पुनर्विवाह और नियोग से संबंधित कुछ नियम, कानून, ‘शर्ते और सिद्धान्त बड़ी कुशलता से ब्राह्मणों ने बनाए और यह प्रस्तावित कर कर दिया कि नियुक्त व्यक्ति ब्राह्मण हो ।
क्योंकि ब्राह्मण श्रेष्ठ गुणों वाला होता है ।
आश्चर्य तो तब होता है जब महर्षि दयानन्द जैसे विद्वान् भी नियोग का अनुमोदन वैदिक विधानों के रूप में करते हैं।
और वेद, मनुस्मृति आदि ग्रंथों से सत्य, प्रमाणित और न्यायोचित भी साबित करते हैं व्यावहारिक पुष्टि हेतु कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी कथित स्वामी दयानन्द ने प्रस्तुत किए हैं ।
और साथ-साथ नियोग की विशेषताओं का भी वर्णन किया है।
इस कुत्सित प्रथा को धर्मानुकूल और न्यायोचित सिद्ध करने के लिए लेखक ने चालाकीं संगत बौद्धिकता और तार्किकता का भी सहारा लिया है।
स्वामी दयानन्द ने समाज सुधारक के रूप में आज के परिप्रेक्ष्य में भी पुनर्विवाह को दोषपूर्ण और नियोग को तर्कसंगत और उचित ठहराया है।
महर्षि दयानन्द की उक्त धारणा का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं।
ऊपर सत्यार्थ प्रकाश के समुल्लास(4-134) में पुनर्विवाह के जो दोष स्वामी दयानन्द ने गिनाए हैं वे सभी हास्यास्पद, तर्कहीन और मूर्खतापूर्ण व पूर्व -दुराग्रह से ग्रसित हैं।
विद्वान लेखक ने जैसा लिखा है कि दूसरा विवाह करने से स्त्री का पतिव्रत धर्म और पुरुष का स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है !
परन्तु नियोग करने से दोनों का उक्त धर्म ‘अक्षुण्ण और सुरक्षित रहता है।
आश्चर्य पूर्ण तर्क है ।
__________________________________________
परन्तु यह तर्क मूर्खतापूर्ण ही है ?
वास्तविक वह कैसा पतिव्रत धर्म है जो पुनर्विवाह करने से तो नष्ट और भ्रष्ट हो जाएगा और 10 गैर पुरुषों से यौन सम्बन्ध बनाने से सुरक्षित और निर्दोष रहेगा ?
अगर किसी पुरुष की पत्नी जीवित है और किसी कारण पुरुष सन्तान उत्पन्न करने में अक्षम है तो इसका तात्पर्य यह तो कदापि नहीं है कि उस पुरुष में काम इच्छा नहीं है।
यदि पुरुष के अन्त:करण में काम वासनाओं तो है परन्तु पौरुष शक्ति क्षीण हो गयी है।
इसी कारण से संतान उत्पन्न नहीं हो रही है और उसकी पत्नी सन्तान के लिए किसी अन्य पुरुष से नियोग करती है तो ऐसी स्थिति में पुरुष अपनी काम तृप्ति कहाँ और कैसे करेगा ?
और फिर झूँठी पत्तलें चाटना श्वान वृत्ति है यहाँ यह भी विचारणीय है कि नियोग प्रथा में प्रत्येक स्थल पर पुत्रोत्पत्ति की बात कही गई है,।
क्या कन्यायें नहीं होती थी ।?
जबकि जीव विज्ञान के अनुसार 50 प्रतिशत संभावना कन्या जन्म की होती है।
क्योंकि स्त्रीयों में केवल (Xx) गुण सूत्र होते हैं और पुरुष में (Xy)
मनुष्यों में पाए जाने वाले गुणसूत्रों के उद्भव और उनके विकास को लेकर एक नया सर्वे सामने आया है।
जींस में होनेवाले इस असामान्य मिश्रण (एक्स और वाई क्रोमोजोम्स) को लेकर नया खुलासा हुआ है।
पुरुषों में (XY) क्रोमोजोम्स होता है ;जबकि महिलाओं में (XX) क्रोमोजोम्स (गुण-सूत्र )पाया जाता है।
इसका मतलब यह भी हुआ कि इन दोनों में X क्रोमोजोम्स का एक्टिव कॉपी भी शामिल होता है।
वैज्ञानिकों ने वर्ष 2002 में एक्स क्रोमोजोम्स के बारे में यह पता लगाया था कि असामान्य होता है क्योंकि इसमें अहम जींस का बहुत कम हिस्सा होता है जो कोशिकाओं के सक्रिय रहने, जींस की व्यवस्था को संवारने के लिए होता है।
प्रोफेसर लारेंस हर्सट की अगुवाई वाली टीम ने इस रिसर्च को अंजाम दिया जो दुनिया के सबसे बड़े जीन गतिविधियों के पर डेटा का संग्रह पर आधारित रहा।
इस रिसर्च में यह पता लगाया गया कि कैसे एक्स क्रोमोजोम्स दूसरे जींस के मुकाबले किस प्रकार की प्रतिक्रिया देता है और गतिविधियों को अंजाम देता है।
टीम ने इस बात का भी पता लगाया कि कौन सा जींस एक्स से दूसरे क्रोमोजोम्स में स्थानांतरित होता है और विकास करता है।
इस अध्ययन (PLOS) जीव विज्ञान में प्रकाशित किया गया है।
गौर हो कि में केवल ऐसे दो लिंग-भेद करने वाले गुण सूत्र होते हैं - एक्स गुण सूत्र और वाई गुण सूत्र। इनका नाम अंग्रेज़ी के X और Y अक्षरों पर पड़ा है क्योंकि इनके आकार उनसे मिलते-जुलते हैं।
नरों में एक वाई और एक एक्स गुण सूत्र होता है, जबकि मादाओं में दो एक्स गुण सूत्र होते हैं।
कन्या उत्पन्न होने की स्थिति में नियोग के क्या नियम, कानून और ‘शर्ते होंगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है ?
जैसा कि स्वामी जी ने कहा है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो भी पुरुष नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न कर सकता है।
_________________________________________
यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो इसके लिए स्त्री नहीं, पुरुष जिम्मेदार है?
जैसा कि गुण-सूत्र विश्लेषण से
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव जाति में लिंग का निर्धारण नर द्वारा होता है न कि मादा द्वारा।
यह भी एक तथ्य है कि पुनर्विवाह के दोष और हानियाँ तथा नियोग के गुण और लाभ का उल्लेख केवल द्विज वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए किया गया है।
तुर वर्ण ‘शूद्र को छोड़ दिया गया है।
क्या ‘शुद्रों के लिए नियोग की अनुमति नहीं है ?
क्या ‘शूद्रों के लिए नियोग की व्यवस्था दोषपूर्ण और पाप है ?
जैसा कि लिखा है कि अगर पत्नी अथवा पति अप्रिय बोले तो भी वे नियोग कर सकते हैं।
अगर किसी पुरुष की पत्नी गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए अथवा पति दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो दोनों कहीं उचित साथी देखकर नियोग कर सकते हैं।
क्या यहाँ सारे नियमों और नैतिक मान्यताओं को लॉकअप में बन्द नहीं कर दिया गया है ?
क्या नियोग का मतलब स्वच्छंद यौन संबंधों ) से नहीं है ?
क्या इससे निम्न और घटिया किसी समाज की कल्पना की जा सकती है?
कथित विद्वान लेखक ने नियोग प्रथा की सत्यता, प्रमाणिकता और व्यावहारिकता की पुष्टि के लिए महाभारत कालीन सभ्यता के दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
लिखा है कि व्यास जी ने चित्रांगद और विचित्र वीर्य के मर जाने के बाद उनकी स्त्रियों से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न की।
अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और एक दासी से विदुर की उत्पत्ति नियोग प्रक्रिया द्वारा हुई। दूसरा उदाहरण पाण्डु राजा की स्त्री कुंती और माद्री का है।
पाण्डु के असमर्थ होने के कारण दोनों स्त्रियों ने नियोग विधि से संतान उत्पन्न की।
इतिहास भी इस बात का प्रमाण है।
जहाँ तक उक्त ऐतिहासिक तथ्यों की बात है महाभारत कालीन सभ्यता में नियोग की तो क्या बात कुंवारी कन्या से संतान उत्पन्न करना भी मान्य और सम्मानीय था।
वेद व्यास और भीष्म पितामह दोनों विद्वान महापुरुषों की उत्पत्ति इस बात का ठोस सबूत है।
दूसरी बात महाभारत कालीन समाज में एक स्त्री पांच सगे भाईयों की धर्मपत्नी हो सकती थी।
पांडव पत्नी द्रौपदी इस बात का ठोस सबूत है। तीसरी बात महाभारत कालीन समाज में तो बिना स्त्री संसर्ग के केवल पुरुष ही बच्चें पैदा करने में समर्थ होता था।
महाभारत का मुख्य पात्र गुरु द्रोणाचार्य की उत्पत्ति उक्त बात का सबूत है।
चौथी बात महाभारतकाल में तो चमत्कारिक तरीके से भी बच्चें पैदा होते थे।
पांचाली द्रौपदी की उत्पत्ति इस बात का जीता-जागता सबूत है।
क्योंकि वह यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न हुई ।
अतः उक्त समाज में नियोग की क्या आवश्यकता थी ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि व्यास जी ने किस नियमों के अंतर्गत नियोग किया ?
दूसरी बात नियोग किया तो एक ही समय में तीन स्त्रियों से क्यों किया?
तीसरी बात यह कि एक मुनि ने निम्न वर्ण की दासी के साथ क्यों समागम किया ?
चैथी बात यह कि कुंती ने नियम के विपरीत नियोग विधि से चार पुत्रों को जन्म क्यों दिया ?
विदित रहे कि कुंती ने कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन चार पुत्रों को जन्म दिया और ये सभी पाण्डु कहलाए।
पांचवी बात यह कि जब उस समाज में नियोग प्रथा निर्दोष और मान्य थी तो फिर कुंती ने लोक लाज के डर से कर्ण को नदी में क्यों बहा दिया ?
छठी बात यह है कि वे पुरुष कौन थे जिन्होंने कुंती से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न की ?
स्वामी जी ने बहुविवाह का निषेध किया है जबकि उक्त सभ्यता में बहुविवाह होते थे।
अब क्या जिस समाज से स्वामी जी ने नियोग के प्रमाण दिए हैं, उस समाज को एक उच्च और आदर्श वैदिक समाज माना जाए ? ‘
सत्यार्थ प्रकाश’ के ‘शंका-समाधान परिशिष्ट में पं0 ज्वालाप्रसाद ‘शर्मा द्वारा नियोग प्रथा के समर्थन में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं।
लिखा है कि प्राचीन वैदिक काल में कुलनाश के भय से ऋषि-मुनि, विद्वान, महापुरुषों से नियोग द्वारा वीर्य ग्रहण कर उच्च कुल की स्त्रियां संतान उत्पन्न करती थी।
जो प्रमाण पंडित जी ने प्रस्तुत किए हैं वे सभी महाभारत काल के हैं।
क्या महाभारत काल ही प्राचीन वैदिक काल था ?
क्या नियोग ही ऋषियों का एक मात्र प्रयोजन था?
यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि अगर स्वामी दयानंद सरस्वती नियोग को एक वेद प्रतिपादित और स्थापित व्यवस्था मानते थे तो उन्होंने इस परम्परा का खुद पालन करके अपने अनुयायियों के लिए आदर्श प्रस्तुत क्यों नहीं किया ?
इससे स्वामी जी के चरित्र को भी बल मिलता और एक मृत प्रायः हो चुकी वैदिक परंपरा पुनः जीवित हो जाती।
यह भी एक अजीब विडंबना है कि जिस वैदिक मंत्र से स्वामी जी ने नियोग परंपरा को प्रतिपादित किया है उसी मंत्र से अन्य वेद विद्वानों और भाष्यकारों ने विधवा पुनर्विवाह का प्रतिपादन किया है।⬇🌺
निम्न मंत्र देखिए – ‘‘कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वां ‘शत्रुया विधवेव देवरं मंर्य न योषा कृणुते सधस्य आ।।
(ऋग्वेद, 10-40-2)
‘‘उदीष्र्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुप ‘शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिशोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।।’’ (ऋग्वेद, 10-18-8)
उक्त दोनों मंत्रों से जहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती ने नियोग प्रथा का भावार्थ निकाला है वहीं ओमप्रकाश पाण्डेय ने इन्हीं मंत्रों का उल्लेख विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में किया है।
अपनी पुस्तक ‘‘वैदिक साहित्य और संस्कृति का स्वरूप’’ में उन्होंने लिखा है कि वेदकालीन समाज में विधवा स्त्रियों को पुनर्विवाह की अनुमति प्राप्त थी।
उक्त मंत्र (10-18-8) का भावार्थ उन्होंने निम्न प्रकार किया है – ‘‘हे नारी ! इस मृत पति को छोड़कर पुनः जीवितों के समूह में पदार्पण करो।
तुमसे विवाह के लिए इच्छुक जो तुम्हारा दूसरा भावी पति है, उसे स्वीकार करो।’’ इसी मंत्र का भावार्थ वैद्यनाथ ‘शास्त्री द्वारा निम्न प्रकार किया गया है
– ‘‘जब कोई स्त्री जो संतान आदि करने में समर्थ है, विधवा हो जाती है तब वह नियुक्त पति के साथ संतान उत्पत्ति के लिए नियोग कर सकती है।’’
उक्त मंत्रों में स्वामी दयानंद ने देवर ‘शब्द का अर्थ जहाँ ‘द्वितीय नियुक्त पति’ लिया है वहीं पाण्डेय जी ने देवर ‘शब्द का अर्थ ‘द्वितीय विवाहित पति’ लिया है।
निरुक्त के संदर्भ में पाण्डेय जी ने लिखा है कि यास्क ने अपने निरूक्त में देवर ‘शब्द का निर्वचन ‘द्वितीय वर’ के रूप में ही किया है।
यद्यपि देवर तक तो यह प्रथा कुछ संगत भी है
क्यों यह नियोग न होकर पुनर्विवाह ही है
परन्तु के पुरोहित नियोग करे यह व्यभिचार ही है
उक्त मंत्रों के साथ पाण्डेय जी ने अथर्ववेद का भी एक मंत्र विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में प्रस्तुत किया है। जो निम्न है – ‘‘या पूर्वं पतिं वित्त्वाथान्यं विन्दते परम्।
पत्र्चैदनं च तावजं ददातो न वि योषतः।। समानलोको भवति पुनर्भुवापरः पतिः। योऽजं पत्र्चैदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति।।’’
(अथर्वसंहिता 9-5-27,28) उक्त से स्पष्ट है कि वेद भाष्यों में इतना अधिक अर्थ भेद और मतभेद पाया जाता है कि सत्य और विश्वसनीय धारणाओं का निर्णय करना अत्यंत दुरूह कार्य है?
यहाँ यह भी विचारणीय है कि विवाह का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति करना ही नहीं होता बल्कि स्वच्छंद यौन संबंध को रोकना और भावों को संयमित करना भी है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि जो विषय (नारी और सेक्स) एक बाल ब्रह्मचारी के लिए कतई निषिद्ध था, स्वामी जी ने उसे भी अपनी चर्चा और लेखनी का विषय बनाया है।
बेहद अफसोस और दुःख का विषय है कि जहाँ एक विद्वान और समाज सुधारक को पुनर्विवाह और विधवा विवाह का समर्थन करना चाहिए था,
वहाँ कथित समाज सुधारक द्वारा नियोग प्रथा की वकालत की गई है और इसे वर्तमान काल के लिए भी उपयुक्त बताया है।
क्या यह एक विद्वान की घटिया मनोवृत्ति का प्रतीक नहीं है ? आज की फिल्में जो कतई निम्न स्तर का प्रदर्शन करती हैं, उनमें भी कहीं इस प्रथा का प्रदर्शन और समर्थन देखने को नहीं मिलता।
स्वामी दयानंद को छोड़कर नवजागरण के सभी विद्वानों और सुधारकों द्वारा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया गया है।
जब किसी कौम या समाज के धार्मिक लोग जघन्य नैतिक बुराइयों और बिगाड़ में गर्क हो जाते हैं, तो वह कौम नैतिक पतन की पराकाष्ठा को पहुंच जाती है।
नैतिक बुराइयों में निमग्न होने के बावजूद कथित धार्मिक लोग अपने बचाव और समाज में अपना स्तर और आदर-सम्मान बनाए रखने के लिए और साथ-साथ अपने को सही और सदाचारी साबित करने के लिए उपाय तलाशते हैं।
अपने बचाव के लिए कथित मक्कार लोग अपनी धार्मिक पुस्तकों से छेड़छाड़ करते हैं और उनमें फेरबदल कर उस नैतिक बुराई को जो उनमें है, अपने देवताओं, अवतारों, ऋषियों, मुनियों और आदर्शों से जोड़ देते हैं और जनसाधारण को यह समझाकर अपने बचाव का रास्ता निकाल लेते हैं कि यह बुराई नहीं है बल्कि धर्मानुकूल है।
ऐसा तो हमारे ऋषि-मुनियों और महापुरुषों ने भी किया है। नियोग के विषय में भी मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है। जब कौम में स्वच्छंद यौन संबंधों की अधिकता हो गई और जो बुराई थी,
वह सामाजिक रस्म और रिवाज बन गई तो मक्कार लोगों ने उस बुराई को अच्छाई बनाकर अपने धार्मिक ग्रंथों में प्रक्षेपित कर दिया।
प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथों में परिवर्तन करना आसान था, क्योंकि धार्मिक ग्रंथों पर चन्द लोगों का अधिकार होता था।
नियोग एक गर्हित और गंदी परंपरा है, इसे किसी भी काल के लिए उचित नहीं कहा जा सकता।
भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति अत्यंत दयनीय प्रतीत होती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषि, मुनियों और महापुरुषों द्वारा कुछ ऐसे नियम-कानून बनाए गए, जिन्होंने नारी को भोग की वस्तु और नाश्ते की प्लेट बना दिया।
नियोग प्रथा ने विधवा स्त्री को कतई वेश्या ही बना दिया। तभी तो संस्कृत भाषा का रण्डिका शब्द दो वैश्या का वाचक था हिन्दी में राँढ़ /रढ़िया
के रूप में विधवा का वाचक है
संस्कृत कोशों में देखें ⬇
_____________________________________
रण्डा= स्त्रीलिंग (रमन्तेऽत्रेति --रमण करती हैं जहाँ पर स्त्रीयाँ ।
रम् + “ञमन्तात् डः ।” उणादि सूत्र १। ११३ । इति डः टाप् )
मूषिकपर्णी । इत्यमरःकोश । २। ४।८८ ॥
(यथा, “हिङ्गुलात् सम्भवं सूतं पालिधारसमर्द्दितम् । रण्डाशोधितगन्धञ्च तेनैव कज्जलीकृतम् ॥
इति वैद्यकरसेन्द्रसारसंग्रहे बृहत्सोमनाथरसे )
विधवा । राँढ़ इति भाषा ॥
यथा । तिष्ठते रण्डा विकर्म्मस्थेभ्यः स्वहृदयं व्यक्तीत्यर्थः ।
इति संक्षिप्तसारे तिङन्तपादः ॥
अमरकोशः
रण्डा स्त्री।
मूषिकपर्णी
समानार्थक:चित्रा,उपचित्रा,न्यग्रोधी,द्रवन्ती,शम्बरी,वृषा,प्रत्यक्श्रेणी,सुतश्रेणी,रण्डा,मूषिकपर्णी
2।4।88।1।3
शब्दसागरः
रण्डा feminine Gender.रम् + (-ण्डा)
1. A plant, (Salvinia cucullata.) “मूषिकपर्ण्याम्।”
2. A widow.
3. A term of abuse in addressing woman. E. रम् to sport, ड Una4di aff.
Monier-Williams
रण्डा f. a term of abuse in addressing women , a slut (others " a widow " ; बाल-र्, " a young widow "). Ka1v. Pan5cat.
संस्कृत-शब्दसागरः
रण्डा स्त्री लिंग। रम् + (ड)
2. एक विधवा।
3. महिला को संबोधित करने में दुर्व्यवहार की अवधि।
रंडाडा । महिलाओं को संबोधित करने में दुर्व्यवहार की अवधि, एक फूहड़ (दूसरों "एक विधवा"; बालरण्डा
हिन्दी में प्रचलित क्रिया रूप
राँढ़ ---क्रि० स० संस्कृत] रण्डा
कोई औगुन मन बसा चित तें धरा उतार।
दादू पति बिन सुंदरी राँढइ घर घर बार।— (सन्त दादू)
विधुर और विधवा भारोपीय शब्द हैं ।
Old English widewe, wuduwe, from Proto-Germanic (widuwo )
(source also of Old Saxon widowa, Old Frisian widwe, Middle Dutch, Dutch weduwe, Dutch weeuw, Old High German wituwa, German Witwe, Gothic widuwo), from PIE adjective widhewo (source also of Sanskrit vidhuh विधु: "lonely, solitary," vidhava "widow;" Avestan vithava, Latin vidua, Old Church Slavonic vidova, Russian vdova, Old Irish fedb, Welsh guedeu "widow;" Persian beva,
Greek eitheos "unmarried man;" Latin viduus "bereft, void"), from root weidh- "to separate" अलग होना (source of second element in Latin di-videre "to divide;"
Extended to "woman separated from or deserted by her husband"
from mid-15c. (usually in a combination, such as grass widow). As a prefix to a name, attested from 1570s. Meaning "short line of type"
(especially at the top of a column) is 1904 print shop slang. Widow's mite is from Mark xii.43. Widow's peak is from the belief that hair growing to a point on the forehead is an omen of early widowhood, suggestive of the "peak" of a widow's hood.
The widow bird (1747) so-called in reference to the long black tail feathers of the males, suggestive of widows' veils.
widow (v.)
early 14c.; see widow (n.). Related: Widowed; widowing.
आद्य जर्मनिक भाषाओं में विधुवो (पुरानी सैक्सन में विधवा, पुरानी फ़्रिसियाई में विधवा, मध्य डच में तथा डच वेधुवे, डच वीव, ओल्ड हाई जर्मन विटुवा, जर्मन विट्वे, गोथिक widuwo)विधुवो के स्रोत, पुरानी अंग्रेजी widewe, wuduwe, मूल रूप विशेषण से हैं*widhewo (संस्कृत विधु: का स्रोत "अकेला, अकेला," विधव: स्त्री लिंग "विधवा "
अवेस्तान विठव, लैटिन विदुआ, ओल्ड चर्च स्लावोनिक विडोवा, रूसी vdova,व्दोवा पुरानी आयरिश फेब, वेल्श guedeu "विधवा;" फारसी beva, यूनानी eitheos "अविवाहित आदमी; "लैटिन viduus" bereft, शून्य रूट * weidh-" अलग करने के लिए "
(लैटिन डी-videre में दूसरे तत्व का स्रोत" विभाजित करने के लिए; "के साथ भी देखें)।
विधुरम्, क्ली, (विगता धूर्भारो यस्मात् । समासे अः ।) प्रविश्लेषः ।
इत्यमरः ॥ कैवल्यम् । इति त्रिकाण्डशेषः ॥
(प्रत्यवायः । कष्टम् । यथा, किरातटीकायां मल्लिनाथधृतवैजयन्ती । “विधुरं प्रत्यवाये स्यात् कष्टविश्लेशयोरपि ॥”
तथा च किराते । २ । ७ । “विधुरं किमतः परं परै- रवगीतां गमिते दशामिमाम् । अवसीदति यत् सुरैरपि त्वयि सम्भावितवृत्ति पौरुषम्
विधुरः, त्रि, (विगता धूः कार्य्यभारो यस्मात् । ऋक्पूरित्यः ।) विकलः । इति मेदिनी । रे, २१६ ॥
(यथा, कुमारे । ४ । ३२ । “तदिदं क्रियतामनन्तरं भवता बन्धुजनप्रयोजनम् । विधुरां ज्वलनातिसर्ज्जनात् ननु मां प्रापय पत्युरन्तिकम् ॥”)
अमरकोशः
विधुर नपुं।
विश्लेषः
समानार्थक:विधुर,प्रविश्लेष
3।2।20।2।1
निर्वेश उपभोगः स्यात्परिसर्पः परिक्रिया। विधुरं तु प्रविश्लेषेऽभिप्रायश्छन्द आशयः॥
वाचस्पत्यम्
'''विधुर' त्रि॰ विगता धूर्यस्य असौ विधुर अर्थात् जिसका धव वति)
१ विश्लेष्टे अमरः।
२ विकले च मेदि॰। विगता{??}ः।
३ वैकल्ये
४ विश्लेषेच न॰ त्रिका॰।
५ रमालायां स्त्री मेदि॰।
शब्दसागरः
15 वीं सदी के मध्य से यूरोपीय संस्कृतियों में "महिला को अपने पति से अलग या त्याग दिया गया हो उनके अर्थ में यह विस्तारित किया गया।
विधवा, स्त्री, (विगतो धवो भर्त्ता यस्याः ।) मृत- भर्त्तृका । तत्पर्य्यायः । विश्वस्ता २ । इत्यमरः ॥ जालिका ३ रण्डा ४ यतिनी ५ यतिः ६ । इति शब्दरत्नावली ॥ (यथा, ऋग्वेदे । १० । ४० । २ । / । “ताम्बूलाभ्यञ्जनं चैव कांस्यपात्रे च भोजनम् । यतिश्च ब्रह्मचारी च विधवा च विवर्ज्जयेत् ॥” अभ्यञ्जनं आयुर्वेदोक्तं पारिभाषिकम् ।
स्मृतिः । “एकाहारः सदा कार्य्यो न द्वितीयः कदाचन । पर्य्यङ्कशायिनी नारी विधवा पातयेत् पतिम् ॥ गन्धद्रव्यस्य सम्भोगो नैव कार्य्यस्तया पुनः ।
तर्पणं प्रत्यहं कार्य्यं भर्त्तुः कुशतिलोदकैः ॥
एतत्तु तर्पणं पुत्त्रपौत्त्राद्यभाव इति मदनपारि- जातः ॥ “वैशाखे कार्त्तिके माघे विशेषनियमञ्चरेत् ।
स्नानं दानं तीर्थयात्रां विष्णोर्नामग्रहं मुहुः ॥”
इति शुद्धितत्त्वम् ॥ * ॥ अपि च ।
“ब्राह्मणी पतिहीना या भवेन्निष्कामिनी सदा ।
एकभक्ता दिनान्ते सा हविष्यान्नरता सदा ॥
न घत्ते दिव्यवस्त्रञ्च गन्धद्रव्यं सुतैलकम् ।
स्रजञ्च चन्दनञ्चैव शङ्खसिन्दूरभूषणम् ॥
त्यक्त्वा मलिनवस्त्रा स्यान्नित्यं नारायणं स्मरेत् । नारायणस्य सेवाञ्च कुरुते नित्यमेव च ॥
तन्नामोच्चारणं शश्वत् कुरुतेऽनन्यभक्तितः ।
पुत्त्रतुल्यञ्च पुरुषं सदा पश्यति धर्म्मतः ॥
मिष्टान्नं न च भुङ्क्ते सा न कुर्य्याद्बिभवं व्रजम् । एकादश्यां न भोक्तव्यं कृष्णजन्माष्टमीदिने ॥
श्रीरामस्य नवम्याञ्च शिवरात्रौ पवित्रया ।
अघोरायाञ्च प्रेतायां चन्द्रसूर्य्योपरागयोः ॥
भ्रष्टद्रव्यं परित्याज्यं भुज्यते परमेव च ।
ताम्बूलं विधवास्त्रीणां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् । सन्न्यासिनाञ्च गोमांसं सुरातुल्यं श्रुतौ श्रुतम् ॥
रक्तशाकं मसूरञ्च जम्बीरं पर्णमेव च ।
वर उच्यते ।
विधवा विधातृका भवति विधवनाद्बा विधावनाद्वेति चर्म्मशिरा अपिवा धव इति मनुष्यनाम तद्वियोगाद्विधवा देवरो दीव्यतिकर्म्मा मर्य्यो मनुष्यो मरणधर्म्मा योषा यौतेराकुरुते सहस्थाने इति ॥”
इति तद्भाष्ये सायणः ॥
अमरकोशः
विधवा स्त्री।
विधवा
समानार्थक:विश्वस्ता,विधवा
2।6।11।2।3
स्वैरिणी पांसुला च स्यादशिश्वी शिशुना विना। अवीरा निष्पतिसुता विश्वस्ताविधवे समे॥
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः
वाचस्पत्यम्
'''विधवा'''¦ स्त्री विगतो धवो यस्याः। मृतपतिकायां स्त्रियाम्अमरः। विधवाधर्माश्च शु॰ त॰ उक्ता यथा विष्णुस॰
“मृते भर्तरिब्रह्मचर्य्यं तदन्वारोहणं वा”।
ब्रह्मचर्य्यं मैथुनवर्जनंताम्बूलादिवर्जनञ्च यथाह प्रचेताः
“ताम्बूलाभ्यञ्जनं चैवकांस्यपात्रे च भोजनम्। यतिश्च ब्रह्मचारी च विधवाच विवर्जयेत्”।
कभ्यञ्जनमायुर्वेदोक्तम्” रघु॰। का-शीख॰ विस्तरेण
४ अ॰ उक्ता यथा
“अनुयाति न भर्त्तारं यदि दैवात् कदाचन।
तथापिशीलं संरक्ष्यं शीलभङ्गात् पतत्यधः। तद्वैगुण्यादपिस्वर्गात् पतिः पतति नान्यथा।
तस्याः पिता च माताच भ्रातृवर्गस्तथैव च।
पत्यौ मृते च या योषिद्वै-धव्यं पालयेत् क्वचित्।
सा पुनः प्राप्य भर्त्तारंस्वर्गभोगान् समश्नुते। विधवाकवरीबन्धो भर्तृबन्धायजायते।
शिरसो वपनं तस्मात् कार्य्यं विधवया सदा।
एकाहारः सदा कार्य्यो न द्वितीयः कदाचन। त्रिरात्रंपञ्चरात्रं वा पक्षव्रतमथापि वा।
मासोपवासं कुर्य्याद्वा चान्द्रायणमथापि वा।
कृच्छ्रं पराकं वा कुर्य्यात्तप्तकृच्छ्रमथापि वा।
यवान्नैर्वा फलाहारैः शाका-हारैः पयोव्रतैः।
प्राणयात्रां प्रकुर्वीत यावत् प्राणःस्वयं व्रजेत्। पर्य्यङ्कशायिनी नारी विधवा पातयेत्पतिम्।
तद्भूशयनं कार्य्यं पतिसौख्यसमीहया।
नैवाङ्गोद्वर्त्तनं कार्य्यं स्त्रिया विधवया क्वचित्। गन्ध-द्रव्यस्य सम्भोगोनैव कार्य्यस्तया पुनः।
प्रत्यहं तर्पणंकार्य्यं भर्तुः कुशतिलोदकैः। तत्पितुस्तत्पितुश्चापिनामगोत्रादिपूर्वकम्।
विष्णोस्तु पूजनं कार्य्यं पति-सुद्ध्या न चान्यथा।
पतिमेव सदा ध्यायेद्विष्णुरूपधरंपरम्।
यद् यदिष्टतमं लोके यच्च पत्युः समीहितम्।
तत्तद्गुणवते देयं पतिप्रीणनकाम्यया। वैशाखे कार्त्तिकेमाघे विशेषनियमांश्चरेत्।
स्नानं दानं तीर्थयात्रांविष्णोर्नामग्रहं मुहुः। वैशाखे जलकुम्भांश्च कार्त्तिकेवृतदीपकाः।
माघे तिलेन्धनोत्सर्गः स्वर्गलोके मही-यते।
प्रपा कार्य्या च वैशाखे देवे देया गलन्तिका। उपानद्व्यजनं चापि सूक्ष्मवासांसि चन्दनम्।
स-कर्पूरन्तु ताम्बूलं पुष्पदानं तथैव च। जलपात्राण्यने-कानि तथा पुष्पगृहाणि च।
पानानि च विचित्राणि[Page4906-b+ 38] द्राक्षारम्भाफलानि च।
देयानि द्विजमुख्येभ्यः पतिर्मेप्रीयतामिति। ऊर्जे यवागूमश्नीयाटेकान्नमथ वा पुनः।
वृन्ताकं शूरणञ्चैव शूकशिम्बीञ्च वर्जयेत्। कार्त्तिकेवर्जयेत्तैलं कार्त्तिके वर्जयेन्मधु।
कार्त्तिके वर्जयेत् कांस्यंकार्त्तिके चापि सन्धितम्। कार्त्तिके मौननियमे घण्टांचारुं प्रदापयेत्।
पत्रभोजी कांस्यपात्रं घृतं पूर्णं प्र-यच्छति।
भूमिशव्याव्रते देया शय्या श्लक्ष्णा सतूलिका। फलत्यागे फलं देयं रसत्यागे च तद्रसः।
धान्यत्यागे चतद्धान्यमथ वा शालयः स्मृताः। धेनुं दद्यात् प्रयत्नेनसालङ्कारां सकाञ्चनाम्।
एकतः सर्वदानानि दीप-दानं तथैकतः।
कार्त्तिके दीपदानस्य कलां नार्हन्तिषोडशीम्। किञ्चिदभ्युदिते सूर्य्ये माघस्नानं समाचरेत्।
यथाशक्त्या च नियमान्माघे स्नानं समाचरेत्।
पक्वा-न्नैर्भोजयेद्विप्रान् यतीनपि तपस्विनः।{??}ड्डुकैःफाणितैश्चापि वटकेण्डरिकादिभिः।
घृतपक्वंः सम-रिचैः शुचिकर्पूरवासितैः।
गर्भे शर्करया पूर्णैर्नेत्रा-नन्दैः सुगन्धिभिः।
शुष्केन्धनानां भारांश्च दद्याच्छीताप-नुत्तये।
कञ्चुकं तूलगर्भञ्च तूलिकां सूपवीतिकाम्। म-ञ्जिष्ठारूपवासांसि तथा तूलवतीं पटीम्। ऊर्णामयानिवासांसि यतिभ्योऽपि प्रदापयेत्। जातीफललवङ्गैश्चताम्बूलानि वहून्यपि।
कम्बलानि च चित्राणि नि-र्वातानि गृहाणि च।
मृदुलाः पादरक्षाश्च सुगन्ध्यु-द्वर्त्तनानि च। घृतकम्बलपूजाभिर्महास्नानपुरःसरम्। संस्नाप्य शाम्भवं लिङ्गं पूजयेद् दृढभक्तितः। कृष्णा-गुरुप्रभृतिभिर्गर्भागारे प्रधूपनैः। तूलवर्त्तिप्रदीपैश्च नै-येद्यैर्विविधैस्तथा। भर्तृस्वरूपो भगवान् प्रीयतामितिचोच्चरेत्। एवंविधैश्च विधवा विविधैर्नियमैर्व्रतैः।
वै-शाखान् कार्त्तिकान् माघानेवमेवातिवाहयेत्। नाधि-रोहेदनड्वाहं प्राणैः कण्ठगतैरपि। कञ्चुकं न परी-दध्याद्वासो न विकृत वसेत्।
अपृष्ट्वातु सुतान् कि-ञ्चिन्न कुर्य्याद् भर्तृतत्परा। एवं चर्य्यापरा नित्यं वि-धवापि शुभा मता। इति धर्मसमायुक्ता विधवापि पति-व्रता। पतिलोकानवाप्नोति न भवेत् क्वापि दुःखिता”। व्रह्मवै॰ ज॰ ख॰
८३ अ॰ अश्चिद्विशेष उक्तो यथा
“ब्राह्मणी पतिहीना या भयेन्निष्क्रामणी सदा। एक-भक्ता दिनान्ते सा हविष्यान्नरता सदा। न धत्ते दिव्य-वस्त्रञ्च गन्धद्रव्यं सु{??}इलकम्।
स्नजञ्च चन्दनं चैव शङ्खंसिन्दूरभूषणम्।{??}क्त्वा मलिनवस्त्रा स्यात् नित्यं नारा-[Page4907-a+ 38] यणं स्मरेत्”।
“पुत्रतुल्यञ्च पु{??}षं सदा पश्यति धर्मतः। मिष्टान्न न च भुङ्क्ते मा न कुर्य्याद्विभव व्रजम्। एका-{??} न भोक्तवं कृष्णजन्माष्टमीदि{??}।
श्रीरामस्य{??}वम्याञ्च शिवरात्रौ पावित्रया। अधोरायाञ्च प्रेतायांचन्द्रसूर्य्योपरागयोः।
भृष्टद्रव्यं परित्याज्यं भुज्यते पर-मेव च। ताम्बूलं विधवास्त्रीणां यतीनां ब्रह्मचारि-चाम्।
सन्यासिनां च गोमाससुरातुल्यं श्रुतौ श्रुतम्। रक्तशाकं मसूरञ्च जम्बीरं पर्णमेव च।
अलाबूर्वर्तुला-{??}रा वर्जनीया यतेरपि।
पर्य्यङ्कशायिनी नारी विधवापातयेत् पतिम्।
यानस्यारोहणं कृत्वा विधवा नरकंव्रजेत्। न कुर्य्यात् केशसंस्कार गात्रमस्कारमेव च। कशाषली जटारूपा न क्षौरं तीर्थकं विना।
तैलाभ्यङ्गंन कुर्वीत न हि पश्यति दर्पणम्। मुखञ्च परपुंसां चयात्रा नृत्यं महोत्सवम्। नर्त्तकं गायकञ्चैव सुवेशंपुरुषं शुभम्”।
शब्दसागरः
विधवा¦ f. (-वा) A widow. E. वि privative, धव a husband.
Apte
विधवा [vidhavā], [विगतो धवो यस्याः सा] A widow; सा नारी विधवा जाता गृहे रोदिति तत्पतिः Subhāṣ. -Comp. -आवेदनम् marrying a widow. -गामिन् m. one who has sexual intercourse with a widow.
Monier-Williams
विधवा f. ( accord. to some fr. वि+ धवSee. 2. धव, p.513) a husbandless woman , widow (also with नारी, योषित्, स्त्रीetc. ) RV. etc.
विधवा f. bereft of a king(a country) R. [ cf. Gk. ? ; Lat. vidua ; Goth. widuwo7 ; Germ. wituwa , witewe , Witwe ; Angl.Sax. wuduwe , widewe ; Eng. widow.]
Purana Encyclopedia
VIDHAVĀ A : woman whose husband is dead. In ancient India, it was ordained how a widow should live. It was allowed for a widow to get a son by her younger brother-in law to continue the family line in case the death of her husband occurred before the couple had children. The procedure about this is given in Manusmṛti, Chapter 9.
“He who goes to accept the widow with the permission of great people, should besmear his body with ghee and go to her bed in the night in a dark room. She should have only one son in this manner. After she has become pregnant, they should behave to each other as a teacher and a younger brother-in-law.”
_______________________________
*2nd word in right half of page 847 (+offset) in original book.
Vedic Index of Names and Subjects
'''Vidhavā''' denotes ‘widow’ as the ‘desolate one,’ from the root ''vidh,'' ‘be bereft.’ The masculine ''vidhava'' is conjectured by Roth St. Petersburg Dictionary, ''s.v.;
'' so also Grassmann. in a difficult passage of the Rigveda, x. 40, 8. where the received text presents the apparent false concord ''vidhantaṃ vidhavām,'' in which he sees a metrical lengthening for ''vidhavam,'' ‘the sacrificing widower.’ Ludwig in his version takes ''vidhantam'' as equivalent to a feminine, while Delbrück ''Die indogermanischen Verwandtschaftsnamen,'' 443. prefers ‘the worshipper and the widow.’ Possibly ‘the widower and the widow’ may be meant; but we know nothing of the mythological allusion in question, the feat being one of those attributed to the Aśvins, and the natural reference to '''[[घोषा|Ghoṣā]]''' as ‘husbandless’ being rendered unlikely because their feat in regard to her has already been mentioned a few verses before in the same hymn. x. 40. 5. The word [[विधवा|Vidhavā]] is not of common occurrence. Rv. iv. 18, 12;
x. 40, 2;
Ṣaḍviṃśa [[ब्राह्मण|Brāhmaṇa]], iii. 7;
[[निरुक्त|Nirukta]], iii. 15.
.जैसा कि आप ऊपर पढ़ चुके हैं कि एक विधवा 10 पुरुषों से नियोग कर सकती है।
यहाँ विधवा और वेश्या ‘शब्दों को एक अर्थ में ले लिया जाए तो ‘शायद अनुचित न होगा।
विधवाओं की दुर्दशा को चित्रित करने वाली एक फिल्म ‘वाटर’ सन् 2000 में विवादों के कारण प्रतिबंधित कर दी गई थी, जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर विधवाओं को वेश्याओं के रूप में दिखाया गया था।
प्रायः विधवा स्त्रियाँ काशी, वृन्दावन आदि तीर्थस्थानों में आकर मंदिरों में भजन-कीर्तन करके और भीख मांगकर अपनी गुजर बसर करती थी, क्योंकि समाज में उनको अशुभ और अनिष्ट सूचक समझा जाता था।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने भी इस दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘‘वृंदावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत्, लल्ला-लल्ली और गुरु-चेली आदि की लीला फैल रही है। (11-159), आज भी काशी में लगभग 16000 विधवाएं रहती हैं।
‘मनुस्मृति’ में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं।
(3-21) इनमें आर्ष, आसुर और गान्धर्व विवाह को निकृष्ट बताया गया है मगर ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों और मर्मज्ञों ने इनका भरपूर फायदा उठाया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, मुनि पराशर, कौरवों-पांडवों के पूर्वज ‘शान्तनु, पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम आदि ने उक्त प्रकार के विवाहों की आड़ में नारी के साथ क्या किया ?
इसका वर्णन भारतीय ग्रंथों में मिलता है।
भारतीय ग्रंथों में नारी को किस रूप में दर्शाया गया है आइए अति संक्षेप में इस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं। 1. ‘‘ढिठाई, अति ढिठाई और कटुवचन कहना, ये स्त्री के रूप हैं। जो जानकार हैं वह इन्हें ‘शुद्ध करता है।’’ (ऋग्वेद, 10-85-36) 2. ‘‘सर्वगुण सम्पन्न नारी अधम पुरुष से हीन है।’’ (तैत्तिरीय संहिता, 6-5-8-2) 3. नारी जन्म से अपवित्र, पापी और मूर्ख है।’’
(रामचरितमानस) उक्त तथ्यों के आधार पर भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति और दशा का आकलन हम भली-भांति कर सकते हैं।
भारतीय ग्रंथों में नारी की स्थिति दमन, दासता और भोग की वस्तु से अधिक दिखाई नहीं पड़ती।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि क्या आधुनिक भारतीय नारी चिंतकों की सोच अपने ग्रंथों से हटकर हो सकती है ? आइए भारतीय संस्कृति में नारी की दशा का आकलन करने के लिए छांदोग्य उपनिषद् के एक मुख्य प्रसंग पर भी दृष्टि डाल लेते हैं।
नाहमेतद्वेद तात यद्गोत्रस्त्वमसि, बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलमे साहमेतन्न वेद यद् गोत्रत्वमसि, जाबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो
नाम त्वमसि स सत्यकाम एव जाबालो ब्रुवीथा इति।
(छांदोग्य उपनिषद् 4-4-2) यह प्रसंग सत्यकाम का है। जिसकी माता का नाम जबाला था।
सत्यकाम गौतम ऋषि के यहाँ विद्या सीखना चाहता था। जब वह घर से जाने लगा, तब उसने अपनी माँ से पूछा ‘‘माता मैं किस गोत्र का हूँ ?’’
उसकी माँ ने उससे कहा, ‘‘बेटा मैं नहीं जानती तू किस गोत्र का है।
अपनी युवावस्था में, जब मैं अपने पिता के घर आए हुए बहुत से अतिथियों की सेवा में रहती थी, उस समय तू मेरे गर्भ में आया था।
मैं नहीं जानती तेरा गोत्र क्या है ? मेरा नाम जबाला है, तू सत्यकाम है, अपने को सत्यकाम जबाला बताना।’’
क्या उपरोक्त उद्धरणों से तथ्यात्मक रूप से यह बात साबित नहीं होती कि भारतीय चिंतन में नारी को न केवल निम्न और भोग की वस्तु बल्कि नाश्ते की प्लेट समझा गया है ?
______________________
संस्थापक- "सजग समाज" के संस्थापक
सामाजिक नव क्रान्ति के पुरोधा कलम के यौद्धा गुरु जी भीष्म पाल सिंह यादव(M.J.) के शब्दों में संविधान की धाराओं के विश्लेषण के प्रसंग में
"धारा 497" बनाम "नियोग"
★मनुवादी विधान के अनुकूल है, धारा 497 की समाप्ति.
सच्चाई की अनदेखी करके, किसी भी बुराई को, पश्चिमी सभ्यता से जोड़ने और किसी भी अच्छाई को, अपनी बपौती बताने का चलन आजकल कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा, सेक्शन 377 व 497 का लेप्स भी, कथित श्रेष्ठों तथा धर्माधिकारियों की दृष्टि में वेस्टन कल्चर को बढ़ावा देना है।
जबकि हक़ीक़त इसके विपरीत यह है कि, पश्चिम के ही विद्वान, लॉर्ड मैकाले ने सन 1860 में, आईपीसी की ड्राफ्टिंग करते हुए, इन धाराओं के जरिए समलैंगिकता और व्यभिचार (अडल्ट्री) को अपराध करार दिया था। जबकि, वैदिक काल से ही इन दोनों धाराओं से सम्बन्धित यौनाचार की स्वच्छन्दता थी।
एक्ट 377 के सम्बन्ध में, उसकी समाप्ति पर, हम पिछली पोस्ट में विचार कर चुके हैं। आइए! आज, एक्ट 497 की समाप्ति पर विचार करते हैं।
धारा 497, एक पुरुष द्वारा, दूसरे पुरुष की पत्नी की मर्जी से जारकर्म को, अपराध मानते हुए, उस स्त्री के पति को, उस पुरुष को आरोपित करने का अधिकार देती है किन्तु, आरोपी की पत्नी को अपने पति के विरुद्ध शिकायत का अधिकार नहीं देती।
पुरुषप्रधान समाज में, यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था पत्नी को पति की मलिकियत साबित करती है, जिसका विरोध करते हुए लम्बे समय से इस सेक्शन की समाप्ति की माँग हो रही थी। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने, कल 27 सितम्बर 2018 को समाप्त कर दिया है।
धारा 497 की समाप्ति, वैदिक काल के नियोग सम्बन्धी, मनुवादी विधान के भी अनुकूल है।
जिसमें विवाहित और विधवा नारियों को, गैर मर्दों से दस-2 पुत्र पैदा करने का अधिकार था।
वेद और स्मृतियों में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। 'आर्यसमाज' के संस्थापक 'दयानन्द सरस्वती' स्वयं, नियोग के बड़े हिमायती थे।
अपने द्वारा रचित और आर्यसमाज की 'बाइबिल' मानी जाने वाली पुस्तक 'सत्यार्थप्रकाश' के चतुर्थ समुल्लास में वे, नियोग का खुला समर्थन करते हुए विस्तार से, इस सम्बंध में प्रश्नकर्ता के सवालों का ज़वाब देते हैं।
पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध सम्भव न हो पाने की स्थिति में जब उनसे न रहा जाय, तो क्या करें? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे, नियोग के द्वारा कामतृप्ति करने की स्वीकृति देते हैं। साथ ही, 'वेद' तथा 'मनुस्मृति' से इसके समर्थन में प्रमाण भी देते हैं।
👎पति की अनुपस्थिति में नियोग.
प्रोषितो धर्मकार्यार्थं
प्रतीक्ष्यौऽष्टौ नरः समाः।
विद्यार्थं षड् यशोऽर्थं वा
कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्।।
मनुस्मृति 9/76
भावार्थ- विवाहित स्त्री; जो विवाहित पति, धर्म के अर्थ परदेश गया हो, तो आठ वर्ष, विद्या और कीर्ति के लिए गया हो तो छह वर्ष, और धनादि कामना के लिए गया हो, तो तीन वर्ष तक वाट देख के, पश्चात नियोग करके, सन्तानोत्पत्ति करले। जब विवाहित पुरुष आवे, तब नियुक्त पुरुष छूट जावे।
तथापि...
वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे
दशमे तु मृतप्रजाः।
एकादशे स्त्रीजननी
सद्यस्त्वप्रियवादिनी।।
मनुस्मृति 9/81
भावार्थ- वैसे ही पुरुष के लिए भी नियम है, जब विवाह से आठ वर्ष तक स्त्री को गर्भ न रहै, वन्ध्या हो, तो आठवें, सन्तान होकर मर जायें तो दशवें, कन्या ही होवें पुत्र न होवें तो ग्यारहवें, और जो स्त्री अप्रिय बोलने वाली होवे, तो तुरन्त उसको छोड़ के, दूसरी स्त्री से नियोग करके, सन्तानोत्पत्ति कर लेवे।
👎इंद्र के द्वारा गर्भाधान.
इमां त्वमिन्द्र मीढवः
सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि
पतिमेकादशं कृधि।।
ऋग्वेद 10/85/45
भावार्थ- हे वीर्यसेचन में समर्थ इंद्र! तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठपुत्र और सौभाग्ययुक्त कर। इस विवाहित स्त्री में दश पुत्र उतपन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी नियुक्त पुरुषों से दश सन्तान उतपन्न कर और ग्यारहवां पति को समझ।
उपरोक्त उदाहरण हमें, तत्कालीन समाज को समझने के लिए बहुत कुछ समझा देते हैं।
★नए-पुराने विधानों की यह खास-2 बातें, खास-2 लोगों के लिए थीं, और हैं।
बमुश्किल गृहस्थी की गाड़ी को हाँफते हुए खींचने वाले 'आम आदमी' को इस सबकी फ़ुर्सत ही कहाँ?
👍सामंजस्य बिठाकर, सौहार्द और नैतिकता के साथ, दांम्पत्य जीवन का आनन्द उठाते हुए, एक जिम्मेदार नागरिक बन कर, देश व समाज की प्रगति में, अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें।
sugarka.com
जवाब देंहटाएं