इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चंद्र अपनी सौ रानियों के बावजूद निस्संतान थे। उसने वरुण देवता की उपासना की कि अगर मुझे पुत्र प्राप्ति हो तो पहला पुत्र आपको समर्पित करूंगा।
कालान्तर में राजा के यहाँ पुत्र जन्म हो गया । तब वरुण देवता प्रकट होकर राजा को उनके संकल्प की याद दिलाई और नवजात को लेकर यज्ञ संपन्न करने को कहा । राजा ने कहा, “अभी तो अशौच की स्थिति है अतः उससे यज्ञ अनुमत नहीं है ।” देवता वरुण मान गये । 10-दिनी अशौच पूर्ण होने पर वे पुनः प्रकट हुए और उन्होंने राजा को यज्ञ की याद दिलाई ।
राजा ने इस बार कहा, “किसी पशु की बलि तब तक नहीं दी जाती जब तक उसके दांत न निकल आवें। अतः दांत तो निकलने दीजिए ।” 'ठीक है' कहते हुए देवता चले गये । जब उस बच्चे के दांत कुछ वर्षों में निकल गये वे पुनः आए और राजा को संकल्प की याद दिलाई । इस बार राजा ने फिर बहाना बनाया और कहा, “जब पशु के आरंभिक (दूध के) सभी दांत गिर जावें तभी उसे यज्ञ में दिया जा सकता है ।” 'तथास्तु' कहते हुए वरुण लौट गये । जब उसके दाँत गिर गए तो वरुणदेव ने पुनः राजा को अपने संकल्प की याद दिलाई । राजा को पुत्रमोह हो चला था, अतः उन्होंने नया बहाना पेश किया । वे बोले, “जब बालक के स्थाई दांत निकल आवें तभी उसका यजन किया जाना चाहिए ।” इस बार फिर वरुण देवता लौट गए । समयांतर पर बालक के स्थाई दांत आ गये। राजा को उसका संकल्प स्मरण कराने देवता प्रकट हुए । राजा बोले, “हे देव, जब बालक धनुर्विद्या, युद्धकला आदि क्षत्त्रियोचित संस्कार प्राप्त कर ले तो उसके बाद मैं उससे आपका यजन करूंगा ।”
बालक का नाम रोहित था और जब वह उक्त प्रकार से सुसंस्कृत हो गया तो वरुण ने अपनी माँग पुनः दोहराई । इस बार राजा कोई बहाना नहीं बना सके। उन्होंने पुत्र रोहित को पास बुलाकर कहा, “बेटा, मैंने वरुण देवता के वरदान से तुम्हें प्राप्त किया । तब मैंने उन्हें वचन दिया था कि मैं तुम्हें बलि के रूप उन्हें सौंप दूंगा । निःसंदेह यह मेरे पाप-वचन थे । अब मुझे यजन करना ही है।”
कुमार रोहित को यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था । उसने अपना धनुषादि आयुध उठाए और वन की ओर चला गया। एक वर्ष तक वह देशाटन करता रहा अलग-अलग स्थलों पर गया, विभिन्न घटनाओं का अनुभव किया। इसी समय वरुणदेव के रोष के फलस्वरूप राजा हरिश्चंद्र रोगग्रस्त हो गए । वर्ष बीतते-बीतते रोहित ने पिता के अस्वस्थ होने का समाचार लोगों के मुख से सुना । वह घर लौटने को उद्यत हुआ। वापसी के मार्ग में ब्राह्मण भेष धारण करके इंद्र उससे मिले, जिन्होंने उसे घर जाने के बजाय पुनः 'पर्यटन-देशाटन करते रहो' (चरैवेति चरैवेति) की सलाह दी । ब्राह्मण ने उसको ज्ञानोपदेश दिया –
- "नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम।
- पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥
- अनुवाद:-
- हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम विचरण करते रहो।
ब्राह्मण के उपदेशों से प्रभावित होकर रोहित पुनः देश-प्रदेश में विचरण करने लगा । प्रत्येक वर्ष के बाद जब रोहित घर लौटने की सोचता है तो मार्ग में फिर ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र मिलते हैं जो पुनः “चरैवेति” की सलाह देते हैं। दूसरे वर्ष के समाप्त होते-होते जब वह घर लौटने लगा तो ब्राह्मण रूप में इंद्र उसे फिर मिल गए । ब्राह्मण ने उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हुए पर्यटन करते रहने की सलाह दी –
- "पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
- शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हतश्चरैवेति ॥
- निरन्तर चलने वाले की जंघाएं पुष्पित होती हैं, अर्थात उस वृक्ष की शाखाओं-उपशाखाओं की भांति होती है जिन पर सुगंधित एवं फलीभूत होने वाले फूल लगते हैं, और जिसका शरीर बढ़ते हुए वृक्ष की भांति फलों से पूरित होता है, अर्थात वह भी फलग्रहण करता है । प्रकृष्ट मार्गों पर श्रम के साथ चलते हुए उसके समस्त पाप नष्ट होकर सो जाते हैं, अर्थात निष्प्रभावी हो जाते हैं । अतः तुम चलते ही रहो।
राजपुत्र रोहित ने ब्राह्मण की बातों को मान लिया और वह घर लौटने का विचार त्यागकर पुनः देशाटन पर निकल गया । घूमते-फिरते तीसरा वर्ष बीतने को हुआ तो उसने वापस घर लौटने का मन बनाया । इस बार भी इन्द्र देव ब्राह्मण भेष में उसे मार्ग में दर्शन देते है । वे उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हैं । वे कहते हैं –
- आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
- शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
- जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो।
पर्यटन में लगे रोहित का एक और वर्ष बीत गया और वह घर लौटने लगा। पिछली बारों की तरह इस बार भी उसे मार्ग में ब्राह्मण-रूपी इंद्र मिल गए, जिन्होंने उसे “चरैवेति” कहते हुए पुनः भ्रमण करते रहने की सलाह दी। रोहित उनके बचनों का सम्मान करते हुए फिर से पर्यटन में निकल गया । इस प्रकार रोहित चार वर्षों तक यत्रतत्र भ्रमण करता रहा । चौथे वर्ष के अंत पर जब वह घर लौटने को उद्यत हुआ तो मार्ग में उसे ब्राह्मण भेष में इंन्द्रदेव पुनः मिल गए । उन्होंने हर बार की तरह “चरैवेति” का उपदेश दिया और कहा –
- कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
- उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपाद्यते चरंश्चरैवेति ॥
- शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अतः तुम चलते ही रहो ।
उक्त प्रकार से संचरण में लगे रोहित के पांच वर्ष व्यतीत हो गये । ब्राह्मण भेषधारी इन्द्र ने अंतिम (पांचवीं) बार फिर से रोहित को संबोधित करते हुए “चरैवेति” के महत्व का बखान किया ।
- चरन् वै मधु विन्दति चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
- सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति ॥
- इतस्ततः भ्रमण करते हुए मनुष्य को मधु (शहद) प्राप्त होता है, उसे उदुम्बर (गूलर, अंजीर) सरीखे सुस्वादु फल मिलते हैं । सूर्य की श्रेष्ठता को तो देखो जो विचरणरत रहते हुए आलस्य नहीं करता है । उसी प्रकार तुम भी चलते रहो।
ब्राह्मण की सलाह के अनुरूप कुमार रोहित छठे वर्ष भी पर्यटन पर चला गया । इस बार वनक्षेत्र में विचरण करते हुए उसकी भेंट सुयवस के पुत्र निर्धन अजीगर्त नामक ऋषि (महर्षि ऋचीक?) से हुई ।
अजीगर्त के तीन बालक-पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनोलांगूल थे । (तीनों शब्दों, पुच्छ, शेप तथा लांगूल, का एक ही अर्थ पूंछ होता है । श्वन् = कुत्ता; शुनः = कुत्ते की; शुनःपुच्छ = कुत्ते की पूँछ।) रोहित ने अजीगर्त के सम्मुख प्रस्ताव रखा कि वह किसी एक पुत्र को उसे (रोहित को) बेच दे । मूल्य रूप में उनको सौ गायें दी जाएंगी । अजीगर्त को ज्येष्ठ और उसकी पत्नी को कनिष्ठ पुत्र प्यारे थे, उन्होंने मंझले शुनःशेप को बेच दिया । रोहित उसको लेकर घर लौट आया । इसके साथ ही “चरैवेति” उपदेशों की शृखला समाप्त हो गई ।
रोहित ने शुनःशेप को पिता हरिश्चन्द्र को सोंप दिया, ताकि उसके बदले उस बालक से वरुणदेव का यजन किया जा सके और वह स्वयं मुक्त हो जावे ।
कथा के अनुसार वरुणदेव को क्षत्रिय बालक के बदले ब्राह्मण बालक अधिक स्वीकार्य था
तत्पश्चात यज्ञ की व्यवस्था की गई, जिसमें स्वयं अजीगर्त भी सम्मिलित हुआ । सभी तैयारियों के अंतर्गत जब शुनःशेप को पशु की भांति यूप (यज्ञमंडप में याज्ञिक कर्मों के लिए खंभा) पर बांधने की बारी आई तो कोई भी व्यक्ति इस पापकर्म को करने को तैयार नहीं हुआ । तब अजीगर्त ने सौ गायें लेकर स्वयं ही इस कार्य को संपन्न कर दिया ।
यूप पर पशुवत बंधे उस बालक का बध करके बलि देने के लिए कोई तैयार न हुआ । तब अजीगर्त ने अतिरिक्त सौ गायें मांगकर उस कार्य को भी पूरा करना स्वीकार कर लिया ।
शुनःशेप को यह आभास हो गया कि एक पशु की तरह यज्ञ में उसका बध किया जाना है । जबकि यज्ञ संबंधी उसके ज्ञान के अनुसार यज्ञ की “पर्यग्नि” नामक प्रक्रिया के बाद उसे बन में छोड़ा जाना चाहिए था । किंतु वहां तो उसका बध वास्तव में किया जाने वाला है । वह आत्मरक्षा हेतु ऋग्वैदिक मंत्रों से देवताओं की अर्चना करने लगा । उसने सर्वप्रथम प्रजापति (ब्रह्मा?) की प्रार्थना की जिन्होने उसे अग्नि की स्तुति करने को कहा क्योंकि वे सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
अग्नि की अर्चना करने पर उस ब्राह्मण बालक को सविता की प्रार्थना करने को कहा, जो सभी जीवों के जन्मदाता-पालनकर्ता हैं । सविता ने बालक से कहा कि चूंकि उसे वरुणदेव के लिए यूप पर बांधा गया है अतः वह उन्हीं की शरण में जावे । स्तुति करने पर वरुण ने कहा कि अग्नि सभी देवताओं के मुखस्वरूप हैं, क्योंकि यज्ञ की आहुतियां उन्हीं के माध्यम से देवताओं को प्राप्त होती हैं, अतः उन्हीं की शरण में वे जावें ।
बालक ने फिर से अग्नि की स्तुति की तो अग्निदेव बोले कि तुम समस्त देवों की सामूहिक स्तुति करो उसने वही किया । तब देवगण बोले कि वह इंद्र की प्रार्थना करे जो उन सभी में श्रेष्ठतम हैं । उसने वही किया ।
इंद्र ने उसके लिए एक दिव्यरथ भेज दिया और कहा कि वह अश्विनी कुमारों की स्तुति करे वही उसे छोड़ देंगे । अश्विनियों की प्रार्थना करने पर उन्होंने बालक से कहा कि वह उषा की स्तुति करे ताकि सभी देवता उसे मुक्त कर दें ।
शुनःशेप ने वेद की ऋचाओं के साथ स्तुति आंरभ की । जैसे-जैसे उसने एक-एककर ऋचाओं से देवताओं की स्तुति की वैसे-वैसे उसके बंधन खुलते गए, और जलोदर से स्थूल हो चुके राजा का पेट भी सामान्य होता गया । मुक्त हो चुका बालक शुनःशेप ऋषि विश्वामित्र की गोद में स्वयं को उनका पुत्र मानते हुए बैठ गया । इसी के साथ बालक शुन:शेप, ऋषि शुन:शेप बन गया, क्योंकि वह उसके लिए रूपांतरण की घड़ी थी।
शुनःशेप के विश्वामित्र का पुत्र घोषित होने पर अजीगर्त का पुत्रमोह जाग गया। उन्होंने उसे ऐसा करने से मना किया और उनके पास वापस आ जाने का आग्रह किया । इस प्रयोजन के लिए उन्होंने पूर्व में पाये गये तीन सौ गायें राजा को लौटाने की बात भी रखी । किंतु बालक शुनःशेप ने यह कहते हुए प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया कि जो पिता यज्ञ में अपने पुत्र का पशुवत वध करने के कुत्सित कृत्य के लिए तैयार हो उसके पितृत्व को वह अस्वीकार करता है। देवताओं की कृपा से ऋषि विश्वामित्र उसके पिता बन गये ।
कुछ और विद्वानों के अनुसार शुनःशेप कौशिको के कुल मे उत्पन्न महान तपस्वी विश्वामित्र ( विश्वरथ ) व विश्वमित्र के शत्रु शाम्बर की पुत्री उग्रा की खोई हुयी सन्तान था जिसे भरतो (कौशिको ) के डर से लोपमुद्रा ने अजीगर्त के पास छिपा दिया था। भरतो ने उग्र को मार दिया।
भारतीय संस्कृति में पैदा हुए किसी भी मनुष्य का मन यावत् जीवन त्रिविध एषणाओं से बद्ध – सुबद्ध – रहता है। यह एक निर्विवाद हकीकत है। ये तीन एषणाओं का नाम है – 1. पुत्रैषणा, 2. वित्तैषणा और 3. लोकैषणा।
इन तीनों में से जो वितैषणा है, वह मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक जीवन से नाता रखती है। और जो लोकैषणा है, वह पूर्वमीमांसा-प्रोक्त यज्ञयागादि से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक आदि मरणोत्तर लोक से सम्बन्ध रखती है। परन्तु जो पुत्रैषणा है, वह मनुष्यमात्र की पृथिवीलोक पर सदैव बने रहने की शाश्वत एवं सार्वभौम इच्छा का अकाट्य अंकुर है। और ऐसी पुत्रैषणा में पुत्र एवं पुत्री दोनों अभीष्ट है – यह बात तार्किक रूप से निहित है।
लेकिन स्त्रीदेह की प्राकृतिक मर्यादाओं के कारण, स्त्रीदेह की अपेक्षा पुरुषदेह सबल होने के कारण समाज में पुरुष का महत्त्व बढता गया है और विश्व में बहुशः समाज पुरुषप्रधान आकारित होता रहा है। अतः मनुष्यमात्र के मन में पुत्रैषणा जड़ीभूत हो गई है। अतः ऐतरेयब्राह्मण में आयी हुई शुनःशेप की जो कथा है वह पुत्रैषणा-ग्रस्त जनमानस को अतीव सूचक रूप से मार्गदर्शक बनती है।।
यद्यपि शुनःशेप की कथा को अद्यावधि दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है। जैसे कि – वेदकाल में नरमेध याग होते थे या नहीं। शुनःशेपाख्यान में वरुणदेवता को कोई मनुष्य का बलि चढाने की बात आती है, इस लिए दुनिया भर के विद्वानों ने एक ही बात को चर्चा का बिन्दु बनाया है कि वैदिक यज्ञ-यागादि में पशुबलि के साथ साथ मनुष्यों का भी बलि चढाया जाता था कि नहीं। -
परन्तु यह आख्यान उस समय के नर मेध प्रचलन पर पर्याप्त प्रकाश डालता है।
- "चरैवेति चरैवेति, चराति चरतो भग।
इन शब्दों से इन्द्र ने जो उपदेश दिया था, इसका फल यह आता है कि हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को वन-विचरण के दौरान, तीन पुत्रों को साथ में लेकर अन्न की तलाश में घुम रहे एक दरिद्र पिता अजीगर्त मिल गया। रोहित ने राजपुत्र होने के कारण, राजलक्ष्मी के जोर पर, अर्थात् बाप-कमाई के जोर पर, दरिद्र व्यक्ति के एक दीन-हीन पुत्र (शुनःशेप) को खरीद कर अपने साथ में ले कर राजमहल में वापस आता है। राजकुमार रोहित ने मन में ऐसा सोच रखा है कि इस दरिद्र-ब्राह्मणपुत्र का बलि दे कर, वरुण के पाश से पिता को वह मुक्त करा लेगा और अपने आप को भी मृत्यु से मुक्ति मिल जायेगी। - यहाँ पर इन्द्र के कहने में आकर बार बार वन-विचरण करते रहेते रोहित का, पहेले एक अनिर्णायक मनोबल वाले पुत्र के रूप में परिचय मिलता है और बाद में, स्वार्थी तथा बाप-कमाई का आश्रय लेने वाले राजपुत्र के रूप में परिचय मिलता है। संसार में यह पहले प्रकार का पुत्र है।।
संसार में जो दूसरे प्रकार का पुत्र होता है, वह ऋषि विश्वामित्र के अग्रज 50 पुत्रों हैं। वे विश्वामित्र जैसे मन्त्रद्रष्टा पिता की भी आज्ञा मानते नहीं है। पिता की विवेकबुद्धि की अवहेलना करनेवाले इन पुत्रों ने पैतृक-विरासत खो दी और शापित भी हुये। परिणामतः वे समाज में दस्युओं जैसा जीवन जीने लगते है। इक्यानवाँ मधुच्छन्दा नामक पुत्र और उनके अनुज 50 भ्रातृ-समूह ने पिता की आज्ञा मान ली। विश्वामित्र की दृष्टि में विश्वास करनेवाले इन पुत्रों ने शुनःशेप को अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में स्वीकार कर लिया।।
तीसरे प्रकार का जो पुत्र सदैव स्पृहणीय होता है, वह है शुनःशेप। पूरे आख्यान को पढ कर लगता है कि वह क्षुधा-पीडित व्यक्ति जरूर था, परन्तु नित्य विद्या-व्यासंग करने वाला पुत्र था। क्योंकि वरुण के पाश से मुक्त होने के लिये जो मन्त्र ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल और पंचम मण्डल में आये हुये है इन सब को वह अच्छी तरह से जानता था। साथ में वह स्वयं भी, प्रथम मण्डल में संगृहीत अनेक मन्त्रों का द्रष्टा ऋषि भी है। अत: एव वह ऋषि विश्वामित्र की दृष्टि में स्पृहणीय पुत्र बन जाता है। विश्वामित्र को अपने ही 101 औरस पुत्र थे। किन्तु उनको शुनःशेप जैसा मन्त्र-द्रष्टा पुत्र न होने का अफसोस था।
अतः वह अपने औरस पुत्रों को बुला कर शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने की आज्ञा देते हैं। उनकी दृष्टि में शुनःशेप जैसा पुत्र ही संग्राह्य एवं स्पृहणीय है।
विश्वामित्र ने पूरी यज्ञक्रिया के दौरान देखा है कि शुनःशेप सही अर्थ में देवरात है। अग्नि, वरुण, इन्द्र, अश्विनौ, विश्वेदेवा एवं उषा इत्यादि देवतायें ही उनकी सम्पत्ति – राति – थे और उसी के बल उपर उसने अपनी मुक्ति प्राप्त की है।
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