शिबिमौशीनरं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत्समवेष्टयत्।।39।
(शान्ति पर्व अध्याय 28)
सृजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था। वे उशीनर पुत्र राजा शिबि भी मर गये।39।
रामं दाशरथिं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाःपुत्रानिवौरसान्।।५१।
’सृंजय! सुनने में आया है कि दशरथ पुत्र राम भी मर गये थे, जो सदा अपनी प्रजा पर वैसी ही कृपा रखते थे, जैसे-पिता अपने औरस पुत्रों पर रखता है।51।(शान्ति पर्व अध्याय 28)
महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-11 एकोनषष्टितम (59) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्युपर्व )पर भी राम के मरण का वर्णन है।
भगवान श्रीराम का चरित्र नारदजी कहते हैं – सृंजय ! दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम भी यहां से परमधाम को चले गये थे, यह मेरे सुनने में आया है । उनके राज्य में सारी प्रजा निरन्तर आनन्दमग्न रहती थी । जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजा का स्नेहपूर्वक संरक्षण करते थे ।वे अत्यन्त तेजस्वी थे और उनमें असंख्य गुण विद्यमान थे ।
(महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ।२८।)
(महाभारत द्रोण पर्व अभिमन्यु वध पर्व) 59 वाँ अध्याय-)
रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में राम द्वारा कबंध को ब्राह्मण महिमा समझाने वाले प्रसंग की निम्न चौपाई में तो ताड़ना का अर्थ मारना ही है और वास्तव में संस्कृत की चुरादि गणीय तड् धातु =आघाते से--भाव में ल्युट् (अन्) प्रत्यय करने पर ताडन शब्द बना है। ।
लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।
पाँच वर्षकी अवस्था तक पुत्रकी लालना करनी चाहिये, उसके बाद दस वर्ष तक उसे ताड़ना (पीटना) भी चाहिये (जब वह नियन्त्रण न माने) और जब वह सोलहवें वर्ष की अवस्थामें पहुंचे तो उससे मित्र के समान बर्ताव करना चाहिये॥
ताडन=आघातः ।
श्लाघ्यं नीरसकाष्ठताडनशतं श्लाघ्यः प्रचण्डातपःक्लेशःश्लालाघ्यतरःसुपङ्कनिचयैःश्लाघ्योऽतिदाहोऽनलैः यत्कान्ताकुचपार्श्ववाहुलतिकाहिन्दोललीलासुखं लब्धं कुम्भवर त्वया नहि सुखं दुःखैर्विना लभ्यते ।।१०।।( श्रृँगारतिलक- कालिदास)
गोब्राह्मणानलान्नानि नोच्च्छिष्टो न पदा स्पृशेत् । न निन्दाताडने कुर्यात् पुत्रं शिष्यं च ताडयेत् ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति १.१५५।
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शूद्रेषु दासगोपाल- कुलमित्रार्धसीरिणः ।भोज्यान्नाः नापितश् चैव यश् चात्मानं निवेदयेत् ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति.१६६ ॥
शब्द कोश में भी ताड़ का अर्थ -मारना -पीटना
[सं० ताडन] १. मार । प्रहार । आघात । २. डांट डपट । घुड़की । ३. शासन । दंड ।४. मंत्रों के वर्णों को चंदन से लिखकर प्रत्येक मंत्र को जल से वायुबीज पढ़कर मारने का विधान । यही ताडन के अर्थ हैं शिक्षा अर्थ कहीं भी नहींहै।
दोहा- मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव । मोहि समेत बिरंचि सिव ताकें सब देव ॥ ३३ ॥
मन, वचन और कर्म से कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणोंकी सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वशमें हो जाते हैं ॥३३॥
सापत ताड़त परुष कहंता।बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥ पूजिअ बिप्र सील गुन हीना ।सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥ट
शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुणसे हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुणगणोंसे युक्त और ज्ञानमें निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है ॥ १ ॥
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की चौपाइयां और दोहे किसी मस्जिद में बैठकर लिखे थे यह बात स्वयं उन्होंने स्वीकार की -
तुलसी दास मस्जिद में सोने की बाक करते
राम और अहीरों का पारस्परिक विरोध- पुरोहितों द्वारा स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी भले ही आज ब्राह्मण समाज के बहुतायत लोग यादवों के पक्ष में हों परन्तु शंकराचार्यों को कौन समाझाएगा जो अहीरों को शूद्र ही मानते हैं कुछ मात्र कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का हवाला देकर ?
और इसीलिए बहुत लोग मानते होंगे कि अहीर और यादव वास्तव में अलग हैं अहीर शूद्र हैं और यादव क्षत्रिय " परन्तु ये भी मानना भ्रम ही है। यादवों को तो ऋग्वेद से लेकर पुराणों में भी म्लेच्छ और देवद्रोही विशेषत: इन्द्र नामक देव का और इस लिए उन्हें देवद्रोही भी घोषित किया गया है।
जबकि पुराणों में वर्णन ये भी है कि सारे देवगण अहीरों के रूप में यादव रूप में व्रज के ग्वाल बन गये। पहले इसी से सम्बन्धित कुछ पूर्व पक्ष के रूप में शास्त्रीय आलेखों के हवाले से हम प्रस्तुत करते हैं।
कि यदु के वंशजों को बाद में किस प्रकार यादवों को म्लेच्छ जाति बता दिया जबकि उसी ग्रन्थ में पूर्व में उनके वंश का कीर्तन करने पापों से मुक्त होने वाला बताया।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते । यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यंपरं ब्रह्मनराकृति ॥ ४,११.४ ॥ विष्णु पुराण चतुर्थांश अध्याय(11) तथा भागवत पुराण-9/23/19 में यदुवंश की स्तुति है। और अहीरों के शासक होने का भी है तो फिर इसके विपरीत कैसे लिखा गया।
सप्तषष्टिं च वर्षाणि दशाभीरास्ततो नृपाः । सप्त गर्दभिनश्चैव भोक्ष्यन्तीमां द्विसप्ततिम् ॥ १७४ ॥ (ब्रह्माण्डपुराण मध्यम भाग) अध्याय 74-
भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में यदु के वंशजों को म्लेच्छ कहा गया है कि
"मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय।
करष्यति अपरो वर्णान् पुलिन्द' यदु"मद्रकान् ।३६।
मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को पुलिन्द , यदु ( यादव) और मद्र आदि म्लेच्छ प्राय: जातियों में बदल देगा ।३६।
ये पुराण इत्यादि। बौद्ध काल के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं।
जिसके सूत्रधार ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र सुंग
(ई०पू०१४८ ) के अनुयायी ब्राह्मण हैं।
यहाँ यदु पुत्रो को म्लेच्छ जाति बताया है। ये तुर्वसु के भाई यदु ही हैं। जिनके विरुद्ध तो कुछ पुरोहित वैदिक काल से ही थे ।
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 37 के ऋचा में तथा ऋग्वेद 7/19/8 में भी यही समानता है।
प्रियास इत् ते मघवन्न् अभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः |
नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्य् अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन्।ऋ०7/19/8
(मघवन्) हे इन्द्र ! (अभिष्टौ) सब प्रकार इष्टसिद्धि में (नरः) हम लोग (ते इत्) तेरे ही (प्रियासः) प्यारे (सखायः) मित्र होकर (शरणे) शरण में (मदेम) प्रसन्न होवें। (शंस्यम्) बड़ाई योग्य कर्म (करिष्यन्) करता हुआ तू (तुर्वशम्) तुर्वशु को (याद्वम्) यदु को (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिये (नि) निश्चय ही।
(नि) नित्य (शिशीहि) क्षीण करो।
____________________________________ ऋग्वेद की अन्य ऋचा भी देखें-
अया वीती परि स्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन्नवतीर्नव ॥१॥
पुरः सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरम् ।
अध त्यं तुर्वशं यदुम् ॥२॥ ऋ० 9/61/1-2
हे “इन्दो =सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते =तव “यः रसः “मदेषु =संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन= जघान अमुं =सोमरसं पीत्वा मत्तः= सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥
“सद्यः =एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम्"अध इन्दो=यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥
(सद्यः) शीघ्र ही (शम्बरम्) शम्बर को (अध) और (त्यम्) उस (तुर्वशम्) तुर्वशु को और (यदुम्) यदु को (पुरः) और उनकी नगरियों को (अवाहन्) नष्ट-भ्रष्ट कर दो [यहाँ लङ् लकार में अव+हन्=अवाहन् हनन कर दिया।
अवाहन् ‘अवाहन्’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है ॥२॥
निश्चित रूप से यदु और तुर्वसु को अपने अधीन करने के लिए और उनके नगरों को ध्वस्त करने के लिए पुरोहित लोग इन्द्र से प्रार्थना करते हैं। यदु और तुर्वसु के पिता ययाति द्वारा किए गये अमर्यादित कार्य के लिए भी तत्कालीन पुरोहित वर्ग को भी हम दोषी मानते हैं । क्यों कि यदु और तुर्वशु के पिता ययाति की ही बातों का समर्थन उन पुरोहितों ने किया। यदु ने ही अलोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के खिलाफ बगावत के स्वर मुखर किए जिनकी अन्तिम परिणति कृष्ण के देव विरोधी कार्यों के रूप में पुराणों में परिलक्षित हुई। यदु ने स्वयं पशुपालन के रूप गायों की सेवा का कार्य किया और उनके वंशज वसुदेव और नन्द कृष्ण आदि से लेकर आज तक यही कार्य परम्परागत रूप से कर रहे हैं। इसलिए यादव ही गोप अथवा अहीर हैं।
"यह पोष्ट केवल यादव (आभीर) समाज के लिए है अन्य जाति समाज के लोग अपना ज्ञान अपने ही पास रखें )👇
राम से हमारा कोई एक द्वेष नहीं ! परन्तु राम के कन्धो पर बन्दूक या बाण रखकर अहीरों पर जिसने चलाया वह भी बच नहीं पाएंगे !
अभिवादन के तौर पर " राम-राम बोलना भी हम यादवों पर थोपा गया है" हम कृष्ण ते उपासक थे। और फिर राम एक ऐतिहासिक नहीं अपितु प्रागैतिहासिक पात्र हैं।
जिनका जीवन काल मिथको के भँवर में समाया हुआ है।
जिनका जन्म और जीवन अस्वाभाविक व इतिहास की सीमाओं से परे है । फिर भी अहीर लोग राम का नाम लेते ही हैं। यह उनकी सहिष्णुता ही है।
👇जहाँ -सुमेर, मिश्र, ईरान ईराक, दक्षिणी अमेरिका, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया तथा थाईलेण्ड की संस्कृतियों में भी राम का वर्णन उनकी लोक परम्पराओं के अनुरूप है ।
और वहीं राम का वर्णन भारतीय संस्कृति में भी सुमेरियन संस्कृति से ही आयात है ।
परन्तु पुष्यमित्र सुँग काल में राम के मिथकीय चरित्रों का सृजन पुरोहितों द्वारा अपनी मान्यताओं और लोकाचारों के अनुरूप किया ही गया ।
भारतीय पुरोहितों ने तो द्वेषवश राम को अहीरों का हत्यारा तक लिख डाला।
👇-फिर अहीर राम को इस आधार भी क्यों महिमा मण्डित करें । फिर भी वे कर रहे हैं
राम ने तो अहीरों को खत्म करने के लिऐ अग्नि बाण चलाया इसलिए अहीर क्यों बनाऐं राम मन्दिर ? फिर थी वे मन्दिर बनवा ही रहे हैं ।
यद्यपि मेरे व्यक्तिगत शोधों के अनुसार राम का चरित्र केवल भारतीय ही नही अपितु थाई भी है।
यूनेस्को ने थाईलेण्ड की अयोध्या को ही असली अयोध्या माना है।
और वहाँ काम के वंशज आज भी राजा या शासक अपने को मानते हैं।
राम का युद्ध अहीरों से कभी नहीं हुआ परन्तु पुष्यमित्र शुग कालीन पाखण्डी ब्राह्मणों नें अपनी रामायण मे लिखा है कि जड़ अथवा चेतनाहीन समु्द्र द्वारा राम से यह कहने पर कि पापी अहीर मेरा जल पीकर मुझे अपवित्र करते हैं।
इसलिए इन अहीरों को मारिये ! तो राम अपना अग्नि बाण अहीरों पर छोड़ देते हैंँ।
कमाल की बात तो ये है कि जड़ अथवा चेतनाहीन समुद्र भी राम से बाते करता है और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ बाण से त्रेता युग में ही मार देते हैं।
परन्तु अहीर मरते नहीं रामबाण भी निष्फल ही हो जाता है ।
और अहीर आज भी पूरे भारत में छाऐ हुऐ हैं। अहीरों के मारने में तो राम का अग्निबाण भी फेल हो गया।
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निश्चित रूप से अहीरों (यादवों) के विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
ब्राह्मणों ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन धर्म ग्रन्थों के रूप में इस कारण से किया है ।
ताकि अहीरों को लोक मानस में हेय व दुष्ट घोषित किया जा सके"।
परन्तु ब्राह्मण सभी ऐसे ही नहीं थे। कुछ ब्राह्मण अहीरों के सदाचार और धर्मवत्सलता के कायल थे
अन्यथा पद्म पुराण के रचनाकार ब्राह्मण अहीरों के विषय में उन्हें सदाचारी नहीं लिखते।
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं स्वयं अवतरण करुँगा, और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी उस समय धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा
परन्तु वाल्मिकी रामायण के युद्ध काण्ड में और तुलसी दास की रामचरित मानस के सुंदर काण्ड में तथा परवर्ती काल में लिखे पुराणों में भी अहीरों को जिस हीनता और नीचता पूर्वक वर्णन किया है । वह अहीरों को सरे-आम गाली देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
उसका इस रूप में वर्णन अवैज्ञानिक व मिथ्या और अस्वाभाविक तो है ही। परन्तु समाज को तोड़ने वाला भी है।
तुलसी ने तो जातिवाद की हद ही पार कर दी
"आभीर" जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । —राम चरितमानस -उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०(क) काल
—आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥१॥
गरुड़ और कागभुषुण्डि के संवाद के बहाने से तुलसी ने अहीरों को पाप से उत्पन्न लिख दिया।
तुलसी की ये प्रक्षिप्त बाते रूढ़िवादी लोग बड़े भक्ति भाव से गा गा कर अहीरों को गालीयाँ देते रहते हैं ।
और संस्कृत भाषा में वाल्मीकि रामायण के रूप में भी यही तुलसी को जिसका आधार मिला
समुद्र जिसमें चेतना ही नहीं है वह भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है।
अहीरों को वैदिक काल में भी यदु और तुरसु के रूप में नकारात्मक और हेय रूप मे वर्णन इस बात का प्रबल साक्ष्य है कि अहीर कभी भी पुरोहित वाद की धूर्तता के समक्ष नतमस्तक नहीं हुए।
👇गायत्री, दुर्गा और राधा जैसी महान शक्तियों को अहीरों की जाति में जन्म लेने का सौभाग्य मिला
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड और स्कन्द पुराण नागर और प्रभास माहात्म्य खण्डों में वर्णन है कि स्वयं विष्णु भगवान ब्रह्मा के साथ गायत्री के विवाह के सन्दर्भ में स्वयं एक पिता के समान अहीरों की कन्या गायत्री का कन्यादान ब्रह्मा को करते हैं ।
और गायत्री के माता-पिता बन्धु-बान्धवों को आश्वासन ही नहीं अपितु वरदान भी देते हैं कि द्वापर युग में नन्द और वसुदेव आदि गोपों (अहीरों ) के सानिध्य में मेरा अवतरण होगा।
पद्म पुराण के लेखक ने ये बाते तत्कालीन अवधारणाओं के अनुरूप ही लिखीं थीं।
पद्म पुराण का सृष्टि खण्ड ही प्राचीन है परन्तु पद्मपुराण में भी बाद में जोड़- तोड़ का क्रम चलता रहा है।
पद्म पुराण में गायत्री को कई मर्तबा यादवी, आभीर -कन्या तथा गोप कन्या भी कहा है।
त्रेता काल में भी अहीर लोग व्रजप्रदेश में ही निवास करते थे ।
और कुछ आभीर आवर्त देश( गुजरात) में भी रहते थे । परन्तु धूर्तों ने द्वेष और काल्पनिकता की सरहदें ही पार कर दीं हैं उनके खिलाफत में ।
कि निर्जीव समुद्र राम से बातें भी करता है। और समुद्र के निवेदन पर राम ने द्रुमकुल्य देश में अहीरों को बिना कारण के मारा फिर भी क्यों कि वे पापी हैं परन्तु अहीर मरे नहीं ।
👇ब्राह्मणों ने राम को ही अहीरों का हत्यारा' बना दिया। सात्वत अहीरों ने भागवत धर्म का सूत्रपात किया तो मनुस्मृति कार नें उन्हे वर्णसंकर और शूद्र घोषित कर दिया। फिर भी हम मनुस्मृति को धर्म का कानून मान लेते हैं ।
वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास के अनुसार राम ने अहीरों को त्रेता युग में ही अपने रामबाण से "द्रुमकुल्य" देश में मार दिया था लेकिन फिर भी अहीर आज कलयुग में करोड़ों की संख्या में मजबूती से जिन्दा हैं । यह उनकी मानवेतर जिजीविषा की ही परिणाम है।
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अहीरों को कोई नहीं जीत सकता; अहीर अजेय हैं। ऐसा तो भारतीय पुराण भी कह रहे हैं । अत: अहीरों से भिड़ने वाले नेस्तनाबूद हो जाऐगे। अहीरों को वैसे भी हिब्रू बाइबिल और भारतीय पुराणों में देव स्वरूप और ईश्वरीय शक्तियों से युक्त माना है। भले ही कृष्ण ने देवों के राजा इन्द्र की पूजा पर रोक लगा दी हो
हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम अहीर हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही माने बैठे हैं जो अहीरों के खिलाफ लिख डाली क्योंकि मनन-रहित और विवेकहीन श्रृद्धा (आस्था) ने हमें इतना दबा दिया है कि हमारा मन गुलाम हो गया। यह पूर्ण रूपेण से वह अन्धभक्ति में आप्लावित है। यह आश्चर्य ही नहीं घोर आश्चर्य है।
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महर्षि वाल्मीकि जी अपनी रामायण के युद्ध-काण्ड के २२वें सर्ग में अहीरों के विरुद्ध लिखते हैं: यद्यपि यह दावा नहीं कि यह सब वाल्मीकि ने ही लिखा है या उनके हाथ से किसी अहीर विरोधी ने लिखा है ! नीचे वह श्लोक हम उद्धृत कर रहे हैं।
👇
रामस्य वचनं श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा महाशरम्।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥३१॥
उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्॥ ३२॥
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम॥३३॥
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोघः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः॥३४॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात्॥३५॥
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्।
निपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः॥३६॥
(वाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड सर्ग 22)
हिन्दी अनुवाद:-अर्थात् समुद्र राम से बोला हे प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है।३२।
वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।
हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए / अर्थात् वाण छोड़िए ।३४।
समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार अहीरों के उसी देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह अग्निवाण छोड़ दिया।३५।
तुलसी दासजी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए राम और समुद्र के सम्वाद रूप में लिखते हैं:
"आभीर यवन किरात खल अति अघ रूपजे
अर्थात् आभीर (अहीर), यवन (यूनानी) और किरात ये दुष्ट और पाप रूप हैं ! हे राम इनका वध कीजिए। (गीता प्रैस गोरखपुर ने इस पंक्तियों को बदल दिया है)
निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है। क्योंकि अहीरों ने कभी भी ब्राह्मणों का वर्चस्व समाज में स्थापित नहीं होने दिया। तत्कालीन ब्राह्मण समाज भी अहीरों उसी प्रभाकर खिसियाया हुआ था जैसे जैन और बौद्धों से खिसियाया हुआ था।
वर्णव्यवस्था में अहीरों ने कभी भी अपने आप को समायोजित नहीं किया भले ही ब्राह्मण समाज ने अपने आप ही उन्हें शूद्र वर्ण के रूप में निम्न पायदान पर स्थापित करना चाहा हो !
राम को अहीरों का हत्यारा वर्णित करने के मूल मे पुरोहित समाज का यही दुरुदेश्य रहा है ।
ताकि इन कथाओं पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातों को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
👇अब आप ही बताओ, केवल निर्जीव जड़ समु्द्र के कहने पर त्रेता युग में राम अहीरों को मारने के लिऐ अपना राम-वाण अहीरों के "द्रुमकुल्य" देश पर चला देते हैं, लेकिन अहीरों का संहार करने में रामवाण भी निष्फल हो जाता है। क्या यह राम की पराजय नहीं
फिर भी राम मन्दिर बनाने के लिए अहीर तो करें अपना बलिदान और मन्दिरों के रूप में धर्म की दुकान चलाऐं पाखण्डी, कामी और धूर्त कलियुगी ब्राह्मण ।
दान दक्षिणा हम चढ़ाऐं और और ब्राह्मण उससे ऐशो-आराम करें।
इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ?
(द्रुमकुल्य देश कहाँ था ? तो इस पर भी कुछ विचार आवश्यक है।)
द्रुमकुल्य भारत और श्रीलंका के बीच के समुद्र के उत्तर की ओर स्थित एक देश था।
रामायण काल में यहाँ आभीरों का निवास था।
वाल्मीकि-रामायण में उल्लेख है कि
समुद्र की प्रार्थना पर श्रीराम ने अपने चढ़ाए हुए बाण को, जिससे वह समुद्र को दंडित करना चाहते थे, द्रुमकुल्य की ओर फेंक दिया था।
जिस स्थान पर वह बाण गिरा था, वहाँ समुद्र सूख गया और मरुस्थल बन गया, किन्तु यह स्थान राम के वरदान से पुन: हरा-भरा हो गया-
'तन्मरुकान्तारं पृथिव्या किल विश्रुतम्, निपातित: शरो यत्र बज्राशिनसमप्रभ:।
विख्यात त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेक्च, शोषयित्वात् तं कुक्षि रामो दशरथात्मज:।
वर तस्मै ददौविद्वान् मखेऽमरविक्रम:, पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुत:, बहुस्नेहो बहुक्षीर: सुगंधिर्विविधौषधि:
अध्यात्म रामायण के, युद्ध काण्ड में भी द्रुमकुल्य का उल्लेख है-
"रामोत्तरप्रदेशे तु द्रुमकुल्य इति श्रुत:'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 455 |
वाल्मीकि रामायण, युद्ध काण्ड 22, 29-30-31-33-37-38.
अध्यात्म रामायण, युद्ध काण्ड 3, 81
राम नाम को आधार पर आज जिस पकार भगवाधारी गैंग एक उग्रवाद को अंजाम दे रहा है जातिवाद का उन्माद और दंगा-फसाद फैला रहा है। यह भारती समाज और संस्कृति के लिए घातक ही है। यह भी सर्वविदित है अभी अयोध्या में "राम मन्दिर ट्रस्ट में रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज के परामर्श स्वरूप किसी भी यादव को संरक्षक सदस्य मनोनीत नहीं किया गया।
और राम मन्दिर ट्रस्ट का चन्दा-घोटाला भी अभी प्रकाशन में आ गया है।
यदि राम ने अपनी गर्भ वती पत्नी को किसी रजत( धोबी) के कहने मात्र से भयंकर जंगल में त्याग दिया सम्बूक नामक निम्न जाति के व्यक्ति को तपस्या करने से रोकते हुए बध कर दिया तो फिर ऐसे राम का भगवान होना भी सन्दिग्ध और अमान्य ही है।
-ऐसे राम को हम नहीं मानते भले ही कोई लाख कुतर्क पेश करे उनके निर्दोषीकरण के लिए।
"राम-नाम का अभिवादन के रूप में उत्तरभारतीयों पर आरोपण अकबर के समय में हुआ था । मुग़ल सम्राट सलीमजादे का विवाह सबन्ध स्थापित होने पर मुगल बादशाह अकबर ने आमेर नाम का एक नया राज्य बनाकर राजा "भारमल" को सौप दिया वहीं आमेर- राज्य का राज कवि गोस्वामी तुलसीदास को मनोनीत किया गया।
आमेर का राजा ख़ुद को श्री राम का वंशज मानते थे इसलिये राजा "भारमल" के कहने पर तुलसीदास ने रामचरितमानस नामक ग्रन्थ अवधी बोली में लिखा था ।
एक मर्तबा अकबर ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर मन्नत माँगने व्रजभूमि से होते हुए अजमेर जा रहा था साथ में तुलसीदास भी थे यहाँ चारों तरफ यादवो_के_इष्टदेव भगवान श्री_कृष्ण की मंदिरों में पूजा अर्चना भजन कीर्तन का कृष्ण- नाद सुन और वहाँ कि रौनक देख कर तुलसीदास ने श्री कृष्ण पर कटाक्ष किया ।
"राधा-राधा रटत हैं आक-ढ़ाक व कैर।
तुलसी या व्रज भूमि में क्यों राम से बैर" ।।
" व्रजभूमि के पेड़ पौधे का पत्ता पत्ता भी राधे -कृष्ण राधे- कृष्ण का नाम जप रहें हेैं।
तुलसीदास इस भूमि पर राम से क्यों बेर किया जा रहा है तभी अकबर ने एक अध्यादेश जारी कर जन अभिवादन में "जय_श्री_कृष्ण की जगह राम राम की " परम्परा लागू कर दी और आज्ञा का उल्लंघन करने पर कठोर दंड की जोगवाई की सजा के डर के चलते लोगो ने जय श्री कृष्ण की जगह राम- राम परम्परा को अपना लिया और जो कालान्तर में यह परम्परा समाज पर रूढ़ हो गयी।
शिष्टाचार में जय श्री कृष्ण बोलना शुरू करे ,जैसे गुजरात मे आपस मे आहिर लोग जय मोरलीधर जरूर बोलते है। भारवाड़- भी जोकि अहीरों की एक पिछड़ी शाखा है ।
अपने पारस्परिक अभिवादन में "जय मुरलीधर" का ही उच्चारण करते हैं।
और अन्य जातियों भी आहिरों से बात करने मिलने से पहले जय मोरलीधर अवश्य बोलते है
बोलों मेरे साथ जय श्री कृष्ण जय मोरलीधर
★-Yadav Yogesh Kumar "Rohi"-★
एक शर्मा जी ने हमसे कुछ कहा वह आप भी पढ़ो-
"आपके समस्त तर्क, तथ्यात्मक, अकाट्य और शिरोधार्य हैं. केवल स्वलिखित इस भाष्य को ही आधार मान कर पुनर्विचार की कृपा कीजिये (समुद्र राम से बोला हे प्रभो! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है{३२} वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं।{३३}
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।
हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए/अर्थात् वाण छोड़िए {३४}, इस स्थान पर समुद्र के माध्यम से पापचारियों के नाश की प्रार्थना है ना कि अभीरों के वंश नाश या अहीरों के सर्वनाश की) आपसे, मेरी यह याचना है, यदुश्रेष्ठ, इसे मेरे जैसे तुच्छ भक्त की भिक्षा ही मान लीजिये, बाकी जो आपका आगे निर्णय होगा वह शिरोधार्य होगा. ब्लॉगर पर एक शर्मा जी घबराकर उपर्युक्त बाते सुझाव देने शर्मा जी
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Ashok Kumar Sharma, D.Phil हैं जो 18 जुलाई 2021 को 1:01 pm बजे हमको पुष् करते हैं।
शर्मा जी हम मान भी जाते आपकी बात परन्तु आप भी अर्थों की खींच तान करके अहीरों के प्रति जो वाल्मीकि रामायण और राम चरित मानस में लिखा है वह सबके संज्ञान में आ गया है। स्पष्ट ही रहने दें ।
★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★
स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है । क्योंकि वह जन्म से ब्राह्मण है इसलिए ___________________________________और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है। क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर, शील वती गधी को कौन दुहेगा ? ____________________________
"दु:शीलोऽपि द्विज पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रीय: क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।. ( पराशर स्मृति )
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