देवी भागवत महापुराण ( देवीभागवत)
स्कन्ध 1, अध्याय 3 - में वर्णित अठारह पुराणों उपपुराणो का नाम तथा उनकी श्लोक संख्या एवम अट्ठाईस व्यास हों का नाम-
सूतजीद्वारा पुराणोंके नाम तथा उनकी श्लोकसंख्याका कथन, उपपुराणों तथा प्रत्येक द्वापरयुगके व्यासोंका नाम:-
सूतजी बोले- हे मुनीश्वरवृन्द ! सत्यवती सुत वेद-व्यासजीसे मैंने जिस प्रकार तत्त्वपूर्वक पुराणोंको सुना है, उसे मैं आपलोगोंसे कहता हूँ, सुनिये ॥1॥
उनमें दो 'म' वाले (मत्स्यपुराण, मार्कण्डेयपुराण), दो ‘भ' वाले (भविष्यपुराण तथा भागवत), तीन 'ब्र' वाले (ब्रह्म, ब्रह्माण्ड और ब्रह्मवैवर्तपुराण), चार 'व' वाले (वामन, विष्णु, वायु और वाराहपुराण), 'अ' वाला (अग्निपुराण), ‘ना' वाला (नारदपुराण), 'प' वाला (पद्मपुराण), 'लिं' वाला (लिंगपुराण), 'ग' वाला (गरुडपुराण), 'कू' वाला (कूर्मपुराण), ‘स्क’ वाला (स्कन्दपुराण) – ये पृथक्-पृथक् (अठारह) पुराण हैं ॥ 2 ॥
उनमें आदि के मत्स्यपुराण में चौदह हजार, अत्यन्त अद्भुत मार्कण्डेयपुराणमें नौ हजार तथा भविष्यपुराण में चौदह हजार पाँच सौ श्लोक-संख्या तत्त्वदर्शी मुनियों ने बताये हैं ।। 3-4 ॥
पवित्र भागवतपुराणमें अठारह हजार और ब्रह्म पुराणमें दस हजार श्लोक हैं। ब्रह्माण्डपुराणमें बारह हजार एक सौ तथा ब्रह्मवैवर्तपुराणमें अठारह हजार श्लोक हैं ।। 5-6 ॥
हे शौनक ! वामनपुराणमें दस हजार तथा वायुपुराणमें चौबीस हजार छः सौ श्लोक हैं। उस परम विचित्र विष्णुपुराणमें तेईस हजार, वाराहपुराणमें चौबीस हजार, अग्निपुराणमें सोलह हजार तथा नारद पुराणमें पचीस हजार श्लोक कहे गये हैं ॥ 7-9 ॥
विशाल पद्मपुराणमें पचपन हजार और लिंगपुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं। इसी प्रकार साक्षात् भगवान्के द्वारा कहे हुए गरुडपुराणमें उन्नीस हजार तथा कूर्मपुराणमें सत्रह हजार श्लोक हैं ।। 10-11 ॥
परम विचित्र स्कन्दपुराणमें इक्यासी हजार श्लोक कहे गये हैं। हे पापरहित मुनियो ! इस प्रकार मैंने पुराणों तथा उनके श्लोकोंकी संख्या विस्तारपूर्वक बता दी ॥ 12 ॥
हे मुनिवरो! अब उपपुराणोंकी भी संख्या सुनिये। उनमें सर्वप्रथम उपपुराण सनत्कुमार है, तत्पश्चात् नरसिंह, नारदीय, शिव, दुर्वासा, कपिल, मनु, उशना, वरुण, कालिका, साम्ब, नन्दी, सौर, पराशर, आदित्य, माहेश्वर, भागवत तथा अठारहवाँ वासिष्ठ - ये सब उपपुराण महात्माओंद्वारा बताये गये हैं ।13 - 16।
सत्यवतीतनय वेदव्यासजीने अठारह पुराणों की रचना करनेके बाद उन्हीं विषयोंसे विस्तारपूर्वक उस अतुलनीय 'महाभारत' का प्रणयन किया ॥ 17॥
प्रत्येक द्वापरयुग में भगवान् वेदव्यासजी ही धर्मरक्षार्थ पुराणोंकी यथाविधि रचना करते रहते हैं। जब-जब द्वापरयुग आता है, तब-तब साक्षात् भगवान् विष्णु ही व्यासजीके रूपमें अवतीर्ण होकर सर्वलोकहितार्थ | वेदके अनेक भेदोपभेद करते हैं ।। 18-19 ॥
विशेषकर कलियुगमें ब्राह्मणोंको अल्पायु एवं अल्पबुद्धि जानकर वे युग-युगमें पवित्र पुराण संहिताओंका निर्माण करते हैं ॥ 20 ॥
स्त्रियों, शूद्रों तथा भ्रष्ट द्विजातियों को वेद श्रवणका अधिकार नहीं है, इसलिये उनके कल्याणके लिये व्यासजीने पुराणों की रचना की है ।। 21 ।।
हे श्रेष्ठ मुनिगण! इस वैवस्वत नामक शुभ सातवें मन्वन्तरके अट्ठाइसवें द्वापरयुगमें परम धर्मनिष्ठ सत्यवतीपुत्र मेरे गुरु श्रीव्यासजी हुए और उनतीसवें द्वापरमें द्रौणि नामके व्यास होंगे।
इनके पूर्व भी सत्ताईस व्यास हो चुके हैं, जिन्होंने प्रत्येक युगमें अनेक पुराण संहिताएँ रची हैं 22-24
ऋषियोंने कहा- हे महाभाग सूतजी अब आप पूर्वकालमें प्रत्येक द्वापरयुगमें अवतीर्ण हुए पुराणवक्ता व्यासोंकी कथा कहिये ।। 25 ।।
सूतजी बोले- सृष्टिके बाद सर्वप्रथम द्वापरयुगमें स्वयं ब्रह्माजीने ही 'व्यास' के रूपमें प्रकट होकर वेदोंका विभाजन किया। दूसरे द्वापरमें प्रजापति' व्यास बने, तीसरे द्वापरमें 'शुक्राचार्य', चौथे द्वापरमें 'बृहस्पति', पाँचवेंमें 'सूर्य' तथा छठेमें 'यमराज' ही
साक्षात् व्यास बने थे ॥ 26-27 ॥
सातवें द्वापरमें 'इन्द्र', आठवेंमें 'वसिष्ठमुनि', नवेंमें 'सारस्वत' और दसवें द्वापरमें 'त्रिधामाजी' व्यास हुए ॥ 28 ॥
ग्यारहवेंमें 'त्रिवृष', बारहवेंमें भरद्वाजमुनि', तेरहवेंमें 'अन्तरिक्ष और चौदहवें द्वापरमें 'धर्मराज' स्वयं व्यास बने 29 ॥
पन्द्रहवें द्वापरमें 'त्रय्यारुणि', सोलहवेंमें 'धनंजय', सत्रहवें में 'मेधातिथि' तथा अठारह वें द्वापर में 'व्रतीमुनि' व्यास हुए ॥ 30 ॥
उन्नीसवें 'अत्रि', बीसवेंमें 'गौतम' और इक्कीसवें द्वापरमें हर्यात्मा 'उत्तम' नामक व्यास कहे गये हैं ।। 31 ।।
बाईसवें में 'वाजश्रवा वेन', तेईसवेंमें 'आमुष्यायण सोम', चौबीसवेंमें 'तृणविन्दु' तथा पचीसवें द्वापरमें 'भार्गव' व्यास हुए॥ 32 ॥
छब्बीसवेंमें 'शक्ति', सत्ताईसवेंमें 'जातुकर्ण्य' और अट्ठाईसवें द्वापरमें 'कृष्णद्वैपायनजी' व्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस व्यासोंके नाम जैसा मैंने सुना था, वैसा बता दिया ॥ 33 ॥
इन्हीं कृष्णद्वैपायन व्यासजीके द्वारा कहे गये श्रीमद्देवीभागवतपुराणको मैंने सुना था; जो पुण्यप्रद, सब प्रकारके दुःखोंका नाश करनेवाला, सब प्रकारके मनोरथ पूर्ण करनेवाला, मोक्षदाता, वैदिक भावोंसे ओत-प्रोत तथा सभी आगमोंके रसोंसे परिपूर्ण, अत्यन्त मनोहर एवं मुमुक्षुजनोंको सदा प्रिय लगनेवाला है l 34-35 ।।
जिस अत्यन्त पवित्र पुराणको रचकर व्यासजीने अरणीके गर्भ से उत्पन्न, विद्वान्, महात्मा एवं विरक्त अपने पुत्र शुकदेवजीको पढ़ाया था; हे मुनिवृन्द ! उसी रहस्यमय महापुराण (श्रीमद्देवीभागवत)-को मैंने भी करुणासागर अपने गुरु व्यासजीके मुखसे सम्पूर्णरूपसे यथार्थतः सुना तथा उनकी कृपासे उसे हृदयंगम कर लिया है ।। 36-37 ॥
जिस समय अयोनिज एवं अपूर्व बुद्धिमान् अपने | पुत्र शुकदेवजीके प्रश्न करनेपर व्यासजीने रहस्ययुक्त इस पुराणको सुनाया, उस समय मैंने भी एक साधारण श्रोताके रूपमें इस महान् प्रभाववाले श्रीमद्देवी भागवतमहापुराणको सुन लिया ॥ 38 ॥
हे सर्वश्रेष्ठ मुनिजन ! श्रीमद्भागवतरूपी इस कल्पवृक्षके फलके स्वादके प्रति आदरबुद्धि रखनेवाले तथा अपार संसार-सागरसे पार पानेके लिये श्रीशुकदेवजीने अनेक प्रकारकी सुन्दर एवं रसमयी कथाओंसे युक्त जिस अद्भुत महापुराणको विधिवत् अपने कर्णपुटसे प्रेमपूर्वक सुना है, उसे श्रवण करके भी जो कलिकालके भयसे मुक्त न हुआ, भला ऐसा प्राणी इस भूतलपर कौन होगा ? ।। 39 ।।
वैदिक धर्मसे रहित तथा निकृष्ट विचार रखनेवाला बड़े-से-बड़ा पापी मनुष्य भी यदि किसी बहाने इस उत्तम श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण कर लेता है तो वह भी निश्चय ही समस्त सांसारिक सुखोंको भोगकर अन्तमें योगिजनोंके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य, भगवतीके नामसे चिह्नित, मनोरम तथा अचल पदको प्राप्त कर लेता है ॥ 40 ॥
जो प्राणी इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणको प्रतिदिन प्रेमसे सुनता है, उसके हृदयरूपी गुहामें विष्णु, शिव आदि देवताओंके लिये भी दुर्लभ, सर्वश्रेष्ठ विद्यारूपिणी, सज्जनोंकी एकमात्र प्रिया, गुणातीता एवं समाधिद्वारा जाननेयोग्य वे भगवती निवास करने लगती हैं ॥ 41 ॥
अतः सर्वांगसुन्दर इस मानव-तनको पाकर संसार-सागरके अगाध सलिलसे पार होनेके लिये जलयानके समान परम सुखदायी श्रीमद्देवीभागवतपुराण एवं उसके वक्ताको प्राप्त करके भी जो मूर्ख इसका श्रवण नहीं करता, वह विधाताके द्वारा वंचित ही कहा जायगा ॥ 42 ॥
इस दुर्लभ मनुष्य देहमें दोनों कानोंको प्राप्त करके भी जो सांसारिक मनुष्य केवल दूसरोंके दुर्गुणोंको ही सुना करता है, वह अधम मन्दबुद्धि चारों उत्तम पदार्थों को देनेवाले तथा सब रसोंसे परिपूर्ण इस निर्मल पुराणको भूतलपर क्यों नहीं सुनता ? ॥ 43 ॥
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः १ अध्यायः ३
पुराणवर्णनपूर्वकतत्तद्युगीयव्यासवर्णनम्
सूत उवाच
शृण्वन्तु सम्प्रवक्ष्यामि पुराणानि मुनीश्वराः ।
यथाश्रुतानि तत्त्वेन व्यासात्सत्यवतीसुतात्।१।
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् ।
अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक्।२॥
चतुर्दशसहस्रं च मत्स्यमाद्यं प्रकीर्तितम् ।
तथा ग्रहसहस्रं तु मार्कण्डेयं महाद्भुतम् ॥ ३ ॥
चतुर्दशसहस्राणि तथा पञ्चशतानि च ।
भविष्यं परिसंख्यातं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥४।
अष्टादशसहस्रं वै पुण्यं भागवतं किल ।
तथा चायुतसंख्याकं पुराणं ब्रह्मसंज्ञकम् ॥५ ॥
द्वादशैव सहस्राणि ब्रह्माण्डं च शताधिकम् ।
तथाष्टादशसाहस्रं ब्रह्मवैवर्तमेव च ॥ ६ ॥
अयुतं वामनाख्यं च वायव्यं षट्शतानि च ।
चतुर्विंशतिसंख्यातः सहस्राणि तु शौनक ॥ ७ ॥
त्रयोविंशतिसाहस्रं वैष्णवं परमाद्भुतम् ।
चतुर्विंशतिसाहस्रं वाराहं परमाद्भुतम् ॥ ८ ॥
षोडशैव सहस्राणि पुराणं चाग्निसंज्ञितम् ।
पञ्चविंशतिसाहस्रं नारदं परमं मतम् ॥ ९ ॥
पञ्चपञ्चाशत्साहस्रं पद्माख्यं विपुलं मतम् ।
एकादशसहस्राणि लिङ्गाख्यं चातिविस्मृतम्।१०।
एकोनविंशत्साहस्रं गारुडं हरिभाषितम् ।
सप्तदशसहस्रं च पुराणं कूर्मभाषितम् ॥ ११ ॥
एकाशीतिसहस्राणि स्कन्दाख्यं परमाद्भुतम् ।
पुराणाख्या च संख्या च विस्तरेण मयानघाः ॥१२॥
तथैवोपपुराणानि शृण्वन्तु ऋषिसत्तमाः ।
सनत्कुमारं प्रथमं नारसिंहं ततः परम् ॥ १३॥
नारदीयं शिवं चैव दौर्वाससमनुत्तमम् ।
कापिलं मानवं चैव तथा चौशनसं स्मृतम् ॥ १४ ॥
वारुणं कालिकाख्यं च साम्बं नन्दिकृतं शुभम् ।
सौरं पाराशरप्रोक्तमादित्यं चातिविस्तरम् ॥ १५ ॥
माहेश्वरं भागवतं वासिष्ठं च सविस्तरम् ।
एतान्युपपुराणानि कथितानि महात्मभिः ॥ १६ ॥
अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः ।
भारताख्यानमतुलं चक्रे तदुपबृंहितम् ॥ १७ ॥
मन्वन्तरेषु सर्वेषु द्वापरे द्वापरे युगे ।
प्रादुःकरोति धर्मार्थी पुराणानि यथाविधि ।१८।
द्वापरे द्वापरे विष्णुर्व्यासरूपेण सर्वदा ।
वेदमेकं स बहुधा कुरुते हितकाम्यया ॥ १९ ॥
अल्पायुषोऽल्पबुद्धींश्च विप्रान्ज्ञात्वा कलावथ ।
पुराणसंहितां पुण्यां कुरुतेऽसौ युगे युगे ॥ २० ॥
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां न वेदश्रवणं मतम् ।
तेषामेव हितार्थाय पुराणानि कृतानि च।२१॥
मन्वन्तरे सप्तमेऽत्र शुभे वैवस्वताभिधे ।
अष्टाविंशतिमे प्राप्ते द्वापरे मुनिसत्तमाः ॥ २२ ॥
व्यासः सत्यवतीसूनुर्गुरुर्मे धर्मवित्तमः ।
एकोनत्रिंशत्संप्राप्ते द्रौणिर्व्यासो भविष्यति॥ २३।
अतीतास्तु तथा व्यासाः सप्तविंशतिरेव च ।
पुराणसंहितास्तैस्तु कथितास्तु युगे युगे ॥ २४ ॥
ऋषय ऊचुः
ब्रूहि सूत महाभाग व्यासाः पूर्वयुगोद्भवाः ।
वक्तारस्तु पुराणानां द्वापरे द्वापरे युगे ॥ २५ ॥
सूत उवाच
द्वापरे प्रथमे व्यस्ताः स्वयं वेदाः स्वयम्भुवा ।
प्रजापतिर्द्वितीये तु द्वापरे व्यासकार्यकृत् ॥ २६ ॥
तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थे तु बृहस्पतिः ।
पञ्चमे सविता व्यासः षष्ठे मृत्युस्तथापरे ॥ २७ ॥
मघवा सप्तमे प्राप्ते वसिष्ठस्त्वष्टमे स्मृतः ।
सारस्वतस्तु नवमे त्रिधामा दशमे तथा ॥ २८ ॥
एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततः परम् ।
त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्मश्चापि चतुर्दशे ॥ २९ ॥
त्रय्यारुणिः पञ्चदशे षोडशे तु धनञ्जयः ।
मेधातिथिः सप्तदशे व्रती ह्यष्टादशे तथा ॥ ३० ॥
अत्रिरेकोनविंशेऽथ गौतमस्तु ततः परम् ।
उत्तमश्चैकविंशेऽथ हर्यात्मा परिकीर्तितः ॥ ३१ ॥
वेनो वाजश्रवाश्चैव सोमोऽमुष्यायणस्तथा ।
तृणबिन्दुस्तथा व्यासो भार्गवस्तु ततः परम् ।३२॥
ततः शक्तिर्जातुकर्ण्यः कृष्णद्वैपायनस्ततः ।
अष्टाविंशतिसंख्येयं कथिता या मया श्रुता।३३।
कृष्णद्वैपायनात्प्रोक्तं पुराणं च मया श्रुतम् ।
श्रीमद्भागवतं पुण्यं सर्वदुःखौघनाशनम्।३४ ॥
कामदं मोक्षदं चैव वेदार्थपरिबृंहितम् ।
सर्वागमरसारामं मुमुक्षूणां सदा प्रियम् ॥ ३५ ॥
व्यासेन कृत्वातिशुभं पुराणं
शुकाय पुत्राय महात्मने यत्
वैराग्ययुक्ताय च पाठितं वै विज्ञाय चैवारणिसम्भवाय ॥ ३६ ॥
श्रुतं मया तत्र तथा गृहीतं
यथार्थवद्व्यासमुखान्मुनीन्द्राः ।
पुराणगुह्यं सकलं समेतं
गुरोः प्रसादात्करुणानिधेश्च ॥ ३७ ॥
सूतेन पृष्टः सकलं जगाद
द्वैपायनस्तत्र पुराणगुह्यम् ।
अयोनिजेनाद्भुतबुद्धिना वै श्रुतं मया तत्र महाप्रभावम् ॥ ३८ ॥
श्रीमद्भागवतामरांघ्रिपफलास्वादादरः सत्तमाः
संसारार्णवदुर्विगाह्यसलिलं सन्तर्तुकामः शुकः ।
नानाख्यानरसालयं श्रुतिपुटैः प्रेम्णाशृणोदद्भुतं
तच्छ्रुत्वा न विमुच्यते कलिभयादेवंविधः कः क्षितौ ॥ ३९ ॥
पापीयानपि वेदधर्मरहितः स्वाचारहीनाशयो ॥
व्याजेनापि शृणोति यः परमिदं श्रीमत्पुराणोत्तमम्
भुक्त्या भोगकलापमत्र विपुलं देहावसानेऽचलं
योगिप्राप्यमवाप्नुयाद्भगवतीनामाङ्कितं सुन्दरम् ।४०।
या निर्गुणा हरिहरादिभिरप्यलभ्या
विद्या सतां प्रियतमाथ समाधिगम्या ।
सा तस्य चित्तकुहरे प्रकरोति भावं
यः संशृणोति सततं तु सतीपुराणम् ॥ ४१ ॥
सम्प्राप्य मानुषभवं सकलाङ्गयुक्तं
पोतं भवार्णवजलोत्तरणाय कामम् ।
सम्प्राप्य वाचकमहो न शृणोति मूढःस वञ्चितोऽत्र विधिना सुखदं पुराणम् ॥ ४२ ॥
यः प्राप्य कर्णयुगलं पटुमानुषत्वेरागी शृणोति सततं च परापवादान् ।
सर्वार्थदं रसनिधिं विमलं पुराणंनष्टः कुतो न शृणुते भुवि मन्दबुद्धिः ॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे पुराणवर्णनपूर्वकतत्तद्युगीयव्यासवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
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