यज्ञ में ब्राह्मण द्वारा माँस भक्षण अनिवार्य बताना तथा शूद्र- स्त्रीयों को केवल उपभोग के लिए सम्पर्क करना और ब्राह्मण का सर्वथा श्रेष्ठ होना
ऐसा भी कुछ शास्त्रों में लिखी है। तो क्या ये शास्त्र ईश्वर विधानों का निर्देशन करते हैं ?
पितरों का श्राद्ध के अवसर पर माँस केेे तर्पण
शूद्र स्त्री केेेे । केवल भोग
लिए होती है ।
विधवा अपने रिश्तेदारों देवर आदि से सन्तान हेतु नियोग करे परन्तु पुनर्विवाह न करे!
स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के लिए माँस भक्षण के विधान-
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पति की गुलाम होना ही पत्नी धर्म है ।
ब्राह्मण होने की पात्रता -
अनुलोम और प्रतिलोम विवाह-
ब्राह्मण से असभ्य बोलने पर दण्ड का विधान-
क्षत्रिय १२ दिन वैश्य १५ दिन और ब्राह्मण ८ दिन और शूद्र एक मास में पवित्र होकर सूचक से मुक्त होता है ।
ब्राह्मण की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण ही है ।
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जो ब्राह्मण वृथा माँस खाता है अथवा जो विना विधान के माँस भक्षण करता है वह अनन्त काल तक नरक में निवास करता है। जब तक कि जब तक चन्द्रमा और तारागण आकाश में स्थित रहते हैं ।५७।
द्विजो जग्ध्वा वृथामांसं हत्वाप्यविधिना पशून्। निरयेष्वक्षयं वासामाप्नोत्याचन्द्रतारकम्।।५७।
(वशिष्ठ स्मृति)
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ब्राह्मण यज्ञ का माँस अवश्य खाये यह शास्त्रीय विधान तब अनिवार्य था जब पितरों का श्राद्ध तर्पण होता था। माँस खाने की परम्परा प्राचीन थी परन्तु परम्पराओं को जीवन्त रखते हुए पुरोहितों ने केवल यज्ञ के अवसर पर माँस भक्षण अनिवार्य कर दिया था। कदाचित् अत्यधिक जीव हिंसा की भर्त्सना( निन्दा) होने के कारण ही शास्त्रीय विधान बनाये गये कि अनावश्यक जीव हिंसा पाप है ।____________________________________
ब्राह्मण का श्राद्ध में माँस खाना और गोप को शूद्र बताना ! क्या ये बातें शास्त्रीय विधान हैं ?
यदि हैं तो हम ऐसे शास्त्रों का खण्डन ही नहीं अपितु बहिष्कार भी करते हैं।
"वैश्यायां विधिना विप्राज्जातो हि अम्बष्ठ उच्यते कृष्याजीवी भवेत्तस्य तथैव आग्नेयवृत्तिक:।३१।
ध्वजिनीजीविका वापि अम्बष्ठा: शस्त्रजीविन:। वैश्यां विप्रतश्चौर्यात् कुम्भकार: स उच्यते।३२।
(औशनसीस्मृति)
विधि-विधान पूर्वक ब्राह्मण के साथ विवाही हुई वैश्यकन्या से जो ब्राह्मण उत्पन्न होता है। उसे अम्बष्ठ कहते हैं। कृषि अथवा आग्नेय वृत्ति ( गोला बारूद बम आदि )बनाना इसकी वृत्ति हैं अम्बष्ठ की जीविका सेना अथवा शस्त्र की है ।
और गुप्त रूप से ब्राह्मण के द्वारा वैश्य कन्या में कुम्भकार उत्पन्न होता है। बस दोनों के वैध और अवैध होने में ही अन्तर है दौनों को ब्राह्मण की सन्तान बताया गया है। वस्तुत: अम्बष्ठ को बम्बष्ठ ही बना दिया । वास्तव में उपर्युक्त श्लोक पूर्ण रूपेण प्रक्षिप्त (नकली) ही हैं ।
इसी प्रकार अपने आप शास्त्र के नाम पर मनमानी लिखने वाले सदीयों ( से तो नहीं परन्तु बुद्ध के बाद से अवश्य हो गये थे । जिन्हें शब्दों की व्युत्पत्ति का भी बोध नहीं था एक नमूना हम नापित शब्द की व्युत्पत्ति करनेवाले एक पुरोहित की मन:स्थिति के बोध कराते हुए हम ये व्युत्पत्ति दर्शाते हैं।
इस शब्द की हेय नकारात्मक, काल्पनिक व्युत्पत्ति भी हास्यास्पद ही है । वस्तुत परवर्ती काल में धर्म को नाम ये विकृति आयी थी जब जातिवाद भारतीय समाज में हाबी हो गया।
"नापिता वा भवन्त्यत:सूतके। प्रेतके वापि दीक्षाकालेऽथ वापनम्।३३।
अर्थ- इस विधि से नापित( नाई) भी उत्पन्न होता है। जन्मसूतक मरणसूतक अथवा दीक्षा काल में ये केशों का छेदन करते हैं।३३।
"नाभेरुर्ध्वै तु वपनं तस्माद्नापित उच्यते। कायस्थ इति जीवेत्तु विचरेच्च इतस्तत:।३४।
नाभि से ऊपर के केशों को काटने से ही इन्हें नापित (नाई) कहते हैं। और यह कायस्थ नाम से इधर उधर विचरण करते हुए जीविका उपार्जन करे ।३४।
शुक्राचार्य को उशना भी कहते हैं, अतः उनके नाम बनायी गयी स्मृति को औशनस स्मृति हैं।
वैश्यायां विप्रतश्चैय्र्यात कुम्भकारा प्रजायते ।कुलाल वृत्या जीवेत्तु , नापिता वा भवन्त्यतः।32।अर्थः-ब्राह्मण के द्वारा वेश्या स्त्री में चोरी से (जारकर्म द्वारा) कुम्हार उत्पन्न होता है । वह मिट्टी के बर्तन आदि बनाकर अपनी जीविका करे अथवा इस प्रकार क्षौरकर्म करने वाला नाई उत्पन्न होता है ।
कायस्थ इति जीवेत्तु विचरेच्च इतस्ततः ।काकाल्लौल्यं यमात्क्रौयर्य स्थपतेरथ कृन्तनम् ।आधक्षाराणि संगृहं कायस्थ इति कीर्तितः।34।
वह अपने को कायस्थ कहकर कायस्थ की जीवका करता हुआ इधर-उधर भ्रमण करे । काक से चंचलता, यमराज से क्रूरता, थवई( स्थपति (राज मिस्त्री) से काटना, इस प्रकार काक, यम और स्थापित, इन तीनों शब्द के आद्य अक्षर लेकर कायस्थ शब्द की बनावट कही गई, जो उक्त तीनों दोषों का द्योतक(सूचक) है।
स्थपति, प्राकृत भाषा [थवइ] मकान बनाने वाला कारीगर । ईंट पत्थर की जुड़ाई करनेवाला शिल्पी । राज । मेमार ।
उक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि औशनस स्मृति लिखने वाला नाई और कायस्थ की उत्पत्ति एक ही प्रकार से मानते हैं। अथवा यों कहिए एक ही जाति के व्यक्तियों के ये जीविकानुसार तीन नाम कायस्थ नापित और कुम्भकार( कुम्हार) हैं। व्यास स्मृति अध्याय 1 श्लोक 11-12 में कायस्थ को अन्यत्रों और गोमांस भक्षियों में परिणित किया है । जबकि गोमाँस खाते ब्राह्मण थे।
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चाणक्य नीति-मे भी नाई को "नापित" लिखकर उसकी प्रवृत्ति को बताया गया है। जिसमें शब्द की व्युत्पत्ति नापित का रूप- (न आप्नोति सरलतामिति –जो सरलता को प्राप्त नहीं होता है वह नापित:। इस प्रकार से (न + आप् + “नञ्याप इट् च ।” उणादि कोश ३।८७। इति तन् इट् च = नापित:) यह वर्णसङ्करजातिविशेषः है । स तु पट्टिकार्य्यां कुवेरिणो जातः । इति पराशरपद्धतिः ॥ कपड़ा बुननेवाली जुलाहा स्त्री में कुवेरि के द्वारा उत्पन्न सन्तान नापित है पाराशर पद्धति में यह वर्णन है। परन्तु दूसरे भिन्न ग्रन्थ "विवादार्णवसेतु" में वर्णन है। कि "शूद्रा स्त्री में क्षत्रिय से उत्पन्न सन्तान नापित है ॥
शूद्रायां क्षत्त्रियाज्जातःइति विवादार्णवसेतुः।
"मनुष्याणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां श्रृगालस्तु स्त्रीणां धुर्ता च मालिनी।२१।(चाणक्य नीति पञ्चम अध्याय) में तथा पञ्चतन्त्र में समान श्लोक है।
“नराणां नापितो धूर्त्तः पक्षिणाञ्चैव वायसः । दंष्ट्रिणाञ्च शृगालस्तु श्वेतभिक्षुस्तपस्विनाम्।७३। (पञ्च- तन्त्र)
अनुवाद:-
पुरुषों में नाई धूर्त होता है , पक्षियों मैं कौआ , पशुओं या दाँतो वाले में गीधड़ ,और स्त्रियों में मालिन धूर्त होती है।
विशेष :- हर समाज में सभी प्रकार के अच्छे-बुरे व्यक्ति होते हैं। क्या किसी एक व्यक्ति के आधार पर ही सम्पूर्ण समाज का प्रवृत्याङ्कन किया जाना समीचीन है ? मेरे विचार से तो कभी नहीं सिवाय मूर्खता के कुछ और नहीं है ।
वप्त्वा स्नापयति सर्वदोषेभ्यो य: स्नापित: "
संस्कारादुत्पादनात्च ज्ञानात् त्रय: पिता।।
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यद्यपि पौराणिक कथाओं के पात्र पूर्ण रूपेण काल्पनिक तो नहीं हैं परन्तु उनका चरित्रांकन अतिरञ्जना पूर्ण काव्यात्मक शैली में अवश्य किया गया है। यह शैली ही उनके अस्तित्व में सन्देह उत्पन्न कर देती है। दूसरा कारण परवर्ती काल में अथवा कहें स्मृति लेखन काल में यह भी रहा कि ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के लिए तथाकथित पुरोहित वर्ग ने सभी इतर परिश्रम समन्वित जन जातियों को ब्राह्मण की अवैध सन्तान बताकर- उनको हीन और ब्राह्मण का ही नि: स्वार्थ सेवक बनाने नया उपक्रम ही किया। अवैध सन्तान बताने का इस लिए प्रयास किया गया यदि ब्राह्मण व्यभिचार भी करता है तो भी वह पूज्य ही है ।ऐसे श्लोक स्मृतियों में तो लिखे ही गये पुराणों में भी जोड़ दिए गये। इस लिए शास्त्रों से प्रमाण लेकर शास्त्रों पर प्रश्न चिन्ह लगाना केवल उनके शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत होने पर है ।
क्यों कि सिद्धान्त तो धर्म शास्त्रों के भी होते हैं।
अधिक तर बाते किंवदन्तियों पर ही आधारित होकर बनाए गये।
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"प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चेमावुदाहृतौ। राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमनाः शृणु।43।षडेतान्पुरुषो जह्याद्भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।44।
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।45।
इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशोऽध्यायः।57।
राजेन्द्र! प्राचेतस मनु ने राजधर्म के विषय में ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकचित्त होकर उन दोनों श्लोकों को यहाँ सुनो।43।
जैसे समुद्र की यात्रा में टूटी हुई नौका का त्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह
१-उपदेश न देने वाले आचार्य, २-वेदमन्त्रों का उच्चारण न करने वाले ऋत्विज, ३-रक्षा न कर सकने वाले राजा, ४-कटु वचन बोलने वाली स्त्री, ५-गाँव में रहने की इच्छा रखने वाले ग्वाले ६- और जंगल में रहने की कामना करने वाले नाई- इन छः व्यक्तियों का त्याग कर दे। गोपाल वन का वासी और नापित ग्रामणी बताया गया ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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(महाभारत -उद्योगपर्व अध्याय 32) । “नटी कापालिनी वेश्या कुलटा नापिताङ्गना कुल नायिकोक्तौ तन्त्रम् । तस्य वृत्तिः क्षुरकर्म । “उपोषितस्य व्रतिनः कॢप्तकेशस्य नापितैः । श्रीस्तावत्तिष्ठति गृहे यावत् तैलं न संस्पृशेत्” स्मृतिः ।
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और हद तो तब हो गयी जब नापित शब्द की व्युत्पत्ति कोशकारों ने (न आप्नोति सरलतामिति । न + आप् + “नञ्याप इट् च ।” उणादि सूत्र। ३ । ८७ । इति तन् इट् च ।)
"जो सरलता से प्राप्त नहीं होता"। परन्तु ये सब काल्पनिक व्युत्पत्ति कोशकारों और ग्रन्थकारों के मन की उपज ही हैं।
स्नापित = शब्द से ही नापित शब्द का विकास युक्ति संगत है। जो राजा महाराजाओं को स्नान कराने वाला उनका वर्णन करने वाला ही नापित होता था।
नाई और ब्राह्मण दोनों में नाई श्रेष्ठ है।
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नृपयां विप्रतश्चौर्य्यात्सञ्जातो यो भिषक्स्मृत:।
अभिषिक्तनृपस्याज्ञां परिपाल्येत्तु वैद्यकम्।।२६। आयुर्वेदमथष्टांग तन्त्रोक्तं धर्ममाचरेत्।। ज्योतिषं गणित वापि कायिकीं वृद्धिमाचरेत्।।२७। (औशनसीस्मृति)
भिषज्(भिषक्)= विभेत्यस्मात् रोगः ( जिससे रोग डरता है ) “भियः सुक् ह्रस्वश्च” उणादि सूत्र अजि कण्ड्वा० भिषज्--क्विप् वा । १ चिकित्सके । २ विष्णौ पुराण- तस्य संसाररोगहारित्वात् “भीषा स्यात् वातः पवते” इत्यादि श्रुत्या सर्वेषां भीतिजनकत्वाद्वा तथात्वम् ततः अपत्ये गर्गा
क्षत्रिय की कन्या में गुप्त रूप से जो ब्राह्मण उत्पन्न होता है । वह भिषक् कहलाता है वह राजा की आज्ञा से वैद्यक करता है ।
वैद्यक वह शास्त्र जिसमें रोगों के निदान और चिकित्सा आदि का विवेचन हो (चिकित्साशास्त्र) आयुर्वेद।
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_"ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्चौर्याद्रथकार: प्रजायते।
वृत्तं च शूद्र वक्त सम द्विजत्वं प्रतिषिध्यते ।।५।यानानां ये च वोढारस्तेषां च परिचारका: शूद्रवृत्या तु जीवति न क्षात्रं धर्माचरेत्।६।(औशीनसी स्मृति प्रथम अध्याय)
वोढृ-(वाहयतीति (वह् + तृच्)“ सूत रथवाहक- (मेदिनी कोश)
नृपाद् ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।।
जात:सूतोऽत्र निर्दिष्ट प्रतिलोमविधिर्द्विज: वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:। औशीनसी स्मृति अध्याय (१)
अर्थान्वय-
राजा ( क्षत्रिय) से ब्राह्मण कन्या में विवाह सम्बन्ध होने से उत्पन्न सन्तान सूत है । यह निर्देशित है ये प्रतिलोम( विपरीत) विधि का द्विज है । वेदों के योग्य और इन वेदों के धर्म का अनुबोधक ( व्याख्याता) होते हैं ।
उपर्युक्त श्लोक में यह कहीं नहीं लिखा है कि सूत को वेदों का अधिकार नहीं है।
snow (noun.) this word exists
1-from Old English sno and "snow, that which falls in the form of snow; a fall of snow; a snowstorm, the word"
2- Proto-Germanic *snawaz (also source of 3-Old Saxon and 4-Old High German sneo, -5-Old Frisian and 6-Middle Low German sne, 7-Middle Dutch sneve, 8-Dutch sneve, 9- German shnee, 10-Old Norse snojær, 11-Gothic snovs "snow"), PIE (Proto Indo European) root *snigwh- "snow; to snow" (sourceGr12-nifa, 13-Latin nix (genitive nivis), 14-Old Irish snechta, 15-Irish snechd, 16-Welsh nyf, 17-Lithuanian sneigas, 18- Old Prussian snegis, 19-Old Church Slavonic sneg, 20- Russian sneg ', 21-Slovak affection "snow"). 22 Sanskrit—The cognate word in Sanskrit, snihyati, means "he gets wet." It is attested from 1914 as slang for "cocaine".
This prehistoric analysis of the etymology of the word "snapit" has been done by Yadav Yogesh Kumar Rohi"
बर्फ (संज्ञा।) यह शब्द अस्तित्व में है
1-पुरानी अंग्रेजी स्नो और "बर्फ, वह जो बर्फ के रूप में गिरती है; बर्फ का गिरना; एक बर्फीला तूफान, यह शब्द" से
2- प्रोटो-जर्मनिक * स्नैवाज़ (3-ओल्ड सैक्सन और 4-ओल्ड हाई जर्मन स्नेओ का स्रोत भी, -5-ओल्ड फ़्रिसियाई और 6-मिडिल लो जर्मन स्ने, 7-मिडिल डच स्नीव, 8-डच स्नीव, 9- जर्मन श्नी, 10-पुराना नॉर्स स्नोजोर, 11-गॉथिक स्नोव्स "स्नो"), पीआईई (प्रोटो इंडो यूरोपियन) रूट * स्निग्व्ह- "स्नो; टू स्नो" (स्रोतग्रीक 12-निफा, 13-लैटिन निक्स (जेनिटिव निविस), 14-ओल्ड आयरिश स्नेच्टा, 15-आयरिश स्नेचड, 16 वेल्श एनवाईएफ, 17-लिथुआनियाई स्नीगैस, 18- ओल्ड प्रशिया स्नेगिस, 19-ओल्ड चर्च स्लावोनिक स्नेग, 20- रूसी स्नैग', 21-स्लोवाक स्नेह "स्नो")। 22 संस्कृत-संस्कृत, स्निह्यति में सजातीय शब्द का अर्थ है "वह गीला हो जाता है।" "कोकीन" के लिए कठबोली के रूप में यह 1914 से प्रमाणित है।
ष्नसुँ»ष्नस्:-निरसने।
षना»ष्ना: शौचे।
ष्निहँ»स्निह्: स्नेहने प्रीतौ वा
ष्नु»स्नु-प्रस्रवणे।
ष्नुस्« स्नुस्- निरसने।
स्नापित: मूलक "स्ना" धातु वैदिक है।
ष्ना(अदादिगणीय धातु)
परस्मैपदी रूप -
लट् लकार-(वर्तमान काल )
1-एकवचनम् 2-द्विवचनम् 3-बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः स्नाति स्नातः स्नान्ति
मध्यमपुरुषः स्नासि स्नाथः स्नाथ
उत्तमपुरुषः स्नामि स्नावः स्नामः
लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूत काल).
1-एकवचनम् 2-द्विवचनम् 3-बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः सस्नौ सस्नतुः सस्नुः
मध्यमपुरुषः सस्नाथ/सस्निथ सस्नथुः सस्न
उत्तमपुरुषः सस्नौ सस्निव सस्निम
लुट्लकार-(अनद्यतन भविष्यत् काल)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः स्नाता स्नातारौ स्नातारः
मध्यमपुरुषः स्नातासि स्नातास्थः स्नातास्थ
उत्तमपुरुषः स्नातास्मि स्नातास्वः स्नातास्मः
लृट् लकार(अद्यतन भविष्यत्काल)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः स्नास्यति स्नास्यतः स्नास्यन्ति
मध्यमपुरुषः स्नास्यसि स्नास्यथः स्नास्यथ
उत्तमपुरुषः स्नास्यामि स्नास्यावः स्नास्यामः
लोट्लकार (आज्ञार्थ )
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः स्नातात्/स्नातु स्नाताम् स्नान्तु
मध्यमपुरुषः स्नातात्/स्नाहि स्नातम् स्नात
उत्तमपुरुषः स्नानि स्नाव स्नाम
लङ्लकार (अनद्यतन भूतकाल)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः अस्नात् अस्नाताम् अस्नान्/अस्नुः
मध्यमपुरुषः अस्नाः अस्नातम् अस्नात
उत्तमपुरुषः अस्नाम् अस्नाव अस्नाम
विधिलिङ् लकार-
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः स्नायात् स्नायाताम् स्नायुः
मध्यमपुरुषः स्नायाः स्नायातम् स्नायात
उत्तमपुरुषः स्नायाम् स्नायाव. स्नायाम
आशीर्लिङ् लकार-
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः (१-स्नायात्/स्नेयात् ) (२-स्नायास्ताम्/ स्नेयास्ताम् ) (३-स्नायासुः/स्नेयासुः)
मध्यमपुरुषः(१-स्नायाः/स्नेयाः) (२स्नायास्तम्/स्नेयास्तम्) (३-स्नायास्त/स्नेयास्त)
उत्तमपुरुषः( स्नायासम्/स्नेयासम्)( स्नायास्व/स्नेयास्व) (स्नायास्म/स्नेयास्म)
लुङ्लकार(अद्यतन भूतकाल )
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः अस्नासीत् अस्नासिष्टाम् अस्नासिषुः
मध्यमपुरुषः अस्नासीः अस्नासिष्टम् अस्नासिष्ट
उत्तमपुरुषः अस्नासिषम् अस्नासिष्व अस्नासिष्म
लृङ्(भविष्यत्)
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः अस्नास्यत् अस्नास्यताम् अस्नास्यन्
मध्यमपुरुषःअस्नास्यः अस्नास्यतम् अस्नास्यत
उत्तमपुरुषः अस्नास्यम् अस्नास्याव अस्नास्याम
स्नान कराकर वपन( वपतिस्मा कराने वाले परम्परागत जनसमुदाय को स्नापितकहा जाता था कालान्तरण में यह शब्द केवल नापित के रूप में रह गया । ये शुद्धि करण का अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मण द्वेष के कारण शूद्र रूप में परिणति हो गये। और इन्हें चालाकी से ब्राह्मण समुदाय ने अपनी अवैध सन्तान घोषित होने के विधान बनाए हैं।
वर्णसङ्करजातिविशेषः । स तु पट्टिकार्य्यां कुवेरिणो जातः । इति पराशरपद्धतिः ॥ शूद्रायां क्षत्त्रियाज्जातः ।
इति विवादार्णवसेतुः ॥
पाराशर स्मृति में लिखा है कि शुद्रा के गर्भ से ब्राह्मण द्धारा उत्पन्न संतान का यदि ब्राह्मण द्धारा संस्कार न हुआ हो तो वह नापित कहलाता है। पराशर के अनुसार कुबेरी पुरुष और पट्टिकारी स्त्री के संयोग से नापितों की उत्पत्ति हुई। ये दोनों ही मत विरोधाभाी होने से मिथ्या व शास्त्र सिद्धान्त के विपरीत होने से खारिज ही हैं।
अथर्ववेद में वरन सूक्त में सविता स्नापित का वाचक है।
ऋषि: - अथर्वा
देवता - सविता, आदित्यगणः, रुद्रगणः, वसुगणः
छन्दः - चतुष्पदा पुरोविराडतिशाक्वरगर्भा जगती
सूक्तम् - वपन सूक्त
देव. १ सविता, आदित्याः, रुद्राः, वसवः, २ अदितिः, आपः, प्रजापतिः, ३ सविता, सोमः, वरुण-। १ पुरोविराड्तिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, २ अनुष्टुप्, ३ अतिजगतीगर्भा त्रिष्टुप्। |
आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि ।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥१॥
अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा ।
चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे॥२॥
येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमान् अश्ववान् अयमस्तु प्रजावान्॥३॥
आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेनऌ वायु उदकेनेहि। आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः ।68/1।
आ । अयम् । अगन् । सविता । क्षुरेण । उष्णेन । वायो इति ।उदकेन । आ । इहि । आदित्या:। रुद्रा: । वसव: । उन्दन्तु । सऽचेतस:। सोमस्य । राज्ञ: । वपत । प्रऽचेतस: ॥६८.१॥
(अयम्) यह (सविता) स्नापित। नापित (क्षुरेण) छुरा के द्वारा (आ- अगन्) आया है, (वायो) हे वायु ! (उष्णेन) तप्त [तत्ते] (उदकेन) गर्म जल के द्वारा (आ इहि) आओ।(आदित्याः) आदित्य गण, (रुद्राः)रूद्रगण(वसवः) वसु गण ़(सचेतसः) सचेत (उन्दन्तु) भिगोवें, (प्रचेतसः) प्रकृष्ट ज्ञानवाले पुरुषो ! तुम (सोमस्य) शान्तस्वभाव (राज्ञः) प्रकाशित बालक का (वपत=वपयत) मुण्डन कराओ ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अयम्) दृश्यमानः (आ अगन्) आगमत्। आगतवान् (सविता) स्नापित: नापितः (क्षुरेण) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति क्षुर विलेखने−रन्, रेफलोपः। लोमच्छेदकेनास्त्रेण (उष्णेन) तप्तेन (वायो) हे शीघ्रगामिन् पुरुष (उदकेन) जलेन (आ इहि) आगच्छ (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (रुद्राः) अ० २।२७।६। ज्ञानदातारः (वसवः) श्रेष्ठा जनाः (उन्दन्तु) आर्द्रीकुर्वन्तु। माणवकस्य शिर इति शेषः (सचेतसः) समानज्ञानाः (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनो माणवकस्य (वपत) वपयत। मुण्डनं कारयत (प्रचेतसः) प्रकृष्टज्ञानाः पुरुषाः ॥
अदिति: । श्मश्रु। वपतु । आप: । उन्दन्तु । वर्चसा । चिकित्सतु । प्रजाऽपति: । दीर्घायुऽत्वाय । चक्षसे ॥६८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(अदितिः) अखण्डित छुरा (श्मश्रु) केश (वपतु) काटे (आपः) जल (वर्चसा) अपनी शोभा से (उन्दन्तु) सींचे। (प्रजापतिः) सन्तान का पालन करनेवाला पिता (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन के लिये और (चक्षसे) दृष्टि बढ़ाने के लिये (चिकित्सतु) [बालक के] रोग की निवृत्ति करे ॥२॥
टिप्पणी -
२−(अदितिः) अ० २।२८।४। दो अवखण्डने−क्तिन्। अखण्डितस्तीक्ष्णधारश्छुरः (श्मश्रु) अ० ५।१९।१४। श्म शरीरम् श्मश्रु लोम, श्मनि श्रितं भवति। निरु० ३।५। शिरः केशम् (वपतु) मुण्डतु (आपः) जलानि (उन्दन्तु) सिञ्चन्तु स्नानेन (वर्चसा) तेजसा (चिकित्सतु) कित रोगापनयने। भिषज्यतु बालकस्य रोगनिवृत्तिं करोतु (प्रजापतिः) सन्तानपालकः पिता (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (चक्षसे) अ० १।५।१। दृष्टिवर्धनाय ॥
अथर्ववेद-(काण्ड » 6) (सूक्त » 68) (मन्त्र »1)
विषय - मुण्डन संस्कार का उपदेश।
पदों का अर्थ -
(अयम्) यह (सविता)षुञ्- अभिषवे-सु+ कर्तरि तृच्-सवितृ-स्नापित- यज्ञ स्नान कराने वाला। स्नापित (क्षुरेण) छुरा सहित (आ अगन्) आया है, (वायो) हे शीघ्रगामी पुरुष ! (उष्णेन) तप्त [तत्ते] (उदकेन) जलसहित (आ इहि) तू आ। (आदित्याः) अदितिपुत्रा:) रूद्राः)रूद्रगण (वसवः) वसुगण पुरुष (सचेतसः) एकचित्त होकर [बालक के केश] (उन्दन्तु) भिगोवें, (प्रचेतसः) प्रकृष्ट चेतना वाले पुरुषो ! तुम (सोमस्य) सोम का (राज्ञः) राजा का (वपत=वपयत) मुण्डन कराओ ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अयम्) दृश्यमानः (आ अगन्) आगमत्। आगतवान् (सविता) नापितः (क्षुरेण) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति क्षुर विलेखने−रन्, रेफलोपः। लोमच्छेदकेनास्त्रेण (उष्णेन) तप्तेन (वायो) हे शीघ्रगामिन् पुरुष (उदकेन) जलेन (आ इहि) आगच्छ (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (रुद्राः) अ० २।२७।६। ज्ञानदातारः (वसवः) श्रेष्ठा जनाः (उन्दन्तु) आर्द्रीकुर्वन्तु। माणवकस्य शिर इति शेषः (सचेतसः) समानज्ञानाः (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनो माणवकस्य (वपत) वपयत। मुण्डनं कारयत (प्रचेतसः) प्रकृष्टज्ञानाः पुरुषाः॥
नापित पुं।
क्षुरिः
समानार्थक:क्षुरिन्,मुण्डिन्,दिवाकीर्ति,नापित, अन्तावसायिन्,ग्रामणी।
2।10।10।1।4
क्षुरी मुण्डी दिवाकीर्ति नापितान्तावसायिनः। निर्णेजकः स्याद्रजकः शौण्डिको मण्डहारकः॥
(न आप्नोति सरलतामिति । न + आप् + “नञ्याप इट् च ।” उणां ३ । ८७ । इति तन् इट् च ।उणादिकोश-
गोब्राह्मणाग्नीनुच्छिष्ट पाणिना नैव संस्पृशेत्।।
न स्पृशेदनिमित्ते नखानि स्वानि त्वनातुरः।८७।
गो यद्यपि वैश्य वर्णीय पशु है। परन्तु बकरी से अधिक प्रभाव शाली होने के कारण बकरी को छोड़ ब्राह्मणों ने गाय को भी ब्राह्मण बनाने के विधान कालान्तर में शास्त्रों में जोड़ दिए।।
गो ब्राह्मण और अग्नि को सजातीय बनाकर प्रस्तुत किया गये। परन्तु गाय के पालक और सेवक गोपाल को शूद्र ही माना जो कि शास्त्रीय सिद्धान्तों की तौहीन है।। शास्त्रों में लिखे इस रह प्रकार के सिद्धान्त हीन तथ्यों को सिरे से खारिज कर देना चाहिए - यही धर्म मर्यादा है।
दास नापित गोपाल कुलमित्रार्धसीरिणः।।
भोज्यान्नाः शूद्रवर्गेमी तथात्मविनिवेदकः।१०५।
दास नाई, ग्वाले, पारिवारिक मित्र, अर्धशिरिन अर्घसीरिन्] अपने पारिश्रमिक के बदले में आधी फसल लेनेवाला । अधिया पर खेत जीतनेवाला कृषक ।- ये सभी शूद्र जाति के होते हुए भी भोजन खिलाए जाने योग्य हैं। इसी प्रकार वह भी जो स्वयं को समर्पित करता है। वह आत्मनिवेदक भी शूद्र वर्ग में हैं।
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