शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

नापित-

नापित शब्द की व्युत्पत्ति करने वाले एक पुरोहित की मन:स्थिति का बोध कराते हुए हम ये व्युत्पत्ति दर्शाते  हैं।
जिसमें नापित की व्युत्पत्ति हेय, नकारात्मक, और काल्पनिक रूप से करके अपने आप को हास्यापद ही बनाया है । वस्तुत परवर्ती काल में धर्म के नाम पर ये विकृति आयी थीं जब जातिवाद भारतीय समाज पर हाबी हो गया। ब्राह्मण अपने वर्चस्व के लिए दूसरी जातियों को हीन और वर्णसंकर दर्शाकर अपने को व्यभिचार संलग्न होने पर भी श्रेष्ठ और पूज्य सिद्ध किया है।

"नापिता वा भवन्त्यत:सूतके प्रेतके 
 वापि दीक्षाकालेऽथ वापनम्।३३। 
अर्थ- इस विधि से भी नापित( नाई) उत्पन्न होता है। जन्मसूतक, मरणसूतक अथवा दीक्षाकाल में ये केशों का मुण्डन करते हैं।३३।
"नाभेरुर्ध्वै तु वपनं तस्माद्नापित उच्यते।  कायस्थ इति जीवेत्तु विचरेच्च इतस्तत:।३४।
अर्थ:-नाभि से ऊपर के केशों को काटने से ही इन्हें नापित (नाई) कहते हैं। और यह कायस्थ नाम से इधर उधर विचरण करते हुए  जीविका उपार्जन करे ।३४।
चाणक्य नीति-में  भी नाई को "नापित" लिखकर उसकी दुष्प्रवृत्ति को बताया गया है। जिसमें नापित शब्द की व्युत्पत्ति  का  रूप- भी अपने नकारात्मक दृष्टिकोण के अनुरूप किया (न आप्नोति सरलतामिति –जो सरलता को प्राप्त नहीं होता है वह नापित:।  इस प्रकार से (न +  आप् + “नञ्याप इट् च ।(उणादि कोश ३।८७।  इति तन् इट् च = नापित:) ब्राह्मणों के अनुसार  यह नापित वर्णसङ्करजातिविशेषः है  । स तु पट्टिकार्य्यां कुवेरिणो जातः । इति पराशरपद्धतिः अर्थ:-कपड़ा बुननेवाली जुलाहा स्त्री में कुवेरि के द्वारा उत्पन्न सन्तान नापित है पाराशर पद्धति में यह वर्णन है। 
परन्तु दूसरे भिन्न ग्रन्थ "विवादार्णवसेतु" में इसके विपरीत नापित की उत्पत्ति का वर्णन है।
शूद्रायां क्षत्त्रियाज्जातःइति विवादार्णवसेतुः।  
 कि "शूद्रा स्त्री में क्षत्रिय से उत्पन्न सन्तान नापित है ॥
 नापित समाज को धूर्त कहकर ब्राह्मण अपने आप को नाई य
" में पूज्य कैसे मानव सकते हैं?  
मानुष्याणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां श्रृगालस्तु स्त्रीणां धुर्ता च मालिनी।२१।(चाणक्यनीति पञ्चमोध्याय) में तथा  पञ्चतन्त्र में भी  यह समान श्लोक है।

“नराणां नापितो धूर्त्तः पक्षिणाञ्चैव वायसः । दंष्ट्रिणाञ्च शृगालस्तु श्वेतभिक्षुस्तपस्विनाम्।७३। (पञ्च- तन्त्र)
अनुवाद:-पुरुषों में  नाई  धूर्त होता है , पक्षियों में कौआ , पशुओं या दाँतो वाले में गीधड़ ,और स्त्रियों में मालिन धूर्त होती है।
विशेष :- हर समाज में सभी प्रकार के अच्छे-बुरे व्यक्ति होते हैं। क्या किसी एक व्यक्ति के आधार पर ही सम्पूर्ण समाज का प्रवृत्याङ्कन किया जाना समीचीन  है ? मेरे विचार से तो कभी नहीं  सिवाय मूर्खता के।
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यद्यपि पौराणिक कथाओं के पात्र पूर्ण रूपेण काल्पनिक तो नहीं हैं परन्तु उनका चरित्रांकन अतिरञ्जना पूर्ण काव्यात्मक शैली में अवश्य किया गया है। यह शैली ही उनके अस्तित्व में सन्देह उत्पन्न कर देती है। दूसरा कारण परवर्ती काल में अथवा कहें स्मृति लेखन काल में यह भी रहा कि  ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के लिए तथाकथित पुरोहित वर्ग ने सभी इतर परिश्रम समन्वित जन जातियों को ब्राह्मण की अवैध सन्तान बताकर- उनको हीन और ब्राह्मण का ही नि: स्वार्थ सेवक बनाने के लिए नया उपक्रम प्रारम्भ किया।  उनको शास्त्रों में अवैध सन्तान बताने का यह प्रयास पुरोहित वर्ग द्वारा  इस लिए  भीव किया गया कि ब्राह्मण ही हर हाल में  श्रेष्ठ बना रहे इस अतिरञ्जना की पराकाष्ठा का अन्त इस रूप में हुआ कि " ब्राह्मण व्यभिचार भी करता है तो भी वह पूज्य ही है । ऐसे श्लोक स्मृतियों में तो लिखे ही गये पुराणों में  भी जोड़ दिए गये। 
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इस लिए हमारा  शास्त्रों से प्रमाण लेकर शास्त्रों पर ही प्रश्न चिन्ह लगाना केवल उनके शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत होने पर ही है । 
क्यों कि सिद्धान्त तो धर्म शास्त्रों के भी होते हैं। समय, परिस्थिति और देश- स्थान के अनुसार सिद्धान्त बदलने नही चाहिए  ये समाजिक सिद्धान्त  व्यक्ति की सामर्थ्य के परिमापक  ही हैं।
अधिक तर बाते किंवदन्तियों  पर ही आधारित होकर शास्त्रीय रूप में लिपिबद्ध  हुई हैं किसी शास्त्र कार ने इन घटनाओं को  प्रत्यक्ष नही देखा था ।

और हद तो तब हो गयी जब नापित शब्द की व्युत्पत्ति ब्राह्मण कोशकारों ने नाई को गाली देते हुए की- (न आप्नोति सरलतामिति  नापित:।( नञ् + आप् +  इट् च )” उणादि सूत्र। ३। ८७ ।  इति तन् इट् च ।)  अर्थात नापित वह है
"जो सरलता को  प्राप्त नहीं होता" अर्थात् कुटिल ह्रदय नापित होता है। किस प्रकार इन व्युत्पत्तियों को ईश्वरीय विधान मानकर सन्तुष्ट हुआ जाए। सायण ने नापित अथवा वार्ता ( 
परन्तु ये सब काल्पनिक व्युत्पत्ति कोशकारों के मन की  उपज थीं । सायण ने  नापित शब्द का अर्थ-  "वप्तेव यथा वप्ता नापितो वपति मुण्डयति" 10/142/ परन्तु यहाँ नापित शब्द की व्युत्पत्ति अस्पष्ट ही है ।परनेतु शोधों से प्रमाणित है कि नापित शब्द की तथा “पूर्वरूप स्नापित है।इस शब्द से ही नापित शब्द का विकास युक्ति संगत है। जो राजा महाराजाओं को स्नान कराने वाला उनका राज्याभिषेक  करने वाले पुरोहित  होते थे वे ही स्नापित कहलाते थे।
 इसी लिए नाई और ब्राह्मण दोनों में नाई ही श्रेष्ठ है।

स्नान कराकर वपन( वपतिस्मा कराने वाले परम्परागत जनसमुदाय को  स्नापित कहा जाता था कालान्तरण में यह शब्द केवल नापित के रूप में रह गया । ये शुद्धि करण का अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मण द्वेष के कारण शूद्र रूप में परिणति हो गये। और इन्हें चालाकी से ब्राह्मण समुदाय ने अपनी अवैध सन्तान घोषित होने के विधान बनाए हैं।

 स तु पट्टिकार्य्यां कुवेरिणो  नापित:जातः । 
इति पराशरपद्धतिः ॥ शूद्रायां क्षत्त्रियाज्जातः नापित इति विवादार्णवसेतुः

पाराशर स्मृति में लिखा है कि शुद्रा के गर्भ से ब्राह्मण द्धारा उत्पन्न संतान का यदि ब्राह्मण द्धारा संस्कार न हुआ हो तो वह नापित कहलाता है। पराशर के अनुसार कुबेरी पुरुष और पट्टिकारी स्त्री के संयोग से नापितों की उत्पत्ति हुई। ये दोनों ही मत विरोधाभाी होने से मिथ्या व शास्त्र सिद्धान्त  के विपरीत  होने से खारिज ही हैं।
अथर्ववेद में  वरन सूक्त में सविता स्नापित का वाचक है। 
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ऋषि: - अथर्वा
देवता - सविता, आदित्यगणः, रुद्रगणः, वसुगणः
छन्दः - चतुष्पदा पुरोविराडतिशाक्वरगर्भा जगती
सूक्तम् - वपन सूक्त

 ६.०६७ अथर्ववेदः - काण्डं ६
सूक्तं ६.०६८
ऋषिः - अथर्वा सूक्तं ६.०६९ →

देव. १ सविता, आदित्याः, रुद्राः, वसवः, २ अदितिः, आपः, प्रजापतिः, ३ सविता, सोमः, वरुण-। १ पुरोविराड्तिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, २ अनुष्टुप्, ३ अतिजगतीगर्भा त्रिष्टुप्।

"आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि 
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥१॥

अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा ।
चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे॥२॥

येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमान् अश्ववान् अयमस्तु प्रजावान्॥३॥

आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेनऌ वायु उदकेनेहि। आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः ।68/1।
(पद-पाठ)
आ । अयम् । अगन् । सविता । क्षुरेण । उष्णेन । वायो इति ।उदकेन । आ । इहि । आदित्या:। रुद्रा: । वसव: । उन्दन्तु । सऽचेतस:। सोमस्य । राज्ञ: । वपत । प्रऽचेतस: ॥६८.१॥

(अयम्) यह (सविता) स्नापित। नापित (क्षुरेण) छुरा के द्वारा (आ- अगन्) आया है, (वायो) हे वायु  ! (उष्णेन) तप्त [तत्ते] (उदकेन) गर्म जल के द्वारा (आ इहि)  आओ।(आदित्याः) आदित्य गण, (रुद्राः)रूद्रगण(वसवः) वसु गण  ़(सचेतसः) सचेत  (उन्दन्तु) भिगोवें, (प्रचेतसः) प्रकृष्ट ज्ञानवाले पुरुषो ! तुम (सोमस्य) शान्तस्वभाव (राज्ञः)  प्रकाशित  बालक का (वपत=वपयत) मुण्डन कराओ ॥१॥

टिप्पणी -
१−(अयम्) दृश्यमानः (आ अगन्) आगमत्। आगतवान् (सविता) स्नापित: नापितः (क्षुरेण) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति क्षुर विलेखने−रन्, रेफलोपः। लोमच्छेदकेनास्त्रेण (उष्णेन) तप्तेन (वायो) हे शीघ्रगामिन् पुरुष (उदकेन) जलेन (आ इहि) आगच्छ (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (रुद्राः) अ० २।२७।६। ज्ञानदातारः (वसवः) श्रेष्ठा जनाः (उन्दन्तु) आर्द्रीकुर्वन्तु। माणवकस्य शिर इति शेषः (सचेतसः) समानज्ञानाः (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनो माणवकस्य (वपत) वपयत। मुण्डनं कारयत (प्रचेतसः) प्रकृष्टज्ञानाः पुरुषाः ॥

अदिति: । श्मश्रु। वपतु । आप: । उन्दन्तु । वर्चसा । चिकित्सतु । प्रजाऽपति: । दीर्घायुऽत्वाय । चक्षसे ॥६८.२॥

अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(अदितिः) अखण्डित छुरा (श्मश्रु) केश (वपतु) काटे (आपः) जल (वर्चसा) अपनी शोभा से (उन्दन्तु) सींचे। (प्रजापतिः) सन्तान का पालन करनेवाला पिता (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन के लिये और (चक्षसे) दृष्टि बढ़ाने के लिये (चिकित्सतु) [बालक के] रोग की निवृत्ति

निवृत्ति करे ॥२॥

टिप्पणी -
२−(अदितिः) अ० २।२८।४। दो अवखण्डने−क्तिन्। अखण्डितस्तीक्ष्णधारश्छुरः (श्मश्रु) अ० ५।१९।१४। श्म शरीरम् श्मश्रु लोम, श्मनि श्रितं भवति। निरु० ३।५। शिरः केशम् (वपतु) मुण्डतु (आपः) जलानि (उन्दन्तु) सिञ्चन्तु स्नानेन (वर्चसा) तेजसा (चिकित्सतु) कित रोगापनयने। भिषज्यतु बालकस्य रोगनिवृत्तिं करोतु (प्रजापतिः) सन्तानपालकः पिता (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (चक्षसे) अ० १।५।१। दृष्टिवर्धनाय ॥

ऋषि: - अथर्वादेवता - सविता, सोमः, वरुणःछन्दः - अतिजगतीगर्भा त्रिष्टुप्सूक्तम् - वपन सूक्त
  
येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान् ॥६८.३
पदपाठ-
येन । अवपत् । सविता । क्षुरेण । सोमस्य । राज्ञ: । वरुणस्य । विद्वान् । तेन । ब्रह्माण: । वपत । इदम् । अस्य । गोऽमान् । अश्वऽवान् । अयम् । अस्तु । प्रजाऽवान् ॥६८.३॥

 अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; ऋचा » 3
 
पदार्थ -
(येन) जिस विधि के साथ (विद्वान्) अपना कर्म जाननेवाले (सविता) फुरतीले नापित ने (क्षुरेण) छुरा से (सोमस्य) शान्तस्वभाव, (राज्ञः) तेजस्वी, (वरुणस्य) उत्तम स्वभाववाले बालक का (अवपत्) मुण्डन किया है। (तेन) उसी विधि से (ब्रह्माणः) हे ब्राह्मणो ! (अस्य) इस बालक का (इदम्) यह शिर (वपत) मुण्डन कराओ, (अयम्) यह बालक (गोमान्) उत्तम गौओंवाला, (अश्ववान्) उत्तम घोड़ोंवाला और (प्रजावान्) उत्तम सन्तानोंवाला (अस्तु) होवे ॥३॥

टिप्पणी -
३−(येन) यादृशेन विधिना (अवपत्) मुण्डनं कृतवान् (सविता) म० १। स्फूर्तिशीलः (क्षुरेण) अस्त्रेण (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनः (वरुणस्य) श्रेष्ठबालकस्य (विद्वान्) स्वकर्मज्ञाता नापितः (तेन) तादृशेन कर्मणा (ब्रह्माणः) हे वेदज्ञातारो ब्राह्मणाः (वपत) मुण्डनं कारयत (इदम्) शिरः (अस्य) माणवकस्य (गोमान्) प्रशस्तगोयुक्तः (अश्ववान्) बहुमूल्यतुरङ्गोपेतः (अयम्) माणवकः (अस्तु) (प्रजावान्) प्रशस्तसन्तानयुक्त ॥

  
अथर्ववेद-(काण्ड » 6) (सूक्त » 68) (मन्त्र »1)
 विषय - मुण्डन संस्कार का उपदेश।
पदों का अर्थ -
(अयम्) यह (सविता)षुञ्- अभिषवे-सु+ कर्तरि तृच्-सवितृ-स्नापित- यज्ञ स्नान कराने वाला।  स्नापित (क्षुरेण) छुरा सहित (आ अगन्) आया है, (वायो) हे शीघ्रगामी पुरुष ! (उष्णेन) तप्त [तत्ते] (उदकेन) जलसहित (आ इहि) तू आ। (आदित्याः) अदितिपुत्रा:) रूद्राः)रूद्रगण (वसवः) वसुगण पुरुष (सचेतसः) एकचित्त होकर [बालक के केश] (उन्दन्तु) भिगोवें, (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चेतना वाले पुरुषो ! तुम (सोमस्य) सोम का (राज्ञः) राजा का (वपत=वपयत) मुण्डन कराओ ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अयम्) दृश्यमानः (आ अगन्) आगमत्। आगतवान् (सविता) नापितः (क्षुरेण) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति क्षुर विलेखने−रन्, रेफलोपः। लोमच्छेदकेनास्त्रेण (उष्णेन) तप्तेन (वायो) हे शीघ्रगामिन् पुरुष (उदकेन) जलेन (आ इहि) आगच्छ (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (रुद्राः) अ० २।२७।६। ज्ञानदातारः (वसवः) श्रेष्ठा जनाः (उन्दन्तु) आर्द्रीकुर्वन्तु। माणवकस्य शिर इति शेषः (सचेतसः) समानज्ञानाः (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनो माणवकस्य (वपत) वपयत। मुण्डनं कारयत (प्रचेतसः) प्रकृष्टज्ञानाः पुरुषाः॥
नापित पुं।
क्षुरिः
समानार्थक:क्षुरिन्,मुण्डिन्,दिवाकीर्ति,नापित, अन्तावसायिन्,ग्रामणी।
2।10।10।1।4

क्षुरी मुण्डी दिवाकीर्ति नापितान्तावसायिनः। निर्णेजकः स्याद्रजकः शौण्डिको मण्डहारकः॥
(न आप्नोति सरलतामिति । न +  आप् + “नञ्याप इट् च ।” उणां ३ । ८७ । इति तन् इट् च ।

उणादिकोश-
गोब्राह्मणाग्नीनुच्छिष्ट पाणिना नैव संस्पृशेत्।।
न स्पृशेदनिमित्ते नखानि स्वानि त्वनातुरः।८७।
गो यद्यपि वैश्य वर्णीय पशु है। परन्तु बकरी से अधिक प्रभाव शाली होने के कारण बकरी को छोड़ ब्राह्मणों ने गाय को भी ब्राह्मण बनाने के विधान कालान्तर में शास्त्रों में जोड़ दिए।।
गो ब्राह्मण और अग्नि को सजातीय बनाकर प्रस्तुत किया गये। परन्तु गाय के पालक और सेवक गोपाल को शूद्र ही माना जो कि शास्त्रीय सिद्धान्तों की तौहीन है।। शास्त्रों में लिखे इस रह प्रकार के सिद्धान्त हीन तथ्यों को सिरे से खारिज कर देना चाहिए - यही धर्म मर्यादा है।

दास नापित गोपाल कुलमित्रार्धसीरिणः।।
भोज्यान्नाः शूद्रवर्गेमी तथात्मविनिवेदकः।१०५।
दास नाई, ग्वाले, पारिवारिक मित्र, अर्धशिरिन अर्घसीरिन्] अपने पारिश्रमिक के बदले में आधी फसल लेनेवाला । अधिया पर खेत जीतनेवाला कृषक ।- ये सभी शूद्र जाति के होते हुए भी भोजन खिलाए जाने योग्य हैं। इसी प्रकार वह भी जो स्वयं को समर्पित करता है। वह आत्मनिवेदक भी शूद्र वर्ग में हैं।
पद्मपुराणम्‎ | खण्डः -(७) (क्रियाखण्डः)
← अध्यायः (२१)

                      ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाःश्रेष्ठाः पूजनीयाःसदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम|६|
सभी ही ब्राह्मण श्रेष्ठ और पूजनीय सदैव होते है। ब्राह्मण चोर होने पर भी पूजनीय है .

अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन
अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरः स्मृताः||७|

अर्थ⬇
ब्राह्मण बलात्कारी व्यभिचारी भी पूजनीय है
और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है।
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दु:शीलो८पि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् पाराशर-स्मृति (१९२)

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