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए माया और स्त्री का त्याग आवशयक है।
कबीर मन मृतक भया, इंद्री अपने हाथ
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ।
अर्थ:-
यदि किसी का मन उसके वश में है, इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण है तब भी उसको माया और स्त्री का साथ नहीं करना चाहिए। माया और स्त्री किसी को भी अपने वश में करके ईश्वर की भक्ति मार्ग से विचलित कर सकते हैं।
कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत
केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत।
अर्थ:-
नारी के संग से अनेक लोग नरक में पहुंच चुके हैं और नारी संगती करने वाले कई और लोग भी हँसते हँसते नरक के भागी होंगे।
पर नारी पैनी छुरी, मति कौई करो प्रसंग
रावन के दश शीश गये, पर नारी के संग।
अर्थ:-
पर नारी का संग नहीं करना चाहिए। पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, पर नारी के संग करने से रावण के दस सर भी चले गए, रावण का अंत हो गया।
परनारी पैनी छुरी, बिरला बंचै कोये
ना वह पेट संचारिये, जो सोना की होये।
अर्थ:-
पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, उसके वार से कोई विरला ही बच पाता है। पर नारी को हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए क्योंकि वह कभी भी घात कर सकती है। वो कितनी भी सुन्दर या सोने की ही क्यों ना हो उससे दूर ही रहना चाहिए।
नारी निरखि ना देखिये, निरखि ना कीजिये दौर
देखत ही ते बिस चढ़ै, मन आये कछु और।
अर्थ:-
नारी को गौर से कभी मत देखो और ना ही उसके पीछे दौड़ो, उसका संग मत करो, क्यों की नारी को देखते ही मन में अनेकों प्रकार के विषय विकार आने लगते हैं और व्यक्ति अपने मार्ग से विचलित हो जाता है।
कामिनि सुन्दर सर्पिनी, जो छेरै तिहि खाये
जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये।
अर्थ:-
नारी के सुन्दर सर्पिणी की तरह से होती है, उसे छेड़ने, उसका संग करने से, वह काट खाती है। इस व्यक्ति ने अपना स्थान हरी चरण में रखा है उसके निकट वो सर्पिणी नजदीक नहीं जाती है।
नारी काली उजली, नेक बिमासी जोये
सभी डरे फंद मे, नीच लिये सब कोये।
अर्थ:-
नारी कैसी भी हो कालीया सुन्दर वो हमेशा वासना के फंदे में पुरुष को बाँध देती है। समझदार व्यक्ति वासना के इस फंदे से दूर रहता है और नीच पुरुष हमेशा नारी को साथ रखता है।
कबीर जी के दोहे जितने सरल उतने ही गहरे अर्थ रखते है। उन्होंने अपने दोहों में कनक और कामिनी का वर्णन किया है, जितना मुझे समझ आया उन्होंने कनक का अर्थ स्वर्ण से लिया है और स्वर्ण मन में लालच पैदा करता है। और कामिनी का अर्थ कामवासना से है। मन में लालच और मन में कामवासना, स्त्री या पुरुष किसी के भी हो सकते हैं। और जहँ उन्होंने नारी का वर्णन किया वहां साथ में पर शब्द का इस्तेमाल भी किया हुआ है। पर-दूसरी/दूसरा।
गुरु कबीर जी के दोहे पुरुष या स्त्री को संबोधित कर के नहीं अपितु मन को संबोधित कर के कहे गए हैं। केवल समझ का फेर है।
आपने सही तथ्य को समझा ही नहीं। अध्यात्म की राह में लोभ और काम सबसे बड़े शत्रु हैं। नारी की सभी शास्त्रों में मातृ रूप में वंदना की गई है और कामिनी के रूप में निंदा। जो मनुष्य स्त्री को कामिनी के रूप में देखता है उसका पतन निश्चित है। और जो स्त्रियों को मातृ रूप देखता है उसका पतन हो नहीं सकता।
कबीर के दोहे (1)- नारी नदी अथाह जल, जामें डूब मरा संसार! ऐसा साधु ना मिला, जासंत उतारे पार !!
कबीर के दोहे (2)-नारी है अमृत की खानी, तासे उपजे सुर मुनि ज्ञानी !!
२ नारी है नरक की खानि, तासेबचाहु हो गुरू ज्ञानी।।
ये ठीक है लेकिन समझना चाहिय् की नारी ही हमेशा कामिनि नहीं होती नर भी कमीना होता है।
कबीर दास जी ने स्त्री और पुरुष दोनों को समान बताया हैं।
प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"
★भले ही महाभारत की घटनाएँ ईसापूर्व नवम सदी से लेकर पाँच हजार वर्ष पूर्व की क्यों ही न हों !
परन्तु महाभारत का सम्पादन बृहद् रूप से पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में हुआ ।
भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद में पुन:सम्पादित हुआ है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇
"नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22।
दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।
और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे !
मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।22।
महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व "भीष्मस्तव राज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में ही बुद्ध की स्तुति का वर्णन है।👇
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
अब बुद्ध का समय ई०पू० 566 वर्ष है ।
फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं ? अवश्य ही जोड़- तोड़ शास्त्रों में हुआ है।
नि: सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को "चोर" और नास्तिक कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में भी महात्मा बुद्ध का वर्णन इस प्रकार है। देखें👇
_______
दानवांस्तु वशेकृत्वाॉ पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।
दानवांस्तु वशे कृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागतः।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नमः।107।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहनः।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नमः।।108।
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।
और बम्बई संस्करण में अध्याय46वाँ है
शुक्लदन्ताऽञ्जिताक्षाश्च मुण्डा: काषायवासम: ।
शूद्र धर्म चरिष्यन्ति शाक्यबुद्धोपजीविन: ।।१५।
शूद्र 'लोग' शाक्य वंशी बुद्ध के मत का आश्रय लेकर ( अर्थात् वेद दूषक नास्तिक बन कर ) वेद विरोधी धर्म का आचरण करेंगे।
वे दान्त सफेद किए रहेंगे और आँखों में अञ्जन लगाऐंगे। और मूड़ मुड़ाकर गेरुए वस्त्र धारण करेंगे।१५।
(हरिवशं पुराण' भविष्य पर्व तृतीय अध्याय पृष्ठ संख्या ९४२)
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण
ही कुछ श्लोक जो ‘अयोध्या-काण्ड’ में आये है।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और अपमान-जनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहें हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।
____________________________________
:- उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :-
“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
–अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।।
• सरलार्थ :- हे जावालि!
मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।।
क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
देखें राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं ?
______________________________________
“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं।
नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।
” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या
गीता प्रेस गोरख पुर :1678)
सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।
इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से 7000 साल पहले की रचना
कुछ विद्वान 2000वर्ष पुरातन भी मानते हैं
भारत की प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक राजधानी मगध थी ।
जो आधुनिक विहार है ।
मगध से विहार बनने के सन्दर्भ में
ये तथ्य विदित हैं कि महात्मा बुद्ध के नवीनत्तम सम्प्रदाय पाषण्ड था जिसमें जो नव दीक्षित श्रमण थे उनके आश्रमों को विहार कहा गया था ।
पाषण्ड शब्द का प्रयोग महात्मा बुद्ध के समय ईसा०पूर्व 500 के समकक्ष हुई ।
पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति बुद्ध के अनुसार -( पाषम् बन्धनम् अण्डयति खण्डयति इति पाषण्ड अर्थात् जो वैदिक विधानों के नाम पर प्राकृत जनों पर आरोपित पाशों का खण्डन करता है वह पाषण्ड है ।
वैदिक विधानों का प्रारूप ब्राह्मण हितों को सर्वेपरि रखकर बनाया गया था ।
यद्यपि ब्राह्मण पुरोहितों 'ने पाषण्ड शब्द की काल्पनिक व्युत्पत्ति (पा-पाति रक्षति दुरितेभ्यः पा--क्विप् = पाः
वेदधर्मस्तं षण्डयति खण्डयति निष्फलं करोति ।
“पालनाच्च त्रयी- धर्मः पाशब्देन निगद्यते ।
षण्डयन्ति तु तं यस्मात् पाषण्डस्तेन कीर्त्तित” इत्युक्ते वेदाचारत्यागिनि के रूप में की है ।
पाखण्ड शब्द का इतिहास ....
ही पोल खोलता है ।
ब्राह्मणों के पाखण्ड की..
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जैन परम्पराओं में पाषण्ड शब्द को पासंडिय अथवा पासंडी रूप में उद्धृत किया गया है ।
जैसा कि निम्न पक्तियाँ लिपिबद्ध हैं 👇
क्रमांक ३ समयसार की गाथा क्रमांक ४०८, ४१० एवं ४१३ में एक शब्द आया है :-----‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’। देखें- ‘‘पासंडिय लिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्प याराणि ।४०८।।
णवि एस मोॅक्खमग्गो पासंडिय
गिहिमयाणि लिंगाणि ४१०।।
पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ४१३।।
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उपर्युक्त सन्दर्भों में आचार्य कुन्दकुन्द बताना चाहते हैं
कि ‘बहुत प्रकार के मुनि लिंग एवं गृहस्थलिंग हैं, मात्र इन बाह्य लिंगों (वेषों) को धारण करके अपने आपकों मोक्षमार्गी मानने वाले जीव-मूढ़-अज्ञानी हैं,
क्योंकि बाह्यलिंग (बाह्य मुनि या श्रावक वेष) का मोक्षमार्ग से सीध कोई सम्बन्ध नहीं है।
इनमें प्रयुक्त ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द को मूल शौरसेनी प्राकृत भाषा के शब्द रूप में मान्य किया है।
इसकी व्याकरण, शाब्दिक प्रकृति एवं व्युत्पत्ति आदि समझे बिना प्राय: सभी आधुनिक सम्पादकों ने इसके स्थान पर ‘पाखडिय’ एवं ‘पाखंडी’ शब्द का प्रयोग कर दिया है।
जो इसका ही इतर रूप है ।
यह एक अविचारित प्रयोग है, जिसके लोकरूढ़ अर्थ के कारण इसका अर्थ-विपर्यय (विलोम) भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है।
आज लोक में ‘पाखण्डी’ शब्द ‘ढोंगी’ (दम्भी) या ‘नकली’ साधु के अर्थ में रूढ़ हो चुका है।
जिसका श्रेय पुष्य-मित्र सुंग ई० पू० 184 के समकालिक उसके आश्रित पुरोहितों को है ।
जो जैन और बौद्ध विचारों के कट्टर विरोधी थे ।
जबकि आज से दो हजार वर्ष पूर्व इसका अर्थ भी अलग था, तथा शौरसेनी प्राकृत में इसका शाब्दिक रूप भी ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ था-
‘पाखण्डी’ कदापि नहीं ।
_________________________________________
इसकी शब्द-परम्परा एवं अर्थ परम्परा का परिचय-निम्नानुसार है-:--
१ ‘‘देवानां पिये पियदरसि राजा सव पासंडानि’’ (समस्त मुनिलिंग)
(सम्राट् अशोक के गिरनार शिलालेख के अनुसार)
‘‘तेसु-तेसु निगण्ठेसु नानापासंडेसु’’
(सम्राट् अशोक फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में स्थित शिलालेख)
अर्थात् ‘उन-उन निर्ग्रन्थों के विभिन्न मुनिलिंगों में।
’ २. ‘‘गुणविसेस-कुसलो सब पासंड-पूजको’’
(सम्राट् ऐल खारबेल, खण्डगिरि शिलालेख)
(मैं) सभी (निर्ग्रन्थ-दिगम्बर) मुनिलिंगों की पूजा करता हूँ।
३. ‘पासण्ड, पासण्डिक’- मिथ्यादृष्टि (पालि-हिन्दी कोश, पृ. २२२)
४. पासंड, पासंडत्थ - मिथ्यादर्शन, नास्तिक, दुष्टबुद्धि (अर्द्धमागधी कोश, पृ. ५७४)
५. पासंडि - अट्टविध-कम्मपासातो डीणों पासंडी, पाशाड्डीन: पाषण्डी (निरुक्तकोश, पृष्ठ संख्या २०)
जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पासण्डी (मुनिलिंग) है। ‘पाश’ शब्द से ‘डीन’ प्रत्यय का विधान करके ‘पाषण्डी’ या ‘पासंडी’ शब्द निष्पन्न हुआ है।
_________________________________
६. पापं खण्डयति-इति पाखण्डी-सत्साधु:।
जो पाप का खण्डन करे, वही ‘पाखण्डी’ है, जिसका अर्थ ‘सच्चा साधु’ है।
७. पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद् यस्यास्त्यमलं भुवि ।स पाखण्डी वदन्ति एवं कर्मपाशाद् विनिर्गत: ।।____
‘पाखण्ड’ नाम व्रत का है; वह निर्मल व्रत इस भूमण्डल पर जिसके है, उसे ही ‘पाखण्डी’ कहते हैं।
वह कर्मबन्धन से विनिर्गत है।
८. सग्रंथारंभ-हिंसानां, संसारावत्र्तवर्तिनाम् ।पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, (२४)
परिग्रह आरम्भ, हिंसा से युक्त संसार के चक्कर में पड़े हुए पाखंडियों (खोटे गुरुओं) की विनय/सम्मान करना गुरुमूढ़ता जानना चाहिए।👇
ब्राह्मण -वादी विद्वानों के अनुसार पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति. :----
९. पातीति पा: (पा + क्विप् प्रत्यय), पा: त्रयीधर्मस्तं खण्डयतीति पाखण्डी ।
यदुक्तम् - ‘‘पालनाच्च त्रयीधर्मा: ‘पा’ शब्देन निगद्यते ।
तं खण्डयन्ति ते यस्मात् पाखण्डास्तेन हेतुना ।। (शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृष्ठ संख्या )
अर्थात् जो त्रयीधर्म (वेदत्रयी) का खण्डन करे, वह ‘पाखंडी’ है।
१०. नानाव्रताधरा: नानावेशा: पाखण्डिनो मता:- पाषण्ड: - (अमरकोष टीका, भानुदीक्षित)--
अनेक प्रकार के व्रतों के धारक, नानावेशधारी ‘पाखण्डी’ माने गये हैं।
११. वेदादि-शास्त्रं खण्डयतीति पाखण्डी - (पद्मचन्द्रकोश, ३०९) श्रमण यतियों के अनेकों पर्यायवाची नामों में ‘पाखण्डी’ नाम भी है।
उक्त समस्त विश्लेषण का समग्रावलोकन करें तो निम्न निष्कर्ष निषेचित होते हैं-:-
(क) प्राकृत शिलालेखों एवं ग्रन्थों में ‘पासंडिय’ एवं ‘पासंडी’ शब्द मिलते हैं, जबकि संस्कृत में ‘पाखंडी’ प्रयोग है।
(ख) ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द का मूल अभिप्राय निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेशधारी समस्त महाव्रती जैन श्रमण है।
और उसी में दीक्षित नव बौद्ध श्रमणों के लिए जो विहार ( आश्रम) बहुतायत रूप से बनाए गये तभी से मगध का नाम विहार हो गया ।
'परन्तु पाटलिपुत्र का रूप पटना हो गया ।
महाभारत की कथाऐं जन- किंवदंतियों पर आधारित आख्यानकों का बृहद् संकलन है ।
जिसे महर्षि व्यास के नाम पर सम्पादित किया गया ।
और इसे जय संहिता का नाम दिया गया । कोई भा मानवीय ग्रन्थ पूर्व दुराग्रह से रहित नहीं होता है ।
दुराग्रह कहीं न कहीं मोह और हठों से समन्वित रूप से प्रेरित होते हैं ।
और हठों और मोह अज्ञानता से प्रेरित होते हैं ।
इसके विपरीत संकल्प अथवा प्रतिज्ञा ज्ञान से प्रेरित मनश्चेष्टाऐं हैं ।
महाभारत कथाओं का अवसान इन आख्यानकों से हुआ की जब रोते हुआ अर्जुन व्यास जी से अपनी मनोव्यथा कहता है ।
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन ।
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
वह मैं राजा जो पुरुषोत्त कृष्ण से रहित हो गया!
जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ;
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
उस समय युधिष्ठिर प्रस्थान का विचार करके ब्रजनाभ जो श्रीकृष्ण का प्रपोत्र थे उनको यादवो का राजा बनाते और इह लोक जीवन से अवसान कर चले गए अब श्रीकृष्ण प्रपोत्र थे यादव थे तभी तो यादवों के राजा बने ।
वस्तुतः राजा बनने से तात्पर्य केवल अवशिष्ट यादवों को संरक्षण देना और उनका रञ्जन करना है ।
यद्यपि ऋग्वेद-४ के दशम मण्डल के बासठ वें सूक्त की दशवीं ऋचा में दास और गोप शब्द यदु के लिए प्रयुक्त हैं ।
और वैदिक सन्दर्भ में दास असुर अथवा अदेव का वाचक है ।
कृष्ण 'ने कब देव 'संस्कृति'की प्रतिष्ठा की ? आपको इन्द्र और कृष्ण का युद्ध याद है ।
'परन्तु वर्ण व्यवस्था वादी और देव 'संस्कृति' का यादवों से संयोजन अतिश्योक्ति पूर्ण हैं ।
सब मिथ्या है ।
ऋग्वेद में यादवों को परास्त करने और उनके अनिष्ट की कामना करने वाले पुरोहित यादवों को शूद्र या म्लेच्छ ही कहेंगे ।
उनके सम्मान और गरिमा को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे ।
इसी लिए क्षत्रिय लोग कृत्रिम वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणों को सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार करेंगे ।
यद्यपि हरिवशं पुराण में विष्णु पर्व में कई स्थानों पर कृष्ण क्षत्रियों की निन्दा करते हैं ।
और यदि कहीं श्रीकृष्ण को क्षत्रिय भी कहा गया है ।
तो वह अतिरञ्जना पूर्ण है।
यदि कहा भी गया है तो यह सब पराभव वादीयों का कुटिल समझौता है ।
जिसका परिणाम केवल दोखा या प्रवञ्चना ही है ।
वासुदेव को क्षत्रिय कहा गया है कहा यदु को क्षत्रिय कहा गया है।
ऐसा राग अलापने वाले वर्ण संकर जनजातियों के संघ राजपूतों को ही यदुवंशी बना रहे हैं ।
क्योंकि ब्राह्मणों की वर्तमान धर्म संहिता स्मृति आदि ग्रन्थों में अहीर गोपों' को शूद्र रूप में वर्णित किया गया है।
जो यादव आज अपने मन की झूँठी तसल्ली के लिए खुद को वैदिक क्षत्रिय कह रहे हैं ।
उनके पास कोई प्रमाण नही है
वितण्डावाद है।
एसे 'लोग' दो विपरीत दिशा में चलने वाली नावों पर सवारी करना चाहते हैं ।।
यदि आप'कहें'कि जब यादव क्षत्रिय नहीं हैं तो शूद्र हुए
तो यह कहना भी मूर्खता पूर्ण है ।
क्योंकि यादवों 'ने कभी वर्ण व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया।
इनका नवीन धर्म भागवत था ।
जिसमें ब्राह्मण वाद के वर्चस्व विषयक किसी भी सिद्धान्तों का समायोजन नहीं था ।
कुछ लोग सहत्रबाहु को लेके यादवों का क्षत्रिय इतिहास बताते है ।
सहस्रबाहु अर्जुन जिसे हैहय वंश का यादव माना जाता है ।
परशुराम का युद्ध सहस्रबाहु से हुआ ।
और पुराणों में उसे चक्रवर्ती सम्राट वर्णित किया गया है।
और ब्राह्मणों 'ने यह भी वर्णित कर दिया कि क्षत्रियों की
विधवाएें ऋतुकाल में ब्राह्मणों के पास गयीं
तब उनसे क्षत्रिय हुए ।
'परन्तु यह कथा कल्पना प्रसूत व मनगडन्त है ।
सामान्यत तर्क से ही इसका स्वत: खण्डन हो सकता है ।
क्या विधवा हुई सभी स्त्रियाँ ब्राह्मणों से ही गर्भवती हुईं
क्या उससे पहले कोई गर्भवती नहीं थी।?
क्या इक्कीस वार परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया?
सारी थ्योरी निराधार है ।
यद्यपि यादव अपने पराक्रमी और निर्भीकता पूर्ण आचरण के लिए क्षत्रिय हैं ।
क्या सुन्दर स्त्रियों को श्रृंँगार प्रसाधन की आवश्यकता है ?
क्या विद्वान को किसी विद्वता प्रमाण पत्र या डिग्री की आवश्यकता होती है ।
क्या वीरों को क्षत्रिय या यौद्धा के प्रमाण पत्र की आवश्यकता है ।
सायद नहीं
जो व्यक्ति वास्तविक रूप में नहीं होते हैं वे ही स्वयं को कभी क्षत्रिय या विद्वान या यौद्धा कहते हैं ।
जैसे राज पूत आज कल के ...
अहीर गूर्जर और जाट सनातन यौद्धा हैं ।
जो अपनी वीरता का परिचय करने के लिए किसी राजपूत या ब्राह्मण के प्रमाण पत्र के मोहताज नहीं ..
क्षत्रिय यादव वही है जो यादव धर्म का पालन करें
और यादव धर्म भागवत धर्म है ।
इसलिए श्रीकृष्ण 'ने कहा जब उनको राजा बनने की बात सभी यादव सामंतों ने कही !
तब उनसे मुखार बिन्दु से कथा कार 'ने कहलवा दिया कि
_________
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३
श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय
अर्थात् मैं राजा नही बन सकता कोई यादव राजसिंहासन पर नही बैठ सकता क्यों कि यादवों के पूर्वज यदु ने वचन दिया था अपने पिता ययाति को ।
'परन्तु यहांँ विरोधाभासी स्थिति है क्योंकि जो उग्रसेन स्वयं यादव ही थे ।
वे राजा कैसे बन गये?
ययाति वाला नियम उन पर क्यों लागू नहीं हुआ ।
भागवत पुराण भी मिलाबट पूर्ण हैं इसमें भी जोड़ और तोड़ होने से विरोधाभासी स्थिति है।
यादव अथवा अहीर केवल अहीर अथवा यादव ही है । वही क्षत्रिय या शूद्र कभी नहीं
उसकी निर्भीकता प्रवृत्ति 'ने उसे आभीर बना दिया ।
और उसकी गोपालन वृत्ति 'ने उन्हें गोप बना दिया ।
और यदुवंश में जन्म लेने के कारण वह यादव कहलाये ।
अहीर सबसे प्राचीनत्तम और शुद्ध यादव हैं ।
क्योंकि की यदु के पूर्वजों को ही आभीर (अबीर) कहा गया ।
इसी लिए हम्हें अहीर होने पर फक्र है ।
और हमारा भोजन दूध दही और तक्र है।
दुश्मनो के लिए कभी लाठी तो कभी हमारे पास सुदर्शन चक्र भी है ।
हिन्दू समाज में कुछ समय से " महापुरुष कृष्ण " को लेकर ब्राह्मण तथा ठाकुर समाज में यह भ्रान्त धारणा
रूढ़ (प्रचलित) हो गयी है ।
कि कृष्ण वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय थे ।
कृष्ण का जन्म वसुदेव के यहाँ हुआ , और वसुदेव क्षत्रिय थे !
तथा लालन-पालन नन्द के यहाँं और नन्द गोप अर्थात् अहीर थे ।
यदु वंश को भी ये लोग ब्राह्मण वर्ण -व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय ही कहते हैं "
जबकि वस्तु-स्थिति ठीक इसके विपरीत है ।
क्यों कि यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
और ये किसी के द्वारा परास्त भी नहीं हुए ।
इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि यदि इन्हें कृष्ण का वंशज होने से श्रेष्ठता 'न प्राप्त हो जाए ।
वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उस आप नहीं तो क्षत्रिय मान सकते हैं और ना ही शूद्र ।
क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं
---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा अदेव अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।
जो कालान्तरण में लौकिक संस्कृतियों में शूद्र के सम तुल्य ब्राह्मण वाद 'ने किया ।
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।
जब यदु को ही वेदों में दास और गोप कहा है ।
और कृष्ण को चरावाहे और अदेव या असुर रूप में वर्णित किया गया हो ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।
वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।
वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वंश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी है देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा।
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं ।
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
क्योंकि सूर्य और चन्द्र के सन्तानें होना मूर्खों की कल्पनाऐं हैं।
यादव सेमेटिक जन-जाति से सम्बद्ध हैं ।
ये असीरियन (असुर) जन-जाति के सहवर्ती तथा उनकी शाखा के लोग हैं ।
असुरों का वर्णन भारतीय पुराणों में है जो असीरी हैं ।
यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है ।
यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहे जरासन्ध, दमघोष आदि एक कुल ही हैहयवंश के यादव ही थे 'परन्तु उन्हें यादव कहकर कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...
इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंशपुराण से यह विश्लेषण ...
और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...
दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना स्वाभाविक ही था।
विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की सदीयों में भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं।
तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।
हरिवंशपुराण हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न करती हैं ।
किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?
ये मूर्खता पूर्ण षड्यन्त्र थे ।
'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वजों ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में जो कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी
आभीर यादवों का भी विशेषण रहा जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸
यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों के लिए रूढ़ हो गया था क्या ?
जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में भी यादव अलग से कुल बताया गया है ।
जो मूर्खता पूर्ण ही है ।और यदुवंश का प्रारूप ही बदल दिया गया ।
सोम वंश से यदु को सूर्य या इक्ष्वाकु वंशी में परिवर्तन कर दिया यदु के माता पिता ययाति और देवयानि से हर्यश्व और मधु असुर की पुत्री मधुमती के बना दिया ।
जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇अब एक भविष्य वाणी के माध्यम से नवीनत्तम कथा सृजन की गयी ।
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है जो हर्यश्व के पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 66-70 संस्कृत में श्लोक निम्नलिखित हैं .
_____
स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्या: कन्याव्रते स्थिता:।जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रवसमाय वै।।66।।
वरं चास्मै ददौ प्रीत: स वै पन्नगपुंगव:। श्रावयन् कन्यका: सर्वा यथाक्रममदीनवत्।।67।।
एतासु ते सुता: पंच सुतासु मम मानद। उत्पस्यन्ते पितुस्तेजो मातुश्चैव समाश्रिता:।।68।।
अस्मत्समयबद्धाश्च सलिलाभ्यन्तरेचरा:। तव वंशे भविष्यन्ति पार्थिवा: कामरूपिण:।।69।।
स वरं कन्यकाश्चैव लब्ध्वा यदुवरस्तदा। उदतिष्ठत वेगेन सलिलाच्चन्द्रमा इव।।70।।
____
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव, और वृष्णि नाम सात वंश वाले शाखा में प्रसिद्ध होंगे
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय
अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी
दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !
ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।
इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।
क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
______
जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशो८ध्याय:
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।
_____
एक दिन हर्यश्व के बड़े भाई 'ने उसे राज्य से निकाल दिया तब हर्यश्व 'ने अयोध्या छोड़ दी ।
तब मधुमती हर्यश्व को मधुवन ले गयी यही मधपुरी भी था
मधु असुर 'ने केवल मधुवन को छोड़कर अपना सारा राज्य अपने जामाता हर्यश्व को दे दिया ।लवण मधु का पुत्र भी हर्यश्व का सहायक बना ।
यह मधुवन गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था ।
इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है ।
देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद विस्तृत रूप में
_____
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇
सा तमिक्ष्वांकुशार्दूलं कामयामास कामिनी। स कदाचिन्नरश्रेष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठे्न माधव।।16।।
राज्यान्निरस्तो विश्वस्त: सोऽयोध्यां सम्परित्यजत्।स तदाल्पपरीवार: प्रियया सहितो वने।।17।।
रेमे समेत्य कालज्ञ: प्रियया कमलेक्षण:। भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा।।18।।
एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम्।गच्छाव: सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम्।।19।।
रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम्। सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा।।20।।
वह कामिनी होकर इक्ष्वाकु वंश के श्रेष्ठ वीर हर्यश्व को सम्पूर्ण से हृदय चाहती थी।
माधव! एक दिन बड़े भाई ने उनके विश्वास पर रहने वाले नरश्रेष्ठ हर्यश्व को राज्य से निकाल दिया,
तब उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और थोड़े से परिवार के साथ अपने प्रिया मधुमती सहित वे वन में रहने लगे काल की महिमा को जानने वाले कमलनयन हर्यश्व अपनी प्यारी पत्नी के साथ मिलकर वहाँ बड़े आनन्द से समय बिताने लगे।
एक दिन कमलनयनी मधुमती ने भाई द्वारा राज्य से निकाले गये पति से कहा- ‘नरश्रेष्ठ वीर! अयोध्या के राज्य की अभिलाषा छोड़ दो और आओ मेरे साथ चलो।
हम दोनों मेरे पिता मधु के घर चलें सुरम्य मधुवन नामक वन ही मेरे पिता का निवास स्थान है।
वहाँ के वृक्ष इच्छानुसार फूल और फल देने वाले हैं।
वहाँ हम दोनों साथ रहकर स्वर्गवासियों के सामने मौज करेंगे।'
पृथ्वीनाथ! मेरे पिता और माता दोनों को ही तुम बहुत प्रिय हो और मेरा प्रिय करने के लिये मेरा भाई लवणासुर भी तुम्हें अत्यन्त प्रिय मानेगा।
नरश्रेष्ठ! वहाँ जाकर हम दोनों साथ-साथ रहकर राज्य पर बैठे हुए दम्पत्तियों की भाँति इच्छानुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमण करेंगे।
जैसे देवपुरी के नन्दवन में देवांगना और देवता विहार करते हैं, उसी प्रकार वहाँ हम दोनों विहार करेंगे।
_______
हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए।
इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं। जो आभीर रूप में पहले रहते हैं । हरिवंश पुराण का यहा हर्यश्व और मधुमती वाला आख्यान प्रक्ष्प्त ही है।क्यों कि यह कथा कथा स्वाभाविक धार से विपरीत है। अत: इसपर अधिक विचार करना मूर्खता पूर्ण
ये महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।
वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं।
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्य की बहन की संतति भानजी थीं।
नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे।
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
________
माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत। इनके पुत्र भीम। उसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।
____________
'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: । यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: । महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१।
भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३... गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।
अब 'हरि वंश पुराण में यदु के अन्य माता-पिता हर्यश्व और मधुमती तथा पाँच पुत्र हैं :- मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए।
उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
______________
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत। इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा। त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे। ______
अब ययाति पुत्र यदु के पुत्र सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल और रिपु का वंश कहाँ गया और ये पुत्र कहाँ गये इन बातों को कोई कथा वाचक बताए ?
'परन्तु यहांँ यह भी क्षेपक है कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।
मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी। मथुरा नाम परवर्ती है जबकि मधुपर: पूर्ववर्ती है ।
पुरोहितों 'ने कथाऐं बनाया कि
श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया
ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।नीचे संस्कृत में सन्दर्भ..
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे। त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्। येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
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अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।
ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके। नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।
अन्धक के पुत्र रैवत थे।
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था।
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50
रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:। बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।
तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव। चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।
वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्। यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।
तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:। यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।
वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:। तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
_______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं। तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं।
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।
उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष।
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।
श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।
जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।
वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।
कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।
___
रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है।
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उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
शूरसेन की संतान ही वसुदेव हैं।और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30
ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च। भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।
मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:। स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।
यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना। ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।
वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।
हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇
हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।
•-- वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया वे निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)
ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा । अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान् वेनसम्भवान् ।२०।
धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !
( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है । 'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये वनवासी के रूप में हैं ।
हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।१७।
यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं।
_______
अक्रूर ने श्रीकृष्ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्न करो। तात!
घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।
तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्ड में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ।
वे गुहरास्वरूप भागवत देवता हैं, सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक एवं उन्नायक हैं।
उनका मस्तिक कान्तिमान स्वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा।
यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं । दिव्यैर्भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत:।।४२।
तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।
गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।४३।
वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।
उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।
कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे । ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।
'परन्तु इसका तथ्य को बाद के सम्पादकों के द्वारा पुराणों में दबाया- गया ।..
यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।
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यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇
पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्। गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर
वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।
तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात् तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो !
यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।
हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि
ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्। अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।
•--अर्थात् तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।
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•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
"भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते।६५।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )
जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे
अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ?
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है । फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया । सरे आम बकवास है ये तो !
आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।
माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । इनके वंशज भैम कहलाये जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था
तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।
और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।
तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।
'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
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'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।
कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए ।
विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है । ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।
यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?
इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?
वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं
धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद, ., कर्मानन्द , धर्मानंद , और वल्लभ।
नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ।
श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर
"तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभा: ।३२।
अर्थ- भगवान् कृष्ण के सेवक श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।सब के सब सकुशल हैं 'न?
हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३
नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।
नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:। कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।
अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)
इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..
आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇
आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था।
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।
महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।
महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी।
श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली बताई गई है-
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आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'
इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था। इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।
रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।
महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
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'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:, आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'
गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
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'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'
रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ:-ऐतिहासिक स्थानावली |
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ --8077160219)
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20
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पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।
क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए। उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे ।
दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।
जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था
रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।
स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।
तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।वरयामास तां राजा भीष्म कंभीमव्रिकमम्।।19।।
चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:। मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25
तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासन्धो:। वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।
दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:। भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।
शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।
निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल
"वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।
जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।
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इसी पुराण में पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇
ततऽभयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।। पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।
अर्थात् भरत वंशी राजन्य ! फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया ।
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक भागों 'में विभक्ति किया और शुद्ध किया ।४६।
यदु जब दो हैं । तो फिर अहीर कौन से यादव हैं ?ब्राह्मणों 'ने ये पेच फाँस दिया ।
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