श्रीकृष्ण एवं उनके लीला—सहचर जैसे-
नन्द के पिता-पर्जन्य- पितामह देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थे।
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए वह निम्नांकित रूप में हैं ।
१-कृष्ण के पितामह —पर्जन्य।
२-पितामही–वरीयसी।
कृष्ण की पालिका माता यशोदा के पिता- माता जिनके कृष्ण के नाना नानी का सम्बन्ध होने पर -
३-मातामह—सुमुख।
४-मातामही –पाटला।
कृष्ण के ताऊ ( नन्द को पिता मानने पर)-
५-तातगु-ताऊ — उपनन्द एवं अभिनन्द।
६-ताई— क्रमश: तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
७-पीवरी (अभिनन्द की पत्नी)।
८-चाचा — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन ।
९-चाची — क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी),
१०-अतुल्या (नन्दन की पत्नी) ।
११-फूफा (वपस्वसापति)—महानील एवं सुनील ।
१२-बुआ क्रमश:—सुनन्दा (महानील की पत्नी),
१३-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी)।
१४-कृष्ण के पिता—महाराज नन्द।
१५-बड़ी माता—महारानी रोहिणी-(वसुदेव की पत्नी एवं बलरामजी की जननी)।
१५-माता—महारानी यशोदा ।
१६-मामा (यशोदा के भाई)—यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव।
१७-मौसा — मल्ल (पत्नी—यशस्विनी) (एक मत से मौसा का नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
१८-मौसी—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा)।
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१९-पितामह के समान पूज्य गोप —गोष्ठ, कल्लोल, करुण्ड, तुण्ड, कुटेर, पुरट आदि।
पितामही के समान पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — शिलाभेरी, शिखाम्बरा, भारुणी, भंगुरा,भंगी, भारशाखा, शिखा आदि।
२०-पिता के समकक्ष पूज्य गोप–कपिल, मंगल, पिंगल, पिंग, माठर, पीठ, पट्टिश, शंकर, संगर, भृंग, घृणि, घाटिक, सारघ, पटीर, दण्डी, केदार, सौरभेय, कलांकुर, धुरीण, धुर्व, चक्रांग, मस्कर, उत्पल, कम्बल, सुपक्ष, सौधहारीत, हरिकेश, हर, उपनन्द आदि।
२१-माता के समान पूजनीया गोपांगनागण — वत्सला, कुशला, ताली, मेदुरा, मसृणा, कृपा, शंकिनी, बिम्बिनी, मित्रा, सुभगा, भोगिनी, प्रभा, शारिका, हिंगुला, नीति, कपिला, धमनीधरा, पक्षति, पाटका, पुण्डी, सुतुण्डा, तुष्टि, अंजना, तरंगाक्षी, तरलिका, शुभदा, मालिका, अंगदा, विशाला, शल्लकी, वेणा, वर्तिका आदि।
इनके घर प्रायः आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — सुलता, गौतमी, यामी, चण्डिका आदि।
३२-मातामह के तुल्य पूज्य गोप — किल, अन्तकेल, तीलाट, कृपीट, पुरट, गोण्ड, कल्लोट्ट, कारण्ड, तरीषण, वरीषण, वीरारोह, वरारोह आदि।
३३-मातामही के तुल्य पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — भारुण्डा, जटिला, भेला, कराला, करवालिका, घर्घरा, मुखरा, घोरा, घण्टा, घोणी, सुघण्टिका, ध्वांक्षरुण्टी हण्डि, तुण्डि, डिण्डिमा, मंजुवाणिका, चक्कि, चोण्डिका, चुण्डी, पुण्डवाणिका, डामणी, डामरी, डुम्बी, डंका आदि।
३३-स्तन्यपान करानेवाली धात्रियाँ—अम्बिका तथा किलिम्बा (अम्बा), धनिष्ठा आदि।
३४-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) ।
३५-ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामदेवी आदि।
नित्य-सखा —
श्रीकृष्ण के चार प्रकारके सखा हैं—(१) सुहृद्, (२) सखा, (३) प्रियसखा, (४) प्रिय नर्मसखा। (१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं ।ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं।
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे।
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,
(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
विदूषक सखा – मधुमंगल, पुष्पांक, हासांक, हंस आदि श्रीकृष्णके विदूषक सखा हैं।
विट—कडार, भारतीबन्धु, गन्ध, वेद, वेध आदि श्रीकृष्ण के विट (प्रणय में सहायक सेवक) हैं। आयुध धारण करानेवाले सेवक—रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुव्रत, शालिक, तालिक, माली, मान, मालाधर आदि श्रीकृष्ण के वेणु, श्रृंग, मुरली, यष्टि, पाश आदि की रचना करनेवाले एवं इन्हें धारण करानेवाले तथा श्रृंगारोचित विविध वनधातु जुटानेवाले दास हैं।
वेश-विन्यास की सेवा — प्रेमकन्द, महागन्ध, दय,मकरन्द प्रभृति श्रीकृष्ण को नाना वेशों में सजाने की अन्तरंग सेवामें नियुक्त हैं। ये पुष्परससार (इत्र)—से श्रीकृष्ण के वस्त्रों को सुरभित रखते हैं। इनकी सैरन्ध्री (केश सँवारनेवाली का)-का नाम है।—मधुकन्दला। वस्त्र-संस्कारसेवा — सारंग, बकुल आदि श्रीकृष्ण के वस्त्र-संस्कार की सेवा में नियुक्त रजक हैं। अंगराग तथा पुष्पालंकरण की सेवा —सुमना, कुसुमोल्लास, पुष्पहास, हर आदि तथा सुबन्ध, सुगन्ध आदि श्रीकृष्णचन्द्र की गन्ध, अंगराग, पुष्पाभरण आदि की सेवा करते रहते हैं।
भोजन-पात्र, आसनादि की सेवा — विमल, कमल आदि श्रीकृष्ण के भोजनपात्र, आसन (पीढ़ा) आदि की सँभाल रखनेवाले परिचारक हैं।
जल की सेवा – पयोद तथा वारिद आदि श्रीकृष्णचन्द्र के यहाँ जल छानने की सेवामें निरत रहते हैं।
ताम्बूल की सेवा — श्रीकृष्णचन्द्र लिये सुरभित ताम्बूल का बीड़ा सजानेवाले हैं —सुविलास, विशालाक्ष, रसाल, जम्बुल, रसशाली, पल्लव, मंगल, फुल्ल, कोमल, कपिल आदि।
ये ताम्बूल का बीड़ा बाँधने में अत्यन्त निपुण हैं। ये सब श्रीकृष्ण के पास रहनेवाले, विविध विचित्र चेष्टा करके, नाच—कूदकर, मीठी चर्चा सुनाकर मनोरंजन करनेवाले सखा हैं।
चेट—भंगुर, भृंगार, सान्धिक, ग्रहिल आदि श्रीकृष्ण के चेट (नियत काम करनेवाले सेवक) हैं। चेटी—कुरंगी, भृंगारी, सुलम्बा, लम्बिका आदि श्रीकृष्ण की चेटियाँ हैं।
प्रमुख परिचारिकाएँ – नन्द—भवन की प्रमुख परिचारिकाएँ हैं—धनिष्ठा, चन्दनकला, गुणमाला, रतिप्रभा, तड़ित्प्रभा, तरुणी, इन्दुप्रभा, शोभा, रम्भा आदि।
धनिष्ठा तो श्रीकृष्णचन्द की धात्री तथा व्रजरानी की अत्यन्त विश्वासपात्री भी हैं।
उपर्युक्त सभी पानी छिड़कने, गोबर से आँगन आदि लीपने, दूध औटाने आदि अन्तःपुर के कार्यों में अत्यन्त कुशला हैं।
गुप्तचर और भीड़
ख राग -चर—चतुर, चारण, धीमान्, पेशल आदि इनके उत्तम चर हैं।
ये नानावेश बनाकर गोप—गोपियों में विचरण करते रहते हैं।
दूत—केलि तथा विवाद में कुशल विशारद, तुंग, वावदूक, मनोरम, नीतिसार आदि इनके कुंज–सम्मेलन के उपयोगी दूत हैं।
दूतिकाएँ — पौर्णमासी, वीरा, वृन्दा, वंशी, नान्दीमुखी, वृन्दारिका, मेना, सुबला तथा मुरली प्रभृति इनकी दूतिकाएँ हैं।
ये सब—की—सब कुशला, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन कराने में दक्षा तथा कुंजादि को स्वच्छ रखने आदि में निपुणा हैं। ये वृक्षायुर्वेद का ज्ञान रखती हैं तथा प्रिया—प्रियतम के स्नेहसे पूर्ण हैं। इनमें वृन्दा सर्वश्रेष्ठ हैं। वृन्दा तपाये हुए सोने की कान्ति के समान परम मनोहरा हैं। नील वस्त्र का परिधान धारण करती हैं तथा मुक्ताहार एवं पुष्पों से सुसज्जित रहती हैं।
ये सदा वृन्दावन में निवास करती हैं, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन चाहनेवाली हैं तथा उनके प्रेम से परिप्लुता हैं। वंदीगण — नन्द-दरबार के वन्दीगणों में सुविचित्र — रव और मधुररव श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। नर्तक — (नन्द-सभा के) इनके प्रिय नर्तक हैं — चन्द्रहास, इन्दुहास, चन्द्रमुख आदि। नट — (अभिनय करनेवाले) — इनके प्रिय नट हैं — सारंग, रसद, विलास आदि। गायक — इनके प्रिय गायक हैं — सुकण्ठ, सुधाकण्ठ आदि।
रसज्ञ तालधारी — भारत, सारद, विद्याविलास सरस आदि सर्व प्रकार की व्यवस्था में निपुण इनके तालधारी समाजीगण हैं।
मृदंग-वादक — सुधाकर, सुधानाद एवं सानन्द — ये इनके गुणी मृदंग—वादक हैं। गृहनापित — क्षौरकर्म, तैल-मर्दन, पाद-संवाहन, दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित। सौचिक (दर्जी) — इनके कुल के निपुण दर्जी का नाम है — रौचिक। रजक (धोबी) — सुमुख, दुर्लभ, रंजन आदि इनके परिवार के धोबी हैं। हड्डिप ( मेहतर) — पुण्यपुंज तथा भाग्यराशि इनके परिवार के भंगी हैं। स्वर्णकार ( सुनार) — इनके तथा इनके परिवार के लिये विविध अलंकार-आभूषण आदि बनानेवाले रंगण तथा रंकण नामक दो सुनार हैं।
कुम्भकार (कुम्हार) — पवन तथा कर्मठ नाम से इनके दो कुम्हार हैं, जो इनके परिवार के लिये प्रयुक्त होनेवाले कलश, गागर, दधिभाण्डादि बनाते हैं। काष्ठशिल्पी ( बढ़ई) — वर्द्धक तथा वर्द्धमान नाम के इनके दो कुल—बढ़ई हैं, जो इनके लिये शकट, खाट आदि लकड़ी की चीजों का निर्माण करते हैं। अन्य निजी शिल्पी एवं कारुगण — कारव, कुण्ड, कण्ठोल, करण्ड, कटुल आदि ऐसे घरेलू शिल्पी कारुगण हैं, जो इनके गृह में काम आनेवाला — जेवड़ी, मथनिया, कुठार, पेटी आदि सामान बनाते रहते हैं। चित्रकार — सुचित्र एवं विचित्र नाम के दो पटु चित्र—शिल्पी इनके प्रिय पात्र हैं।
गायें — इनकी प्रिय गायों के नाम हैं-मंगला, पिंगेक्षणा, गंगा, पिशंगी, प्रपातशृंगी, मृदंगमुखी, धूमला, शबला, मणिकस्तनी, हंसी, वंशी—प्रिया आदि।
बलीवर्द — पद्यगन्ध तथा पिशंगाक्ष आदि इनके प्रिय बैल हैं।
हरिण ( मृग) — इनके प्रिय मृग का नाम है सुरंग । मर्कट — इनका एक प्रिय बन्दर भी है, उसका नाम है — दधिलोभ। श्वान — व्याघ्र और भ्रमरक नाम के दो कुत्ते भी श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं।
हंस — इनके पास एक अत्यन्त सुमनोहर हंस भी है, जिसका नाम है — कलस्वन।
मयूर — इनके प्रिय मयूरों के नाम हैं शिखी और ताण्डविक।
तोते — इनके दक्ष और विचक्षण नाम के दो प्रिय तोते हैं।
महोद्यान — साक्षात् कल्याणरूप श्रीवृन्दावन ही इनका परम मांगलिक महोद्यान है।
क्रीड़ापर्वत — श्रीगोवर्धनपर्वत इनकी रमणीय क्रीड़ास्थली है।
घाट — इनका प्रिय घाट नीलमण्डपिका नाम से विख्यात है। मानसगंगा का पारंगघाट भी इन्हें अतिशय प्रिय है।
इस घाट पर सुविलसतरा नाम की एक नौका श्रीकृष्णचन्द्र के लिये सदा प्रस्तुत रहती है। निभृत गुहा — ‘मणिकन्दली’ नामक कन्दरा इन्हें अत्यन्त प्रिय है। मण्डप — शुभ्र, उज्ज्वल शिलाखण्डों से जटित एवं विविध सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित ‘आमोदवर्धन’ नाम का इनका निज-मण्डप है। सरोवर – इनके निज—सरोवर का नाम ‘पावन सरोवर’ है, जिसके किनारे इनके अनेक क्रीड़ाकुंज शोभायमान हैं। कुंज — इनके प्रिय कुंज का नाम ‘काममहातीर्थ’ है।
लीलापुलिन — इनके लीलापुलिन का नाम ‘अनंग-रंगभूमि’ है। निज-मन्दिर — नन्दीश्वरपर्वत पर ‘स्फुरदिन्दिर’ नामक इनका निज-मन्दिर है। दर्पण — इनके दर्पण का नाम ‘शरदिन्दु’ है। पंखा — इनके पंखे को ‘मधुमारुत’ कहा जाता है। लीला — कमल तथा गेंद — इनके पवित्र लीला—कमल का नाम ‘सदास्मेर’ है एवं गेंद का नाम ‘चित्र—कोरक’ है।
धनुष—बाण — ‘विलासकार्म्मण’ नामक स्वर्ण से मण्डित इनका धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। शृंग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है।
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वंशी — इनकी वंशी का नाम ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।
* वेणु — छः रन्ध्रोंवाले इनके सुन्दर वेणु का नाम ‘मदन-झंकार’ है।
मुरली — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरलिका का नाम ‘सरला’ है।
वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
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राग — गौड़ी तथा गुर्जरी नामको रागिनियाँ श्रीकृष्णको अतिशय प्रिय हैं।
दण्ड ( वेत्र या यष्टिक) — इनके अंत (वेत्र या लड़ी) का नाम ‘मण्डन’ है।
दोहनी — इनकी दोहनी का नाम ‘ अमृत दोहनी’ है। आभूषण — श्रीकृष्णचन्द्र के नित्य प्रयोग में आनेवाले आभूषणों में से कुछ नाम निम्नोक्त हैं — (१) नौ रत्नों से जटित ‘महारक्षा’ नामक रक्षायन्त्र इनकी भुजा में बँधा रहता है। (२) कंकण — चंकन। (३) मुद्रिका – रत्नमुखी। (४) पीताम्बर — निगमशोभन। (५) किंकिणी — कलझंकारा। (६) मंजीर — हंसगंजन। (७) हार — तारावली। (८) मणिमाला — तड़ित्प्रभा। (९) पदक — हृदयमोहन (इसपर श्रीराधा की छवि अंकित है)। (१०) मणि — कौस्तुभ। (११) कुण्डल – रत्यधिदेव और रागाधिदेव (मकराकृत)। (१२) किरीट – रत्नपार। (१३) चूड़ा — चामरडामरी। (१४) मयूरमुकुट — नवरत्न-विडम्ब। (१५) गुंजाली – रागवल्ली। (१६) माला — दृष्टिमोहिनी। (१७) तिलक — दृष्टिमोहन। चरणों में चिह्न दाहिना चरण — अँगूठे के बीच में जौ, उसके बगल में ऊध्वरेखा, मध्यमा उँगली के नीचे कमल, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, जौ के नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, कमल के नीचे ध्वजा, अंकुश के नीचे वज्र, एड़ी के मध्यभाग में अष्टकोण, उसकी चारों दिशाओं में चार सथिये (स्वस्तिक) और उनके बीच में चारों कोनों में चार जामुन के फल — इस प्रकार कुल ग्यारह चिह्न हैं। बायाँ चरण — अँगूठे के नीचे शंख, उसके बगल में मध्यमा उँगली के नीचे दो घेरों का दूसरा शंख, उन दोनों के नीचे चरण के दोनों पार्श्व को छूता हुआ बिना डोरी का धनुष, धनुष के नीचे तलवे के ठीक मध्यम गाय का खुर, खुर के नीचे त्रिकोण, त्रिकोण के नीचे अर्धचन्द्र (जिसका मुख ऊपरकी ओर है), एड़ी में मत्स्य तथा खुर एवं मत्स्य के बीच चार कलश (जिनमें से दो त्रिकोण के आसपास और दो चन्द्रमा के नीचे अगल—बगलमें स्थित हैं) — इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं।
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श्रीराधाजी, उनके परिकर एवं उनकी लीला सहचरियाँ पितामह — महीभानु।
पितामही — सुखदा (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है)।
पिता — वृषभानु ।
माता — कीर्तिदा।
पितृव्य (चाचा) — भानु, रत्नभानु एवं सुभानु ।
फूफा — काश।
बुआ — भानुमुद्रा।
भ्राता — श्रीदाम।
कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
मातामह — इन्दु।
मातामही — मुखरा।
मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
मामी — मेनका, षष्ठी, गौरी।
मौसा — कुश।
मौसी — कीर्तिमती।
धात्री — धातकी।
सखियाँ — श्रीराधाजी की पाँच प्रकार की सखियाँ हैं — (१) सखी, (२) नित्यसखी, (३) प्राणसखी, (४) प्रियसखी, (५) परम प्रेष्ठसखी।
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(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं। (२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं। (३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं। ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं। (४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं। (५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ – इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं।
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी। वनवासिनी सखियाँ — मल्ली, भृंगी तथा मतल्ली नामकी पुलिन्द—कन्यकाएँ श्रीराधारानी की वनवासिनी सखियाँ हैं। चित्र बनानेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी के लिये भाँति-भाँति के चित्र बनाकर प्रस्तुत करनेवाली सखी का नाम चित्रिणी है।
कलाकार सखियाँ — रसोल्लासा, गुणतुंगा, स्मरोद्धरा आदि श्रीराधारानी की कला—मर्मज्ञ सखियाँ हैं।
वनादिकों में साथ जानेवाली सखियाँ — वृन्दा,कुन्दलता आदि सहचरियाँ श्रीराधा के साथ वनादिकों में आती—जाती हैं। व्रजराज के घर पर रहनेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रियपात्री धनिष्ठा, गुणमाला आदि सखियाँ हैं, जो व्रजराज के घर पर ही रहती हैं। मंजरियाँ — अनंगमंजरी, रूपमंजरी, रतिमंजरी, लवंगमंजरी, रागमंजरी, रसमंजरी, विलासमंजरी, प्रेममंजरी, मणिमंजरी, सुवर्णमंजरी, काममंजरी, रत्नमंजरी, कस्तूरीमंजरी, गन्धमंजरी, नेत्रमंजरी, पद्ममंजरी, लीलामंजरी, हेममंजरी आदि श्रीराधारानी की मंजरियाँ हैं। इनमें रतिमंजरी श्रीराधाजी को अत्यन्त प्रिय हैं तथा वे रूप में भी इनके ही समान हैं।
धात्रीपुत्री — कामदा है। यह श्रीराधारानी के प्रति सखीभाव से युक्त है। सदा साथ रहनेवाली बालिकाएँ — तुंगी, पिशंगी, कलकन्दला, मंजुला, बिन्दुला, सन्धा, मृदुला आदि बालिकाएँ सदा सर्वदा इनके साथ रहती हैं।
मन्त्र—तन्त्र—परामर्शदात्री सखियाँ — श्रीराधारानी को यन्त्र—मन्त्र—तन्त्र क्रिया के सम्बन्ध में परामर्श देनेवाली सखियों का नाम है — दैवज्ञा एवं दैवतारिणी। राधा के घर आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — गार्गी आदि।
वृद्धादूती — कात्यायनी आदि। मुख्यदूती — महीसूर्या। चेटीगण — (बँधा काम करनेवाली दासिकाएँ)—शृंगारिका आदि। मालाकार-कन्याएँ — माणिकी, नर्मदा एवं प्रेमवती, नामकी मालाकार कन्याएँ श्रीराधारानी की सेवामें नियुक्त रहती हैं। ये सुन्दर, सुरभित कुसुमों एवं पद्मों का संचयन करके प्रतिदिन प्रात:काल श्रीराधारानी को भेंट करती हैं।
श्रीराधारानी प्रायः इन्हें हृदयसे लगाकर इनकी भेंट स्वीकार करती हैं।
सैरन्ध्री — पालिन्द्री। दासीगण — रागलेखा, कलाकेलि, मंजुला, भूरिदा आदि इनकी दासियाँ हैं।
गृह-नापित-कन्याएँ — श्रीराधारानी के उबटन (अंगराग), अलक्तकदान एवं केश—विन्यास की सेवा सुगन्धा एवं नलिनी नाम की दो नापित—कन्याएँ करती हैं।
ये दोनों ही श्रीराधारानी को अतिशय प्यारी हैं। गृह-रजक-कन्याएँ — मंजिष्ठा एवं रंगरागा श्रीराधारानी के वस्त्रों का प्रक्षालन करती हैं।
इन्हें श्रीराधारानी अत्यधिक प्यार करती हैं।
हड्डिप-कन्याएँ — भाग्यवती एवं पुण्यपुंजा श्रीराधारानी के घर की मेहतर—कन्याएँ हैं।
विटगण — सुबल, उज्ज्वल, गन्धर्व, मधुमंगल, रक्तक, विजय, रसाल, पयोद आदि इनके विट (श्रीकृष्ण से मिलन कराने में सहायक) हैं।
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कुल-उपास्यदेव —
भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं।
गायें — सुनन्दा, यमुना, बहुला आदि इनकी प्रिय गायें हैं।
गोवत्सा — तुंगी नाम की गोवत्सा इन्हें अत्यन् प्रिय है।
हरिणी — रंगिणी। चकोरी — चारुचन्द्रिका। हंसिनी — तुण्डीकेरी (यह श्रीराधाकुण्ड में सदा विचरण करती रहती है)।
सारिकाएँ – सूक्ष्मधी और शुभा — ये इनकी प्रिय सारिकाएँ हैं।
मयूरी — तुण्डिका। वृद्धा मर्कटी — कक्खटी। आभूषण — श्रीराधारानी के निम्नोक्त आभूषणों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त भी भाँति—भाँति के अनेक आभूषण उनके प्रयोग में आते हैं — तिलक — स्मरयन्त्र। हार — हरिमनोहर। रत्नताटंक जोड़ी — रोचन। घ्राणमुक्ता (बुलाक) — प्रभाकरी । पदक — मदन (इसके भीतर वे श्रीकृष्ण की प्रतिच्छवि छिपाये रहती हैं)। कटक (कडूला)-जोड़ा — चटकाराव। केयूर (बाजूबन्द)-जोड़ा — मणिकर्बुर। मुद्रिका — विपक्षमर्दिनी (इस पर श्रीराधा का नाम उत्कीर्ण है)। करधनी (कांची) — कांचनचित्रांगी। नूपुर-जोड़ी — रत्नगोपुर — इनकी शब्द—मंजरी से श्रीकृष्ण व्यामोहित—से हो जाते हैं। मणि — सौभाग्यमणि — यह मणि शंखचूड के मस्तक से छीनी गयी थी । यह एक साथ ही सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त है। वस्त्र — मेघाम्बर तथा कुरुविन्दनिभ नाम के दो वस्त्र इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं। मेघाम्बर मेघकान्ति के सदृश है, वह श्रीराधारानी को अत्यन्त प्रिय है। कुरुविन्दनिभ रक्तवर्ण है तथा श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है। दर्पण — मणिबान्धव (इसकी शोभा चन्द्रमा को भी लजाती है)। रत्नकंकती (कंघी) — स्वस्तिदा। सुवर्णशलाका — नर्मदा।
श्रीराधा की प्रिय सुवर्णयूथी (सोनजुही का पेड़) — तडिद्वल्ली। वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं। वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
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नृत्य — श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
चरणों में चिह्न — बायाँ पैर — अंगुष्ठ—मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगुष्ठ के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में अर्धचन्द्र–मुँह उँगलियों की ओर। अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा के ऊपर दायीं ओर पुष्प एवं बायीं ओर लता — इस प्रकार कुल ११ चिह्न हैं।
दाहिना पैर — अँगूठे के नीचे शंख, अँगूठे के पार्श्व की दो उँगलियों के नीचे पर्वत, अन्तिम दो उँगलियों के नीचे यज्ञवेदी, शंख के नीचे गदा, यज्ञवेदी के नीचे कुण्डल, कुण्डल के नीचे शक्ति, एड़ी में मत्स्य और मत्स्य के ऊपर मध्यभाग में रथ — इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं।
हाथों के चिह्न बायाँ हाथ — तीन रेखाएँ हैं।
पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच नद्यावर्त, अनामिका के नीचे हाथी, ऊपर की दो रेखाओं के बीच में अनामिका के नीचे सीध में घोड़ा, जिसके पैर अँगुलियों की ओर हैं, उसके नीचे दूसरी और तीसरी रेखाओं के बीच में वृषभ, दूसरी रेखा के बगल में कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, अँगूठे के नीचे ताड़ का पंखा, हाथी और अंकुश के बीच में बेल का पेड़, अँगूठे के सामने पंखे के बगल में बाण, अंकुश के नीचे तोमर, वृषभ के नीचे माला। दाहिना हाथ — तीन रेखा वैसी ही।
अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच शंख, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, तर्जनी के नीचे चँवर, हथेली के मध्य में महल, उसके नीचे नगाड़ा, अंकुश के नीचे वज्र, महल के आसपास दो छकड़े, नगाड़े के नीचे धनुष, धनुष के नीचे तलवार, अँगूठे के नीचे झारी।
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वने वत्सकृद्गोपकृद्गोपवेषः
कदा ब्रह्मणा संस्तुतः पद्मनाभः ॥ ३० ॥
श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नंद यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ १५ ॥
श्रीकृष्ण उवाच -
गच्छ नंद यशोदे त्वं पुत्रबुद्धिं विहाय च ।
गोलोकं परमं धाम सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ १५ ॥
अग्रे कलियुगो घोरश्चागमिष्यति दुःखदः ।
यस्मिन्वै पापिनो मर्त्या भविष्यंति न संशयः ॥ १६ ॥
स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति वर्णानां च तथैव च ।
तस्माद्गच्छाशु मद्धाम जरामृत्युहरं परम् ॥ १७ ॥
इति ब्रुवति श्रीकृष्णे रथं च परमाद्भुतम् ।
पञ्चयोजनविस्तीर्णं पञ्चयोजनमूर्ध्वगम् ॥ १८ ॥
वज्रनिर्मलसंकाशं मुक्तारत्नविभूषितम् ।
मन्दिरैर्नवलक्षैश्च दीपैर्मणिमयैर्युतम् ॥ १९ ॥
सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च सखीकोटिभिरावृतम् ॥ २० ॥
गोलोकादागतं गोपा ददृशुस्ते मुदान्विताः ।
एतस्मिन्नंतरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः ॥ २१ ॥
देवश्चतुर्भुजो राजन्कोटिमन्मथसन्निभः ।
शंखचक्रधरः श्रीमाँल्लक्ष्म्या सार्धं जगत्पतिः ॥ २२ ॥
क्षीरोदं प्रययौ शीघ्रं रथमारुह्य सुंदरम् ।
तथा च विष्णुरूपेण श्रीकृष्णो भगवान् हरिः ॥ २३ ॥
लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥ २४ ॥
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥ २५ ॥
गोलोकादागतं यानमारुरोह जगत्पतिः ।
सर्वे गोपाश्च नन्दाद्या यशोदाद्या व्रजस्त्रियः ॥ २६ ॥
त्यक्त्वा तत्र शरीराणि दिव्यदेहाश्च तेऽभवन् ।
स्थापयित्वा रथे दिव्ये नंदादीन्भगवान्हरिः ॥ २७ ॥
गोलोकं प्रययौ शीघ्रं गोपालो गोकुलान्वितः ।
ब्रह्मांडेभ्यो बहिर्गत्वा ददर्श विरजां नदीम् ॥ २८ ॥
शेषोत्संगे महालोकं सुखदं दुःखनाशनम् ।
दृष्ट्वा रथात्समुत्तीर्य सार्धं गोकुलवासिभिः ॥ २९ ॥
विवेश राधया कृष्णः पश्यन्न्यग्रोधमक्षयम् ।
शतशृङ्गं गिरिवरं तथा श्रीरासमण्डलम् ॥ ३० ॥
ततो ययौ कियद्दूरं श्रीमद्वृन्दावनं वनम् ।
वनैर्द्वादशभिर्युक्तं द्रुमैः कामदुघैर्वृतम् ॥ ३१ ॥
नद्या यमुनया युक्तं वसंतानिलमंडितम् ।
पुष्पकुञ्जनिकुञ्जं च गोपीगोपजनैर्वृतम् ॥ ३२ ॥
तदा जयजयारावः श्रीगोलोके बभूव ह ।
शून्यीभूते पुरा धाम्नि श्रीकृष्णे च समागते ॥ ३३
प्रस्तुति करण- यादव योगेश कुमार रोहि -
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