नारी के संदर्भ में कबीरदास का दृष्टिकोण तुलसी दास से पूर्णत: पृथक है। जहाँ कबीर वासना-व्यापिनी स्त्रीयों की ही निन्दा करते हैं और सात्वती तथा आध्यात्मिका स्त्रीयों की स्तुति भी करते हैं ।
परन्तु वहीं तुलसी ने तो केवल नारियों को भोग और प्रताणना तक ही सीमित मानकर उन्हें ढोल और पशु के समान प्रताड़ित(तड्=आघाते) करने का विधान पारित किया है।
यह उनकी मान्यता बुद्ध के परवर्ती काल में लिखीं स्मृतियों(धर्म शास्त्रों) और भोगवादी विचारधाराओं से प्रेरित थी। परन्तु तुलसी ने इसके अतिरिक्त अपना पूर्वदुराग्रह पक्षपात और विषमता मूलक वर्णव्यवस्था के स्थापन हेतु प्रदर्शित किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। किसी ब्राह्मण के व्यभिचारी और लम्पट होने पर भी उसकी पूजा का विधान भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं का सत्यानाश करना ही है ।
और तुलसी ने वही किया। आज भी बहुत से वे ब्राह्मण समुदाय के लोग जो स्वयं को बुद्धिजीवि और आधुनिक कहते हैं । वर्णव्यवस्था के पक्ष में होकर ब्राह्मण समाज द्वारा की गयी गलतियों को खारिज करने के मुड़ में नहीं होते हैं उल्टे ही शास्त्रों में लिखे शूद्र और महिला विरोधी तथ्यों की अपने स्वार्थ के अनुकूल अर्थ करने में लगे रहते हैं।
भारतीय जनमानस को नियंत्रित करने में धर्म की भूमिका काफी महत्वपूर्ण व केन्द्रीय रही है। भारतीय समाज, खासकर हिंदू समाज स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी धार्मिक रीतियों-नियमों व धर्मग्रंथों से ही निर्देशित होता है। हिंदू जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों में बँधा रहता है। ये संस्कार यह दर्शाते हैं कि हिंदू जीवन व हिंदू मानस पर धर्म का प्रभाव कितना गहरा है। कहने को तो आज हमारे पास संविधान है, जिसने सभी को समान रूप से सामाजिक व राजनीतिक अधिकार दे रखे हैं, किंतु सामाजिक संरचना में यह जमीनी हकीकत पर क्रियान्वित अगर नहीं हो पा रहा है , तो उसका एक बड़ा कारण सामाजिक संरचना पर धर्म का प्रभाव व उसके धर्मग्रंथों में उल्लेखित नियमों द्वारा निर्देशित होना है।
हिंदू धर्म को निर्देशित करने वाले ग्रंथों में ‘ मनुस्मृति’ भूमिका सबसे प्रमुख है। यह ग्रंथ भारत का पहला लिखित संविधान माना जाता है। इस ग्रंथ की सामाजिक व्याप्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय वर्णाश्रम पद्धति को बरकरार रखने में इसकी केन्द्रिय भूमिका है। ब्राह्मणों को श्रेष्ठ स्थिति प्रदान करने से लेकर शूद्रों को मानसिक व भौतिक स्तर पर गुलाम बनाये रखने में इसके नियमों-कायदों का बहुत बड़ा हाथ है।
एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सा स्मृताङ्गना। ९.४५। मनुस्मृति अध्याय अध्याय( 9)
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत्।९.३१७।
श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते ।९.३१८।
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु ।
सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्।३१९। मनुस्मृति अध्याय (9)
यही श्लोक महाभारत में भी हैं परन्तु आर्यसमाजी मनुस्मृति के श्लोक तो प्रक्षिप्त बताते हैं महाभारत क्यों नहीं बताते हैं ये भी प्रक्षिप्त हैं।
अविद्वान्ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत्।
विद्वान्भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसन्निभः।20।
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत्।।21।
श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हविर्यज्ञे च विधिवद्भूय एवाभिशोभते।।22।
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु।
सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम्।।23।
श्रीमन्महाभारत अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः। 256।
अब महाभारतकार एक तरफ तो अहीरों की कन्या गायत्री के विषय में वर्णन करता है कि
गायत्री सम्पूर्ण वेदों का प्राण कहलाती है ।
गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है गायत्री के बिना
सम्पूर्ण वेद निर्जीव हैं ।👇
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत वैष्णव
धर्मपर्व पृष्ठ संख्या -6320👇
तस्मात् तु सर्ववेदानां गायत्री प्राण उच्यते ।
निर्जीवा हीतरे वेदा विना गायत्र्या नृप।।
___________________
महाभारत में एक स्थान रर वर्णन है
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।21।
अर्थ;-कि ब्राह्मण विद्या हीन होने पर भी देवता के समान और परम पवित्र पात्र माना गया है। जैसे अग्नि सर्वत्र महत्( पूज्य)होती है। फिर जो विद्वान है उसके लिए तो कहना ही क्या
वह महान देवता के समान है और भरे हुए
महासागर के समान सदगुण संपन्न है👇
(महाभारत अनुशासनपर्व के दानधर्मपर्व)
पृष्ठ संख्या -6056 गीताप्रेस)..
महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: मे ठीक इसके विपरीत कथन है।
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत्।
अपि शूद्रं च धर्मज्ञं सद्वृत्तमभिपूजयेत्।११। (48)
अनुवाद:-ऊंची जाति का मनुष्य भी यदि उत्तमशील अर्थात आचरण से हीन हो तो उसका सत्कार( पूजा) न करें और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर( पूजा) करनी चाहिये।११।
आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः
सुशीलचारित्रकुलैः शुभाशुभैः।
प्रनष्टमप्यात्मकुलं तथा नरः
पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मतः।48।
अनुवाद:-
मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुल के द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाश में ला देता है।48।
योनिष्वेतासु सर्वासु सङ्कीर्णास्वितरासु च।
यत्रात्मानं न जनयेद्बुधस्तां परिवर्जयेत्।49।
अनुवाद:-
इन सभी उपर बतायी हुई नीच योनियों में तथा अन्य नीच जातियों में भी विद्वान पुरुष को संतानोत्पति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्याग करना ही उचित है।49।
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण अनुशासन पर्व अध्याय(48) बम्बई संस्करण अध्याय(83) 3-7
___________________
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-10 का हिन्दी अनुवाद
महाभारत, मनुस्मृति, अंगों सहित चारों वेद और आयुर्वेद शास्त्र- ये चारों सिद्ध उपदेश देने वाले हैं, अत: तर्क द्वारा इनका खण्डन नहीं करना चाहिये। धर्म को जानने वाले पुरुष को देव सम्बन्धी कार्य में ब्राह्मणों की परीक्षा करने से यजमान की बड़ी निन्दा होती है। ब्राह्मणों की निन्दा करने वाला मनुष्य कुत्ते की योनि में जन्म लेता है, उस पर दोषारोपण करने से गदहा होता है और उसका तिरस्कार करने से कृमि होता है तथा उसके साथ द्वेष करने से वह कीड़े की योनि में जन्म पाता है। ब्राह्मण चाहे दुराचारी हों या सदाचारी, संस्कारहीन हों या संस्कारों से सम्पन्न, उनका अपमान नहीं करना चाहिये; क्योकि वे भस्म से ढकी हुई आग के तुल्य हैं।
बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि क्षत्रिय, सांप और विद्वान ब्राह्मण यदि कमज़ोर हों तो भी कभी उनका अपमान न करें। क्योंकि वे तीनों अपमानित होने पर मनुष्य को भस्म कर डालते हैं। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को प्रयत्नपूर्वक उनके अपमान से बचना चाहिये। जिस प्रकार सभी अवस्थाओं में अग्नि महान देवता हैं, उसी प्रकार सभी अवस्थाओं में ब्राह्मण महान देवता हैं। अंगहीन, काने, कुबड़े और बौने- इन सब ब्राह्मणों को देवकार्य में वेद के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों के साथ नियुक्त करना चाहिये। उन पर क्रोध न करे, न उनका अनिष्ट ही करे; क्योंकि ब्राह्मण क्रोधरूपी शस्त्र से ही प्रहार करते हैं, वे शस्त्र हाथ में रखने वाले नहीं हैं। जैसे इन्द्र असुरों का वज्र से नाश करते हैं; क्योंकि ब्राह्मण जाति मात्र से ही महान देवभाव को प्राप्त हो जाता है।
कुन्तीनन्दन! सारे प्राणियों के धर्मरूपी खजाने की रक्षा करने के लिये साधारण ब्राह्मण भी समर्थ हैं, फिर जो नित्य संध्योपासन करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या है? जिसके मुख से स्वर्गवासी देवगण हविष्य का और पितर कव्य का भक्षण करते हैं, उससे बढ़कर कौन प्राणी हो सकता है? ब्राह्मण जन्म से ही धर्म की सनातन मूर्ति है। वह धर्म के लिये ही उत्पन्न हुआ है और वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होने में समर्थ है ब्राह्मण तो अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। दूसरे मनुष्य ब्राह्मण की दया से ही भोजन पाते हैं। अत: ब्राह्मणों का कभी अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे सदा ही मुझमें भक्ति रखने वाले होते हैं। जो ब्राह्मण बृहदारण्यक- उपनिषद में वर्णित मेरे गूढ़ और निष्फल स्वरूप का ज्ञान रखते हैं, उनका यत्नपूर्वक पूजन करना।
पाण्डुनन्दन! घर पर या विदेश में, दिन में या रात में मेरे भक्त ब्राह्मणों की निरन्तर श्रद्धा के साथ पूजा करते रहना चाहिये ब्राह्मण के समान कोई देवता नहीं है, ब्राह्मण के समान कोई गुरु नहीं है, ब्राह्मण से बढ़कर बन्धु नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर कोई खजाना नहीं है। कोई तीर्थ और पुण्य भी ब्राह्मण से श्रेष्ठ नहीं है। ब्राह्मण से बढ़कर पवित्र कोई नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर पवित्र करने वाला कोई नहीं है। ब्राह्मण से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं और ब्राह्मण से उत्तम कोई गति नहीं है। पाप कर्म के कारण नरक में गिरते हुए मनुष्य का एक सुपात्र ब्राह्मण भी उद्धार कर सकता है।
______________
खेर कबीर ने स्त्रीयों के विषय में क्या कहा यह भी जान लें
शास्त्रों का सार है " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला:" जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवता रहते हैं और जहाँ पर नारी का अपमान होता है वहां तमाम तरीके से पूजा पाठ के बाद भी देवता निवास नहीं करते हैं। लेकिन निराशा का विषय है की जो कबीर समाज में व्याप्त धार्मिक कर्मकांड, हिन्दू मुस्लिम वैमनष्य, पोंगा पंडितवाद, भेदभाव और कुरीतियों का विरोध करते हुए एक समाज सुधारक की भूमिका में नजर आते हैं वो स्त्री के बारे में निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं रख पाए।
शायद इसका कारन उस समय के समाज के हालात रहे होंगे जो पुरुष प्रधान था। अथवा अज्ञान और गुलामी की जञ्जीरों में जोड़ी हुई नारी कि सामाजिक स्थिति-
मध्यकालीन कवियों ने नारी को दोयम दर्जे में रख कर उसका अस्तित्व पुरुष की सहभागी, सहचारिणी सहगामिनी तक ही सीमित कर रखा था।
नारी को कभी भी स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में चित्रित नहीं किया गया यह तो शास्त्रों की उपजीव्यता है।
कबीर के विचार हर युग और काल में प्रासंगिक रहे हैं। वर्तमान समय के विश्लेषण से ज्ञात होता है की छह सौ साल बाद भी कबीर के विचार प्रासंगिक हैं। भले ही साम्प्रदायिकता, धार्मिक कर्मकांड, और समाज में व्याप्त भेदभाव हो, कबीर के विचार प्रासंगिक हैं।
कबीर के अनुसार दो तरह की नारियों के दो रूप होते हैं । जैसा कि पुरुषों के भी दो रूप होते हैं
एक नारी तो साधना में बाधा नहीं पहुँचाती है और स्वयं साधिका अथवा साध्वी होती है वही पतिव्रता भी होती है और दूसरी नारी जो साधना में अवरोध पैदा करती है भौतिक आकाँक्षाओं से व्याप्त होती है। उसे कबीर ने साध्वी को स्वीकार और भौतिकवादी नारी का बहिष्कार किया है।
जिससे ज्ञात होता है की मूलतः कबीर नारी विरोधी नहीं थे। कबीर का मानना था की उपासना और ध्यान में नारी का त्याग आवश्यक है। कबीर ने ना तो हर जगह नारी की स्तुति की है और ना ही हर जगह भर्त्सना ही उन्होंने मध्यम मार्ग को चुना है।
कबीर के नारी संबधी विचारों में एक बात और निकल कर आती है वो है, पुरुष प्रधान समाज का अहम्। ये अहम् ही है जो नारी को मायावी, पुरुषों को जाल में फांसने वाली और ठगिनी ठहराता है। ये बाते कबीर को सन्तों की शास्त्रीय परम्पराओं से प्राप्त हुईं ।
स्त्री के मात्र कामिनी कहना उसके शरीर की व्याख्या हो सकती है लेकिन स्त्री भी एक स्वंतंत्र व्यक्तित्व होता है, जिसे मध्यकालीन कवियों ने नजरअंदाज किया है। धर्म के साथ नारी का क्या विरोध है, समझ से परे है लेकिन ये तो सत्य है की जो भी व्यक्ति धर्म से जुड़ा है वो थोड़ा बहुत नारी के विरोध में तो होता ही है। जबकि सारी कमी उसी व्यक्ति की होती है। जो
स्वयं नारी को उपभोग की दृष्टिकोण से देखता है
क्या नारी सिर्फ पुरुष की सेवा के लिए है ? क्या उसे हरदम घर में घुट कर रहना चाहिए ? ये कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर पुरुष प्रधान भक्तिकालीन कवियों ने मूल्यांकन में चूक की है। क्यों उन्हने
ये शास्त्रीय परम्पराओं का पालन किया इसलिए परन्तु शास्त्र भी पुरुषों ने ही अपने कल्याण के लिए लिखे। और महिलाओं का कल्याण उन्होंने पुरुषों के द्वारा उपभोगत्व में निहित कर दिया।
कबीर ने केवल फूअड़ और मूढ़मति स्त्री को नरक का कुण्ड, काली नागिन, कूप समान, माया की आग, विषफल, जगत की जूठन, खूँखार सिंहनी, आदि उपमाओं से नवाजा परन्तु साध्वी यो
के प्रति कबीर का दृष्टिकोण कोण सकारात्मक ही था।
कुछ दोहे जो नारी के विषय में कबीर के विचार प्रदर्शित करते हैं व्याख्या सहित निम्न हैं :-
पतिबरता मैली भली, काली कुचिल कुरुप
पतिबरता के रुप पर बारौं कोटि स्वरुप।
अर्थ:-
ऐसी नारी जो अपने पति के प्रति समर्पित हो, पतिव्रता हो वो भले ही मैली कुचैली हो, कुरूप हो श्रेष्ठ है, ऐसी पतिव्रता नारी को कबीर नमन करते हैं। यहाँ कबीर ने नारी जो पक्ष रखा है वो नारी अस्मिता के पक्ष में है। नारी के रूप पर ना जाकर उसके गुणों की तारीफ की है जो की एक पुरुष या नारी के मूल्याङ्कन का आधार है। यद्यपि पुरुष की दृष्टि में नारी सौन्दर्य उसकी कोमलता और वाणी का तारत्व( तारसप्तक के स्वर) ही हैं पुरुष की प्रवृति में पुरुषता( कठोरता) है। और वाणी में भी मन्द्रता( भारी और मोटापन) कबीर ने कहा कि
"नारी निन्दा ना करो, नारी रतन की खान
नारी से नर होत है, ध्रुब प्रहलाद समान।
कबीर ने नारी का पक्ष रखते हुए कहा है की नारी की निंदा नहीं की जानी चाहिए, नारी से ही रत्न पैदा होते हैं, ध्रुव और प्रह्लाद जैसे नर भी नारी ने ही पैदा किये हैं।
नारी नरक ना जानिये, सब सन्तन की खान
जामे हरिजन उपजै, सोयी रतन की खान।
अर्थ:-
उपरोक्त दोहे में कबीर का कहना है की नारी को नरक मत समझो। नारी से ही सभी संत पैदा हुए हैं। भगवत पुरुषों की उत्पत्ति नारी से हुयी है इसलिए वो रत्नो की खान है।
कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फंद
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूॅ मै बंद।
अर्थ:-
कलयुग में नारी और धन व्यक्ति को अपने फंदे में बाँध लेते हैं। माया और स्त्री को यहाँ एक समान बताया गया है जहाँ दोनों ही व्यक्ति को अपने फंदे में फंसा लेते हैं। जो व्यक्ति इन दोनों फंदों से बच जाता हैं उसके हृदय में ईश्वर वास करते हैं। यहाँ नारी को मायावी बताया है और उस नारी के बारे में कहा गया है जो साधना में बाधा डालती हो।कबीर का यहाँ तमोगुणी नारि की ओर संकेत है।
नागिन के तो दोये फन, नारी के फन बीस
जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस।
अर्थ:-
नागिन के दो फन होते हैं लेकिन नारी के बीस फन होते हैं, नारी का डसा हुआ कोई भी जीवित नहीं बचता है। बीस के बीस लोग मर जाते हैं।
चलो चलो सब कोये कहै, पहुचै बिरला कोये
ऐक कनक औरु कामिनि, दुरगम घाटी दोये।
अर्थ:-
सब लोग ईश्वर की प्राप्ति हेतु चलो चलो कहते हैं, मुक्ति की और अग्रसर होते हैं, लेकिन माया और नारी इसमें बाधा हैं। माया और नारी दो ऐसी दुर्गम घाटियां हैं जिनको पार करके ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। नारी और माया के साथ ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं हैं।
छोटी मोटी कामिनि, सब ही बिष की बेल
बैरी मारे दाव से, यह मारै हंसि खेल।।
अर्थ:-
नारी चाहे कमजोर हो या फिर बलवान दोनों ही विष की बेल हैं। दुश्मन दाव से मारता है जबकि नारी हंस खेल कर ही व्यक्ति को समाप्त कर देती है।
कामिनि काली नागिनि, तीनो लोक मंझार
राम सनेही उबरै, विषयी खाये झार।
अर्थ:-
कामिनी स्त्री काली नागिनी की तरह से होती है जो तीनो लोकों में रहती हैं। भगवान के भक्त ही इससे बच सकते हैं और लोगों को ये विष से मार देती हैं।
कपास बिनुथा कापड़ा, कादे सुरंग ना पाये
कबीर त्यागो ज्ञान करि, कनक कामिनि दोये।
अर्थ:-
गंदे कपास से कपडे को रंगा नहीं जा सकता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए माया और स्त्री का त्याग आवशयक है।
कबीर मन मृतक भया, इंद्री अपने हाथ
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ।
अर्थ:-
यदि किसी का मन उसके वश में है, इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण है तब भी उसको माया और स्त्री का साथ नहीं करना चाहिए। माया और स्त्री किसी को भी अपने वश में करके ईश्वर की भक्ति मार्ग से विचलित कर सकते हैं।
कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत
केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत।
अर्थ:-
नारी के संग से अनेक लोग नरक में पहुंच चुके हैं और नारी संगती करने वाले कई और लोग भी हँसते हँसते नरक के भागी होंगे।
पर नारी पैनी छुरी, मति कौई करो प्रसंग
रावन के दश शीश गये, पर नारी के संग।
अर्थ:-
पर नारी का संग नहीं करना चाहिए। पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, पर नारी के संग करने से रावण के दस सर भी चले गए, रावण का अंत हो गया।
परनारी पैनी छुरी, बिरला बंचै कोये
ना वह पेट संचारिये, जो सोना की होये।
अर्थ:-
पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, उसके वार से कोई विरला ही बच पाता है। पर नारी को हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए क्योंकि वह कभी भी घात कर सकती है। वो कितनी भी सुन्दर या सोने की ही क्यों ना हो उससे दूर ही रहना चाहिए।
नारी निरखि ना देखिये, निरखि ना कीजिये दौर
देखत ही ते बिस चढ़ै, मन आये कछु और।
अर्थ:-
नारी को गौर से कभी मत देखो और ना ही उसके पीछे दौड़ो, उसका संग मत करो, क्यों की नारी को देखते ही मन में अनेकों प्रकार के विषय विकार आने लगते हैं और व्यक्ति अपने मार्ग से विचलित हो जाता है।
कामिनि सुन्दर सर्पिनी, जो छेरै तिहि खाये
जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये।
अर्थ:-
नारी के सुन्दर सर्पिणी की तरह से होती है, उसे छेड़ने, उसका संग करने से, वह काट खाती है। इस व्यक्ति ने अपना स्थान हरी चरण में रखा है उसके निकट वो सर्पिणी नजदीक नहीं जाती है।
नारी काली उजली, नेक बिमासी जोये
सभी डरे फंद मे, नीच लिये सब कोये।
अर्थ:-
नारी कैसी भी हो कालीया सुन्दर वो हमेशा वासना के फंदे में पुरुष को बाँध देती है। समझदार व्यक्ति वासना के इस फंदे से दूर रहता है और नीच पुरुष हमेशा नारी को साथ रखता है।
कबीर जी के दोहे जितने सरल उतने ही गहरे अर्थ रखते है। उन्होंने अपने दोहों में कनक और कामिनी का वर्णन किया है, जितना मुझे समझ आया उन्होंने कनक का अर्थ स्वर्ण से लिया है और स्वर्ण मन में लालच पैदा करता है। और कामिनी का अर्थ कामवासना से है। मन में लालच और मन में कामवासना, स्त्री या पुरुष किसी के भी हो सकते हैं। और जहँ उन्होंने नारी का वर्णन किया वहां साथ में पर शब्द का इस्तेमाल भी किया हुआ है। पर-दूसरी/दूसरा।
गुरु कबीर जी के दोहे पुरुष या स्त्री को संबोधित कर के नहीं अपितु मन को संबोधित कर के कहे गए हैं। केवल समझ का फेर है।
आपने सही तथ्य को समझा ही नहीं। अध्यात्म की राह में लोभ और काम सबसे बड़े शत्रु हैं। नारी की सभी शास्त्रों में मातृ रूप में वंदना की गई है और कामिनी के रूप में निंदा। जो मनुष्य स्त्री को कामिनी के रूप में देखता है उसका पतन निश्चित है। और जो स्त्रियों को मातृ रूप देखता है उसका पतन हो नहीं सकता।
कबीर के दोहे (1)- नारी नदी अथाह जल, जामें डूब मरा संसार! ऐसा साधु ना मिला, जासंत उतारे पार !!
कबीर के दोहे (2)-नारी है अमृत की खानी, तासे उपजे सुर मुनि ज्ञानी !!
२ नारी है नरक की खानि, तासेबचाहु हो गुरू ज्ञानी।।
ये ठीक है लेकिन समझना चाहिय् की नारी ही हमेशा कामिनि नहीं होती नर भी कमीना होता है।
कबीर साहेब जी ने स्त्री और पुरुष दोनों को समान बताया हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें