सोमवार, 16 जनवरी 2023

राम अहीर तुलसी

शिबिमौशीनरं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत्समवेष्टयत्।।39।
(शान्ति पर्व अध्याय 28)

सृजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था। वे उशीनर पुत्र राजा शिबि भी मर गये।39।

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रामं दाशरथिं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाःपुत्रानिवौरसान्।।५१।

’सृंजय! सुनने में आया है कि दशरथ पुत्र राम भी मर गये थे, जो सदा अपनी प्रजा पर वैसी ही कृपा रखते थे, जैसे-पिता अपने औरस पुत्रों पर रखता है।51।(शान्ति पर्व अध्याय 28)

महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-11  एकोनषष्टितम (59) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )पर भी राम के मरण का वर्णन है।

महाभारत: द्रोण पर्व:एकोनषष्टितम (59)अध्याय: श्लोक 1 का हिन्दी अनुवाद:-
रामं दाशरथिं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।                यं प्रजा अन्वमोदन्त पिता पुत्रमिवौरसम्।असङ्ख्येया गुणा यस्मिन्नासन्नमिततेजसि।१।

भगवान श्रीराम का चरित्र नारदजी कहते हैं – सृंजय ! दशरथनन्‍दन भगवान्‍ श्रीराम भी यहां से परमधाम को चले गये थे, यह मेरे सुनने में आया है । उनके राज्‍य में सारी प्रजा निरन्‍तर आनन्‍दमग्‍न रहती थी । जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार वे समस्‍त प्रजा का स्‍नेहपूर्वक संरक्षण करते थे ।वे अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी थे और उनमें असंख्‍य गुण विद्यमान थे ।

(महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ।२८।)

(महाभारत द्रोण पर्व अभिमन्यु वध पर्व) 59 वाँ अध्याय-)

रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में राम द्वारा कबंध को ब्राह्मण महिमा समझाने वाले प्रसंग की निम्न चौपाई में तो ताड़ना का अर्थ मारना ही है और वास्तव में संस्कृत की चुरादि गणीय तड् धातु =आघाते से--भाव में ल्युट् (अन्) प्रत्यय करने पर ताडन शब्द बना है।  । 

लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।
पाँच वर्षकी अवस्था तक पुत्रकी लालना करनी चाहिये, उसके बाद दस वर्ष  तक उसे ताड़ना (पीटना)  भी चाहिये (जब वह नियन्त्रण न माने) और जब वह सोलहवें वर्ष की अवस्थामें पहुंचे तो उससे मित्र के समान बर्ताव करना चाहिये॥

ताडन=आघातः ।  

श्लाघ्यं नीरसकाष्ठताडनशतं श्लाघ्यः प्रचण्डातपःक्लेशःश्लालाघ्यतरःसुपङ्कनिचयैःश्लाघ्योऽतिदाहोऽनलैः यत्कान्ताकुचपार्श्ववाहुलतिकाहिन्दोललीलासुखं लब्धं कुम्भवर त्वया नहि सुखं दुःखैर्विना लभ्यते ।।१०।।( श्रृँगारतिलक- कालिदास)

गोब्राह्मणानलान्नानि नोच्च्छिष्टो न पदा स्पृशेत् ।    न निन्दाताडने कुर्यात् पुत्रं शिष्यं च ताडयेत् ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति १.१५५।

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शूद्रेषु दासगोपाल- कुलमित्रार्धसीरिणः ।भोज्यान्नाः नापितश् चैव यश् चात्मानं निवेदयेत् ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति.१६६ ॥

शब्द कोश में भी ताड़ का अर्थ -मारना -पीटना

[सं० ताडन] १. मार । प्रहार । आघात । २. डांट डपट । घुड़की । ३. शासन । दंड ।४. मंत्रों के वर्णों को चंदन से लिखकर प्रत्येक मंत्र को जल से वायुबीज पढ़कर मारने का विधान । यही ताडन के अर्थ हैं शिक्षा अर्थ कहीं भी नहींहै।

दोहा- मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव ।   मोहि समेत बिरंचि सिव ताकें सब देव ॥ ३३ ॥

मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणोंकी सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वशमें हो जाते हैं ॥३३॥

सापत ताड़त परुष कहंता।बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥ पूजिअ बिप्र सील गुन हीना ।सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥ट

शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुणसे हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुणगणोंसे युक्त और ज्ञानमें निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है ॥ १ ॥

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरि‍तमानस की चौपाइयां और दोहे कि‍सी मस्जि‍द में बैठकर लि‍खे थे यह बात स्वयं उन्होंने स्वीकार की -  

तुलसीदास ने मसजिद में सोना भी सवीकार किया परन्तु इनकी हीनता तो ब्राह्मण और राजपूत से इतर जातियों की ही ओर थी। 

तुलसी दास मस्जिद में सोने की बाक करते 

"धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ। कोऊ काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरि‍तमानस की चौपाइयां और दोहे कि‍सी मस्जि‍द में बैठकर लि‍खे थे   
तुलसीदास ने मस्जिद में सो जाना भी स्वीकार किया परन्तु इनकी हीनता तो ब्राह्मण और राजपूत को  छोड़कर अहीर ,कोल ,कलवार, यवन ,किरात आदि  जातियों की ही ओर थी।

"जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी।।
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना।।
(रामचरितमानस उत्तर काण्ड)
"आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति 
अघ रुप जे । —रामचरितमानस  उत्तरकाण्ड। ७ । १३० 
प्रश्न हो सकता का नहीं है प्रश्न यह है कि क्या अत्याचार हुआ था तुलसी और उसकी जाति के साथ अहीरों द्वारा ? अगला प्रश्न यह है कि तुलसी शूद्रों के साथ जो भावना रखते हैं उसमें क्या किया था शूद्रों ने तुलसी की जाति के साथ ? 
तीसरा प्रश्न यह है कि नारी माँ होती है बहन होती है बेटी होती है, अगर वह ताड़ना की अधिकारी है तो इसकी सार्थकता तुलसी के पास क्या है ?
 तुलसी ने न सिर्फ यादवों के बारे में लिखा है बल्कि उसकी चौपाई यवन, कोल, किरात, कलवार स्वपचादि सभी को पापी भी बताती है, इसकी कोई सार्थकता और कारण नहीं हो सकता।
तुलसी का भाव इन जातियों को हेय समझने का है और आज भी तुलसी की जाति तथा अन्य उसकी समर्थक जातियां इन जातियों के प्रति और नारी के प्रति यही भाव रख रही हैं।
आज जब चारों तरफ से तुलसी को घेरा जा रहा है तो तुलसी की समर्थक जातियां शब्दों के नए अर्थ परिभाषित कर रही हैं नए अर्थ ला रही हैं और कारण भी नहीं बताए जा रहे हैं।

मुगलों की सागिर्दी में ये रामचरितमानस मानस लिख रहे थे इसी लिए तुलसीदास ने मुगलों को म्लेच्छ अथवा आतातयी नहीं कहा-
"धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ। कोऊ काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ।
"अनुवाद-
चाहे कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह कराना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति  बिगाड़ कर नहीं सोऊँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध गलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो।मुझको तो माँग के खाना और मसजिद में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।
स्रोत :पुस्तक : कवितावली (पृष्ठ 120) रचनाकार : तुलसी प्रकाशन : गीताप्रेस
 संस्करण : 2017

प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"

राम और अहीरों का पारस्परिक विरोध- पुरोहितों द्वारा स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी भले ही आज ब्राह्मण समाज के बहुतायत लोग  यादवों के पक्ष में  हों परन्तु शंकराचार्यों को कौन समाझाएगा जो अहीरों को शूद्र ही मानते हैं  कुछ मात्र कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का हवाला देकर ? 

और इसीलिए बहुत लोग मानते होंगे कि अहीर और यादव  वास्तव में अलग हैं अहीर शूद्र हैं और यादव क्षत्रिय " परन्तु ये भी मानना भ्रम ही है। यादवों को तो ऋग्वेद से लेकर पुराणों में भी म्लेच्छ और देवद्रोही विशेषत: इन्द्र नामक देव का और इस लिए उन्हें देवद्रोही भी घोषित किया गया है। 

जबकि पुराणों में वर्णन ये भी है कि सारे देवगण अहीरों के रूप में यादव रूप में व्रज के ग्वाल बन गये। पहले इसी से सम्बन्धित कुछ पूर्व पक्ष के रूप में  शास्त्रीय आलेखों के हवाले से हम  प्रस्तुत करते हैं।

कि यदु के वंशजों को बाद में किस प्रकार यादवों को म्लेच्छ जाति बता दिया जबकि उसी ग्रन्थ में पूर्व में उनके वंश का कीर्तन करने पापों से मुक्त होने वाला बताया।

यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।      यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यंपरं ब्रह्मनराकृति ॥ ४,११.४ ॥ विष्णु पुराण चतुर्थांश अध्याय(11) तथा भागवत पुराण-9/23/19 में यदुवंश की स्तुति है। और अहीरों के शासक  होने का भी है तो फिर इसके विपरीत कैसे लिखा गया।

सप्तषष्टिं च वर्षाणि दशाभीरास्ततो नृपाः ।    सप्त गर्दभिनश्चैव भोक्ष्यन्तीमां द्विसप्ततिम् ॥ १७४ ॥ (ब्रह्माण्डपुराण मध्यम भाग) अध्याय 74-

भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में यदु के वंशजों को म्लेच्छ  कहा गया है कि

"मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय।
करष्यति अपरो वर्णान् पुलिन्द' यदु"मद्रकान् ।३६।

मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को  पुलिन्द , यदु ( यादव) और मद्र आदि म्लेच्छ प्राय: जातियों में बदल देगा ।३६।

ये पुराण इत्यादि। बौद्ध काल के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं।
जिसके सूत्रधार ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र सुंग
(ई०पू०१४८ ) के अनुयायी ब्राह्मण हैं।

यहाँ यदु पुत्रो को म्लेच्छ जाति बताया है। ये तुर्वसु के भाई यदु ही हैं। जिनके विरुद्ध तो कुछ पुरोहित वैदिक काल से ही थे ।

अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 37 के  ऋचा में तथा ऋग्वेद 7/19/8 में भी यही समानता है।

प्रियास इत् ते मघवन्न् अभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः |
नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्य् अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन्।ऋ०7/19/8

(मघवन्) हे इन्द्र ! (अभिष्टौ) सब प्रकार इष्टसिद्धि में (नरः) हम  लोग (ते इत्) तेरे ही (प्रियासः) प्यारे (सखायः) मित्र होकर (शरणे) शरण में  (मदेम) प्रसन्न होवें। (शंस्यम्) बड़ाई योग्य कर्म (करिष्यन्) करता हुआ तू (तुर्वशम्) तुर्वशु को (याद्वम्) यदु को  (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिये (नि) निश्चय ही।  
(नि) नित्य (शिशीहि) क्षीण करो।

____________________________________ ऋग्वेद की अन्य ऋचा भी देखें-

अया वीती परि स्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन्नवतीर्नव ॥१॥
पुरः सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरम् ।
अध त्यं तुर्वशं यदुम् ॥२॥ ऋ० 9/61/1-2

हे “इन्दो =सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते =तव “यः रसः “मदेषु =संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन= जघान अमुं =सोमरसं पीत्वा मत्तः= सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

“सद्यः =एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम्"अध इन्दो=यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

(सद्यः) शीघ्र ही (शम्बरम्)  शम्बर को  (अध) और (त्यम्) उस  (तुर्वशम्) तुर्वशु को  और  (यदुम्)  यदु को  (पुरः) और उनकी नगरियों को (अवाहन्) नष्ट-भ्रष्ट कर दो  [यहाँ  लङ् लकार में  अव+हन्=अवाहन् हनन कर दिया।
अवाहन् ‘अवाहन्’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है   ॥२॥

निश्चित रूप से यदु और तुर्वसु को  अपने अधीन करने के लिए और उनके नगरों को ध्वस्त करने के लिए पुरोहित लोग इन्द्र से प्रार्थना करते हैं।  यदु और तुर्वसु के  पिता ययाति द्वारा किए गये अमर्यादित कार्य के लिए भी तत्कालीन पुरोहित वर्ग को भी हम  दोषी मानते हैं । क्यों कि यदु और तुर्वशु के  पिता ययाति की ही बातों का समर्थन उन पुरोहितों ने  किया।  यदु ने ही अलोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के खिलाफ बगावत के स्वर मुखर किए  जिनकी अन्तिम परिणति कृष्ण के देव विरोधी कार्यों के रूप में पुराणों में परिलक्षित  हुई। यदु ने स्वयं पशुपालन के रूप गायों की सेवा का कार्य किया और उनके वंशज वसुदेव और नन्द कृष्ण आदि से लेकर आज तक यही कार्य परम्परागत रूप से कर रहे हैं। इसलिए यादव ही गोप अथवा अहीर हैं।

"यह पोष्ट केवल यादव (आभीर) समाज के लिए है अन्य जाति समाज के लोग अपना ज्ञान अपने ही पास रखें )👇

राम से हमारा कोई एक द्वेष  नहीं ! परन्तु राम के कन्धो पर बन्दूक या बाण रखकर अहीरों पर जिसने चलाया वह भी बच नहीं पाएंगे !

अभिवादन के तौर पर " राम-राम बोलना भी हम यादवों पर थोपा गया है" हम कृष्ण ते उपासक थे। और फिर राम एक ऐतिहासिक नहीं अपितु प्रागैतिहासिक पात्र हैं।
जिनका जीवन काल मिथको के भँवर में समाया हुआ  है।

जिनका जन्म और जीवन अस्वाभाविक व इतिहास की सीमाओं से परे है । फिर भी अहीर लोग राम का नाम लेते ही हैं। यह उनकी सहिष्णुता ही है।

👇जहाँ -सुमेर, मिश्र, ईरान ईराक, दक्षिणी अमेरिका, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया तथा थाईलेण्ड की संस्कृतियों में भी राम का वर्णन उनकी लोक परम्पराओं के अनुरूप है ।
और वहीं राम  का वर्णन भारतीय संस्कृति में भी  सुमेरियन संस्कृति से ही आयात है ।

परन्तु पुष्यमित्र सुँग काल में राम के मिथकीय चरित्रों का सृजन पुरोहितों द्वारा अपनी मान्यताओं और लोकाचारों के अनुरूप किया ही  गया । 
भारतीय पुरोहितों ने तो द्वेषवश राम को अहीरों का हत्यारा तक  लिख डाला।

👇-फिर अहीर राम को  इस आधार भी क्यों महिमा मण्डित करें ।  फिर भी वे कर रहे हैं
  
राम ने तो अहीरों को खत्म करने के लिऐ अग्नि बाण चलाया इसलिए अहीर क्यों बनाऐं राम मन्दिर ?  फिर थी वे मन्दिर बनवा ही रहे हैं ।

यद्यपि मेरे व्यक्तिगत शोधों के अनुसार राम का चरित्र केवल भारतीय ही नही अपितु थाई भी है।
यूनेस्को ने थाईलेण्ड की अयोध्या को ही असली अयोध्या माना है।

और वहाँ काम के वंशज आज भी राजा या शासक अपने को मानते हैं।

राम का युद्ध अहीरों से कभी नहीं हुआ परन्तु पुष्यमित्र शुग कालीन पाखण्डी ब्राह्मणों नें अपनी रामायण मे लिखा है कि जड़ अथवा चेतनाहीन समु्द्र द्वारा राम से यह कहने पर कि पापी अहीर मेरा जल पीकर मुझे अपवित्र करते हैं।

इसलिए इन अहीरों को मारिये ! तो राम अपना अग्नि बाण अहीरों पर छोड़ देते हैंँ।

कमाल की बात तो ये  है कि जड़ अथवा चेतनाहीन समुद्र भी राम से बाते करता है और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ बाण से त्रेता युग में ही मार देते हैं।
परन्तु अहीर मरते नहीं रामबाण भी निष्फल ही हो जाता है ।
और अहीर  आज भी पूरे भारत में छाऐ हुऐ हैं। अहीरों के मारने में तो राम का अग्निबाण भी फेल हो गया।
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निश्चित रूप से अहीरों (यादवों) के विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।

ब्राह्मणों ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन धर्म ग्रन्थों के रूप में इस कारण से किया है ।

ताकि अहीरों को लोक मानस में हेय व दुष्ट घोषित किया जा सके"।
परन्तु ब्राह्मण सभी ऐसे ही नहीं थे। कुछ ब्राह्मण अहीरों के सदाचार और धर्मवत्सलता के कायल थे

अन्यथा पद्म पुराण के रचनाकार ब्राह्मण अहीरों के विषय में  उन्हें सदाचारी नहीं  लिखते।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।

अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं स्वयं अवतरण करुँगा, और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी  उस समय धरातल पर नन्द आदि  का अवतरण होगा

परन्तु वाल्मिकी रामायण के युद्ध काण्ड में और तुलसी दास की रामचरित मानस के सुंदर काण्ड में तथा परवर्ती काल में लिखे पुराणों में भी  अहीरों को जिस हीनता और नीचता पूर्वक वर्णन  किया है । वह अहीरों को सरे-आम गाली देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

उसका इस रूप में  वर्णन  अवैज्ञानिक व मिथ्या और अस्वाभाविक तो है ही। परन्तु समाज को तोड़ने वाला भी है।

तुलसी ने तो जातिवाद की हद ही पार कर दी
"आभीर" जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । —राम चरितमानस -उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०(क) काल
—आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥१॥

गरुड़ और कागभुषुण्डि के संवाद के बहाने से तुलसी ने अहीरों को पाप से उत्पन्न लिख दिया।

तुलसी की ये प्रक्षिप्त बाते रूढ़िवादी लोग बड़े भक्ति भाव से गा गा कर अहीरों को गालीयाँ देते रहते हैं ।

और संस्कृत भाषा में वाल्मीकि रामायण के रूप में भी यही तुलसी को जिसका आधार मिला
समुद्र जिसमें चेतना ही नहीं है वह भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है।

अहीरों को वैदिक काल में भी यदु और तुरसु के रूप में  नकारात्मक और हेय रूप मे वर्णन इस बात का प्रबल साक्ष्य है कि अहीर कभी भी पुरोहित वाद की धूर्तता के समक्ष नतमस्तक नहीं हुए।

👇गायत्री, दुर्गा और राधा जैसी महान शक्तियों को अहीरों की जाति  में जन्म लेने का सौभाग्य मिला  
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड और स्कन्द पुराण नागर और प्रभास माहात्म्य खण्डों में वर्णन है कि  स्वयं विष्णु भगवान ब्रह्मा के साथ गायत्री के विवाह के सन्दर्भ में स्वयं एक पिता के समान अहीरों की कन्या गायत्री का कन्यादान ब्रह्मा को करते हैं ।

और गायत्री के माता-पिता बन्धु-बान्धवों को आश्वासन ही नहीं अपितु वरदान भी देते हैं कि द्वापर युग में नन्द और वसुदेव आदि गोपों (अहीरों ) के सानिध्य में मेरा अवतरण होगा।
पद्म पुराण के लेखक ने ये बाते तत्कालीन अवधारणाओं के अनुरूप ही लिखीं थीं।
पद्म पुराण का सृष्टि खण्ड ही प्राचीन है परन्तु पद्मपुराण में भी बाद में जोड़- तोड़ का क्रम चलता रहा है।

पद्म पुराण में गायत्री को कई मर्तबा यादवी, आभीर -कन्या तथा गोप कन्या भी कहा है।

त्रेता काल में भी अहीर लोग व्रजप्रदेश में ही निवास करते थे ।

और कुछ आभीर आवर्त देश( गुजरात)  में भी रहते थे । परन्तु धूर्तों ने द्वेष और काल्पनिकता की सरहदें ही पार कर दीं हैं उनके खिलाफत में ।

कि  निर्जीव समुद्र राम से बातें भी करता है।  और समुद्र के निवेदन पर राम ने द्रुमकुल्य देश में अहीरों को बिना कारण के मारा फिर भी क्यों कि वे पापी हैं  परन्तु अहीर मरे नहीं ।

👇ब्राह्मणों ने राम को ही अहीरों का हत्यारा' बना दिया।  सात्वत अहीरों ने भागवत धर्म का सूत्रपात किया तो मनुस्मृति कार नें उन्हे वर्णसंकर और शूद्र घोषित कर दिया। फिर भी हम मनुस्मृति को धर्म का कानून मान लेते हैं ।

वाल्मीकि रामायण  और तुलसीदास के अनुसार राम ने अहीरों को त्रेता युग में ही अपने रामबाण से "द्रुमकुल्य" देश में मार दिया था लेकिन फिर भी अहीर  आज कलयुग में करोड़ों की संख्या में मजबूती से जिन्दा हैं । यह उनकी मानवेतर जिजीविषा की ही परिणाम है।
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अहीरों को कोई नहीं जीत सकता; अहीर अजेय हैं। ऐसा तो भारतीय पुराण भी कह रहे हैं ।  अत: अहीरों से भिड़ने वाले नेस्तनाबूद हो जाऐगे। अहीरों को वैसे भी हिब्रू बाइबिल और भारतीय पुराणों में देव स्वरूप और ईश्वरीय शक्तियों से युक्त माना है। भले ही कृष्ण ने देवों के राजा इन्द्र की पूजा पर रोक लगा दी हो

हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम अहीर हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही माने बैठे हैं जो अहीरों के खिलाफ लिख डाली क्योंकि मनन-रहित और विवेकहीन श्रृद्धा (आस्था) ने हमें इतना दबा दिया है कि हमारा मन गुलाम हो गया। यह पूर्ण रूपेण से वह  अन्धभक्ति में आप्लावित  है। यह  आश्चर्य ही नहीं घोर आश्चर्य है।

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महर्षि वाल्मीकि जी अपनी रामायण के युद्ध-काण्ड  के २२वें सर्ग में अहीरों के विरुद्ध लिखते हैं: यद्यपि यह दावा नहीं कि यह सब वाल्मीकि ने ही लिखा है या उनके हाथ से किसी अहीर विरोधी ने लिखा है  ! नीचे वह श्लोक हम उद्धृत कर रहे हैं।

👇
रामस्य वचनं श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा महाशरम्।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥३१॥

उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्॥ ३२॥

उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम॥३३॥

तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः॥३४॥

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात्॥३५॥

तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्।
निपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः॥३६॥

(वाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड सर्ग 22)

हिन्दी अनुवाद:-अर्थात् समुद्र राम से बोला हे प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है।३२।

वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।

उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।

हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए / अर्थात्‌ वाण छोड़िए ।३४।

समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार अहीरों के उसी देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह अग्निवाण छोड़ दिया।३५।

तुलसी दासजी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए राम और समुद्र के सम्वाद रूप में लिखते हैं:

"आभीर यवन किरात खल अति अघ रूपजे

अर्थात्  आभीर (अहीर), यवन (यूनानी) और किरात ये दुष्ट और पाप रूप हैं ! हे राम इनका वध कीजिए। (गीता प्रैस गोरखपुर ने इस पंक्तियों को बदल दिया है)

निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है। क्योंकि अहीरों ने कभी भी ब्राह्मणों का वर्चस्व समाज में स्थापित नहीं होने दिया। तत्कालीन ब्राह्मण समाज भी अहीरों उसी प्रभाकर खिसियाया हुआ था जैसे जैन और बौद्धों से खिसियाया हुआ था।

वर्णव्यवस्था में अहीरों ने कभी भी अपने आप को समायोजित नहीं किया भले ही ब्राह्मण समाज ने अपने आप ही उन्हें शूद्र वर्ण के रूप में निम्न पायदान पर स्थापित करना चाहा हो !

राम को अहीरों का हत्यारा वर्णित करने के मूल मे पुरोहित समाज का यही दुरुदेश्य रहा है ।

ताकि इन कथाओं  पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातों को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।

👇अब आप ही बताओ, केवल निर्जीव जड़ समु्द्र के कहने पर त्रेता युग में राम अहीरों को मारने के लिऐ अपना राम-वाण  अहीरों के "द्रुमकुल्य" देश पर चला देते हैं, लेकिन अहीरों का संहार करने में रामवाण भी निष्फल हो जाता है। क्या यह राम की पराजय नहीं

फिर भी राम मन्दिर बनाने के लिए अहीर तो करें अपना बलिदान और मन्दिरों के रूप में धर्म की दुकान चलाऐं पाखण्डी, कामी और धूर्त कलियुगी ब्राह्मण ।
दान दक्षिणा हम चढ़ाऐं और और ब्राह्मण उससे ऐशो-आराम करें।                        
इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ? 

(द्रुमकुल्य देश कहाँ था ? तो इस पर भी कुछ विचार आवश्यक है।)
द्रुमकुल्य भारत और श्रीलंका के बीच के समुद्र के उत्तर की ओर स्थित एक देश था।
रामायण काल में यहाँ आभीरों का निवास था।

वाल्मीकि-रामायण में  उल्लेख है कि

समुद्र की प्रार्थना पर श्रीराम ने अपने चढ़ाए हुए बाण को, जिससे वह समुद्र को दंडित करना चाहते थे, द्रुमकुल्य की ओर फेंक दिया था।  

जिस स्थान पर वह बाण गिरा था, वहाँ समुद्र सूख गया और मरुस्थल बन गया, किन्तु यह स्थान राम के वरदान से पुन: हरा-भरा हो गया-

'तन्मरुकान्तारं पृथिव्या किल विश्रुतम्, निपातित: शरो यत्र बज्राशिनसमप्रभ:।

विख्यात त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेक्च, शोषयित्वात् तं कुक्षि रामो दशरथात्मज:।  

वर तस्मै ददौविद्वान् मखेऽमरविक्रम:, पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुत:,           बहुस्नेहो बहुक्षीर: सुगंधिर्विविधौषधि:

अध्यात्म रामायण के, युद्ध काण्ड में भी द्रुमकुल्य का उल्लेख है-           
"रामोत्तरप्रदेशे तु द्रुमकुल्य इति श्रुत:'
________________
टीका टिप्पणी और संदर्भ

ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 455 |

वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड 22, 29-30-31-33-37-38.

अध्यात्म रामायण, युद्ध काण्ड 3, 81

राम नाम को आधार पर  आज जिस पकार भगवाधारी गैंग एक उग्रवाद को अंजाम दे रहा है जातिवाद का उन्माद और दंगा-फसाद फैला रहा है। यह भारती समाज और संस्कृति के लिए घातक ही है। यह भी सर्वविदित है अभी अयोध्या में "राम मन्दिर ट्रस्ट में रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज के परामर्श स्वरूप किसी भी यादव को संरक्षक सदस्य मनोनीत नहीं किया गया। 

और राम मन्दिर ट्रस्ट का चन्दा-घोटाला भी अभी प्रकाशन में आ गया है।

यदि राम ने अपनी गर्भ वती पत्नी को किसी रजत( धोबी) के कहने मात्र से भयंकर जंगल में त्याग दिया सम्बूक नामक निम्न जाति के व्यक्ति को तपस्या करने से रोकते हुए बध कर दिया तो फिर ऐसे राम का भगवान होना भी सन्दिग्ध और अमान्य ही है।

-ऐसे राम को हम नहीं मानते भले ही कोई लाख कुतर्क पेश करे उनके निर्दोषीकरण के लिए।

"राम-नाम का अभिवादन के रूप में उत्तरभारतीयों पर आरोपण अकबर के समय में हुआ था । मुग़ल सम्राट सलीमजादे का विवाह सबन्ध स्थापित होने पर मुगल बादशाह अकबर ने आमेर नाम का एक नया राज्य बनाकर राजा "भारमल" को सौप दिया वहीं आमेर- राज्य का राज कवि गोस्वामी तुलसीदास  को मनोनीत किया  गया।

आमेर का राजा ख़ुद को श्री राम का वंशज मानते थे इसलिये राजा "भारमल" के कहने पर तुलसीदास ने रामचरितमानस नामक ग्रन्थ अवधी बोली में लिखा था ।

एक मर्तबा अकबर ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर मन्नत माँगने व्रजभूमि से होते हुए अजमेर जा रहा था साथ में तुलसीदास भी थे यहाँ चारों तरफ यादवो_के_इष्टदेव भगवान श्री_कृष्ण की मंदिरों में पूजा अर्चना भजन कीर्तन का कृष्ण- नाद सुन और वहाँ कि रौनक देख कर तुलसीदास ने श्री कृष्ण पर कटाक्ष किया ।

"राधा-राधा रटत हैं आक-ढ़ाक व कैर।   
तुलसी या व्रज भूमि में क्यों राम से बैर" ।।

" व्रजभूमि के पेड़ पौधे का पत्ता पत्ता भी राधे -कृष्ण राधे- कृष्ण का नाम जप रहें  हेैं।

तुलसीदास इस भूमि पर राम से क्यों बेर किया जा रहा है तभी अकबर ने एक अध्यादेश जारी कर जन अभिवादन  में "जय_श्री_कृष्ण की जगह राम राम की " परम्परा लागू कर दी और आज्ञा का उल्लंघन करने पर कठोर दंड की जोगवाई की सजा के डर के चलते लोगो ने जय श्री कृष्ण की जगह राम- राम परम्परा को अपना लिया और जो कालान्तर में यह परम्परा समाज पर रूढ़ हो गयी।

शिष्टाचार में जय श्री कृष्ण बोलना शुरू करे ,जैसे गुजरात मे आपस मे आहिर लोग जय मोरलीधर जरूर बोलते है। भारवाड़- भी जोकि अहीरों की एक पिछड़ी शाखा है ।                             
अपने पारस्परिक अभिवादन में "जय मुरलीधर" का ही उच्चारण करते हैं।   
और अन्य जातियों भी आहिरों से बात करने मिलने से पहले जय मोरलीधर अवश्य बोलते है

बोलों मेरे साथ जय श्री कृष्ण  जय मोरलीधर

★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★

एक शर्मा जी ने हमसे कुछ कहा वह आप भी पढ़ो-


"आपके समस्त तर्क, तथ्यात्मक, अकाट्य और शिरोधार्य हैं. केवल स्वलिखित इस भाष्य को ही आधार मान कर पुनर्विचार की कृपा कीजिये (समुद्र राम से बोला हे प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है{३२} वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं।{३३}
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।
हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए/अर्थात्‌ वाण छोड़िए {३४}, इस स्थान पर समुद्र के माध्यम से पापचारियों के नाश की प्रार्थना है ना कि अभीरों के वंश नाश या अहीरों के सर्वनाश की) आपसे, मेरी यह याचना है, यदुश्रेष्ठ, इसे मेरे जैसे तुच्छ भक्त की भिक्षा ही मान लीजिये, बाकी जो आपका आगे निर्णय होगा वह शिरोधार्य होगा. ब्लॉगर पर एक शर्मा जी घबराकर उपर्युक्त बाते सुझाव देने शर्मा जी 

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Ashok Kumar Sharma, D.Phil हैं जो 18 जुलाई 2021 को 1:01 pm बजे हमको पुष् करते हैं।

शर्मा जी हम मान भी जाते आपकी बात परन्तु आप भी अर्थों की खींच तान करके अहीरों के प्रति जो वाल्मीकि रामायण और राम चरित मानस में लिखा है वह सबके संज्ञान में आ गया है। स्पष्ट ही रहने दें ।


★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★

स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है । क्योंकि वह जन्म से ब्राह्मण है इसलिए ___________________________________और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है। क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर, शील वती गधी को कौन दुहेगा ? ____________________________

"दु:शीलोऽपि द्विज पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रीय: क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।. ( पराशर स्मृति )

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स्मृतियों के पक्षपात पूर्ण विधान समाजिक विषमता का कारक- स्मृतियों का उद्देश्य मनुष्यों का अचार व्यवहार एवं व्यवस्था की शिक्षा देना था परन्तु इसकी आड़ में खूब स्वार्थों का खेल खेला गया एक समुदाय विशेष के द्वारा।
महाभारत में वर्णन है कि ब्राह्मण विद्या हीन होने पर भी देवता के समान और परम पवित्र पात्र है। फिर जो विद्वान है उसके लिए तो कहना ही क्या वह महान देवता के समान है और भरे हुए महासागर के समान सदगुण संपन्न है👇।


(महाभारत अनुशासनपर्व के दानधर्मपर्व) पृष्ठ संख्या -6056..
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।21।

परन्तु इसमें जातिगत विधानों की नियमावली कैसे बन गयी ? अन्य शब्दों में कहें तो स्मृतियों में व्यवहार- कुशल पुरोहितों ने वैदिक सिद्धान्तों को क्रियात्मक एवं व्यवहारिक रूप तो दिया परन्तु द्वेष और अहंवाद के विधानों पर खड़े होकर ? यदि मनुष्य ब्रह्म ज्ञान अध्यात्म और दर्शन के उच्च सिद्धान्तों को जान जाए अर्थ व्याख्या करने में समर्थ हो जाए ! तो मानवता में कैसा जाति भेद ? 

परन्तु स्मृतियों में बहुतायत से स्त्रीयों और शूद्रों को लक्ष्य करके उन्हें मर्यादित रहने लिए बनाए गये विधान पुरोहितों के वास नाम सी स्वार्थ के अवयव के रूप में उद्भासित है। जो  सत्काय में ल्पनिक पृष्ठ -भूमि पर ही स्थित हैं। ये विधान पुरोहितों की खोपड़ी की उपज हैं। 

परन्तु यदि ब्राह्मण उस आध्यात्मिक विचारों के अनुकूल आचरण न करें तो या उन्हें कर्म रूप में परिणित करके ना दिखाएं तो उनका ज्ञान और विज्ञान सीखना निरर्थक है। मिथ्या है । एक ढ़कोसला है । स्मृतियों में विधान तो आचार, व्यवहार और प्रायश्चित/ 'दण्ड'  विषयगत होने चाहिए। स्मृति शास्त्रों को धर्म के ज्ञाता या धर्म के निर्धारक रूढिवादीयों ने स्मृतियों के विधानों को तीन भागों में विभाजित किया। व्यवहार और प्रायश्चित अथवा दंड यह तीनों विषय ऐसे हैं जिनके बिना व्यक्ति अथवा समाज का विकास हो नहीं सकता है!

यदि मानव जन्म का लक्ष्य खाना-पीना भोग और प्रजनन ही समझ लिया जाए तो उसकी स्थिति अन्य पशुओं से कुछ ही (आकारीय )भिन्न हो सकती है ! अधिक नहीं ! उस अवस्था में यदि वह अपने मस्तिष्कीय शक्ति का प्रयोग करके वैज्ञानिक विषयों की उन्नति रक्षा और उपभोग के साधनों की वृद्धि करके शारीरिक सुख का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ होता है । तो भी उसकी स्थिति का विशेष उत्थान ! इस पर भी नहीं कहा जा सकता। 

पतन की ओर अग्रसर होता है इस तथ्य को सत्य का अनुभव करके भारतवर्ष के प्राचीन मनीषियों ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान के स्मरण निष्कर्षों क़ा स्मृति शास्त्र के रूप में मानव समाज की नैतिकता के अर्थ में प्रकट किया । 

परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोपाल और गोप जैसे शब्द शूद्रता को ग्रहण करते हैं यह बड़े दुर्भाग्य का विषय है आइए विचार करते हैं इस विषय पर👇 शूद्रेषु दास गोपाल कुल मित्रार्द्ध सीरिण:। भोज्यान्न नापितस्यश्चैव यश्चात्मानं निवेदयेत्।16। (याज्ञवल्क्य -स्मृति)

गर्भ -दास , गायों का पालन करने वाला गोप कुल का मित्र, खेती में सामी, नाई और जो मन वाणी तथा शरीर द्वारा अपने आपको निवेदन कर चुका हो ! शूद्र होते हुए भी इन छ: का अन्न खाने योग्य होता है।16।

 व्यास-स्मृति में वर्णन हा कि 👇

" ब्राह्मण्यां शूद्र जनितश्चचाण्डालस्त्रिविधि: स्मृत:। वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक:।10। वणिक् किरातकायस्थमालाकार कुटुम्बिन:।     एते चान्ये च बहव शूद्रा भिन्न: स्वकर्मभि:। चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: । वरटोमेदचण्डालदास(श)स्वपचकोलका:।11।एतेऽन्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना 12। (व्यास-स्मृति) 

=बड़ाई ,नाई ,गोप आशाप , कुम्भकारक वणिक, किरात कायस्थ और माली कुटुम्बिन यह सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र होते हैं:- चमार ,भट्ट ,भील, धोबी पुष्कर नॉट वर्क विद चांडाल दास स्वच्छ और कुल यह सब अंतेज कहे जाते हैं ! और जो गोमांस भक्षक हैं वह भी अन्त्यज होते हैं इनके साथ सम्भाषण करने से स्नान करना चाहिए। और उनके दर्शन करके सूर्य को देखना चाहिए तब शुद्धि होती है।👇 

अभोज्यान्ना: स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:। नापितान्वयपित्रार्द्धसीरिणो दासगोपका:।49। 

शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाऽन्न नैव दुष्यति। (व्यास-स्मृति) नापित वंश परंपरा व मित्र अर्धसीरि,दास और गोप यह सब शूद्र हैं तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर भी दूषित नहीं होते हैं।49। अब शूद्रों के प्रति घृणा का चरम यहाँं देखो - कि किस प्रकार किसी को शूद्र घोषित करके उसको नाम को ही घृणा से युक्त कर दिया जाए! 👇

 माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य बलवत् क्षत्रियस्य धनोपेतं वैश्यस्य। जुगुप्सितं शूद्रस्य ( विष्णु -स्मृति) 👇 ब्राह्मण का नाम मांगलिक अर्थ का सूचक होना चाहिए और क्षत्रिय का बल वत्ता सूचक वैश्य का धनयुक्तता सूचक और शूद्र का घृणा सूचक होना चाहिए! ____________________________________ ब्राह्मण को कभी भी शूद्रा- स्त्री को धर्मार्थ में संलग्न नहीं रखना चाहिए वह तो केवल का कामान्ध ब्राह्मण को रति प्रदान करने के लिए होती है👇

 द्विजस्य भार्या शूद्रा धर्म्मार्थे न भवेत् क्वचित् रत्यर्थ नैव सा यस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता।            ( विष्णु-स्मृति)

_________

 बाल्ययौवनबार्द्धकेष्वपि पितृभर्तृपुत्राधीना ।    मृते भर्त्तरिब्रह्मचर्य्य तदन्वाग्नीरोहणं वा। (विष्णु-स्मृति) 

बालावस्था ,युवावस्था तथा वृद्धावस्था में भी क्रमश पिता, भर्ता और पुत्रों की अधीनता मे रहना स्त्रियों का धर्म है । अपने स्वामी के मर जाने पर ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन अथवा उसके साथ चिता पर आरोहण करना स्त्री का परम धर्म है। ____________________________________ अथ ब्राह्मणसं वर्णानुक्रमेण चतस्रो भार्य्या भवन्ति तिस्रा क्षत्रियस्य द्वे वैश्यस्य । (विष्णु-स्मृति) ब्राह्मण की वर्णों के अनुक्रम से चार स्त्रियां होती हैं यानी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र तथा क्षेत्रीय की तीन स्त्रियां होती हैं स्वयं क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र और वैश्य की दो वैश्य और शूद्रा । तथा शूद्र की एक ही पत्नी होती है केवल शूद्र। 


तिस्त्रो ब्राह्मणस्य भार्य्या वर्णानुपूर्व्येण। द्वे राजन्यस्य एकैका वैश्यशूद्रयो:24। (वशिष्ठ -स्मृति) 

 अनुवाद:-ब्राह्मण की वर्णानुपूर्वी रूप से तीन पत्नियां होती हैं। क्षत्रिय की दो पत्नियां होती हैं अर्थात ब्राह्मण की पत्नियां हुईं क्षत्रिय और वैश्य कन्या से ब्राह्मण विवाह कर सकता है और क्षत्रिय स्वयं क्षत्रिय तथा वैश्य की कन्या से और वैश्य और शूद्र की एक एक ही पत्नियां होती है यही वैश्य और शूद्र की एक एक बार होती है कुछ पुरोहितों के मतानुसार वैश्य कि एक शुद्र वर्ण की भार्या होती है किन्तु मन्त्र वर्जित। अधिकतर स्मृतियों की रचना पुराणों के पश्चात् हुई शान्तातप -स्मृति की रचना हरिवंश पुराण के बाद हुई। वासुदेव जगन्नाथसर्वभूताशयस्थित: । पातकार्णवमग्नं मां तारय प्रणतार्तिहृत्।55। हे वासुदेव हे जगत के स्वामी हे प्रणतों( नम्रता पूर्वक झुके हुए) को पीड़ा का नाश करने वाले ,समस्त प्राणियों के अंतःकरण में विराजमान पापों की सागर में निमग्न मेरा उद्धार करो। ब्राह्मणोद्वाहनञ्चैव कर्तव्यं तेन शुद्धये श्रवणं हरिवंशस्य कर्तव्यञ्च यथाविधि।।61। 

इस पाप से छुटकारा पाने के लिए किसी ब्राह्मण का उद् वाहन करना चाहिए और विधि पूर्वक "हरिवंश पुराण" का श्रवण करना चाहिए।61। आपस्तम्बः -स्मृति द्वितीय अध्याय।

कारूहस्तगतं पुण्यं यच्च प्रामाद्विनि: स्तनम । स्त्रीबालवृद्धाचरितं प्रत्यक्षाद्दृष्ममेव च ।1। शिल्पी के हाथ गई हुई वस्तु पवित्र मानी जाती है और जो पात्र व्यायाम से निकली हुई हो वह भी पवित्र है इस्त्री वाला कोई व्यक्ति के द्वारा जो कुछ किया जावे और पवित्र हैं जो प्रत्यक्ष में अपनी आंखों से नहीं देखी जाए वह भी पवित्र मानी जाती है।

न दुष्येत् सन्तता धारा वाताद्धृताश्च रैणव:।    स्त्रीयो वृद्धाश्च बालाश्च न दुष्यति कदाचन।3। निरंतर बहने वाली धारा दूषित नहीं होती है और वायु द्वारा उठाए गए रेणुका भी दूषित नहीं माने जाते । उसी प्रकार स्त्री बालक वृद्ध कभी भी दूषित नहीं होते हैं।3। 

आपने सही अपना वस्त्र ,जाया ,संतति और अखंड अन्न यह सब अपनी तो शुद्ध होते हैं और यह दूसरों के अशुद्ध कहीं गए हैं।

नारी के संदर्भ में कबीरदास  का दृष्टिकोण तुलसी दास से पूर्णत: पृथक है। जहाँ कबीर वासना-व्यापिनी स्त्रीयों की ही निन्दा करते हैं और सात्वती तथा आध्यात्मिका स्त्रीयों की स्तुति भी करते हैं ।
परन्तु  वहीं तुलसी ने तो केवल नारियों को भोग और प्रताणना तक ही सीमित मानकर उन्हें ढोल और पशु के समान प्रताड़ित(तड्=आघाते) करने का विधान पारित किया है।
यह उनकी मान्यता बुद्ध के परवर्ती काल में लिखीं स्मृतियों(धर्म शास्त्रों) और भोगवादी विचारधाराओं से प्रेरित थी।  परन्तु तुलसी ने इसके अतिरिक्त अपना पूर्वदुराग्रह  पक्षपात और विषमता मूलक वर्णव्यवस्था के स्थापन हेतु प्रदर्शित किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं। किसी ब्राह्मण के व्यभिचारी और लम्पट होने पर भी उसकी पूजा का विधान भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं का सत्यानाश करना ही है ।
और तुलसी ने वही किया। आज भी बहुत से वे ब्राह्मण समुदाय के लोग जो स्वयं को बुद्धिजीवि और आधुनिक कहते हैं । वर्णव्यवस्था के पक्ष में होकर ब्राह्मण समाज द्वारा की गयी गलतियों को खारिज करने के मुड़ में नहीं होते हैं उल्टे ही शास्त्रों में लिखे शूद्र और महिला विरोधी तथ्यों की अपने स्वार्थ के अनुकूल अर्थ करने में लगे रहते हैं।
भारतीय जनमानस को नियंत्रित करने में धर्म की भूमिका काफी महत्वपूर्ण व केन्द्रीय  रही है। भारतीय समाज, खासकर हिंदू समाज स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों  बाद भी धार्मिक रीतियों-नियमों व धर्मग्रंथों से ही निर्देशित होता है। हिंदू जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों में बँधा रहता है। ये संस्कार यह दर्शाते हैं कि हिंदू जीवन व हिंदू मानस पर धर्म का प्रभाव कितना गहरा है। कहने को तो आज हमारे पास संविधान है, जिसने सभी को समान रूप  से सामाजिक व राजनीतिक अधिकार दे रखे हैं, किंतु सामाजिक संरचना में यह जमीनी हकीकत पर क्रियान्वित अगर नहीं हो पा रहा  है , तो उसका एक बड़ा कारण सामाजिक संरचना पर धर्म का प्रभाव व उसके धर्मग्रंथों में उल्लेखित नियमों द्वारा निर्देशित होना है। 
हिंदू धर्म को निर्देशित करने वाले ग्रंथों में ‘ मनुस्मृति’ भूमिका सबसे प्रमुख है। यह ग्रंथ भारत का पहला लिखित संविधान माना जाता है। इस ग्रंथ की सामाजिक व्याप्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय वर्णाश्रम पद्धति को बरकरार रखने में इसकी केन्द्रिय भूमिका है। ब्राह्मणों को श्रेष्ठ स्थिति प्रदान करने से लेकर शूद्रों को मानसिक व भौतिक स्तर पर गुलाम बनाये रखने में इसके नियमों-कायदों का बहुत बड़ा हाथ है।
एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सा स्मृताङ्गना। ९.४५। मनुस्मृति अध्याय अध्याय( 9)

अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत्।९.३१७।
श्मशानेष्वपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हूयमानश्च यज्ञेषु भूय एवाभिवर्धते ।९.३१८।
एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तन्ते सर्वकर्मसु ।
सर्वथा ब्राह्मणाः पूज्याः परमं दैवतं हि तत्।३१९। मनुस्मृति अध्याय (9)

यही श्लोक महाभारत में भी हैं परन्तु आर्यसमाजी मनुस्मृति के श्लोक तो प्रक्षिप्त बताते हैं महाभारत क्यों नहीं बताते हैं ये भी प्रक्षिप्त हैं।

अविद्वान्ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत्।
विद्वान्भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसन्निभः।20।
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाऽग्निर्दैवतं महत्।।21।
श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पावको नैव दुष्यति।
हविर्यज्ञे च विधिवद्भूय एवाभिशोभते।।22।

एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु।
सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम्।।23।

श्रीमन्महाभारत अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः। 256।

अब महाभारतकार एक तरफ तो अहीरों की कन्या गायत्री के विषय में वर्णन करता है कि
गायत्री सम्पूर्ण वेदों का प्राण कहलाती है ।
गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है गायत्री के बिना
 सम्पूर्ण वेद निर्जीव हैं ।👇
(महाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत वैष्णव
धर्मपर्व पृष्ठ संख्या -6320👇
तस्मात् तु सर्ववेदानां गायत्री प्राण उच्यते ।
निर्जीवा हीतरे वेदा विना गायत्र्या नृप।।
___________________
महाभारत में एक स्थान रर वर्णन है 
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।21।
अर्थ;-कि ब्राह्मण विद्या हीन होने पर भी देवता के समान और परम पवित्र पात्र माना गया है। जैसे अग्नि सर्वत्र महत्( पूज्य)होती है। फिर जो विद्वान है उसके लिए तो कहना ही क्या
वह महान देवता के समान है और भरे हुए 
महासागर के समान सदगुण संपन्न है👇
(महाभारत अनुशासनपर्व के दानधर्मपर्व)
 पृष्ठ संख्या -6056 गीताप्रेस)..

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: मे ठीक इसके विपरीत कथन है।
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत्।
अपि शूद्रं च धर्मज्ञं सद्वृत्तमभिपूजयेत्।११।  (48) 
अनुवाद:-ऊंची जाति का मनुष्‍य भी यदि उत्तमशील अर्थात आचरण से हीन हो तो उसका सत्‍कार( पूजा) न करें और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर( पूजा) करनी चाहिये।११।
आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः
सुशीलचारित्रकुलैः शुभाशुभैः।
प्रनष्टमप्यात्मकुलं तथा नरः
पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मतः।48।
अनुवाद:-
मनुष्‍य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुल के द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्‍ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाश में ला देता है।48।

योनिष्वेतासु सर्वासु सङ्कीर्णास्वितरासु च।
यत्रात्मानं न जनयेद्बुधस्तां परिवर्जयेत्।49।
अनुवाद:-
इन सभी उपर बतायी हुई नीच योनियों में तथा अन्‍य नीच जातियों में भी विद्वान पुरुष को संतानोत्‍पति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्‍याग करना ही उचित है।49।
      
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण अनुशासन पर्व अध्याय(48) बम्बई संस्करण अध्याय(83) 3-7
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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-10 का हिन्दी अनुवाद
महाभारत, मनुस्‍मृति, अंगों सहित चारों वेद और आयुर्वेद शास्त्र- ये चारों सिद्ध उपदेश देने वाले हैं, अत: तर्क द्वारा इनका खण्‍डन नहीं करना चाहिये। धर्म को जानने वाले पुरुष को देव सम्‍बन्‍धी कार्य में ब्राह्मणों की परीक्षा करने से यजमान की बड़ी निन्‍दा होती है। ब्राह्मणों की निन्‍दा करने वाला मनुष्‍य कुत्‍ते की योनि में जन्‍म लेता है, उस पर दोषारोपण करने से गदहा होता है और उसका तिरस्‍कार करने से कृमि होता है तथा उसके साथ द्वेष करने से वह कीड़े की योनि में जन्‍म पाता है। ब्राह्मण चाहे दुराचारी हों या सदाचारी, संस्‍कारहीन हों या संस्‍कारों से सम्‍पन्न, उनका अपमान नहीं करना चाहिये; क्‍योकि वे भस्‍म से ढकी हुई आग के तुल्‍य हैं।

बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि क्षत्रिय, सांप और विद्वान ब्राह्मण यदि कमज़ोर हों तो भी कभी उनका अपमान न करें। क्‍योंकि वे तीनों अपमानित होने पर मनुष्‍य को भस्‍म कर डालते हैं। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को प्रयत्‍नपूर्वक उनके अपमान से बचना चाहिये। जिस प्रकार सभी अवस्‍थाओं में अग्‍नि महान देवता हैं, उसी प्रकार सभी अवस्‍थाओं में ब्राह्मण महान देवता हैं। अंगहीन, काने, कुबड़े और बौने- इन सब ब्राह्मणों को देवकार्य में वेद के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों के साथ नियुक्‍त करना चाहिये। उन पर क्रोध न करे, न उनका अनिष्‍ट ही करे; क्‍योंकि ब्राह्मण क्रोधरूपी शस्त्र से ही प्रहार करते हैं, वे शस्त्र हाथ में रखने वाले नहीं हैं। जैसे इन्‍द्र असुरों का वज्र से नाश करते हैं; क्‍योंकि ब्राह्मण जाति मात्र से ही महान देवभाव को प्राप्‍त हो जाता है।

कुन्‍तीनन्‍दन! सारे प्राणियों के धर्मरूपी खजाने की रक्षा करने के लिये साधारण ब्राह्मण भी समर्थ हैं, फिर जो नित्‍य संध्‍योपासन करते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्‍या है? जिसके मुख से स्‍वर्गवासी देवगण हविष्‍य का और पितर कव्‍य का भक्षण करते हैं, उससे बढ़कर कौन प्राणी हो सकता है? ब्राह्मण जन्‍म से ही धर्म की सनातन मूर्ति है। वह धर्म के लिये ही उत्‍पन्‍न हुआ है और वह ब्रह्मभाव को प्राप्‍त होने में समर्थ है ब्राह्मण तो अपना ही खाता, अपना ही पहनता और अपना ही देता है। दूसरे मनुष्‍य ब्राह्मण की दया से ही भोजन पाते हैं। अत: ब्राह्मणों का कभी अपमान नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि वे सदा ही मुझमें भक्‍ति रखने वाले होते हैं। जो ब्राह्मण बृहदारण्‍यक- उपनिषद में वर्णित मेरे गूढ़ और निष्‍फल स्‍वरूप का ज्ञान रखते हैं, उनका यत्‍नपूर्वक पूजन करना।

पाण्‍डुनन्‍दन! घर पर या विदेश में, दिन में या रात में मेरे भक्‍त ब्राह्मणों की निरन्‍तर श्रद्धा के साथ पूजा करते रहना चाहिये ब्राह्मण के समान कोई देवता नहीं है, ब्राह्मण के समान कोई गुरु नहीं है, ब्राह्मण से बढ़कर बन्‍धु नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर कोई खजाना नहीं है। कोई तीर्थ और पुण्‍य भी ब्राह्मण से श्रेष्‍ठ नहीं है। ब्राह्मण से बढ़कर पवित्र कोई नहीं है और ब्राह्मण से बढ़कर पवित्र करने वाला कोई नहीं है। ब्राह्मण से श्रेष्‍ठ कोई धर्म नहीं और ब्राह्मण से उत्तम कोई गति नहीं है। पाप कर्म के कारण नरक में गिरते हुए मनुष्‍य का एक सुपात्र ब्राह्मण भी उद्धार कर सकता है।
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खेर कबीर ने स्त्रीयों के विषय में क्या कहा यह भी जान लें

शास्त्रों का सार है " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला:" जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवता रहते हैं और जहाँ पर नारी का अपमान होता है वहां तमाम तरीके से पूजा पाठ के बाद भी देवता निवास नहीं करते हैं। लेकिन निराशा का विषय है की जो कबीर समाज में व्याप्त धार्मिक कर्मकांड, हिन्दू मुस्लिम वैमनष्य, पोंगा पंडितवाद, भेदभाव और कुरीतियों का विरोध करते हुए एक समाज सुधारक की भूमिका में नजर आते हैं वो स्त्री के बारे में निष्पक्ष दृष्टिकोण नहीं रख पाए। 
शायद इसका कारन उस समय के समाज के हालात रहे होंगे जो पुरुष प्रधान था। अथवा अज्ञान और गुलामी की जञ्जीरों में जोड़ी हुई नारी कि सामाजिक स्थिति-
मध्यकालीन कवियों ने नारी को दोयम दर्जे में रख कर उसका अस्तित्व पुरुष की सहभागी, सहचारिणी सहगामिनी तक ही सीमित कर रखा था।
नारी को कभी भी स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में चित्रित नहीं किया गया यह तो शास्त्रों की उपजीव्यता है।

कबीर के विचार हर युग और काल में प्रासंगिक रहे हैं। वर्तमान समय के विश्लेषण से ज्ञात होता है की छह सौ साल बाद भी कबीर के विचार प्रासंगिक हैं। भले ही साम्प्रदायिकता, धार्मिक कर्मकांड, और समाज में व्याप्त भेदभाव हो, कबीर के विचार प्रासंगिक हैं।
 
कबीर के अनुसार दो तरह की नारियों के दो रूप होते हैं । जैसा कि पुरुषों के भी दो रूप होते हैं 
एक नारी तो साधना में बाधा नहीं पहुँचाती है और स्वयं साधिका अथवा साध्वी होती है वही  पतिव्रता भी होती है और दूसरी नारी जो साधना में अवरोध पैदा करती है भौतिक आकाँक्षाओं से व्याप्त होती है। उसे कबीर ने साध्वी को स्वीकार और भौतिकवादी नारी का बहिष्कार किया है।

 जिससे ज्ञात होता है की मूलतः कबीर नारी विरोधी नहीं थे। कबीर का मानना था की उपासना और ध्यान में नारी का त्याग आवश्यक है। कबीर ने ना तो हर जगह नारी की स्तुति की है और ना ही हर जगह भर्त्सना ही उन्होंने मध्यम मार्ग को चुना है।
कबीर के नारी संबधी विचारों में एक बात और निकल कर आती है वो है, पुरुष प्रधान समाज का अहम्। ये अहम् ही है जो नारी को मायावी, पुरुषों को जाल में फांसने वाली और ठगिनी ठहराता है। ये बाते कबीर को सन्तों की शास्त्रीय परम्पराओं से प्राप्त हुईं ।
स्त्री के मात्र कामिनी कहना उसके शरीर की व्याख्या हो सकती है लेकिन स्त्री भी एक स्वंतंत्र व्यक्तित्व होता है, जिसे मध्यकालीन कवियों ने नजरअंदाज किया है। धर्म के साथ नारी का क्या विरोध है, समझ से परे है लेकिन ये तो सत्य है की जो भी व्यक्ति धर्म से जुड़ा है वो थोड़ा बहुत नारी के विरोध में तो होता ही है। जबकि सारी कमी उसी व्यक्ति की होती है। जो
स्वयं नारी को उपभोग की दृष्टिकोण से देखता है

क्या नारी सिर्फ पुरुष की सेवा के लिए है ? क्या उसे हरदम घर में घुट कर रहना चाहिए ? ये कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर पुरुष प्रधान भक्तिकालीन कवियों ने मूल्यांकन में चूक की है। क्यों उन्हने
ये शास्त्रीय परम्पराओं का पालन किया इसलिए परन्तु शास्त्र भी पुरुषों ने ही अपने कल्याण के लिए लिखे। और महिलाओं का कल्याण उन्होंने पुरुषों के द्वारा उपभोगत्व में निहित कर दिया।


 कबीर ने केवल फूअड़ और मूढ़मति स्त्री  को नरक का कुण्ड, काली नागिन, कूप समान, माया की आग, विषफल, जगत की जूठन, खूँखार सिंहनी, आदि उपमाओं से नवाजा परन्तु साध्वी यो
 के प्रति कबीर का दृष्टिकोण कोण सकारात्मक ही था। 
कुछ दोहे जो नारी के विषय में कबीर के विचार प्रदर्शित करते हैं व्याख्या सहित निम्न हैं :-

पतिबरता मैली भली, काली कुचिल कुरुप
पतिबरता के रुप पर बारौं कोटि स्वरुप।
अर्थ:-
ऐसी नारी जो अपने पति के प्रति समर्पित हो, पतिव्रता हो वो भले ही मैली कुचैली हो, कुरूप हो श्रेष्ठ है, ऐसी पतिव्रता नारी को कबीर नमन करते हैं। यहाँ कबीर ने नारी जो पक्ष रखा है वो नारी अस्मिता के पक्ष में है। नारी के रूप पर ना जाकर उसके गुणों की तारीफ की है जो की एक पुरुष या नारी के मूल्याङ्कन का आधार है। यद्यपि पुरुष की दृष्टि में नारी सौन्दर्य उसकी कोमलता और वाणी का तारत्व( तारसप्तक के स्वर) ही हैं पुरुष की प्रवृति में पुरुषता( कठोरता) है। और वाणी में भी मन्द्रता( भारी और मोटापन) कबीर ने कहा कि 
"नारी निन्दा ना करो, नारी रतन की खान
नारी से नर होत है, ध्रुब प्रहलाद समान।  

कबीर ने नारी का पक्ष रखते हुए कहा है की नारी की निंदा नहीं की जानी चाहिए,  नारी से ही रत्न पैदा होते हैं, ध्रुव और प्रह्लाद जैसे नर भी नारी ने ही पैदा किये हैं।

नारी नरक ना जानिये, सब सन्तन की खान
जामे हरिजन उपजै, सोयी रतन की खान। 
अर्थ:-
उपरोक्त दोहे में कबीर का कहना है की नारी को नरक मत समझो। नारी से ही सभी संत पैदा हुए हैं। भगवत पुरुषों की उत्पत्ति नारी से हुयी है इसलिए वो रत्नो की खान है।

कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फंद
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूॅ मै बंद।
अर्थ:-
कलयुग में नारी और धन व्यक्ति को अपने फंदे में बाँध लेते हैं। माया और स्त्री को यहाँ एक समान बताया गया है जहाँ दोनों ही व्यक्ति को अपने फंदे में फंसा लेते हैं। जो व्यक्ति इन दोनों फंदों से बच  जाता हैं उसके हृदय में ईश्वर वास करते हैं। यहाँ नारी को मायावी बताया है और उस नारी के बारे में कहा गया है जो साधना में बाधा डालती हो।कबीर का यहाँ तमोगुणी नारि की ओर संकेत है।

नागिन के तो दोये फन, नारी के फन बीस
जाका डसा ना फिर जीये, मरि है बिसबा बीस। 
अर्थ:-
नागिन के दो फन होते हैं लेकिन नारी के बीस फन होते हैं, नारी का डसा हुआ कोई भी जीवित नहीं बचता है। बीस के बीस लोग मर जाते हैं।

चलो चलो सब कोये कहै, पहुचै बिरला कोये
ऐक कनक औरु कामिनि, दुरगम घाटी दोये। 
 अर्थ:-
सब लोग ईश्वर की प्राप्ति हेतु चलो चलो कहते हैं, मुक्ति की और अग्रसर होते हैं, लेकिन माया और नारी इसमें बाधा हैं। माया और नारी दो ऐसी  दुर्गम घाटियां हैं जिनको पार करके ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। नारी और माया के साथ ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं हैं।

छोटी मोटी कामिनि, सब ही बिष की बेल
बैरी मारे दाव से, यह मारै हंसि खेल।।
अर्थ:-
नारी चाहे कमजोर हो या फिर बलवान दोनों ही विष की बेल हैं। दुश्मन दाव से मारता है जबकि नारी हंस खेल कर ही व्यक्ति को समाप्त कर देती है।
कामिनि काली नागिनि, तीनो लोक मंझार
राम सनेही उबरै, विषयी खाये झार। 
अर्थ:-
 कामिनी स्त्री काली नागिनी की तरह से होती है जो तीनो लोकों में रहती हैं। भगवान के भक्त ही इससे बच सकते हैं और लोगों को ये विष से मार देती हैं।

कपास बिनुथा कापड़ा, कादे सुरंग ना पाये
कबीर त्यागो ज्ञान करि, कनक कामिनि दोये। 
अर्थ:-
गंदे कपास से कपडे को रंगा नहीं जा सकता है, ईश्वर की प्राप्ति के लिए माया और स्त्री का त्याग आवशयक है।

कबीर मन मृतक भया, इंद्री अपने हाथ
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ। 
अर्थ:-
यदि किसी का मन उसके वश में है, इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण है तब भी उसको माया और स्त्री का साथ नहीं करना चाहिए। माया और स्त्री किसी को भी अपने वश में करके ईश्वर की भक्ति मार्ग से विचलित कर सकते हैं। 
कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत
केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत। 
अर्थ:-
नारी के संग से अनेक लोग नरक में पहुंच चुके हैं और नारी संगती करने वाले कई और लोग भी हँसते हँसते नरक के भागी होंगे।
पर नारी पैनी छुरी, मति कौई करो प्रसंग
रावन के दश शीश गये, पर नारी के संग। 
अर्थ:-
पर नारी का संग नहीं करना चाहिए। पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, पर नारी के संग करने से रावण के दस सर भी चले गए, रावण का अंत हो गया।
परनारी पैनी छुरी, बिरला बंचै कोये
ना वह पेट संचारिये, जो सोना की होये। 
अर्थ:-
पर नारी पैनी छुरी की तरह से होती है, उसके वार से कोई विरला ही बच पाता है। पर नारी को हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए क्योंकि वह कभी भी घात कर सकती है। वो कितनी भी सुन्दर या सोने की ही क्यों ना हो उससे दूर ही रहना चाहिए।

नारी निरखि ना देखिये, निरखि ना कीजिये दौर
देखत ही ते बिस चढ़ै, मन आये कछु और। 
अर्थ:-
नारी को गौर से कभी मत देखो और ना ही उसके पीछे दौड़ो, उसका संग मत करो, क्यों की नारी को देखते ही मन में अनेकों प्रकार के विषय विकार आने लगते हैं और व्यक्ति अपने मार्ग से विचलित हो जाता है।

कामिनि सुन्दर सर्पिनी, जो छेरै तिहि खाये
जो हरि चरनन राखिया, तिनके निकट ना जाये। 
अर्थ:-
नारी के सुन्दर सर्पिणी की तरह से होती है, उसे छेड़ने, उसका संग करने से, वह काट खाती है। इस व्यक्ति ने अपना स्थान हरी चरण में रखा है उसके निकट वो सर्पिणी नजदीक नहीं जाती है। 
नारी काली उजली, नेक बिमासी जोये
सभी डरे फंद मे, नीच लिये सब कोये। 
अर्थ:-
नारी कैसी भी हो कालीया सुन्दर वो हमेशा वासना के फंदे में पुरुष को बाँध देती है। समझदार व्यक्ति वासना के इस फंदे से दूर रहता है और नीच पुरुष हमेशा नारी को साथ रखता है।
 
कबीर जी के दोहे जितने सरल उतने ही गहरे अर्थ रखते है। उन्होंने अपने दोहों में कनक और कामिनी का वर्णन किया है, जितना मुझे समझ आया उन्होंने कनक का अर्थ स्वर्ण से लिया है और स्वर्ण मन में लालच पैदा करता है। और कामिनी का अर्थ कामवासना से है। मन में लालच और मन में कामवासना, स्त्री या पुरुष किसी के भी हो सकते हैं। और जहँ उन्होंने नारी का वर्णन किया वहां साथ में पर शब्द का इस्तेमाल भी किया हुआ है। पर-दूसरी/दूसरा।
गुरु कबीर जी के दोहे पुरुष या स्त्री को संबोधित कर के नहीं अपितु मन को संबोधित कर के कहे गए हैं। केवल समझ का फेर है।
आपने सही तथ्य को समझा ही नहीं। अध्यात्म की राह में लोभ और काम सबसे बड़े शत्रु हैं। नारी की सभी शास्त्रों में मातृ रूप में वंदना की गई है और कामिनी के रूप में निंदा। जो मनुष्य स्त्री को कामिनी के रूप में देखता है उसका पतन निश्चित है। और जो स्त्रियों को मातृ रूप देखता है उसका पतन हो नहीं सकता।

कबीर के दोहे (1)- नारी नदी अथाह जल, जामें  डूब मरा संसार! ऐसा साधु ना मिला, जासंत उतारे पार !!
कबीर के दोहे (2)-नारी है अमृत की खानी, तासे उपजे सुर मुनि ज्ञानी !!
२ नारी है नरक की खानि, तासेबचाहु हो गुरू ज्ञानी।।

ये ठीक है लेकिन समझना चाहिय् की नारी ही हमेशा कामिनि नहीं होती नर भी कमीना होता है। 
कबीर साहेब जी ने स्त्री और पुरुष दोनों को समान बताया हैं।

तुलसीदास ने रामचरितमानस की पहली प्रतिलिपि बाबर के पोते अकबर के  वित्तमन्त्री  टोडरमल के पास रखी थी, जो तुलसीदास के मित्र थे। गीता प्रेस की रामचरितमानस में यह बात दर्ज  है। (134वां संस्करण, पेज 970-71) 

महाभारत-अरण्य पर्व अध्याय-275/13

 (सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि ।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा ॥१३॥

यही पर राम सीता के प्रति कहते है।
अनुवाद:- 
अर्थात 'मिथिलेश नन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध अब मैं तुम्हें अपने प्रयोग में नहीं ला सकता-ठीक उसी तरह जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई भी ग्रहण नही करता है। क्या सीता राम के लिए हवन सामग्री हैं। यदि ऐसा है तो वह कौन सा यज्ञ है जिसके लिए सीता महज हवन सामग्री हैं और जूठी हो जाने पर सर्वथा अनुपयुक्त  और त्याज्य  हो जाती हैं। 

क्या वास्तव में राम ने सीता से ये बातें कहीं थी या रामायण लिखने वाले ने राम के चरित्र पर इस घटना को आरोपित कर नारीयों को उपभोग की वस्तु बताना चाहा है। 
जो झूँठी हो जाने पर त्याज्या हैं । इस प्रकार के शास्त्रीय विधानों से भी नारी जाति की दुर्गति हुई है 
तुलसी दास ने तो अब संशोधन शुरु कर दिया है परन्तु अभी धर्मशास्त्रों में दबी पड़ी गन्दिगी को निकालने की महती आवश्यकता है ।
और उन फर्जी शंकराचार्यो को भी बताने की आवश्यकता है जो एक नारी से जन्म लेकर आज उसे अपवित्र बता रहे हैं ।

आडम्बरों और सामाजिक बुराईयों पर चोट होनी ही चाहिए। ये बुराईयाँ धर्मशास्त्रों को ढाल बनाकर अपने लाभ के लिए पुरोहितों ने समाज पर आरोपित कर दी  
 कोई रचना उस कालखंड के लिए भले ही लेखक को प्रासंगिक लगे लेकिन भविष्य में  परिस्थिति  और देश काल   के साथ  बदलते सिद्धान्तों के रूप में उसका महत्व समाप्त हो जाता है।  परिवर्तन प्रकृति का ही शाश्वत नियम है।

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