सोमवार, 18 जून 2018

भागवतपुराण पुराण में परस्पर विरोधाभासी वर्णन होने से वह स्वयं ही खण्डित हो जाता है !


जैसे कृष्ण और बलराम ने  कृषि - कर्षण करने के लिए हल और दुश्मनों परास्त करने के लिए अस्त्र- बल भी प्रयोग किया और एक ओर गोप रूप में गाय का पालन किया तो दूसरी ओर ज्ञानी के रूप में गीता का ज्ञान सम्बल भी समाज को दिया। 

और शूद्र के रूप में सूत या सारथी भी बन कर अर्जुन का रथ हाँका था
अत : कृषि करने से इन्हें  वैश्य बनाने की भूल की गयी और गीता  ज्ञान देने से ब्राह्मण बनाने की भूल तो शत्रुओं से युद्ध करने से क्षत्रिय हने की और  रथ हाँक कर सूत का  कार्य करने  से शूद्र नहीं हुए और युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में  भोजन काल में अतिथियों की उच्छिष्ट पत्तर उठाने से शूद्र की भूमिका का निर्वहन भी किया तो ये वास्तव में शूद्र भी नहीं थे
और कृष्ण ने स्वयं भागवत धर्म में वर्ण व्यवस्था का पूर्ण रूपेण खण्डन कर दिया है 
इसलिए वर्ण व्यवस्था यादवों के लिए विहित नही है 


वैसे ही हमारी कौम किसी वर्ण व्यवस्था के अनुरूप नहीं है यही हमें इस ब्राह्मण धर्म से अलग करता है ।।
इस लिए हम केवल यादव हैं आभीर हैं क्षत्रिय अथवा शूद्र नहीं




सत्य और यथार्थ यद्यपि समानार्थक प्रतीत होने वाले  नाम हैं ।

'परन्तु सत्य हमारी कल्याण मूलक अवधारणाओं पर अवलम्बित है ।


समय , परिस्थिति और देश के अनुकूलता पर  जो उचित है- वह सत्य है ।

 विद्यमान हैं

'परन्तु यथार्थ किसी बात को उसके मूल रूप में प्रस्तुत कर देना है ।


भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें हैं । देखें--- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । 

अधॊ महीं गच्छ भुजंगमॊत्तम;
स्वयं तवैषा विवरं प्रदास्यति।
इमां धरां धारयता त्वया हि मे;
महत् परियं शेषकृतं भविष्यति।।"


(महाभारत आदिपर्व के आस्तिक उपपर्व के 36 वें अध्याय का श्लोक )


यद्यपि भागवतपुराण  दशम स्कन्ध के आठवें अध्याय में

वाराह मिहिर के खगोलीय सिद्धान्तों के आधार पर सूर्य और पृथ्वी की गतियों स्थिति का आकलन किया है 

 "यत्रोदेति तस्य ह समानसूत्रनिपाते निम्लोचति यत्र क्वचन स्यन्देनाभितपति तस्य हैष समानसूत्रनिपाते प्रस्वापयति तत्र गतं न पश्यन्ति ये तं समनुपश्येरन्॥

(श्रीमद्भागवतपुराणम्/

स्कन्धः ५/अध्यायः २१/श्लोक: ९)

अर्थात् -'जिस देश में सूर्य उदय होता है ,उसके ठीक दूसरी ओर के देश में सूर्य अस्त होते ज्ञात हैं

 और जहाँ सूर्य लोगों को पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे (दोपहरमें) ,उसके ठीक विपरीत भागके देश में आधीरात होने के कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे । जिन लोगों के मध्याह्न(ठीक दोपहर) के समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे, विपरीतदिशा में पहुँच जायँ, तबवे लोग सूर्य का दर्शन नहीं कर पाते हैं ।

सर्वद्वीपेषु मैत्रेय निशार्द्धस्य च सन्मुखः॥१२॥उदयास्तमने चैव सर्वकालं तु सम्मुखे

विदिशासु त्वश्षोआ!सु तथा ब्रह्मन् दिशासु च|१३||

यैर्यत्र दृश्यते भास्वान्स तेषामुदयः स्मृतः

तिरोभावं च यत्रैति तत्रैवास्तमनं रवेः॥१४॥

नैवास्तमनमर्कस्य नोदयः सर्वदा सतः

उदयास्तमनाख्यं हि दर्शनादर्शनं रवेः॥१५॥

(विष्णुपुराणम्/द्वितीयांशः/अध्यायः ८)


हे मैत्रेय! सभी द्वीपों में सर्वदा मध्याह्न तथा मध्यरात्रि के समय सूर्यदेव मध्य आकाश में सामने की ओर रहते हैं(अर्थात जिस द्वीप या खण्ड में सूर्यदेव मध्याह्न के समय सम्मुख पड़ते हैं उसकी समान रेखा पर दूसरी ओर स्थित द्वीपान्तर में वे उसी प्रकार मध्यरात्रि के समय रहते हैं)॥१२॥

इसी प्रकार उदय और अस्त भी सदा एक दूसरे के सम्मुख ही होते हैं। हे ब्रह्मन्! 

समस्त दिशाओं और विदिशाओं में जहाँ लोग (रात्रि का अंत होने पर) सूर्य को जिस स्थान पर देखते है उनके लिए वहाँ उसका उदय होता है और जहाँ दिन के अंत में सूर्य तिरोभाव होता है वहीं उसका अस्त कहा जाता है॥१३-१४॥

सर्वदा एक रूप से स्थित सूर्यदेव का वास्तव में न तो उदय होता है और न अस्त; बस, उनका देखना और न देखना ही उनके उदय और अस्त है॥१५॥

उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन्रविः

ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥१७॥

उदयास्तमनाभ्यां च स्मृते पूर्वापरे दिशौ

यावत्पुरस्तात्तपति तावत्पृष्ठे च पार्श्वयोः॥१८॥

~विष्णुपुराणम्/द्वितीयांशः/अध्यायः ८

सूर्यदेव उदय होने के अनन्तर मध्याह्न पर्यन्त अपनी बढ़ती हुई किरणों से तपते हैं और फिर क्षीण होती हुई किरणों से अस्त हो जाते है(किरणों की वृद्धि,ह्रास एवं तीव्रता-मंदता आदि सूर्य के समीप और दूर होने से मनुष्य के अनुभव के अनुसार कही गयी है)॥१७॥

सूर्य के उदय और अस्त से ही पूर्व और पश्चिम दिशाओं की व्यवस्था हुई है।वास्तव में वे जिस प्रकार पूर्व में प्रकाश करते हैं उसी प्रकार पश्चिम और पार्श्ववर्तिनी(उत्तर और दक्षिण) दिशाओं में किरते है॥१८॥

भागवत पुराण वाद की रचना है वाराह मिहिर का समय 505 ईस्वी है गुप्त काल 

और युगों की आयु और अवधारणा भी काल्पनिक ही है

पुराणों में युगों की कल्पना केवल पुष्य मित्र कालीन पुरोहितों की 

एक योजना बद्ध परियोजना है ...


यदि आप वेदों को अपौरुषेय और अनादि मानते हो अथवा पुराणों से भी प्राचीन मानते हो तो फिर इनमें सतयुग त्रैता द्वापर का वर्णन क्यों नहीं मिलता और उनकी काल्पनिक आयु सीमा  जैसे 

(1) 4,800 दिव्य वर्ष अर्थात एक कृत युग (सतयुग)। 

मानव वर्ष के मान से 1728000 वर्ष।


(2) 3,600 दिव्य वर्ष अर्थात एक त्रेता युग।

 मानव वर्ष के मान से 1296000 वर्ष।


(3) 2,400 दिव्य वर्ष अर्थात एक द्वापर युग।

 मानव वर्ष के मान से 864000 वर्ष।


(4) 1,200 दिव्य वर्ष अर्थात एक कलि युग। 

मानव वर्ष के मान से 432000 वर्ष।


उपर्युक्त युगों की वर्ष -विवेचना में क्रमश से एक एक गुना अन्तर है 

कलियुग का दुगुना द्वापर और कलियुग का ही तीन गुना त्रेता और कलियुग का ही चार गुना सतयुग है ...

परन्तु वेदों में यह युग विवेचना कहीं नहीं है 🌻


सतयुग में यदि व्यक्ति की लम्बाई 

लम्बाई - ३२ फिट (लगभग) [ २१ हाथ ] होती है और आयु चार सौ वर्ष 


और त्रेता में औसत आयु तीन सौ वर्ष  और लम्बाई कलियुग से तीन गुनी 

द्वापर में दो सौ वर्ष लम्बाई तो कलि युग मे में सौ वर्ष और लम्बाई का मान भी क्रमश: उसी क्रम से है !


कलियुग में मनुष्य की आयु - १०० वर्ष 

लम्बाई - ५.५ फिट (लगभग) [३.५ हाथ]

परन्तु वेदों में केवल सौवर्ष आयु का निर्धारण ही सम्पूर्ण जीवन  है 

यह मानव की औसत आयु है कृष्ण की जीवन अवधि लगभग सवा सौ वर्ष थी  जबकि द्वापर युग के अनुसार दोसौ वर्ष होनी चाहिए 

 देखें ऋग्वेद में 


🌻🌻🌻🌻🌻


देवता: सूर्यः  /ऋषि: वसिष्ठः /छन्द: पुरउष्णिक् /स्वर: ऋषभः

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तच्चक्षु॑र्दे॒वहि॑तं शु॒क्रमु॒च्चर॑त् । 

पश्ये॑म श॒रद॑: श॒तं जीवे॑म श॒रद॑: श॒तम् ॥ 

(ऋग्वेद 7/66/16

पद पाठ

तत् । चक्षुः॑ । दे॒वऽहि॑तम् । शु॒क्रम् । उ॒त्ऽचर॑त् । 

पश्ये॑म । श॒रदः॑ । श॒तम् । जीवे॑म । श॒रदः॑ । श॒तम् ॥7/66/16||

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:66» ऋचा :16 |

पदार्थान्वयभाषाः -(तत्) वह परमात्मा जो (चक्षुः) सर्वद्रष्टा (देवहितं) देवो का हितैषी (शुक्रं) प्रकाशवान (उच्चरत्) ऊपर चलता हुआ है, उनकी कृपा से हम (जीवेम, शरदः, शतं) सौ वर्ष पर्य्यन्त जीवित रहें और (पश्येम, शरदः, शतं) , सौ वर्ष पर्य्यन्त उसकी महिमा को देखें अर्थात् उसकी उपासना में प्रवृत्त रहें ॥१६॥

पुराणों में काल गणना वैदिक सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं है !

वेद झूँठे या  फिर पुराण 


 

कलियुग के अंत तक 4 इंच रह जाएगी मनुष्य की लंबाई, उम्र बचेगी सिर्फ 12 साल 

बताया जाता है कि 'त्रेतायुग' में मनुष्य की आयु 10,000 वर्ष होती थी।

कलियुग में मनुष्य की लम्बाई – 5.5 फिट बताई गई है।

हमारे शास्त्रों में चार युगों के बारे में बताया गया है। इन चार युगों के नाम हैं- 

1. कलियुग, 2.सत्ययुग, 3. त्रेतायुग और द्वापरयुग। ‘युग’ शब्द का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। 

हर युग की अगल- अलग विशेषताएं रही है। 

जानकारों के अनुसार इस समय कलियुग चल रहा है। इस कलियुग की मुद्रा लोहा बताई गई है, वहीं इस युग के पात्र मिट्टी के हैं। आज हम आपके लिए लाए हैं कलियुग के बारे में खास जानकारी-


‘कलियुग’ – यह चतुर्थ युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

इस युग की पूर्ण आयु अर्थात् कालावधि – 4,32,000 वर्ष होती है ।

इस युग में मनुष्य की आयु – 100 वर्ष होती है ।

मनुष्य की लम्बाई – 5.5 फिट (लगभग) [3.5 हाथ]

कलियुग का तीर्थ – गंगा है ।

इस युग में पाप की मात्रा – 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है ।

इस युग में पुण्य की मात्रा – 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है ।

इस युग के अवतार – कल्कि (ब्राह्मण विष्णु यश के घर) ।

अवतार होने के कारण – मनुष्य जाति के उद्धार अधर्मियों का विनाश एंव धर्म कि रक्षा के लिए।

इस युग की मुद्रा – लोहा है।

इस युग के पात्र – मिट्टी के है।


जानकारों का कहना है कि चारों युगों में से सबसे पहले शुरुआत सतयुग की हुई थी। सतयुग को पहला युग माना गया है तो वहीं कलियुग को आखिरी युग माना गया है। बताया गया है कि सतयुग में मनुष्य की लंबाई 32 फिट (लगभग) थी, त्रेतायुग में ये घटकर 21 फिट (लगभग) रह गई, द्वापरयुग में मनुष्य की लंबाई 11 फिट (लगभग) थी, वहीं कलियुग में मनुष्य में लंबाई घटकर 5.5 फिट रह गई। 

जानकारों का कहना है कि कलियुग के आखिर तक मनुष्य की लंबाई 4 इंच रह जाएगी और उम्र 12 साल की हो जाएगी।


वेदों की सतम समा जिजीविषेत वालो सिद्धान्त फेल होजाएगा यदि युगो की आयु इतना मानी जायो तो वेदों का सिद्धान्त झँठा है ...


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    यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
             सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ । यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७। दूसरा श्लोक और देखें---
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"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: ।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२ अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। इस लिए इसका नाम रौहिणेय यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।
इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है। यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२। परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभासी श्लोक हैं देखें--- ______________________
" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत । नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९। वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्। ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ। महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है । ____________________________________________
वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१ येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। __________________________________________ गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय। उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१। कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है । उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ
जन्म धारण करेंगी।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --) यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित--- पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है। ______________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९। हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य . तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है ।
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________ " अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४। अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले !और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । जैसे ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि " नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने से ही गोप कहलाते हैं । ( इति ब्रह्म पुराण)
र भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है कि
वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् । पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47। भा०10/5/20/22 यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है । और नन्द से वसुदेवअनामय शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं । वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63। अथवा ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं । वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64। संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है ;
कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ । " नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु । पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध यदु वंशी पर्जन्य गोप के प्राणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे ; जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
अब इस प्रकार तो गोप और यादव एक हुए ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि
" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68। अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक उत्पन्न हुए थे ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर: पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94।
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो! __________________________________________ विकीपीडिया के लिए अालेखित तथ्य विचार-विश्लेषण -- यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० सम्पर्क 8077160219.. __________________________________________ परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करता है ।

अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
स्मृति-ग्रन्थों की रचना काशी में में बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में लिखीं गयी । गोपों में हीन भावना भलने के लिए उन्हें शूद्र कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न कर दिया ।
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: -----------------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
फिर पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..गोप अर्थात् अहीर शूद्र हैं ।
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
(व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। __________________________________________
(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) ------------------------------------------------------------------
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
_________________________________________ " वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
__________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।

परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में वर्णन किया है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं । जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर गर्गसंहिता के हबाले से लिखा है कि 👇 __________________________________________ अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे । प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।। यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे : मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102। _______________________________________ अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप -तापों से मुक्त हो जाता है ।।102।

फिर यह कहना पागलपन है कि कृष्ण यादव थे नन्द गोप थे । भागवतपुराण में वर्णित यह विरोधाभासी बकवास स्वयं ही खण्डित हो जाती है । भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है । और इसे लिखने वाले कामी व भोग विलास -प्रिय ब्राह्मण थे । पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाला है।
अब कोई बताएे कि गोप ही गोपिकाओं को लूटने वाले कैसे हो सकते हैं ? यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है । ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । __________________________________________ " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है । क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है । परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए) स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा । गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला । अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं । ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । ____________________________________
प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:। नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) ________________________________________ हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो । और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो । _______________________________________ और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।... देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया । यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे। असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी ____________________________________
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७) _______________________________________
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला । अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । ________________________________________ किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो । ________________________________________ यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है 
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। यदु एेसे स्थान पर रहते थे।जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है । यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )। (ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् ।
हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें-ऋग्वेद में
________________________________________ शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे । राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६। उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् । श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७। यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६ अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं । यहाँ एक तथ्य विचारणीय है कि असुर शब्द का पर्याय वैदिक सन्दर्भों में दास शब्द है । दास शब्द देव संस्कृति के विरुद्ध रहने वाले दाहिस्तान Dagestan को निवासीयों का विशेषण है । ---जो ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी तथा अहुर-मज्दा (असुर महत्) में आस्था रखने वाले हैं । पुराणों में भी कहीं गोपों को क्षत्रिय कहा गया है; तो स्मृति-ग्रन्थों में उन्हीं गोपो को शूद्र रूप में वर्णित कर दिया है । भारतीय पुराणों में द्रविडों को शूद्र रूप में परिगणित किया है। और कृष्ण को भी क्षत्रिय घोषित नहीं किया । पुराणों का कथ्य है कि यदु दास अथवा असुर होने से शूद्र हुए अत: वे राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। राजा और क्षत्रिय परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची रूप हैं 2।8।1।1।4 मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥ मूर्धाभिषिक्त, राजन्य, बाहुज,क्षत्रिय,विराट,राजा,राट् , पार्थिव, क्ष्माभृत् , नृप, भूप , तथा महिक्षित। वेद में राजन्य शब्द क्षत्रिय का वाचक है देखें--- ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।। (ऋग्वेद १०/९०/१२) परन्तु
_________________________________________
भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं । यहाँ देखिए --
"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३। श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय

अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए ! "क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। भागवतपुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है वह कहता है कि " ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। तो फिर उग्र सेन यदुवंशी नहीं थे क्या ? ---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं 😂 😂. ☺😊 😂

हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं ।ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?😎😎😎😎😎😎
देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!👇

यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च ।
“अन्धकञ्च महाबाहुं वृष्णिञ्च यदुनन्दनम्” इत्युपक्रम्य “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ- तात्मजान् ।
कुकुरं भजमानञ्च शमं कम्बलबर्हिषम् ।
कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोसु तनयस्तथा । कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।
जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः ।
तथा वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल । आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ” इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय “आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः
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देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।
नवोग्रसे- नस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः”
(हरिवंश ३८ अध्याय

और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि
(उग्रा सेना यस्य ) मथुरादेशस्य राजविशेषः ।
स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च  इति श्रीभागवतम पुराणम् --
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कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है । और फिर लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया। एक तथ्य विचारणीय है कि किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय रूप में सम्बोधित नहीं किया गया है। क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है । और आज ---जो यदुवंशी कहकर अपने को क्षत्रिय अथवा राज पुत्र ( राजपूत) घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है। अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है __________________________________________ प्रस्तुति कर्ता -यादव योगेश कुमार 'रोहि'

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