______
मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १७ में कार्त्तवीर्यार्जुन के मन्त्र, दीपदान विधि आदि का वर्णन है।
मन्त्रमहोदधि – सप्तदश तरङ्ग(सत्रहवां तरंग) अरित्र---"अथेष्टदान् मनून वक्ष्ये कार्तवीर्यस्य गोपितान् । यःसुदर्शनचक्रस्यावतारः क्षितिमण्डले ॥१॥
शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वारा अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीर्य के मन्त्रों का आख्यान करता हूँ। जो कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शनचक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥
अभीष्टसिद्धिदः कार्तवीर्यार्जुनमन्त्रःवहिनतारयुतारौद्रीलक्ष्मीरग्नीन्दुशान्तियुक् ।वेधाधरेन्दुशान्त्याढ्यो निद्रा(शाग्निबिन्दुयुक् ॥२॥
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रेकार्तवीपदम् ।रेफो वाय्वासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ॥ ३॥
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदन्तिकः।ऊनविंशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ॥ ४ ॥
अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं – वह्नि (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वह्नि (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् (ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥
विमर्श – ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥
अस्य मन्त्रस्य न्यासकथनपूर्वकपूजाप्रकारदत्तात्रेयो मुनिश्चास्य च्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजं शक्तिधुवश्च हृत् ॥ ५॥
इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥
शेषाद्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेद् बुधः ।शान्तियुक्त चतुर्थेन कामादयेन शिरोङ्गकम् ।६
इन्द्वात्यवामकर्णाढ्य माययार्घीशयुक्तया ।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ॥ ७॥
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं चरेत् ।
बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥_
______
विमर्श – न्यासविधि – आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
हुं शिखायै वषट् क्रैं श्रैं कवचाय हुम्, हुँ फट् अस्त्राय फट् ।
इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशके ॥ ८॥
दक्षपादे वामपादे सक्थिजानुनि जंघयोः।विन्यसेद् बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ॥ ९॥
ताराद्यान् नवशेषार्णान् मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंसके॥ १०॥
अब वर्णन्यास कहते हैं – मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनों सक्थि दोनों ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥
सर्वमन्त्रेण सर्वाङ्गे कृत्वा व्यापकमद्वयः।सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत् कार्तवीर्य जनेश्वरम्॥ ११॥
तदनन्तर सभी अङ्गों पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राजा कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥
वर्तमान में कार्तवीर्य के विषय में साक्ष्य यह है कि।
"श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन मंदिर" में समाधि पर अनंत काल से (11) अखंड दीपक प्रज्ज्वलित करने की पृथा है। यहाँ शिवलिंग स्थापित है जिसमें श्री कार्तवीर्यार्जुन की आत्म-ज्योति ने प्रवेश किया था। उनके पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद उन्होने यहाँ योग समाधि ली थी। "मन्त्रमहोदधि" ग्रन्थ के अनुसार श्री कार्तवीर्यार्जुन को दीपकप्रिय हैं इसलिए समाधि के पास 11अखंड दीपक जलाए जाते रहे हैं। दूसरी ओर दीपक जलने से यह भी सिद्ध होता है की यह समाधि श्री कार्तवीर्यार्जुन की है। भारतीय समाज में स्मारक को पूजने की परम्परा नही है परन्तु महेश्वर के मन्दिर में अनंत काल से पूजन परंपरा और अखंड दीपक जलते रहे हैं। अतएव कार्तवीर्यार्जुन के वध की मान्यता निरधार व मन:कल्पित है।
____________________________________
त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
"महाभारत ग्रन्थ और भारतीय पुराणों में वर्णित जिन क्षत्रियों को परशुराम द्वारा मारने की बात हुई है वे मुख्यतः सहस्रबाहू के वंशज हैहय वंश के यादव ही थे । भार्गवों- जमदग्नि, परशुराम आदि और हैहयवंशी यादवों की शत्रुता का कारण बहुत गूढ़ है । जमदग्नि और सहस्रबाहू परस्पर हमजुल्फ( साढू संस्कृत रूप- श्यालिबोढ़्री ) थे। जिनके परिवार सदृश सम्बन्ध थे। ब्रह्मवैवर्त- पुराण में एक प्रसंग के अनुसार सहस्रबाहू अर्जुन से -'परशुराम ने कहा-★ हे ! धर्मिष्ठ राजेन्द्र! तुम तो चन्द्रवंश में उत्पन्न हुए हो और विष्णु के अंशभूत बुद्धिमान दत्तात्रेय के शिष्य हो। यद्पि विष्णु का अञ्शभूत" उपर्युक्त श्लोक में दत्तात्रेय का सम्बोधन है।
श्रुणु राजेन्द्र ! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव। विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।५४।
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपति खण्ड अध्याय (35) तुम स्वयं विद्वान हो और वेदज्ञों के मुख से तुमने वेदों का श्रवण भी किया है; फिर भी तुम्हें इस समय सज्जनों को विडम्बित करने वाली दुर्बुद्धि कैसे उत्पन्न हो गयी ?
तुमने पहले लोभवश निरीह ब्राह्मण की हत्या कैसे कर डाली ? जिसके कारण सती-साध्वी ब्राह्मणी शोक-संतप्त होकर पति के साथ सती हो गयी। भूपाल! इन दोनों के वध से परलोक में तुम्हारी क्या गति होगी ? यह सारा संसार तो कमल के पत्ते पर पड़े हुए जल की बूँद की तरह मिथ्या ही है। सुयश को अथवा अपयश, उसकी तो कथामात्र अवशिष्ट रह जाती है। अहो ! सत्पुरुषों की दुष्कीर्ति हो, इससे बढ़कर और क्या विडम्बना होगी ? कपिला कहाँ गयी, तुम कहाँ गये, विवाद कहाँ गया और मुनि कहाँ चले गये; परन्तु एक विद्वान राजा ने जो कर्म कर डाला, वह हलवाहा भी नहीं कर सकता।
मेरे धर्मात्मा पिता ने तो तुम-जैसे नरेश को उपवास करते देखकर भोजन कराया और तुमने उन्हें वैसा फल दिया ? राजन् ! तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया है, तुम प्रतिदिन ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देते हो और तुम्हारे यश से सारा जगत व्याप्त है। फिर बुढ़ापे में तुम्हारी अपकीर्ति कैसे हुई ?
_____________
एक स्थान पर परशुराम - कार्तवीर्य्य अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं।
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है और न आगे होगा। पुराणों अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान कि वर्णन करते हैं। निम्न संहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड को समान ही हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः प्रथम (कृतयुगसन्तानः).अध्यायः ४५८ में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।
★श्रीनारायण उवाच★
शृणु लक्ष्मि! माधवांशः पर्शुराम उवाच तम् ।
कार्तवीर्य रणमध्ये धर्मभृतं वचो यथा ।१।
शृणु राजेन्द्र! धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्भव ।
विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः।२।
कथे दुर्बुद्धिमाप्तस्त्वमहनो वृद्धभूसुरम् ।
ब्राह्मणी शोकसन्तप्ता भर्त्रा सार्धे गता सती।३।
किं भविष्यति ते भूप परत्रैवाऽनयोर्वधात् ।
क्वगता कपिलासा तेकीदृक्कूलंभविष्यति।४।
यत्कृतं तु त्वया राजन् हालिको न करिष्यति।
सत्कीर्तिश्चाथदुष्कीर्तिःकथामात्राऽवशेषिता।५।
त्वया कृतो घोरतरस्त्वन्यायस्तत्फलं लभ ।
उत्तरं देहि राजेन्द्र समाजे रणमूर्धनि ।६।
कार्तवीर्याऽर्जुनः श्रुत्वा प्रवक्तुमुपचक्रमे।
शृणु राम हरेरंशस्त्वमप्यसि न संशयः।७।
सद्बुद्ध्या कर्मणा ब्रह्मभावनां करोति यः ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धो ब्राह्मणः स प्रकीर्त्यते ।८।
अन्तर्बहिश्च मननात् कुरुते फलदां क्रियाम् ।
मौनी शश्वद् वदेत् काले हितकृन्मुनिरुच्यते।९।
स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
रामवृत्तिः समभावो योगी यथार्थ उच्यते ।। 1.458.10।
सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत् समताधिया।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स उच्यते।११।
राष्ट्रीयाः शतशश्चापि महाराष्ट्राश्च वंगजाः।गौर्जराश्च कलिंगाश्च रामेण व्यसवः कृताः।५२।
द्वादशाक्षौहिणीः रामो जघान त्रिदिवानिशम् ।
तावद्राजा कार्तवीर्यः श्रीलक्ष्मीकवचं करे ।।५३।।
बद्ध्वा शस्त्रास्त्रसम्पन्नो रथमारुह्य चाययौ ।
युयुधे विविधैरस्त्रैर्जघान ब्राह्मणान् बहून्।५४।
तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ-उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म( काला-कवच) प्रदान किया।५८।
_____________________________
जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे।
मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
ब्राह्मणं जीवयामास शंभुर्नारायणाज्ञया ।
चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा।८७।
नारायण की आज्ञा से शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक ब्राह्मण परशुराम को पुन: जीवित कर दिया और चेतना पाकर परशुराम ने "पाशुपत" अस्त्र को ग्रहण किया।
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को कार्तवीर्य ने स्तम्भित( जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण-कवच) को परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
________
वैसे भी परशुराम का स्वभाव ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि से नहीं अपितु सहस्रबाहु से मेल खाता है विज्ञान की भाषा में इसे ही जेनेटिक अथवा आनुवंशिक गुण कहते हैं ।
_________
विदित हो कि सहस्रबाहु की पत्नी "वेणुका और परशुराम की माता तथा पिता जमदग्नि की पत्नी "रेणुका सगी बहिनें थी।
रेणुका सहस्रबाहू के पौरुष और पराक्रम पर आसक्त और उसकी भक्त थी ।
जबकि जमदग्नि ऋषि निरन्तर साधना में संलग्न रहते थे। वे अपनी पत्नी को कभी पत्नी का सुख नहीं दे पाते थे ।
राजा रेणु की पुत्री होने से रेणुका में रजोगुण की अधिकता होने के कारण से भी वह रजोगुण प्रधान रति- तृष्णा से पीड़ित रहती थी । और सहस्रबाहु से प्रणय निवेदन जब कभी करती रहती थी परन्तु सहस्रबाहू एक धर्मात्मा राजा ही नहीं सम्राट भी था। परन्तु पूर्वज ययाति की कथाओं ने उन्हें भी सहमत कर दिया जब शर्मिष्ठा दासी ने उन ययाति से एकान्त में प्रणय निवेदन किया था और उसे पीड़ा निवारक बताया था । उसी के परिणाम स्वरूप रेणुका का एकान्त प्रणय निवेदन सहस्रबाहू ने भी स्वीकार कर लिया परिणाम स्वरूप परशुराम की उत्पत्ति हुई "इस प्रकार की समभावनामूलक किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं। परशुराम अपने चार भाईयों सबसे छोटे थे ।
_____________
रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या थीं जो क्षत्रिय राजा था । जो परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थीं, जिनके पाँच पुत्र थे।
"रुमणवान "सुषेण "वसु "विश्वावसु "परशुराम
विशेष—रेणुका विदर्भराज की कन्या और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी। एक बार ये गंगास्नान करने गई। वहा राजा चित्ररथ को स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करते हुए देख रेणुका ने देख लिए तो रेणुका के मन में रति -पिपासा( मेैंथुन की इच्छा) जाग्रत हो गयी। चित्ररथ भी एक यदुवंश के राजा थे ; जो विष्णु पुराण के अनुसार (रुषद्रु) और भागवत के अनुसार (विशदगुरु) के पुत्र थे।
एक बार ऋतु काल में सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर जमदग्नि मुनि को रेणुका और चित्ररथ की समस्त घटना ज्ञात हो गयी।
उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ।
अन्त में परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा।
जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह रेणुका (पद्म) कमल से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे। सन्दर्भ- (महाभारत- अरण्यपर्व- अध्याय-११६ )
___________________
"परन्तु उपर्युक्त आख्यानक के कुछ पहलू विचारणीय हैं। जैसे कि रेणुका का कमल से उत्पन्न होना, और जमदग्नि के द्वारा उसका पुनर्जीवित करना ! दोनों ही घटनाऐं प्रकृति के सिद्धान्त के विरुद्ध होने से काल्पनिक हैं । जैसा की पुराणों में अक्सर किया जाता है ।
और तृतीय आख्यानक यह है कि "भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को परशुराम का उत्पन्न होना है।
____________________________________
"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करना विष्णु के अवतारी का गुण नहीं हो सकता है।
महाभारत शान्तिपर्व में परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ?
____________________________________
"मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।59।
"सा पुनःक्षत्रियशतैःपृथिवी सर्वतः स्तृता।परावसोर्वचःश्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।60।
"ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः। ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।61।
"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।)
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४८)
_________________
"अर्थ- मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये हैं।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे।
"नरेश्वर! उन्होंने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी।परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे।उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् ( स्रुवा)लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
____________________________________
(ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि २१ बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी!
____________________________________
"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४। _
___________________
शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे।4।
•-पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। 4।
तदा निःक्षत्रिये लोकेभार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
•-उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। 5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।6।
•-वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे;।राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया।6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
•-ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से हजारों वीर्यवान् क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। 7।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये।
एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः।8।
•-पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया।8।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारोऽपि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः।9।
•-तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। ये सब दीर्घजीवी धर्म पूर्वक बुढ़ापे को प्राप्त करते ।9।
अभ्यगच्छन्नृतौ नारीं न कामान्नानृतौ तथा।
तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि।10।
•-उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।
10।
ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तत्तथा भरतर्षभ।
ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः।11।
•-भरतश्रेष्ठ! उस ऋतुकाल में स्त्रीसंभोग समय के अनुरूप धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।11।
ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः।
आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः।12।
•-भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।12।
अथेमां सागरोपान्तां गां गजेन्द्रगताखिलाम्।
अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनपत्तनाम्।13।
•-गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। 13।
प्रशासति पुनःक्षत्रे धर्मेणेमां वसुन्धराम्।
ब्राह्मणाद्यास्ततो वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम्।14।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। 14।
कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः।
धर्मेण दण्डं दण्डेषु प्रणयन्तोऽन्वपालयन्।15।
•-उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। 15।
तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः।
स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः।16।
•-इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा।
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। 16।
न बाल एव म्रियते तदा कश्चिज्जनाधिप।
नचस्त्रियंप्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनाम्।17।
•-राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था।17।
एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ।
इयं सागरपर्यन्ता ससापूर्यत मेदिनी।18।
•-ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी।। 18।
ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः।
साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा।19।
•-क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। 19।
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का(64) वाँ अध्याय:
____________________________________
अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
_______________
मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
__________________
महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही है ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?
किस सिद्धांत की अवहेलना करके क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणााान्क्षत्रियाराजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा।।6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।7।
पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी।
नर- शार्दूल ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; " राजन" उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। श्लोक - (5-6-7)
प्रधानता बीज की होती है नकि खेत की
क्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
____________________________________
महाभारत आदिपर्व अंशावतरण नामक उपपर्व का (चतुःषष्टितम )(64) अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद :-
जिसमें ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन है।असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश का वर्णन है ।
जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये।
वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है।
स्वयंभू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा।
____________
पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी।
उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी।
नररत्न ! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; ! राजन ! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों के द्वार गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी।तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए।
____________________________________
उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नी समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे।
इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे।
भूपाल ! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे।
गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय ! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया।
जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई।
उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे।
इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा।
उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे।
राजन ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे। १- से १९ तक का अनुवाद
____________________________________
"अब प्रश्न यह उठता है; कि जब धर्म शास्त्रों जैसे मनुस्मृति आदि स्मृतियों और महाभारत में भी विधान वर्णित है कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती हैं उनमें दो पत्नीयों क्रमश: ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह वर्ण से ब्राह्मण ही होती है तो परशुराम द्वारा मारे गये क्षत्रियों की विधवाऐं जब ऋतुकाल में सन्तान की इच्छा से आयीं तो वे सन्तानें क्षत्रिय क्यों हुई उन्हें तो ब्राह्मण होना चाहिए जैसे की शास्त्रों का वर्ण-व्यवस्था के विषय में सिद्धान्त भी है । देखें निम्न सन्दर्भों में
____________________________________
"भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते । आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।
(महाभारत -अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
"अर्थ:- कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ होती है उनमें क्रमश ब्राह्मणी और क्षत्राणी से उत्पन्न सन्तान वर्ण से ब्राह्मण ही होती है और शेष दो पत्नीयों क्रमश: वैश्याणी और शूद्राणी से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण तत्व से रहित माता के वर्ण या जाति की जानी जाती हैं "
____________________________________
महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान धर्म नामक उपपर्व-
अब प्रश्न यह भी उठता है कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं कि जैसा कि मनुस्मृति आदि में और इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक(अड़तालीसवाँ अध्याय) में वर्णन है ।
जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी नाईं उत्पन्न होता है उसी तरह अनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।(मनुस्मृति)
________________
तिस्र:क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का होता है । तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
___________________
ये श्लोक महाभारत के आदिपर्व के हैं ये क्या यह दावा कर सकते हैं कि ब्राह्मणों से क्षत्रियों की पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ? किस सिद्धांत के अनुसार क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य है ?
तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति।
ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्सुतार्थिन्योऽभिचक्रमुः।-5।
ताभिः सह समापेतुर्ब्राह्मणाः संशितव्रताः।
ऋतावृतौ नरव्याघ्र न कामान्नानृतौ तथा। 6।
तेभ्यश्च तेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ताः सहस्रशः।
ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यवत्तरान्।।-7।
___________________
मनुस्मृति का सबसे आपत्तिजनक पहलू यह है कि इसके अध्याय 10 के श्लोक संख्या 11 से 50 के बीच समस्त द्विज को छोड़कर समस्त हिन्दू जाति को नाजायज संतान बताया गया है। मनुस्मृति के अनुसार नाजायज जाति दो प्रकार की होती है।
अनुलोम संतान – उच्च वर्णीय पुरूष का निम्न वर्णीय महिला से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
प्रतिलाेम संतान – उच्च वर्णीय महिला का निम्न वर्णीय पुरूष से संभोग होने पर उत्पन्न संतान
मनुस्मति के अनुसार कुछ जाति की उत्पत्ति आप इस तालिका से समझ सकते हैं।
पुरुष की जाति महिला की जाति संतान की जाति-
________________
ब्राह्मण -क्षत्रिय- मुर्धवस्तिका१
क्षत्रिय-वैश्य-माहिष्य २
वैश्य- शूद्र -कायस्थ ३
ब्राह्मण -वैश्य -अम्बष्ठ ४
क्षत्रिय- ब्राह्मण -सूत ५
वैश्य -क्षत्रिय -मगध ६
शूद्र -क्षत्रिय -छत्ता ७
वैश्य -ब्राह्मण -वैदह ८
शूद्र -ब्राह्मण -चाण्डाल९
निषाद -शूद्र -पुक्कस१०
शूद्र -निषाद -कुक्कट११
छत्ता -उग्र- श्वपाक१२
वैदह -अम्बष्ठ -वेण१३
ब्राह्मण -उग्र -आवृत१४
ब्राह्मण- अम्बष्ठ-
आभीर १५
__________
वैश्य- व्रात्य- सात्वत १६
क्षत्र- करणी राजपूत १७
______________
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः। (ब्रह्मवैवर्तपुराण - ब्रह्मखण्ड1.10.110)
___________________
जो राजपूत स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं शास्त्रों में उन्हें भी वर्णसंकर और शूद्र धर्मी कहा है ।
विशेष– यद्यपि सात्वत आभीर ही थे जो यदुवंश से सम्बन्धित थे। परन्तु मूर्खता की हद नहीं इन्हें भी वर्णसंकर बना दिया।
इसी प्रकार औशनस एवं शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में भी जाति की उत्पत्ति का यही आधार बताया गया है जिसमें चामार, ताम्रकार, सोनार, कुम्हार, नाई, दर्जी, बढई धीवर एवं तेली शामिल है।
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।10/15 मनुस्मृति अध्याय १०)
अर्थ- ब्राह्मण से उग्र जाति की कन्या में आवृत उत्पन्न होता है। और आभीर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न होता है और आयोगव्या में ब्राह्मण से धिग्वण उत्पन्न होता है ।
विदित हो की भागवत धर्म के सूत्रधार सात्ववत जो यदु के पुत्र माधव के पुत्र सत्वत् (सत्त्व) की सन्तान थे जिन्हें
इतिहास में आभीर रूप में भी जाना गया ये सभी वृष्णि कुल से सम्बन्धित रहे जैसा की नन्द को गर्ग सहिता में आभीर रूप में सम्बोधित किया गया है ।
"क्रोष्टा के कुल में आगे चलकर सात्वत का जन्म हुआ। उनके सात पुत्र थे उनमे से एक का नाम वृष्णि था। वृष्णि से वृष्णिकुल चला इस कुल में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुये।
__________________
"आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रःप्रकीर्तितः ॥
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रपः॥१४॥
गर्गसंहिता -खण्डः ७ (विश्वजित्खण्डः)-अध्यायः ७
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गुर्जरराष्ट्राचेदिदेशगमनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
___________
नारद और बहुलाक्ष(मिथिला) के राजा में संवाद चलता है तब नारद बहुलाक्ष से शिशुपाल और उद्धव के संवाद का वर्णन करते हैं
अर्थात् यहाँ संवाद में ही संवाद है। 👇
तथा द्वारिका खण्ड में यदुवंश के गोलों को आभीर कहा है।
गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु- माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है !
ऐसा वर्णन है
यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे। गुरुमातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः।।१६।।
अर्थ:- दमघोष पुत्र शिशुपाल उद्धव जी से कहता हैं कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है । उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज (त्रप) नहीं आती है। और जब वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब भी आभीर जाति उपस्थित थी। -वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया ! यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
_____________
विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्रनाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम में गायत्री को "यादवी, "माधवी और "गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक साक्ष्य व सन्दर्भ हैं ।
'यादव 'गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ___________________
सात्वतों को शूद्र व वर्णसंकर बनाने के लिए शास्त्रों में प्रक्षिप्त श्लोकों को समाविष्ट किया गया।
वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च। कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च।10/23 (मनुस्मृति अध्याय १०)
अर्थ- वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष (करूष देश का निवासी तथा एक वर्णसंकर जाति जिसका पिता व्रात्य वैश्य और माता वैश्यवर्ण हो) " विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रती पुत्र को सुधन्वाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।
__________________________________
विशेष-वह जिसके दस संस्कार न हुए हों। संस्कार-हीन। अथर्ववेद में मगध के निवासियों को व्रात्य कहा गाय हो तथा हिन्दुसभ्यता, पृष्ठ ९६। वह जिसका उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो। विशेष—ऐसा मनुष्य पतित और अनार्य समझा जाता है और उसे वैदिक कृत्य आदि करने का अधिकार नहीं होता। शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति के लिये प्रायाश्चित्त का विधान किया गया है।
प्राचीन वैदिक काल में 'व्रात्य' शब्द प्रायः परब्रह्म का वाचक माना जाता था; और अथर्ववेद में 'व्रात्य' की बहुत अधिक माहिमा कही गई है। उसमें वह वैदिक कार्यो का अधिकारी, देवप्रिय, ब्राह्मणों और क्षत्रियों का पूज्य, यहाँ तक की स्वयं देवाधिदेव कहा गया है।
परंतु परवर्ती काल में यह शब्द संस्कारभ्रष्ट, पतित और निकृष्ट व्यक्ति का वाचक हो गया है।
__________________
जबकि हरिवंश पुराण और भागवत पुराण में सात्वत -यदु के पुत्र माधव के 'सत्त्व' नामक पुत्र की सन्तानें थी अर्थात यदु के प्रपौत्र थे सात्वत लोग-।
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे। त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्। येन भैमा:सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति। शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्। निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
भावार्थ-
जब वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुल पुंगव माधव को अपना राज्य दे इस भूतल पर शरीर का परित्याग करके स्वर्ग को चले गये। तब माधव का पराक्रमी पुत्र "सत्त्व" नाम से विख्यात हुआ। वे गुणवान राजा सत्त्व(सत) राजोचित गुणों से प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्ति से रहते थे।
___________________
सत्त्व के पुत्र महान राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ी के लोग ‘भैम’ कहलाये।
सत्त्वत से उत्पन्न होने के कारण उन सबको ‘सात्त्वत’ भी माना गया है।
जब राजा भीम आनर्त देश ( द्वारिका - वर्तमान गुजरात)के राज्य पर प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों अयोध्या में भगवान श्रीराम भूमण्डल के राज्य का शासन करते थे।
अत: इसके अतिरिक्त भी गायत्री वेदों की जब अधिष्ठात्री देवी है और ब्रह्मा की पत्नी रूप में वेद शक्ति है।
तो आभीर लोग ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में कैसे उत्पन्न हो गये ?
वास्तव में अहीरों को मनुस्मृति कार ने वर्णसंकर इसी लिए वर्णित किया ताकि इन्हें हेय सिद्ध करके वर्णसंकर बनाकर इन पर शासन किया जा सके।
________________
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः ।।
क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः ।। ९ ।।
नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।। 3.40.१० ।।
चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।। ११ ।।
चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।। १२ ।।
चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।। १३ ।।
माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।
निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।।१४ ।।
ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।। १५ ।।
दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।
शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।
प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।।१७ ।।
पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।१८।
पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।१९।
शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया । 3.40.२० ।।
स्रोत-(ब्रह्मवैवर्तपुराण- गणपतिखण्ड अध्यायय-४०)
----------------------------------------------------------
अनुवाद- व भावार्थः-
हे नारद ! अनन्तर दोनों ओर के सैनिको में भयंकर युद्ध. आरम्भ हुआ जिसमें परशुराम के शिष्यगण और महावली भ्राता गण भगवान कार्तवीर्य से अतिपीडित एवं छिन्नभिन्न होकर भाग निकले ।९।
राजा कार्तवीर्य के बाणजाल से आछन्न होने के कारण परशुराम अपनी सेना और राजा कार्तवीर्य की सेना को नही देख सके।१०।
पश्चात परशुराम ने युद्ध में आग्नेय बाण का प्रयोग किया , जिसमें सब कुछ अग्निमय हो गया , राजा कार्तवीर्य ने वारुणबाण द्वारा उसे लीला की भाँति
शान्त कर दिया ।११। परशुराम ने पर्वत-सर्प युक्त गांन्धर्व अस्त्र का प्रयोग किया जिसे कार्तवीर्य अर्जुन ने वायव्य बाण द्वारा समाप्त कर दिया ।१२। फिर परशुराम ने अनिवार्य एंव भयंकर नागास्त्र का प्रयोग किया , जिसे महाराजा सहस्रबाहु ने गरुडास्त्र द्वारा बिना यत्न के ही नष्ट कर दिया ।१३।भृगु नन्दन परशुराम ने माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया जिसे महाराजा ने वैष्णव अस्त्र द्वारा लीलापूर्बक समाप्त कर दिया ।१४। हे नारद !! अनन्तर परशुराम ने कार्तवीर्य के विनाशार्थ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया , कार्तवीर्य महाराजा ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर उस प्राणनाशक को भी युद्ध में शान्त कर दिया ।१५। तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था ।१६। परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा।१७। हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का स्मरण करते हुए परशुराम मूर्छित हो गये ।१८।
विशेष-
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये ,उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
नारायण की आज्ञा से शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक परशुराम को पुन: जीवित कर दिया ।२०।
_________
जाने पर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुराम पर आक्षेप किया गया। महाराज! विश्वामित्र के पौत्र तथा रैभ्य के पुत्र महातेजस्वी परावसु ने भरी सभा में आक्षेप करते हुए कहा- राम! राजा ययाति के स्वर्ग से गिरने के समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरुष यज्ञ में एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे ? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है। तुम व्यर्थ ही जनता की सभा में डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियों का अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है।राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड़ दिया था, वे ही बढ़कर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी। राजन्! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्त्रुक लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- महामुने! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
____
महाभारतशान्तिपर्व अध्याय49श्लोक66-89
एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 66-89 का हिन्दी अनुवाद-
(यह सुनकर परशुराम चले गये ) समुद्र ने सहसा जमदग्निकुमार परशुराम के लिये जगह ख़ाली करके शूर्पारक देश का निर्माण किया; जिसे अपरान्त भूमि भी कहते है। महाराज! कश्यप ने पृथ्वी को दान में लेकर उसे ब्राह्मणों के अधीन कर दिया और वे स्वयं विशाल वन के भीतर चले गये। भरतश्रेष्ठ ! फिरतो स्वेच्छाचारी वैश्य और शूद्र श्रेष्ठ द्विजों की स्त्रियों के साथ अनाचार करने लगे। सारे जीवनजगत में अराजकता फैल गयी। बलवान मनुष्य दुर्बलों को पीडा देने लगे। उस समय ब्राह्मणों में से किसी की प्रभुता कायम न रही। कालक्रम से दुरात्मा मनुष्य अपने अत्याचारों से पृथ्वी को पीडित करने लगे। इस उलट फेर से पृथ्वी शीघ्र ही रसातल में प्रवेश करने लगी; क्योंकि उस समय धर्मरक्षक क्षत्रियों द्वारा विधिपूर्वक पृथ्वी की रक्षा नहीं की जा रही थी। भय के मारे पृथ्वी को रसातल की ओर भागती देख महामनस्वी कश्यप ने अपने ऊरूओं का सहारा देकर उसे रोक दिया।
"कश्यपजी ने ऊरू से इस पृथ्वी को धारण किया था; इसलिये यह उर्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। उस समय पृथ्वी देवी ने कश्यपजी को प्रसन्न करके अपनी रक्षा के लिये यह वर माँगा कि मुझे भूपाल दीजिये।
पृथ्वी बोली- ब्राह्मण! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियशिरोमणियों को छिपा रखा है। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए है, जो मेरी रक्षा कर सकते है। प्रभो! उनके सिवा पुरूवंशी विदूरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान् पर्वत पर रीछों ने पालकर बडा किया है। इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रों के समान सब कर्म करता है, इसलिये सर्वकर्मा नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे। राजा शिबिका एक महातेजस्वी पुत्र बचा हुआ है, जिसका नाम है गोपति। उसे वन में गौओं ने पाल पोसकर बड़ा किया है। मुने! आपकी आज्ञा हो तो वही मेरी रक्षा करे। प्रतर्दनका महाबली पुत्र वत्स भी राजा होकर मेरी रक्षा कर सकता है। उसे गोशाला में बछडों ने पाला था, इसलिये उसका नाम वत्स हुआ है। दधिवाहन का पौत्र और दिविरथ का पुत्र भी गंगातट पर महर्षि गौतम के द्वारा सुरक्षित है। महातेजस्वी महाभाग बृहद्रथ महान ऐश्वर्य से सम्पन्न है। उसे गृध्रकूट पर्वत पर लंगूरों ने बचाया था।
राजा मरुत के वंश में भी कई क्षत्रिय बालक सुरक्षित है, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है। उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है। ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात है। वे सदा शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते है। यदि वे क्षत्रिय मेरी रक्षा करें तो मैं अविचल भाव से स्थिर हो सकूँगी। इन बेचारों के बाप दादे मेरे ही लिये युद्ध अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुराम के द्वारा मारे गये है। महामुने! मुझे उन राजाओं से उऋण होने के लिये उनके इन वंशजों का सत्कार करना चाहिये। मै धर्म की मर्यादा को लाँघने वाले क्षत्रिय के द्वारा कदापि अपनी रक्षा नहीं चाहती। जो अपने धर्म में स्थित हो, उसी के संरक्षण में रहूँ, यही मेरी इच्छा है; अतः आप इसकी शीघ्र व्यवस्था करें।
श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन्! तदनन्तर पृथ्वी के बताये हुए उन सब पराक्रमी क्षत्रिय भूपालों को बुलाकर कश्यपजी ने उनका भिन्न-भिन्न राज्यों पर अभिषेक कर दिया। उन्हीं के पुत्र-पौत्र बढे़, जिनके वंश इस समय प्रतिष्ठित हैं। पाण्डुनन्दन! तुमने जिसके विषय में मुझसे पूछा था, वह पुरातन वृतांत ऐसा ही हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं-राजन्! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार वार्तालाप करते हुए यदुकुल-तिलक महात्मा श्रीकृष्ण उस रथ के द्वारा भगवान सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैलाते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ते चले गये।
निष्कर्ष- यद्यपि उपर्युक्त कथा भी स्वयं कृष्ण के द्वारा नहीं कही गयी परन्तु परवर्ती पुरोहितों इसका सृजन कर इसे कृष्ण पर आरोपित कर दिया । इसका साक्ष्य ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड का निम्न श्लोक है।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थात् स्वयं श्रीकृष्ण( विष्णु) जिस सहस्र बाहू की रक्षा में तत्पर हों और सुदर्शन जिसकी रक्षा में तत्पर हो उसे कौन मार सकता है ?
__________
इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुरामोपाख्यानविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।
मत्स्यपुराणम्-अध्यायः(४३)यदुवंशवर्णनम्।
सूत उवाच!
इत्येतच्छौनकाद्राजा शतानीको निशम्य तु।
विस्मितः परया प्रीत्या पूर्णचन्द्र इवा बभौ।१।।
पूजयामास नृपति र्विधिवच्चाथ शौनकम्।
रत्नैर्गोभिः सुवर्णैश्च वासोभिर्विविधैस्तथा।२।
प्रतिगृह्य ततः सर्वं यद्राज्ञा प्रहितं धनम्।
दत्वा च ब्राह्मणेभ्यश्च शौनकोऽन्तरधीयत।३।
ऋषय ऊचुः!
ययाति र्वशमिच्छामः श्रोतुं विस्तरतो वद।
यदु प्रभृतिभिः पुत्रैर्यदालोके प्रतिष्ठितः।४ ।
सूत उवाच!
यदोर्वंशं प्रवक्ष्यामि ज्वेष्ठस्योत्तमतेजसः।
विस्तरेणानुपूर्व्या च गदतो मे निबोधत ।५।
यदोः पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च देवसुतोपमाः।
महारथा महेष्वासा नमतस्तान्निबोधत।६।
सहस्रजिरथो ज्येष्ठः क्रोष्टु र्नीलोऽन्तिकोलघुः।
सहस्रजेस्तु दायादो शतजिर्नामपार्थिवः।७।
शतजेरपि दायादास्त्रयः परमकीर्त्तयः।
हैहयश्च हयश्चैव तथा वेणुहयश्च यः।८।
हैहयस्य तु दायादौ धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः।
धर्म्मनेत्रस्य कुन्तिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः।९।
संहतस्य तु दायादो महिष्मान्नामपार्थिवः।
आसीन्महिष्मतः पुत्रो रुद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।१० ।।
वाराणस्यामभूद्राजा कथितं पूर्वमेव तु।
रुद्रश्रेणस्य पुत्रोऽभूद् दुर्दमो नाम पार्थिवः।११।
दुर्द्दमस्य सुतो धीमान् कनको नाम वीर्य्यवान्।
कनकस्य तु दायदा श्चत्वारो लोकविश्रुताः।१२ ।
कृतवीर्य्यः कृताग्निश्च कृतवर्मा तथैव च।
कृतोजाश्च चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यात्तु सोर्जुनः।१३।
जातः करसहस्रेण सप्तद्वीपेश्वरो नृपः।
वर्षायुतं तपस्तेपे दुश्चरं पृथिवीपतिः।१४ ।
दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।
तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम।१५ ।
पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।
अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।१६।
युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।
संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्।१७ ।
तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता।१८ ।
जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च संजज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।१९ ।
दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः।२०।
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः।२१।
सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः।२२।
तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य सः।२३।
न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च।२४।
स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।२५ ।
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।२६ ।
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
सएववृष्ट्यापर्जन्योयोगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।२७।
योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः।२८ ।
एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।
कर्कोटकसुतंजित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्।२९ ।
एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।
क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।३०।
ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।
ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रासा चकिताभ्येति नर्म्मदा।३१।
एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।
करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।३२।
तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।
भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।३३।
चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।
मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्।३४।
करोत्यालोडयन्नेव दोःसहस्रेण सागरम्।
मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः।३५ ।
तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।
सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव।३६ ।
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।३९ ।
युगान्ताभ्र सहस्रस्य आस्फोट स्वशनेरिव।
अहोबत विधे र्वीर्यं भार्गवोऽयं यदाच्छिनत्।४०।
तद्वै सहस्रं बाहूनां हेमतालवनं यथा।
यत्रापवस्तु संक्रुद्धो ह्यर्जुनं शप्तवान् प्रभुः।४१ ।
यस्माद्वनं प्रदग्धं वै विश्रुतं मम हैहय।
तस्मात्ते दुष्करं कर्म्म कृतमन्यो हरिष्यति।४२ ।
छित्वा बाहुसहस्रन्ते प्रथमन्तरसा बली।
तपस्वी ब्राह्मणश्च त्वां सवधिष्यति भार्गवः।४३।
"सूत उवाच!
तस्य रामस्तदा त्वासीन् मृत्युः शापेन धीमता।
वरश्चैवन्तु राजर्षेः स्वयमेव वृतः पुरा।४४ ।।
तस्य पुत्रशतं त्वासीत् पञ्चपुत्र महारथाः।
कृतास्त्रा बलिनः शूरा धर्म्मात्मानो महाबलाः।४५।
शूरसेनश्च शूरश्च धृष्टः क्रोष्टुस्तथैव च।
जयध्वजश्च वैकर्ता अवन्तिश्च विशाम्पते।४६ ।
जयध्वजस्य पुत्रस्तु तालजङ्घो महाबलः।
तस्य पुत्रशतान्येव तालजङ्घा इति श्रुताः।४७।
तेषां पञ्चकुलाख्याताः हैहयानां माहत्मनाम्।
वीतिहोत्राश्च शार्याता भोजाश्चावन्तयस्तथा।४८।
कुण्डिकेराश्च विक्रान्तास्तालजङ्घा स्तथैव च।
वीतिहोत्रसुतश्चापि आनर्तो नाम वीर्य्यवान्।।
दुर्जेयस्तस्य पुत्रस्तु बभूवामित्रकर्शनः।४९ ।
सद्भावेन महाराज! प्रजा धर्मेण पालयन्।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५०।
येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः।५१।
न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः।
कार्त्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः।।
यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते।५२।अनुवाद-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें