सोमवार, 2 जनवरी 2023

मनुमृति के क्षेपक-


"मनुस्मृति के क्षेपक"

मेघातिथि आदि ने जो मनु स्मृति के भाष्य किये हैं। वे सब के सब इसी सम्प्रति मनुस्मृति के है।
कुछ पाठ-भेद अवश्य है। श्लोकों में भेद भी है। बहुत से ऐसे श्लोक हैं जो मेघातिथि तथा कुल्लूक आदि के भाष्यों में नहीं मिलते और पीछे के भाष्यों में इनका उल्लेख है।
कुछ ऐसे भी श्लोक हैं जो पीछे से निकल गये हैं। इस प्रकार हस्ताक्षेप तो इधर भी रहा है |
और न सिद्धान्तों में कुछ बहुत भारी उलट फेर ही है। महात्मा बुद्ध से कुछ पहले जब  वैदिक धर्म में विकराल विकृति उत्पन्न हो गई थी |
और महात्मा बुद्ध के कुछ पीछे जब अवैदिक बौद्ध धर्म और वैदिक पौराणिक धर्म में घमासान युद्ध हुआ।

भिन्न उद्देश्य रखने वाले साम्प्रदायिक विद्वान् मनमानी  कर लिखते रहे। जहाँ जिसने जो चाहा मिला दिया और जहाॅ से जो चाहा निकाल दिया। इसने वैदिक सिद्धान्तों में बडी गडबड़ी मचा दी। क्या मनुस्मृति मे क्षेपक हैं ?

कोई निष्पक्ष विद्वान् इसको मानने में संकोच नहीं कर सकता।
इसके प्रमाण अतीव हैं। सम्भव है कि इस विषय में मतभेद हो कि कितना क्षेपक है और कितना मौलिक।
सब से पहली बात तो यह है कि परस्पर विरोध बहुत है जिसको भाष्यकारों की प्रतिभासम्पन्न आलोचना भी दूर नही कर सकी।
यद्यपि मनु भारतीय धरा पर नहीं जन्मे
क्यों कि ग्रीक , मिश्र तथा सुमेरियन तथा कैल्ट व जर्मनीय जन- जातियाँ मनु का अपने पूर्व पुरुष के रूप में वर्णन करती हैं।


फिर यहाँ जो मनु स्मृत मनु के नाम पर लिखी गयी उसमें ब्राह्मण वाद का वर्चस्व स्थापित करने के लिए शुद्रों के दमन और बन्धन के लिए ही विधान बनाए गये । जो शूद्र शब्द पूर्णत: यूरोपीय ही है ।

हम यहाँ कुछ का उल्लेख करते हैं।
सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।
कामतस्त प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः।।
शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते। ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः।। यहाँ ब्राह्मण को शूद्र भार्या से विवाह करने का पूरा अधिकार है।
अपनी वासना पूर्ति के लिए
परन्तु इससे अगले ही श्लोक में बल-पूर्वक इसका निषेध किया गया हैः-
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः। कस्मिश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्ययोपदिश्यते।। इसके आगे चार श्लोक हैं |
जिनमें इसी बात पर बल दिया गया है कि कोई द्विज अपने से नीच वर्ण की स्त्री से विवाह न करे यहाँ  तक कि आपत्काल में भी इसकी आज्ञा नहीं है।
कुल्लूक लिखते हैं कि ”ब्राहम्णक्षत्रिययोर्गार्हस्थ्यमिच्छतोः
सर्वथा सवर्णालाभे कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते इतिहासाख्यानेऽपि शूद्रा भाय्र्यां नाभिधीयते।”
अब यहाँ दो विरोधों का समन्वय साथ साथ है । पिछले छः श्लोक जो वर्तमान मनुस्मृति के
3/14-19 श्लोक हैं !
उस समय की लेखन है जब जाति बन्धन कडे़ हो गये और शूद्रों को सर्वथा त्याज्य ठहराया जा चुका।
यदि मनुस्मृति के ये मौलिक श्लोक होते तो इतना विरोध हो नही सकता था।
(2) मनु 3।21 में आठ प्रकार के विवाह सम्बन्धों का उल्लेख है:-
ब्राहमणो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः। गान्धर्वों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।
अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य,आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच।
इसके पश्चात 3।26 से 3।34 तक इनके लक्षण दिये हैं।
फिर 3।39 से 3।42 तक यह बताया है कि पहले चार अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, श्रेष्ठ और “शिष्टसम्मत” है, शेष चार विवाह कुत्सित हैं। उनकी सन्तान भ्रष्ट और ब्रहम्धर्म दूषित ” होती है। इसलिये चार प्रारम्भ के अनिन्द्य अर्थात चार प्रकार के विवाहों की ही आज्ञा है। शेष चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच “निन्द्य“ है।
इसलिये “निन्द्यान् विवर्जयेत्“ इनको नहीं करना चाहिये।
स्वामी दयानन्द ने इन आठ विवाहों के विषय में यह सम्मति दी हैः-
“इन सब विवाहो में ब्राह्मण विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष, आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है।
परन्तु नीचे के श्लोक सर्वथा विरूद्ध है:- षडानुपूव्र्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुराऽवरान्। विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद् धम्र्यानराक्षसान्।। (मनु0 3।23)
यहाॅ पहले छः अर्थात ब्राह्म देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर और गान्धर्व को ब्राह्मणों के लिये धर्मानुकूल बताया।
पिछले चार अथार्त् असुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच को क्षत्रियों के लिये “धर्म” बताया। वैश्य और शूद्रों के लिये राक्षस विवाह को छोडकर असुर, गान्धर्व, और पैशाच कों धर्म ठहराया गया।
यह बात न केवल 3।49 से ही सर्वथा विरूद्ध है, किन्तु आश्चर्य-जनक भी है । क्षत्रियों को पहले चार विवाहों की आज्ञा क्यों नही ? उनको शेष चार की क्यों है ? ‘पैशाच’ विवाह में क्या गुण, हैं कि क्षत्रियों के लिये यह अच्छा है और वैश्य तथा शूद्रों के लिये बुरा । कोई बुद्धिमान पुरूष पैशाच विवाह को किसी के लिये भी अच्छा नही बता सकता।
फिर क्षत्रिय राजाओं पर क्या कृपा हो गई कि उनके विवाह के लिये कोई नियम ही नहीं रक्खा गया।
सभी कुछ विहित बता दिया गया। क्या इसके क्षेपक होने में कोई सन्देह हो सकता है ? कही किसी राजा के उत् श्रृंखल व्यवहार को ’धर्म’ बताने के लिये ही तो यह करतूत नहीं की गई ? फिर गान्धर्व विवाह तो व्यभिचार से कम नहीं।
परन्तु इसकी ब्राह्मणों को छोडकर सभी को आज्ञा है।
राजा दुष्यन्त जब शकुन्तला पर आसक्त हो जाता है तो वह मनुस्मृति का प्रमाण देकर ही एकान्त प्रसंग  करने के लिये उसको बाधित करता  है।
राजा लोग मनुस्मृति के इस हथियार को पाकर क्या कुछ नही कर सकते ? यही नहीं ।
इससे अगला श्लोक तो इसके भी विरूद्ध हैः- चतुरो ब्राहम्णस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयोविदुः।
राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः।। विद्वानों का कहना है कि पहले चार विवाह ब्राह्मण के लिये प्रशस्त है।
क्षत्रिय के लिये एक राक्षस विवाह । वैश्य और शूद्र के लिये एक असुर विवाह है, यह सभी बाते कैसे ठीक हो सकती हैं। राक्षस विवाह में क्या विशेषता है कि यह एक ही क्षत्रिय के लिये प्रशस्त बताया गया । इससे अगले दो श्लोक भी देखिये:-
पञ्चानां तु त्रयो धम्र्या द्वावधम्र्यौ स्मृताविह।
पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।।
पृथक् पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ। गान्धर्वौ राक्षसश्वैव धम्र्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ।। कभी कुछ और कभी कुछ। काई बुद्धिमान् पुरूष ऐसी बहकी बहकी बाते न कहेगा।
थोडा- सा भी देने से विदित होता है कि 3।23 से लेकर 3।26 तक पाँच श्लोक मिला दिये गये आठ विवाहों के नाम बताकर उनका लक्षण बताना स्वाभाविक बात थी।
इसके बीच में ’धर्म‘ और ‘अधर्म’ विवाहों को गिना बैठना जब कि 3।41-42 में ’अनिन्द्य‘ और ‘निन्द्य’ विवाहों को फिर बताना था न केवल अस्वाभाविक ही नहीं किन्तु अयुक्त भी  है। इसी प्रकार 3।36,37,38 भी बेतुके श्लोक जोडे गये हैं।
और उनमें इक्कीस इक्कसी पीढियों के तरने की मन को लुभाने वाली बातें बताई गई हैं।
यह मिलावट ऐसा पैबन्द है ! जो दूर से चमकती है रफूगरी ऐसी भद्दी रीति से की गई है कि समस्त कपडा भद्दा दीखने लगता है। (3) अध्याय 9 के 59 से 63 श्लोक तक चार श्लोको, में ”नियोग” की आज्ञा है!
और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि ”नियोग विधि“ को त्यागकर जो अन्यथा व्यवहार करते हैं वे पतित हो जाते हैं।
नियोग पृथा यहूदीयों मे प्रचलित पद्यति है !
परन्तु 64 से 67 तक नियोग का निषेध है।
59 से 69 तक ये ग्यारह श्लोक पढने से तुरन्त ही पता चल जाता है कि कुछ दाल में काला है। महाशय पी0 वी0 काणे कहते हैंः-
In one breath Manu seems to permit niyoga (9.59-63) and immediately afterwards he strongly reprobates it .(9.64-69).
66 वें श्लोक में वेन राजा की कथा देने से भी यही प्रकट होता है कि पीछे से यह श्लोक जोड दिये गये।
(4) अध्याय 5।48-50 में मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध हैः-
नाकृत्व प्राणिनां हिसां मांसमुत्पद्यते कक्चित्। न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान् मांस विवर्जयेत्।। समुत्पत्ति च मांसस्य वध वन्धौ चे देहिनाम्।। प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।
यहाँ न केवल मांस का निषेध ही है, किन्तु प्रबल युक्ति दी गई अर्थात बिना प्राणियों की हिंसा किये मांस मिलता ही नही और प्राणियो की हिंसा स्वर्ग का साधन नहीं इसलिये मांस वर्जनीय भी हैं।
इस युक्ति के अनुसार न केवल साधारण मांस भक्षण का ही निषेध है, किन्तु यज्ञ में भी मांस डालना या खाना निन्दित है !
क्योकि यज्ञ में बलि देने से भी तो प्राणियों की हिंसा होती है। फिर आगे चलकर मांस का सर्वथा ही निषेध किया है:-
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।। (मनु0 5।51) अर्थात् मांस खाने वाले को ही हिंसा का पाप नही लगता, किन्तु उसमें मारने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, पकाने वाला आदि सभी सम्मिलित हैं।
इन स्पष्ट श्लोकों के होते हुए भी नीचे के श्लोकों में मांस का विधान हैं:-
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यज्ञाय जग्धिर्मां सस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः । अतोऽन्यथा प्रवत्स्तिु राक्षसा विधिरूच्यते।। (मनु0 5।31 ) अर्थात् यज्ञ में मांस डालना ’दैव विधि’ है और बिना यज्ञ की मांस की प्रवृति राक्षस विधि है।
क्या बिना प्राणियों को हिंसा पहुचाये यज्ञ में मांस डाला जा सकता है ? यदि नही तो ’दैव विधि‘ और ‘राक्षस विधि’ में क्या भेद ?
इसी प्रकार 5।32 से 42 तक ऊटपंटाग बाते बताई गई हैं। 3।40 में विचित्र युक्ति दी गई है कि यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।। अर्थात् जो पशु-पक्षी यज्ञ के लिये मारे जाते हैं उनको दूसरे जन्म में उत्कृष्ट योनि मिलती है। इसी प्रकार श्राद्ध में भी भिन्न भिन्न पशुओं के वध का उल्लेख है।
(देखो अध्याय 3।268,269) यह हैं कुछ वे स्थल जिनमें परस्पर विरोध होने के कारण मानना ही पडेगा कि इनमें से एक मौलिक है और दूसरा क्षेपकः, क्योकि दो परस्पर बातें किसी एक ग्रन्थकार का मन्तव्य नहीं हो सकतीं। परन्तु क्षेपक यही तक सीमित नहीं हैं। समय का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पडता हैं।
जो मकान बनाया जाता हैं वह कितना ही सुछढ क्यो न हो, वायु, धाम तथा जल का उस पर कुछ न कुछ प्रभाव पडता ही है। प्रत्येक मकान की आकृति को देखकर बता सकते है कि समय ने उसमें कितना परिवर्तन किया हैं। पहले पानी दीवारों पर धब्बे डाल देता है।
फिर घर का स्वामी उस पर पुताई कर देता है। फिर वर्षा आती है और कुछ भाग धुल जाता है तथा कुछ काले धब्बे और पड जाते है।
फिर घर वाले चून की एक बारीक तह और लगा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दीवार पर पपडियाॅ पड जाती हैं।
कभी कभी दीवारों को खुरचकर नये सिरे से पुताई कर दी जाती है। परन्तु फिर भी उस को मौलिक दीवार नहीं कह सकते। यह सब आदि से अन्त तक क्षेपक ही होते हैं। इसी प्रकार पुस्तकों का हाल है। जो पुस्तकें साधारण मनोरंजन की हैं उनमें लोग बहुत कम हम्ताक्षेप करते हैं और वह भी जान-बूझकर नही उनके क्षेपक इस प्रकार के होते हैं कि कहीं तो लेखकों के प्रमाद के कारण शब्द छूट गया या कोई पंक्ति की पंक्ति रह गई या कभी कभी ऊपर की आधी पंक्ति नीचे की आधी पंक्ति के साथ मिल गई। कभी कभी शब्द के छूट जाने पर पीछे से आने वाले लोगों ने संशोधन के उद्देश्य से अपनी और से कोई ऐसा शब्द जोड दिया जो खप सके । इस प्रकार प्रमाद
आते रहते हैं।
इस प्रकार ये क्षेपक तो होते हैं परन्तु किसी को हानि नहीं पहुॅचाते ।
परन्तु धार्मिक पुस्तकों के क्षेपक बडे भयानक होते हैं। उनका उद्देश्य ही दूसरा होता हैं, जब किसी देश में धार्मिक विप्लव  होते हैं,
तो सब से पहले धर्मग्रन्थों पर आक्रमण होता है। कोई धर्मसंस्थापक आज तक सर्वथा नया धर्म स्थापित नहीं कर सका।
हर एक कहता है कि मै वही बता करता हूॅ जो पूर्व से चली आई है। ऐसा कहने पर दो दल हो जाते हैं और धर्मग्रन्थ दोनों दलों के हाथ में मोम की नाक बन जाते हैं।
मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में यह बात बहुत सुगम थी। अनुष्टुभ् छन्द बहुत सीधा छन्द है।
स्पष्ट क्षेपकों के फिर मनुस्मृति की भाषा क्लिष्ट नहीं ।
दैनिक उदाहरण व्यवहार की बातें सरल से सरल भाषा में लिख दी गई है। इसमें मिला देना कौन कठिन था।
उदाहरण के लिये ’नियोग‘ प्रकरण को लीजिये। जब लोगों ने किसी कारण से चाहा कि नियोग बन्द कर दिया जाय तो कुछ श्लोक बनाकर लगा दिये।
और उसके लिये दो एक हेतु भी दे दिये । नियोग विषयक श्लोक दे चुके हैं। पहले कुछ श्लोक नियोग को विहित बताते हैं।
उसके पश्चात् कहते है कि
नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।
अन्यस्मिन् हि नियुंजाना धर्म हन्युः सनातनम्।। (9।64) अथार्त द्विजों की विधवा नारी अन्य के साथ नियोग न करें ।
इसका क्या अर्थ ? क्या विधवा को अन्य कुल में नियोग न करके अपने कुल में ही नियोग कर लेना चाहिये ? या विधवा नियोग न करे ? सधवा विशेष अवस्था में नियोग करे ? अथवा नियोग किसी अवस्था में किसी द्विज के लिये विहित नहीं ? इन तीनों में से किस निषेध का प्रतिपादन इस श्लोक द्वारा किया गया है ? आगे चलकर यह श्लोक हैः-
नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः क्रीयते कचित्।
न विवाहविधायुक्तं विधवावेदनं पुनः।। (9।65)
अथार्त विवाह सम्बन्धी मंत्रो में नियोग का उल्लेख नहीं और न विवाह-विधि में विधवा के पुनः-संस्कार की आज्ञा है।
इस श्लोक का पहले श्लोक से क्या सम्बन्ध ? यदि कहीं भी और किसी प्रकार भी नियोग विहित नहीं तो ऊपर कहे हुए 9।59 का क्या अर्थ होगा ?
यदि कहा जाय कि इस श्लोक में केवल इतना कहा गया है कि नियोग या विधवाः-संस्कार की विधि साधारण विवाह-विधि से अन्य है तो इससे अगले श्लोकों में इसको ’पशु-धर्म“ कहकर राजा वेन के समय के अत्यचारो का उल्लेख क्यों किया गया ?
इससे प्रतीत होता है कि नियोग के विरूद्ध पहले एक श्लोक मिलाया गया।
फिर मिलाने वाले को ज्यों ज्यों पकडे जाने का भय हुआ त्यों त्यों वह उसके उपाय-स्वरूप अगला श्लोक जोडता गया। इसी प्रकार अन्य क्षेपक भी बढ गये।
पहले एक सिद्धान्त के निषेध में एक श्लोक मिलाया गया, इसको हम आक्रमण (Attack) कह सकते है। फिर उसके विरोधियों ने मौलिक सिद्धान्त की पुष्टि में आगे एक श्लोक मिला दिया।
इसको प्रत्याक्रमण (Counter-attack) कहना चाहिये। इस प्रकार आक्रमण-प्रत्याक्रमणों का ताॅता बंध गया और अनेक स्थलों पर बहुत-से क्षेपक बढ गये।
कहीं ऐसा भी हुआ कि विधि या निषेध की व्याख्या करने के लिये अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा में श्लोक बढाये गये, जिनका धर्मशात्र जैसे ग्रन्थ में लिखना उचित प्रतीत नही होता।
ऐसे स्थल भी कई हैं। जैसे ब्रहमविवाह की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये लिख दिया कि इस प्रकार उत्पन्न हुई सन्तान से दस पीढियाॅ अगली, दस पिछली और एक वर्तमान- इक्कीस पीढियाॅ तर जाती हैं ।
इसमें सन्देह नही कि ब्रहमविवाह श्रेष्ठतम है, परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि उससे इक्कीस पीढियाॅ तर जायॅ। यदि हम मनुस्मृति को आरंभ से देखें तो प्रथमे ग्रासे हि मक्षिकापातः अर्थात् पहले ही अध्याय बूहलर की साक्षी में क्षेपक का सामना पडता है। बूहलर महोदय लिखते हैंः-
The whole first chapter must be considered as a latter addition. No Dharma-Sutra begins with a description of its own origin, much less with an account of the creation. The former, which would be absurd in a Dharma-Sutra, has been added in order to give authority to a remodeled version. The letter has been dragged in, because the myths connected with Manu presented a good opportunity ‘to show the greatness of the scope of the work’ as Medhatithi says. (Introduction ixvi) “
पहले सम्पूर्ण अध्याय को पीछे से मिलाया हुआ समझना चाहिये ।
कोई धर्म सूत्र अपने निकास की कहानी से आरंभ नहीं हो और न सृष्टि-उत्पति से । पहली बात जो धर्मसूत्र के लिये सर्वथा ही अनुचित है नये रूप् को प्रमाणित सिद्ध करने के लिये दी गई हैं ।
दूसरी बात बलात्कार इसलिये प्रविष्ट कर दी गई कि मनु के सम्बन्ध में जो गथा प्रसिद्ध है वह ग्रन्थ के मान को बढा दे जैसे किमेघातिथि का कथन हैं।
“ जो बात बूह्लर महोदय ने सूत्र के विषय में लिखी हैं वह वर्तमान संहिता के विषय में भी ठीक उतरती है।
पहले अध्याय के 5 वें श्लोक से आगे जो सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन दिया है वह “मनु-प्रजापति”अर्थात् ईश्वर और मानव-धर्मशास्त्र के लेखक में झमेला उत्पन्न करने के लिये किया गया नारायण शब्द है।
मनु को न केवल मानव-धर्मशास्त्र का ही पित बताया गया है, किन्तु समस्त सृष्टि का भी और जब कवि की प्रतिभा एक बार उत्तेजित हो गई तो कविता की तरंग मे उसने सभी कुछ लिख मारा।
यक्ष, ऋक्ष, पिशाच, विद्युत् मेघ, इन्द्रधनुष, किन्नर, वानर, मत्स्य, कृमि, कीट, पतंग सब उत्पन्न हो गये। इसमें सन्देह नही कि कहीं कहीं पर बडी अच्छी बातें बताई गई हैं।
जैसे- आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। ता यदस्पायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः।। (1।10) अर्थ -
’आप‘ अर्थात् जल का नाम नारा है !  क्योकि वे नर अर्थात् परमात्मा के पुत्र हैं!
(ता नराख्यस्य परमात्मनः सूनवोऽपत्यानि-इति कुल्लूकः)।
यह जल जिसके अयन है इसलिये उस इश्वर का नाम नारायण है। परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध कुछ नहीं ।
नारायण शब्द पहले किसी श्लोक में तो था नहीं । फिर इसके अर्थ बताने की क्या आवश्यकता आ पडी ? इसमे ऊपर के श्लोक मे अन्डे के तेजस्वरूप हो जाने (तदण्डमभवद्धैमं) का वर्णन था। और दो श्लोक छोड कर फिर उस अन्डे के दो भागों में विभक्त हो जाने का वर्णन है। बीच में नारायण शब्द कहाॅ से कूछ पडा, समझ में नही आता । यदि कहा जाय कि श्लोक 1।12 में आये हुए भगवान् के नारायण नाम की यवव्यापक होने के हेतु व्याख्या की गई है, तो यह भी ठीक नहीं क्योकि इसके लिये तो नारायण शब्द की विशेषता सिद्ध नहीं होती। इसी प्रकार ’शरीर ‘ शब्द की बडी अच्छी शरीर शब्द व्युत्पत्ति की गई हैं:
- यन् मूत्र्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्। तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूत्र्तिंमनीषिणः।।
अर्थात तन्मात्रा, अहंकार आदि छः को आश्रय देने के कारण शरीर का नाम शरीर पडा। शरीर शब्द साधारणतया ‘शृ’ धातु से निकाला जाता हैं जिसके अर्थ ‘हिंसा‘ के (शृ हिसायां ) हैं। परन्तु यहाॅ शरीर और आश्रय का व्युत्पत्ति-विषयक सम्बंध हैं, इसका मिलान न्यायदर्शन के इस सूत्र से होता हैंः-
चेष्टेन्द्रियार्थश्रयः शरीरम्। इस श्लोक और इस सूत्र में अवश्य कुछ सोद्देश्य हैं। सूत्रकार के मस्तिष्क में अवश्य ही ’शरीर’ शब्द के साथ ’आश्रय’ शब्द का सम्बन्ध रहा होगा, ऐसा जान पडता हैं ।
संभव हैं, ’शृ’ धातु का ’आश्रय’ अर्थ भी रहा हो। यह व्युत्पत्ति अवश्य ही अच्छी है परन्तु प्रसंग कुछ नहीं।
जैसे ’नारायण’ शब्द की व्युत्पत्ति बीच में कूद पडी इसी प्रकार ’शरीर’ शब्द की भी ।
न प्रसंग न क्रम  एक और बात है।
साधारणतया यह प्रतीत होता है कि सांख्य में जो सृष्टि व्युत्पत्ति का विधान है वही यहाॅ भी बताया गया है। श्री शंकररचाय्र्य जी ने मनु को प्रमाण माना है, इसलिये कुछ भाष्यकार तो अन्त में खीचतानी से उसको वेदान्त-प्रवर भी सिद्ध कर देते हैं।
परन्तु वास्तविकता यह है कि वह सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन न सांख्य-मतानुसार ही है |
न डा0 झ की साक्षी वेदान्त-मतानुसार।
कुछ ऐसा गोल-माल है कि विचारे भाष्यकारों की भी नाक में दम कर देता है चोटी से एडी तक यत्र करने पर भी कुछ बडा भारी समन्वय नही हो पाता। यह ऐसी लम्बी कथा है जिसके वर्णन में पोथा बन जाता है, परन्तु हम महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा का निम्न उद्धरण ही पर्याप्त समझते हैं। डाक्टर महोदय ने मनुस्मृति पर टिप्पणियाॅ (Manu-Smriti-Notes) दो जिल्दों में लिखी हैं जो कलकत्ता यूनीवर्सिटी की और से छपी हैं। दूसरी जिल्द में मनुस्मृति श्लोक 14 और 15 पर उन्होंने एक लम्बा नोट लिखा है। श्लोक यह है:-
उब्दबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्। मनश्चाप्यहंकारमभिमन्तारमीश्रवरम्।।
महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च। विषयाणं गृहीतृणि शनैः पन्चेन्द्रियाणि च ।। (मनु0 1।14-15 ) डा0 झा की टिप्पणी इस प्रकार हैं-
‘’ The confusion regarding the account of the process of creation in Manu is best exemplified by these two verses. The name of the various evolutes have been so promiscuously used, thet the commentators have been led to have recourse to various forced interpretation, with a view to bring tha statement herein contained into line with their own philosophical predilections. Medha ., Kullu, Govi, and Ragh take it as describing the three prin ciples of the Sankhya-Mahat, Ahankara and Manad ; but finding that the production of Ahankara from Manas, or of Mahat (which is what they understand by the term ‘Mahantam Atmanm’) is not in conformity with the Sankhya doctrine.- they assert that the three evolutes have been mentioned here ‘in the inverted.’ Even so, how they can get over the statement that ‘Ahankar’ was produced ‘from manas’ , (Manasah’) it is not easy to see. Similarly the ‘atman’ from which Manas is described as being produced, Medha explains as the Sankhya ‘Pradhana’ and Kulla, as the Vedantic ‘Supreme solu.’ Buhler remarks that according to Medha, by the particle ‘cha’ ‘the subtle elements alone are to be understood.’ This dose not represent Medha-correctly. His words being- Inorder to escape from the above difficulties Nandan has recurse to another method of interpretation- no less forced than the former. He takes ‘Manas’as standing for mahat, and ‘Mahantam Atmanam’ as the Manas. Not satisfied with all this, Nandan remarks that the two verses uUnu dh lk{kh are not meant to provide an accurate account of the precise order of creation ; all that is meant to be shown is that all things were producedout of parts of the body of the Creator Himself.
इस उदाहरण का भावानुवाद मनु में सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन सम्बन्धी गडबड का सब से अच्छा उदाहरण यह दो श्लोक (1।14-15 ) हैं। भिन्न-भिन्न विकृतियों के नाम इस झमेले से प्रयुक्त हुये हैं कि भाष्यकारों को सृष्टि-उत्पत्ति के इस वर्णन का अपने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ समन्वय करने में बहुत बडी खीचा-तानी की आवश्यकता पडी हैं। मेघातिथि, कुल्लूक, गोविन्दराज और राघवानन्द का मत है कि इसमें सांख्य के तीन तत्वों -महत्, अहंकार और मन का वर्णन हैं ।
परन्तु यह देखकर कि सांख्य सिद्धान्तानुसार मन से अहंकार या महत् की उत्पत्ति नही होती (महान्तं आत्मानं से वे महत् का ही अर्थ लेते हैं ), उनको कहना पडा कि तीनों विकृतियों को ’उलटे क्रम‘ से वर्णन किया गया है। इस पर भी मन से ( मनस् ) अहंकार पैदा हुआ इस अडचन का समझना सुगम नहीं हैं। इसी प्रकार ‘आत्मा’ जिससे मन की उत्पत्ति बताई जाती है मेघातिथि के मत में सांख्य का ‘प्रधान’ और कुल्लूक के मत में वेदान्तियों का ‘ब्रह्म’ है। बूहलर का कथ हैं कि मेघतिथि के मतानुसार च ‘से’ सूक्ष्म तत्व ही समझने चाहिये। परन्तु मेधातिथि के कथन का यह शुद्ध अनुवाद नहीं है।
मेधातिथि के शब्द यह हैं:-
‘ चशब्देन विषयांश्च शब्दस्पर्श रूपरसगन्धान् पृथिव्ययदिनि च’।
इन कठिनाइयों से बचने के निमित्त नन्दन दूसरी ही रीति से व्याख्या करता है जो कुछ कम खीचा-तानी नहीं है।
वह कहता है कि ’मन‘ का अर्थ है ’महत्‘ और ‘महत् आत्मान’ का मन। इससे भी सन्तुष्ट न होकर नन्दन कहता है कि इन दो श्लोकों का यह उदेश्य नहीं है कि सृष्टि-उत्पित्त का ठीक-ठीक क्रम शुद्ध है |



गुरुवार, 23 जुलाई 2020

शूद्रों और आर्य शब्द तथा मनु यम और सुर असुर ...



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भारत में वर्ण व्यवस्था के नियामक शूद्र जातीय शब्द और इस नाम से सूचित जनजाति का वह इतिवृत्त है जो इतिहास के पन्नों से भी छूटा गया है

जिसका प्रादुर्भाव ईसा० पूर्व० सप्तम सदी में हुआ । और इस वर्ण व्यवस्था का आधार भी ईरानी समाज की वर्ग व्यवस्था थी ।
•–वर्ण और वर्ग में अन्तर रेखाऐं सुदीर्घ है ।
जहाँ वर्ग व्यवस्था केवल व्यक्ति के व्यवसाय पर अवलम्बित है ।
अर्थात् व्यक्ति अपनी रुचि और योग्यता के अनुरूप व्यवसाय या कर्म या कैरियर के अनुरूप कर्मक्षेत्र में व्यवसाय का चयन कर सकता है ।
•–वहीं वर्ण व्यवस्था को केवल जन्म और जाति या पुश्तैनी रूप मान्य किया गया ।
वर्ण-व्यवस्था ईश्वरीय विधान नहीं है ।
यह समाज के नियामक लोगों का विधान है ।
इसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है ,
प्राचीनता केवल कुछ हजार वर्ष अर्थात् ई०पू० सप्तम सदी के समकक्ष की है।
क्यों कि भारतीय पुरोहितों के यजमान देव-संस्कृति के अनुयायीयों का आगमन सुमेरियन, बैबीलॉनियन संस्कृतियों को आत्मसात् करते हुए ईरानी के रास्ते भारत में हुआ।
ईरानी भी स्वयं को आर्य अथवा यौद्धा मानते ये असुर संस्कृति के अनुयायीयों थे ।
इन्होंने कभी भी देव-संस्कृति को सम्मान नहीं दिया ।असुर महत् ( अहुर मज्दा) इनका परम आराध्य था। अवेस्ता ए जैन्द में में देव शब्द "दएव" के रूप में दुष्ट ,विधर्मी और अधम व्यक्ति का वाचक है ।इसी प्रकार -जो सांस्कृतिक शब्द  इरानी और देव-संस्कृति के शब्दावली में संकलित हैं  उनके प्राय विपरीत अर्थ ही हैं।
लगभग 2050 से ई०पू० 1500 तक के काल खण्ड में देव संस्कृति के अनुयायी 
बाल्टिक सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में बस हुए थे ।
यही क्षेत्र स्कैनण्डिनैविया का सहवर्ती है ।

बाल्टिक  वस्तुत उत्तरीय यूरोप का ही एक सागर है ; जो लगभग सभी ओर से जमीन से घिरा है।
यहाँ भारोपीय वर्ग का भाषाऐं बोली जाती हैं ।
लिथुआनिया की भाषा और देव सूची भारतीयों के समान है ।
 इसके उत्तर में स्कैडिनेवी प्रायद्वीप है -जो स्वीडन की सीमा करता है  उत्तर-पूर्व में फ़िनलैंड, पूर्व में इस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, दक्षिण में पोलैंड तथा दक्षिण-पश्चिम में जर्मनी है।

 पश्चिम में डेनमार्क तथा छोटे द्वीप हैं जो इसे उत्तरी सागर तथा अटलांटिक महासागर से अलग करते हैं। जर्मन भाषाओं, जैसे डच, डेनिश, फ़िन्नी में इसको पूर्वी सागर (Ostsee) के नाम से जाना जाता है।
इसमें गौरतलब है कि यह फ़िनलैंड के पश्चिम में बसा हुआ है।
यह बाल्टिक देश या बाल्टिक प्रदेश भी कहा जाता है) उन बाल्टिक क्षेत्रों को कहते हैं, जिन्हें रूसई साम्राज्य से प्रथम विश्व युद्ध के समय स्वतंत्रता मिली थी। 
इनमें मुख्यतः एस्तोनिया, लात्विया तथा लिथुआनिया आते हैं, तथा मूल रूप से स्वतंत्रता पाने के बाद सन् 1920 से फ़िनलैंड भी इनमें ही गिना जाता है। इन सब देशों की भाषा भारोपीय वर्ग है। स्कैनण्डिनैविया अब उत्तरी यूरोप महाद्वीप का एक प्रायद्वीप है, जिसमें मुख्यतः स्वीडन अथवा स्वर्की  की मुख्यभूमि, नॉर्वे की मुख्यभूमि (रूस के सीमावर्ती कुछ तटीय क्षेत्रों को छोड़कर) एवं फिनलैंड का उत्तर-पश्चिमी भाग आते हैं।

इनके साथ साथ ही रूस के पेचेंग्स्की जिले के पश्चिम का एक संकर भाग भी इस में माना जाता है।
इनके अलावा फिनलैंड, आइसलैंड एवं फैरो द्वीपसमूह के संग ये देश नॉर्डिक देश भी कहलाते हैं

इस प्रायद्वीप का नाम स्कैंडिनेविया, डेनमार्क, स्वीडन एवं नॉर्वे के सांस्कृतिक क्षेत्र से व्युत्पन्न किया गया है।

 इस नाम का मूल प्रायद्वीप के दक्षिणतम भाग स्कैनिया से आया है जो एक लम्बे अन्तराल से डेनमार्क के अधिकार में रहा है, किन्तु वर्तमान में स्वीडन अधिकृत क्षेत्र है ।
यहाँ के लोग मूल रूप से उत्तर जर्मनिक भाषाएं बोलते हैं जिनमें से प्रमुख भाषाएं हैं: डेनिश भाषा, नॉर्वेजियाई भाषा एवं स्वीडिश भाषा आदि  वैसे इनके अतिरिक्त फ़ारोईज़ एवं आइसलैण्डिक भाषा भी इसी समूह के अधीन आती है, 
स्कैण्डिनेवियाई प्रायद्वीप यूरोप महाद्वीप का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है एवं यह बल्कान प्रायद्वीप, आईबेरियाई प्रायद्वीप एवं इतालवी प्रायद्वीपों से भी बड़ा है।
भूगोलवेत्ताओं की मान्यता है कि
हिम युग के समय अंध महासागर का जलस्तर इतना गिर गया कि बाल्टिक सागर एवं फिनलैंड की खाड़ी गायब ही हो गये थे एवं उन्हें घेरे हुए वर्तमान देशों जैसे, जर्मनी, पोलैंड एवं अन्य बाल्टिक देश तथा स्कैंडिनेविया की सीमाएं सीधे-सीधे एक दूसरे से मिल गयी थीं।

ईजियन द्वीप में ई०पू० बाहरवीं सदी में  देव संस्कृति के अनुयायी लोगों ने आयोनिया को अपना आवास बनाया । 
उनकी सांस्कृतिक शब्दावली में साम्य है। जैसे
क्रीत या क्रीट (यूनानी: Κρήτη, क्रीति; अंग्रेज़ी: Crete, क्रीट) जिसका संस्कृत प्रतिरूप है श्रृद्धा या श्रृद् है ।
यूनान के द्वीपों में सब से बड़ा द्वीप है और भूमध्य सागर का पाँचवा सबसे बड़ा द्वीप है।
यह यूनान की आर्थिक व्यवस्था और यूनानी संस्कृति का बहुत महत्वपूर्ण अंग मन जाता है लेकिन इस द्वीप की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान भी है।
आज से पाँच हज़ार साल पूर्व क्रीत "मिनोआई सभ्यता" नामक संस्कृति का केंद्र भी थी जो 2700 से 1420 ईसापूर्व के काल में फली-फूली और यूरोप की एक प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है। श्रृद्धा और मनु ही इनके पूर्वज हैं ।
ऐसी यहाँ के लोगों की मान्यताऐं है ।

जब ईरानी और भारतीय जनसमुदाय समान रूप से एक साथ अजर-बेजान (आर्यन- आवास) में निवास कर रहे थे।
तब  उस समय वर्ग- व्यवस्था की प्रस्तावना ईरानी लोगों ने बनायी जो यम को महत्ता देते थे ईरानी यम के वाड़े से जीवन का प्रारम्भ मानते है तो भारतीय मनु से  ! दोनों में सांस्कृतिक भेद की रेखाएँ लम्बवत् होती गयीं-
मनु शब्द तो अवेस्ता ए जैन्द में एक दो बार ही है 
इस लिए दौनों संस्कृतियों के अनुयायी धुर विरोधी थे ।तब समाज में स्वेच्छापूर्वक चयनित व्यवसाय मूलक वर्ग थे  न कि जाति मूलक वर्ण ।
वर्ण व्यवस्था  अर्वाचीन है और वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था  प्राचीनत्तम है।।
 वर्ण व्यवस्था के विषय में आज जैसा आदर्श पुरोहितों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। 
वह यथार्थ मूलक नहीं और ये लोगों तो आदर्श प्रस्तुत करेंगे ही क्यों कि वर्ण व्यवस्था के विधायक ही ब्राह्मण या पुरोहित हैं ।
वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । और इसमें ही इनके चिर सचित
 स्वार्थ सिद्ध हैं।

ये देव या सुर जनजाति बहुतायत में शाखा जर्मन जाति से सम्बद्ध है;
यह तथ्य भी प्रमाणिकता के दायरे में आ गयें हैं । क्यों कि स्वीडन अथवा "स्वर्की' का प्राचीनत्तम जनजाति स्वीयर थी जिसे भारतीय पुरोहितों ने सुर कहा ।
 परन्तु देव संस्कृतियों के अनुयायी और द्रविडों की देव सूची इनके पूर्वज भी एक  ही थे। 
यही धार आगे चलकर सुर -असुर में परिणति हुई 
और 
अब शूद्र शब्द का पौराणिक व्युपत्ति पर बात करते हैं । भारतीय पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार शूद्र शब्द का व्युपत्ति पर वायुपुराण का कथन है कि " शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति को शूद्र कहते हैं ।
___________________________________

"भविष्यपुराण में कहा गया कि " श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए" 

शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-

क्षत्रियास्तु क्षतत्राणाद्वैश्या वार्ताप्रवेशनात् ।
ये तु श्रुतेर्द्रुतिं प्राप्ताः शूद्रास्तेनेह कीर्तिताः।
(1/44/10 भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व)

             ( शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-)

शोचन्तश्व द्रवन्तश्च परिचर्यासु ये नराः ।
निस्तेजसोऽल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानब्रवीत्तु सः।२३।

वे पुरूष जो शोक मनाते हुए उनके सेवा में से भागे फिरते हैं। फिर उन्होंने उनको शूद्र कहकर सम्बोधित किया जो मंदबुद्धि और दुर्बल थे ।23।

(1/44/23 भविष्यपुराण ब्रह्मपर्व )

_________________________________    
तथैव शूद्रैः शुचिभिस्त्रिवर्णपरिचारिभिः।
पृथुरेव नमस्कार्य्यः श्रेयः परमिहेप्सुभिः।४.१२१।

इति श्रीब्राह्मे महापुराणे पृथोर्जन्ममाहात्म्यकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः।। ४ ।।

तथैव शूद्रैः शुचिभिस्त्रिवर्णपरिचारिभिः ।
आदिराजो नमस्कार्यः श्रेयः परमभीप्सुभिः।५३।
शूद्रों के बारे में भी यही सच है, जो शुद्ध हैं और जो तीनों जातियों की सेवा करते हैं।
आदि राजा  पृथु की पूजा उन लोगों द्वारा की जानी चाहिए जो सर्वोच्च कल्याण की इच्छा रखते हैं। 53।। 
विशेष:-उपर्युक्त श्लोक में शुच् धातु को शूद्र की व्युत्पत्ति के लिए इंगित किया गया है।
 (हरिवंश हरिवंशपर्व अध्याय 6)

तो वैदिक परम्परा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था। 

इस प्रकार के वर्णन भी मिलते हैं । 
एक परम्परा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था।

किन्तु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया। 
ये तथ्य कहाँ तक सत्य हैं कहा नहीं जा सकता है 
ये केवल काल्पनिक पुट हैं ।

शूद्र जनजाति का उल्लेख;- विश्व इतिहास कार डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति के आधार पर आकलन करें तो।
उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं ।
 इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता।

यद्यपि वर्ण-व्यवस्था में यह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था। 

ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं।

सम्भवत: इन मान्यताओं का श्रोत यहूदीयों से सम्बद्ध ईरानी परिवार की दाहिस्तान (Dagestan) में आबाद अवर (Avars) जन जाति रही  हो ।

 जो अबर लोग क़जर (Khazar) अथवा अख़जई के सहवर्ती है ।
 यद्यपि दौनो जन-जातियाँ यहूदीयों से सम्बद्ध हैं ।
भारत में जिन्हें क्रमश: आभीर और गुर्जर के रूप सहवर्ती माना ।
परन्तु जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध ब्राह्मणों से ये जन-जातियाँ भारत में पूर्वागत हैं । 

जिन्हें भारतीय पुराणों में गुर्जर और आभीर( गोप) में वर्णित किया गया है ।
कालान्तरण में गुर्जर एक संघ बन गया कई जातियों का ...
भारतीय वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों द्वारा एक आख्यान निर्मित किया गया । 
जिसमें शूद्र पादज के रूप में प्रस्तुत किये गये जो विराट पुरुष के पाद ( चरण ) से उत्पन्न हुए हों।
वर्ण व्यवस्था,में  ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, को क्रमश मुख उरु और बाहू तथा चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा अन्य जनजाति का पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय है।
ब्राह्मण -व्यवस्था ने ये मन: कल्पित परिभाषाऐं बनायी , द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है। 
स्मृतियों में ये विधान काशी में बनाए गये ।
शूद्र शब्द का व्युत्पत्यर्थ निकालने के भारतीय पुरोहितों द्वारा जो प्रयास हुए हैं, वे अनिश्चित से लगते हैं ; 
और उनसे वर्ण की समस्या को सुलझाने में शायद ही कोई सहायता मिलती है। 
बादरायण का काल्पनिक आरोपण करके शूद्र शब्द की काल्पनिक व अव्याकरणिक व्युत्पत्ति- करने की असफल चेष्टा भी दर्शनीय है 👇

:-- सबसे पहले 'वेदान्त सूत्र' में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था।
 इसमें 'शूद्र' शब्द को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है- 'शुक्’  और ‘द्र’, शुच् और द्रु क्रियामूल या धातु हैं ।
बादरायण भी दो धातुओं से शब्द व्युपत्ति करते हैं -जो व्याकरण संगत नहीं ।
 शु का पूर्व रूप आशु जो और द्रु -जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ है, दौड़ना। 
इसकी टीका करते हुए । शंकराचार्य ने इस बात की तीन वैकल्पिक व्याख्याएँ की हैं कि जानश्रुति शूद्र क्यों कहलाया - __________________________________________ 

'वह शोक के अन्दर दौड़ गया’, - ‘वह शोक निमग्न हो गया’:--- (शुचम् अभिदुद्राव) ‘उस पर शोक दौड़ आया’, - ‘उस पर सन्ताप छा गया’ (शुचा वा अभिद्रुवे) ‘अपने शोक के मारे वह रैक्व दौड़ गया’ (शुचा वा रैक्वम् अभिदुद्राव)। 

शंकर का निष्कर्ष है कि शूद्र, शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्या करने पर ही उसे समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं।

 बादरायण द्वारा 'शूद्र' शब्द की व्युत्पत्ति और शंकर द्वारा उसकी व्याख्या दोनों ही वस्तुत: असंतोषजनक  और असंगत ही हैं। 
ये केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं । 

कहा जाता है कि शंकर ने जिस जानश्रुति का उल्लेख किया है, वह अथर्ववेद में वर्णित उत्तर - पश्चिम भारत के निवासी महावृषों पर राज्य करता था।

 यह अनिश्चित है कि वह 'शूद्र वर्ण' का था, वह या तो 'शूद्र जनजाति' का था या उत्तर-पश्चिम की किसी जाति का था, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने शूद्र के रूप में चित्रित किया है।

पाणिनि के अनुसार पाणिनि के व्याकरण में 'उणादिसूत्र' के लेखक ने इस शब्द की ऐसी ही व्यत्पत्ति की है, जिसमें शूद्र शब्द के दो भाग किए गए हैं,।

अर्थात् धातु 'शुच्' या( शुक्+र ) प्रत्यय ‘र’ –शूद्र परन्तु इसकी व्याख्या करना कठिन है और यह व्युत्पत्ति भी काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती है।

 पुराणों के अनुसार पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द 'शुच्' धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना।

 कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’।

 किन्तु शूद्र शब्द की ऐसी व्याख्या उसके व्युत्पत्यर्थ बताने की अपेक्षा परवर्ती काल में शूद्रों की स्थिति पर ही प्रकाश डालती है। 

ये व्युत्पत्तियाँ पूर्व - दुराग्रहों से प्रेरित अधिक हैं ।
बौद्धों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या भी ब्राह्मणों की व्याख्या की ही तरह काल्पनिक मालूम होती है।

क्योंकि यहाँ भी ब्राह्मण वाद का संक्रमण हो गया था बुद्ध के अनुसार जिन व्यक्तियों का आचरण आतंकपूर्ण और हीन कोटि का था वे सुद्द[कहलाने लगे और इस तरह सुद्द, संस्कृत-शूद्र शब्द रूप में है ।

 यदि मध्यकाल के बौद्ध शब्दकोश में शूद्र शब्द क्षुद्र का पर्याय बन गया,और इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि शूद्र शब्द क्षुद्र से बना है अमान्य है । 

सॉग्डियन से इसका साम्य दर्शनीय है। यद्यपि ब्राह्मणों और परवर्ती ब्राह्मण संक्रमण से ग्रसित बौद्धों की दोनों ही व्युत्पत्तियाँ भाषाविज्ञान की दृष्टि से असंतोषजनक हैं ।

 किन्तु फिर भी महत्त्वपूर्ण हैं,( क्योंकि उनसे प्राचीन काल में 'शूद्र वर्ण' के प्रति प्रचलित भारतीय ब्राह्मण समाज की धारणा का आभास मिलता है)

 समाज का प्रभाव– ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का ) पर कालान्तरण में भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की विकृति -पूर्ण परिणति जाति वाद के रूप में हुई.. ।

(ऋग्वेद में एक ऋचा है - (कारुर् अहम् ततो भिषग् उपल प्रक्षिणी नना) अर्थात् मैं करीगर हूँ पिता वैद्य और माता पीसने वाली है-
कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना ।
नानाधियोवसूयवोऽनु गा इव तस्थिमन्द्रायेन्दो परि स्रव ।।
 (ऋग्वेद 9.112.3)
मैं कारीगर हूँ , मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माता अनाज को पीसती है. हम सब इस समाज के पोषण में एक गौ की भांति अपना अपना अपना योगदान करते हैं।
यह ऋचा इस तथ्य की सूचक है , कि देव-संस्कृति के अनुयायीयों का प्रवास जब मैसॉपोटामियन संस्कृतियों के सम्पर्क में था ।
तो वर्ण-व्यवस्था न हो कर समाज 
में वर्ग-व्यवस्था ही थी ।
एक परिवार में लोग तरह तरह के कार्य करते थे ।
मैसॉपोटामिया की पुरातन कथाओं का समायोजन ईरानीयों की कथाओं से हो जाता है ।
ये दौनों आर्य ही कालान्तरण में असुर और देव कहलाए यद्यपि आर्य शब्द का प्रयोग सैमेटिक असुर जनजाति के लिए हुआ है ।

 तब तक समाज में कोई वर्ण-व्यवस्था नहीं थी केवल वर्ग-व्यवस्था अवश्य थी ।

 हाँ गॉलों की ड्रयूड( Druids ) संस्कृति के चिर प्रतिद्वन्द्वी जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध आर्यों का जब भू-मध्य-रेखीय देश भारत में प्रवेश हुआ तो यहाँ गॉल जन-जाति के अन्य रूप भरत (Britons) और स्वयं गॉल जन-जाति के लोग कोेल (कोरी) पहले से रहते थे ।

और कोलों को शूद्र नाम दिया गया ।जो वस्त्रों का परम्परा गत रूप से सीवन करते थे ।
इन्हें ही शूद्र या सेवक ( सीवन करने वाला कहा गया )
संस्कृत तथा यूरोभाषाओं में सीव और शुच् दौनों धातुओं का अर्थ है सीवन करना / सिलना।
स्मृतियों में शूद्रों को दृष्टि गत रखते हुए उनके दमन के लिए विधान बनाए गये ।।

 मनु -स्मृति तथा आपस्तम्ब गृह्य शूत्रों ने भी प्रायः जाति गत वर्ण व्यवस्था का ही अनुमोदन किया है।
 इन ग्रन्थों का लेखन कार्य तो अर्वाचीन ही है ।
 प्राचीन नहीं । 

ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र सुँग के शासन काल में स्मृति-ग्रन्थों का रचना हुई ।
कभी मनु के नाम पर मनुस्मृति लिखी गयी ।

क्योंकि मनु सम्पूर्ण द्रविड और जर्मनिक जन-जातियाँ के आदि पुरुष थे ।
वर्तमान में मनु के नाम पर ग्रन्थ मनु-स्मृति जो शूद्रों के दमन और नियन्त्रण को लक्ष्य करके योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध है ।

यह  केवल पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक रचना है । 
मनु स्मृति के कुछ अमानवीय रूप भी आलोचनीय हैं । 
मनुस्मृति में वर्णित है –
👇
"शक्तिनापि हि शूद्रेण न कार्यो धन सञ्चय: शूद्रो हि धनम् असाद्य ब्राह्मणानेव बाधते ।। १०/१२६ 
________
अर्थात् शक्ति शाली होने पर भी शूद्र के द्वारा धन सञ्चय नहीं करना चाहिए ; क्योंकि धनवान बनने पर शूद्र ब्राह्मणों को बाधा पहँचाते हैं 

 ---------------------------------------------------------विस्त्रब्धं ब्राह्मण: शूद्राद् द्रव्योपादाना माचरेत् । 
नहि तस्यास्ति किञ्चितस्वं भर्तृहार्य धनो हि स:।। ८/४१६
________
 अर्थात् शूद्र द्वारा अर्जित धन को ब्राह्मण निर्भीक होकर से सकता है । क्योंकि शूद्र को धन रखने का अधिकार नहीं है ।
उसका धन उसको स्वामी के ही अधीन होता है ------------------------------------------------------------

नाम जाति ग्रहं तु एषामभिद्रोहेण कुर्वत: । 
निक्षेप्यो अयोमय: शंकुर् ज्वलन्नास्ये दशांगुल : ।।८/२१७ 

अर्थात् कोई शूद्र द्रोह (बगावत) द्वारा ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का नाम उच्चारण भी करता है तो उसके मुंह में दश अंगुल लम्बी जलती हुई कील ठोंक देनी चाहिए । एकजातिर्द्विजातिस्तु वाचा दारुण या क्षिपन् । 
जिह्वया: प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि स:।८/२६९ 
_____
अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग को यदि अप शब्द बोले जाएें तो उस शूद्र की जिह्वा काट लेनी चाहिए । तुच्छ वर्ण का होने के कारण उसे यही दण्ड मिलना चाहिए । 
---------------------------------------------------------- पाणिमुद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनम् अर्हति ।
 पादेन प्रहरन्कोपात् पादच्छेदनमर्हति ।।२८०। 
___________
अर्थात् शूद्र अपने जिस अंग से द्विज को मारेउसका वही अंग काटना चाहिए ।
 यदि द्विज को मानने के लिए हाथ उठाया हो अथवा लाठी तानी हो तो उसका हाथ काट देना चाहिए और क्रोध से ब्राह्मण को लात मारे तो उसका पैर काट देना चाहिए । 

----------------------------------------------------------

 ब्राह्मणों के द्वारा यदि कोई बड़ा अपराध होता है तो  उसका केवल मुण्डन ही दण्ड है । 
बलात्कार करने पर भी ब्राह्मण को इतना ही दण्ड शेष है  ___________________________________

 "मौण्ड्य प्राणान्तिको दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते। 
इतरेषामं तु वर्णानां दण्ड: प्राणान्तिको भवेत् ।।३७९।। 

न जातु ब्राह्मणं हन्यात् सर्व पापेषु अपि स्थितम् ।
 राष्ट्राद् एनं बाहि: कुर्यात् समग्र धनमक्षतम् ।।३८०।। 

अर्थात् ब्राह्मण के सिर के बाल मुड़ा देना ही उसका प्राण दण्ड है । 
परन्तु अन्य वर्णों को प्राण दण्ड देना चाहिए ।
सब प्रकार के पाप में रत होने पर भी ब्राह्मण का बध कभी न करें।
उसे धन सहित बिना मारे अपने देश से विकास दें 

ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्ण की कन्याओं के साथ व्यभिचार करने को भी कर्तव्य इन स्मृति-ग्रन्थों में नियत है तथा यह विधान घोषित किया गया कि 
 :---- "उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधमर्हति ।। 
शुल्कं दद्यात् सेवमानस्तु :समामिच्छेत्पिता यदि।।३६६।
______
अर्थात् उत्तम वर्ण (ब्राह्मण)जाति के पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा से उस ब्राह्मण आदि की सेवा करने वाली कन्या को राजा कुछ भी दण्ड न करे ।

 पर उचित वर्ण की कन्या का हीन जाति के साथ जाने पर राजा उचित नियमन करे ।

 उत्तम वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला नीच वर्ण का व्यक्ति वध के योग्य है ।। 

समान वर्ण की कन्या के साथ सम्भोग करने वाला यदि उस कन्या का पिता धन से सन्तुष्ट हो तो पुरुष उस कन्या से धन देकर विवाह कर ले । ----------------------------------------------------------------

 पुष्य मित्र सुंग काल का सामाजिक विधान और भी देखिए –
सह आसनं अभिप्रेप्सु: उत्कृष्टस्यापकृष्टज: ।
कटयां कृतांको निवास्य: स्फिर्च वास्यावकर्तयेत्।।२८१।।
अवनिष्ठीवती दर्पाद् द्वावोष्ठौ छेदयेत् नृप: । 
अवमूत्रयतो मेढमवशर्धयतो गुदम् ।।२८२।। ____________________________________

 अर्थात् जो शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण आदि वर्णों के साथ आसन पर बैठने की इच्छा करता है; तो  राजा उसके कमर में छिद्र करके देश से निकाल दे ।

अथवा उसके नितम्ब का मास कटवा ले राजा ब्राह्मण के ऊपर थूकने वाले अहंकारी के दौनों ओष्ठ तथा मूत्र विसर्जन करने वाला लिंग और अधोवायु करने वाला मल- द्वार भी कटवा दे 
-------------------------------------------------------------------
क्या मनु ने ये अमानवीय विधान समाज के लिए निर्धारित किए होंगे ?

 समस्या यह है कि हमारा दलित समाज मनु-स्मृति को मनु द्वारा लिखित मानता है । 

जबकि मनु का प्रादुर्भाव भारतीय धरा पर कभी  हुआ ही नहीं:-देखें ,
पद्ममपुराण में भी एसी बात है 
पद्मपुराण/खण्डः ७ (क्रियाखण्डः)/अध्यायः २१
अध्यायः २२ →


                     ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ||६|
अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन

अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरः स्मृताः|७|

               ब्रह्मा ने कहा
सभी ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं और उनकी हमेशा पूजा की जानी चाहिए। हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ब्राह्मण,हो अथवा जो चोरी और अन्य बुराइयों से ग्रस्त हैं  सबकी पूजा होनी चाहिए।६।
वे हमारे शत्रु हैं और वे कभी भी हमारे शत्रु नहीं हैं। ब्राह्मण जो अनैतिक हैं उनकी  भी पूजा की जानी चाहिए, और शूद्र जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त की है उनकी पूजा नहीं की जानी चाहिए।अखाद्य अन्न खाने वाली गायों को भी जगत् की माता माना जाता है।७।

क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने उसे मनु के नाम पर रच दिया है । 
अब इन लोगों ने राम और कृष्ण को भी ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित वर्ण व्यवस्था का पोषक वर्णित कर दिया है । 
जबकि वस्तु स्थिति इसको विपरीत है ।
कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९६ वें सूक्त में असुर या अदेव  के रूप में वर्णित किया गया है। और देव संस्कृतियों के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में कृष्ण उपस्थित हैं ।

राम का वर्णन भी सुमेरियन बैबीलॉनियन दक्षिण अमेरिका  मिश्र ईरानी ईराक तखा थाईलेण्ड ,
इण्डोनेशिया आदि में है ।
मनु के विषय में भी सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिले , किसी ने मनु को अयोध्या का आदि पुरुष कहा , तो किसी ने हिमालय का अधिवासी कहा है । ___________________________________

.परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं , न कि पूर्वाग्रह के -ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर " 
विश्व की सभी महान संस्कृतियों में मनु का वर्णन किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है !
परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त है ।
इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो.. वैचारिक रूप से तो सम्यक् था ।
परन्तु जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही था ।
 इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज ने मनु-स्मृति की रचना की ।

जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो । 

यह कृति पुष्यमित्र सुंग (ई०पू०१८४) के समकालिक, उसी के निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा रची गयी है । 

परन्तु मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे । 
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी । 
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
 यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।

 जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
 यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ { Pro -Genitor }के रूप में स्वीकृत की है ! 

मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं । ___________________________________ 

वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है ।

जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था , ।

वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् Menis संज्ञा से अभिहित था मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था , और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था ।

 मेंम्फिस... प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है । 
तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में ....मनु का वर्णन मिऑन (Meon)के रूप में है  

मिऑन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है , जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे। इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेअॉनिया Maionia भी था . ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में ---
मनु को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है।

 कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिऑन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon)और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य विचारणीय है। 
यम:---- यहाँ भी भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है ....कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था । 

स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्.गल यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं ।

 और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल.. परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था । 

जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ.. तब मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनकी दर्शन हुआ ।
 तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी ।
और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट( Crete )की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया के आर्यों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए । 

भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनु) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) का मानवीय-करण (personification) रूप है | 

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को मनु के विषय में सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त मिले , किसी ने मनु को अयोध्या का आदि पुरुष कहा , तो किसी ने हिमालय का अधिवासी कहा है ।
 

 

मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं । वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है । 

जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था।
 वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् Menis संज्ञा से अभिहित था मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था ।
 और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था , मेंम्फिस... प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।

 तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है। मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है , जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
 
जो इस प्रकार है!
 शूद्र–" शुच--रक् पृषो० चस्य दः दीर्घश्च । 
१ चतुर्थे वर्णे स्त्रियां टाप् । 
______________
सेवक शब्द का मूल अर्थ भी देखें:--- सीव्यति सिव--ण्वुल् । १ सीवनकर्त्तरि (दरजी) सेव--ण्वुल्। 
२ भृत्ये ३ दासे ४ अनुचरे च त्रि० मेदिनी कोश । यद्यपि शुच् धातु का एक अर्थ शूचिकर्मणि भी है । 
शूद्रा शूद्रजातिस्त्रियाम् । पुंयोगे ङीष् । शूद्री शूद्रभार्य्यायाम् ।
 शुचा द्रवति द्रु० ड पृषो० ।

२ शोकहेतुकगतियुक्ते शूद्राधिकरणशब्दे दृश्यम् ।
अथ शूद्रधर्मादि “विप्राणामर्चनं नित्यं शूद्रधर्मो विधो- यते ।

 तद्द्वेषो तद्धनग्राही शूद्रश्चाण्डालतां व्रजेत् ।
 नृध्रः कोटिसहस्राणि शतजन्मानि शूकरः ।

 श्वापदः शतजन्मानि शूद्रो विप्रधनापहा ।
 यः शूद्रो ब्राह्मणी- गामो मातृगामी स पातकी ।

 कुम्भीपाके पच्यते स यावद्वै ब्रह्मणः शतम् त। 
कुम्भीपाके तप्ततैके दष्टः सर्पैर- हर्निशम् । 

शब्दञ्च विकृताकारं कुरुते यमताडनात् ।
 ततश्चाण्डालयोनिः स्यात् सप्तजन्मसु पातकी ।

 सप्त- जन्मसु सर्पश्च जलौकाः सप्तजन्मसु ।
 जन्मकोटिसहस्रञ्च विष्ठायां जायते कृमिः । 

योनिक्रिमिः पुंश्चलीनां स भवेत् सप्तजन्मसु ।
गवां व्रणकृमिः स्याच्च पातकी सप्तजन्मसु । 
योनौ यौनौ भ्रमत्येवं न पुनर्जायते नरः” ब्रह्मवै० पु० ८३ अ० ।

 “द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्य्या सदा त्विह ।
 पादप्रक्षालनं गन्धैर्भोज्यमुच्छिष्टमात्रकम् । 

ते तु चक्रु स्तदा चैव तेभ्यो भूयः पितामहः । 
य शुश्रू- षार्थ मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः ।

 द्विजानां क्षात्त्र- वर्गाणां वैश्यानाञ्च भवद्विधाः ।
 त्रिभ्यः शुश्रूषणा कार्य्या इत्यवादीद्वचस्तदा” पाद्मे सृ० स्व० १६ अ०

 । “शुश्रूषैव द्वि- जातीनां शूद्राणां धर्मसाधनम् ।
 कारुकर्म तथाऽऽजीवः पाकयज्ञोऽपि धर्मतः” गारुड़े ४९ अ० ।

 “तथा मद्यस्य पानेन ब्राह्मणीगमनेन च । 
वेदाक्षरविचारेण शूद्रश्चा० ण्डालतां व्रजेत्” इति

 शूद्रकमलाकरधृतपराशरवाक्यम् । 
ब्राह्मणस्य तदन्नभोजननिषेधो यथा 
“शूद्रान्नं ब्राह्मणोऽश्नन् वै मामं भासार्द्धमेव वा । 
तद्योनावभिजायेत सत्यमेतद्विदुर्बुधाः ।

 अथोदरस्थशूद्राम्नो मृतः श्वा चैव जायते ।
 द्धादश दश चाष्टौ च गृध्रशूकरपुष्कराः । 
उदरस्थितशूद्रान्नो ह्यधीयानोऽपि नित्यशः । 
जुह्वन् वापि जपन् वापि गतिमूर्द्ध्वां न विन्दति । 

अमृतं ब्रा- ह्मणस्यान्नं क्षत्रियान्नं पयः स्मृतम् ।
 वैश्यस्य चान्नमे- वान्नं शूद्रान्नं रुधिरं स्मृतम् । 
तस्मात् शूद्रं न भिक्षेयु- र्यज्ञार्थं सद्द्विजातयः । 
श्मशानमिव यच्छूद्रस्तस्मात्तं परिवर्जयेत् । 
कणानामथ वा भिक्षां कुर्य्याच्चातिविक र्षितः ।

 सच्छूद्राणां गृहे कुर्वन् तत्पापेन न लिप्यते ।
 विशुद्धान्वयसंजातो निवृत्तो सद्यमांसतः । 
द्विजभक्तो बणिग्वृत्तिः शूद्रः सन् परिकीर्त्तितः” वृहत्पराशरः ।

 शूद्रकृत्यविचारणतत्त्वे मत्स्यपुराणम् “एवं शूद्रोऽपि सामान्यं वृद्धिश्राद्धन्तु सर्वदा ।
  ___________________________________

Ehre (एर )"The honrable people in Germen tribes who fights whith Druids prophet "जर्मन भाषा में आर्य शब्द के ही इतर रूप हैं।

Arier तथा Arisch आरिष यही एरिष Arisch शब्द जर्मन भाषा की उप शाखा डच और स्वीडिस् में भी विद्यमान है।और दूसरा शब्द शुट्र( Shouter) है ।
 शुट्र शब्द का परवर्ती उच्चारण साउटर (Souter) शब्द के रूप में भी है, शाउटर यूरोप की धरा पर स्कॉटलेण्ड के मूल निवासी थे ।
इसी का इतर नाम आयरलेण्ड भी था| 
(Definition of souter) chiefly Scotland :shoemaker People Are Reading 'Muster' or 'Mustard': Which Gets a Pass? Trending: Kim Jong Un: 
Trump a 'Dotard' September 2017 Words of the Day Quiz Origin and 
Etymology of souter Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew — 
more at sew Souterplay biographical name Sou·ter \ ˈsü-tər \ Definition of Souter David 1939–  
'____
 American jurist Learn More about souter See words that rhyme with souter Seen and Heard What made you want to look up souter? Please tell us where you read or heard it (including the quote, if possible). 
SHOW Love words? Need even more definitions? Subscribe to America's largest dictionary and get thousands more definitions and advanced search—ad free! *syu- syū-, also sū:-, Proto-Indo-European root meaning "to bind, sew." 

It forms all or part of: accouter; couture; hymen; Kama Sutra; seam; sew; souter; souvlaki; sutra; sutile; suture. It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit sivyati सीव्यति "sews," sutram "thread, string;
" Greek hymen "thin skin, membrane," hymnos "song;" 

Latin suere "to sew, sew together;" 
Old Church Slavonic šijo "to sew," šivu "seam;"
 Lettish siuviu, siuti "to sew," siuvikis "tailor;" Russian švec "tailor;" 
Old English siwian "to stitch, sew, mend, patch, knit together .. ____________________________________

आयर लोग आयबेरिया में थे ।
वर्तमान स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र ही था ।
 यही जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी कहलाया ।
 जिसके पश्चिम में फ्राँस की सीमाऐं है ।
 जिसे प्राचीन गॉल देश कहा जाता था ।
 शुट्र लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परम्परागत से चर्म के द्वार वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय करती थी 
 (Shouter a race who had sewed Shoes and Vestriarium..for nordic Germen tribes is called Souter or shouter .
 souter souter "maker or mender of shoes,
_______
" O.E. sutere, from L. sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (see SEW (Cf. sew)).

 souteneursouth Look at other dictionaries: Souter — is a surname, and may refer to:* Alexander Souter, Scottish biblical scholar * Brian Souter, Scottish businessman * Camille Souter, Irish painter 

* David Souter, Associate Justice of the Supreme Court of the United States * 

David Henry Souter,… …
 Wikipedia souter —

 ● souter verbe transitif (de soute) Fournir ou recevoir à bord le combustible nécessaire aux chaudières ou aux moteurs d un navire.
_______

 ⇒SOUTER, verbe trans. Souter — Sou ter, n. [AS. s?t?re, fr. It. sutor, fr. suere to sew.] A shoemaker; a cobbler. [Obs.] 

Chaucer. [1913 Webster] There is no work better than another to please God: . . . 
to wash dishes, to be a souter, or an apostle, all is one.
 Tyndale. [1913… … 
The Collaborative International Dictionary of English … 
English World dictionary Souter — 

This unusual and interesting name is of Anglo Saxon origin, and is an occupational surname for a shoemaker or a cobbler.

 The name derives from the Old English pre 7th Century word sutere , from the Latin sutor , shoemaker, a derivative of suere … 
Surnames reference souter — noun Etymology: Middle English, from Old English sūtere, from Latin sutor, from suere to sew more at sew Date: before 12th century chiefly Scottish shoemaker … 

New Collegiate Dictionary Souter — biographical name David 1939 American jurist … New Collegiate Dictionary souter — /sooh teuhrdd/, n. Scot. and North Eng. a person who makes or repairs shoes; cobbler; shoemaker. 

Also, soutter. [bef. 1000; ME sutor, OE sutere < L sutor, equiv. to su , var. s. of su(ere) to SEW1 + tor TOR] * * * 

… Universalium Souter — /sooh teuhr/, , MODx. *eu-(vest)
_________
 संस्कृत भाषा में वस्त्र शब्द का विकास - इयु (उ) व का सम्प्रसारण रूप है । 

Proto-Indo-European root meaning "to dress," with extended form *wes-

 (2) "to clothe." It forms all or part of: divest; exuviae; invest; revetment; transvestite; travesty; vest; vestry; wear.

 संस्कृत भाषा में भृ धारण करना । 
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: 
Hittite washshush "garments," washanzi 
"they dress;"

🌸 Sanskrit vaste "he puts on," vasanam "garment;"

🌸 Avestan vah-; वह (वस)
 Greek esthes "clothing," hennymi "to clothe," eima "garment;"

🌸 Latin vestire "to clothe;" Welsh gwisgo, Breton gwiska;

🌸 Old English werian "to clothe, put on, cover up," wæstling "sheet, blanket." ..... ...

यूरोप की संस्कृति में वस्त्र बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे ।

 क्यों कि शीत का प्रभाव ही यहाँ अत्यधिक था...
उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि संस्कृतियों में इन्हें सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था । 
यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है।

 यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है ।
तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है।
जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है।
 विदित हो कि गॉथ जर्मन देव संस्कृति  का एक प्राचीन राष्ट्र है । जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है । बाल्टिक सागर को स्केण्डिनेविया भी कहते हैं । 

बहुत बाद में ईसा की तीसरी शताब्दी में डेसिया राज्य में इन शुट्र लोगों ने प्रस्थान किया। 
डेसिया का समावेश इटली के अन्तर्गत हो गया !

 क्योंकि रोमन जन-जाति के यौद्धा यूरोप में सर्वत्र अपना सामाज्र्य विस्तार कर रहे थे । 

गॉथ राष्ट्र की सीमाऐं दक्षिणी फ्रान्स तथा स्पेन तक थी । रोमन सत्ता ने यहाँ भी दस्तक दी .. .. उत्तरी जर्मन में यही गॉथ लोग ज्यूटों के रूप में प्रतिष्ठित थे ।

 और भारतीय आर्यों में ये गौडों के रूप में परिलक्षित होते है; ये बातें आकस्मिक और काल्पनिक नहीं हैं , क्यों कि यूरोप में जर्मन आर्यों की बहुत सी शाखाऐं प्राचीन भारतीय गोत्र-प्रवर्तक ऋषियों के आधार पर हैं।

जैसे अंगिरस् ऋषि के आधार पर जर्मनों की ऐञ्जीलस् Angelus या Angle. जिन्हें पुर्तगालीयों ने अंग्रेज कहा था ।
ईसा की पाँचवीं सदी में ब्रिटेन के मूल वासीयों को परास्त कर ब्रिटेन का नाम- करण इन्होंने आंग्ल -लेण्ड कर दिया था... ।
जर्मन आर्यों में गोत्र -प्रवर्तक भृगु ऋषि के वंशज (Borough)...उपाधि अब भी लगाते हैं और वशिष्ठ के वंशज बेस्त कह लाते हैं समानताओं के और भी स्तर है ।..परन्तु हमारा वर्ण्य विषय शूद्रों से ही सम्बद्ध है ।

लैटिन भाषा में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन क्रिया स्वेयर -- Suere = to sew( सीवन करना )- सिलना अथवा ,वस्त्र -वपन करना ....... विदित हो कि संस्कृत भाषा में भी शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति शुट्र शब्द के समान है 

देखें (श्वि + द्रा + क )= शूद्र .. अर्थात् श्वि धातु संज्ञा करणे में द्रा + क प्रत्यय परे करने पर शूद्र शब्द बनता है ! 

कहीं कहीं भागुरि आचार्य के मतानुसार कोश कारों ने ....शुच् = शूचि कर्मणि धातु में संज्ञा भावे रक् प्रत्यय करने पर दीर्घ भाव में इस शब्द की व्युत्पत्ति-सिद्ध की है 

और इस शब्द का पर्याय सेवक शब्द है जिसका भी मूल अर्थ होता है... वस्त्रों का सीवन sewing ..करने वाला .. souter (n.)सुट्र --- "maker or mender of shoes," Old English sutere, from Latin sutor "shoemaker," from suere "to sew, stitch" (from PIE root *syu- "to bind, sew"). --
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 भारतीय आर्यों ने अपने आगमन काल में भारतीय धरा पर द्रविडों की शाखा कोलों को ही शूद्रों की प्रथम संज्ञा प्रदान की थी ।

....जिन्हें दक्षिण भारत में चोल .या चौर तथा चोड्र भी कहा गया था .. कोरी- जुलाहों के रूप में आज तक ये लोग वस्त्रों का परम्परागत रूप से निर्माण करते चले आरहे हैं । 
बौद्ध काल के बाद में लिपि- बद्ध ग्रन्थ पुराणों आदि में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- करने के काल्पनिक निरर्थक प्रयास भी किये गये --- जो वस्तुत असत्य ही हैं क्योंकि सत्य केवल एक रूप में होता है । 

और असत्य अनेक वैकल्पिक रूपों में होता है ।
 बौद्ध काल में भी इसी शब्द की व्युत्पत्ति- पर कोई सत्य प्रकाश नहीं पड़ता है ।

 वे शूद्र को सुद्द कहते थे .. कहीं क्षुद्र शब्द से इसका तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा की गयी .. यह बहुत ही विस्मय पूर्ण है कि यहाँ दो धातुऐं के योग से शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-की गयी है ।

 जो कि पाणिनीय व्याकरण के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है क्योंकि कृदन्त शब्द पदों की व्युत्पत्ति- एक ही धातु से होती है , 

दो धातुओं से नहीं .. संस्कृत में भी इसी शब्द का कोई व्युत्पत्ति-परक (Etymological)--प्राचीन आधार नहीं है 

 

 जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
 ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ण व्यवस्था में वर्गीकृत किया था ।
______
फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में भी आर्यों के इन चार वर्णों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे देखें नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार –
१ ---- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है ..

 २-----नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा 

३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा 

४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही वास्तर्योशान कहा गया है !!!! 

यही लोग द्रुज थे जिन्हे कालान्तरण में दर्जी भी कहा गया है ।
ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी ।

वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे । यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये ।

 विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है । 
अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्द आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है ।

 शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी ।
 पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर Souder (Soldier )कहा जाता था । व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से 
-- One tribe who serves in the Army for pay is called Souder .. वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।
 इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
 जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।
 जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है । 

फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून ... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर सजाते थे ।
 ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे । 

ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland... 

भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सादर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे । 
मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है । जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं । 

बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है ।
 यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है 
 ये सेमेटिक जन-जाति के थे ।

 अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा । 
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।

 पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है ।
 चन्द्र शब्द नहीं वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे । 
जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ । 

मैसॉपोटामिया की असीरियन अक्काडियन हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डिय संस्कृति भी एक कणिका थी ।
 इन्हीं के सानिध्य में एमॉराइट तथा कस्साइट्स (कश या खश) जन-जातीयाँ भारत की पश्चिमोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों में प्रविष्ट हुईं ।

 महाभारत में खश जन-जातीयाँ बड़ा क्रूर तथा साहसी बताया गयीं हैं ।
 भारतीय आर्यों ने इन्हें किरात संज्ञा दी यजुर्वेद में किरातों का उल्लेख है ।

. जाति शब्द ज्ञाति का अपभ्रंश रूप है । 
ये थे तो एक ही पूर्वज की सन्तानें परन्तु इनमें परस्पर सांस्कृतिक भेद हो गये थे ।

 केल्डियनों का उल्लेख ऑल्ड- टेक्ष्टामेण्ट (Old-textament) में सृष्टि-खण्ड (Genesis) 11:28 पर है  मैसॉपोटामिया के सुमेरियन के उर नामक नगर में जहाँ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का जन्म हुआ था । 

chesed कैसेड से जो हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का भतीजा था ।
 ये लोग आज ईसाई हैं , परन्तु यह अनुमान मात्र है ।

 प्रमाणों के दायरे में नहीं है यह भेद कारक ज्ञान ही इनकी ज्ञाति थी । 
सम्भवत: ईरानी संस्कृति में इन्हें कुर्द़ कहा गया है जो अब इस्लाम के अनुयायी हैं ।

 .....इसी सन्दर्भ में तथ्य भी विचारणीय है कि ईरानी आर्यों का सानिध्य ईरान आने से पूर्व आर्यन -आवास अथवा (आर्याणाम् बीज).
 जो आजकल सॉवियत -रूस का सदस्य देश अज़र -बेजान है एक समय यहीं पर सभी आर्यों का समागम स्थल था।

.......जिनमें जर्मन आर्य ,ईरानी आर्य ,तथा भारतीय आर्य भी थे  उत्तरीय ध्रुव के पार्श्व -वर्ती स्वीडन जिसे प्राचीन नॉर्स भाषा में स्वरगे Svirge कहा गया है ।

 भारतीय आर्यों का स्वर्ग ही था । 
यूरोप में जिस प्रकार जर्मन आर्यों का सांस्कृतिक युद्ध पश्चिमी यूरोप में गोल Goal केल्ट ,वेल्स ( सिमिरी )तथा ब्रिटॉनों से निरन्तर होता रहता था. 
जिनके पुरोहित ड्रयूड Druids -थे शुट्र( Souter)भी गॉलो की शाखा थी ..वास्तव में भारत में यही जन जातियाँ क्रमशः .कोल ,किरात तथा भिल्लस् और भरत कह लायीं । 
ये भरत जन जाति भारत के उत्तरी-पूर्व जंगलों में रहने वाली थी और ये वृत्र के अनुयायी व उपासक थे .।

.. जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा (A- barta) कहा गया है । 
भारत में भी इन जन -जातियों के पुरोहित भी द्रविड ही थे यह एक अद्भुत संयोग है !

 शूद्र शब्द का प्रथम प्रयोग कोलों के लिए हुआ था इसी सन्दर्भ में आर्यों का परिचय भी स्पष्टत हो जाय :- 

अत: कोई जिज्ञासु इस विषय में इन से विचार- विश्लेषण कर सकता है । 
 भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर के अर्थ में व्यवहृत है 

 पारसीयों पवित्र धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में अनेक स्थलों पर आर्य शब्द आया है जैसे –सिरोज़ह प्रथम- के यश्त ९ पर, तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त २५ पर …अवेस्ता में आर्य शब्द का अर्थ है
 ——-€ …तीव्र वाण (Arrow ) चलाने वाला यौद्धा —यश्त ८. स्वयं ईरान शब्द आर्यन् शब्द का तद्भव रूप है .. परन्तु भारतीय आर्यों के ये चिर सांस्कृतिक प्रतिद्वन्द्वी अवश्य थे !! 

ये असुर संस्कृति के उपासक आर्य थे. देव शब्द का अर्थ इनकी भाषाओं में निम्न व दुष्ट अर्थों में है …परन्तु अग्नि के अखण्ड उपासक आर्य थे ये लोग…
 स्वयं ऋग्वेद में असुर शब्द उच्च और पूज्य अर्थों में है ।
—-जैसे वृहद् श्रुभा असुरो वर्हणा कृतः ऋग्वेद १/५४/३. 
तथा और भी महान देवता वरुण के रूप में …

त्वम् राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन पाहि .असुर त्वं अस्मान् —ऋ० १/१/७४ तथा प्रसाक्षितः असुर यामहि –ऋ० १/१५/४. ऋग्वेद में और भी बहुत से स्थल हैं जहाँ पर असुर शब्द सर्वोपरि शक्तिवान् ईश्वर का वाचक है ..

 पारसीयों ने असुर शब्द का उच्चारण अहुर के रूप में किया है ।
अतः आर्य विशेषण असुर और देव दौनो ही संस्कृतियों के उपासकों का था ।
इसे जातीय रूप में प्रतिष्ठित यूरोपीय इतिहास कारों ने किया ।
और उधर यूरोप में द्वित्तीय महा -युद्ध का महानायक ऐडोल्फ हिटलर (Adolf-Hitler) स्वयं को शुद्ध नारादिक (nordic)  कहता था  ।
और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी युद्ध ध्वजा पर अंकित करता था ।
विदित हो कि जर्मन भाषा में स्वास्तिक को हैकैन- क्रूज. (Haken-cruez ) कहते थे।
जर्मन वर्ग की भाषाओं में आर्य शब्द के बहुत से रूप हैं 
परन्तु आर्य सिद्धान्त निर्धारित है क्यों कि सैमेटिक असुरों को भी आर्य कहा गया है ।
यहूदीयों भी सैमेटिक थे ।

ऐरे (Ehere) जो कि जर्मन लोगों की एक सम्माननीय उपाधि है ..जर्मन भाषाओं में ऐह्रे (Ahere) तथा (Herr) शब्द स्वामी अथवा उच्च व्यक्तिों के वाचक थे ।

और इसी हर्र (Herr) शब्द से यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित सर ….Sir …..शब्द का विकास हुआ. और आरिश Arisch शब्द तथा आरिर् (Arier) स्वीडिश डच आदि जर्मन भाषाओं में श्रेष्ठ और वीरों का विशेषण है।

 इधर एशिया माइनर के पार्श्व वर्ती यूरोप के प्रवेश -द्वार ग्रीक अथवा आयोनियन भाषाओं में भी आर्य शब्द. …आर्च Arch तथा आर्क Arck के रूप मे है जो हिब्रू तथा अरबी भाषा में आक़ा होगया है…ग्रीक मूल का शब्द हीरों Hero भी वेरोस् अथवा वीरः शब्द का ही विकसित रूप है और वीरः शब्द स्वयं आर्य शब्द का प्रतिरूप है जर्मन वर्ग की भाषा ऐंग्लो -सेक्शन में वीर शब्द वर Wer के रूप में है ..तथा रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह वीर शब्द Vir के रूप में है।

……… ईरानी आर्यों की संस्कृति में भी वीर शब्द आर्य शब्द का विशेषण है यूरोपीय भाषाओं में भी आर्य और वीर शब्द समानार्थक रहे हैं !
….हम यह स्पष्ट करदे कि आर्य शब्द किन किन संस्कृतियों में प्रचीन काल से आज तक विद्यमान है.. लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्रान्च में…Arien तथा Aryen दौनों रूपों में …इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेन भाषाओं में यह शब्द आरियो Ario के रूप में है पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ Ariano भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen ऐरियल-ऐनन के रूप में है .

. रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में Aryika के रूप में है.. कैटालन भाषा में Ari तथा Arica दौनो रूपों में है स्वयं रूसी भाषा में आरिजक Arijec अथवा आर्यक के रूप में है

 इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में क्रमशः Ariacoi तथाAri तथा अरबी भाषा मे हिब्रू प्रभाव से म-अारि. M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में.. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी Oriyoyi रूप. 

…इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् Arice के रूप में है .वेलारूस की भाषा मेंAryeic तथा Aryika दौनों रूप में..पूरबी एशिया की जापानी कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .Aria–iin..के रूप में है ….. आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं….

 परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव आर्यों की संस्कृति से हुआ ।

उस के विषय में हम कुछ कहते हैं ।
….विदित हो कि यह समग्र तथ्य यादव  योगेश कुमार रोहि के शोधों पर आधारित हैं।

.भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ Rootnal-Mean ..आरम् धारण करने वाला वीर …..संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा ….अथवा वीरः |

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति Etymology संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन अर्थ सर्व मान्य है । १–गमन करना Togo २– मारना to kill ३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना… ..प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।

 इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कात्स्न्र्यम् धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च..परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा .अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity.यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =togo के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर Err है ।

…….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशःAraval तथा Aravalis हैं अर्थात् कृषि कार्य.सम्बन्धी …..आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य ही थे …सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था 

आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था ।

.अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी(घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे …क्यों किअब भी . संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में….

 ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है …..इसी सन्दर्भ यह तथ्य भी प्रमाणित है कि आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में प्रथम प्रकासक थे …ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है.।
—–ग्रस् +मन् प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है गृह ही ग्राम की इकाई रूप है ..जहाँ ग्रसन भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्थाऐं होती हैं।



सौजन्य से यादव योगेश कुमार  "रोहि "

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