यदुवंश का वर्णन,                      (कार्तवीर्यार्जुन ) 

             सूतजी ने कहा -- 

शतानीक ! राजा ने शौनक से यह जब श्रवण किया था तो वह विस्मित हो गया था और परम प्रीति से पूर्ण चन्द्र की भाँति प्रकाशमान हो गया था ।१ । 

फिर उस राजा ने पूर्ण विधान के साथ शौनक का पूजन किया था। पूजन के उपचारों में बहुमूल्य रत्न , गौ , सुवर्ण और अनेक भाँति के वस्त्र आदि सभी थे ।२ ।

जो भी राजा के द्वारा धन प्रहित किया था उस सबका प्रतिग्रहण करके और ब्राह्मणों को दान करके फिर महर्षि शौनक वहीं पर अन्तर्हित हो गये थे ।३ । 

विशेष- प्रहित= १. प्रेरित। २. फेंका हुआ। क्षिप्त। ३. फटका हुआ। निष्कासित। ४. उपयुक्त। ठीक (को०)। नियुक्त (को०)। आदि अर्थ हैं परन्तु यहाँ प्रसंगानुसार सारयुक्तधन" अर्थ ग्राह्य है।(श्लोक संख्या-३)

ऋषियों ने कहा -

हे भगवन् ! अब हम सब लोग राजा ययाति के वंश का विस्तारपूर्वक श्रवण करना चाहते हैं । आप परमानुकम्पा करके उसका सविस्तृत वर्णन कीजिये जिस समय में वह इस लोक में यदु प्रभृति पुत्रों से समन्वित होकर प्रतिष्ठित हुआ था ।४। 

                श्री सूतजी ने कहा - 

सबसे ज्येष्ठ और उत्तम तेज वाले यदु के वंश का मैं वर्णन करूंगा और विस्तार तथा आनुपूर्वी (क्रमानुसार) के साथ ही कहूंगा । आप लोग तब वक्ता-( कहने वाले) मुझसे सब कुछ समझ लीजिए ।५॥ 

पाँच पुत्रों के नाम:- महाराज यदु के देवताओं के समान पाँच पुत्र सुमुत्पन्न हुए । ये पांचों ही महारथी और महान धुनुर्धर थे इनमें सबसे बड़ा जो था।

सबसे बड़ा सहस्रजित था और सबसे छोटा जो अन्तिम पुत्र था  वह लघु था(सहस्रजित क्रोष्टा नील  अन्तिक और लघुः) । सहस्रजित का दायाद शतजित पार्थिव समुद्भूत हआ था ॥७ ॥

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शतजित नाम वाले पुत्र के भी दायाद( पुत्र) परम कीर्ति वाले तीन हुए थे जिनके शुभ नाम १-हैहय - २-हय और ३-वेणुहय थे । हैहय का जो दायाद उत्पन्न हुआ था वह धर्मनेत्र इसशुभ नाम से विख्यात हुआ था । 

धर्मनेत्र का दायाद कुन्ति हुआ और कुन्ति का आत्मज "संहत नाम वाला हुआ था ।६ । 

संहत का पुत्र महिष्मान् नाम वाला पार्थिव हुआ था । महिष्मान् का पुत्र परम प्रतापधारी रुद्रश्रेण्य ने जन्म ग्रहण किया था । १०। 

यह वाराणसी में राजा हुआ था जिसका वर्णन पूर्व में ही किया जा चुका है रुद्रश्रेण्य का पुत्र दुर्दम नाम वाला राजा हुआ था ।११॥ 

फिर इस दुर्दम का पुत्र परम बुद्धिमान और बल वीर्य से संयुक्त कनक नामवाला हुआ था । इस कनक के चार दायाद लोक में परम-प्रसिद्ध हुए थे।१२।  

इन चारों के नाम कृतवीर्य-कृताग्नि-कृतवर्मा और चौथा कृतौजा थे। कृतवीर्य से ही अर्जुन समुत्पन्न हुआ था।१३।

इसके एक संहस्रहाथ थे यह सातों द्वीपोंका राजा हुआ था इस राजा ने दश हजार(सहस्र)वर्ष तक परम दुश्चर तपस्या की थी ।१४

कार्तवीर्य का अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय से वरदान प्राप्त करना:-

इस कार्तवीर्य ने अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय की समाराधना की थी। हे पुरुषोत्तम ! उसके द्वारा इसको चार वरदान दिये गये थे ।१५ ॥

सबसे प्रथम उस राजश्रेष्ठ ने एक सहस्र बाहु प्राप्त करने का वरदान मांगा था । अधर्म का समाचरण करने वाले का सत्पुरुषों से निवारण करने का वरदान प्राप्त किया था ।१६ । 

युद्ध के द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल पर विजय प्राप्त करके धर्म के ही द्वारा सब पृथिवी का अनुपालन करना प्राप्त किया था । सग्राम में वर्तमान का वध भी हो ती किसी अधिक से ही होवे ।१७ । 

उस सहस्रबाहु ने इस पृथिबी को जो सम्पूर्ण सात द्वीपों से युक्त पर्वतों के सहित और समुद्र से घिरी हुई थी उस सबको क्षात्र -विधि के द्वारा ही जीत लिया था ।१८ । 

उस धीमान् की जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार एक सहस्रबाहु समुत्पन्न हो गई थीं । रथ और ध्वज भी समुत्पन्न हुए थे ऐसा ही अनुश्रवण करते हैं ।१९ । 

उस राजा के द्वारा द्वीपों में दश सहस्र यज्ञ निर्गल(अवरोध रहित) होकर उस धीमान् के निवृत्त हुए थे ऐसा भी सुना जाता है।२० । 

उस महान् राजा के सभी यज्ञ अत्यधिक दक्षिणा वाले सम्पन्न हुए थे ।उन सभी यज्ञों में सुवर्ण के युप थे और सभी सुवर्ण की वेदियों वाले थे।२१ ।

सब विमानों में स्थित देवों के साथ प्राप्त हुए गन्धर्व और अप्सराओं से समलंकृत नित्य ही  उपशमित =(जिसका उपशमन कर दिया गया हो अथवा  निवारित)रहा करते थे ।२२ । 

उससे यज्ञ में गन्धर्व तथा नारद ने कातवीर्य राजर्षि की महिमा को देखकर उनकी गाथा का गायन किया था ।२३ ।

निश्चय ही क्षत्रिय गण कातवीर्य की गति को नहीं प्राप्त होंगे जिस प्रकार के इसके यज्ञ - दान - तप विक्रम और श्रुतेन (सुने हुए कथनों के द्वारा)आदि हैं इस तरह के सभी विधान अन्य क्षत्रियों के सर्वथा है ही नहीं ।२४ । 

वह सहस्रबाहु राजा खड्ग धारण करने वाला तथा शरासन ग्रहण किए हुए रथी होकर" सातो द्वीपों में अनुचरण करते हुए योगी होकर तस्करों को देखा करता था ।२५ "वह नराधिपति पिचासी सहस्र वर्षों ( 85 हजार वर्ष)तक सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न होता हुआ इस भूमण्डल का चक्रवर्ती सम्राट हुआ था ।२६ । वही पशुओं के पालन करने वाला (गोपाल)- हुआ था और वह ही क्षेत्रपाल( कृषक) भी हुआ था । बह वृष्टि के द्वारा पर्जन्य हुआ था और योगी होने के कारण से वही अर्जुन हो गया था।२७ ।

यह सम्राट एकसहस्र(हजार) बाहुओं के द्वारा धनुष की डोरी के घातों से कठिन त्वचा से युक्त हो गया था जैसे शरदकाल का एकसहस्र रश्मियों से सम्पन्न सूर्य हो जाता है।२८। 

महान् मति वाले इसने महिष्मती पुरी में मनुष्यों के मध्य में कर्कोटक के पुत्र नाग को जीतकर उसी पुरी को निवेशित कर दिया था।२६। 

यह प्रावट् काल( वर्षाकाल ) में भी समुद्र के वेग का सेवन किया करता था । यह महामति प्रतिस्रोतों को सुख से (उद्भिन्न) करता हुआ क्रीडा(खेल)करता हुआ विचरण किया करता था।३० । 

खेलते -उछलते उसके द्वारा जल में लहरों से  माला बना दी जाती थीं ।(स्रग्दाममालिनी] (वह माला जिसका दाम(सूत) फूलों का गुच्छा हो ) तब अपनी भृकुटी में भय लेकर नर्मदा चकित होकर राजा के समीप में आ गई  ।३१।
वह अपनी सहस्रबाहुओं से महार्णव( जलसमूह) के अवगाहन करने पर उद्याम वेग वाली नर्मदा को प्रावृड कालीन ( वर्षाकालीन) कर देता है ।३२ ॥ 

उसकी सहस्रबाहुओं से महोदधि के क्षोम्यमान होने पर पाताल में संस्थित महासुर अत्यन्त ही निश्चेष्ट हो जाते है ।३३ । 

सहस्र हाथों में सागर का आलोड़न करता हुआ ही उसके द्वारा तोड़ी हुई महान् तरङ्गों में विलीन मीन ( मछली) और महातिमि( समुद्र में रहनेवाला मछली )के आकार का एक बड़ा भारी जंतु  ) को मारुत से आबिद्ध फेनों के ओघ( धारा) वाला तथा आवर्तो (भवरों )वाली नदी को समक्षिप्त होने से दुःसह करता है । जिस समय में मन्दार पर्वत के क्षोभ से चकित अमृत के उत्पादन को शङ्का वाले महान सर्प निश्चल मुख वाले हो जाते हैं । जिस प्रकार से सायंकाल में निर्वात से स्तिमित ( भीगे हुए) कदली खण्डों की दशा होती है वैसी दशा उन महान जलीय सर्पों की होती थी  ।३४- ३६ ।

विशेष-महातिमि( समुद्र में रहनेवाला मछली )के आकार का एक बड़ा भारी जंतु । विशेष—लोगों का अनुमान है कि यह जंतु ह्वेल है।

एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।३७।
और धनुष् की डोरी मेंबाँधकर पाँच वाणों उत्सिक्त(जिसका उत्सेक हुआ हो)कर लंका में मोहित करके बलवान् रावण को जीत कर बाँधकर महिष्मती नगरी को लाया और उसे वहीं नगर में बाँध दिया। तब वहाँ जाकर पुलस्त्य ने अर्जुन को प्रसन्न किया।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।३८।

लङ्कापुरी में बलवान् रावण को बलपूर्वक मोहित करके पांच शरों से उत्सिक्त करके धनुष की ज्या से इस प्रकार से बांध दिया था और उसको जीत करके तथा बाँध करके माहिष्मती अपनी पुरी में ले आया था तथा बाँधकर रख छोड़ा था। इसके अनन्तर पुलस्त्य ऋषि वहाँ आये थे और उन्होने सहस्रार्जुन को प्रसन्न किया था।३७-३८ । 

पुलस्त्य ऋषि ने यहाँ पर सान्त्वना दी थी और फिर पौलस्त्य ( रावण ) को छोड़ दिया था । उसकी सहस्र बाहुओं में ज्यातल का महान शब्द हुआ था ।३९।

यह घोष उसी भांति हुआ था जैसा कि युगान्त के समय में होने वाले सहस्रों मेघों के आस्फोट से अग्नि का घोष हुआ करता है । अहोवत ! (बड़े ही आश्चर्य की बात) कि विधाता की वीरता को भार्गवने छिन्न कर दिया ।४०। 

जिस समय में भार्गव प्रभु ने इसकी ' सहस्रबाहुओं का छेदन हेमताल वन की भांति किया था और जहाँ पर आप प्रभु ने सक्रुद्ध होकर अर्जुन को शाप दिया था-हे अर्जुन ! क्योंकि मेरा परम प्रसिद्ध  वन तुमने जला दिया इसलिए इस दुस्तर किए गये कर्म को अहंकार ही हरण करेगा।४१-४२। 

बलवान तपस्वी और ब्राह्मण भार्गव पहिले वेग के साथ तेरी सहस्रबाहुओं का छेदन करके फिर तेरा वही वध भी कर देंगे।४३ । 

सूतजी ने कहा - उस समय में उसकी मृत्यु शाप के द्वारा राम ही थे । धीमान ने राजर्षि से पहिले ही इस प्रकार का वरदान स्वयं ही वरण कर लिया था ।४४।

उसके एक सौपुत्र हुए थे उनमें पांच तो महारथी थे । ये सब कृतास्त्र-(अस्त्र के प्रयोग में कुशल) बलशाली ,शूरवीर ,धर्मात्मा और महान् बलशाली थे ।४५।

हे विशाम्पते ! शूरसेन,शूर,धृष्ट,क्रोष्टा , जयध्वज,वैकर्ता और अवन्ति ये उनके नाम थे ।४६ ।

जयध्वज का पुत्र महान बलवान तालजंघ हुआ था  उसके भी एकसौ पुत्र थे जो पुत्र थे वो सर्व तालजंघ नाम से प्रसिद्ध थे ।४७ । 

उन हैहय महात्माओं के पांच कुल विख्यात थे । वीतिहोत्र - शरयात - भोज - अवन्ति - कुण्डिकेरा विक्रान्त और तालजंध थे । वीतिहोत्र का पुत्र भी आनर्त नाम वाला महान् वीर्यवान् हुआ था उसका पुत्र दुर्जेय था जो शत्रुओं का कर्शन(दुर्बल) करने वाला था।४८-४६ ।

सद्भावेन महाराज ! प्रजा धर्मेण पालयन्।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्।५०

हे महाराज ! कातवीर्यार्जुन नाम वाला राजा एक सहस्रबाहुओं से समन्वित था और सद्भावना से धर्म के साथ प्रजा का परिपालन किया करता था ।५० ।  

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येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।
यस्तस्य कीर्तयेन्नाम कल्यमुत्थाय मानवः।५१।
न तस्य वित्तनाशः स्यान्नष्टञ्च लभते पुनः।
कार्त्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदिह धीमतः।।
यथावत् स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महीयते।५२।

वह ऐसा प्रतापी राजा हुआ था जिसने अपने धनुष के द्वारा सागर पर्यन्त भूमि को जीत लिया था । जो मानव प्रात: काल में ही उठकर उसके शुभ नाम का कीर्तन किया करता है उसके वित्त( धन) का कभी भी नाश नहीं होता है और जो किसी का वित्त नष्ट भी हो गया हो तो यह नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाया करता है । 

परम धीमान् कीर्तवीर्य के जन्म की गाथा को कोई मनुष्य कहता है तो वह मानव यथावत् स्विष्ट पूतात्मा होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त किया करता है।५१-५२।"

इस प्रकार मत्स्य पुराण  के ४३ वाँ अध्यायः के अन्तर्गत "यदुवंशवर्णनम्नामक"  अध्याय समाप्त हुआ

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पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार भगवान् विष्णु के अमित तेजस्वी ‘सुदर्शन चक्र’ अथवा विष्णु के अवतार – हैहय-वंशी राजा कार्तवीर्यार्जुन को हजार भुजाएँ होने के कारण ‘सहस्रार्जुन’ भी कहा जाता था ।