बुधवार, 27 जून 2018

भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग--- यादव योगेश कुमार 'रोहि'

रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना ।।८

                (भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)
भगवन् आपने बताया कि बलराम बलराम रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देव की के पत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है?

तब द्वित्तीय अध्याय श्लोक संख्या 8 में शुकदेव परिक्षित को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6।
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।
रोहिणी वसुदेवस्य भार्या८८स्ते नन्द गोकुले ।।
अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।।7
देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8
अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।9।
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सबकुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जी रहे हैं। तब उन्होंने अपना योगमाया को आदेश दिया।6। कि  देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ  वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है । वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं ।उनकी और भी पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7। इस समय मेरा अंश जिसे शेश कहते हैं  देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8। कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ  देवकी का पुत्र बनुँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना !9।

अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं 👇
गर्भ संकर्षणात् तं  वै प्राहुः: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।
अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच खींचे जाने के कारण  शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे ।
अब  दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में
भागवतपुराण में गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण Etymological Analization वस्तुत करते हैं ।
अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै:!
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:
यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत।।12
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा । यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा  ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा । इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा।
परन्तु संकर्षण व्युत्पत्ति- ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है । ---जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇
संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराण कार ने कहा कि  इसका नाम संकर्षण णस लिए होगा कि
" यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा  इसी लिए इसका नाम संकर्षण भी होगा 👈👅

भागवतपुराण में एक स्थान पहले ही गोविन्द शब्द का प्रयोग है । दशम् स्कन्ध अध्याय ६में  👇
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव 25। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की , परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार की रक्षा करे ।खेलते समय गोविन्द रक्षा करे !लेते समय माधव रक्षा करे !
अब कृष्ण को इन्द्र ने गोविन्द नाम किस प्रकार दिया ?
दशम् स्कन्ध अध्याय 28 में  वर्णन है कि 👇
शुकवाच-
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि: पयसा८८त्मन:।
जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: 22।
इन्द्र: सुरषिर्भि: साकं नोदितो देवमातृभि:।
अभ्यषिञ्चित दाशार्हं  गोविन्द इति चाभ्यधात् ।।23।
अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से एेसा कहकर  कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ  यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको गोविन्द नाम प्रदान किया !

भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22
दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।

भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक हैं
जैसे- 👇
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् ( पाठान्तरण-भयार्दितान्)।
यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।।15।
सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान् ।
न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।।16
अर्थात् श्रीकृष्ण ने ---जो कंस के भय से  व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे उन यदुवंशी वृष्णि वंशी अन्धक वंशी मधुवंशी दाशार्हं वंशी और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़  ढूँढ़  कर बुलाया !अब
यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि क्या वृष्णि अन्धक मधु दाशार्हं और कुकुर वंशी यादव नहीं थे !👅

एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराण कार ने वर्णित किया है कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति ---जो केकय देश में ब्याही थी  की पुत्री भद्रा थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही कृष्ण के साथ विवाह कर दिया।
श्रुतकीर्ति: सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसु: ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण: सन्तर्दनादिभि:।।56।

भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के 31वें अध्याय के 24 वें श्लोक में वर्णन है कि
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आये। वहाँसबको बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की वीर यात्रा की !
कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है

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