रविवार, 15 जनवरी 2023

तुलसी-

रामचरित मानस का मुख्य लक्ष्य ब्राह्मणवाद की स्थापना करना है- 

तुलसीदास की मानस में मुख्य चिंता ब्राह्मण के सम्मान और सर्वोच्चता की रक्षा की है। उत्तरकांड में उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है कि कलियुग में ब्राह्मण का पग-पग पर अपमान होता है। शूद्रों में अहंकार बढ़ गया है और वे अपने धर्म का अनुसरण करने की बजाय ब्राह्मणों को उपदेश देते हैं। शूद्र द्विजों से विवाद करते हैं कि हम क्या तुमसे कुछ कम है, जो ब्रह्म को जानता है, वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है, ऐसा कहकर वे उन्हें डांटकर आंखें दिखलाते हैं। तेली, कुम्हार, चांडाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुंडाकर संन्यासी हो जाते हैं। वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन पर बैठकर पुराण कहते हैं। कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गये हैं। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।
 बादहि सूद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्ह तैं कछु घाटि।
 जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर, आंखि देखावहिं डाटि ।।99।।
 जे धरमा तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
 नारि मुईं गृह संपत्ति नासी। मूंड मुंडाई होहि संन्यासी ।। 3 ।।
 ते ब्रिपन्ह सन पांव पुजावहिं। उभय लोक निज हाय नसावहिं।।
 विप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचर सठ वृषली स्वामी ।।4।।
 सूद्र करहिं जप तप ब्रत ग्याना। बैठि बिरासन कहहिं पुराना।।
 सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ।।5।।
 भये   बरनसंकर  कलि,   भिन्न सेत  सबलोग ।
 करहिं पाप  पावहिं दुख भय, रुज सोक  वियोग ।। 
 श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ, सज्जुत किरति बिवेक।
 तेहि न चलाहिं नर मोह बस,  कल्पहिं पथ अनेक ।।100।।
मानस के उपर्युक्त कथनों से साफ है कि अधिकांश बातें तुलसीदास निर्गुण मार्ग और निर्गुणमार्गी संतों को लक्ष्य करके कही हैं। ब्राह्मण चाहे जैसा भी क्यों न हो, तुलसीदास की नज़रों में वह पूज्य है। हालांकि वे इस बात पर अफसोस जाहिर करते  हैं कि ब्राह्मण वेद-पुराण से विमुख होते जा रहे हैं। लेकिन वे यह बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है कि कोई शूद्र ब्राह्मण का अपमान कर दें। उत्तरकांड में काकभूशुंडी की कथा इसी का उदाहरण है। वहां तुलसीदास ने शिव के मुख से शूद्र को उपदेश देते हुए कहलाया है: 
 सुन मम बचन सत्य अब भाई। हरि तोषन ब्रत द्विज सेवकाई।।
 अब जनि करहिं बिप्र अपमाना। जानेसु  संत  अनंत   समाना।।
 इंद्र  कुलिस मम  सूल बिसाला।  कालदंड   हरिचक्र   कराला।।
 जो  इंद्र  कर  मारा नहिं मरई।  बिप्रदोह  पावक  सो   जरई।।
अर्थात् ‘हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजों की सेवा ही भगवान को प्रसन्न करने वाला व्रत है। कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनंत श्री भगवान  ही के समान जानना। इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्रीहरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रदोह रूपी अग्नि में भस्म हो जाता है’। यहां सिर्फ़ ब्राह्मणों की सेवा का ही उपदेश नहीं है बल्कि ब्राह्मण का किसी भी तरह का अपमान या विरोध करने पर उनके क्रोध से नष्ट हो जाने की सीधे-सीधे धमकी दी गई है।
उत्तरकांड में रामराज्य की जो परिकल्पना तुलसीदास ने प्रस्तुत की है, उसमें हालांकि ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहिं काहुहि व्यापा’।। जैसे उद्गार भी हैं, लेकिन तुलसीदास की नज़रों में रामराज्य की आधारभूत विशेषता है:
 बरनाश्रम निज निज धरम निरत  वेद पथ लोग।
 चलिहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।। उत्तरकांड, 20।।
अर्थात ‘सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर रहते हुए वेदमार्ग पर चलते हैंऔर सुख पाते हैं, उन्हें किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है’।
मानस के ही उपर्युक्त प्रसंगों और कथनों से स्पष्ट है कि तुलसीदास का रामचरितमानस रचने का मकसद वेद और पुराणों से सम्मत उस वर्णाश्रम धर्म की पुन:स्थापना करना था, जिस धर्म पर कबीर आदिनिर्गुणपंथी संतों ने प्रश्नचिह्न लगाया था। सगुण और अगुण यानी निर्गुण के बीच भेद सिर्फ़ दार्शनिक स्तर पर नहीं था, जैसाकि तुलसीदास उसे बताना चाहते हैं वरन इसका संबंध समाज के वर्ण आधारित ढांचे से था। इसीलिए तुलसीदास का रामचरितमानस पिछले चार सौ सालों से हिंदू समाज के सर्वाधिक प्रतिगामी तत्वों की प्रेरक शक्ति रहा है। 
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि रामकथा के विभिन्न प्रसंगों की प्रस्तुति के तुलसीदास के महान प्रयासों को कम करके आंका जा रहा है। लेकिन ऐसे हर प्रसंग में तुलसीदास यह बताना नहीं भूलते कि राम, सीता और लक्ष्मण जो भी कर रहे हैं, वह सब ईश्वर की लीला है। इसका परिणाम यह हुआ है कि राम के आदर्श चरित्र की जो भी बातें कही जाती हैं, वे इस अर्थ में निरर्थक है, क्योंकि तुलसीदास के मानस में राम को परब्रह्म माना गया है और तुलसीदास अपने पाठकों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे मानस पढ़ते हुए एक क्षण के लिए भी यह न भूले कि राम परब्रह्म का अवतार है। इसका नतीजा यह हुआ है कि राम का चरित्र पूजनीय तो हो गया है, लेकिन अनुकरणीय नहीं। कारण स्पष्ट है, क्योंकि ईश्वर की लीला का अनुकरण तो दूर की बात है, उसे समझना भी मनुष्य के लिए असंभव है। जब मानस के पाठक को कदम-कदम पर इस बात के लिए सजग किया जा रहा है, तो वह रामकथा को मानवीय संघर्ष के रूप में ग्रहण कैसे कर सकता है और रामकथा से नि:सृत होने वाले आदर्शों को अपना जीवनादर्श कैसे बना सकता हैॽ यही कारण है कि मानस की लोकप्रियता एक ऐसे ग्रंथ के रूप में अधिक है जिसके पढ़ने-सुनने से पापों का नाश होता है, ईश्वर की दया मिलती है और मोक्ष के द्वार खुलते हैं। स्वयं तुलसीदास मानस में इस भ्रम को बार-बार बड़ी दृढ़ वाणी में दोहराते हैं। इसीलिए आज भी लाखों-लाख लोग रामचरितमानस का पाठ इसलिए नहीं करते कि उन्हें राम जैसा बनना है, वरन उनका धार्मिक विश्वास ही उन्हें मानस से जोड़ता है। इसीलिए मानस का पाठ सवर्ण हिंदू परिवारों में पूरे धार्मिक अनुष्ठान के साथ होता है। यही कारण है कि सवर्ण हिंदू शबरी और केवट की कथाओं को बार-बार सुनने, पढ़ने और उन प्रसंगों पर करुणा विगलित होने के बावजूद किसी ‘अछूत’ माने जाने वाले का छुआ पानी तक पीने के लिए तैयार नहीं होते। क्योंकि राम तो परब्रह्म है, वह तो वर्णव्यवस्था से परे हैं, वह तो हर तरह की लीला कर सकते हैं, लेकिन मनुष्य को तो राम की बनायी हुई वर्णव्यवस्था का पालन करना ही होगा। (समाप्त)

Jawari Mal Parakh की वॉल से।
Mr Siddharth Ramu

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