लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/
अत्यंतावनतौ दृष्ट्वा मधुपिंगायतेक्षणः।।
प्रहृष्टवदनोऽत्यर्थमभवत्सत्य कीर्तनात्।। २२.१ ।।
उमापतिर्विरूपाक्षो दक्षयज्ञविनाशनः।।
पिनाकी खंडपरशुः सुप्रीतस्तु त्रिलोचनः।। २२.२ ।।
ततः स भगवान्देवः श्रुत्वा वागमृतं तयोः।।
जानन्नपि महादेवः क्रीडापूर्वमथाब्रवीत्।। २२.३ ।।
कौ भवंतौ महात्मानौ परस्परहितैषिणौ।।
समेतावंबुजाभाक्षावस्मिन्घोरे महाप्लवे।। २२.४ ।।
तावूचतुर्महात्मानौ सन्निरीक्ष्य परस्परम्।।
भगवान् किं तु यत्तेऽद्य न विज्ञानं त्वया विभो।। २२.५ ।।
विभो रुद्र महामाय इच्छया वां कृतौ त्वया।।
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा अभिनंद्याभिमान्यच।। २२.६ ।।
उवाच भगवान्देवो मधुरं श्लक्ष्णया गिरा।।
भो भो हिरण्य गर्भ त्वां त्वां च कृष्ण ब्रवीम्यहम्।। २२.७ ।।
प्रीतोऽहमनया भक्त्या शाश्वताक्षरयुक्तया।।
भवंतौ हृदयस्यास्य मम हृद्यतरावुभौ।। २२.८ ।।
युवाभ्यां किं ददाम्यद्य वराणां वरमीप्सितम्।।
अथोवाच महाभागो विष्णुर्भवमिदं वचः।। २२.९ ।।
सर्वं मम कृतं देव परितुष्टोऽसि मे यदि।।
त्वयि मे सुप्रतिष्ठा तु भक्तिर्भवतु शंकरः।। २२.१೦ ।।
एवमुक्तस्तु विज्ञाय संभावयत केशवम्।।
प्रददौ च महादेवो भक्तिं निजपदांबुजे।। २२.११ ।।
भवान्सर्वस्य लोकस्य कर्ता त्वमधिदैवतम्।।
तदेवं स्वस्ति ते वत्स गमिष्याम्यंबुजेक्षण।। २२.१२ ।।
एवमुक्त्वा तु भगवान् ब्रह्माणं चापि शंकरः।।
अनुगृह्याऽस्पृशद्देवो ब्रह्माणं परमेश्वरः।। २२.१३ ।।
कराभ्यां सुशुभाभ्यां च प्राह हृष्टतरः स्वयम्।।
मत्समस्त्वं न संदेहो वत्स भक्तश्च मे भवान्।। २२.१४ ।।
स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि संज्ञा भवतु सुव्रत।।
एवमुक्त्वा तु भगवांस्ततोन्तर्धानमीश्वरः।। २२.१५ ।।
गतवान् गणपो देवः सर्वदेवनमस्कृतः।।
अवाप्य संज्ञां गोविंदात् पद्मयोनिः पितामहः।। २२.१६ ।।
प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किंचित्समवर्तत।। २२.१७ ।।
ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो ह्यजायत।।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिंदवः।। २२.१८ ।।
ततस्तेभ्योऽश्रुबिंदुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः।।
महाभागा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरप्यलंकृताः।। २२.१९ ।।
प्रकीर्णकेशाः सर्पास्ते प्रादुर्भूता महा विषाः।।
सर्पांस्तानग्रजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिंदयत्।। २२.२೦ ।।
अहो धिक् तपसो मह्यं फलमीदृशकं यदि।।
लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम।। २२.२१ ।।
तस्य तीव्राभवन्मूर्च्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा।।
मूर्च्छाभिपरितापेन जहौ प्राणान्प्रजापतिः।। २२.२२ ।।
तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम्।।
अथैकादश ते रुद्रा रुदंतोऽभ्यक्रमंस्तथा।। २२.२३ ।।
रोदनात्खलु रुद्रत्वं तेषु वै समजायत।।
ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः।। २२.२४ ।।
प्राणाः प्राणवतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः।।
अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुराचरितस्य च।। २२.२५ ।।
प्राणांस्तस्य ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः।।
लब्ध्वासून् भगवान्ब्रह्म देवदेवमुमापतिम्।। २२.२६ ।।
प्रणम्य संस्थितोऽपश्यद्गायत्र्या विश्वमीश्वरम्।।
सर्वलोकमयं देवं दृष्ट्वा स्तुत्वा पितामहः।। २२.२७ ।।
ततो विस्मयमापन्नः प्रणिपत्य मुहुर्मुहुः।।
उवाच वचनं शर्वं सद्यादित्वं कथं विभो।२२.२८।
"शिवपुराण संहिता (२) (रुद्रसंहिता) खण्डः१ (सृष्टिखण्डः) अध्यायः(७)
अध्यारूद्रसंहिता२- सृष्टि खण्ड- अध्याय ७-
भगवान् विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव, शिवेच्छासे ब्रह्माजी का उससे प्रकट होना, कमलनाल के उद्गमका पता लगाने में असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णुके बीच में अग्निस्तम्भ का प्रकट होना तथा उसके ओर छोर का पता न पाकर उन दोनों का उसे प्रणाम करना
ब्रह्मा जी बोले- हे देवर्षे ! जब नारायणदेव जल में शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभि से भगवान् शंकरकी इच्छासे सहसा एक विशाल तथा उत्तम कमल प्रकट हुआ ॥1॥
उसमें असंख्य नालदण्ड थे, उसकी कान्ति कनेर के फूल के समान पीले रंग की थी तथा उसकी लम्बाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशित, सुन्दर, सम्पूर्ण तत्त्वोंसे युक्त, अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शनके योग्य तथा सबसे उत्तम था॥2-3॥
तत्पश्चात् -कल्याणकारी परमेश्वर "साम्ब सदाशिवने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंगसे उत्पन्न किया ll 4 ॥
हे मुने ! उन महेश्वर ने मुझे तुरंत ही अपनी माया से मोहित करके नारायणदेवके नाभिकमल में डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँ से प्रकट किया॥ 5 ॥
इस प्रकार उस कमलसे पुत्र के रूपमें मुझ हिरण्य गर्भका जन्म हुआ। मेरे चार मुख हुए और शरीर की कान्ति लाल हुई। मेरे मस्तक त्रिपुण्ड्र की रेखा से अंकित थे ॥ 6 ॥
हे तात! भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके | कारण मेरी ज्ञानशक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमलके अतिरिक्त दूसरे किसी को अपने शरीरका जनक या पिता नहीं जाना ॥ 7 ॥
मैं कौन हूँ, कहाँ से आया है, मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है-इस प्रकार संशय में पड़े हुए मेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ-मैं किसलिये मोहमें पड़ा हुआ हूँ? जिसने मुझे उत्पन्न किया है, उसका पता लगाना तो बहुत सरल है ॥ 8-9 ॥
इस कमलपुष्पका जो पत्रयुक्त नाल है, उसका उद्गमस्थान इस जलके भीतर नीचे की ओर है। जिसने मुझे उत्पन्न किया है, वह पुरुष भी वहीं होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 10 ॥
ऐसा निश्चय करके मैंने अपनेको कमलसे नीचे उतारा है मुने! उस कमलकी एक-एक नालमें गया और सैकड़ों वर्षों तक वहाँ भ्रमण करता रहा ॥ 11॥
कहीं भी उस कमलके उत्तम स्थान मुझे। नहीं मिला। तब पुनः संशयमें पड़कर मैं उस कमलपुष्पपर जानेके लिये उत्सुक हुआ और हे मुने! नालके मार्ग से उस कमलपर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जानेपर भी मैं उस कमलके कोशको न पा सका। उस दशामें मैं और भी मोहित हो उठा ।।12-13॥
हे मुने! उस समय भगवान् शिवकी इच्छाये परम मंगलमयी तथा उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई, जो मेरे मोहका विध्वंस करनेवाली थी, उस वाणीने कहा—'तप' =तपस्या करो ।।15।।
उस आकाशवाणीको सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिताका दर्शन करने के लिये उस समय पुनः प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षोंतक घोर तपस्या की ॥ 16 ॥
तब मुझपर अनुग्रह करने के लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये। उन परम पुरुषने अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अंग सजल जलधरके समान श्यामकान्तिसे सुशोभित थे। उन परम प्रभुने सुन्दर पीताम्बर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि अंगोंमें मुकुट आदि महामूल्यवान् आभूषण शोभा पा रहे थे। उनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिला हुआ था। मैं उनकी छविपर मोहित हो रहा था। वे मुझे करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर दिखायी दिये ।।17-19 ll
उन चतुर्भुज भगवान् विष्णुका वह अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे साँवली और सुनहरी आभा से उद्भासित हो रहे थे ॥20 ॥
उस समय उन सदसत्स्वरूप, सर्वात्मा, महाबाहु नारायणदेवको वहाँ उस रूपमें अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ ll 21 ॥
मैं उस समय प्रभु शम्भुकी लीलासे मोहित हो रहा था, इसलिये मैं अपने उत्पन्न करनेवाले को न जानकर अति हर्षित होकर उनसे कहने लगा- ॥ 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- मैंने उन सनातन पुरुष को हाथसे उठाकर कहा कि आप कौन हैं, उस समय हाथके तीव्र तथा सुद्द प्रहारसे क्षणमात्रमें ही वे जितेन्द्रिय जाग करके शय्यासे उठकर बैठ गये। तदनन्तर अविकल रूप से निद्रारहित होकर उन राजीवलोचन भगवान् विष्णुने मुझको वहाँपर अवस्थित देखा और हँसते हुए बार बार मधुर वाणीमें [वे] कहने लगे- ॥ 23-25 ॥
[हे देवर्षे!] उनके मन्दहासयुक्त उस वचनको सुनकर रजोगुणके कारण शत्रुता मान बैठा देवश्रेष्ठ मैं उन जनार्दन भगवान् विष्णुसे कहने लगा- ॥ 27 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे निष्पाप ! समस्त संहार के कारणभूत मुझे आप हँसते हुए जो हे वत्स! हे वत्स ! कह रहे हैं, वह तो वैसे ही लग रहा है, जैसे कोई गुरु अपने शिष्यको हे वत्स ! हे वत्स ! कह रहा हो ॥ 28 ॥
मैं ही संसारका साक्षात् कर्ता, प्रकृतिका प्रवर्तक, सनातन, अजन्मा, विष्णु, ब्रह्मा, विष्णु को उत्पन्न करनेवाला विश्वात्मा, विधाता धाता और पुण्डरीकाक्ष हूँ। आप अज्ञानवश मुझे हे वत्स!
विष्णुजी बोले- आप संसारकी सृष्टि करने और पालन करनेके लिये मुझ अव्ययके अंगसे अवतीर्ण हुए हैं, फिर भी आप मुझ जगन्नाथ, नारायण, पुरुष, परमात्मा, निर्विकार, पुरुहूत, पुरुष्टुत्, विष्णु, अच्युत, ईशान, संसारके उत्पत्ति स्थानरूप, नारायण, महाबाहु और सर्वव्यापकको भूल गये हैं।
इस विषय में आपका अपराध भी नहीं है, आपके ऊपर तो मेरी माया है। हे चतुर्मुख! सुनिये, यह सत्य है कि मैं ही सभी देवोंका ईश्वर हूँ॥ 36 ॥
मैं ही कर्ता, हर्ता और भर्ता हूँ। मेरे समान अन्य शक्तिशाली कोई देव नहीं है। हे पितामह ! मैं ही परब्रह्म तथा परम तत्त्व हूँ ॥ 37 ॥
मैं ही परमज्योति और वह परमात्मा विभु हूँ, इस जगत्में आज जो यह सब चराचर दिखायी दे रहा है और सुनायी पड़ रहा है, हे चतुर्मुख यह जोभी है, वह मुझमें व्याप्त है - ऐसा आप जान लें। मैंने ही सृष्टिके पहले जगत्के चौबीस अव्यक्त तत्त्वोंकी रचना की है ।। 38-39 ॥
उन्हीं तत्त्वोंसे प्राणियोंके शरीरधारक अणुओंका निर्माण होता है और क्रोध, भय आदि षड्गुणोंकी सृष्टि हुई है। मेरे प्रभाव और मेरी लीलासे ही आपके अनेक अंग हैं ll 40 ॥
मैंने ही बुद्धितत्त्वकी सृष्टि की है और उसमें तीन प्रकारके अहंकार उत्पन्न किये हैं।
ब्रह्माजी बोले- विष्णुका यह वचन सुनकर मुझ ब्रह्माको क्रोध आ गया और मायाके वशीभूत हुआ मैं उनको डाँटते हुए पूछने लगा कि आप कौन हैं और किसलिये इतना अधिक निरर्थक बोल रहे हैं ? आप न ईश्वर हैं, न परब्रह्म हैं। आपका कोई कर्ता अवश्य है ।।43-44 ॥
महाप्रभु शंकरकी मायासे विमोहित मैं उन भगवान् विष्णुके साथ भयंकर युद्ध करने लगा । 45 ।।
इसी बीच हम दोनोंके छिड़े विवाद को शान्त करने के लिये और ज्ञान प्रदान करने के लिये हम दोनों के सामने ही एक लिंग प्रकट हुआ ॥ 47 ॥
वह लिंग अग्निकी प्रचण्ड हजार ज्वालाओंसे भी अधिक ज्वालासमूहों वाला, सैकड़ों कालाग्नियों के समान कान्तिमान्, क्षय एवं वृद्धि से रहित, आदि-मध्य और अन्तसे विहीन था ॥ 48 ॥
शिवकी मायासे मोहित मुझसे वे कहने लगे कि | इस समय मुझसे तुम इतनी स्पर्धा क्यों कर रहे हो ? हम दोनोंके मध्य तो एक तीसरा भी आ गया है, इसलिये युद्ध रोक दिया जाय ॥ 50 ॥
हम दोनों इस अग्निसे उत्पन्न लिंगकी परीक्षा करें कि यह कहाँ से प्रकट हुआ है। मैं इस अनुपम अग्निस्तम्भके नीचे जाऊँगा और हे प्रजानाथ! आप इसकी परीक्षा करनेके लिये वायुवेगसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ऊपरकी ओर जायें ।51-52 ॥
ब्रह्माजी बोले- तब ऐसा कहकर विश्वात्मा भगवान् विष्णुने वाराहका रूप धारण किया और हे मुने! मैंने भी शीघ्र हंसका रूप बना लिया ॥ 53 ॥
अत्यन्त श्वेत, अग्निके समान, चारों ओरसे पंखोंसे युक्त और मन तथा वायुके वेगवाला होकर मैं ऊपरके भी ऊपर लिंगका पता लगाते हुए चला गया ॥ 55 ॥
उसी समय विश्वात्मा नारायणने भी अत्यन्त श्वेत स्वरूप धारण किया। दस योजन चौड़े, सौ योजन लम्बे मेरुपर्वतके समान शरीरवाले, श्वेत तथा अत्यन्त तेज दादोंसे युक्त, प्रलयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान्, दीर्घ नासिकासे सुशोभित, भयंकर [घुर्र घुरंकी] ध्वनि करनेवाले, छोटे-छोटे पैरोंसे युक्त, विचित्र अंगोंवाले, विजय प्राप्त करनेकी इच्छासे परिपूर्ण, दृढ़ तथा अनुपम वाराहका स्वरूप धारण करके वे भगवान् विष्णु भी अत्यन्त वेगसे उसके नीचेकी ओर गये ll 56-58 ॥
इस प्रकार रूप धारणकर भगवान् विष्णु एक हजार वर्षतक नीचेकी ओर ही चलते रहे। उसी समयसे [पृथिवी आदि ] लोकोंमें श्वेतवाराह नामक कल्पका प्रादुर्भाव हुआ। हे देवर्षे! यह मनुष्योंकी कालगणनाकी अवधि है ।। 59 ॥
हे अरिसूदन। तबतक मैं भी उस ज्योतिर्लिंगके अन्तका पता लगानेके लिये वेगसे ऊपरकी ओर जाता रहा यत्नपूर्वक उस ज्योतिर्लिंगके अन्तको जाननेका इच्छुक मैं अत्यन्त परिश्रमके कारण थक गया और उसका अन्त बिना देखे ही थोड़े समयमें नीचे की ओर लौट पड़ा ।। 61-62 ll
उसी प्रकार सर्वदेवस्वरूप, महाकाय, कमललोचन, भगवान् विष्णु भी थकान के कारण ज्योतिर्लिंगका अन्त देखे बिना ही ऊपर निकल आये ॥ 63 ॥
शिवकी मायासे विमोहित विष्णु आकर मेरे साथ ही भगवान् शिवको बार-बार प्रणाम करके व्याकुल चित्तसे वहाँ खड़े रहे ॥ 64 ॥
पृष्ठ प्रदेशकी ओरसे, पार्श्वो की ओर और आगेकी ओरसे परमेश्वर शिवको मेरे साथ ही प्रणाम करके विष्णु भी सोचने लगे कि यह क्या है ? ॥ 65 ॥
वह रूप तो अनिर्देश्य नाम तथा कर्मसे रहित अलिंग होते हुए भी लिंगताको प्राप्त और ध्यानमार्गसे अगम्य था ।
हे मुनिश्रेष्ठ। इस प्रकार अहंकार से आविष्ट हुए हम दोनोंको वहाँ नमस्कार करते हुए सैकड़ों वर्ष बीत गये ।। 69 ।।
सृष्टिका वर्णन
नारदजी बोले - हे महाभाग ! हे विधे! हे देवश्रेष्ठ ! आप धन्य हैं। आपने आज यह शिवकी परमपावनी अद्भुत कथा सुनायी ॥ 1 ॥
इसमें सदाशिवकी लिंगोत्पत्तिकी जो कथा हमने सुनी है, वह महादिव्य, कल्याणकारी और अद्भुत है; जिसके प्रभावमात्रको ही सुनकर दुःख नष्ट हो जाते हैं ॥ 2 ॥
इस कथाके पश्चात् जो हुआ, उसका माहात्म्य और उसके चरित्रका वर्णन करें। यह सृष्टि किस प्रकार से हुई, इसका भी आप विशेष रूपसे वर्णन करें ? ॥ 3 ॥
ब्रह्माजी बोले- आपने यह उचित ही पूछा है। तदनन्तर जो हुआ और मैंने जैसा पहले सुना वैसा ही मैं संक्षेपमें कहूँगा ॥ 4 ॥
हे विप्रेन्द्र जब सनातनदेव शिव अपने स्वरूपमें अन्तर्धान हो गये, तब मैंने और भगवान् विष्णुने महान् सुखकी अनुभूति की ॥ 5 ॥
तदनन्तर हम दोनों - ब्रह्मा और विष्णुने अपने अपने हंस और वाराहरूपका परित्याग किया। सृष्टि संरचना और उसके पालनकी इच्छासे हमदोनों उस शिवकी मायाके दोनों प्रकारोंसे घिर गये ॥ 6 ॥
नारदजी बोले - हे विधे हे महाप्राज्ञ ब्रह्मन् ! मेरे हृदयमें महान् सन्देह है। अतुलनीय कृपा करके शीघ्र ही उसको नष्ट करें ॥ 7 ॥
अन्य रूपोंको छोड़कर आप दोनोंने हंस और वाराहका ही रूप क्यों धारण किया, इसका क्या कारण है ? बताइये ॥ 8 ॥
सूतजी बोले- महात्मा नारदजीका यह वचन सुनकर ब्रह्माने शिवके चरणारविन्दों का स्मरण करके आदरपूर्वक यह कहना प्रारम्भ किया ॥9 ॥
ब्रह्माजी बोले- हंसकी निश्चल गति ऊपरकी और गमन करने में ही होती है। जल और दूधको पृथक-पृथक करनेके समान तत्व और अतत्त्वको भी जाननेमें वह समर्थ होता है ॥10 ॥
अज्ञान एवं ज्ञानके तत्त्वका विवेचन हंस ही कर सकता है। इसलिये सृष्टिकर्ता मुझ ब्रह्माने हंसका रूप धारण किया ॥ 11 ॥
हे नारद! प्रकाश स्वरूप शिवतत्त्वका विवेक वह हंसरूप प्राप्त न कर सका, अतः उसे छोड़ देना पड़ा ॥ 12 ॥
सृष्टिसंरचनाके लिये तत्पर प्रवृत्तिको ज्ञानकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? जब हंसरूपमें मैं नहीं जान सका, तो मैंने उस रूपको छोड़ दिया ॥13।
नीचेकी ओर जानेमें वाराहकी निश्चल गति होती है, इसलिये विष्णुने उस सदाशिव के अद्भुत लिंगके मूलभागमें पहुँचनेकी इच्छासे वाराहका ही रूप धारण किया । 14 ।।
अथवा संसारका पालन करनेवाले विष्णुने वाराहकल्पको बनाने के लिये उस रूपको धारण किया ॥ 15 ॥
जिस दिन भगवान्ने उस रूपको धारण किया, उसी दिनसे वह [ श्वेत] वाराह संज्ञक कल्प प्रारम्भ हुआ था ॥ 16 ॥
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अथवा उन महेश्वरकी जब यह इच्छा हुई कि विवादमें फँसे हम दोनोंके द्वारा हंस और वाराहका रूप धारण किया जाय, उसी दिनसे उस वाराह नामके कल्पका भी प्रादुर्भाव हुआ ॥ 17 ॥
हे नारद! सुनिये। मैंने इस प्रकारसे तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर प्रस्तुत कर दिया है। हे मुने! अब सदाशिवके चरणकमलका स्मरण करके मैं सृष्टिसृजनकी विधि बता रहा हूँ ॥ 18 ॥
[ ब्रह्माजी बोले- हे मुने!] जब महादेवजी अन्तर्धान हो गये, तब मैं उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये ध्यानमग्न हो कर्तव्यका विचार करने लगा ॥ 19 ॥
उस समय भगवान् शंकरको नमस्कार करके श्रीहरिसे ज्ञान पाकर, परमानन्दको प्राप्त होकर मैंने सृष्टि करनेका ही निश्चय किया। हे तात! भगवान् विष्णु भी वहाँ सदाशिवको प्रणाम करके मुझे उपदेश देकर तत्काल अदृश्य हो गये ll 20-21॥
वे ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर भगवान् शिवकी कृपा प्राप्त करके वैकुण्ठधाममें पहुँचकर सदा वहीं रहने लगे ॥ 22 ॥
मैंने सृष्टि की इच्छासे भगवान् शिव और विष्णुका स्मरण करके पहले रचे हुए जलमें अपनी अंजलि डालकर जलको ऊपरकी ओर उछाला ॥ 23 ॥
इससे वहाँ चौबीस तत्त्वोंवाला एक अण्ड प्रकट हुआ। हे विप्र ! उस जलरूप अण्डको मैं देख भी न सका, इतनेमें वह विराट् आकारवाला हो गया ॥ 24 ॥
[उसमें चेतनता न देखकर] मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यन्त कठोर तप करने लगा। बारह. वर्षोंतक में भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा रहा ।। 25 ।
हे तात। उस समय के पूर्ण होनेपर भगवान् स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेमसे मेरे अंगोंका स्पर्श करते हुए मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे-॥ 26 ॥विष्णु बोले- हे ब्रहान्। आप वर माँगिये। मैं प्रसन्न हूँ। मुझे आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है। भगवान् शिवकी कृपासे मैं सब कुछ देनेमें समर्थ हूँ ॥ 27 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे महाभाग। आपने जो मुझपर कृपा की है, वह सर्वथा उचित ही है; क्योंकि भगवान् शंकरने मुझे आपके हाथोंमें सौंप दिया था। हे विष्णो! आपको नमस्कार है, आज मैं आपसे जो कुछ माँगता हूँ, उसे दीजिये ॥ 28 ॥
हे प्रभो यह विराट्रूप तथा चौबीस तत्त्वोंसे बना हुआ अण्ड किसी तरह चेतन नहीं हो रहा है, यह जड़ीभूत दिखायी देता है ॥ 29 ॥
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हे हरे। इस समय भगवान् शिवकी कृपासे आप यहाँ प्रकट हुए हैं। अतः शंकर की शक्ति से सम्भूत इस अण्डमें चेतनता लाइये ॥ 30 ॥
मेरे ऐसा कहने पर शिवकी आज्ञा तत्पर रहनेवाले महाविष्णुने अनन्तरूपका आश्रय लेकर उस अण्डमें प्रवेश किया 31 ॥
उस समय उन परमपुरुषके सहस्रों मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों पैर थे। उन्होंने भूमिको सब ओरसे घेरकर उस अण्डको व्याप्त कर लिया ॥ 32 ॥
मेरे द्वारा भलीभाँति स्तुति किये जानेपर जब श्रीविष्णुने उस अण्डमें प्रवेश किया, तब वह चौबीस तत्त्वोंवाला अण्ड सचेतन हो गया ॥33 ॥********
पातालसे लेकर सत्यलोकतककी अवधिवाले उस अण्डके रूपमें वहाँ विराट् श्रीहरि ही विराज रहे थे ll 34ll
पंचमुख महादेवने केवल अपने रहनेके लिये सुरम्य कैलास- नगरका निर्माण किया, जो सब लोकोंसे ऊपर सुशोभित होता है ॥ 35 ll
हे देवर्षे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका नाश हो जानेपर भी वैकुण्ठ और कैलास-उन दोनोंका कभी नाश नहीं होता ॥ 36ll
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हे मुनिश्रेष्ठ मैं सत्यलोकका आश्रय लेकर रहता हूँ। हे तात! महादेवजीकी आज्ञासे ही मुझमें सृष्टि रचनेकी इच्छा उत्पन्न हुई है ।। 37 ॥
हे तात! जब मैं सृष्टि की इच्छासे चिन्तन करने लगा, उस समय पहले मुझसे पापपूर्ण तमोगुणी | सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अविद्यापंचक (पंचपर्वा अविद्या) कहते हैं ॥ 38 ॥
उसके पश्चात् प्रसन्नचित्त मैंने स्थावरसंज्ञक मुख्य सर्ग (पहले सर्ग) की संरचना की, जो सृष्टि सामर्थ्यसे रहित था, पुनः शिवकी आज्ञासे मैंने ध्यान किया ।। 39 ।।
उस मुख्य सर्गको वैसा देखकर अपना कार्य साधनेके लिये सृष्टि करनेके इच्छुक मैंने दुःखये | परिपूर्ण तिर्यक्त्रोत [तिरछे उड़नेवाले] सर्ग (दूसरे सर्ग) का सृजन किया, वह भी पुरुषार्थसाधक नहीं था ॥ 40 ॥
उसे भी पुरुषार्थसाधनकी शक्तिसे रहित जानकर जब मैं पुनः सृष्टिका चिन्तन करने लगा, तब मुझसे शीघ्र ही (तीसरे) सात्त्विक सर्गका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे ऊर्ध्वस्रोता कहते हैं । ll 41 ।।
यह देवसर्गके नामसे विख्यात हुआ। यह देवसर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुखदायक है। उसे भी पुरुषार्थसाधनसे रहित मानकर मैंने अन्य सर्गके लिये अपने स्वामी श्रीशिवका चिन्तन आरम्भ किया ॥ 42 ॥
तब भगवान् शंकरकी आज्ञासे एक रजोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अर्वाक्सोता (चौथा सर्ग) कहा गया है, जो मनुष्य सर्ग कहलाता है, वह सर्ग पुरुषार्थसाधनका अधिकारी हुआ ll 43 ।
तदनन्तर महादेवजी की आज्ञासे भूत आदिकी सृष्टि [भूतसर्ग पाँचवाँ सर्ग] हुई। इस प्रकार मैंने पाँच प्रकारकी सृष्टि की ॥ 44 ॥
इनके अतिरिक्त तीन प्रकारके सर्ग मुझ ब्रह्मा और प्रकृति के सान्निध्यसे उत्पन्न हुए। इनमें पहला महत्तत्त्वका सर्ग है, दूसरा सूक्ष्म भूतों अर्थात् तन्मात्राओंका सर्ग और तीसरा वैकारिक सर्ग कहलाता है।
इस तरह ये तीन प्राकृत सर्ग हैं। प्राकृत और वैकृत दोनों प्रकारके सगको मिलानेसे आठ सर्ग होते हैं ।। 45-46 ।।*************
इनके अतिरिक्त नौवाँ कौमारसर्ग है, जो प्राकृत और वैकृत भी है। इन सबके अवान्तर भेद हैं, जिनका वर्णन मैं नहीं कर सकता।
उसका उपयोग बहुत थोड़ाहै। अब मैं द्विजात्मक सर्गका वर्णन कह रहा हूँ। इसीका दूसरा नाम कौमार सर्ग है, जिसमें सनक सनन्दन आदि कुमारों की महान् सृष्टि हुई है ।। 47-48 ।।
सनक आदि मेरे पाँच मानसपुत्र हैं, जो मुझ ब्रह्माके ही समान हैं। वे महान् वैराग्यसे सम्पन्न तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हुए ।। 49 ।।
उनका मन सदा भगवान् शिवके चिन्तनमें ही लगा रहता है वे संसारसे विमुख एवं ज्ञानी हैं। उन्होंने मेरे आदेश देनेपर भी सृष्टिके कार्य में मन नहीं लगाया ॥ 50 ll
हे मुनिश्रेष्ठ! सनकादि कुमारोंके दिये हुए नकारात्मक उत्तरको सुनकर मैंने बड़ा भयंकर क्रोध प्रकट किया। किंतु हे नारद! मुझे मोह हो गया ।। 51 ।।
हे मुने! क्रोध और मोहसे विह्वल मुझ ब्रह्मा के नेत्रों क्रोधवश आँसूकी बूँदें गिरने लगीं ॥52 ॥
उस अवसरपर मैंने मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण किया। वे शीघ्र ही आ गये और समझाते हुए मुझसे कहने लगे- ॥ 53 ॥
आप भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये तपस्या कीजिये। हे मुनिश्रेष्ठ ! श्रीहरिने जब मुझे ऐसी शिक्षा दी, तब मैं महाघोर एवं उत्कृष्ट तप करने लगा ॥ 54 ॥
सृष्टिके लिये तपस्या करते हुए मेरी दोनों भौंहों और नासिका के मध्यभागसे जो उनका अपना ही अविमुक्त नामक स्थान है, महेश्वरकी तीन मूर्तियों में अन्यतम, पूर्णाश, सर्वेश्वर एवं दयासागर भगवान् शिव अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट हुए ।। 55-56 ॥********
जो जन्मसे रहित, तेजकी राशि, सर्वज्ञ तथा सर्वकर्ता हैं, उन नीललोहित नामधारी भगवान् उमावल्लभको सामने देखकर बड़ी भक्तिसे मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करके मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और उन देवदेवेश्वरसे बोला- हे प्रभो! आप विविध जीवोंकी सृष्टि करें ॥57-58 ॥
मेरी यह बात सुनकर उन देवाधिदेव महेश्वर रुद्र ने अपने ही समान बहुत से रुद्रगणोंकी सृष्टि की ।। 59 ।।
तब मैंने स्वामी महेश्वर महारुद्रसे फिर कहा हे देव! आप ऐसे जीवोंकी सृष्टि करें, जो जन्म और मृत्युके भयसे युक्त हों ॥ 60 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! मेरी ऐसी बात सुनकर करुणासागर महादेवजी हँसकर मुझसे कहने लगे - ॥ 61 ॥
महादेवजी बोले- विधे ! मैं जन्म और मृत्युके भयसे युक्त अशोभन जीवोंकी सृष्टि नहीं करूँगा; क्योंकि वे कर्मोंके अधीन होकर दुःखके समुद्रमें डूबे रहेंगे ॥ 62 ॥
मैं तो गुरुका स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदानकर दुःखके सागरमें डूबे हुए उन जीवोंका उद्धारमात्र करूँगा, उन्हें पार करूँगा ॥ 63॥
हे प्रजापते! दुःखमें डूबे हुए समस्त जीवोंकी सृष्टि तो आप करें। मेरी आज्ञासे इस कार्यमें प्रवृत्त होनेके कारण आपको माया नहीं बाँध सकेगी ॥ 64 ॥
"ब्रह्माजी बोले- मुझसे ऐसा कहकर श्रीमान् भगवान् नीललोहित महादेव मेरे देखते-ही-देखते अपने पार्षदोंके साथ तत्काल अन्तर्धान हो गये ॥ 65।
संहिता 2, खंड 1 (सृष्टि खण्ड) , अध्याय 16 -
ब्रह्माजीकी सन्तानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन-
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तदनन्तर मैंने शब्द | आदि सूक्ष्मभूतोंका स्वयं ही पंचीकरण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवीकी सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों, वृक्षों और कलासे लेकर युगपर्यन्त कालोंकी रचना की ॥ 1-2 ॥
मुने! उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुतसे पदार्थोंका मैंने निर्माण किया, परंतु इससे मुझे सन्तोष नहीं हुआ। तब साम्बशिवका ध्यान करके मैंने साधनापरायण पुरुषों की सृष्टि की ॥ 3 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ इस प्रकार महादेवजीकी कृपासे इन उत्तम साधकोंकी सृष्टि करके मैंने अपने आपको कृतार्थ समझा ॥ 7 ॥
हे तात! तत्पश्चात् संकल्प से उत्पन्न हुआ धर्म मेरी आज्ञासे मानवरूप धारण करके उत्तम साधकों के द्वारा आगे प्रवर्तित हुआ ॥ 8 ॥
हे मुने! इसके बाद मैंने अपने विभिन्न अंगोंसे देवता, असुर आदि असंख्य पुत्रोंकी सृष्टि की और उन्हें भिन्न-भिन्न शरीर प्रदान किया ॥ 9 ॥
हे नारद! आधे शरीरसे मैं स्त्री हो गया और आधेसे पुरुष उस पुरुषने उस स्त्री के गर्भसे | सर्वसाधनसमर्थ उत्तम जोड़ेको उत्पन्न किया ॥ 11॥
उस जोड़े में जो पुरुष था, वही स्वायम्भुव मनुके नामसे प्रसिद्ध हुआ स्वायम्भुव मनु उच्चकोटिके साधक हुए तथा जो स्त्री थी, वह शतरूपा कहलायी। वह योगिनी एवं तपस्विनी हुई ll 12ll
हे तात! मनुने वैवाहिक विधिसे अत्यन्त सुन्दरी शतरूपाका पाणिग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे ॥ 13 ॥
उन्होंने शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएँ उत्पन्न कीं। कन्याओंके नाम थे-आकृति, देवहूति और प्रसूति मनुने आकूतिका विवाह प्रजापति रुचिके साथ किया, मझली पुत्री देवहूति कर्दमको ब्याह दी और उत्तानपादकी सबसे छोटी बहन प्रसूति प्रजापति दक्षको दे दी।
रुचिके द्वारा आकूतिके गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुषका जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञसे दक्षिणा के गर्भ से बारह पुत्र हुए ।। 17 ।।************ दौंनो भाई बहिन पति पत्नी रूप में-
दक्षने उनमेंसे श्रद्धा आदि तेरह कन्याओंका | विवाह धर्मके साथ कर दिया। हे मुनीश्वर ! धर्मकी उन पत्नियोंके नाम सुनिये ।। 19 ।।
श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति तेरह हैं ।। 20 ।।
इनसे छोटी शेष ग्यारह सुन्दर नेत्रोंवाली कन्याएँ | ख्याति सत्पथा, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा स्वधा थीं। भृगु, भव मरीचि, मुनि अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, मुनिश्रेष्ठ ऋतु अत्रि, वसिष्ठ, वह्नि और पितरोंने क्रमशः इन ख्याति आदि कन्याओंका पाणिग्रहण किया। भृगु आदि मुनि श्रेष्ठ साधक हैं। इनकी सन्तानोंसे समस्त त्रैलोक्य भरा हुआ है ll 21 - 24॥
इस प्रकार अम्बिकापति महादेवजीकी आज्ञासे प्राणियोंके अपने पूर्वकर्मोंके अनुसार असंख्य श्रेष्ठ द्विज उत्पन्न हुए ।। 25 ।।
कल्पभेदसे दक्षकी साठ कन्याएँ बतायी गयी हैं। दक्षने उनमेंसे दस कन्याएँ धर्मको, सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको और तेरह कन्याएँ कश्यपको विधिपूर्वक प्रदान कर दी। हे नारद! उन्होंने चार कन्याओंका विवाह श्रेष्ठ रूपवाले तार्क्ष्यके साथ कर दिया। उन्होंने भृगु, अंगिरा और कृशाश्वको दो-दो कन्याएँ अर्पित कीं। उन उन स्त्रियों तथा पुरुषोंसे बहुत-सी चराचर सृष्टि हुई ॥ 26-28 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ दक्षने महात्मा कश्यपको जिन तेरह कन्याओंका विधिपूर्वक दान किया था, उनकी सन्तानोंसे सारा त्रैलोक्य व्याप्त हो गया। स्थावर और जंगम कोई भी सृष्टि ऐसी नहीं, जो उनकी सन्तानोंसे शून्य हो । ll29-30 ॥
देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा तृण लता आदि सभी [कश्यपपत्नियोंसे] पैदा हुए। इस प्रकार दक्ष कन्याओं की सन्तानों से सारा चराचर जगत् व्याप्त हो गया। पातालसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त | समस्त ब्रह्माण्ड निश्चय ही [उनकी सन्तानोंसे] सदाभरा रहता है, कभी रिक्त नहीं होता। इस प्रकार भगवान् शंकरकी आज्ञासे ब्रह्माजीने भलीभाँति सृष्टि की ।। 31-33 ।।
पूर्वकालमें सर्वव्यापी शम्भुने जिन्हें तपस्याके लिये प्रकट किया था, रुद्रदेवके रूपमें उन्होंने त्रिशूलके अग्रभागपर रखकर उनकी सदा रक्षा की। वे ही सती देवी लोकहितका कार्य सम्पादित करनेके लिये दक्षसे प्रकट हुईं। उन्होंने भक्तोंके उद्धारके लिये अनेक लीलाएँ कीं ।। 34-35 ।।
जिनका वामांग वैकुण्ठ विष्णु हैं, दक्षिणभाग स्वयं मैं हूँ और रुद्र जिनके ह्रदयसे उत्पन्न हैं, उन शिवजीको तीन प्रकारका कहा गया है ॥ 36 ॥
मैं ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीनों गुणोंसे युक्त कहे गये हैं, किंतु परब्रह्म, अव्यय शिव स्वयं सदा निर्गुण ही रहते हैं। विष्णु सत्त्वगुण, मैं रजोगुण और रुद्र तमोगुणवाले कहे गये हैं।
विष्णु अन्तःकरण से तमोगुण और बाहरसे सत्त्वगुणसे युक्त माने गये हैं।
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ऐसे ही सुरादेवी रजोगुणी हैं, वे सतीदेवी सत्त्वस्वरूपा हैं और लक्ष्मी तमोमयी हैं, इस प्रकार पराम्बाको भी तीन रूपोंवाली जानना चाहिये ॥ 40 ॥
इस प्रकार देवी शिवा ही सती होकर भगवान् शंकरसे ब्याही गयीं, किंतु पिताके यज्ञमें पतिके अपमानके कारण उन्होंने अपने शरीरको त्याग दिया और फिर उसे ग्रहण नहीं किया। वे अपने परमपदको प्राप्त हो गयीं ॥ 41 ॥
तत्पश्चात् देवताओंकी प्रार्थनासे वे ही शिवा पार्वतीरूपसे प्रकट हुई और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने पुनः भगवान् शिव को प्राप्त कर लिया ॥ 42 ॥
इस प्रकार गुणमयी तीनों देवियों और गुणमय तीनों देवताओंने मिलकर सृष्टिके उत्तम कार्यको निष्पन्न किया। मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपसे सृष्टिक्रमका वर्णन किया है। ब्रह्माण्डका यह सारा भाग भगवान् शिवकी आज्ञासे मेरे द्वारा रचा गया है ll 46-47 ॥
भगवान् शिवको परब्रह्म कहा गया है। मैं, विष्णु और रुद्र – ये तीनों देवता गुणभेद से उन्हीं के रूप हैं ॥ 48 ll
निर्गुण तथा सगुणरूपवाले वे स्वतन्त्र परमात्मा मनोरम शिवलोकमें शिवा के साथ स्वच्छन्द विहार करते हैं। उनके पूर्णावतार रुद्र ही साक्षात् शिव कहे गये हैं। उन्हीं पंचमुख शिवने कैलासपर अपना रमणीक भवन बना रखा है।
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