गुरुवार, 5 जनवरी 2023

वेदों नरमेध का विधान देखो शुन::शेप की कथा।



ऋग्वैदिक ऐतरेय ब्राह्मण की सातवीं पञ्चिका के तीसरे अध्याय (एक से छह खंड) में  शुन:शेप आख्यान वर्णित है। तदनुसार ऐतरेय आरण्यक के तैंतीसवें अध्याय का नाम शुनःशेप आख्यान है। इसे हरिश्चंद्रोपाख्यान भी कहा जाता है। कहानी इस प्रकार है-

इक्ष्वाकु वंश के वेद राजा हरिश्चंद्र नि:संतान थे।उसकी सौ पत्नियाँ थीं, लेकिन उनमें से किसी के भी कोई संतान नहीं थी।

 उनके घर में नारद और पर्वत ऋषि रहते थे। राजा ने नारद मुनि से पूछा कि पुत्र प्राप्ति से क्या लाभ है ? महर्षि नारद ने दस श्लोकों में इसका उत्तर दिया, जिसका सारांश यह है कि पुत्र होने से पिता पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है, पुत्र आत्मवत है क्योंकि वह आत्मा से उत्पन्न होता है, पुत्र दूसरे लोक का प्रकाश है, पति है पत्नी है। के गर्भ में प्रवेश हो पुत्र रूप में लेता है, स्त्री वहां तभी जाती है जब पुरुष उसमें बीज बोता है और उसे पैदा करता है।
इस उपदेश के बाद महर्षि नारद ने राजा से कहा, 'तुम वरुण के पास जाकर पुत्र मांगो और कहना कि मैं उस पुत्र से तुम्हारा यज्ञ कराऊंगा।' 

राजा ने वैसा ही किया. वरुण की कृपा से राजा को रोहित नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।
वरुण ने राजा से कहा, 'अब तुम पुत्र से मेरा यजन' करो । 
राजा ने विभिन्न रूपों में वरुण से विनती की कि वे उससे बचते रहें। जब रोहित बड़ा  हो गया तो वरुण ने फिर कहा, 'अब तुम इसके साथ मेरा यज्ञ करो।' राजा ने अपने पुत्र को बुलाया और कहा, 'मैं तुम्हें अपना बलिदान दूंगा। बेटे ने मना कर दिया और जंगल चला गया।

 उनकी अवज्ञा के बावजूद, वरुण ने हरिश्चंद्र को पकड़ लिया और उन्हें जलोदर रोग हो गया। जब रोहित ने यह सुना तो वह जंगल से लौटने लगा। रास्ते में इंद्र ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और उन्हें 'चरैवेति चरैवेति' का उपदेश दिया।

ब्राह्मण की आज्ञा मानकर रोहित फिर से जंगल में भटकने लगा। छह बार रोहित ने वापस लौटने की इच्छा की और हर बार इंद्र ने उसे चरैवेति का उपदेश देकर लौटा दिया। इस प्रकार रोहित छह वर्ष तक वन में भटकता रहा। इस अवसर पर उनकी जंगल में "सुयवस के पुत्र अजीगर्त से मुलाकात हुई , जो बिना भोजन के रह रहे थे। उनके तीन पुत्र थे- 1- शुन:पुच्च, 2- शुन:शेप और 3- शुनोलंगुल

रोहित ने अजीगर्त से कहा- 'तुम मुझे अपने एक पुत्र को बलि के लिए दे दो, मैं तुम्हें सौ गायें दूंगा।' अजीगर्त को लालच आ गया. उसने बड़े बेटे से कहा, "इसे मत लेना," और उसकी पत्नी ने सबसे छोटे बेटे को देने से इनकार कर दिया। परन्तु वे दोनों बीच वाले पुत्र को सुन:शेप को देने पर सहमत हो गये।

रोहित ने अजीगर्त को सौ गायें दीं और अपने बेटे के साथ घर आ गया। आकर पिता से बात करो, मैं अपने को वरुण की बलि से बचा लूँगा। तब राजा हरिश्चंद्र वरुण के पास गए और बोले, 'मैं इससे तुम्हारा यज्ञ करूंगा।'
वरुण ने कहा, 'ठीक है, क्योंकि ब्राह्मण क्षत्रिय से श्रेष्ठ है, इसलिए मैं इसे स्वीकार करूंगा।' 

तब वरुण ने उन्हें राजसूय यज्ञ की विधि बताई।इस प्रकार, अभिषेक के दिन, राजा ने जानवरों के बजाय पुरुषों को बलि के रूप में नियुक्त किया।
__________

 इस यज्ञ में विश्वामित्र उपस्थित थे, । जमदग्नि अध्वर्यु थे, वसिष्ठ ब्रह्मा थे और अय्य यज्ञकर्ता थे । 

जब यज्ञ प्रारम्भ हुआ तो यज्ञ में प्रयुक्त बलि को बाँधने वाला कोई नहीं मिला। अजीगर्त ने कहा, 'मुझे सौ गायें दो। मैं उसे बांध लूंगा'. राजा ने उसे सौ गायें दीं। अजीगर्त ने अपने पुत्र को बाँध लिया। हमारे मन्त्र पढ़ने और अग्नि की परिक्रमा करने के बाद भी बलि को मारने वाला कोई नहीं मिला।

तब अजीगर्त एक गाय और गायों के बदले में उसे मारने के लिए तैयार हो गया।

उसे एक सौ गायें दी गईं और उसने अपनी तलवार पर धार लगाना शुरू कर दिया। अपने पिता को ऐसा करते देख शुनःशेप निम्नलिखित शब्दों से प्रजापति की स्तुति करने लगा -

कस्य नुनुं कतमस्यामृतनम्"(ऋग्वेद 1/24/1)

प्रजापति ने उन्हें अग्नि के पास, अग्नि को सविता के पास, सविता को वरुण के पास, वरुण को फिर से अग्नि की शरण में जाने को कहा। तब अग्नि ने उनसे विश्व देवताओं की स्तुति करने को कहा। विश्वेदेवों ने उन्हें देवराज इन्द्र के पास जाने को कहा। जब उसने इंद्र की स्तुति की तो इंद्र ने उसे एक स्वर्ण रथ दिया और अश्विनों की स्तुति करने को कहा, अश्विनों ने उषा की स्तुति करने का आदेश दिया।
इस प्रकार जैसे-जैसे वह विभिन्न देवताओं की स्तुति करता गया, उसके बंधन ढीले होते गए और हरिश्चंद्र के पेट में सब कुछ पच गया। जब उन्होंने अंतिम मंत्र का जाप किया तो उनके सारे बंधन खुल गए और राजा हरिश्चंद्र पूरी तरह से स्वस्थ हो गए। अब ऋत्विजों ने शुन:शेप से कहा - 'अब तू हममें से ही एक है।
अतः आज के यज्ञ में भाग लें। तब शुनःशेप ने सोम को निकालने के लिए एक विशेष विधि निकाली और चार ऋचाओं  द्वारा सोम को निकालकर द्रोण कलश में रख दिया। उन्होंने सोमयज्ञ किया और यज्ञ की अंतिम आहुतियाँ देते समय उन्होंने हरिश्चंद्र को पास बुलाया और मंत्र पढ़ा।
यज्ञ के अंत में शुनशेप विश्वामित्र के आसन पर बैठे। अजीगर्त ने विश्वामित्र से कहा- 'हे महर्षि, मुझे मेरा पुत्र लौटा दो।' विश्वामित्र ने कहा- 'यह मुझे देवताओं ने दिया है, अत: अब यह मेरा पुत्र है। आज से इसका नाम देवरात वैश्वमित्र है। मैं उसे अपने सभी बेटों में सबसे बड़े के रूप में स्वीकार करता हूं।' इसके बाद विश्वामित्र ने अपने सभी सौ पुत्रों की सहमति मांगी। उनमें से मधुच्छन्दा के सबसे बड़े पचास पुत्रों ने विरोध किया और शेष सभी पचास पुत्रों ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए शुन:शेप को सबसे बड़े भाई का पद दिया। विश्वामित्र ने अपने विरोध करने वाले पचास पुत्रों को शूद्र बनने का श्राप दे दिया। इनसे आन्ध्र, पुण्ड्र, शबर, पुलिन्द आदि दस्यु जातियाँ प्रचलित थीं। इसके बाद विश्वामित्र ने उनका साथ देने वाले अपने पुत्रों की प्रशंसा की।


"शुन:शेप की कथा के वैदिक सन्दर्भ:- 

वेदों नरमेध का विधान देखा जा सकता है  देखें वरुण सूक्त में शुन:शेप की कथा।

वैदिक काल के एक प्रसिद्ध ऋषि जो महर्षि ऋचीक के पुत्र थे। विशेष—रामायण के अनुसार ये महाराज अंबरीष के यज्ञ में बलि के लिये शुन:शेप लाए गए थे। विश्वामित्र ने दयावश इनको अग्नि की स्तुति बतला दी थी अग्निदेव इनकी स्तुति से इतने प्रसन्न हुए थे कि जब ये यज्ञकुंड में डाले गए, तब उसमें से अक्षत शरीर बाहर निकल आए। इसके उपरांत ये महर्षि विश्वामित्र के यहाँ उनके पुत्रतुल्य होकर रहने लगे। देवीभागवत आदि कुछ पुराणों में इनके संबंध में कई कथाएँ आई हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (हरिश्चंद्रोपाख्यान) के अनुसार ये अजीगर्त के पुत्र थे और हरिश्चन्द्र के यज्ञ में वरुणदेव की बलि के लिये लाए गए थे

शुनःशेप एक महान ऋषि थे जिनका वर्णन कई सनातन शास्त्रों अथवा वैदिक ग्रंथों में मिलती है। ऋग्वेद की कई ऋचाओं की रचना उन्होंने की। उन्हें बाद में महर्षि विश्वामित्र ने गोद ले लिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र का स्थान दिया।

तत्पश्चात शुनःशेप का नाम देवरात वैश्वामित्र हो गया। शुनःशेप का उल्लेख सबसे प्रथम ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त २४-२५  में वरुण देव के उपासक के रूप में मिलता है।

कथा के अनुसार, शुनःशेप जब बालक थे तब उनकी बलि दी जानी थी, परन्तु उनके द्वारा देवों की उपासना के पश्चात उनके प्राणों की रक्षा हुई। वर्तमान में जितने ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनमे सबसे पहले इस आख्यान का उल्लेख ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण (7.13 - 18) में मिलता है। 

इस कथा का एक वृतान्त वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड (1.61) में और भगवत पुराण में भी मिलता है, जिसमे कुछ भिन्नताएँ हैं। इस कथा का उल्लेख कई और ग्रंथों जैसे कि सांख्यायन श्रौत सूत्र, बौधायन श्रौत सूत्रपुराणों एवं चन्द्रकीर्ति की रचनाओं आदि में भी मिलता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित कथा

इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चंद्र अपनी सौ रानियों के बावजूद निस्संतान थे। उसने वरुण देवता की उपासना की कि अगर मुझे पुत्र प्राप्ति हो तो पहला पुत्र आपको समर्पित करूंगा।

कालान्तर में राजा के यहाँ पुत्र जन्म हो गया । तब वरुण देवता प्रकट होकर राजा को उनके संकल्प की याद दिलाई और नवजात को लेकर यज्ञ संपन्न करने को कहा । राजा ने कहा, “अभी तो अशौच की स्थिति है अतः उससे यज्ञ अनुमत नहीं है ।” देवता वरुण मान गये । 10-दिनी अशौच पूर्ण होने पर वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने राजा को यज्ञ की याद दिलाई ।

राजा ने इस बार कहा, “किसी पशु की बलि तब तक नहीं दी जाती जब तक उसके दांत न निकल आवें। अतः दांत तो निकलने दीजिए ।” 'ठीक है' कहते हुए देवता चले गये । जब उस बच्चे के दांत कुछ वर्षों में निकल गये वे पुनः आए और राजा को संकल्प की याद दिलाई । इस बार राजा ने फिर बहाना बनाया और कहा, “जब पशु के आरंभिक (दूध के) सभी दांत गिर जावें तभी उसे यज्ञ में दिया जा सकता है ।” 'तथास्तु' कहते हुए वरुण लौट गये । जब उसके दाँत गिर गए तो वरुणदेव ने पुनः राजा को अपने संकल्प की याद दिलाई । राजा को पुत्रमोह हो चला था, अतः उन्होंने नया बहाना पेश किया । वे बोले, “जब बालक के स्थाई दांत निकल आवें तभी उसका यजन किया जाना चाहिए ।” इस बार फिर वरुण देवता लौट गए । समयांतर पर बालक के स्थाई दांत आ गये। राजा को उसका संकल्प स्मरण कराने देवता प्रकट हुए । राजा बोले, “हे देव, जब बालक धनुर्विद्या, युद्धकला आदि क्षत्त्रियोचित संस्कार प्राप्त कर ले तो उसके बाद मैं उससे आपका यजन करूंगा ।”

बालक का नाम रोहित था और जब वह उक्त प्रकार से सुसंस्कृत हो गया तो वरुण ने अपनी माँग पुनः दोहराई । इस बार राजा कोई बहाना नहीं बना सके। उन्होंने पुत्र रोहित को पास बुलाकर कहा, “बेटा, मैंने वरुण देवता के वरदान से तुम्हें प्राप्त किया । तब मैंने उन्हें वचन दिया था कि मैं तुम्हें बलि के रूप उन्हें सौंप दूंगा । निःसंदेह यह मेरे पाप-वचन थे । अब मुझे यजन करना ही है।”

कुमार रोहित को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था । उसने अपना धनुषादि आयुध उठाए और वन की ओर चला गया। एक वर्ष तक वह देशाटन करता रहा अलग-अलग स्थलों पर गया, विभिन्न घटनाओं का अनुभव किया। इसी समय वरुणदेव के रोष के फलस्वरूप राजा हरिश्चंद्र रोगग्रस्त हो गए । वर्ष बीतते-बीतते रोहित ने पिता के अस्वस्थ होने का समाचार लोगों के मुख से सुना । वह घर लौटने को उद्यत हुआ। वापसी के मार्ग में ब्राह्मण भेष धारण करके इंद्र उससे मिले, जिन्होंने उसे घर जाने के बजाय पुनः 'पर्यटन-देशाटन करते रहो' (चरैवेति चरैवेति) की सलाह दी । ब्राह्मण ने उसको ज्ञानोपदेश दिया –

"नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम।
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥
अनुवाद:-
हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम विचरण करते रहो।

ब्राह्मण के उपदेशों से प्रभावित होकर रोहित पुनः देश-प्रदेश में विचरण करने लगा । प्रत्येक वर्ष के बाद जब रोहित घर लौटने की सोचता है तो मार्ग में फिर ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र मिलते हैं जो पुनः “चरैवेति” की सलाह देते हैं। दूसरे वर्ष के समाप्त होते-होते जब वह घर लौटने लगा तो ब्राह्मण रूप में इंद्र उसे फिर मिल गए । ब्राह्मण ने उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हुए पर्यटन करते रहने की सलाह दी –

"पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥
निरन्तर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं । अतः तुम चलते ही रहो।

राजपुत्र रोहित ने ब्राह्मण की बातों को मान लिया और वह घर लौटने का विचार त्यागकर पुनः देशाटन पर निकल गया । घूमते-फिरते तीसरा वर्ष बीतने को हुआ तो उसने वापस घर लौटने का मन बनाया । इस बार भी इन्द्र देव ब्राह्मण भेष में उसे मार्ग में दर्शन देते है । वे उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हैं । वे कहते हैं –

आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो।

पर्यटन में लगे रोहित का एक और वर्ष बीत गया और वह घर लौटने लगा। पिछली बारों की तरह इस बार भी उसे मार्ग में ब्राह्मण-रूपी इंद्र मिल गए, जिन्होंने उसे “चरैवेति” कहते हुए पुनः भ्रमण करते रहने की सलाह दी। रोहित उनके बचनों का सम्मान करते हुए फिर से पर्यटन में निकल गया । इस प्रकार रोहित चार वर्षों तक यत्रतत्र भ्रमण करता रहा । चौथे वर्ष के अंत पर जब वह घर लौटने को उद्यत हुआ तो मार्ग में उसे ब्राह्मण भेष में इंन्द्रदेव पुनः मिल गए । उन्होंने हर बार की तरह “चरैवेति” का उपदेश दिया और कहा –

कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥
शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो ।

उक्त प्रकार से संचरण में लगे रोहित के पांच वर्ष व्यतीत हो गये । ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र ने अंतिम (पांचवीं) बार फिर से रोहित को संबोधित करते हुए “चरैवेति” के महत्व का बखान किया ।

चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर, अंजीर) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करता है । उसी प्रकार तुम भी चलते रहो।

ब्राह्मण की सलाह के अनुरूप कुमार रोहित छठे वर्ष भी पर्यटन पर चला गया । इस बार वनक्षेत्र में विचरण करते हुए उसकी भेंट सुयवस के पुत्र निर्धन अजीगर्त नामक ऋषि (महर्षि ऋचीक?) से हुई ।

अजीगर्त के तीन बालक-पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलांगूल थे । (तीनों शब्दों, पुच्छ, शेप तथा लांगूल, का एक ही अर्थ पूंछ होता है । श्वन् = कुत्ता; शुनः = कुत्ते की; शुनःपुच्छ = कुत्ते की पूँछ।) रोहित ने अजीगर्त के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि वह किसी एक पुत्र को उसे (रोहित को) बेच दे । मूल्य रूप में उनको सौ गायें दी जाएंगी । अजीगर्त को ज्येष्ठ और उसकी पत्नी को कनिष्ठ पुत्र प्यारे थे, उन्होंने मंझले शुनःशेप को बेच दिया । रोहित उसको लेकर घर लौट आया । इसके साथ ही “चरैवेति” उपदेशों की शृखला समाप्त हो गई ।

रोहित ने शुनःशेप को पिता हरिश्चन्द्र को सोंप दिया, ताकि उसके बदले उस बालक से वरुणदेव का यजन किया जा सके और वह स्वयं मुक्त हो जावे ।

कथा के अनुसार वरुणदेव को क्षत्रिय बालक के बदले ब्राह्मण बालक अधिक स्वीकार्य था 

तत्पश्चात यज्ञ की व्यवस्था की गई, जिसमें स्वयं अजीगर्त भी सम्मिलित हुआ । सभी तैयारियों के अंतर्गत जब शुनःशेप को पशु की भांति यूप (यज्ञमंडप में याज्ञिक कर्मों के लिए खंभा) पर बांधने की बारी आई तो कोई भी व्यक्ति इस पापकर्म को करने को तैयार नहीं हुआ । तब अजीगर्त ने सौ गायें लेकर स्वयं ही इस कार्य को संपन्न कर दिया । 

यूप पर पशुवत बंधे उस बालक का बध करके बलि देने के लिए कोई तैयार न हुआ । तब अजीगर्त ने अतिरिक्त सौ गायें मांगकर उस कार्य को भी पूरा करना स्वीकार कर लिया ।

शुनःशेप को यह आभास हो गया कि एक पशु की तरह यज्ञ में उसका बध किया जाना है । जबकि यज्ञ संबंधी उसके ज्ञान के अनुसार यज्ञ की “पर्यग्नि” नामक प्रक्रिया के बाद उसे बन में छोड़ा जाना चाहिए था । किंतु वहां तो उसका बध वास्तव में किया जाने वाला है । वह आत्मरक्षा हेतु ऋग्वैदिक मंत्रों से देवताओं की अर्चना करने लगा । उसने सर्वप्रथम प्रजापति (ब्रह्मा?) की प्रार्थना की जिन्होने उसे अग्नि की स्तुति करने को कहा क्योंकि वे सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

अग्नि की अर्चना करने पर उस ब्राह्मण बालक को सविता  की प्रार्थना करने को कहा, जो सभी जीवों के जन्मदाता-पालनकर्ता हैं । सविता ने बालक से कहा कि चूंकि उसे वरुणदेव के लिए यूप पर बांधा गया है अतः वह उन्हीं की शरण में जावे । स्तुति करने पर वरुण ने कहा कि अग्नि सभी देवताओं के मुखस्वरूप हैं, क्योंकि यज्ञ की आहुतियां उन्हीं के माध्यम से देवताओं को प्राप्त होती हैं, अतः उन्हीं की शरण में वे जावें ।

बालक ने फिर से अग्नि की स्तुति की तो अग्निदेव बोले कि तुम समस्त देवों की सामूहिक स्तुति करो उसने वही किया । तब देवगण बोले कि वह इंद्र की प्रार्थना करे जो उन सभी में श्रेष्ठतम हैं । उसने वही किया ।

इंद्र ने उसके लिए एक दिव्यरथ भेज दिया और कहा कि वह अश्विनी कुमारों की स्तुति करे वही उसे छोड़ देंगे । अश्विनियों की प्रार्थना करने पर उन्होंने बालक से कहा कि वह उषा  की स्तुति करे ताकि सभी देवता उसे मुक्त कर दें ।

शुनःशेप ने वेद की ऋचाओं के साथ स्तुति आंरभ की । जैसे-जैसे उसने एक-एककर ऋचाओं से देवताओं की स्तुति की वैसे-वैसे उसके बंधन खुलते गए, और जलोदर से स्थूल हो चुके राजा का पेट भी सामान्य होता गया । मुक्त हो चुका बालक शुनःशेप ऋषि विश्वामित्र की गोद में स्वयं को उनका पुत्र मानते हुए बैठ गया । इसी के साथ बालक शुन:शेप, ऋषि शुन:शेप बन गया, क्योंकि वह उसके लिए रूपांतरण की घड़ी थी।

शुनःशेप के विश्वामित्र का पुत्र घोषित होने पर अजीगर्त का पुत्रमोह जाग गया। उन्होंने उसे ऐसा करने से मना किया और उनके पास वापस आ जाने का आग्रह किया । इस प्रयोजन के लिए उन्होंने पूर्व में पाये गये तीन सौ गायें राजा को लौटाने की बात भी रखी । किंतु बालक शुनःशेप ने यह कहते हुए प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया कि जो पिता यज्ञ में अपने पुत्र का पशुवत वध करने के कुत्सित कृत्य के लिए तैयार हो उसके पितृत्व को वह अस्वीकार करता है। देवताओं की कृपा से ऋषि विश्वामित्र उसके पिता बन गये ।

कुछ और विद्वानों के अनुसार शुनःशेप कौशिको के कुल मे उत्पन्न महान तपस्वी विश्वामित्र ( विश्वरथ ) व विश्वमित्र के शत्रु शाम्बर की पुत्री उग्रा की खोई हुयी सन्तान था जिसे भरतो (कौशिको ) के डर से लोपमुद्रा ने अजीगर्त के पास छिपा दिया था। भरतो ने उग्र को मार दिया।

शुनःशेपाख्यान का सन्देश

भारतीय संस्कृति में पैदा हुए किसी भी मनुष्य का मन यावत् जीवन त्रिविध एषणाओं से बद्ध – सुबद्ध – रहता है। यह एक निर्विवाद हकीकत है। ये तीन एषणाओं का नाम है – 1. पुत्रैषणा, 2. वित्तैषणा और 3. लोकैषणा। 

इन तीनों में से जो वितैषणा है, वह मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक जीवन से नाता रखती है। और जो लोकैषणा है, वह पूर्वमीमांसा-प्रोक्त यज्ञयागादि से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक आदि मरणोत्तर लोक से सम्बन्ध रखती है। परन्तु जो पुत्रैषणा है, वह मनुष्यमात्र की पृथिवीलोक पर सदैव बने रहने की शाश्वत एवं सार्वभौम इच्छा का अकाट्य अंकुर है। और ऐसी पुत्रैषणा में पुत्र एवं पुत्री दोनों अभीष्ट है – यह बात तार्किक रूप से निहित है। 

लेकिन स्त्रीदेह की प्राकृतिक मर्यादाओं के कारण, स्त्रीदेह की अपेक्षा पुरुषदेह सबल होने के कारण समाज में पुरुष का महत्त्व बढता गया है और विश्व में बहुशः समाज पुरुषप्रधान आकारित होता रहा है। अतः मनुष्यमात्र के मन में पुत्रैषणा जड़ीभूत हो गई है। अतः ऐतरेयब्राह्मण में आयी हुई शुनःशेप की जो कथा है वह पुत्रैषणा-ग्रस्त जनमानस को अतीव सूचक रूप से मार्गदर्शक बनती है।।

यद्यपि शुनःशेप की कथा को अद्यावधि दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है। जैसे कि – वेदकाल में नरमेध याग होते थे या नहीं। शुनःशेपाख्यान में वरुणदेवता को कोई मनुष्य का बलि चढाने की बात आती है, इस लिए दुनिया भर के विद्वानों ने एक ही बात को चर्चा का बिन्दु बनाया है कि वैदिक यज्ञ-यागादि में पशुबलि के साथ साथ मनुष्यों का भी बलि चढाया जाता था कि नहीं। - 

परन्तु यह आख्यान उस समय के नर मेध प्रचलन पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।

"चरैवेति चरैवेति, चराति चरतो भग।

इन शब्दों से इन्द्र ने जो उपदेश दिया था, इसका फल यह आता है कि हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को वन-विचरण के दौरान, तीन पुत्रों को साथ में लेकर अन्न की तलाश में घुम रहे एक दरिद्र पिता अजीगर्त मिल गया। रोहित ने राजपुत्र होने के कारण, राजलक्ष्मी के जोर पर, अर्थात् बाप-कमाई के जोर पर, दरिद्र व्यक्ति के एक दीन-हीन पुत्र (शुनःशेप) को खरीद कर अपने साथ में ले कर राजमहल में वापस आता है। राजकुमार रोहित ने मन में ऐसा सोच रखा है कि इस दरिद्र-ब्राह्मणपुत्र का बलि दे कर, वरुण के पाश से पिता को वह मुक्त करा लेगा और अपने आप को भी मृत्यु से मुक्ति मिल जायेगी। - यहाँ पर इन्द्र के कहने में आकर बार बार वन-विचरण करते रहेते रोहित का, पहेले एक अनिर्णायक मनोबल वाले पुत्र के रूप में परिचय मिलता है और बाद में, स्वार्थी तथा बाप-कमाई का आश्रय लेने वाले राजपुत्र के रूप में परिचय मिलता है। संसार में यह पहले प्रकार का पुत्र है।।

संसार में जो दूसरे प्रकार का पुत्र होता है, वह ऋषि विश्वामित्र के अग्रज 50 पुत्रों हैं। वे विश्वामित्र जैसे मन्त्रद्रष्टा पिता की भी आज्ञा मानते नहीं है। पिता की विवेकबुद्धि की अवहेलना करनेवाले इन पुत्रों ने पैतृक-विरासत खो दी और शापित भी हुये। परिणामतः वे समाज में दस्युओं जैसा जीवन जीने लगते है। इक्यानवाँ मधुच्छन्दा नामक पुत्र और उनके अनुज 50 भ्रातृ-समूह ने पिता की आज्ञा मान ली। विश्वामित्र की दृष्टि में विश्वास करनेवाले इन पुत्रों ने शुनःशेप को अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में स्वीकार कर लिया।।

तीसरे प्रकार का जो पुत्र सदैव स्पृहणीय होता है, वह है शुनःशेप। पूरे आख्यान को पढ कर लगता है कि वह क्षुधा-पीडित व्यक्ति जरूर था, परन्तु नित्य विद्या-व्यासंग करने वाला पुत्र था। क्योंकि वरुण के पाश से मुक्त होने के लिये जो मन्त्र ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल और पंचम मण्डल में आये हुये है इन सब को वह अच्छी तरह से जानता था। साथ में वह स्वयं भी, प्रथम मण्डल में संगृहीत अनेक मन्त्रों का द्रष्टा ऋषि भी है। अत: एव वह ऋषि विश्वामित्र की दृष्टि में स्पृहणीय पुत्र बन जाता है। विश्वामित्र को अपने ही 101 औरस पुत्र थे। किन्तु उनको शुनःशेप जैसा मन्त्र-द्रष्टा पुत्र न होने का अफसोस था। 

अतः वह अपने औरस पुत्रों को बुला कर शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने की आज्ञा देते हैं। उनकी दृष्टि में शुनःशेप जैसा पुत्र ही संग्राह्य एवं स्पृहणीय है।

विश्वामित्र ने पूरी यज्ञक्रिया के दौरान देखा है कि शुनःशेप सही अर्थ में देवरात है। अग्नि, वरुण, इन्द्र, अश्विनौ, विश्वेदेवा एवं उषा इत्यादि देवतायें ही उनकी सम्पत्ति – राति – थे और उसी के बल उपर उसने अपनी मुक्ति प्राप्त की है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • 1. ऐतरेय-ब्राह्मणम् – सायण-भाष्यसमेतम् (प्राच्य भारती ग्रन्थमाला - 14), सं. डो. सुधाकर मालवीय, प्रकाशक – तारा बुक एजन्सी। वाराणसी, 1996.
  • 2. ऐतरेयब्राह्मण का एक अध्ययन, ले. श्री नाथूलाल पाठक, पीएच.डी. शोधप्रबन्ध, राजस्थान वि.वि., प्रका. रोशनलाल जैन एण्ड सन्स, जयपुर, 1966
← ऋग्वेदः - मण्डल १
आजीगर्तिः शुनःशेपः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः।
सूक्तं (१२४)
देवता- १ कः (प्रजापतिः), २ अग्निः, ३-५ सविता, ५ भगो वा, ६-१५ वरुणः। १,२, ६-१५ त्रिष्टुप्, ३-५ गायत्री
                      पुरुषमेधः


"कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥१॥
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च ॥२॥
अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम् ।
सदावन्भागमीमहे ॥३॥
यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः ।
अद्वेषो हस्तयोर्दधे ॥४॥
भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा ।
मूर्धानं राय आरभे ॥५॥
नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः ।
नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम् ॥६॥
अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः।
नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः ॥७॥

पदों का अर्थ-

 ! (यूयम्)=तुमसब , (यः)=जो, (पूतदक्षः) पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्य सः=वह जिसका बल पवित्र और दक्ष है, (राजा) = यो राजते, प्रकाशयते प्रकाशते=प्रकाशमान, (वरुणः) श्रेष्ठः=श्रेष्ठ, (जलसमूहः)=जलसमूह, (सविता)=सर्वेषां प्रसविता=सब का उत्पादक, (वा)=अथवा, (अबुध्ने) अन्तरिक्षासादृश्ये स्थूलपदार्थे। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति=अन्तरिक्ष के समान बड़े आकाश में, (वनस्य) वननीयस्य संसारस्य=सेवनीय संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) उपरि=ऊपर, (स्तूपम्)= समूहम्। स्तूपः स्त्यायतेः संघातः=अपनी किरणों को, (ददते) ददाति=छोड़ता है, (यस्य)=जिसकी, (नीचीनाः) अर्वाचीना अधस्थाः=नीचे को गिरते हुए, (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा= किरणें, (एषाम्) जगत्स्थानां पदार्थानाम्=इन संसार के पदार्थों को, (बुध्नः) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः=जिसमें ठहरे हुए जल हैं, ऐसे मेघ, (स्थुः) तिष्ठन्ति=ठहरती हैं, (पदान्तः) प्राप्तव्य स्थान के बीच में, (निहिताः) स्थिताः=स्थित, (आप)=जल, (स्युः) सन्ति=हैं, (यद्)=जिसके, (अन्तः) मध्ये=बीच में, (स्थः) तिष्ठन्ति=ठहरती हैं, (बुध्नः)=जिसमें ठहरे हुए जल हैं, ऐसे मेघ, (च)=भी, (ते)=वे, (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा=किरणे, (अस्मे) अस्मासु=हम लोगों में, (अन्तः) मध्ये= बीच में, (निहिताः) स्थिताः= स्थित, (च)=भी, (भवन्ति)=होते हैं, (इति)=ऐसा, (विजानीत)=जानो॥७॥

पदार्थ

१. वह (राजा) - सारे संसार को व्यवस्था में चलानेवाला (पूतदक्षः) - पवित्र बलवाला अथवा हमारे बलों को पवित्र करनेवाला (वरुणः) - सबका नियामक प्रभु (अबुध्ने) - मूलरहित अन्तरिक्ष प्रदेश में (वनस्य) - वननीय तेज के सेवन के योग्य रश्मियों के (स्तूपम्) - संघभूत सूर्य को धारण करता है । 

२. इस सूर्य की रश्मियों (नीचीनाः) - [नि  अञ्चन्ति] नीचे की ओर आनेवाली होकर (स्थुः) - उस सूर्य में ठहरती हैं । (एषाम्) - इनका (बुध्नः) - मूल (उपरि) - ऊपर है । 

३. छोड़ता इसलिए है कि (अस्मे अन्तः) - हमारे अन्दर (केतवः) - [प्रज्ञापकाः प्राणाः, सा०]  (निहिताः स्युः) - स्थापित हों । 

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उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ।
अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित् ॥८॥
शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु ।
बाधस्व दूरे निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत् ॥९॥
अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः ।
अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति ॥१०॥
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः ।
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः ॥११॥
तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे ।
शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु ॥१२॥
शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः ।
अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान् ॥१३॥
अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः ।
क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि ॥१४॥
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ॥१५॥

सन्दर्भ:-
ऋग्वेदः - मण्डल १

आजीगर्तिः शुनःशेपः स कृत्रिमो वैश्वामित्रो देवरातः।
सूक्तं (१२४)
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श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे बालकाण्डे एकषष्ठितमः सर्गः॥१-६१॥

"विश्वामित्रो महातेजाः प्रस्थितान् वीक्ष्य तानृषीन्।
अब्रवीन्नरशार्दूल सर्वांस्तान् वनवासिनः॥१॥

महाविघ्नः प्रवृत्तोऽयं दक्षिणामास्थितो दिशम्।
दिशमन्यां प्रपत्स्यामस्तत्र तप्स्यामहे तपः॥२॥

पश्चिमायां विशालायां पुष्करेषु महात्मनः।
सुखं तपश्चरिष्यामः सुखं तद्धि तपोवनम्॥३॥

एवमुक्त्वा महातेजाः पुष्करेषु महामुनिः।
तप उग्रं दुराधर्षं तेपे मूलफलाशनः॥ ४॥

एतस्मिन्नेव काले तु अयोध्याधिपतिर्महान्।
अम्बरीष इति ख्यातो यष्टुं समुपचक्रमे॥५॥

तस्य वै यजमानस्य पशुमिन्द्रो जहार ह।
प्रणष्टे तु पशौ विप्रो राजानमिदमब्रवीत्॥ ६॥

पशुरभ्याहृतो राजन् प्रणष्टस्तव दुर्नयात्।
अरक्षितारं राजानं घ्नन्ति दोषा नरेश्वर॥ ७॥

प्रायश्चित्तं महद्ध्येतन्नरं वा पुरुषर्षभ।
आनयस्व पशुं शीघ्रं यावत् कर्म प्रवर्तते॥ ८॥

उपाध्यायवचः श्रुत्वा स राजा पुरुषर्षभः।
अन्वियेष महाबुद्धिः पशुं गोभिः सहस्रशः॥ ९॥

देशाञ्जनपदांस्तांस्तान् नगराणि वनानि च।
आश्रमाणि च पुण्यानि मार्गमाणो महीपतिः॥ १०॥

स पुत्रसहितं तात सभार्यं रघुनन्दन।
भृगुतुंगे समासीनमृचीकं संददर्श ह॥ ११॥

तमुवाच महातेजाः प्रणम्याभिप्रसाद्य च।
महर्षिं तपसा दीप्तं राजर्षिरमितप्रभः॥ १२॥

पृष्ट्वा सर्वत्र कुशलमृचीकं तमिदं वचः।
गवां शतसहस्रेण विक्रीणीषे सुतं यदि॥ १३॥

पशोरर्थे महाभाग कृतकृत्योऽस्मि भार्गव।
सर्वे परिगता देशा यज्ञियं न लभे पशुम्॥ १४॥

दातुमर्हसि मूल्येन सुतमेकमितो मम।
एवमुक्तो महातेजा ऋचीकस्त्वब्रवीद् वचः॥ १५॥

नाहं ज्येष्ठं नरश्रेष्ठ विक्रीणीयां कथंचन।
ऋचीकस्य वचः श्रुत्वा तेषां माता महात्मनाम्॥ १६॥

उवाच नरशार्दूलमम्बरीषमिदं वचः।
अविक्रेयं सुतं ज्येष्ठं भगवानाह भार्गवः॥ १७॥

ममापि दयितं विद्धि कनिष्ठं शुनकं प्रभो।
तस्मात् कनीयसं पुत्रं न दास्ये तव पार्थिव॥ १८॥

प्रायेण हि नरश्रेष्ठ ज्येष्ठाः पितृषु वल्लभाः।
मातॄणां च कनीयांसस्तस्माद् रक्ष्ये कनीयसम्॥ १९॥

उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन् मुनिपत्न्यां तथैव च।
शुनःशेपः स्वयं राम मध्यमो वाक्यमब्रवीत्॥ २०॥

पिता ज्येष्ठमविक्रेयं माता चाह कनीयसम्।
विक्रेयं मध्यमं मन्ये राजपुत्र नयस्व माम्॥ २१॥

अथ राजा महाबाहो वाक्यान्ते ब्रह्मवादिनः।
हिरण्यस्य सुवर्णस्य कोटिभी रत्नराशिभिः॥२२॥

गवां शतसहस्रेण शुनःशेपं नरेश्वरः।
गृहीत्वा परमप्रीतो जगाम रघुनन्दन॥ २३॥

अम्बरीषस्तु राजर्षी रथमारोप्य सत्वरः।
शुनःशेपं महातेजा जगामाशु महायशाः॥ २४॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकषष्ठितमः सर्गः ॥१-६१॥


 अनुवाद:-

श्लोक 1:  [शतानन्दजी कहते हैं-] पुरुषसिंह श्रीराम ! यज्ञ में आये हुए उन सब वनवासी ऋषियों को वहाँ से जाते देख महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनसे कहा-।
 
श्लोक 2:  ‘महर्षियो! इस दक्षिण दिशामें रहने से हमारी तपस्या में महान् विघ्न आ पड़ा है; अतः अब हम दूसरी दिशा में चले जायँगे और वहीं रहकर तपस्या करेंगे।
 
श्लोक 3:  ‘विशाल पश्चिम दिशा में जो महात्मा ब्रह्माजी के तीन पुष्कर हैं, उन्हीं के पास रहकर हम सुखपूर्वक तपस्या करेंगे; क्योंकि वह तपोवन बहुत ही सुखद है’।
 
श्लोक 4:  ऐसा कहकर वे महातेजस्वी महामुनि पुष्कर में चले गये और वहाँ फल-मूल का भोजन करके उग्र एवं दुर्जय तपस्या करने लगे।
 
श्लोक 5:  इन्हीं दिनों अयोध्या के महाराज अम्बरीष एक यज्ञ की तैयारी करने लगे।
 
श्लोक 6:  जब वे यज्ञ में लगे हुए थे, उस समय इन्द्र ने उनके यज्ञपशु को चुरा लिया। पशु के खो जाने पर पुरोहितजी ने राजा से कहा- ।
 
श्लोक 7:  ‘राजन् ! जो पशु यहाँ लाया गया था, वह आपकी दुर्नीतिके कारण खो गया। नरेश्वर! जो राजा यज्ञपशु की रक्षा नहीं करता, उसे अनेक प्रकार के दोष नष्ट कर डालते हैं।
 
श्लोक 8:  ‘पुरुषप्रवर! जबतक कर्म का आरम्भ होता है,उसके पहले ही खोये हुए पशु की खोज कराकर उसे शीघ्र यहाँ ले आओ अथवा उसके प्रतिनिधि रूप से किसी पुरुष पशु को खरीद लाओ। यही इस पाप का महान् प्रायश्चित्त है’।
 
श्लोक 9:  पुरोहित की यह बात सुनकर महाबुद्धिमान् पुरुषश्रेष्ठ राजा अम्बरीष ने हजारों गौओं के मूल्यपर खरीदने के लिये एक पुरुष का अन्वेषण किया।
 
श्लोक 10-11:  तात रघुनन्दन! विभिन्न देशों, जनपदों, नगरों, वनों तथा पवित्र आश्रमों में खोज करते हुए राजा अम्बरीषभृगुतुंग पर्वत पर पहुँचे और वहाँ उन्होंने पत्नी तथा पुत्रों के साथ बैठे हुए ऋचीक मुनि का दर्शन किया।
 
श्लोक 12:  अमित कान्तिमान् एवं महातेजस्वी राजर्षि अम्बरीष ने तपस्या से उद्दीप्त होनेवाले महर्षि ऋचीक को प्रणाम किया और उन्हें प्रसन्न करके कहा।
 
श्लोक 13-14:  पहले तो उन्होंने ऋचीक मुनि से उनकी सभी वस्तुओं के विषय में कुशल-समाचार पूछा, उसके बाद इस प्रकार कहा—’महाभाग भृगुनन्दन! यदि आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पुत्र को पशु बनाने के लिये बेचें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।
 
श्लोक 14-15:  ‘मैं सारे देशों में घूम आया; परंतु कहीं भी यज्ञोपयोगी पशु नहीं पा सका अतः आप उचितमूल्य लेकर यहाँ मुझे अपने एक पुत्र को दे दीजिये’।
 
श्लोक 15-16:  उनके ऐसा कहने पर महातेजस्वी ऋचीक बोले —’नरश्रेष्ठ! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को तो किसी तरह नहीं बेचूँगा’ ।
 
श्लोक 16-17:  ऋचीक मुनि की बात सुनकर उन महात्मा पुत्रों की माता ने पुरुषसिंह अम्बरीष से इस प्रकार कहा- ।
 
श्लोक 17-18:  ‘प्रभो! भगवान् भार्गव कहते हैं कि ज्येष्ठ पुत्र कदापि बेचने योग्य नहीं है; परंतु आपको मालूम होना चाहिये जो सबसे छोटा पुत्र शुनक है, वह मुझे भी बहुत ही प्रिय है अतःपृथ्वीनाथ! मैं अपना छोटा पुत्र आपको कदापि नहीं दूंगी।
 
श्लोक 19:  ‘नरश्रेष्ठ! प्रायः जेठे पुत्र पिताओं को प्रिय होते हैंऔर छोटे पुत्र माताओं को, अतः मैं अपने कनिष्ठ पुत्र की अवश्य रक्षा करूँगी’ ।
 
श्लोक 20:  श्रीराम! मुनि और उनकी पत्नी के ऐसा कहनेप र मझले पुत्र शुनःशेप ने स्वयं कहा- 
 
श्लोक 21:  ‘राजपुत्र! पिता ने ज्येष्ठ को और माता ने कनिष्ठ पुत्र को बेचने के लिये अयोग्य बतलाया है, अतः मैं समझता हूँ इन दोनों की दृष्टि में मझला पुत्र ही बेचने के योग्य है, इसलिये तुम मुझे ही ले चलो’ ।
 
श्लोक 22-23:  महाबाहु रघुनन्दन! ब्रह्मवादी मझले पुत्र के ऐसा कहने पर राजा अम्बरीष बड़े प्रसन्न हुए और एक करोड़ स्वर्णमुद्रा, रत्नों के ढेर तथा एक लाख गौओं के बदले शुनःशेप को लेकर वे घर की ओर चले।
 
श्लोक 24:  महातेजस्वी महायशस्वी राजर्षि अम्बरीष शुनःशेप को रथपर बिठाकर बड़ी उतावली के साथ तीव्र गति से चले।
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हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारद के उपदेश से वे वरुण देवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! मुझे पुत्र प्राप्त हो। महाराज! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसी से आपका यजन करूँगा।’ वरुण ने कहा- ‘ठीक है।’ तब वरुण की कृपा से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ। पुत्र होते ही वरुण ने आकर कहा- ‘हरिश्चन्द्र! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायेगा, तब यज्ञ के योग्य होगा’। दस दिन बीतने पर वरुण ने आकर फिर कहा- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब आपके यज्ञपशु के मुँह में दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञ के योग्य होगा’। दाँत उग आने पर वरुण ने कहा- ‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब इसके दूध के दाँत गिर जायेंगे, तब यह यज्ञ के योग्य होगा’। दूध के दाँत गिर जाने पर वरुण ने कहा- ‘अब इस यज्ञपशु के दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायेंगे, तब यह पशु यज्ञ के योग्य हो जायेगा’। दाँतों के फिर उग आने पर वरुण ने कहा- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘वरुण जी महाराज! क्षत्रिय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे’। परीक्षित! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्र के प्रेम से हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुण देवता उसी की बाट देखते।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद


जब रोहित को इस बात का पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये हाथ में धनुष लेकर वन में चला गया। कुछ दिन के बाद उसे मालूम हुआ कि वरुण देवता ने रुष्ट होकर मेरे पिताजी पर आक्रमण किया है-जिसके कारण वे महोदर रोग से पीड़ित हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगर की ओर चल पड़ा। परन्तु इन्द्र ने आकर उसे रोक दिया। उन्होंने कहा- ‘बेटा रोहित! यज्ञ पशु बनकर मरने की अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रों का सेवन करते हुए पृथ्वी में विचरना ही अच्छा है।’ इन्द्र की बात मानकर वह एक वर्ष तक और वन में ही रहा।

इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहित ने अपने पिता के पास जाने का विचार किया; परन्तु बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते। इस प्रकार छः वर्ष तक रोहित वन में ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगर को लौटने लगा, तब उसने अजीगर्त से उनके मझले पुत्र शुनःशेप को मोल ले लिया और उसे यज्ञ पशु बनाने के लिये अपने पिता को सौंपकर उनके चरणों में नमस्कार किया। तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्र वाले राजा हरिश्चन्द्र ने महोदर रोग से छूटकर पुष्पमेध यज्ञ द्वारा वरुण आदि देवताओं का यजन किया। उस यज्ञ में विश्वामित्र जी होता हुए। परमसंयमी जमदग्नि ने अध्वर्यु का काम किया। वसिष्ठ जी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि समागम करने वाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्र को एक सोने का रथ दिया था।

परीक्षित! आगे चलकर मैं शुनःशेप का माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्र को अपनी पत्नी के साथ सत्य में दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्र जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञान का उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मन को पृथ्वी में, पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में स्थिर करके, आकाश को अहंकार में लीन कर दिया। फिर अहंकार को महत्तत्त्व में लीन करके उसमें ज्ञान-कला का ध्यान किया और उससे अज्ञान को भस्म कर दिया। इसके बाद निर्वाण-सुख की अनुभूति से उस ज्ञान-कला का भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनों से मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूप में स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का अनुमान ही किया जा सकता है।

सोऽनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः ।
वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो ॥ ८ ॥
यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति ।
तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहितः ॥ ९ ॥
जातः सुतो ह्यनेनाङ्‌ग मां यजस्वेति सोऽब्रवीत् ।
यदा पशुर्निर्दशःस्याद् अथ मेध्यो भवेदिति॥१० ॥
निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत् ।
दन्ताः पशोर्यत् जायेरन् अथ मेध्यो भवेदिति ॥ ११ ॥
दन्ता जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत् ।
यदा पतन्त्यस्य दन्ता अथ मेध्यो भवेदिति॥१२॥
पशोर्निपतिता दन्ता यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत् ।
यदा पशोःपुनर्दन्ता जायन्तेऽथ पशुः शुचिः॥१३।
पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत् ।
सान्नाहिको यदा राजन् राजन्योऽथ पशुः शुचिः॥ १४ ॥
इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन् त्रितचेतसा ।
कालं वञ्चयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत ॥ १५ ॥
रोहितस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम् ।
प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिः अरण्यं प्रत्यपद्यत ॥ १६ ॥
 पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम् ।
 रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्रः प्रत्यषेधत ॥ १७ ॥
 भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः ।
 रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत् समाम् ॥ १८ ॥
 एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे तथा ।
 अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाऽऽह वृत्रहा ॥ १९ ॥
 षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम् ।
 उपव्रजन् अजीगर्ताद् अक्रीणान् मध्यमं सुतम् ॥ २० ॥
 शुनःशेपं पशुं पित्रे प्रदाय समवन्दत ।
 ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रो महायशाः ॥ २१ ॥
 मुक्तोदरोऽयजद् देवान् वरुणादीन् महत्कथः ।
 विश्वामित्रोऽभवत् तस्मिन् होता चाध्वर्युरात्मवान् ॥ २२ ॥
 जमदग्निरभूद् ब्रह्मा वसिष्ठोऽयास्यः सामगः ।
 तस्मै तुष्टो ददौ इन्द्रः शातकौम्भमयं रथम् ॥२३॥
 शुनःशेपस्य माहात्म्यं उपरिष्टात् प्रचक्ष्यते ।
 सत्यंसारां धृतिं दृष्ट्वा सभार्यस्य च भूपतेः ॥२४ 
 विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददौ अविहतां गतिम् ।
 मनः पृथिव्यां तामद्‌भिः तेजसापोऽनिलेन तत् ॥ २५ ॥
 खे वायुं धारयन् तच्च भूतादौ तं महात्मनि ।
 तस्मिन् ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाज्ञानं विनिर्दहन् ॥ २६ ॥
 हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा ।
 अनिर्देश्याप्रतर्क्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धनः॥२७॥ (भागवत पुराण-9/7/25)--

प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार रोहि


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