मंगलवार, 26 जून 2018

यादवों के सनातन गोपालन वृत्ति से सम्बद्ध विशेषण गोप और आभीर ----विचार विश्लेषण---यादव योगेश कुमार 'रोहि'

भारत में जादौन ठाकुर तो जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
क्योंकि अफगानिस्तान अथवा सिन्धु नदी के मुअाने पर बसे हुए जादौन पठानों का सामन्तीय अथवा जमीदारीय
खिताब था तक्वुर जो  भारतीय भाषाओं में ठक्कुर - ठाकुर ,टैंगॉर तथा ठाकरे रूपों में प्रकाशित हुआ।
जमीदारी खिताबो के तौर पर भारत में  इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए सबसे पहले हुआ ---जो तुर्की काल में जागीरों के या भू-खण्डों के मालिक थे ।
उस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय प्राय द्वीप में इस्लामीय विचार धाराओं का भी आग़ाज (प्रारम्भ) नहीं हुआ था। उसके लगभग एक शतक बाद ई०सन् 712 में मौहम्मद बिन-काशिम अरब़ से चल कर ईरान में होता हुआ भारत में सिन्धु के मुहाने पर उपस्थित होता है।
उस समय जादौन पठानों के कबीलों में अपने रुतबे का इज़हार करने के लिए सामन्तीय अथवा जमीदारीय
खिताब के रूप में तक्वुर( tekvur) शब्द का प्रचलन था ।
Origin and meaning
The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown".  It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople. The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber". It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and
From Middle Armenian թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
Attested in Ibn Bibi's works......
(Classical Persian)  /tækˈwuɾ/
(Iranian Persian) /tækˈvoɾ/
تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण  ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-hâ))
alternative form of
Persian
in Dehkhoda Dictionary
तुर्कों की कुछ शाखाऐं सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से यहाँ आकर बसीं।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।
यहाँ हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था।
     उसके राज्यविस्तार के पतन के बाद यहाँ विदेशीयों हूणों कुषाणों तथा तुर्कों एवं सीथियन Scythian जन-जातियाें का राजपूतीकरण हुआ ।
जिनमें सिन्धु और अफगानिस्तान के गादौन / जादौन पठानों की भी संख्या थी।
ठाकुर शब्द के मूल रूप के विषय में हम आपको बताऐं!
कि तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदिय हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे
ठक्कुर के रूप में लिखा गया है।
कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे ।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलती थी।
और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में  उल्लेख करते हैं।
कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे "
उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ई०सन् के समकक्ष रहा है । भारत में यहाँ हर्षवर्धन का शासन तब क्षीण होता जारहा  था ।
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उस्मान को शिया लोग ख़लीफा नहीं मानते थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान  (644-656  राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप  में निर्वाचित किया गया था।
उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा ।
इन्हीं के मार्ग दर्शन में तुर्कों ने इस्लामीय मज़हब को स्वीकार किया।
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ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी  संस्कृति
में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित था पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है।
इस कथा की पृष्ठ-भूमि के  अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून थे ।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में  भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह तीसरे खंड का 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे। तथा
इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ;
तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है।
राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय
ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों  पर आक्रमण किया था ; औरअपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप "
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी कर्म काण्ड परक धर्म -व्यवस्था कायम की
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"चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप में देखते हैं "
जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं
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सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठक्कुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है । इसके कुछ समय बाद
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाने लगी ।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । 
और यह शब्द का आगमन छठी से बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
महमूद गजनबी ने 1000-1030 र्इ. और मुहम्मद गोरी ने 1175-1205 र्इ. के मध्य भारत पर आक्रमण किए थे ; ये भी मंगोलियन तुर्की थे । तभी से तक्वुर ठक्कुर रूप धारण कर संस्कृत भाषा में समाविष्ट हुआ।

और इसका प्रचलन विस्तारित तक्वुर tekvur खिताब 16 वीं सदी की संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द रूप में  ; संस्कृत और फारसी बहिन बहिन होने से जादौन लोगों की बोली (क्षेत्रिय भाषा) डिंगल और पिंगल प्रभाव वाली राजस्थानी व्रज उपभाषा का ही रूप है । जो राजस्थान करौली( कुकुरावली) क्षेत्रों की रही है ।
और जादौन पठानों की भाषा पश्तो , पहलवी पर जिनका  पूरा प्रभाव है ।
जादौन पठान यहूदीयों की शाखा होने से यदुवंशी तो हैं ही । परन्तु गोपों या अहीरों से स्वयं को सम्बद्ध न मानना इनको जादौन पठानों की भारतीय शाखा सूचित करता है ।
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ये कहते हैं कि हमारा गोपों से कोई सम्बन्ध नहीं है  परन्तु इतिहास कार अहीरों को ही यादव मानने के पक्ष में ।
क्योंकि यादव ही सदीयों से गोपालन करने वाले रहे हैं ।
इसी लिए गोप विशेषण केवल यादवों को रूढ़ हो गया । संस्कृत भाषा में गोप शब्द का अर्थ:-
(गां गोजातिं पाति रक्षतीति गोप: । (गो + पा + कः)  जातिविशेषः यादव ।
गोयल इति हिन्दी भाषा में॥
तत् पर्य्यायः १ गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ गोप:।
इति अमरःकोश ।२।९ ।५७ ॥
हम आप को बताऐं कि अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है।
इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है। इसके रचनाकार अमरसिंह  बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे। कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।
इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं।
इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
और अमर सिंह ने आभीर तथा गोप परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित कर यादवों के व्यवसाय परक विशेषण माने हैं ।
परन्तु हिन्दू समाज की  रूढि वादी ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था में तो देखिए!
कि यहाँ अहीरों को क्षत्रिय कभी नहीं माना जाना ! निश्चित रूप में यादवों के इतिहास को विकृत करने में हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों का हाथ है ।
स्मृति-ग्रन्थों का निर्माण रूढि वादी ब्राह्मणों ने की है ।
जिनमें आँशिक नैतिक मूल्यों की आढ़ में अनेक अनैतिकताओं से पूर्ण बातों का भी समायोजन कर दिया गया है ।
गोपों की काल्पनिक मनगढ़न्त व्युत्पत्ति का वर्णन
स्मृति-ग्रन्थों में भिन्न भिन्न प्रकार से है । कहीं
“मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः ।
” इति पराशरपद्धतिः ॥
अर्थात् मणि बन्ध्या में तन्त्रवाय्यां से गोप उत्पन्न हुए! तो मनु-स्मृति कार  कहीं  गोपों का वर्णन बहेलियों , चिड़ीमार ,कैवट , तथा साँप पकड़ने वालों के साथ वनचारियों के रूप में वर्णित किया है।
मनुः स्मृति में अध्याय -८ / २६० / “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल खानकान् ।
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः )
अहीरों या गोपों ने ब्राह्मणों की इस अवैध -व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया । इनकी गुलामी (दासता) स्वीकार न करके दस्यु अथवा विद्रोही बनना स्वीकार कर लिया है  !
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आइए देखें--- यादवों को कैसे वीर अथवा यौद्धा जन जाति से शूद्र बनाया गया है ?

एक वार सभी अहीर वीर इस सन्देश को ध्यान पूर्वक पढ़ें!
और उसके वाद सुझावात्मक प्रति क्रिया दें !
आपका भाई यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़-उ०प्र०
ब्राह्मण समाज तथा ख़ुद को असली यदुवंशी क्षत्रिय कहने वाले जादौन तथा अन्य राज-पूत अहीरों को यादव नहीं मानते हैं और उन्हें चोर , लुटेरा मानकर गालियाँ देते रहते हैं ।________________________________________
अहीरों के विषय में ये कहते हैं कि अहीरों अथवा गोपों ने प्रभास क्षेत्र में यदुवंशी स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था ।
इस लिए ये गोप  यदुवंशी नहीं होते हैं ।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि
गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर गोपिकाओं को क्यों लूट लिया था ?

और अहीरों के यदुवंशी न होने के लिए ये इसी बात को प्रमाणों के तौर पर पेश करते हैं ।
अब हम इसी प्रश्न का पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत करते हैं !
गोपों ने अर्जुन को इसलिए परास्त कर लूटा ---
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एक दिन जब दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिए सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे ;अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा !
इसके कुछ ही देर पश्‍चात पाण्डु पुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचा ! और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गया।
जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी द‍ृष्टि अर्जुन पर पड़ी।

पहली दृष्टि का फल----
अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा।
अर्जुन ने कहा, “भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।”
अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ।
क्योंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।”

दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन! मेरी द‍ृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो।
अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा।
किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा।
अब तुम लोग निश्‍चय कर लो कि किसे क्या चाहिये ?

अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल गोप यौद्धाओं की नारायणी सेना लेने के लिये ही आया था।
इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
अब हम घटना काआगे वर्णन करने से पूर्व
एक अक्षौहिणी सेना का मान बताते हैं ----
21870 रथ तथा 21870 हाथी तथा 65610 अश्वारोहि तथा 109350 पदाति ( पैदल सैनिक )
यह एक अक्षौहिणी सेना का मान होता था ।
संस्कृत भाषा जिसकी व्युत्पत्ति-
इस प्रकार वर्णित है👇
अक्ष+ ऊहः समूहः संविकल्पकज्ञानं वा सोऽस्यामस्ति +इनि,
अक्षाणां रथानां सर्व्वेषामिन्द्रियाणाम्
“वा ऊहिनीणत्वं वृद्धिश्च ।
रथगजतुरङ्गपदाति संख्याविशेषान्विते सेनासमूहे । “अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या चाष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः।
एवमेव रथानान्तु संख्यानं कीर्त्तितं बुधैः । पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट् शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथ्यतुरङ्गमैः ।
नॄणां शतसहस्रं तु सहस्राणि न वैवतु ।
शतानि त्रीणिचान्यानि पञ्चाशच्च पदातय इति ।
गोपों की अक्षौहिणी सेना में कुछ गोप यौद्धाओं का संहार भी हुआ ।और कुछ शेष भी बच गए थे
इन्हीं गोपों ने प्रभास क्षेत्र में परास्त कर गोपिकाओं सहित लूट लिया था 👇।
इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है ।
इसे भी देखें---👇
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय
एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-👆☝👆☝
इसी बात को महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय में वर्णन किया है परन्तु निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है अत: यह प्रक्षिप्त नकली श्लोक हैं। देखें👇

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।
अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।
कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है ।
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अर्जुन के प्रति यादवों का दूसरा बड़ा विरोध का कारण
सुभद्रा का हरण था ----
जब एक बार वृष्णि संघ, भोज और अन्धक वंश के समस्त यादव  लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया।
इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार सम्पत्ति का दान -गरीबों को दिया  गया।
बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ सज-धजकर घूम रही थीं।
अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे।
गन्धर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे।
गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी।
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं। उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगा।
कदाचित अर्जुन काम-मोहित हो गया ।
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एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की।
ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया।
जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिया।

गोप सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए !
और वहाँ सब हाल कहा।
सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया।
वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के  समस्त यादव योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे।

सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर सभी यादवों की  आंखें चढ़ गईं
उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा
उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले अर्जुन  को उचित दण्ड देने का निश्चय किया।
कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी।
तब बलराम  ने विचार किया कि अभी युद्ध का उचित समय नहीं है ।
इसलिए बलराम ने गोपों से कहा- "हे वीर योद्धाओ ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो ?"
फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- "जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय क्या है ? तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया।
यह दुस्साहस करके उसने हम समस्त यादवों को अपमानित किया है।
मैं यह कदापि नहीं सह सकता।"
तब कृष्ण बोले- भाई बलराम "अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है।
क्योंकि यादवों में तो ये वधू-अपहरण परम्परा है ही 
उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है।
क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था।
उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।" कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ यादव  लोग कसमसाए ।
और अर्जुन---से बदला लेने के लिए संकल्प बद्ध हो गये  वही नारायणी सेना के गोप रूप में यादव यौद्धा ही थे --- जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है
सन्दर्भित ग्रन्थ--
महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220
↑ श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12
गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसमें कोई सन्देह नहीं !
गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे ।

गोप यादवों का व्यवसाय परक विशेषण है ; गो-पालक होने से तथा यादव वंशगत विशेषण है । यदु की सन्तान होने से " यदोर्पत्यं इति यादव" और अभीर यादवों का ही स्वभाव गत विशेषण है ।क्योंकि ये कभी किसी से डरते नहीं हैं ।
हिब्रू बाइबिल में भी इनके इसी विशेषण को अबीर रूप में वर्णित किया है जिसका अर्थ है: वीर सामन्त अथवा यौद्धा मार्शलआरट का विशेषज्ञ ।
संस्कृत भाषा में अभीर शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण इस प्रकार है👇
अ = नहीं + भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर या अभीर वह है जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर रूप बनता है ---जो समूह अथवा सन्तान वाची है ।
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इसी लिए दुर्योधन ने इन अहीरों(गोपों) का नारायणी सेना के रूप में चुनाव किया !
और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे !

यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था ।

क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे
और कृष्ण का देहावसान हो गया था और बलदाऊ भी नहीं रहे थे । क्योंकि फिर इनको निर्देशन करने वाले बलराम तथा कृष्ण दौनों में से कोई नहीं था ।
फिर तो इन यदुवंशी गोपों ने अर्जुन पर तीव्रता से आक्रमण कर तीर कमानों से उसे परास्त कर दिया 
बहुत से यादव यौद्धा तो पहले ही आपस में लड़ कर मर गये थे ।
ये केवल कृष्ण से सम्बद्ध थे ।
नारायणी सेना के इन  गोपों ने केवल अर्जुन से ही युद्ध किया था । नकि कृष्ण की रानियों अथवा यदुवंशी गोपिकाओं के रूप में वधूओं को लूटा था !
लूटपाट के वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण व अहीरों के प्रति द्वेष भाव को अभिव्यञ्जित करने वाले लेखकों के हैं ।
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केवल यदुवंश की सभी स्त्रीयों को अर्जुन के साथ न जाने के लिये कहा ! परन्तु ---जो साथ चलने के लिए सहमत नहीं हुईं थी उन्हें प्रताडित कर चलने के लिए कहा !
बहुत सी गोपिकाऐं स्वेैच्छिक रूप से गोपों के साथ वृन्दावन तथा हरियाणा में चलीं गयी ।
यहाँ यह तथ्य भी उद्धरणीय है कि -👇
भगवान कृष्ण ने अपने अवसान काल से पूर्व अर्जुन को निर्देश दिया था कि ---हे अर्जुन आप इन सभी यदु वंशी गोप स्त्रीयों को यादव यौद्धाओं के संहार के पश्चात् अपने साथ ही ले जाना
सम्भवत: कृष्ण अर्जुन के साथ गोपियों को जानबूझ कर भेजा था ।
क्योंकि वह इस बात को भली भांति जानते थे कि यादव  योद्धा अर्जुन को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते हैं ! जब से उसने सुभद्रा का हरण किया है ।
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किन्तु यादवों के बल पौरुष और प्रभाव को अर्जुन इसीलिए झेल पा रहा था क्योंकि उसके साथ भगवान् कृष्ण थे ! 
किन्तु अर्जुन यह समझता था कि मैं परम शक्तिशाली हूं मैंने नारायणी सेना को भी परास्त कर दिया है ।
तो ये अर्जुन का भ्रम था  ।
नारायणी सेना शान्त थी कृष्ण के प्रभाव से
क्योंकि वह कृष्ण की ही सेना थी !
आज उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने शरीरान्त काल में  गोपियों को अर्जुन के साथ भेजा था ; ताकि आज उसका यह अहंकार भी खण्ड खण्ड हो जाए कि अहीरों को भी वह हरा सकता है ! कृष्ण इस तथ्य को भली-भांति जानते थे ; कि अहीर योद्धा अर्जुन को युद्ध में अवश्य ही परास्त कर देंगे और गोपियों को अपने साथ उनको ले जाएंगे और प्रभास क्षेत्र में यही हुआ।
और अहीरो को अपने यदुवंश का मान रखना था ।
और इधर कृष्ण का भी मान रखना था ।
क्योंकि कृष्ण ही नारायणी सेना के अधिपति थे ।
कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में सर्व-प्रथम सभी के सम्मुख कहा था ये नारायणी सेना अपराजेय है इस पर कोई विजय  प्राप्त नहीं कर सकता ; परन्तु उधर कृष्ण पाण्डवों के भी सारथी थे ।
कृष्ण के  रथेष्ठा अर्जुन को हराना यदुवंश और कृष्ण के ही मान का घटाना था  ।
इसलिए कृष्ण के रहते गोपों ने अर्जुन को कुछ नहीं कहा और अन्त समय में कृष्ण के अवसान काल में गोपों ने अर्जुन का भी मान मर्दन कर दिया और नारायणी सेना के अपराजेयता का संकल्प अहीरों ने अखण्ड बनाए रखा ।
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और फिर यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ;
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें 👇
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,
प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,
गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं ! तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे कल सकता था ?
क्योंकि अहीरों का मुकाबला तो त्रेता युग में राम भी नहीं कर पाये थे
पुष्य-मित्र सुंग कालीन पाखण्डी ब्राह्मणों ने वाल्मीकि-रामायण के युद्ध काण्ड के 22 में सर्ग में राम के द्वारा समु्द्र के कहने पर अहीरों को उत्तर में स्थित द्रुमकुल्य देश में अमोघ वाणों से मार दिया था । ऐसी काल्पनिक मनगढ़न्त कथाओं का समायोजन किया ।
परन्तु अहीरों को राम फिर भी नहीं मार पाये अत: यह राम की पराजय ही सिद्ध होती है ।
क्योंकि अहीर तो आज भी जिन्दा हैं।👇

वास्तविक रूप में  माना जाय ये सारी काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं मात्र हैं जो वाल्मीकि-रामायण में अहीरों को आधार करके लिखी गयी हैं।
इस कारण से की इन बातों को सत्य का आधार प्राप्त हो सके ।
यद्यपि अवान्तर काल में बहुत सी काल्पनिक घटनाओं का समायोजन पुराणों के रूप में भी हुआ  है ;जो अहीरों को हेय सिद्ध करने के लिए जोड़ा गया ।
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अहीर वस्तुत पापी , लोभी या चोर उच्चके कभी नहीं होते हैं । क्योंकि  तुलसी जैसे रूढ़ वादी सन्त कवि से भी नहीं रहा गया तो वह भी अहीरों के विषय में कह गये  "निर्मल मन अहीर निज दासा
तुलसी जैसे-रूढि वादी कवि भी अहीरों की प्रशंसा करने से अपने आप को नहीं रोक पाए हैं देखें--- रामचरित मानस का उत्तर काण्ड --👇
तेइ तृन हरित चरै जब गाई।
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
निर्मल मन अहीर निज दासा॥6॥
भावार्थ:-उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे।
निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
यहाँ भी तुलसी दास ने संकेत किया है कि अहीर किसी का गुलाम नहीं होता वह तो अपना ही मन मौजी है ।
और हरियाणा के जाट , अहीर तथा गुजरात के गूज़र (गौश्चर:) इन्हीं यदुवंशी गोपों की बिखरी हुई शाखाऐं हैं ।
---जो गौ- चारण करते करते आज कृषि करते हैं ।
और ये ही भारतीय कृषि का आधार स्तम्भ हैं।
आधुनिक काल में भी कुछ रूढि वादी काशी ब्राण्ड ब्राह्मण तथा राजपूत अहीर ,जाट तथा गूजरों को हीनता की दृष्टि से देखते हैं ।
अहीर शब्द प्राचीनत्तम है जब जाट और गुर्जर जैसे- शब्द भी अस्तित्व में नहीं थे ।__________________________________________
यादव किसी के साथ विश्वास घात कभी नहीं करते थे ।
क्यों कि यह क्षात्र-धर्म के विरुद्ध भी था ।
गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की कथा सुनने और गायन करने से मनुष्यों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं ; एेसा वर्णन है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर वर्णित है👇
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अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।
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अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं
---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो  मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।102।
👇👇👇👇👇👇👇
महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना वर्णित की गयी है ।
निश्चित रूप से वह मूल भाव से मेल नहीं खाती है ।
क्योंकि यहाँ अर्जुन और यादवों (गोपों) के युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन नहीं है ;
और अहीरों को अशुभ-दर्शी तथा पापकर्म करनेवाला, लोभी के रूप में वर्णन करना महाभारत कार की अहीरों के प्रति विकृतिपूर्ण अभिव्यक्ति मात्र है ।
इसी प्रकार का वर्णन विष्णु पुराण आदि में भी है ।
इतना ही नहीं भागवतपुराण में तो पुराण कार ने आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा गोपों को अर्जुन सहित गोपिकाओं को लूटने वाला बता गया है । और गोपों को दुष्ट विशेषण से अभिव्यक्ति किया है ।
अहीरों अथवा गोपों ने अर्जुन सहित कृष्ण की 16000 गोपिकाओं के रूप में पत्नियों को लूटा था अथवा नहीं एेसा वर्णन मात्र कल्पना रञ्जित ही है ।
निश्चित रूप से गोपों द्वारा अर्जुन को परास्त करने की घटना तो रही होगी ; परन्तु स्त्रीयाँ लूटने और धन लूटने की घटना काल्पनिक व मनगढ़न्त ही हैं ।
कुछ मूर्ख रूढ़ि वादी ब्राह्मणों ने यादवों के प्रति द्वेष स्वरूप गलत रूप में उन्हें प्रस्तुत करने के लिए ही बहुत सी काल्पनिक घटनाओं का समायोजन इनके साथ कर दिया है।
क्योंकि अर्जुन और यादवों (गोपों) के मध्य पूर्व -युद्ध की पृष्ठ-भूमि को वर्णित ही नहीं किया है ।
यादवों की किसी कन्या का अपहरण उस समय उनकी प्रतिष्ठा का विषय था । जैसा कि हर स्वाभिमानी समाज का होता भी है ।
अब गोपों ने भी एक स्त्री के अप हरण में अर्जुन के साथ चलने वाली हजारों स्त्रीयों का अपहरण किया ! और वे स्त्रीयाँ वृष्णि वंशी गोपों की पत्नी रूप में गोपिकाऐं ही थीं ।
तब भी आश्चर्य क्या ? परन्तु इनकी घटनाओं के विस्तार में कल्पना मात्र ही है ।
क्योंकि गोप गोपिकाओं का अपहरण क्यों करने लगे ?
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और आपको बतादें कि नन्द ही गोप नहीं थे अपितु यदुवंशी होने से वसुदेव और कृष्ण भी गोप थे
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में इसका प्रमाण देखें---👇
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
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गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें---
अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
उपर्युक्त संस्कृत भाषा का
अनुवादित रूप इस प्रकार है
:-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१। कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का
अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं
२४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --)
यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित---
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)

अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है। देखें👇
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य . तथा
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है
और इतना ही नहीं समस्त ब्राह्मणों की आराध्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सत्ता गायत्री भी नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या हैं ।
और उसका वर्णन भी आभीर तथा गोप शब्द के पर्याय वाची रूप में वर्णित किया है ।
तथा हरिवंश पुराणों में ही अन्यत्र भी कृष्ण ने अपना जन्म अहीरों में माना है ।👇

एतदर्थं च वासो८यं वज्रे८स्मिन् गोप जन्म च। अमीषामुत्पथस्थानां  निग्रहार्थ दुरात्मनाम्।। 58।।

इस लिए व्रज में मेरा निवास हुआ और इसलिए मैेने अहीरों (गोपों)में अवतार ग्रहण किया है कुमार्ग पर स्थित हुए सभी दुरात्माओं का दमन करने के लिए यहाँ मेरा अवतार हुआ है ।।
हरिवंश पुराण -विष्णु पर्व बाल चरित यमुना वर्णन नामक ग्यारह वाँ अध्याय )पृष्ठ संख्या 318 गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण
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और इतना ही नहीं समस्त ब्राह्मणों की आराध्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी  गायत्री भी नरेन्द्र सेन अहीर की ही कन्या हैं ।
और उसका वर्णन भी आभीर तथा गोप शब्द के पर्याय वाची रूप में वर्णित किया है ।

और अनेक भारतीय पुराणों में जैसे अग्नि- पुराण,पद्मपुराण आदि में अहीरों को देवताओं के रूप में अवतरित किया है ; और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को भी नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या के रूप में भी वर्णन किया गया है।
वहाँ भी अहीर (आभीर) तथा गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।__________________________________________
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय 16 में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।👇
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा :
आभीरः कन्या रूपाद्या
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ८।
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गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !👇

यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द ।
अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं ।
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वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..
तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।
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और सुनो !गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।

वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित किया था ।
तो यह दोष ब्राह्मणों का ही है यादवों का कदापि नहीं ।👇
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यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।
(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं
हम उनका वर्णन करते हैं ।
(ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।

परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)

स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।

गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ

यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
यहाँ एक तथ्य विचारणीय है कि असुर शब्द का पर्याय वैदिक सन्दर्भों में दास शब्द है । दास शब्द देव संस्कृति के विरुद्ध रहने वाले दाहिस्तान Dagestan को निवासीयों का विशेषण है ।

---जो ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी तथा अहुर-मज्दा (असुर महत्) में आस्था रखने वाले हैं ।
पुराणों में भी कहीं गोपों को क्षत्रिय कहा गया है; तो स्मृति-ग्रन्थों में उन्हीं गोपो को शूद्र रूप में वर्णित कर दिया है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें---
इसकी आँशिक वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं ।
यहाँ भी कुछ देखें---👇
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
स्मृति-ग्रन्थों की रचना काशी में में बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में लिखीं गयी ।
गोपों में हीन भावना भलने के लिए उन्हें शूद्र कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न कर दिया । 👇
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: -----------------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमें संशय नहीं ....
फिर पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..गोप अर्थात् अहीर शूद्र हैं ।
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।👇
जब रूढि वादी ब्राह्मणों को लगा कि अहीरों की प्रतिष्ठा हम ब्राह्मणों से भी अधिक हो रही है ।तब  ब्राह्मणों ने कपट प्रपञ्च के द्वारा अहीरों को शूद्र, दस्यु अथवा हेय रूप में वर्णित किया।
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स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..👇
_________________________________________ " वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
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अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।

देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
अत:मह् धातु का अर्थ प्रशंसायाम् के सन्दर्भों में नहीं है
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है ।
---जो एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है -जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं ।
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं ।
इतना ही नहीं अहीरों के सीधेपन को मूर्खता औ सहन शीलता को कमजोरी समझ कर इनका उपहास उड़ाने वाले भी समाज में चौराहे चौराहे पर खड़े मिल-जाते हैं।
तुलसी दास भी अहीरों को निर्मल मन और स्वाधीन मानते हैं ! तो फिर अहीरों के प्रति इतनी गन्दगी क्यों?
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नि:सन्देह जिस यदु वंश में गायत्री सदृश्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का जन्म नरेन्द्र सेन अहीर के घर में हुआ हो ।
और उन्हीं अहीरों के समाज में कृष्ण का जन्म हुआ हो
फिर अहीरों को मूर्खों की उपधियाँ क्यों दी गयी ?
अहीरों को पृथ्वी पर ईश्वरीय शक्तियाँ का रूप माना गया है ।
समस्त ब्राह्मणों की साधनाऐं गायत्री के द्वारा सिद्ध होने वाली हैं और वह गायत्री नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या है ।

कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है ।
ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि 👇
" नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने ही गोप कहलाते हैं ।
( इति ब्रह्म पुराण) और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है
गर्ग संहिता का उद्धरण हम लिख चुके हैं ।
भागवतपुराण के यद्यपि बहुतायत अंश प्रक्षिप्त (नकली) है ।
कुछ यादव विरोधी भागवतपुराण के प्रक्षिप्त नकली अंश उद्धृत करके कहते हैं कि कहते हैं कि वसुदेव और नन्द भाई नहीं थे ! परन्तु भागवतपुराण में ही वसुदेव नन्द को अपना भाई कहते हैं।👇
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: के रूप में  वर्णित किया है
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु ।
पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध पर्जन्य गोप के प्रणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।👇

वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् ।
पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47। भा०10/5/20/22
यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है ।

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63।

ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।

संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ ।
नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुई 👇

" नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।

अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा - हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि
" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68।

अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप
तथा श्री दामा गोप आदि बालक सहित थे
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में
सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर:
पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नन्द जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है
और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो!
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कुछ कथा- वाचक ---जो कृष्ण चरित्र के विवरण के लिए भागवतपुराण को आधार मानते हैं तो भागवतपुराण भी स्वयं ही परस्पर विरोधाभासी तथ्यों को समायोजित किए हुए है ।👇

रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना ।।८
(भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)

भगवन् आपने बताया कि बलराम  रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है?

तब द्वित्तीय अध्याय श्लोक संख्या 8 में शुकदेव परिक्षित को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇

भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6।
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।

रोहिणी वसुदेवस्य भार्या८८स्ते नन्द गोकुले ।।
अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।।7

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8

अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।9।
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सब कुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जी रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6। 
कि  देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ  वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है । वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं। कंस के भय से  उनकी और भी पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7।  इस समय मेरा अंश जिसे शेष कहते हैं ; देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8। कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ  देवकी का पुत्र बनुँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना !9।
प्रथम बात तो यहाँ यह प्रक्षिप्त है कि(गर्भ अन्तरण )की घटना प्राकृतिक नियमों के विपरीत हो गयी ! ---जो कि असम्भव है।उस युग में वह भी प्राकृतिक सिद्धान्तों के पूर्णत विरुद्ध !
अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं ---जो संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-के सन्दर्भ में है ।👇
गर्भ संकर्षणात् तं  वै प्राहु: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।

अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच खींचे जाने के कारण  शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे ।
अब  दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में पहले क्या लिखा है --दौनों की तुलना करें !
भागवतपुराण में गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण Etymological Analization  ही अवैज्ञानिक व असंगत है प्रस्तुत करते हैं ।
अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै:!
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:
यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत।।12
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा । यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा  ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा । इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा।
परन्तु संकर्षण व्युत्पत्ति- ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है । ---जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇
संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराण कार ने कहा कि  इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि
" यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा  इसी लिए इसका नाम संकर्षण भी होगा 👈👅
यह उपर्युक्त व्युत्पत्ति- पूर्ण रूपेण मिथ्या है ।

सङ्कर्षणम्, क्ली, आकर्षणम् ।
सम्यक्प्रकारेण कर्षणम् ।
संपूर्व्वकृष् धातोरनट्प्रत्ययेन निष्पन्नम् ॥
(यथा, भागवते । १० । २ । १३ ।
“गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः सङ्कषणं भुवि ॥” एकीकरणम् । इति स्वामी ॥ यथा, भागवते । ५ । २५ । १ । “तस्य मूलदेशे त्रिंशयोजनसहस्रान्तरे आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्याता अनन्त इति सात्वतीया द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणं अहमित्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षण इत्याचक्षते”

सङ्कर्षणः, पुं, (सम्यक् कर्षतीति । सं + कृष् + ल्युट् ) बलदेवः । इत्यमरःकोश ॥ (अस्य नामनिरुक्तिर्यथा, हरिवंशे । ५९ । ६ ।
“कर्षणेनास्य गर्भस्य स्वगर्भाच्चावितस्य वै ।
सङ्कर्षणो नाम शुभे तव पुत्त्रो भविष्यति ॥
” तथा च भागवते । १० । २ । १३ ।
गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि )
संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति वैय्याकरणिक दृष्टि से तो हरिवंश पुराण में ठीक है परन्तु प्राकृतिक घटना के रूप से नहीं !
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परन्तु मेरी शोध मान्यताओं के अनुसार कृष्ण तथा संकर्षण -जैसे शब्द कृषि संस्कृति मूल हैं ।
बल राम के हाथों में हल और उनका संकर्षण नाम इस तथ्य को सूचित करता है कि यादव ने गोचारण क्रिया से  ही कृष्ण  पद्धति का विकास किया ।
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भागवतपुराण में अन्य विक्षिप्तताओं की श्रृंखला में एक स्थान पर पहले ही गोविन्द शब्द का प्रयोग हुआ ह तब इन्द्र और कृष्ण का मिलन भी वही होता है
दशम् स्कन्ध अध्याय ६ में  👇
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव 25। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की , परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार की रक्षा करे ।खेलते समय गोविन्द रक्षा करे !लेते समय माधव रक्षा करे !
अब कृष्ण को इन्द्र ने गोविन्द नाम किस प्रकार दिया ?
दशम् स्कन्ध अध्याय 28 में  वर्णन है  👇
                       •  शुकवाच- •
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि: पयसा८८त्मन:।
जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: 22।
इन्द्र: सुरषिर्भि: साकं नोदितो देवमातृभि:।
अभ्यषिञ्चित दाशार्हं  गोविन्द इति चाभ्यधात् ।।23।
अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से एेसा कहकर  कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ  यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको गोविन्द नाम प्रदान किया !
और सबसे बडा़ प्रमाण कि भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है यह है कि भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन है।
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भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇

नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22

दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।

भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक हैं
जैसे- 👇
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् ( पाठान्तरण-भयार्दितान्)।
यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।।15।
सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान् ।
न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।।16
अर्थात् श्रीकृष्ण ने ---जो कंस के भय से  व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे ;उन यदुवंशी ,वृष्णि वंशी ,अन्धक वंशी ,मधुवंशी ,दाशार्हं वंशी ,और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर कृष्ण ने बुलाया !
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अब यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि क्या वृष्णि अन्धक मधु दाशार्हं और कुकुर वंशी यादव नहीं थे !👅
इसी प्रकार के प्रक्षिप्त नकली श्लोक यादवों के इतिहास को विकृत करने के लिए बीच बीच में डाले गये ।
एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराण कार ने वर्णित किया है कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति ---जो केकय देश में ब्याही थी उसकी पुत्री भद्रा थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही कृष्ण के साथ विवाह कर दिया।👇
श्रुतकीर्ति: सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसु: ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण: सन्तर्दनादिभि:।।56।
क्या यह यादवों की संस्कृति नष्ट करने की साजिश नहीं
कृष्ण को रास लीला का नायक बनाने वाले भी यही धूर्त लोग हैं।
और ---जो लोग कहते हैं कि सभी यदुवंशी तो शंखोद्धार तीर्थ  में ही आपस में नष्ट हो गये थे ।
तो ये बातें भी भ्रान्ति पूर्ण हैं। क्योंकि भागवतपुराण में ही यह वर्णन है 👇
भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के 31वें अध्याय के 24 वें श्लोक में वर्णन है कि
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आये। वहाँ सबको बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की वीर यात्रा की !
कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है
अत: ये भागवतपुराण भी महात्मा बुद्ध के बहुत बाद की रचना है लगभग बारहवीं सदी की ---
जिसमें कथाओं का कोई तारतम्य नहीं है ।
क्योंकि पुराणों को लिखने वाले प्रत्यक्ष दृष्टा तो थे नहीं
केवल जन श्रुतियों के आधार पर कथाऐं लिपिबद्ध की गयीं  और सब पर बाद में व्यास की मौहर लगा दी गयी
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                        इति ---

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