गुरुवार, 7 जून 2018

गायत्री मन्त्र को अश्लील बताने वाले वही मूर्ख हैं ; जो "भो ! श्री पश्ये चूतात् फलानि पतन्ति " संस्कृत वाक्य का अर्थ करते हैं भोसरी पस्साद चूत से फलान पकरते हैं करने वाले हैं --


वेद की अधिष्ठात्री देवी गायत्री अहीर ( गोप ) की कन्या  और ज्ञान के अधिष्ठाता  कृष्ण भी अहीर( गोप) वसुदेव के पुत्र देखें प्रमाणों के दायरे में ---

पुराणों के आधार पर ---

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पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री को  नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।

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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,

      सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |

आभीरः कन्या रूपाद्या 

      शुभास्यां चारू लोचना ।७।

न देवी न च गन्धर्वीं ,

नासुरी न च पन्नगी ।

वन चास्ति तादृशी कन्या , 

यादृशी सा वराँगना ।८।

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा 

तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके 

परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध 

देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।

उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर और न  असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।

इन्द्र ने तब  उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? 

और किस की पुत्री हो ? ।८।

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गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।

एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।


पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में 

इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो  इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया   कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !

यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द । अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं ।

जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है ।

क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।

आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह

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  गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।

देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।

गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।


१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।

अब यहाँ भी देखें---

भागवत पुराण :--१०/१/२२ में भी स्पष्टत: गायत्री  आभीर अथवा गोपों की कन्या है । 

और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।

" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले ।

भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं 

पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..

तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।

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आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्

अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे  ४०

एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता

वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका  ५४

आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः


(इति श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)

ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । 

गायत्री मन्त्र ऋग्वेद का छन्द व मन्त्र दौनों रूपों में है ।

गायत्री मन्त्र' की अश्लीलता  जिनको समझ में आती है ।

 वे नि: सन्देह मूर्ख तो हैं ही ; उनका अन्त: करण भी वासनाओं से मलिन है ।
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गायत्री यद्यपि एक प्रसिद्ध वैदिक छन्द है ।
का एक महत्त्वपूर्ण मन्त्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है।
यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के छंद 3.62.10 के योग से बना है।
इस मन्त्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में स्तवन किया जाता है।
     ऋग्वेद में गायत्री मन्त्र ---
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३/६२/१०)
    जिसमें गायत्री ( ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का मानवीय करण अलंकार रूप कर में स्तवन किया गया है ।

गायत्री मन्त्र को अश्लीलता पूर्ण बताने वाले मूर्खों को संस्कृत भाषा का कुछ भी ज्ञान नहीं है !
इसलिए वे गायत्री मन्त्र का किस प्रकार अश्लील अर्थ करते हैं - जैसे यदि उनके सामने यह "भो ! श्री पश्ये चूतात् फलानि पतन्ति " संस्कृत वाक्य प्रस्तुत कर दिया जाए तो वे इसकी व्याख्या करेंगे ।भोसरी पस्साद चूत से फलान पकरते हैं

गायत्री मन्त्र को अश्लील बताने वाले वही मूर्ख हैं ; जो "भो ! श्री पश्ये चूतात् फलानि पतन्ति " संस्कृत वाक्य का अर्थ करते हैं भोसरी पस्साद चूत से फलान पकरते हैं करने वाले हैं --
   परन्तु इसमें वाक्य का सही अर्थ है --"भो ! श्री पश्ये चूतात् फलानि पतन्ति= अर्थात् हे लक्ष्मी देखो आम के वृक्ष से फल गिरते हैं !
अब धूर्तों द्वारा किया गया अर्थ भी देेख लें --

उन्हीं की अशुद्ध भाषा में----नीचे👇

(नवयोनी-तांत्रिक क्रियाओं में बोला जाने वाला मंत्र):-
आप सभी 'गायत्री-मंत्र'के बारे में अवश्य ही परिचित है, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया?
शायद नहीं ! 'जिस गायत्री मंत्र और इसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये है वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है।
वास्तव में यह मंत्र नव-योनि तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है ।
इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व भद्दा है !
इसके प्रत्येक शब्द पर गहराई से गौर किया जाये तो यह किसी भी दृष्टि से अध्यात्मिक अर्थ नहीं देता ।
आईये देखे इसके प्रत्येक शब्द का विशेषण करके इसके अर्थ पर गौर करें :-

मंत्र:- “ॐ भू: भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ।”
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~गायत्री मंत्र के प्रत्येक शब्दों की अलग-अलग व्याख्या :-

भूर्भुवः (भुः भुवः),
स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं(तत् सवित उर वरणयं),
भर्गो=भार्गव/भृगु,
देवस्य(देव स्य),
धीमहि
धियो
योनः
प्र
चोद्यात ।
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•ॐ =प्रणव ।
भुः = भुमि पर ।
भुवः = आसीन / निरापद हो जाना /लेट जाना [(भूर्भुवः=भुमि पर)]।
•स्व= अपने आपको
•तत्= उस ।
•सवित= अग्नि के समान तेज, कान्तियुक्त की ।
•उर= अंक, गौदी ,जंगाओं में
वरण्यं = वरण करना, एक दूसरे के/ एकाकार हो जाना (वर-वधू) ।
•भर्गोः- देवस्य=भार्गवर्षि/विप्र(ब्राहमण) के लिये ।
•धीमहि= ध्यानस्थ होना /उसके साथ एक रूप होना | [(धी =ध्यान करना), (महि=धरा,धरती,धारिणी के/से सम्बद्ध होना)
•धियो =उनके प्रति/मन ही मन मे ध्यान कर/मुग्ध हो जाना/ भावावेश क्षमता को तीव्रता से प्रेरित करना ।
योनः= योनि/ स्त्री जननांग ।
•प्र= [उपसर्ग] दूसरों के / सन्मुख होना/ आगे करना या होना /समर्पित / समर्पण करना ।
चोदयात्= संघर्षण, मनन, मँथन, मेथुन, सहवास, समागम, सन्सर्ग के हेतु
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•सरलार्थ:- हे देवी (गायत्री), भू पर आसीन (लेटते हुए) होते हुए, उस अग्निमय और कान्तियुक्त सवितदेव के समान तेज भृगु (ब्राहमण) की जंगाओं में एकाकार होकर उनका वरण कर लो; और मन ही मन में उन्ही के प्रति भावमय होकर उनको धारण कर, पूर्ण क्षमता से अपनी योनि को संभोग (मैथुन) हेतु उन्हें समर्पित कर दो ।
कामाख्या मंदिर इसका प्रमाण है।
आप खुद जाकर देख सकते है।।।
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वैदिक धर्म का आधार सम्भोग, मांसाहार और युद्ध है। गायत्री मन्त्र सम्भोग मन्त्र है।
भारत में जैनिज्म और बुद्धिज़्म की पवित्रता की वजह से लोगो में सात्विकता आयी।
जैसे शाकाहार,दया,ध्यान,आयुर्वेदा।

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*आज इसका जो अर्थ जोड़ा गया है।
वो इस प्रकार है।।*जो किसी भी तरह से शब्दों के अर्थ मेल नहीं खाते हैं जबरन सही साबित करने की कोशिश करते हैं
ब्रह्मा ने खुद ही अपनी बेटी सावित्री, सरस्वती, और गायत्री के लिए बलात्कार किया था और गायत्री और ब्रह्मा के बीच प्रपोज को ही गायत्री मंत्र कहते हैं.
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ऊँ - ईश्वर
भू: - प्राणस्वरूप
भुव: - दु:खनाशक
स्व: - सुख स्वरूप
तत् - उस
सवितु: - तेजस्वी
वरेण्यं - श्रेष्ठ
भर्ग:- पापनाशक
देवस्य - दिव्य
धीमहि - धारण करे
धियो - बुद्धि
यो - जो
न: - हमारी
प्रचोदयात् - प्रेरित करे
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सभी को जोड़ने पर अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें।
वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।
अब आप ही देख लीजिए कोनसे शब्दो का अर्थ सही है??
और कोनसे शब्द गलत अर्थ के साथ बताये जाते है???
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अब गायत्री परिवार में पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा अर्थानुवाद
    गायत्री मन्त्र का यौगिक अर्थ वृत्ति पर आधारित 👇

ऊँ भूर्भव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गोदेवस्य धीमहि
धियो योन: प्रचोदयात्

गायत्री को वेदों की माता कहा जाता है।
इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद,  इन्हीं -ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु और संगीत आदि 64 कलाओं का निर्माण हुआ। 
इस प्रकार गायत्री समस्त ज्ञान विज्ञान की जननी एवं अधिष्ठात्री देवी हुई। जिस प्रकार बीज में विशालकाय अश्वत्थ ( पीपल )का वृक्ष छिपा होता है ठीक वैसे ही गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में संसार का पूरा ज्ञान छिपा है। जगत और कुछ भी नहीं बल्कि गायत्री का ही ज्ञान मय विस्तार है। प्रतिदिन गायत्री मन्त्र का उच्चारण और जप करने से आत्मबल बढ़ता है... एकाग्रता बढ़ती है... और व्यक्ति अधिक शान्त होता जाता है। यूं तो हजारों साल लम्बे सनातन धर्म में ऋषियों ने बहुत से प्रभावशाली मन्त्रों का अविष्कार किया है...ज्यादातर बीज मन्त्रों में ऐसी ध्वनियां होती हैं जिन्हें उचित तरीके से उच्चारित करने पर अदृश्य शक्तियां जागृत होती हैं... ठीक यही गायत्री मन्त्र के साथ भी है... इसके उच्चारण से भी शक्ति प्रकट होती है विशेष तथ्य तो ये है कि इस मंत्र के शब्दों का एक सुंदर अर्थ भी विधमान है।

ऊँ = स्वर जो आध्यात्म से भरा है, मूलध्वनि है
भू = धरती या भूमि
भुर्व:= वातावरण
स्व:= अंतरिक्ष या स्वर्ग
तत् = वह
सवितुर् = सूर्य या तेजोमय
वरेण्यं = नमन या वरण करने योग्य
भर्गो = महत्ता या शक्ति
देवस्य = भगवान का
धीमहि = ध्यान करें !
धियो = ज्ञान का
यो =  (य:) विसर्ग से परे स्वर या व्यंजन आने से विसर्ग में जो विकार होता है, उसे विसर्ग संधि कहते है ।
विसर्ग संधि के नियम
१. यदि ‘अ’ से परे विसर्ग हो और उसके सामने वर्ग का तीसरा, चौथा, या पाँचवा वर्ग अथवा य, र, ल, व, में से कोई वर्ग हो तो विसर्ग ‘अः’ के स्थान पर ‘ओ’ हो जाता है । अत: य: में अ स्वर के बाद : (विसर्ग)है ।
वस्तुत: योन यौनि शब्द का रूप नहीं है
जैसे – मनः + हर = मनोहर           मनः + योग = मनोयोग. आदि....
न: = हमारे या हमें
प्रचोदयात् = देने का आग्रह से
भाव - परम पिता परमेश्वर, जो धरती, आकाश और ब्रह्मांड के स्वामी हैं... जो दिव्यमान ज्योति हैं... और नमन के योग्य हैं... उस शक्तिमान देव का मैं ध्यान करता हूं... और उनसे ज्ञान की याचना करता हूं।

गायत्री मन्त्र कहीं से भी अश्लील नहीं है ।
य:  न: विसर्ग सन्धि रूप य: = जो न: = हमारे लिए (अस्मभ्यं का वैदिक रूप)  चुद् धातु का प्रचीन भारोपीय रूप चोद्यम्, क्ली, (चोदयति प्रेरयति चित्तं रसविशेषे अनेनेति । चुद् + णिच् + ण्यत् ।) अद्भुतम् । प्रश्नः । इति मेदिनी । ये, २३ ॥ (यथा, महा- भारते । ५ । ४३ । ३४ । “सत्यं ध्यानं समाधानं चोद्यं षैराग्यमेव च । अस्तेयं ब्रह्मचर्य्यञ्च तथासंग्रहमेव च ॥”)

चोद्यः, त्रि, (चोदयितुं प्रेरयितुं योग्यः । “अर्हे कृत्यतृचश्च ” ३ । ३ । १६९ । इति यत् ) चोदनार्हः । प्रेरणयोग्यः । इति मेदिनी । ये, २३ ॥ (यथा, महाभारते । ५ । ३८ । ७ । “नीवारमूलेङ्गुदशाकवृत्तिः सुसंयता चाग्निकार्य्येषु चोद्यः । वने वसन्नतिथिष्वप्रमत्तो धुरन्धरः पुण्यकृदेष तापसः )
अमरकोशः
चोद्य नपुं०
अद्भुतप्रश्नः
समानार्थक:चोद्य,आक्षेप,अभियोग
1।6।17।2।1
सुप्रलापः सुवचनमपलापस्तु निह्नवः। चोद्यमाक्षेपाभियोगौ शापाक्रोशौ दुरेषणा॥
अस्त्री चाटु चटु श्लाघा प्रेम्णा मिथ्या विकत्थनम्. सन्देशवाग्वाचिकं स्याद्वाग्भेदास्तु त्रिषूत्तरे॥

सवितु: सविता शब्द का षष्टी एक वचन सम्बन्ध कारक का रूप।
स्व: स्वर तथा प्रकाश स्वरूप।
भृगुः, पुल्लिंग संज्ञा शब्द- (तपसा भृज्ज्यते पञ्चतापादिभिर्वेति भृगुः अर्थात् तप के द्वारा पञ्च तापों को समाप्त करता है वह भृगुः है ।
भ्रस्ज + “प्रथिम्रादिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च ।” उणादि सूत्र १ । २९ ।
इति कुः सम्प्रसारणं सलोपः, न्यङ्कादित्वात् कुत्वञ्च । यद्वा भृज्जतीति क्विप् । भृक् ज्वाला तया सहोत्पन्न इति उः भृगुः भृक् ज्वाला के साथ उत्पन्न ज्ञान रूप ऋषि ।) 

इस मन्त्र में अश्लीलता का दर्शन करने वाले
इन शब्दों के स्वरूप तथा अर्थ से भ्रमित हैैं
1-यो न: = पद विसर्ग सन्धि-
" अतोरोरप्लुतादप्लुते हशि च" पाणिनीय अष्टाध्यायी -(6/1/113/.... तथा 6/1/114) सन्धि सूत्र से --य: + न: = योन: सिद्ध होता है ।
सन्धि सूत्र की व्याख्या इस प्रकार है :- यदि अप्लुत् अत् ( ह्रस्व "अ " से परे रु (र्) के स्थान पर(उ) हो जाता है । यदि इसके बाद अत् ( ह्रस्व अ ) हो यथा - बालस्+ अस्ति  > बालर् + अस्ति  > बाल उ+अस्ति  फिर गुण सन्धि से बालो८स्ति ।
हशि च सूत्र से अप्लुत अत् ( ह्रस्व अ) से परे  रु र् को उ  हो जाता है ।यदि हश् प्रत्याहार ( ह य व र ल ञ म ड. ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ) परे हो तो -
उदाहरण- य: न -योन: कृष्ण: नमति - कृष्णो नमति ।
प्र च उदयात्  गुण सन्धि से प्रचोदयात् -- और प्रकृष्ट रूप से उदय होने से -
अथवा
चुद् नुदि प्रेरणायाम्  ।  इति कविकल्पद्रुमः ।।
(चुरादिगणीय सकं-सेट् । अर्थात्  )  नुदि प्रेरणे । 
क  चोदयति बाणं चापः । अर्थात् बाण को धनुष पर रखकर कौन प्रेरित करता है । इति दुर्गादासः ।।

यो न: प्र च उदयात् का अर्थ हुआ - ---जो  ज्ञान स्वरूपा देवी हमारे लिए प्रकृष्ट रूप से उदय होने से
षष्ठी धियःधियोःधियाम् सप्तमी धियि धियोः धीषु

इसमें अश्लीलता कहीं नहीं है

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