सोमवार, 30 जनवरी 2023

राम का सीता के प्रति व्यवहार- सीता का परित्याग-

राम के द्वारा सीतापरित्याग (प्रथम भाग-)

बचपन से ही हम रामायण' की कहानी सुनते आए हैं। “जब सीता ने अग्निपरीक्षा द्वारा अपनी पवित्रता पहले ही सिद्ध कर दी थी, तो राम ने उन्हें वनवास क्यों दिया ?" इस प्रश्न का कोई समुचित व युक्तियुक्त उत्तर हमें नहीं मिलता।

यह प्रश्न तो  'रामायण' के हर अध्येता के समक्ष बारबार उत्पन्न होता ही है, बहुत से सुप्रसिद्ध व्यक्तियों का कथन है कि वे 'रामायण' में सीतावनवास उपाख्यान को पसंद नहीं करते और इसे वे राम के चरित्र पर एक कलंक (आक्षेप) मानते हैं।

आमतौर पर जो जवाब दिया जाता है, वह यह है कि राम ने सीता को वनवास इसलिए दिया, क्योंकि वह जनसेवा का एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते थे।

एक मिसाल कायम करना चाहते थे। पर यह तर्क भी प्रबुद्ध जनों को प्रभावित  नहीं करता, क्योंकि हम जानते हैं कि राम एक अत्यधिक आदर्श राजा के रूप में प्रसिद्ध हैं। आज भी रामराज्य' का अर्थ होता है 'सर्वश्रेष्ठ शासन' या 'सर्वश्रेष्ठ सरकार' अब, राजा का निर्णय भी आदर्श तो  होगा ही।

जैसा कि हर पाठक जानता है, सीता पवित्र थी, पतिव्रता थीं, अपने समय की सर्वश्रेष्ठ स्त्री थीं। राम जानते थे कि सीता पतिव्रता है, क्योंकि अग्निपरीक्षा में वह पवित्र प्रमाणित हुईं। 
क्या राम,  अथार्त  आदर्श राजा राम, क्या सीता को किसी ऐसे आक्षेप पर सजा देगा, जिस (आक्षेप) के बारे में वह जानता है कि वह (आक्षेप) आधारहीन है ?

साधारण स्थिति में राजा के रूप में, राम से हम अपेक्षा करते हैं कि या तो वह अफवाह पर कान ही नहीं देगें या फिर अफवाह फैलाने वाले को दंड देगें। इस तरह हम सीता वनवास के लिए राजा राम को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते।

 इस प्रश्न के किसी युक्तियुक्त उत्तर के लिए हमें राम, व्यक्ति रूप में राम के अंतस में झांकना होगा।

फिर, यदि वह राजा राम के रूप में यह निर्णय कर रहा थे, तो उनसे  अपेक्षा की जाती है कि वह सीता को अपनी सफाई देने का मौका देते। यह मौका उन्होंने  नहीं दिया। उन्होंने  लक्ष्मण से, यह कह कर कि सीता वन जाना चाहती है, उसे वन में वाल्मीकि आश्रम के पास छोड़ आने को कहा। सीता के वन जाने से पूर्व वह (राम) उस से मिले तक नहीं। इस से लगता है कि राम यह कार्य एक व्यक्ति, एक मनुष्य के रूप में ही कर रहा थे, न कि राजा के रूप में।

इस से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राम भगवान के रूप में भी कार्य नहीं कर रहा थे। एक बार इंद्र ने धोखे से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का शीलभंग किया था। अपवित्र अहल्या राम के (चरण) स्पर्श मात्र से पवित्र हो गई थी।

यदि हम यह मान भी लें कि सीता अपवित्र थी तो वह राम के स्पर्श मात्र से अपने आप पवित्र हो जातीं। इस तरह वह पवित्र नहीं हुई, इस का मतलब यही निकलता है कि उस समय राम भगवान नहीं थे? सिर्फ मानव थे।


सीतापरित्याग (भाग द्वितीय)

 रामवका पूर्वाग्रही पति के रूप में निर्णय

वास्तव में जब राम ने सीता को वनवास दिया था, तो वह सिर्फ एक पति थे। एक ऐसा पति जिस के मन में कुछ पूर्वाग्रह थे। सीता की पवित्रता के प्रति पूर्णतः आश्वस्त होते हुए भी यदि उन्होंने  सिर्फ लोकनिंदा के भय से सीता को निर्वासित किया था, तो उस का यह पूर्वाग्रह कायरतापूर्ण निर्णय के रूप में था, क्योंकि उन में ऐसे व्यक्ति से नजर मिलाने का साहस नहीं था जिस ने हंसते हंसते उस के साथ वनगमन करने और वहां होने वाली पीड़ाओं का हंसते हंसते सामना करने का साहस दिखाया था।

यह वैकल्पिक पूर्वाग्रह, उस के चेतन या अवचेतन मन में, सीता की पवित्रता के प्रति अस्पष्ट संदेह हो सकता है।


आप किसी स्त्री के विषय में कोई अनर्गल बात कह देते हैं, यद्यपि दूसरा व्यक्ति आप की इस बात में जरा भी विश्वास नहीं करता, तो भी आप की वे टिप्पणियां उस के दिमाग में जगह बना लेंगी और जबतब अभिव्यक्त होती रहेंगी उसे संतुष्ट् नहीं मिलती।
यदि किसी व्यक्ति के मन में अपनी पत्नी के प्रति संदेह घुस जाए तो फिर निकल नहीं सकता। अविश्वास के बीज संदेह की भूमि में  उगते हैं।
  
रावण के घर से आने पर राम ने सीता के सतीत्व पर संदेह को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त किया था। 
 
कोई भी व्यक्ति सीता वनवास के बारे में जितना ही अधिक सोचता है, उस मानसिक दुर्दशा की उपस्थिति पर जो महान राम ने उस समय महसूस की होगी, तो उस का विश्वास पक्का होता जाता है कि राम, जो एक वीर योद्धा था राम जो सीता का सच्चा प्रेमी था, अपने संदेहों के कारण टूट गया, अपने अंतद्वंद्वों से संतप्त हो गया, स्वयं को इस स्थिति में पा कर चकरा गया।

सीता परित्याग (भाग तृतीय)

राम हमारे नायक के रूप में 
जब अपनी पत्नी के सतीत्व में संदेह किसी व्यक्ति के दिमाग में मुख्य द्वार से प्रवेश करता है, तो शांति पिछले दरवाजे से निकल जाती है। और अविश्वास और आशंकाओं के धूल और आऑधी उमड़ने लगती है। ऐसी घड़ी में उसे शांति की ही अधिकतम आवश्यकता होती है। 

हमें इस बात का ध्यान रखना है कि ये बातें किसी साधारण मनुष्य के दिमाग में नहीं उठ रही हैं। यह व्यक्ति जो एक अभूतपूर्व यंत्रणा के जाल में उलझ गया है, एक उदात्त नायक है। राम के लिए अयोध्या की गद्दी, जो लगभग उनसे  छिन गई थी, छोड़ कर वनवास चले जाना इतना कष्टकर नहीं था जितना कि यह क्षण। सीताहरण उस के लिए व्यथा का कारण था, लेकिन उस में उस के मन में अंतर्द्वद्व नहीं उठा, इस ने उसे कुछ कर गुजरने को प्रेरित किया।

युद्ध के मैदान में लक्ष्मण के बेहोश हो जाने से उस में निराशा उत्पन्न हुई थी, पर यह उस के अपने किए का परिणाम नहीं था।

राम की परीक्षा की असली घड़ी तब शुरू हुई जब सीताहरण के बाद, लंका के विजित युद्ध क्षेत्र में उस का सामना सीता से हुआ। क्रोध, प्रसन्नता व हीनता की भावनाएं एक साथ उस के चेहरे पर प्रकट हुई, वाल्मीकि ने पुनः कहा,
“राम को सीता के लौट आने पर, वस्तुतः प्रसन्नता नहीं हुई। "

अब तक वह एक सम्मोहित व्यक्ति की भांति एक लंबी आत्मविस्मृति में बढ़ता जा रहा था। अब, जब रावण मर चुका था और सीता उस के सामने थी, तो उस का सामना यथार्थं से हुआ। वह सीता का क्या करेगा ? वह अपने मन का विश्लेषण करता है।

उन्हें पता चलता है कि उस की कुछ कर गुजरने की प्रेरणा के मूल में सीता को पुनः प्राप्त करने की इच्छा नहीं थी, बल्कि उस के पीछे था उस का आहत अभिमान, आत्मगौरव की भावना और उस का पौरुष, जिस ने उसे अपना अपमान करने वाले से बदला लेने को मजबूर कर दिया था। 

इस आधार पर कि रावण ने सीता की शुचिता भंग कर दी होगी, वह सीता को फिर से ग्रहण करने से इनकार कर देता है। वह यह भी कहता है कि उसे सीता के चरित्र पर भी संदेह होने लगा है।

उस की इस तरह की बातें सुन कर सीता स्तब्ध रह गई, पर उस की (राम की) आलोचना के लिए उस के पास एक उपयुक्त उत्तर था। वह कहती है, “मेरा मन, जो मेरे वश में है, अब भी आप के प्रति समर्पित है। 
अपने शरीर पर मेरा वश नहीं है, क्योंकि अबला नारी होने के कारण मैं इस की रक्षा नहीं कर सकती। इसलिए मैं निर्दोष हूँ।"

फिर वह राम को झिड़कते हुए कहती है, “जब तुम ने हनुमान को अपना दूत बना कर भेजा था, तब क्यों न मेरा परित्याग कर दिया? उस समय मैं आत्महत्या कर लेती।" और वह लक्ष्मण को चिता बनाने के लिए कहती है, ताकि वह आत्मघात कर सके।

हो सकता है भावोद्रेक में कहे गए सीता के ये कठोर वचन और आत्मदाह की तैयारी ने राम के मन को पिघला दिया हो, या हो सकता है सीता के प्रति अपने व्यवहार को अपने अनुयायियों से अनुमोदन न मिलने के कारण उसे (राम को) झुकना पड़ा हो और वह सीता को अपने साथ ले जाने को राजी हो गया।

फिर अयोध्या आने के बाद, वह आवश्यक राजकार्यों और अपने राज्याभिषेक की तैयारियों में खो गया। उस के सभी नए मित्र-सुग्रीव, अंगद, विभीषण और बहुत से दूसरे जो, उनके के साथ थे। समारोह समाप्त हो जाने के बाद सभी चले गए। तभी  सीता के चरित्र व सतीत्व के प्रति संदेह उस के मन में दोबारा स्वतः ही नहीं उठा, तो भी अयोध्या में लोगों की अनर्गल बकवास ने उसे फिर से उठा दिया। जो भी हो, रावण को समाप्त कर देने के उस के वीरतापूर्ण काम की अयोध्या वासियों ने प्रशंसा की थी और उस के विगत वनवास को ले कर सहानुभूति की जैसी भावना उस के प्रति थी वैसी सीता के लिए नहीं थी, यह स्पष्ट है।

आखिरकार, वह स्त्री थी, उस समय के सामाजिक रिवाज और रवायतो के मुताबिक संपत्ति पर केवल पति का अधिकार था।
 राम भी उस समाज का अंग थे। उनके सोचने का ढंग भी उसी सोच पर आधारित था। किसी स्त्री की मामूली सी चूक भी, चाहे यह उस की अनिच्छा व मजबूरी से हुई हो, अक्षम्य थी। अहल्या का उद्धार करते समय राम उदार हो सकता थे, क्योंकि अहल्या उस की पत्नी नहीं थी, लेकिन जब उस की अपनी पत्नी का सवाल उस के सामने आया, तो डगमगा गया। 


सीता परित्याग (भाग चतुर्थ)

राम के संदेह
सीता की 'पवित्रता' या 'सतीत्व भंग' के प्रति राम के मन में अंतर्द्वद्व इस बात के प्रमाण हैं कि राम मानव रूप ही थे।
 इस के दो-तीन अवयव हैं: जैसे

(क) राम इस विषय में संदेहमुक्त नहीं हैं कि रावण द्वारा सीता का हरण उस (सीता) की इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती किया गया था या वह स्वयं ही अपनी इच्छा से उस के साथ चली गई थी।

(ख) राम इस विषय में निःशंक नहीं है कि सीता रावण की इच्छाओं के सामने अपने सतीत्व की रक्षा करने में सफल हुई होगी।

(ग) राम इस विषय में भी निःशंक नहीं कि रावण द्वारा उस (सीता) का अपहरण अनिच्छापूर्वक हुआ भी हो, तो भी वह वीर व सुंदर रावण के प्रति अपने मन के झुकाव को रोक पाने में सफल हुई होगी और यह भी कि अब भी उस के दिल में रावण के लिए कोई कोमल स्थान नहीं होगा।

आइए, इन बातों पर बारीबारी से विचार करें। पर इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि राम इन सभी मामलों में सिर्फ संदेही है ।

वाल्मीकि सीताहरण के दृश्य का वर्णन इस प्रकार करते है: सीता कुटिया के बाहर फूल चुन रही है. स्वर्ण मृग चौकड़ी भरते हुए आता है। सीता की नजर उस पर पड़ती है, तो वह उस पर मुग्ध हो जाती है। वह उधर कुटिया में आ कर राम को वह मृग जीवित या मृत पकड़ लाने के लिए कहती है। उस की बात मान कर राम मृग के पीछे जाते हैं।

जब वे दोनों काफी दूर निकल जाते हैं तो राम मृग को घायल कर देता हैं और मृग ' हा लक्ष्मण, हा सीते' कह कर चिल्लाता है। वह चीख कुटिया में सुनाई देती है। सीता लक्ष्मण को जाने और भाई की सहायता करने के लिए कहती है। लक्ष्मण जाने से इनकार कर के उसे समझाते है कि बड़े भाई ने मुझे तुम्हारी (सीता की) रक्षा करने की आज्ञा दी है।

सीता क्रोधित हो जाती है और लक्ष्मण पर इलजाम लगाती है कि वह राम की मदद करने इसलिए नहीं जा रहा, क्योंकि उस की (लक्ष्मण की) उस (सीता) पर कुदृष्टि है।

तब भी लक्ष्मण यह कह कर कि राम पर कोई संकट नहीं आ सकता और यह राक्षसों द्वारा उन की आंखों में धूल झोंकने की चाल हो सकती है, जाने से इनकार कर देता है।

इस पर सीता ने और भी चुभने वाले शब्द कहे..

अरे अनार्य ! ओ निर्दयी ! ओ क्रूर ! ओ कुलांगार (कुल कलंकी) मैं समझती हूं कि राम का विनाश ही तुझे विशेष प्रिय है। उन्हें विनाशोन्मुख देख कर ही तू ऐसी बातें बना रहा है. लक्ष्मण ! तू जो कर रहा है, उस में विस्मय की कोई बात नहीं है। तेरे जैसे क्रूर व कपटी मित्र ऐसा ही करते हैं। तू बड़ा दुष्ट है। मुझे अपनी बनाने के लिए या भरत की प्रेरणा से अकेला हमारे साथ वन में आया है। लक्ष्मण ! अच्छी तरह समझ लो, तुम्हारी या भरत की यह दूषित कामना कभी पूरी न होगी।"
"नीलकमल सदृश श्याम और कमल के समान नेत्रों वाले राम की पत्नी हो कर तुम जैसे नीच की भार्या मैं कदापि न होऊंगी। 

मैं तुम्हारे सामने ही अपने प्राण त्याग दूंगी। राम से बिछुड़ कर मैं क्षण भर भी न जिऊंगी।"

सीता के ये रोमांचकारी और कठोर वचन सुन कर जितेंद्रिय लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर कहा, 'हे मैथिली! आप ने मेरे प्रति जो अनुचित बातें कही हैं, उन से मुझे कोई विस्मय नहीं हुआ, क्योंकि स्वियों का स्वभाव ही ऐसा होता है। स्त्रियां धर्मभ्रष्ट, चंचल, क्रूर और भेद (फूट) डालने वाली होती हैं। 

है जानकी! आप की लांछन भरी बातें मुझे असह्य हो रही हैं। तपा कर लाल किए गए बाण की तरह आप की बातों ने मेरे कान व्यथित कर (बींध) दिए हैं।

'इस वन में रहने वाले सभी जीव साक्षी हो कर मेरी बात सुनें। मैं ने आप से न्यायसंगत बात कही थी। उस के बदले आप ने मुझे ऐसी कठोर बातें कह डालीं? आप को धिक्कार है। आप मुझ पर संदेह कर रही हैं? अब आप का संकट निकट है। स्त्री जाति के दुष्ट स्वभाववश कष्ट में पड़े अपने बड़े भ्राता की आज्ञा में रहने वाले मुझ सेवक पर आप ऐसी शंका कर रही हैं?'

'अच्छा, अब मैं राम के पास जा रहा हूं। तुम्हारा कल्याण हो। हे विशालाक्षि ! इस वन के देवता आप की रक्षा करें। मुझे बड़े भयानक अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। क्या मैं राम के साथ लौट कर आप को आश्रम में देख पाऊंगा?'

लक्ष्मण के ऐसा कहने पर सीता आंखों में आंसू भर कर बोली, 'राम के न होने पर मैं गोदावरी में कूद पहूंगी, गले में  फांसी लगा कर मर जाऊंगी, किसी ऊंचे पर्वत पर चढ़ कर कूद पड़गी कोई भयानक विष पी लूंगी या आग में कूद जाऊंगी। राघव रामचंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को मैं पांव से भी न छुऊंगी।'

दुखिनी सीता इस प्रकार लक्ष्मण को कोस कर रो रही है और दोनों हाथों से छाती पीटने लगी। इस प्रकार विकल हो कर रोती हुई विशालनयनी सीता को लक्ष्मण ने देखा, तो उसे धीरज धरने को कहा लेकिन अपने पति के छोटे भाई (देवर) उन्होंने कुछ न कहा। इस के बाद लक्ष्मण ने हाथ जोड़ कर और झुक कर प्रणाम किया और बारबार ( मुड़ कर पीछे) देखते हुए राम के पास चले गए।

अब संन्यासी के भेष में रावण आता है। सीता के सौंदर्य को देख कर रावण काम के वशीभूत हो कर आत्मनियंत्रण खो देता है। वह कुछ वेदमंत्रों का उच्चारण करता है और फिर सीता के रूप की प्रशंसा करने लगता है। फिर वह कहता है। कि सीता जैसी (सुंदर स्त्री ) को जंगल में नहीं, किसी राजमहल में रहना चाहिए। सीता साधु वेष धारी का स्वागत करती है और उसे खाने को फल व कंदमूलादि देती है। तब वह उसे अपने कुल व परिवार आदि के विषय में बताती है और उस के कुल परिवार आदि के बारे में पूछती है।

रावण अपना परिचय उसे देता है और अपने साथ चलने के लिए कहता है. सीता राम के प्रति अपने प्रेम व निष्ठा की बात कह कर (कठोर शब्दों में ) इनकार कर देती है. रावण उसे जबरदस्ती उठा कर आकाशमार्ग से ले जाता है। सीता चीखती चिल्लाती है और हर पदार्थ को साक्षी बना कर कहती है कि देखो, मेरा अपहरण जबरदस्ती किया जा रहा है। रास्ते में वह जटायु को देखती है।

वाल्मीकि द्वारा वर्णित उपर्युक्त प्रसंग में कोई भी यह नहीं देख रहा कि वास्तव में उस पर्णकुटी में क्या हो रहा है। वाल्मीकि जानते है कि रावण ने सीता का हरण बलपूर्वक किया। पाठक के रूप में हम भी जानते हैं कि वहां क्या हुआ। पर राम और लक्ष्मण, जो वहां थे ही नहीं, इस मामले से पूणर्त: अनभिज्ञ थे और न ही कोई अन्य ऐसा व्यक्ति था, जो उन्हें सही बात बताता।

राम तो इतना ही जानता थे कि सीता ने पहले उसे दूर भेज दिया, लक्ष्मण को भी उस (राम) के पीछे जाने लिए मजबूर कर दिया. लक्ष्मण पर फिर जो उस ने आरोप लगाए, उन से भी लक्ष्मण को अपने रास्ते से हटाने की इच्छा ही नजर आती है।

हम जानते हैं कि सीता इस षड्यंत्र में शामिल नहीं थी, पर फिर भी कुल मिला कर सीता की स्थिति बड़ी कमजोर हो जाती है। लक्ष्मण पर अंधाधुंध लगाए गए आरोपों के आधार (स्रोत) के बारे में वह कोई सफाई नहीं दे सकती और बाद में जब राम को उस के चरित्र पर शक हो जाता है तो वह, जहां तक राम का सवाल है, उसे कभी भी संदेहमुक्त (संतुष्ट) करने में सफल नहीं हो सकती। फिर इतनी अवधि बीत जाने के बाद, जब राम संदेहास्पद अवस्था में उस सारे प्रसंग की फिर से परिकल्पना करेगा, तो यह नहीं समझ पाएगा कि सच क्या है और झूठ क्या है?

राम सीता के सतीत्व पर शक कर सकता था?' इस संदेह को हम पहले ही दो वर्गों में विभाजित कर चुके हैं:

(1) क्या सीता रावण की इच्छाओं के विरुद्ध अपने सतीत्व की रक्षा करने में समर्थ या सफल हो सकी होगी?

(2) क्या सीता अपने मन की (काम) भावना पर आत्मनियंत्रण रख सकी होगी?

अब हम बारीबारी से दोनों बातों पर विचार करेंगे।

क्या सीता रावण से अपनी रक्षा कर पाई होगी?

सीता रावण की इच्छा की अवहेलना कर के अपने सतीत्व की रक्षा कर पाई होगी या नहीं, यह संदेह राम के मन में था, यह रामायण के हर रूपांतर से स्पष्ट है।
 वाल्मीकि_रामायण' का एक लंबा उद्धरण ही यहां काफी होगा। पर राम की विजय के एकदम बाद बाल्मीकि इस प्रसंग का वर्णन करता है। विभीषण सीता को राम के सम्मुख लाता है। आइए, इस का वर्णन वाल्मीकि के ही शब्दों में करें - 

"विभीषण बहुत सीता को ले कर वहां आए, जहां रामचंद्र थे। उस समय रामचंद्र ध्यानमग्न थे। फिर भी विभीषण ने उन्हें सीता के आगमन की सूचना दी। राक्षसराज के घर में दिनों तक रहने के बाद सीता आई है। 

इस बात को सोच कर रामचंद्र के हृदय में क्रोध, हर्ष और दीनता तीनों बातें एक साथ उत्पन्न हो गई।

 सीता के आगमन से रामचंद्र को विशेष प्रसन्नता नहीं हुई। उन्होंने पास खड़े हुए विभीषण को देख कर चिंतित मन से कहा, 'हे सौम्य, तुम सीता को शीघ्र ही हमारे सामने ले आओ।'

"रामचंद्र की आज्ञा पाते ही विभीषण ने उस स्थान से सब को हटा देने का उपक्रम किया। कुरता और पगड़ी पहने तथा हाथ में बेंत लिए हुए रक्षक वीर वानरों को वहां से हटाने लगे। वहां से जाने की आज्ञा पाते ही वानरों, भालुओं और राक्षसों का दल दूर चला गया। उस बड़ी भारी सेना को हटाने में ऐसा भारी कोलाहल मचा, जैसे वायु के झोंकों से उठती हुई समुद्र की लहरों का हाहाकार मचता है, जो लोग वहां से हटाए जा रहे थे, वे सब बहुत घबरा गए। यह देख कर रामचंद्र ने अपनी उदारता और क्रोध से उन हटाने वालों को रोक दिया। रामचंद्र ने क्रोध से आंखें लाल कर के उलाहने दे कर विभीषण से (इस प्रकार ) कहा: 

'विभीषण, मुझ से बिना पूछे ही तुम अपने मन से इन लोगों को क्यों कष्ट दे रहे हो ? ये लोग मेरे स्वजन हैं। इसलिए इस अनुचित कार्य को अभी बंद कर दो। घर, वस्त्र, प्राकार, चारदीवारी आदि स्त्रियों के लिए परदा नहीं है और न ही इस तरह राजसत्कार करते हुए लोगों को हटाना ही परदा है। 
स्त्रियों का सच्चा परदा तो उन की सच्चरित्रता है ।और फिर विपत्ति के समय, पीड़ा में, युद्ध में, स्वयंवर में, यज्ञ में और विवाह के समय स्वियों का सब के सामने आना दूषित नहीं होता। यह समय बड़े दुख का है। ऐसे समय हम सब के सामने उन का आना दूषित नहीं है।
अतएव सीता को पालकी से उतार कर पैदल हमारे पास लाओ, जिस से सभी वानर उन को देखें।'

“रामचंद्र की आज्ञा पा कर विभीषण दुखी होते हुए पालकी के पास गए और सीता को ले आए। सुग्रीव और हनुमान के साथ लक्ष्मण भी इस आज्ञा से बहुत दुखी हुए। राम के इस भाव को देख कर उन लोगों ने यह समझा कि राम को अपनी भावों की कुछ भी अपेक्षा नहीं है और वह सीता से रुष्ट हैं।

“पालकी से उतर कर सीता लज्जा से अपने शरीर में ही सिकुड़ कर छिपती हुई विभीषण के पीछे पीछे अपने पति के पास आई। पति को ही देवता जानने (मानने) वाली सीता ने लज्जावश मुंह ढांप कर विस्मय, हर्ष व स्नेह से अपने पति को देखा और 'आर्यपुत्र' कह कर धिधियाती हुई रोने लगी।

रावणाङ्कपरिक्लिष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा।
कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपदिशन्महत्॥ २०॥

यदर्थं निर्जिता मे त्वं सोऽयमासादितो मया।
नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामिति॥ २१॥

तदद्य व्याहृतं भद्रे मयैतत् कृतबुद्धिना।
लक्ष्मणे वाथ भरते कुरु बुद्धिं यथासुखम्॥ २२॥

शत्रुघ्ने वाथ सुग्रीवे राक्षसे वा विभीषणे।
निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना॥ २३॥

नहि त्वां रावणो दृष्ट्वा दिव्यरूपां मनोरमाम्।
मर्षयेत चिरं सीते स्वगृहे पर्यवस्थिताम्॥ २४॥

ततः प्रियार्हश्रवणा तदप्रियं
प्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मानिनी।
मुमोच बाष्पं रुदती तदा भृशं
गजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी॥ २५॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चदशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११५ ॥

अपने प्यारे पति के चिर-अपेक्षित पूर्णचंद्रमुख को देख कर सीता का शोक दूर हो गया और उस समय उस का मुखमंडल निर्मल चंद्रमा के समान देदीप्यमान हो उठा। (युद्धकांड, सर्ग 117, श्लोक 15-36)


'सीता को अपने पास आई देख कर रामचंद्र अपने हृदय के भाव को प्रकट करने लगे। उन्होंने कहा, 'हे भद्रे युद्ध में शत्रु को मार कर हम ने तुम्हारा उद्धार कर दिया। बल द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह सब कर दिया। अब हमारा क्रोध भी शांत हो गया। शत्रु ने जो अपमान किया था, उस का बदला भी मिल गया।

'हम ने अपने शत्रु के साथ ही साथ अपमान को भी मार कर गिरा (समाप्त कर) दिया. आज हमारा पराक्रम प्रकाशित हुआ. आज हमारा परिश्रम सफल हुआ। आज हमारी प्रतिज्ञा पूरी हुई। आज तक हम अपने प्रभाव को प्राप्त हो गए। आश्रम पर मेरे न रहने के समय कपटी रावण ने तुम्हारा हरण किया था, देवकोप से ही यह बात हुई थी। उस देवकोप को मैंने मनुष्य हो कर भी दूर कर दिया। जो मनुष्य अपने अपमान को तेज द्वारा दूर नहीं करता उस अल्प तेजस्वी मनुष्य का पुरुषार्थ व्यर्थ है।

'समुद्र लांघ कर लंका में आना, पुनः लंका में आग लगा कर उसे भस्म करना आदि, जो प्रशंसनीय कार्य पराक्रमी हनुमान ने किए थे वे सब आज सफल हुए। वानरों के राजा सुग्रीव का युद्ध में पराक्रम करना, समयसमय पर उचित सम्पति देना और सेना को साथ ले कर युद्ध में परिश्रम करना आज सफल हुआ। अपने भाई रावण को अपराधी समझ कर मेरी शरण में आने वाले मेरे भक्त विभीषण का मनोरथ भी आज सफल हो गया।'

रामचंद्र की इन बातों को सुनती हुई मृगनयनी सीता आंसू बहाने लगी। सीता को देख कर एकाएक राम का क्रोध उसी प्रकार बढ़ गया। जैसे घी की आहुति पा कर आग धधक उठती है, उन वानरों और राक्षसों के मध्य बैठे हुए राम ने महि चढ़ा तथा नजर टेढ़ी कर के सीता से ये कठोर वचन कहे।

'शत्रु से बदला लेने के लिए जो बात (कुछ) एक मनुष्य कर सकता है, वह मैं ने रावण को मार कर पूरी कर दी। इस से मेरी प्रतिष्ठा की रक्षा हुई। जिस प्रकार भगवान अगस्त्य ने इल्वल व वल्वल को मार कर अपने तपोबल से दक्षिण दिशा को जीत लिया था, उसी तरह मैं ने तुम्हारा उद्धार किया है।'

'तुम्हारा कल्याण हो। मैं ने तुम्हारे लिए जो युद्ध में बड़ेबड़े बलवान राक्षसों को मारा है, वह अपने मित्रों की सहायता से मारा है। मैं ने यह युद्ध अपमान को दूर करने, कुल में कलंक न आने देने और लोकनिंदा से बचने के लिए अपने मित्रों के पराक्रम से लंका को जीता है, (सिर्फ ) तुम्हारे लिए नहीं।'

"तुम रावण के यहां बहुत दिनों तक रही हो, इसलिए मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह हो गया है। तुम मेरे सामने खड़ी हुई उसी तरह अच्छी नहीं लग रही हो, जिस तरह दुखती हुई आंखों को दीपक अच्छा नहीं लगता। इसलिए हे सीते! अब तुम जहां चाहो, वहीं चली जाओ, मैं तुम से किसी तरह का संबंध नहीं रख सकता। उत्तम कुल में उत्पन्न हो कर कोई भी तेजस्वी पुरुष दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को प्रेम भरे हृदय से स्वीकार नहीं करेगा।

'हे सीते! हरण करते समय रावण ने तुम्हें गोद में उठाया और बुरे नेत्रों (बुरी नजरों) से देखा है, तब मैं महान कुल में उत्पन्न हो कर तुम को किस तरह स्वीकार कर सकता हूं? मैं ने रावण को मार कर उस के हाथ से तुम्हारा उद्धार कर दिया. मेरा उद्देश्य पूरा हो गया। मेरा बदला मिल गया। अब तुम्हारे साथ मेरा कोई संबंध नहीं है। • तुम जहां चाहो, वहां चली जाओ।

'हे कल्याणी! मैं ने बहुत विचार किया, बहुत सोचा समझा, अंत में यही निश्चित रहा। इसलिए अब तुम अपने जीवन निर्वाह के लिए लक्ष्मण या भरत के पास जा कर रह सकती हो, शत्रुघ्न, सुग्रीव या राक्षसराज विभीषण के पास जा कर रहो या जहां अच्छा समझो वहां जा कर रह सकती हो।
 हे सीते अपने घर में रहती हुई तुम्हारे इस मनोहर रूप को देख कर राक्षसराज रावण इतने दिनों तक कामपीड़ा को न सह सका होगा।'

बहुत अधिक दिनों तक पति द्वारा सम्मानित व मीठी बातें सुनने वाली सीता आज अपने पति द्वारा ऐसे अप्रिय वचन सुन कर हाथी द्वारा कुचली हुई लता के समान दीन हो कर कांपती और आंसू बहाती हुई रोने लगीं।
 (युद्धकांड, सर्ग 118, श्लोक 1-25)

रोंगटे खड़े कर देने वाले रामचंद्र के क्रोधयुक्त कठोर वचन सुन कर सीता बहुत दुखी हुई। ऐसे जनसमुदाय में उन्होंने ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं। वानर और राक्षसों के समुदाय में बैठे हुए अपने पति की यह कठोर बात सुन कर सीता लज्जा के मारे सिकुड़ गई। वह रामचंद्र के वचन रूपी तीक्ष्ण बाणों से पीड़ित हो कर रोती हुई अपने शरीर में ही सिमटने और आंसू बहाने लगी। फिर वह आंसू पोंछती और बहुत धीरे धीरे सिसकती हुई बोली:

हे वीर, साधारण मनुष्यों की तरह सुनने के अयोग्य तथा कान फाड़ वाले ऐसे रूखे वचन आप क्यों बोल रहे हैं ? हे स्वामी, ऐसी छोटी बातें तो नीच पुरुष अपनी नीच स्त्रियों से कहा करते हैं। हे महाबाहो, मेरे प्रति आप के हृदय में जो बातें आई हैं वे व्यर्थ हैं। क्योंकि मैं वैसी नहीं हूँ मैं शपथपूर्वक कहती हूं कि मेरा चरित्र शुद्ध है, आप मुझ पर विश्वास करें।"

"हे देव, यदि नीच स्त्रियों के चरित्र पर विचार कर के आप के हृदय में मेरे प्रति यह बात उत्पन्न हो गई हो तो इस बुरे विचार को हृदय से दूर करें क्योंकि आप मेरी परीक्षा ले चुके हैं।"

"जिस समय रावण ने मेरे शरीर को छुआ था, उस समय में विवश थी। उस ने मेरी इच्छा से मुझे नहीं छुआ। दैव की ऐसी ही इच्छा थी। मैं निर्दोष हूं। जिस हृदय पर मेरा अधिकार है, वह आज भी आप में अनुरक्त है। शरीर पर मेरा कोई भी अधिकार नहीं है, 

कारण कि मैं निर्बल स्त्री होने के कारण उस की रक्षा नहीं कर सकती थी। इसलिए मैं निर्दोष हूं। बाल्यावस्था से ही मैं आप के साथ रही हूं। इतने दिनों तक साथ रहने पर भी यदि आप मेरे बढ़ते हुए प्रेम को न पहचान सकें, तो मेरा सदा के लिए विनाश हो गया। अब मेरी रक्षा कोई भी नहीं कर सकता।'

हे प्राणेश, जिस समय आप ने महापराक्रमी हनुमान को मुझे देखने के लिए लंका में भेजा था, उसी समय आप ने मुझे क्यों नहीं त्याग दिया ? हे बलशाली, इस वानर द्वारा अपने त्याग की बात सुनते ही मैं इसी के सामने अपने प्राण त्याग देती। मेरे मर जाने पर आप को अपने मित्रों सहित यहां आने और प्राण संकट में डाल कर राक्षसों से भयंकर युद्ध करने का परिश्रम न करना पड़ता।

"हे राजन, इस समय आप मुझे एक साधारण स्त्री समझते हुए साधारण मनुष्य के समान क्रोध के अधीन हो रहे हैं। आप ने मेरे चरित्र को नहीं समझा है।
 मैं पृथ्वी से उत्पन्न व जनकपालिता कन्या हूं। इस बात का भी आप ने विचार नहीं किया। बाल्यकाल में ही आप ने मेरा पाणिग्रहण किया और तभी से मैं आप के साथ रही, इस बात को भी आप भूल गए.।मेरा आप पर कितना अनुराग है, इसे भी आप नहीं जानते। मेरे शील व प्रेम को भी आप भूल गए?"
(युद्धकांड सर्ग, 119, श्लोक 1-16)

इस उद्धरण की कुछ महत्त्वपूर्ण बातों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:

(1) राम को सीता के शील पर निश्चित रूप से शक है और उन्हें डर है कि लंका में उस का शील भंग हुआ होगा।

 (2) राम को सीता के चरित्र पर भी शक होने लगा था।

(3) भविष्य में वह सीता के साथ नहीं रहना चाहते।

(4) सीता यह बताना जरूरी समझती हैं कि रावण ने उस का हरण उस की इच्छा के विरुद्ध किया था।

(5) सीता इस बात पर जोर देती है कि यद्यपि रावण द्वारा उस के शरीर की पवित्रता भंग हुई भी हो, तो भी उस का मन तब भी राम के प्रति निष्ठावान था।

(6) राम स्वयं को मानव मानता है। 

(7) विभीषण, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान आदि राम के सीता के प्रति दृष्टिकोण (व्यवहार) से प्रसन्न नहीं थे।

यद्यपि इस मत की पुष्टि में कि राम को संदेह था कि लंका में सीता का शील भंग हुआ था, 'वाल्मीकि रामायण' से काफी लंबा उद्धरण दिया गया है, फिर भी इस संबंध में हम सिर्फ एक उद्धरण और देंगे। 
यह उद्धरण 'महाभारत' का है। 'महाभारत' के वनपर्व में अयोध्या में राम के राज्याभिषेक से पूर्व की कहानी दी गई है। 

लंका पर विजय हासिल करने के बाद सीता राम के सम्मुख लायी जाती हैं। उस समय राम ने सीता के चरित्र पर सन्देह करते हुए जो बातें की हैं वह किसी मर्यादा पुरुषोत्तम की नहीं बल्कि एक पुरुष प्रधान समाज के औसत पुरुष का कथन ही जान पड़ता है।

राम के सन्देह का सबसे प्रमुख कारण है सीता का शारीरिक सौन्दर्य।
 राम कहते हैं-'सीते ! तुम जैसी दिव्य रूप सौन्दर्य से सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में स्थित देखकर रावण चिरकाल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा।2 ।

अर्थात्  सीता का सौन्दर्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु बन गया। पूरे एक सर्ग मेे राम यह समझाते हैं कि सीता देवि, यह युद्ध मैंने आपको प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि आपके अपहरण से मेरे महान कुल पर जो धब्बा लग गया था उसे दूर करने के लिए किया और अपने पराक्रम से जीता  है ।3।
ध्यान रहे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ये सारी बातें सीता से अकेले में नहीं बल्कि भरी सभा में कह रहे हैं। ऐसा लगता है कि राम भरी महफिल में सीता को बेइज्ज्त करके मन की कोई भड़ास निकाल रहे हैं।
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 रावण की मृत्यु के बाद सीता जिस उम्मीद से राम के सम्मुख आयी थीं या बुलायी गयी थीं स्थिति उसके एकदम विपरीत थी। थोड़ी ही देर  पहले लंका पर राम का आधिपत्य  स्थापित होने के बाद हनुमान राम का सन्देश लेकर पहुँचते हैं और सीता से कहते हैं-'श्री राम ने आपको यह सन्देश दिया है-देवि मैंने तुम्हारे उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बाँध कर
 रावण बध के द्वारा उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किया(4)। यह सन्देश  मिलने के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम का व्यवहार देखने लायक है।
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 वे सीता के चरित्र पर सवाल उठाते हैं  'तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है; फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ती हो(5)। 
________
राम का तर्क यह है कि कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्री को मन से भी ग्रहण कर सकेगा।  इसलिए राम सीता से साफ शब्दों  में कहते हैं-  'अत: जनक कुमारी! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ। मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ। भद्रे ये दशों दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली हैं। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है (6)। 

यह कहने के बाद राम उन्हें विकल्प भी सुझा देते हैं। भरत , लक्ष्मण , शत्रुघ्न, वानर राज सुग्रीव अथवा राक्षस राज विभीषण जहाँ तुम्हें सुख मिले जा सकती हो।7।

यहाँ राम सीता के चरित्र पर सन्देह करते ही हैं  इस सन्देह के दायरे में भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सुग्रीव और विभीषण सब आ जाते हैं।
 भय में, पराजय में, लाभ में और हानि में समभाव रखने वाले राम का यह विचलन आश्चर्य चकित करने वाला है।
अब महाभारत के राम का भी थोड़ा जायजा ले लिया जाय। लंका विजय के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम कहते हैं- 'विदेह कुमारी! मैने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया अब तुम जाओ मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया। 8। 
इसके बाद राम सारी हद पार कर देते हैं। वे कहते हैं-

सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामध मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय  उवावलीढ़ं हविर्यथा।9।
अनुवाद:- 
अर्थात 'मिथिलेश ननिदनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन साम ग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं। 
यह महज बानगी मात्र है। स्त्री के बारे में राम के ऐसे संकीर्ण विचारों को उदधृत किया जाय तो अपने आप में एक पूरा ग्रंथ तैयार हो जाय।

यही पर राम सीता के प्रति कहते है।
अनुवाद:- 
अर्थात 'मिथिलेश नन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन साम ग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं। 

श्री रांगेय राघव ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास' में कुछ तर्कसम्मत अंशों को उद्धृत किया है। उपर्युक्त अंश हम यहां उद्धृत कर रहे हैं।

"सीता के चरित्र पर संदेह कर के राम ने कहा, 'राक्षस से तुम्हें छुड़ा कर मैं कर्त्तव्य पालन कर चुका। अब जहां चाहो चली जाओ। मुझ सा मनुष्य पराए घर में रही हुई पत्नी को पल भर भी कैसे अपने पास रख सकता है ? जानकी, तुम्हारा चरित्र चाहे शुद्ध हो चाहे न हो, परंतु कुत्ते के जूठे किए हुए द्रव्य की तरह मैं तुम को स्वीकार नहीं कर सकता।' (पृष्ठ 203 )

लंका पर विजय हासिल करने के बाद सीता राम के सम्मुख लायी जाती हैं। उस समय राम ने सीता के चरित्र पर सन्देह करते हुए जो बातें की हैं वह किसी मर्यादा पुरुषोत्तम की नहीं बल्कि एक पुरुष प्रधान समाज के औसत पुरुष का कथन ही जान पड़ता है। राम के सन्देह का सबसे प्रमुख कारण है सीता का शारीरिक सौन्दर्य। राम कहते हैं-'सीते ! तुम जैसी दिव्य रूप सौन्दर्य से सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में सिथत देखकर रावण चिरकाल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा।2 यानी सीता का सौन्दर्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु बन गया। पूरे एक सर्ग मेे राम यह समझाते हैं कि सीता देवि, यह युद्ध मैंने आपको प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि आपके अपहरण से मेरे महान कुल पर जो धब्बा लग गया था उसे दूर करने के लिए किया और अपने पराक्रम से जीता  है ।3 ध्यान रहे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ये सारी बातें सीता से अकेले में नहीं बल्कि भरी सभा में कह रहे हैं। ऐसा लगता है कि राम भरी महफिल में सीता को बेइज्ज्त करके मन की कोई भड़ास निकाल रहे हैं। रावण की मृत्यु के बाद सीता जिस उम्मीद से राम के सम्मुख आयी थीं या बुलायी गयी थीं सिथति उसके एकदम उलट थी। थोड़ी ही देर  पहले लंका पर राम का आधिपत्य  स्थापित होने के बाद हनुमान रा म का सन्देश लेकर पहुँचते हैं और सीता से कहते हैं-'श्री राम ने आपको यह सन्देश दिया है-देवि मैंने तुम्हारे उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बाँध कर राव ण बध के द्वारा उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किया(4)। यह सन्देश  मिलने के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम का व्यवहार देखने लायक है। वे सीता के चरित्र पर सवाल उठाते हैं  'तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपसिथत है; फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यन्त अप्रिय जान पड़ती हो(5)। राम का तर्क यह है कि कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही स्त्री को मन से भी ग्रहण कर सकेगा।  इसलिए राम सीता से साफ शब्दों  में कहते हैं-  'अत: जनक कुमारी! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ। मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ। भद्रे ये दशों दिशाएँ तुम्हारे लिए खु ली हैं। अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है (6)। यह कहने के बाद राम उन्हें विकल्प भी सुझा देते हैं। भरत , लक्ष्मण , शत्रुघ्न, वानर राज सुग्रीव अथवा राक्षस राज विभीषण जहाँ तुम्हें सुख मिले जा सकती हो। 7 यहाँ राम सीता के चरित्र पर सन्देह करते ही हैं  इस सन्देह के दायरे में भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सुग्रीव और विभीषण सब आ जाते हैं। भय में, पराजय में, लाभ में और हानि में समभाव रखने वाले राम का यह विचलन अचमिभत करने वाला है।
अब महाभारत के राम का भी थोड़ा जायजा ले लिया जाय। लंका विजय के बाद सीता जब सामने आती हैं तो राम कहते हैं- 'विदेह कुमारी! मैने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया अब तुम जाओ मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया। 8 इसके बाद राम सारी हद पार कर देते हैं। वे कहते हैं-
 
 सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामध मैथिलि।
  नोत्सहे परिभोगाय  उवावलीढ़ं हविर्यथा।। 9
 
अर्थात 'मिथिलेश ननिदनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन साम ग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त हो जाती हैं। यह महज बानगी मात्र है। स्त्री के बारे में राम के ऐसे संकीर्ण विचारों को उदधृत किया जाय तो अपने आप में एक पूरा ग्रंथ तैयार हो जाय।

क्या सीता का पतन हो सकता था?

आइए, अब हम तीसरी संभावना पर विचार करें अर्थात क्या राम को यह संदेह हो सकता था कि सीता अपने मन की बहक पर नियंत्रण नहीं रख पाई होगी?

ऊपर दिए गए उद्धरणों में से एक में हमें रघुकुल के पुरुषों की स्त्रियों के प्रति धारणा का संकेत मिलता है। इस धारणा की अभिव्यक्ति राम के प्रख्यात भाई और अभिन्न साथी-लक्ष्मण द्वारा हुई थी। सीताहरण से पहले जब सीता ने राम के पीछे जाने के लिए लक्ष्मण से जिद की थी तो लक्ष्मण कहता है,
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“स्त्रियां प्रकृति से ही धर्मभ्रष्ट, चंचल, क्रूर व भेद डालने वाली होती हैं। इसी मानदंड और धारणा के आधार पर लक्ष्मण ने सीताहरण से पूर्व, सीता की निंदा की थी। 
स्वभावतः उस के हरण के बाद उस की इस धारणा की पुष्टि और भी दृढ़ता से हुई होगी। जब लोगों ने सीता के लंका में रहने पर बातें बनाई होंगी और उस के शीलभंग की चर्चा की होगी, तो उस के हरण के संबंध में उस की संभाव्य सहभागिता तथा रावण के प्रति संभावित प्रेम के विषय में भी कुछ न कुछ ( जरूर ) कहा होगा। जब लोग अफवाहें उड़ाते हैं, तो उन की कल्पना पर अंकुश रखना कठिन होता है। ये सब बातें राम तक भी पहुंची ही होंगी। वैसे भी राम जिस समाज में रहता था, उस का अंग था। राम और लक्ष्मण की सोच में अधिक अंतर नहीं रहा होगा। राम भी स्त्रियों को, प्रकृति से ही धर्मभ्रष्ट, चंचल आदि मानता होगा और सीता भी आखिर एक स्त्री ही थी। पर कहा जा सकता है कि यह विचारधारा पूर्वधारणा पर आधारित है, इसलिए हम डा. कामिल बुल्के की 'रामकथा' से 'रामायण' के विभिन्न रूपांतरों से कुछ ऐसे, उद्धरण दे कर यह दिखाने का प्रयास करेंगे कि राम ने सीता को वनवास क्यों दिया। इन में से कुछ रूपांतरित 'रामायण' न केवल यह दिखाती हैं कि राम को सीता की शुचिता पर संदेह था, बल्कि वे यह दावा भी करती हैं कि राम को सीता के शीलभंग का निश्चय तो ही गया था, यह भी शक हो गया था कि उसे रावण से प्रेम भी हो गया था। 
             ।मार्कण्डेय उवाच ।
रामं कमलपत्राक्षं तुष्टुवुः सर्वदेवताः ।
मामासाद्य पतिं भद्रे न त्वं राक्षसवेश्मनि।
जरां व्रजेथा इति मे निहतोऽसौ निशाचरः॥ ११॥

कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन्धर्मविनिश्चयम् ।परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत् ॥१२॥

ततो देवो विशुद्धात्मा विमानेन चतुर्मुखः ।पितामहो जगत्स्रष्टा दर्शयामास राघवम् ॥ १७ ॥
शक्रश्चाग्निश्च वायुश्च यमो वरुण एव च ।यक्षाधिपश्च भगवांस्तथा सप्तर्षयोऽमलाः ॥ १८ ॥
राजा दशरथश्चैव दिव्यभास्वरमूर्तिमान् ।
विमानेन महार्हेण हंसयुक्तेन भास्वता ॥ १९ ॥
ततोऽन्तरिक्षं तत्सर्वं देवगन्धर्वसंकुलम् ।
शुशुभे तारकाचित्रं शरदीव नभस्तलम् ॥ २० ॥
तत उत्थाय वैदेहि तेषां मध्ये यशस्विनी ।
उवाच वाक्यं कल्याणी रामं पृथुलवक्षसम् ॥२१ ॥
राजपुत्र न ते कोपं करोमि विदिता हि मे ।
गतिः स्त्रीणां नराणां च शृणु चेदं वचो मम ॥२२॥
अन्तश्चरति भूतानां मातरिश्वा सदागतिः ।
स मे विमुञ्चतु प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् ॥२३ ॥
अग्निरापस्तथाकाशं पृथिवी वायुरेव च ।विमुञ्चन्तु मम प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् ॥२४॥
ततोऽन्तरिक्षे वागासीत्सर्वा विश्रावयन्दिशः।
पुण्या संहर्षणी तेषां वानराणां महात्मनाम् ॥२५॥
वायुरुवाच । भो भो राघव सत्यं वै वायुरस्मि सदागतिः ।अपापा मैथिली राजन्संगच्छ सह भार्यया ॥ २६ ॥
अग्निरुवाच ।
अहमन्तःशरीरस्थो भूतानां रघुनन्दन ।सुसूक्ष्ममपि काकुत्स्थ मैथिली नापराध्यति ॥२७ ॥
वरुण उवाच ।
रसा वै मत्प्रसूता हि भूतदेहेषु राघव ।अहं वै त्वां प्रब्रवीमि मैथिली प्रतिगृह्यताम् ॥ २८ ॥
ब्रह्मोवाच ।पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मिणि ।साधो सद्वृत्तमार्गस्थे शृणु चेदं वचो मम ॥ २९ ॥
शत्रुरेष त्वया वीर देवगन्धर्वभोगिनाम् ।यक्षाणां दानवानां च महर्षीणां च पातितः ॥ ३० ॥
अवध्यः सर्वभूतानां मत्प्रसादात्पुराभवत् ।कस्माच्चित्कारणात्पापः कंचित्कालमुपेक्षितः ॥ ३१ ॥
वधार्थमात्मनस्तेन हृता सीता दुरात्मना ।नलकूबरशापेन रक्षा चास्याः कृता मया ॥ ३२ ॥
यदि ह्यकामामासेवेत्स्त्रियमन्यामपि ध्रुवम् ।शतधास्य फलेद्देह इत्युक्तः सोऽभवत्पुरा ॥ ३३ ॥
नात्र शङ्का त्वया कार्या प्रतीच्छेमां महाद्युते ।कृतं त्वया महत्कार्यं देवानाममरप्रभ ॥ ३४ ॥
दशरथ उवाच ।प्रीतोऽस्मि वत्स भद्रं ते पिता दशरथोऽस्मि ते ।अनुजानामि राज्यं च प्रशाधि पुरुषोत्तम ॥ ३५ ॥
राम उवाच ।अभिवादये त्वां राजेन्द्र यदि त्वं जनको मम ।गमिष्यामि पुरीं रम्यामयोध्यां शासनात्तव ॥ ३६ ॥
मार्कण्डेय उवाच ।तमुवाच पिता भूयः प्रहृष्टो मनुजाधिप ।गच्छायोध्यां प्रशाधि त्वं राम रक्तान्तलोचन ॥ ३७ ॥
ततो देवान्नमस्कृत्य सुहृद्भिरभिनन्दितः ।         महेन्द्र इव पौलोम्या भार्यया स समेयिवान् ॥ ३८ 
ततो वरं ददौ तस्मै अविन्ध्याय परंतपः ।     त्रिजटां चार्थमानाभ्यां योजयामास राक्षसीम् ॥ ३९ ॥
तमुवाच ततो ब्रह्मा देवैः शक्रमुखैर्वृतः ।कौसल्यामातरिष्टांस्ते वरानद्य ददानि कान्॥ ४० ॥
वव्रे रामः स्थितिं धर्मे शत्रुभिश्चापराजयम् ।राक्षसैर्निहतानां च वानराणां समुद्भवम् ॥ ४१ ॥
ततस्ते ब्रह्मणा प्रोक्ते तथेति वचने तदा ।समुत्तस्थुर्महाराज वानरा लब्धचेतसः ॥ ४२ ॥
सीता चापि महाभागा वरं हनुमते ददौ ।रामकीर्त्या समं पुत्र जीवितं ते भविष्यति ॥ ४३ ॥
दिव्यास्त्वामुपभोगाश्च मत्प्रसादकृताः सदा ।उपस्थास्यन्ति हनुमन्निति स्म हरिलोचन ॥ ४४ ॥
ततस्ते प्रेक्षमाणानां तेषामक्लिष्टकर्मणाम् ।अन्तर्धानं ययुर्देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः ॥ ४५ ॥
दृष्ट्वा तु रामं जानक्या समेतं शक्रसारथिः ।उवाच परमप्रीतः सुहृन्मध्य इदं वचः ॥ ४६ ॥
देवगन्धर्वयक्षाणां मानुषासुरभोगिनाम् ।अपनीतं त्वया दुःखमिदं सत्यपराक्रम ॥ ४७ ॥
सदेवासुरगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ।कथयिष्यन्ति लोकास्त्वां यावद्भूमिर्धरिष्यति ॥ ४८ ॥
इत्येवमुक्त्वानुज्ञाप्य रामं शस्त्रभृतां वरम् ।संपूज्यापाक्रमत्तेन रथेनादित्यवर्चसा ॥ ४९ ॥
ततः सीतां पुरस्कृत्य रामः सौमित्रिणा सह ।सुग्रीवप्रमुखैश्चैव सहितः सर्ववानरैः ॥ ५० ॥
विधाय रक्षां लङ्कायां विभीषणपुरस्कृतः ।संततार पुनस्तेन सेतुना मकरालयम् ॥ ५१ ॥
पुष्पकेण विमानेन खेचरेण विराजता ।कामगेन यथा मुख्यैरमात्यैः संवृतो वशी ॥ ५२ ॥
ततस्तीरे समुद्रस्य यत्र शिश्ये स पार्थिवः ।तत्रैवोवास धर्मात्मा सहितः सर्ववानरैः ॥ ५३ ॥
अथैनान्राघवः काले समानीयाभिपूज्य च ।विसर्जयामास तदा रत्नैः संतोष्य सर्वशः ॥ ५४ ॥
गतेषु वानरेन्द्रेषु गोपुच्छर्क्षेषु तेषु च ।सुग्रीवसहितो रामः किष्किन्धां पुनरागमत् ॥ ५५ ॥
विभीषणेनानुगतः सुग्रीवसहितस्तदा ।पुष्पकेण विमानेन वैदेह्या दर्शयन्वनम् ॥ ५६ ॥
किष्किन्धां तु समासाद्य रामः प्रहरतां वरः ।अङ्गदं कृतकर्माणं यौवराज्येऽभ्यषेचयत् ॥ ५७ ॥
ततस्तैरेव सहितो रामः सौमित्रिणा सह ।यथागतेन मार्गेण प्रययौ स्वपुरं प्रति ॥ ५८ ॥
अयोध्यां स समासाद्य पुरीं राष्ट्रपतिस्ततः ।भरताय हनूमन्तं दूतं प्रस्थापयत्तदा ॥ ५९ ॥
लक्षयित्वेङ्गितं सर्वं प्रियं तस्मै निवेद्य च ।वायुपुत्रे पुनः प्राप्ते नन्दिग्राममुपागमत् ॥ ६० ॥
स तत्र मलदिग्धाङ्गं भरतं चीरवाससम् ।अग्रतः पादुके कृत्वा ददर्शासीनमासने ॥ ६१ ॥
समेत्य भरतेनाथ शत्रुघ्नेन च वीर्यवान् ।राघवः सहसौमित्रिर्मुमुदे भरतर्षभ ॥ ६२ ॥
तथा भरतशत्रुघ्नौ समेतौ गुरुणा तदा ।वैदेह्या दर्शनेनोभौ प्रहर्षं समवापतुः ॥ ६३ ॥
तस्मै तद्भरतो राज्यमागतायाभिसत्कृतम् ।न्यासं निर्यातयामास युक्तः परमया मुदा ॥ ६४ ॥
ततस्तं वैष्णवे शूरं नक्षत्रेऽभिमतेऽहनि ।वसिष्ठो वामदेवश्च सहितावभ्यषिञ्चताम् ॥ ६५ ॥
सोऽभिषिक्तः कपिश्रेष्ठं सुग्रीवं ससुहृज्जनम् ।विभीषणं च पौलस्त्यमन्वजानाद्गृहान्प्रति ॥ ६६ ॥
अभ्यर्च्य विविधै रत्नैः प्रीतियुक्तौ मुदा युतौ ।समाधायेतिकर्तव्यं दुःखेन विससर्ज ह ॥ ६७ ॥
पुष्पकं च विमानं तत्पूजयित्वा स राघवः ।प्रादाद्वैश्रवणायैव प्रीत्या स रघुनन्दनः ॥ ६८ ॥
ततो देवर्षिसहितः सरितं गोमतीमनु ।दशाश्वमेधानाजह्रे जारूथ्यान्स निरर्गलान् ॥ ६९ ॥

महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 1-17

श्रीराम का सीता के प्रति संदेह, देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन, श्रीराम का दल-बल सहित लंका से प्रस्थान एवं किष्किन्धा होते हुए अयोध्या में पहुँचकर भरत से मिलना तथा राज्य पर अभिषिक्त होना

मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस प्रकार नीच स्वभाव वाले  राक्षसराज रावण का व करके भगवान श्रीराम अपने मित्रों तथा लक्ष्मण के साथ बड़े प्रसन्न हुए । दशानन के मारे जाने पर देवता तथा महर्षिगण जययुक्त आशीर्वाद देते हुए उन महाबाहु की पूजा एवं प्रशंसा करने लगे । स्वर्गवासी सम्पूर्ण देवताओं तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा करते हुए उत्तम वाणी द्वारा कमलनयन भगवान श्रीराम का स्तवन किया ।
श्रीराम की भलीभाँति पूजा करके वे सब जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये। युधिष्ठिर ! उस समय आकाश महान् उत्सव समारोह से भरा सा जान पड़ता था । तत्पश्चात् शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महायशस्वी भगवान श्रीराम ने दशानन

रावण का वध करने के अनन्तर लंका का राज्य विभीषणको दे दिया । इसके बाद उत्तम बुद्धि से युक्त बूढ़े मन्त्री "अविन्ध्य" विभीषण सहित  सीता को आगे करके लंकापुरी से बाहर निकले।
वे ककुत्स्यकुलभूषण महात्मा श्रीरामचन्द्रजी से दीनता पूर्वक बोले- ‘महात्मन् ! सदाचार से सुशोभित जनककिशोरी महारानी सीता को ग्रहण कीजिये’।
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उवाच रामो वैदेहीं परामर्शविशङ्कितः।
गच्छ वैदेहि मुक्ता त्वं यत्कार्यं तन्मया कृतम्।१०।

मामासाद्य पतिं भद्रे न त्वं राक्षसवेश्मनि।
जरां व्रजेथा इति मे निहतोऽसौ निशाचर:।११।

कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन्धर्मविनिश्चयम् ।(परहस्तगतां नारीं मुहूर्तमपि धारयेत्) ॥१२॥

सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि ।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा।१३।

ततः सा सहसा बाला तच्छ्रुत्वा दारुणं वचः ।
पपात देवी व्यथिता निकृत्ता कदली यथा।१४।

यो ह्यस्या हर्षसंभूतो मुखरागस्तदाभवत् ।
क्षणेन स पुनर्भ्रष्टो निःश्वासादिव दर्पणे ॥१५।

यह सूनकर इक्ष्वाकुनन्दन भगवान श्रीराम ने उस उत्तम रथ से उतरकर सीता को देखा। उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। 
शिविका में बैठी हुई सर्वांगसुन्दरी सीता शोक से दुबली हो गयीं थीं। उनके समसत अंगों में मैल जम गयी थी, सिर के बाल आपस में चिपककर जटा के रूप में परिणत हो गये थे और उनका वस्त्र काला पड़ गया था । (श्रीरामचन्द्रजी के मन में यह संदेह हुआ कि सम्भव है), सीता परपुरुष के स्पर्श से अपवित्र हो गयी हों; 
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अतः उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता से स्पष्ट वचनों द्वारा कहा- ‘विदेहकुमारी ! मैंने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया। अब तुम जाओ। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया । ‘भद्रे ! मुझ जैसे पति को पाकर तुम्हें वृद्धावस्था तक किसी राक्षस के घर में न रहना पड़े, यही सोचकर मैंने उस निशाचर का वध किया है।‘धर्म के सिद्धान्त को जानने वाला मेरे जैसा कोई भी पुरुष दूसरे के हाथ में पड़ी हुई नारी को मुहूर्त भर के लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है ? ‘मिथिलेशनन्दिनी ! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध, अब मैं तुम्हें अपने उपयोग में नहीं ला सकता- ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई ग्रहण नहीं करता’। सहसा यह कठोर वचन सुनकर देवी सीता व्यथित हो कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं ) 
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जैस श्वास लेने से दर्पण में पड़ा हुआ मुख का प्रतिबिम्ब मलिन हो जाता है, उसी प्रकार सीता के मुख पर उस समय जो हर्षजनित कान्ति छा रही थी, वह एक ही क्षण में फिर विलीन हो गयी ।

राम का यह कथन सुनकर समस्त वानर तथा लक्ष्मण सबके सब मरे हुए के समान निश्चेष्ट हो गये । इसी समय विशुद्ध अन्तःकरण वाले कमलयोनि जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माजी ने विमान द्वारा वहाँ आकर राम को दर्शन दिया ।

महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 18-35 पर यह वर्णन है ।
एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: (एकनवत्यधिकद्विशततम) अध्यायः 18-35 श्लोक का हिन्दी अनुवाद

साथ ही इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण, यक्षराज भगवान कुबेर तथा निर्मल चित्त वाले सप्तर्षिगण भी वहाँ आ गये। इनके सिवा हंसों से युक्त एक बहुमूल्य तेजस्वी विमान द्वारा दिव्य प्रकाशमान स्वरूप धारण किये स्वयं राजा दशरथ भी वहाँ पधारे। उस समय देवताओं और गन्धर्वों से भरा हुआ वह सम्पूर्ण अन्तरिक्ष इस प्रकार शोभा पाने लगा, मानो असंख्य तारागणों से चित्रित शरद् ऋतु का आकाश हो। तब उन सबके बीच में खड़ी होकर कल्याणमयी यशस्विनी सीता ने चौड़ी छाती वाले भगवान श्रीराम से इस प्रकार कहा- ‘राजपुत्र ! मैं आपको दोष नहीं देती, क्योंकि आप स्त्रियों और पुरुषों की कैसी गति है, यह अच्छी तरह जानते हैं। केवल मेरी यह बात सुन लीजिये।

निरन्तर संचरण करने वाले वायुदेव समस्त प्राणियों के भीतर विचरते हैं। यदि मैंने कोई पापाचार किया हो तो वे वायुदेवता मेरे प्राणों का परित्याग कर दें। यदि मैं पाप का आचरण करती होऊँ तो अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु- ये सब मिलकर मुझसे मेरे प्राणों का वियोग करा दें। वीर! यदि मैंने आपके सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्वप्न में भी चिन्तन न किया हो तो देवताओं के दिये हुए एकमात्र आप ही मेरे पति हों’। तदनन्तर आकाश में सब लोगों को साक्षी देती हुई एक सुन्दर वाणी उच्चरित हुई, जो परम पवित्र होने के साथ ही उन महामना वानरों को भी हर्ष प्रदान करने वाली थी। (उस आकाशवाणी के रूप में) वायुदेवता बोले- 'रघुनन्दन! मैं सदा विचरण करने वाला वायु देवता हूँ। सीता ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। राजन्! मिथिलेशकुमारी सर्वथा पापशून्य हैं। आप अपनी इस पत्नी से निःसंकोच हाकर मिलिये।'

अग्निदेव ने कहा- 'रघुनन्दन! मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला अग्नि हूँ। मुझे मालूम है कि मिथिलेशकुमारी के द्वारा कभी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अपराध नहीं हुआ है।'

वरुणदेव ने कहा- 'श्रीराम! समस्त प्राणियों के शरीर में जो जलतत्त्व है, वह मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। अतः मैं तुमसे कहता हूँ, मिथिलेशकुमारी निष्पाप हैं, उसे ग्रहण करो।'

तत्पश्चात् ब्रह्माजी बोले- वत्स! तुम राजर्षियों के धर्म पर चलने वाले हो; अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्य की बात नहीं है। साधु सदाचारी श्रीराम! तुम मेरी यह बात सुनो। वीरवर! यह रावण देवता, गन्धर्व, नाग, यक्ष, दानव तथा महर्षियों का भी शत्रु था। इसे तुमने मार गिराया है। पूर्वकाल में मेरे ही प्रसाद से यह समस्त प्राणियों के लिये अवध्य हो गया था। किसी कारणवश ही कुछ काल तक इस पापी की उपेक्षा की गयी थी। दुरात्मा रावण ने अपने वध के लिये ही सीता का अपहरण किया था। नलकूबर के शाप द्वारा मैंने सीता की रक्षा का प्रबन्ध कर दिया था। पूर्वकाल में रावण को यह शाप दिया गया था कि यदि यह उसे न चाहने वाली किसी परायी स्त्री का बलपूर्वक सेवन करेगा तो उसके मस्तक के सैंकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। अतः महातेजस्वी श्रीराम! तुम्हें सीता के विषय में कोई शंका नहीं करनी चाहिये। इसे ग्रहण करो। देवताओं के समान तेजस्वी वीर! तुमने रावण को मारकर देवताओं का महान् कार्य सिद्ध किया है।

महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 36-56

एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यानपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 36-56 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


दशरथजी बोले- वत्स ! मैं तुम्हारा पिता दशरथ हूँ, तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो। पुरुषोत्तम ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि अब तुम अयोध्या का राज्य करो। श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- राजेन्द्र ! यदि आप मेरे पिता हैं तो मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपकी आज्ञासे अब मैं रमणीय अयोध्यापुरी को लौट जाऊँगा । मार्कण्डेयजी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! तदनन्तर पिता दशरथ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कुछ-कुछ लाल नेत्रों वाले श्रीरामचन्द्रजी से पुनः कहा- ‘महाद्युते ! तुम्हारे वनवास के चौदह वर्ष पूरे हो गये हैं। अब तुम अयोध्या जाओ और वहाँ का शासन अपने हाथों में लो’। 

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तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी ने देवताओं को नमस्कार किया ।

और सुहृदों से अभिनन्दित हो अपनी पत्नी सीता से मिले, मानो इन्द्र का शची से मिलन हुआ हो । इसके बाद परंतप श्रीराम ने अविन्ध्य को अभीष्ट वरदान दिया और त्रिजटा राक्षसी को धन और सम्मान से संतुष्ट किया।

 यह सब हो जाने पर इन्द्र देवताओं सहित ब्रह्मा ने भगवान राम से कहा- कौशल्या नन्दन ! कहो, आज मैं तुम्हें कौन-कौन से अभीष्ट वर प्रदान करूँ ?

तब श्रीरामचन्द्रजी ने उनसे ये वर माँगे- ‘मेरी धर्म में सदा स्थिति रहे, शत्रुओं से कभी पराजय न हो तथा राक्षसों के द्वारा मारे गये वानर पुनः जीवित हो जायँ’। 

यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- ‘ऐसी ही हो।’ महाराज ! उनके इतना कहते ही सभी वानर चेतना प्राप्त करके जी उठे । महासौभाग्यवती सीता ने भी हनुमान्जी को यह वर दिया- ‘पुत्र ! जब तक इस धरातल पर भगवान श्रीराम की कीर्ति बनी रहेगी, तब तक तुम्हारा जीवन स्थिर रहेगा । ‘पिंगलनयन हनुमान् ! मेरी कृपा से तुम्हें सदा ही दिव्य भोग प्राप्त होते रहेंगे’।

तदनन्तर अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले वानरों के देखते-देखते वहाँ इन्द्र आदि सब देवता अन्तर्धान हो गये । श्रीरामचन्द्रजी को जनकनन्दिनी सीता के साथ विराजमान देख इन्द्र सारथि मातलि को बड़ी प्रसन्नता हुई। 

उसने सब सुहृदों के बीच में इस प्रकार कहा- ‘सत्यपराक्रमी श्रीराम ! आपने देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, असुर और नाग- इन सबका दुःख दूर कर दिया है । ‘जब तक यह पृथ्वी रहेगी, तब तक देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा नागों सहित सम्पूर्ण जगत् के लोग आपकी कीर्ति कथा का गान करेंगे’।

ऐसा कहकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा ले उनकी पूजा करके सूर्य के समान तेजस्वी उसी रथ के द्वारा मातलि स्वर्गलोक को चला गया । 

तदनन्तर जितेन्द्रिय भगवान श्रीराम ने लंकापुरी की सुरक्षा का प्रबन्ध करके लक्ष्मण, सुग्रीव आदि सभी श्रेष्ठ वानरों, विभीषण तथा प्रधान-प्रधान सचिवों के साथ सीता को आगे करके इच्छानुसार चलने वाले, आकाशचारी, शोभाशाली पुष्पकविमान पर आरूढ़ हो उसी के द्वारा पूर्वोक्त सेतुमार्ग से ऊपर-ही-ऊपर पुनः मकरालय समुद्र को पार किया । समुद्र के इस पार आकर धर्मात्मा श्रीराम ने पहले जहाँ शयन किया था, उसी स्थान पर सम्पूर्ण वानरों के साथ विश्राम किया । फिर श्रीरघुनाथजी ने यथासमय सबको अपने पास बुलाकर सबका यथायोग्य आदर सत्कार किया तथा रत्नों की भेंट से संतुष्ट करके सभी वानरों और रीछों को विदा किया । 

जब वे रीछ, श्रेष्ठ वानर और लंगूर चले गये, तब सुग्रीव सहित श्रीराम ने पुनः किष्किन्धापुरी को प्रस्थान किया ।

महाभारत वन पर्व अध्याय 291 श्लोक 57-70

एकनवत्यधिकद्विशततम (291) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यानपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 57-70 श्लोक का हिन्दी अनुवाद

विभीषण और सुग्रीव के साथ पुष्पक विमान द्वारा विदेहकुमारी सीता को वन की शोभा दिखाते हुए योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने किष्किन्धा मे पहुँचकर अंगद को, जिन्होंने लंका के युद्ध में महसन! पराक्रम दिखाया था, युवराज पद पर अभिषिक्त किया। इसके बाद लक्ष्मण तथा सुग्रीव आदि के साथ श्रीरामचन्द्रजी जिस मार्ग से आये थे, उसी के द्वारा अपनी राजधानी अयोध्या की ओर प्रस्थित हुए । तत्पश्चात् अयोध्यापुरी के निकट पहुँचकर राष्ट्रपति श्रीराम ने हनुमान् को दूत बनाकर भरत के पास भेजा। जब वायुपुत्र हनुमान् जी और भरत की सारी चेष्टाओं को लक्ष्य करके उन्हें श्रीरामचन्द्रजी के पुनरागमन का प्रिय समाचार सुनाकर लौट आये, तब श्रीरामचन्द्रजी नन्दिग्राम में आये । वहाँ आकर श्रीराम ने देखा, भरत चीरवस्त्र पहने हुए हैं, उनका शरीर मैल से भरा हुआ है और वे मेरी चरण-पादुकाएँ आगे रखकर कुशासन पर बैठें हैं । युधिष्ठिर ! लक्ष्मण सहित पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी भरत तथा शत्रुघ्न से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए । भरत और शत्रुघ्न को भी उस समय बड़े भाई से मिलकर तथा विदेहकुमारी सीता का दर्शन करके महान् हर्ष प्राप्त हुआ । फिर भरतजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अयोध्या पधारे हुए भगवान श्रीराम को अपने पास धरोहर के रूप में रखा हुआ (अयोध्या का) राज्य अत्यन्त सत्कारपूर्वक लौटा दिया।

तत्पश्चात् विष्णुदेवता सम्बन्धी श्रवण नक्षत्र का पुण्य दिवस आने पर वसिष्ठ और वामदेव दोनों ऋषियों ने मिलकर शूरशिरोमणि भगवान राम का राज्याभिषेक किया। 

राज्याभिषेक का कार्य सम्पन्न हो जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने सुहृदों सहित सुग्रीव को तथा पुलत्स्यकुलनन्दन विभीषण को अपने-अपने घर लौटने की आज्ञा दी । श्रीराम ने भाँति-भाँति के भोग अर्पित करके उन दोनों का सत्कार किया। इससे वे बड़े प्रसन्न और आनन्दमग्न हो गये। तदनन्तर उन दोनों को कर्तव्य की शिक्षा देकर रघुनाथजी ने उन्हें बड़े दुःख से विदा किया । इसके बाद उस पुष्पक विमान की पूजा करके रघुनन्दन श्रीराम ने उसे कुबेर को ही प्रेमपूर्वक लौटा दिया । तदनन्तर देवर्षियों सहित गोमती नदी के तट पर जाकर श्रीरघुनाथजी ने दस अश्वमेघ यज्ञ किये, जो स्तुति के योग्य थे और जिमें अन्न आदि की इच्छा से आने वाले याचकों के लिये कभी द्वार बंद नहीं होता था ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोख्यान पर्व में श्रीरामाभिषेक विषयक दो सौ इक्यानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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।।वाल्मीकि रामायण - युद्धकाण्ड ।।

                     ।सर्ग। १०३।

तां तु पार्श्वे स्थितां प्रह्वां रामः सम्प्रेक्ष्य मैथिलीम् |                               हृदयान्तर्गतक्रोधो व्याहर्तुमुपचक्रमे ||१||

एषासि निर्जिता भद्रे शत्रुं जित्वा मया रणे|पौरुषाद्यदनुष्ठेयं तदेतदुपपादितम् || २||

गतोऽस्म्यन्तममर्षस्य धर्षणा सम्प्रमार्जिता |अवमानश्च शत्रुश्च मया युगपदुद्धृतौ || ३||

अद्य मे पौरुषं दृष्टमद्य मे सफलः श्रमः |       अद्य तीर्णप्रतिज्ञत्वात्प्रभवामीह चात्मनः ||४||

या त्वं विरहिता नीता चलचित्तेन रक्षसा |दैवसम्पादितो दोषो मानुषेण मया जितः || ५||

सम्प्राप्तमवमानं यस्तेजसा न प्रमार्जति |कस्तस्य पुरुषार्थोऽस्तिपुरुषस्याल्पतेजसः||६||

लङ्घनं च समुद्रस्य लङ्कायाश्चावमर्दनम् |सफलं तस्य तच्छ्लाघ्यमद्य कर्म हनूमतः || ७||

युद्धे विक्रमतश्चैव हितं मन्त्रयतश् च मे |सुग्रीवस्य ससैन्यस्य सफलोऽद्य परिश्रमः।८||

निर्गुणं भ्रातरं त्यक्त्वा यो मां स्वयमुपस्थितः|विभीषणस्य भक्तस्य सफलोऽद्य परिश्रमः||९||

इत्येवं ब्रुवतस्तस्य सीता रामस्य तद्वचः |मृगीवोत्फुल्लनयना बभूवाश्रुपरिप्लुता || १०||

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पश्यतस्तां तु रामस्य भूयः क्रोधोऽभ्यवर्तत |प्रभूताज्यावसिक्तस्य पावकस्येव दीप्यतः|११||

स बद्ध्वा भ्रुकुटिं वक्त्रे तिर्यक्प्रेक्षितलोचनः|अब्रवीत्परुषं सीतां मध्ये वानररक्षसाम् ||१२||

यत्कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां परिमार्जता |   तत्कृतं सकलं सीते शत्रुहस्तादमर्षणात् ||१३||

निर्जिता जीवलोकस्य तपसा भावितात्मना |अगस्त्येनदुराधर्षा मुनिना दक्षिणेव दिक् |१४||

विदितश्चास्तु भद्रं ते योऽयं रणपरिश्रमः |         स तीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः|१५||

रक्षता तु मया वृत्तमपवादं च सर्वशः |प्रख्यातस्यात्मवंशस्य न्यङ्गं च परिमार्जता|१६||

प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता |     दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढम् ||१७||

तद्गच्छ ह्यभ्यनुज्ञाता यतेष्टं जनकात्मजे |      एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया| १८|

कः पुमान्हि कुले जातः स्त्रियं परगृहोषिताम् |तेजस्वि पुनरादद्यात्सुहृल्लेखेन चेतसा ||१९||

रावणाङ्कपरिभ्रष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा |       कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपदिशन्महत् || २०||

तदर्थं निर्जिता मे त्वं यशः प्रत्याहृतं मया |नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामितः| २१||

इति प्रव्याहृतं भद्रे मयैतत्कृतबुद्धिना |लक्ष्मणेभरते वा त्वं कुरु बुद्धिं यथासुखम्।२२|

सुग्रीवे वानरेन्द्रे वा राक्षसेन्द्रे विभीषणे |निवेशय मनः शीते यथा वा सुखमात्मनः|२३|

न हि त्वां रावणो दृष्ट्वा दिव्यरूपां मनोरमाम् |मर्षयते चिरं सीते स्वगृहे परिवर्तिनीम् || २४||

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ततः प्रियार्हश्वरणा तदप्रियंप्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मैथिली |मुमोच बाष्पं सुभृशं प्रवेपितागजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी || २५||

वाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड सर्ग १०३ पर देखें

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सीता का निर्वासन : देश विदेश में

क्या सीता निर्वासन सत्य घटना है या यह वाल्मीकि-रामायण में प्रक्षिप्त है। कई विद्वान पुष्ट प्रमाण देकर सिद्ध करते हैं कि पूरा उत्तरकांड ही प्रक्षिप्त है। 

सच में तो छठे कांड की फल-श्रुति के पश्चात ही रामायण-ग्रंथ समाप्त हो जाता है। दक्षिण भारत की रामायणों में छह कांड ही है। महाभारत तथा कई पौराणिक रामकथाओं में सीता-निर्वासन का अभाव है। ऐसी बात नहीं है।

विचारणीय है कि राम ने पर-पुरुष के साथ रमण करने वाली अहिल्या का उद्धार किया। तारा भी दो-दो पतियों की रमणी रही। इसे भी राम ने आदर दिया। ये दोनों प्रातः वंदनीया हो गयीं। सीता तो परम पवित्र थीं, उन्हें इतना बड़ा दंड क्यों दिया गया ?

लगता है बौद्ध मठों में भिक्षुणियों के अनाचार और बौद्ध शासकों के निर्वीर्य हो जाने पर कण्व और श्रृंग वंश के ब्राह्मण राजाओं ने नारी-पवित्रता का चरम आदर्श प्रस्तुत करने के लिए सीता-निर्वासन की नयी उद्भावना की।

वाल्मीकि-रामायण में सीता को (नारीणामुक्तमानबधू) कहा गया। इस ग्रंथ का एक नाम ‘सीतायाश्चरितं महत्’ भी है। उन्होंने बनवास के समय पति का साथ दिया। वैभव के मध्य पली इस सुकुमारी महिला ने जंगल के घोर कष्ट सहे, किंतु राम के साथ रहने का उन्हें कभी पश्चाताप नहीं हुआ। 

रावण सुंदर, पराक्रमी और संपन्न था किंतु वह इस पति-परायणा को रंचमात्र विचलित नहीं कर सका। उन्होंने सभी प्रलोभनों को ठुकराकर कह दिया था कि मैं बायें पैर के अंगूठे से भी इस निशाचर को नहीं छुऊँगी-

(चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम्)।

जिस समय पक्षी की मादा अंडे देने को होती है, नर-पक्षी एक-एक तिनका जोड़कर घोंसला बनाता है। राम ने क्या किया? जिस समय पति के संक्षरण की विशेष आवश्यकता थी, उन्होंने सीता को धोखा देकर वन में छुड़वा दिया, खूँख्वार जानवरों के मध्य।

लोक-मानस ने राम को क्षमा नहीं किया। लोकगीतों में जनता की सहानुभूति सीता के साथ है। सीता राम को कटु वचन बोलने में संकोच नहीं करतीं -

बिहार में लड़कियों के नाम सीता नहीं रखे जाते, भले ही जानकी, वैदेही या मैथिली रखे जाते हों।

सीता निर्वासन के निम्न कारण बताये गए हैं-

लोकापवाद सीता द्वारा रावण का चित्र बनाना

धोबी-प्रसंग तारा-शाप और मंदोदरी-शाप

राम की स्वर्ग-वापसी

राम का काम-भाव

राम द्वारा दशरथ की आयु जीना।

लोकापवाद के कारण ही राम ने सीता का परित्याग किया था, यही सत्य था। सीता-निर्वासन के अन्य कारणों की चर्चा के पश्चात ही लोकापवाद के विषय में विचार करना समीचीन होगा।


रावण का चित्र

वाल्मीकि-रामायण में सीता के चरित्र पर राम ने संदेह नहीं किया। संदेह का आरंभ जैन राम-कथाओं से होता है। विमल सूरि कृत पउम चरिउ (३००-४००ई.) में वर्णित है कि नागरिकों ने राम से भेंट कर सीता के कलंक की बात कही। 

राम ने लक्ष्मण से कहा कि वे सीता को वन में छोड़ आएँ। लक्ष्मण तैयार नहीं हुए तो राम ने यह कार्य अपने सेनापति से करवाया।

राम को सीता के चरित्र पर संदेह हुआ, इसे युक्ति-संग बनाने के लिए रावण के चित्र की कल्पना हुई। 

हरिभद्र (८ वीं शती) के उपदेश-पद में इसका प्राचीनतम उल्लेख है। सीता की ईर्ष्यालु सौतों ने सीता से रावण के चरणों का चित्र बनवाया, फिर उसे राम को दिखाया। 

राम ने उपेक्षा की तो सौतों ने दासियों के द्वारा जनता में प्रचार करा दिया। राम गुप्त-वेश धारण कर निकले, उन्हें सीता के कलंक के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने सेनापति द्वारा सीता का त्याग करा दिया।

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हेमचन्द्र की जैन रामायण में भी इस प्रसंग का अनुसरण है। इसमें सौतों की संख्या तीन बतायी गयी है।

रावण का चित्र बनाने की चमत्कारिक घटना जनता को सहज स्वीकार्य हो गयी। किंतु, जनता को यह स्वीकार न था कि एक पत्नी-व्रत-धारी राम की कई पत्नियाँ दिखायी जातीं। आगे चलकर चित्र बनाने का आग्रह करने वाली स्त्रियाँ सौत नहीं कुछ और दिखायी गयीं। अब दो दृष्टियों से अध्ययन करना होगा 

१. चित्र बनाने का आग्रह करने वाली कौन है, तथा

२. चित्र बनाने का आधार क्या है?

आनंद-रामायण में कैकेयी ने रावण का चित्र बनाने का आग्रह किया। सीता ने रावण के पैर का अंगूठा देखा था, उसे ही उन्होंने दीवार पर बनाया। कृत्तिवासी बाँग्ला-रामायण में सखियों के कहने पर सीता ने फर्श पर रावण का चित्र बनाया। बाँग्ला भाषा की ही चन्द्रावती-रामायण में कैकेयी की पुत्री कुकुआ सीता से ताल-पंख पर रावण का चित्र बनवाती है। इस प्रकार बाँग्ला रामायणों में सौतेली सास-बहू या ननद-भाभी का विवाद चल पड़ा।

माड़िया गौड़ आदिवासियों की कथा में ननद के कहने पर सीता गोबर से चित्र बनाती है।

मलयेशिया की सेरी राम में भरत-शत्रुघ्न की सहोदरी कीकबी देवी पंखे पर चित्र बनवाती है। चन्द्रावती की राम-कथा से यहाँ साम्य है। जावा के सेरत-कांड में स्वयं कैकेयी चित्र बनाकर सोती हुई सीता के वक्ष पर रख देती है।

सिंहली रामकथा में उमा सीता से केले के पत्ते पर चित्र बनवाती है। राम के आने पर उसे पलंग के नीचे छिपाती है। राम के बैठने पर पलंग काँपता है। तब राम स्थिति से परिचित होकर सीता को दंडित करते हैं। 

थाइलैंड की रामकथा में शूर्पणखा की पुत्री सीता से रावण का चित्र बनवाकर उसी में प्रवेश कर जाती है। चित्र अमिट हो जाता है। राम के आने पर चित्र बिछौने के नीचे छिपाया जाता है।

कम्बोडिया की रामकथा में रावण की कुटुम्बिनी सीता की सखी बनकर यह सब कराती है। यहाँ भी चित्र बिछौने के नीचे छिपाया जाता है। 

लाओस, ब्रह्या देश (बर्मा) तथा चीन की एक रामकथा में चित्र वृत्तांत हैं।

गुरु गोविंद सिंह की रामायण में सखियाँ दीवार पर चित्र बनवाती हैं। राम को संदेह होता है और सीता शपथपूर्वक धरती में समा जाती है।

कश्मीरी रामायण में चित्र बनवाने वाली छोटी ननद है। लक्ष्मण सीता को वन-प्रदेश में ले जाते हैं। सीता सो जाती हैं तो जल-भरा लोटा टाँगकर लक्ष्मण लौट जाते हैं। एक बुंदेलखंडी लोकगीत में भी ऐसा है।

कई लोकवार्ताओं में भी चित्र-वृत्तांत है। यह प्रसंग पूरे देश और दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रचारित रहा। इसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है-

१. चित्र बनाने वाली सौत, सखी, कैकेयी, कैकेयी-पुत्री, कोई ननद, रावण-पुत्री या कोई राक्षसी बतायी गयी।

२. चित्र का आधार रहा फर्श, ताल-पंख, दीवार, केले का पत्ता, थाली आदि।

३. चित्र बनाया गया पूरे शरीर, चरण या अंगूठे का।

४. विदेशी राम कथाओं में यह भी दिखाया गया कि राम के आदेश पर लक्ष्मण सीता का वध करने वन में ले गये, किंतु वे किसी पशु (कुत्ता, बकरी या मृग) को मारकर उसका रक्त या कोई अंग राम को दिखाने के लिए ले आये।

 आश्चर्य है कि बौद्ध-धर्म प्रभावित विदेशी रामकथाओं में ऐसा रक्तपात क्यों दिखाया गया। वैसे 

आनंद-रामायण में राम लक्ष्मण से सीता की दक्षिण भुजा काटने के लिए कहते हैं।, क्योंकि इसी से उन्होंने रावण का चित्र बनाया था।

धोबी प्रसंग

वाल्मीकि-रामायण के लोकापवाद को स्वाभाविक बनाने के लिए कल्पना की गयी कि किसी पुरुष ने पराये घर में रही अपनी पत्नी को यह कहकर निकाल दिया कि वह राम नहीं है कि रावण के यहाँ रही सीता को स्वीकार कर ले।

 श्रीमद्भागवतपुराण और कथा-सरितसागर में ऐसा वर्णन है। फादर कामिल बुल्के मानते हैं कि कथा-सरितसागर ने यह प्रसंग गुणाढ्य की बृहत्कथा से लिया होगा, जोकि अब अप्राप्य है। इस प्रसंग को और भी स्वाभाविक बनाने के लिए कल्पना की गयी कि अपनी पत्नी को लांछित करने वाला पुरुष धोबी था। ऐसा वर्णन जैमिनी-अश्वमेध और पद्म-पुराण में है।

बांग्ला-रामायण में लोकापवाद से दुखी राम स्नान करने जाते हैं तो धोबी-धोबिन का झगड़ा सुनते हैं। वे घर आते हैं तो सीता द्वारा बनाया रावण का चित्र देखते हैं। धोबी-वृत्तांत कश्मीरी, गुजराती, मैथिली आदि रामायणों में भी है।

तारा-शाप

वाल्मीकि-रामायण के गौड़ीय और पाश्चात्य संस्करणों में बालि-वध के पश्चात् तारा राम को शाप देती है कि सीता को प्राप्त तो करोगे, किंतु वह बहुत दिनों तक तुम्हारे साथ नहीं रहेगी।

राम को सीता-निर्वासन के कलंक से बचाने के लिए इस प्रसंग की उद्भावना हुई है। बांग्ला-रामायण, असमिया रामायण और औड़िया-रामायण में यह प्रसंग है। बांग्ला-रामायण के लेखक ने एक पग और आगे बढ़कर दिखाया है कि रावण-वध के पश्चात मंदोदरी भी राम को ऐसा ही शाप देती है।

राम का काम-भाव

आनंद-रामायण में सीता-निर्वासन का एक अनोखा कारण खोजा गया। राम गर्भवती सीता के प्रति काम-भाव रखते हैं, इसलिए उन्हें आश्रम भेजा गया। सीता अपने सत्व रूप में, राम में ही समाहित रहीं, उनका रज-तम रूप ही बनवास भोगता है। प्रकारांतर से यह अध्यात्म-रामायण वाली छाया-सीता मानी जा सकती है।

अभी तक सीता-निर्वासन के जिन कारणों की चर्चा की गयी, उनमें निम्न दृष्टियाँ थीं-

१. सीता-निर्वासन का मनोवैज्ञानिक आधार खोजा गया कि उन्होंने अपहर्ता रावण का चित्र बनाया, इससे राम को उनके चरित्र पर संदेह हुआ।

२. राम एक लोकप्रिय शासक थे। उन्होंने धोबी जैसे एक सामान्य नागरिक की भावना का समादर किया, ऐसा दिखाना था।

३. राम के चरित्र पर कलंक न रह जाए, इसके लिए कारण गढ़े गये कि तारा-मंदोदरी ने शाप दिया था, देवता राम को स्वर्ग लौटाना चाहते थे, या राम पिता की आयु को भोगते हुए सीता के साथ नहीं रहना चाहते थे, या राम गर्भवती सीता के प्रति काम-भाव रखते हैं, इसलिए साथ नहीं रखना चाहते।

लोकापवाद

लोकापवाद के कारण राम द्वारा सीता का परित्याग अधिक सत्य प्रतीत होता है। वाल्मीकि-रामायण के अनुसार गर्भवती सीता ने तपोवन देखने की इच्छा प्रकट की थी। राम उन्हें आश्वस्त कर मित्रों के पास आये। भद्र नामक गुप्तचर ने उन्हें बताया कि राम ने सागर पर पुल बनाया और रावण का संहार किया, इससे उनकी प्रशंसा हो रही है, किंतु उन्होंने रावण की लंका में रही सीता को कैसे अपना लिया। हमें भी अब स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेंगी, क्योंकि जैसा राजा करता, प्रजा उसका अनुकरण करती है। ये बातें चौराहे, बाजारों, सड़कों, वनों-उपवनों में कही जा रही हैं।

लक्ष्मण, तुम कल सीता को तमसा के तट पर वाल्मीकि-आश्रम के निकट छोड़ आओ। तुम्हें मेरे चरणों और प्राणों की शपथ है।’’

लक्ष्मण सीता को रथ में बिठाकर तपोवन दिखाने के बहाने ले चले। पहली रात गोमती तट पर बीती। दूसरे दिन दोपहर तक वे गंगा के तट पर पहुँच गये। नौका द्वारा गंगा पार कर लक्ष्मण जोर से रो पड़े। उन्होंने चकित और चिंतित सीता को बताया- देवि, बुद्धिमान होकर भी राम ने मुझे तुम्हें जंगल में छोड़ आने का निंदनीय कार्य सौंपा है। इससे तो मेरी मृत्यु हो जाती वही अच्छा था।

लक्ष्मण से वस्तु-स्थिति जानकर वे अचेत हो गयीं। चेत में आने पर वे विलाप करने लगीं। बहुत ही घबराहट का अनुभव करते हुए भी उन्होंने कहा, ‘‘राम से कह देना वे ही मेरी परमस्मृति हैं। जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्तव्य है। लक्ष्मण, जाने से पहले देखे जाओ, मैं गर्भवती हूँ।’’

मनसा-वाचा-कर्मणा राम को छोड़ किसी अन्य पुरुष का ध्यान किया हो तो पृथ्वी देवी मुझे गोद में ले लें-

तथा म माधवी देवी विवरं दातुमर्हति।

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महाभारत-अरण्य पर्व अध्याय-275/13

 (सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि ।

नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ॥१३॥

यहीं पर राम सीता के प्रति कहते है।

अनुवाद:- 

अर्थात 'मिथिलेश नन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन सामग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त  और त्याज्य  हो जाती हैं। 

क्या वास्तव में राम ने सीता से ये बातें कहीं थी या रामायण लिखने वाले ने राम के चरित्र पर इस घटना को आरोपित कर नारीयों को उपभोग की वस्तु बताना चाहा है। 

जो झूँठी हो जाने पर त्याज्या हैं । इस प्रकार के शास्त्रीय विधानों से भी नारी जाति की दुर्गति हुई है 

तुलसी दास ने तो अब संशोधन शुरु कर दिया है परन्तु अभी धर्मशास्त्रों में दबी पड़ी गन्दिगी को निकालने की महती आवश्यकता है ।

और उन फर्जी शंकराचार्यो को भी बताने की आवश्यकता है जो एक नारी से जन्म लेकर आज उसे अपवित्र बता रहे हैं ।

आडम्बरों और सामाजिक बुराईयों पर चोट होनी ही चाहिए। ये बुराईयाँ धर्मशास्त्रों को ढाल बनाकर अपने लाभ के लिए पुरोहितों ने समाज पर आरोपित कर दी  

कोई रचना उस कालखंड के लिए भले ही लेखक को प्रासंगिक लगे लेकिन भविष्य में  परिस्थिति  और देश काल   के साथ  बदलते सिद्धान्तों के रूप में उसका महत्व समाप्त हो जाता है।  परिवर्तन प्रकृति का ही शाश्वत नियम है।


 हरि बोल!



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