शुक्रवार, 22 जून 2018

कृष्ण का चरित्र पुराणों से पूर्व स्पष्ट रूप से हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇

क्या आप कृष्ण को पुराणों और महाभारत तक ही सीमित मानते हो ?
क्या कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए अनेक सिद्धान्त विहीन व मन गड़न्त कथाऐं नहीं जोड़ी गयीं ?
कृष्ण का चरित्र प्रमाण पुराणों से पूर्व (पहले )स्पष्ट रूप से हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇

छान्दोग्य उपनिषद  :--(3.17.6 )
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् ।
वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोराङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
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उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
वस्तुत यहाँ पुराणों के अवतार वाद से कोई तात्पर्य नहीं है ।
अवतार वाद की प्रस्तुति करण ही गलत है ।
यह अवतार वाद इसाईयों का ईशपुत्र वाद ही है ।
जिसे इस्लामीय संस्कृतियों में नुबूवत या नवी वाद कहा गया  ।

ईश्वरीय शक्ति किसी भी व्यक्ति के माध्यम से अवतरित होगी -जो  पात्र हो ।
यह तो सम्भव है ; परन्तु वह अनन्त ईश्वर किसी एक व्यक्ति के रूप में ही अवतरित हो यह असम्भव व प्राकृतिक सिद्धान्तों के पूर्णत: विपरीत है ।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था 
परन्तु यहाँ  भी अतिरञ्जना हुई अवतार वाद के द्वारा ।
और फिर रूढि वादी  पुरोहितों ने अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं कृष्ण के साथ समायोजित कर दी
जैसे- जमुना नदी को ही उनकी चौथी पटरानी बना दिया । शम्बर असुर का बध करा दिया ।
---जो कि ऋग्वेद में इन्द्र का शत्रु है और कोल जन-जाति का है और चमार शब्द का आदि रूप ।😎
अनेक  असुरों का संहार करा दिया । परन्तु ये केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
क्योंकि असुर असीरियन जन जाति के लोग थे ---जो यहूदीयों के सजातीय सेैेमेटिक ( सोम वंशी) लोग थे ।
जिसे भारतीय पुराणों में सोम करके चन्द्रमा के रूप में कल्पित कर दिया ।
असुरों का प्रादुर्भाव सुमेरियन अक्काडियन एवं हिब्रू पुरातन कथाओं में प्राप्त होता है ।
पुराणों में सोम वंशीयों तथा असुरों के गुरु शुक्राचार्य दर्शाये गये हैं ।
भागवतपुराण के नवम् स्कन्ध के छठवें श्लोक में वर्णन है कि -
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" शुक्रो बृहस्पतेर्द्वेषादग्रहीत् ( पाठान्तर ग्रहीदसुरोदयम्) सासुरोड्डपम्।
हरो गुरू सुतं स्नेहात् सर्वभूतगणावृत: ।।7।
अर्थानुवाद:- शुक्राचार्य ने बृहस्पति के द्वेष से प्रेरित होकर असुरों के साथ सोम ( चन्द्र) का भी पक्ष लिया 6।।
ऋग्वेद में कृष्ण को स्पष्टत: असुर अथवा अदेव कहा है
---जो यमुना की तलहटी में चरावाहे के रूप में इन्द्र से युद्ध करते हैं वह भी दश हजार गोप मण्डली के साथ -
और गीता में भी उसी शिक्षा का प्रतिपादन किया ---जो द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध है  गीता में कुछ श्लोक ही कृष्ण के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं । लगभग 100 के करीब श्लोक उनके ही माध्यम से  कृष्ण ने  द्रविड संस्कृति को प्रकाशित किया है ।
और तो ब्राह्मणों की भेड़ चाल है ।
परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:"
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम"
क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है
🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠🎠
विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् ।
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ गायें चराता है ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाऐं चराता रहता है ।
चराने वाला होने से ही चरन्तम् क्रिया पद का प्रयोग हुआ है । जो प्रमाणित करता है कि  कृष्ण गोप अथवा आभीर या अभीरः जन जाति से सम्बद्ध हैं ।

ऋग्वेद के  दशममण्डल मण्डल में  यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें--जो यदु को दास अथवा असुर कहती है
और वह भी गोप के रूप में 👇

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में हुआ है ।
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कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त  वरुण , अग्नि आदि का वाचक भी है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है।
उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे।
यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।
अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।
(ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।
(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है।
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे । इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है । यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा
क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नी़ामित है। और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है
इसी लिए इन्हें सेमेटिक
सोम वंश का कहा जाता है
पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की  बात नहीं है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें--जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )
इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं ।
जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।

जब वेदों में ही यादवों और यादवों के आदि पुरुष यदु के विषय में  पुरोहितों की दुर्भावना अभिव्यञ्जित हुई हो तो वे यदु कृष्ण के विषय में कब सद्भावना रखेंगे
देखें--- वेदों की ऋचाओं में यदु को एक असुर के रूप में प्रस्तुत कर उसकी पराजय की कामना की गयी हैं

ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक--
इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है ।
वह भी दास अथवा असुर रूप में
दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ देव संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।
परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। 
वह भी गोपों को रूप में
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     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में हुआ है ।
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
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हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)

ऋग्वेद में भी  यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे  सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम  इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले  ! सोम रस ने ही  तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों  (यहूदीयों ) को  शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं 
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है  देखें--और भी
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७)
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हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
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यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में  दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत्
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है ।
ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है । ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है । जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है।
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
"यह समग्र शोध श्रृंखला यादव योगेश कुमार''रोहि'के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है "
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ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है ।
🐂जो अहीरों का वाचक है ।
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है । उसमें अहीरों के अन्य नाम-  पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा
गोपालः
समानार्थक: १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य,३-गोधुक्,४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द,७-गोप
(2।9।57।2।5 अमरकोशः)
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥
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पुराणों में कृष्ण को  प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में  राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था ।
बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को  विलास पुरुष बना दिया ।"
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कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।
अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर:इतिभाषायां गुर्जर) जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ हैं।
पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।
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सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।

कुछ नास्तिक बुद्धि के लोग मुझको अहंकारी होने का उपदेश देते हैं ।
क्या आप कृष्ण को पुराणों और महाभारत तक ही सीमित मानते हो ?
क्या कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए अनेक सिद्धान्त विहीन व मन गड़न्त कथाऐं नहीं जोड़ी गयीं ?
कृष्ण का चरित्र पुराणों से पूर्व स्पष्ट रूप से प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇

छान्दोग्य उपनिषद  :--(3.17.6 )
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् ।
वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोराङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
_____________________________
उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
वस्तुत यहाँ पुराणों के अवतार वाद से कोई तात्पर्य नहीं है ।
अवतार वाद की प्रस्तुति करण ही गलत है ।
यह अवतार वाद इसाईयों का ईशपुत्र वाद ही है ।
जिसे इस्लामीय संस्कृतियों में नुबूवत या नवी वाद कहा गया  ।
ईश्वरीय शक्ति किसी भी व्यक्ति के माध्यम से अवतरित होगी ---जो  पात्र हो ।
यह तो सम्भव है परन्तु वह अनन्त ईश्वर किसी एक व्यक्ति के रूप में अवतरित हो यह असम्भव व प्राकृतिक सिद्धान्तों को विपरीत है ।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था 
परन्तु यहाँ  भी अतिरञ्जना हुई अवतार वाद के द्वारा ।
और फिर रूढि वादी  पुरोहितों ने अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं कृष्ण के साथ समायोजित कर दी
जैसे- जमुना नदी को ही उनकी चौथी पटरानी बना दिया । शम्बर असुर का बध करा दिया ।
---जो कि ऋग्वेद में इन्द्र का शत्रु है और कोल जन-जाति का है और चमार शब्द का आदि रूप ।😎
अनेक  असुरों का संहार करा दिया । परन्तु ये केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
क्योंकि असुर असीरियन जन जाति के लोग थे ---जो यहूदीयों के सजातीय सेमेटिक ( सोम वंशी) लोग थे ।
पुराणों में सोम वंशीयों तथा असुरों के गुरु शुक्राचार दर्शाये गये हैं ।
ऋग्वेद में कृष्ण को स्पष्टत: असुर अथवा अदेव कहा है
---जो यमुना की तलहटी में चरावाह के रूप में इन्द्र से युद्ध करते हैं दश हजार गोप मण्डली के साथ -
और गीता में भी उसी शिक्षा का प्रतिपादन किया ---जो द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध है  गीता में कुछ श्लोक ही कृष्ण के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं । लगभग 100 के करीब उनके ही माध्यम से  कृष्ण ने  द्रविड संस्कृति को प्रकाशित किया है ।
और तो ब्राह्मणों की भेड़ चाल है ।
परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:"
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम"
क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है
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विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् ।
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
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कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त  वरुण , अग्नि आदि का वाचक भी है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है।
उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल 15 स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति 3.8) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इन्द्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे।
यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।
अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इन्द्र ने अपने वज्र से मार डाला था।
(ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।
(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है।
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे । इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है ।
यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा
क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नी़ामित है।
और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है
इसी लिए इन्हें सेमेटिक
सोम वंश का कहा जाता है
पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की  बात नहीं है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें--जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )
इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं ।
जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।

इतना ही नहीं

जब वेदों में ही यादवों और यादवों के आदि पुरुष यदु के विषय में  पुरोहितों की दुर्भावना अभिव्यञ्जित हुई हो तो वे यदु कृष्ण के विषय में कब सद्भावना रखेंगे
देखें--- वेदों की ऋचाओं में यदु को एक असुर के रूप में प्रस्तुत कर उसकी पराजय की कामना की गयी हैं

ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक--
इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है ।
वह भी दास अथवा असुर रूप में
दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ देव संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।
परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं । शम्बर ---जो असुर है औ वैदिक सन्दर्भों में जिसका वर्णन है ।
तथा ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के तृतीय सूक्त के छठे . श्लोकाँश में यही तथ्य पूर्ण- रूपेण प्रतिध्वनित है ।
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  उत दासं कौलितरं बृहत: पर्वतात् अधि आवहन इन्द्र  शम्बरम् " ऋग्वेद-२/३/६..
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अर्थात् शम्बर के पिता कोलों के राजा थे ।
इसी शम्बर का युद्ध देव संस्कृति के अनुयायी भारत में आगत आर्यों से हुआ था |
जो इन्द्र के उपासक थे ।
इस सूक्त के अंश में कहा गया है " कि शम्बर नामक दास जो कोलों का मुखिया है पर्वतों से नीचे इन्द्र ने युद्ध में गिरा दिया "
ऐसा ऋग्वेद में वर्णन है ।
अब पुराणों में भी शम्बर को प्रद्धुम्न का अपहरण कर्ता बताया गया है ।
दास के रूप में यदु का वर्णन और शम्बर असुर का वर्णन दौनों को सजातीय सिद्ध कर रहे हैं ।😑
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। 
वह भी गोपों को रूप में
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     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में हुआ है ।
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
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हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)

ऋग्वेद में भी  यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे  सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम  इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले  ! सोम रस ने ही  तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों  (यहूदीयों ) को  शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं 
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है  देखें--और भी
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७)
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हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
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यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में  दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत्
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है ।
ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है । ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है । जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है।
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
"यह समग्र शोध श्रृंखला यादव योगेश कुमार''रोहि'के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है "
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ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है ।
🐂जो अहीरों का वाचक है ।
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है । उसमें अहीरों के अन्य नाम-  पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा
गोपालः
समानार्थक: १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य,३-गोधुक्,४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द,७-गोप
(2।9।57।2।5 अमरकोशः)
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥
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पुराणों में कृष्ण को  प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में  राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को  विलास पुरुष बना दिया ।"
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कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।
अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर:इतिभाषायां गुर्जर) जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ हैं।
पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।
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सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।

कुछ नास्तिक बुद्धि के लोग मुझको अहंकारी होने का लाँछन लगाते हैं ! और कृष्ण को कामी फरेबी आदि घोषित करते हैं। ---मैं मानता हूँ कि कृष्ण के चरित्र को एक कूटनाति के तहत दूषित करने का बड़ी उपक्रम किया गया है ।
क्या वह अहंकार नहीं है कि विना "किसी व्यक्ति के  विषय में पूर्ण जाने हुए  ही  " उसको गलत सिद्ध ठहरा देना "
कृष्ण के विषय में भी वे लोग इस प्रकार की बातें करते हैं ।
---मैं इसे उनका अहंकार और पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होना ही मानता हूँ !
जिस व्यक्ति के विषय में दुश्मनों द्वारा भी कुछ बातें सही कहीं जाती हों और बहुत सी गलत !
तो समझ लेना चाहिए कि वह व्यक्ति कहीं भी गलत नहीं है ।यह एक मनोवैज्ञानिकता है ।

अब उपर्युक्त ऋचाओं में जब भारतीय वैदिक परम्पराओं से सम्बद्ध पुरोहित यदु और तुर्वसु को हेय रूप में वर्णित करते हों तो उनके वंशज कृष्ण को क्या पूर्ण रूपेण वास्तविक रूप में सम्मान देते हुए वर्णित करेंगे  ? सायद कदापि नहीं
इसी लिए बहुतायत अंश में पुराणों में
क्या कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए अनेक सिद्धान्त विहीन व मन गड़न्त कथाऐं नहीं जोड़ी गयीं ?

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    यादव योगेश कुमार 'रोहि'

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