शनिवार, 30 दिसंबर 2023

करौली के जादौनों का उदय आठवीं सदी में मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से हुआ जो दशवें अहीर राजा थे ।

करौली के जादौनों का उदय आठवीं सदी में  मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से हुआ जो दशवें अहीर राजा थे ।
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ऋग्वेद में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास और गोप के रूप में सम्बोधित किया गया है।
दास शब्द की व्याख्या विवादित है । प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में दास- दाता तथा दानी सा वाचक है।
वर्तमान में दास शब्द भक्त का वाचक और गोप गो- पालक का वाचक है ।
यह तथ्य हम पूर्व में वर्णित कह चुके हैं ।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं। 
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गोष: ( घोष:) 
(2।9।57।2।5)
 अमरकोशः) 

अत: साक्ष्य अहीरों के पक्ष में ही अधिक हैं यदुवंशी होने के और सम्पूर्ण भारत में अहीर ही यादव या गोप के रूप में मान्य हैं ।


हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व और देवीभागवपुराण के चतुर्थ स्कन्ध में वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्म की कथा या आख्यान प्राप्त होता। जो उनके गोपालन और कालांतर में कृषि कार्य को भी प्रकाशित करता है।


विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया ।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः ।१६।
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यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् 
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह । १७।
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                  "ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो। 
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य  वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
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पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु।   प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।

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"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
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"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत 
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः 
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय 
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।

वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।।
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।

वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।।
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।


ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७।

ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।

विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।

यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।

तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।

यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।

प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।

देव! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६।

ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।

लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।

इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।

इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।

गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।

अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।

महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।

वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।

गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।

हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।

मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।

ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।

'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे  ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।

महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।

कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।

हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा  ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।

विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।

वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।

वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
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"इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।५५।।

नीचे देवी भागवत पुराण का सन्दर्भ है। जिसमें वसुदेव के पिता की मृत्यु के उपरान्त कृषिकार्य-तथा गोपालन करने का उल्लेख है।

"पिता के मृत्यु के पश्चात  -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए "

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥

अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ

सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।



वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा

दित्या अदित्यै शापदानम्

             "व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥


                  "व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥

                   "व्यास उवाच
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥


                 "जनमेजय उवाच
कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥

                    "सूत उवाच
पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥


                   "व्यास उवाच
राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥


अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥

पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥

तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥

सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥

भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥

एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।

मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।
दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।

इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥

उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥

वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्‍नीभावमास्थिताम् ।
दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥

राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्‌रिपुः ।
तस्मादङ्कुरितं हन्याद्‌बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥

लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥

सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।

                    "व्यास उवाच
श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥

ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥

                      "इन्द्र उवाच
मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥

पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥

न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥

संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।

तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥

उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥

रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥

शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥

तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥

भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥

यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥

यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥

तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।

अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
                  "व्यास उवाच
इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥

उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥

भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥

अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥

उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
                    "व्यास उवाच
पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥

नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥

अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

  1.  इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे।
त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥

अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान   वृषभ  तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।

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हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः  “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण=  स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥

(वाम्) युवाम्  (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति    (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां  (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥

व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।।15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥

जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥

सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥

जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥

उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥

तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥

कश्यपमुनिकी बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओजसे सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रताका सदा ध्यान रखती थी। 
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥

उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥

इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।

मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥

हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।

इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।

मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।

पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥

दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥

इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥

उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥

तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥

उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥

यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। 
जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और  मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। 
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। 

इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥


देवी भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के तृतीय अध्याय में लिखा हुआ है कि 
 मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यप को शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वी पर यदुवंश में जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोप(आभीर,) बनकर  गोपालन का कार्य करोगे ।।15-16।

 अत: यादव होने के लिए पहले आभीर होना आवश्यक शर्त है।      

अब जादौन स्वयं को अहीरों से पृथक और स्वयं को पशुपालक या गोप नहीं मानते हैं। अत: इन्हें यादव मानने की पौराणिक शर्त पूर्ण नही होती है।

'परन्तु जादौनों के रूप में कोई पौराणिक साक्ष्य शास्त्रीय इतिहास में भी  नहीं है ।

ग्वालियर गजेटियर आदि में  इनकी निकासी भी आठवीं सदीं के मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है दर्ज है ।
और सोलहवीं सदी के बाद से  लगभग  अठारह वीं सदी तक ये लोग राजपूत संघ में सम्मिलित हो गये 'परन्तु  कुछ राजपूतों 'ने इनका विरोध भी किया और आज भी करते हैं।
क्योंकि राजपूत शब्द शास्त्रों में भी क्षत्रिय वाचक नहीं है।
प्रसिद्ध समाज शास्त्रीयों ने भारतीय इतिहास में जादौन जन-जाति को चारण बंजारों का एक छोटे राठौड़ों का सहवर्ती  समुदाय के रूप में वर्गीकृत किया है । 🌸

कुछ अफगानिस्तान में जादौन पशु भेड़, बकरी पालक पठानों का भी समुदाय हैं । जो प्राय: गादून भी लिखते हैं।
जो स्वयं को यहूदियों से उत्पन्न मानते हैं ।
यद्यपि यहूदी भी यादवों का ही रूपान्तरण ही है परन्तु सुदूर और दूरवर्ती।
इनके विषय में आगे अधिक स्पष्ट किया जाएगा  
करौली के नामकरण के सन्दर्भ में विदित होता है कि यह नाम मुगल काल में पारसी से आयात करौल से विकसित है। करौल का अर्थ छावनी या सैनिक पढ़ाब  होने से  यह करौली कहलाया  मुगलों के सैनिक यहाँ पढ़ाब डाल कर रहते थे इस लिए भी इसे करौली या करौल कहा गया । 
ध्यान रखें
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करौली राजस्‍थान का ऐतिहासिक नगर है।
यह करौली जिला का मुख्यालय है। 
इसकी स्‍थापना 955 ई. के आसपास राजा विजय पाल ने की थी जिनके बारे में कहा जाता है कि वे भगवान कृष्‍ण के वंशज थे। 

एक समय जलेसर व करौली राज्यों पर जादौन राज परिवारों का शासन रहा है।
 इन जादौनों का निकास मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है।
 इसका प्रमाण  सन्दर्भ निम्नलिखित रूप में देखें👇
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[1] Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.

यह ब्रह्म पाल दशवें अहीर/ पाल शासक थे 
आभीर पाल शासक की श्रृँखला क्रम इस प्रकार है ।

१-धर्म्मपाल
२-सिंहपाल
३-जगपाल 
४- नरपाल
५-संग्रामपाल
६-कुन्तपाल
७-भौमपाल
८-सोचपाल
९-पोचपाल
१०-ब्रह्मपाल
११-जैतपाल ।
करौली का वास्तविक इतिहास प्रारम्भ होता है ब्रह्म पाल और विजयपाल आभीर शासकों से ---

यह विजयपाल बारहवाँ पाल शासक था ---
जिनका शासन-समापन समय 1030 ई०सन्  के समकालिक है विजयपाल से तुलसीपाल तक करौली में पैंतीस -छत्तीस पाल शासकों का राज रहा। तुलसी पाल अन्तिम आभीर (पाल-) ऐतिहासिक राजा है।जिसका शासन काल 1894 ईस्वी सन् है।

१२- त्रिभुवनपाल(1000)
१३- विजयपाल (1030)
१४-धर्मपाल प्रथम  (1090)
१५- कुँवरपाल (1120)
१६- अनंगपाल(1122 )
१७-अजयपाल(1150)
१८-हरिपाल ( 1180)
१९-सुघड़पाल(1196)
२०-पृथ्वी पाल (1242)
२१-राजपाल (1264)
२२- त्रिलोकपाल(1284)
२३-विप्पलपाल(1330)
२४-गुगोलपाल(1352)
२५-अर्जुनपाल(1374)
२६- विक्रमपाल(1396)
२७-अभयन्द्रपाल (1418)
२८- पृथ्वी राज पाल (1440)
२९चन्द्रसेनपाल(1462)
३०-भारतीचन्द्रपाल(1484)
३१-गोपालदास (1506)
३२- द्वारिका दास(1528)
३३-मुकुन्ददास(1550)
३४- युगपाल(1572)
३५- धर्म्मपाल द्वितीय(1616)
३६-रतनपाल(1638)
३७-आरतीपाल ( 1860) 
३८-अजयपाल(1682)
३९-रक्षपाल (1704)
४०-सुधाधरपाल( 1726  )
४१-कँवरपाल(1748 ) 
४२-श्रीगोपाल( 1770  )
४३-माणिक्यपाल( 1792 )
४४-अमोलपाल(1814 ) 
४५-हरिपाल ( 1836)
४६-मधुपाल (1856 )
४७-अर्जुन पाल (1879)
४८-तुलसीपाल (1894)

" गोपाल ,पाल, गोप ,पल्लव ,वल्लव गौश्चर घोष ये अहीरों के गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहे हैं 
और वंशमूलक रूप में ये यादव थे ही।
विदित हो की पाल विशेषण अहीरों का बहुत समय तक रहा । आज "पाल और धेनुगर विशेषण गडेरी समाज के विशेषण हैं। सम्भवत: इस समाज में भी अहीरों की कुछ शाखाएँ रहीं हैं।
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उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक अड़तालीस यदुवंशी पाल मथुरा से करौली तक हुए ।
और पाल उपाधि धारक शासकों की शासन सत्ता रही व्रज क्षेत्र कि परिसीमा करौली रियासत में ---👇

"कालान्तरण में जातिवंशमूलक ज्ञान के विलुप्त हो जाने से ये इनके वंशज भी मध्य प्रदेश के  घोषीयों ( घोष)के समान अपने को राजपूत संघ में सम्मिलित मानने लगे ।
'परन्तु राजपूतों में इनकी कितनी प्रतिष्ठा रही 
ये खुद जानते हैं।
और ये आज तक  अपने ही पूर्वज अहीरों से मतभेद करने लगे हैं।
करौली के ये शासक अपने नाम- के बाद पाल उपाधि लगाते अनिवार्य रूप से लगाते थे ।
कुछ ने दास उपाधि को भी लगाया।
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दास शब्द और गोप शब्द ऋग्वेद के कई सन्दर्भों में यदु और तुर्वसु के लिए आया है । 👇

ऋग्वेद 10/62/10 
उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च (ऋ०10/62/10 )
वस्तुत ये समग्र समीकरण मूलक प्रमाण अहीरों के पक्ष में हैं कि करौली के शासक स्वयं को पाल अथवा गोपाल या गोपोंं के रूप में ही प्रस्तुत करते थे । उन्होंने स्वयं को कभी ठाकुर या राजपूत उपाधि से नहीं नवाजा।
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विदित हो कि मध्यकालीन वारगाथा काल में नल्ह सिह भाट द्वारा विजय पाल रासो की रचना की गयी 
नल्हसिंह भाट कृत इस रचना के केवल '42' छन्द उपलब्ध है।
विजयपाल, जिनके विषय में यह रासो काव्य है, विजयगढ़, करौली के पाल  'यादव' राजा थे।

इनके आश्रित कवि के रुप में 'नल्ह सिंह' का नाम आता है।
रचना की भाषा से यह ज्ञात होता है कि यह रचना 17 वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है।" 

विजयपाल का समय 1030  के समकालिक है ।
अस्तु काल के प्रभाव से मथुरा को त्याग कर जब विजयपाल के वंशज सम्वत् 1052 में बयाने के पास बनी पहाड़ी की उपत्यका में ये जा बसे | 

क्यों कि बयाना वज्रायन शब्द का तद्भव रूप है । 
और वज्र कृष्ण के प्रपौत्र (नाती) थे ।
और इनके पुरोहित शाण्डिल्य ही थे ।
जो युवा अवस्था में नन्द के पुरोहित भी थे ।
पुराणों में वज्रनाभ का वर्णन इस प्रकार है :- 
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श्रीकृष्णप्रपौत्त्रः- यथा   -
“ अनिरुद्धात् सुभद्रायां वज्रो नाम नृपोऽभवत् ।
 प्रतिबाहुर्वज्रसुतश्चारुस्तस्य सुतोऽभवत् ॥
( इति गरुडपुराण १४४ अध्याय)....

करौली के यदुवंशी राजा शौरसैनी कहे जाते थे यह कहना भी निर्धारित व मनगड़न्त मिथक है ।

क्योंकि यदुवंशीयों का वंशमूलक विशेषण यादव और व्यवसाय मूलक विशेषण गोप तथा ईसा० पूर्व द्वत्तीय सदी के संस्कृत विद्वानों' ने जिसे आभीर या अभीर भी कहा ।
यादवों का घोष विशेषण भी गोष: के अर्थ रूपों गोप का ही वाचक रहा है ।
गोष: शब्द वैदिक कालीन है  आ़और घोष: लौकिक।
कुछ यदुवंशी बाद में समय के प्रभाव से मथुरा को त्याग कर और सम्वत् 1052 में बयाने के पास बनी पहाड़ी की उपत्यका में ये जा बसे |
 राजा विजयपाल के पुत्र तहनपाल (त्रिभुवनपाल) ने तहनगढ़ का किला बनवाया ।

 तहनपाल के पुत्र धर्मपाल (द्वितीय) और हरिपाल थे ; जिनका समय संवत् 1227 का है ।
 
कृष्ण जी के प्रपौत्र (नाती )वज्र को मथुरा का अधिपति बनाने का प्रसंग श्रीमद भागवत् के दशम स्कन्ध में आता है और वज्रनाभ के पुरोहित शाण्डिल्य ही थे ।
जो  गर्गाचाय की शिष्य परम्परा में थे।
शाण्डिल्य शण्डिल के पुत्र के थे ।
शडि-+इलच् । शाण्डिल्यस्य पितरि मुनिभदे तस्यापत्यं गर्गा० घञ् शण्डिल्य ।

कहा जाता है की लगभग सातवीं शताब्दी के आस पास सिंध से (जहां भाटियों का वर्चस्व था). 
कुछ यदुवंशी मथुरा वापस आ गए और उन्हों ने यह इलाका पुनः जीत लिया विदित हो की भाटी चारण (करण)बंजारों के रूपान्तरण थे। इन्हें यादव मानने की कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है।

ये भाट वंशमूलक विरुदावलियों का संग्रह और गायन करते थे।
वे भी यदुवंशी बनने लगे हैं ।
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 इन करौली के यदुवंशी पाल  राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है जो की श्री कृष्ण 77वीं पीढ़ी के वंशज थे । 

यह तथ्य कमान  के चौंसठ खम्बा शिलालेख पर उत्कीर्ण भी है ।
वर्तमान काल में करौली के राजघराना में पाल राजाओं के वंशज हैं ।
पाल अहीरों का प्राचीनत्तम विशेषण रहा है।
पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा राजपूतों में भी इनकी कई खांपें मिली हुई हैं ।
ये ढढोर कबीला तो अहीर से सम्बद्ध हैं  
ढढोर ' यदुवंशी अहीरों की एक प्रसिद्ध गोत्र है जिनका निर्गमन राजस्थान के प्रसिद्ध ढूंढार क्षेत्र से हुआ माना दाता है। 

इनके उर हृदय में दृढ़ता( दृढ़+उर)थी तो लोगों द्वारा इन्हें डिढ़ोर भी कहा जाने लगा 
इन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन और ड़िढोरा किया इस लिए भी कुछ लोग इन्हें डिढ़ोर कहते ।

राजस्थान में जयपुर के आसपास के क्षेत्र जैसे करौली, धौलपुर, नीमराणा और ढींग (दीर्घपुर) बयाना (वज्रायन) के विशाल क्षेत्र को " ढूंढार " कहा जाता है एवं यहाँ ढूंढारी भाषा बोली जाती है। 
आज पूर्वांचल और विहार में ढुँढोर कबीले के अहीर बहुतायत से हैं।
जादौनों की वस्तियाँ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में  (एटा , अलीगढ़ मथुरा हाथरस फीरोजाबाद  बुलन्दशहर) तक हैं ।

आज भी यहाँ ढंढोर अहीरों के गांव यहाँ मौजूद हैं।
ढढोर अहीर मूलतः द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण के प्रपौत्र युवराज वज्रनाभ  के वंशजों में से एक माने जाते हैं एवं इनकी अराध्य देवी कैलादेवी(कंकाली माता) हैं। _______________________________________ 
भगवान कृष्ण की पीढ़ी के 135 वें पाल या अहीर राजा विजयपाल यदुवंशी के ही विभिन्न पुत्रों में से एक से यह "ढढोर" वंश चला।
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ऐसा "विजयपाल रासो "में भी वर्णन मिलता है कि यदुवंशी क्षत्रियों के उस समय राजस्थान और बृज में 1444 गोत्र उपस्थित थे।

 इन्हीं विभिन्न 1444 यदुवंशी क्षत्रियों के गोत्र में से एक था । ढढोर गोत्र जिन्होंने मुहम्मद गौरी के राजस्थान पर आक्रमण के समय गुर्जर राजा पृथ्वीराज चौहान की ओर से लड़ते हुए गौरी की सेना से युद्ध किया था। आज भी  ये अहीर ही हैं 

सन् 1018 में मथुरा के महाराज कुलचन्द्र यादव और महमूद गज़नी के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें गज़नी की सेना ने कपट पूर्वक यदुवंशीयों को पराजित कर दिया। 

राजा कुलचंद्र यादव के पुत्र राजा विजयपाल अहीर के नेतृत्व में ज्यादातर यादव बयाना आ गए।
'परन्तु यह शुरुआत ( आगा़ज) मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से ही हो गयी थी ।
और  बयाना शब्द अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ के आधार पर है ।
यह  वज्रायन शब्द का तद्भव है ।
इस लिए विजयपाल ने मथुरा के क्षेत्र में बनी अपनी प्राचीन राजधानी छोड़कर पूर्वी राजस्थान की मानी नामक पहाड़ी के उच्च-स्थली भाग पर बयाना का दुर्ग का निर्माण किया।

विजयपाल रासो नामक ग्रन्थ में इस राजा के पराक्रम का अच्छा वर्णन है ।

इसमें लिखा है कि महाराजा विजयपाल का 1045 ई0 में अबूबक्र शाह कान्धारी से घमासान युद्ध हुआ ।

संवत 1103 में यवनों ने संगठित होकर अबूबक्र कंधारी के नेतृत्व में विजय मंदिर गढ़ पर हमला किया और दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया इस युद्ध में विजयपाल वीरगति को प्राप्त हुये ।

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सन् 1196 ई0 सन् में मोहम्मद गौरी ने बयाना( विजयमन्दिरगढ़) और तिमनगढं पर हमला किया जिसमे विजयपाल यदुवंशी के पीढ़ी के शासक राजा कुंवरपाल सिंह यदुवंशी के नेतृत्व में यादव सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना का डटकर रणभूमि में मुकबला किया ;
लेकिन  कम मात्रा रह गये सेना के लोगों को पराजित होकर वहाँ से पलायन करना पड़ा।

इसके पश्चात वहाँ से पलायन कर राजा कुंवरपाल सिंह यदुवंशी ने बचे हुए यादव सेना और सामंतों के साथ चित्तौड़ में शरण ली ।

यादव रजवाड़ों ने चित्तौड़ के दुर्ग में अपने कुल देवी माँ योगमाया गोप कन्या विन्ध्यावासिनी के भव्य मंदिर का निमार्ण करवाया जो आज कंकाली माता के मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं।

 राजा कुवंरपाल अहीर के पुत्र हुए महिपाल सिंह अन्य अहीरों के साथ राजस्थान के कोटा से 22 किलो मीटर दूर पाटन में आये तथा यहाँ तक यदुवंशी अभीरों के 14 44 गोत्र एक साथ मौजूद थे । 

तथा यहाँ केशवराय जी के विशाल मन्दिर का निर्माण कराया इस मन्दिर के नाम से ही आज वह शहर केशवराय पाटन शहर के नाम से जाना जाता है।

पाटन से यादव समाज के लोग बिखर गए और राजा कुंवरपाल यदुवंशी के जेष्ठ पुत्र महिपाल सिंह यादव के नेतृत्व में यादव वंश के 86 गोत्र नर्मदांचल में आकर बस गए और शिवपुरी में स्वतंत्र जागीर स्थापित करी।
यह अहीर अस्मिता को भूलने लगे और राजपूत संघ में सम्मिलित होने लगे ।

इन्हीं 1444 गोत्रों में से एक गोत्र है ढंढोर गोत्र जो मुहम्मद गौरी से युद्ध के बाद राजस्थान से पलायन कर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के गोरखपुर, आज़मगढ़ आदि इलाकों में जा बसे।
और आज भी स्वयं को अहीर ही कहते हैं ।

करौली के सस्थापक कुकुर यादवों की शाखा से लोग थे यद्यपि ये लोग चरावाहों की परम्पराओं का निर्वहन यदु को द्वारा स्थापित होने से करते थे 

क्यों कि यदु ने कभी भी राज्य स्वीकार नहीं किया वे गोप थे और हमेशा गायों से घिरे रहते थे ।

 ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में देखें-- " उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।।ऋ०10/62/10 ।

और यदुवंश के नायक भगवान श्रीकृष्ण 'ने स्वयं कहा कि मेंने जन्म गोपों में लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए  दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ 👇

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हरिवंशपुराण विष्णुपर्व हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 56-60
_______
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्‍म च।
अमीषामुत्‍पथस्‍थानां निग्रहार्थं दुरात्‍मनाम्।।58।।
__________________________
इसलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और  मैंने गोपों में जन्म लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ 
।।58।।
_______________________
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्‍णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोअध्‍याय:।

यहूदियों के जादौन पठानों में भी मणिहार बंजारे हैं ।मध्य काल  में जादौं भी जब ब्राह्मणों'ने जब -नीच जातियों में घोषित किए तो कुछ नीचे ही बने रहे जो बंजारे कहलाऐ और जो मौका देखकर राजपूत संघ में सम्मिलित हो गये उन्होंने खुद को क्षत्रिय मानना प्रारम्भ कर दिया जादौनों की ज्यादा तर कबीले अफगानिस्तान सिंध और पश्चिमी भारत के ही हैं ।

दरअसल यह एक लम्बा अन्तराल हो गया जादौन राजपूत 'न लगाकर ठाकुर टाइटल लगाते हैं ।
जो कि तुर्की' आर्मेनियन व फारसी ''में ताक्वुर जमीदारी लकब है ।


 
और यदुवंश के सूर्य भगवान श्रीकृष्ण 'ने स्वयं कहा कि मेंने जन्म गोपों में लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए  दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ 👇

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हरिवंशपुराण विष्णुपर्व हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 56-60
_______
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्‍म च।
अमीषामुत्‍पथस्‍थानां निग्रहार्थं दुरात्‍मनाम्।।58।।
__________________________
इसलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और  मैंने गोपों में जन्म लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ 
।।58।।

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इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्‍णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोअध्‍याय:।
इतिहास लेखक मोहन दास गुप्ता ने लिखा की ये कभी भी  राजपूत सूचक विशेषण सिंह अपने नाम के पश्चात् नहीं लगाते थे केवल पाल विशेषण लगाते थे ।
क्योंकि सिंह गाय को कैसे छोड़ सकता है ?

ये स्वयं को गोपाल कृष्ण का वंशज मानते थे । गोपाल , पाल गोप तथा आभीर केवल यादवों के व्यवसाय और प्रवृत्तिपरक विशेषण हैं ।

और आभीर वीरता सूचक प्रवृत्ति का सूचक है । 
करौली के मन्दिर में गाय और भेड़ यदुवंशी शासकों के पाल गोपाल रूपों की स्मृति के आज तक जीवन्त अवशेष हैं। 

इसलिए जादौन समाज का यह दावा निराधार व भ्रान्ति मूलक है कि अहीर यदुवंशी नहीं होते हैं ।
जबकि स्वयं जादौन जन-जाति चारण बंजारों का उप समुदाय है ।
 
चारण या करण तथा भाट ये बंजारों और वंशमूलक विरुदावलियों का संग्रह और गायन करने वाले हैं ये कालान्तरण में स्वयं को राजपूत भी कहने लगे करणी जाति की एक कन्या जो सती होगी थी उसकी स्मृति निर्मित करणी सेना के बैनर तले राजपूत एकजुट हैं।

क्योंकि भारतीय पुराणों में विशेषत: ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तथा स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति दर्शायी है ।👇

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
_______
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇

( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
←  ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १० श्लोक संख्या १११
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10/१११

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।


स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में 
वर्णित है ।

शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१
 तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।।२।

कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःस्मृति )
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं;  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, 
अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।[7][8]👇
सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009

[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

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विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है ।
कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गयी 
जिसमें कुछ चारण भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो गया।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्/ लुब्धक) कुशवाह/ कच्छवाह ( कृषिवाह)कच्छ= नदी आदि के किनारे की भूमि पर जीवन वहन करने वाले कच्छवाहा-
बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी
बंजारों का समूह ही राजपूतों में विभाजित है 
: 54 (10 सबसे बड़ा दिखाया गया) सभी दिखाएं
उपसमूह का नाम जनसंख्या।
नाइक 471,000
चौहान 35,000
मथुरा 32,000
सनार (anar )23,000
लबाना (abana) 19,000
मुकेरी (ukeri )16,000
हंजरा (anjra) 14,000
पंवार 14,000
बहुरूपिया ahrupi 9100
भूटिया खोला 5,900
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परिचय / इतिहास
हिंदू बंजारा, जिन्हें 53 विभिन्न नामों से जाना जाता है, मुख्य रूप से लमबाड़ी या लमानी (53%), और बंजारा (25%) बोलते हैं। 

वे भारत में सबसे बड़े खानाबदोश समूह हैं और पृथ्वी के मूल रोमानी के रूप में जाने जाते हैं। 

रोमनी ने सैकड़ों साल पहले भारत से यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा शुरू की, और अलग-अलग बोलियाँ उन क्षेत्रों में विकसित हुईं जिनमें प्रत्येक समूह बसता था। 

बंजारा का नाम बाजिका( वाणिज्यार )शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है व्यापार या व्यवसाय, और बैंजी से, जिसका अर्थ है पैल्डलर पैक। 
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कई लोग उन्हें मिस्र से निर्वासित किए गए यहूदियों के रूप में मानते हैं, क्योंकि वे मिस्र और फारस से भारत आए थे। 

कुछ का मानना ​​है कि उन्हें मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा अपनी मातृभूमि से निष्कासित कर दिया गया था। 
अब वे भारत के पचास प्रतिशत से अधिक जिलों में स्थित हैं।

उनका जीवन किस जैसा है?
अधिकांश भारतीय रोमानी जैतून की त्वचा, काले बाल और भूरी आँखें हैं। 

हालाँकि हम आम तौर पर इन समूहों को भाग्य से रंग-बिरंगे कारवां में जगह-जगह से यात्रा करने वालों के बैंड के साथ जोड़ते हैं, लेकिन अब बंजारा के साथ ऐसा नहीं है।

ऐतिहासिक रूप से वे खानाबदोश थे और मवेशी रखते थे, नमक का कारोबार करते थे और माल का परिवहन करते थे। 

अब, उनमें से अधिकांश खेती या पशु या अनाज को पालने-पोसने के लिए बस गए हैं।

अन्य अभी भी नमक और अन्य वस्तुओं का व्यापार करते हैं। 

कुछ क्षेत्रों में, कुछ सफेदपोश पदों को धारण करते हैं या सरकारी कर्मचारियों के रूप में काम करते हैं।

 वे चमकदार डिस्क और मोतियों के साथ जटिल कढ़ाई वाले रंगीन कपड़े भी सिलते हैं।

वे गहने और अलंकृत गहने बनाते हैं, जो महिलाएं भी पहनती हैं। 

न केवल बंजारे के पास आमतौर पर एक से अधिक व्यवसाय होते हैं,।
 वे समय पर समाज की जरूरतों के आधार पर, अपनी आय को पूरक करने के लिए अतिरिक्त कौशल का भी उपयोग करते हैं। 

कुछ लोग झाड़ू, लोहे के औजार और सुई जैसी वस्तुएं बनाने में माहिर हैं। 

वे उपकरणों की मरम्मत भी कर सकते हैं या पत्थर के साथ काम कर सकते हैं। 
दूसरों का मानना ​​है कि किसी को "धार्मिक भीख" से जीवन यापन के लिए काम नहीं करना पड़ता है।

वे विशिष्ट देवता के नाम पर भीख माँगते हुए विशेष श्रृंगार में गाते और पहनते हैं।

 बंजारा को संगीत पसंद है, लोक वाद्य बजाना और नृत्य करना। बंजार भी कलाबाज, जादूगर, चालबाज, कहानीकार और भाग्य बताने वाले हैं। 
क्योंकि वे गरीब हैं, वे डेयरी उत्पादों के साथ अपने बागानों में उगाए गए खाद्य पदार्थ खाते हैं। 
कई घास की झोपड़ियों में रहते हैं, अक्सर विस्तारित परिवारों के साथ रहते हैं ।

क्रमश .....

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यद्यपि विकीपीडिया पर विभिन्न इतिहास कारों के हबाले सन्दर्भ दिए गये हैं कि जादौन अहीरों की सन्तान हैं 
जादौन या जादों अहीर[1]❣
ब्रह्मपाल अहीर से जिनका उदय हुआ है।[5][6]
सन्दर्भ 5)-
[5] Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7.

 आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. 

The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." 

The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal. 

The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall   “Karauli”।
 ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
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सन्दर्भित -
[५] कनिंघम, जोसेफ डेवी; गैरेट, एच। एल। ओ। ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स ऑफ़ द नेशन ओरिजिन ऑफ़ द नेशन ऑफ़ द नेशन ऑफ़ द सतलज ()t)। एशियाई शैक्षिक सेवाएँ। पृष्ठभूमि। 7।

 आईयूएससबीबैन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2016. उद्धरण: "करौली की छोटी मुखिया।

रजा को वंशावलियों द्वारा यदु या चंद्र जाति का माना जाता है, लेकिन लोग कभी-कभी कहते हैं कि उनका अहीर या चरवाहा होना भारतीयों के देहाती अपोलो कृष्ण से उनका एकमात्र संबंध है। 
यदु अहीर भगवान ब्रह्मा द्वारा 900 सीई में स्थापित भगवान कृष्ण के वंशज हैं।

यह शहर 1348 से है, और यह उत्तर और पूर्व में प्राकृतिक रूप से रवीनों द्वारा संरक्षित एक भौगोलिक सेटिंग में स्थित है, और इसे एक महान दीवार "करौली" द्वारा संरक्षित किया गया है।
बिटैनिका विश्वकोश (11 वां) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
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______________________
(सन्दर्भ 6)-[6] Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. 
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.
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CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।
गोपनीयता डेस्कटॉप
सन्दर्भ 
❣[1] Gazetteer of Ulwur. Trübner & Company, 1878. 1878. पृ॰ 43.
______
और एक विवरण के अनुसार जादौन राठौड़  राजपूत बंजारा जाति का सहवर्ती चारण गोत्र है✨[2] देखें निम्नलिखित सन्दर्भों में👇
✨[2] Singh, David Emmanuel (2012). Islamization in Modern South Asia: Deobandi Reform and the Gujjar Response. Walter de Gruyter,. पृ॰ संख्या 200. अभिगमन तिथि 30 September 2014.
______
 बंजारा जाति के एक समुदाय को भी जादोेेैन नाम से जाना जाता है।[3]👇
_____
यह देखें निम्नलिखित सन्दर्भों में👇
[3]
- Shashishekhar Gopal Deogaonkar, Shailaja Shashishekhar Deogaonkar (1992). The Banjara. Concept Publishing Company. पृ॰ संख्या 18, 19. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170224334.
____
एक समय जलेसर (एटा) व करौली (राजस्थान) राज्यों पर जादौन[4] राजपूत परिवारों का शासन रहा है।
इनका निकास मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है।[5][6]✨
 Deogaonkar (1992). The Banjara. Concept Publishing Company. पपृ॰ 18, 19. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170224334.
↑ Lucia Michelutti (2018). Sons of Krishna: The Politics of Yadav community formation in a North Indian town (PDF). London School of Economics. पृ॰ 47. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ Phd Thesis Social Anthropology |isbn= के मान की जाँच करें: invalid character (मदद).
↑ Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." 

The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal. 
The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall  “Karauli”। ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस।
↑ Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ सख्या०43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-

सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।
गोपनीयताडेस्कटॉप
सन्दर्भ
[5] Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal. The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall  “Karauli”।
 ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस।[6] Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.


 

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