बुधवार, 27 दिसंबर 2023

रूद्र की उत्पत्ति मृत ब्रह्मा की देह से -


विभो रुद्र महामाय इच्छया वां कृतौ त्वया।
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा अभिनन्द्याभिमान्यच।६ ।
अनुवाद:-
हे महान मायावी रुद्र, आपने हमें अपनी इच्छा से उत्पन्न किया है
उन दोनों ( विष्णु और ब्रह्मा) की बातें सुनकर शिव ने गर्व से उनका स्वागत किया। 22.6।

उवाच भगवान्देवो मधुरं श्लक्ष्णया गिरा।
भो भो हिरण्य गर्भ ! त्वां त्वां च कृष्ण ब्रवीम्यहम्।२२.७।
अनुवाद:-
भगवान्-दिव्य देव मधुर और सौम्य स्वर में बोले
हे, स्वर्णिम गर्भ से उत्पन्न ब्रह्मा, मैं तुमसे और कृष्ण से कहता हूँ ।22.7 ।
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"प्रीतोऽहमनया भक्त्या शाश्वताक्षरयुक्तया।
भवन्तौ हृदयस्यास्य मम हृद्यतरावुभौ। ८ ।
अनुवाद:-
मैं इस अनादि अक्षरयुक्त भक्ति से प्रसन्न हूं।
तुम दौनों इस दिल के भी प्यारे हो और मेरे भी ।22.8.

युवाभ्यां किं ददाम्यद्य वराणां वरमीप्सितम्।
अथोवाच महाभागो विष्णुर्भवमिदं वचः।९।
अनुवाद:-
आज मैं तुम दोनों को क्या दूं कि तुम श्रेष्ठ  वरदान जो  चाहो माँगो-
तब परम भाग्यवान विष्णु ने भव( शिव) को इन शब्दों से सम्बोधित किया ।22.9 ।।

सर्वं मम कृतं देव परितुष्टोऽसि मे यदि।।
त्वयि मे सुप्रतिष्ठा तु भक्तिर्भवतु शङ्करः।।
 २२.१० ।।
अनुवाद:-
हे प्रभु, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं यदि मैंने आपके लिए सब कुछ किया है तो
हे भगवान शिव, आपके प्रति मेरी भक्ति अच्छी तरह स्थापित हो।22.10।

एवमुक्तस्तु विज्ञाय सम्भावयत केशवम्।।
प्रददौ च महादेवो भक्तिं निजपदाम्बुजे।११।
अनुवाद:-
इस प्रकार सम्बोधित करते हुए, उन्होंने केशव को जान कर  और उस पर ध्यान किया।
भगवान महादेव ने भी उनको अपने चरण कमलों में भक्ति प्रदान की। 22.11.

भवान्सर्वस्य लोकस्य कर्ता त्वमधिदैवतम्।।
तदेवं स्वस्ति ते वत्स गमिष्याम्यम्बुजेक्षण।१२।
अनुवाद:-
आप संपूर्ण विश्व के रचयिता हैं, आप सर्वोच्च देवता हैं।
बस इतना ही, तुम्हें शुभकामनाएँ, वत्स मेरे प्रिय, अब मैं चलूँगा, हे  कमल-नयन।22.12 ।।

एवमुक्त्वा तु भगवान् ब्रह्माणं चापि शङ्करः।।
अनुगृह्याऽस्पृशद्देवो ब्रह्माणं परमेश्वरः।१३।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर भगवान शिव ने भी ब्रह्मा को सम्बोधित किया
सर्वोच्च भगवान, ने कृपापूर्वक ब्रह्मा को स्पर्श किया। 22.13.

कराभ्यां सुशुभाभ्यां च प्राह हृष्टतरः स्वयम्।
मत्समस्त्वं न सन्देहो वत्स भक्तश्च मे भवान्।१४।
अनुवाद:-
दोनों शुभ हाथों से वह अधिक प्रसन्न होकर अपने आप  बोले! निःसंदेह तुम मेरे तुल्य हो, मेरे प्रिय बच्चे, और तुम मेरे भक्त हो। 22.14 ।।

स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि सञ्ज्ञा भवतु सुव्रत।।
एवमुक्त्वा तु भगवांस्ततोन्तर्धानमीश्वरः।१५।
अनुवाद:-
तुम्हें शुभकामनाएँ, मैं जाऊँगा और तुम्हारी भावनाएँ स्वस्थ रहें।
इतना कहकर देवगुरू ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये 22.15 ।।

गतवान् गणपो देवः सर्वदेवनमस्कृतः।
अवाप्य संज्ञां गोविन्दात् पद्मयोनिः पितामहः।१६।
अनुवाद:-
समस्त देवताओं द्वारा पूजित गणों के पालक देव 
कमल गर्भ  पितामह भगवान गोविंद ( विष्णु से) चेतना प्राप्त करके  चले गये।22.16.

प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किञ्चित्समवर्तत।१७ ।
अनुवाद:-
संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने कठोर तपस्या की इस प्रकार तप करते समय उस तप से कुछ नहीं हुआ ।22.17 ।

ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो ह्यजायत।।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः।१८।
अनुवाद:-
फिर बहुत दिनों के बाद ब्रह्मा के दुःख से क्रोध उत्पन्न हो गया।
क्रोध से आवेशित उसकी आँखों से आँसू की बूँदें गिर पड़ी। 22.18 ।

ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः।
महाभागा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरप्यलङ्कृताः।१९।
अनुवाद:-
फिर उन आंसू की बूंदों से वायु, पित्त और कफ से युक्त सत्व सम्पन्न महाभाग्यशाली  स्वास्तिक से अलंकृत ।१९। 

प्रकीर्णकेशाः सर्पास्ते प्रादुर्भूता महा विषाः।
सर्पांस्तानग्रजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिन्दयत्।२०।
अनुवाद,:-महाविषधर सर्प उत्पन्न हुए।
जिनके केश फैले हुए थे।-19।
अपने सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए उन सर्पों को देखकर  ब्रह्मा ने स्वयं अपनी  निंदा की।20।.

अहो धिक् तपसो मह्यं फलमीदृशकं यदि।
लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम।२१।
अनुवाद:-
यदि यह मेरी तपस्या का फल है तो धिक्कार है मुझ पर मेरे प्रजा के आदि में जगत् का नाश करने के सर्प उत्पन्न हुए हैं।21।.
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तस्य तीव्राभवन्मूर्च्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा।
मूर्च्छाभिपरितापेन जहौ प्राणान्प्रजापतिः।२२।
अनुवाद:-
वह तीव्र मूर्च्छा और क्रोध और अमर्ष( (असहनशीलता) के कारण अत्यधिक बेहोश हो गया और प्रजापति ब्रह्मा ने मूर्च्छा के ताप से  अपने प्राण त्याग दिये ।.22


तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम्।
अथैकादश ते रुद्रा रुदन्तोऽभ्यक्रमस्तथा।२३।
अनुवाद:-
तब उस अतुलनीय पराक्रमी पुरुष के शरीर से करुणापूर्वक रोते हुए ग्यारह रुद्र उत्पन्न होकर उनके पास आये ।23 ।

"रोदनात्खलु रुद्रत्वं तेषु वै समजायत।
ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः।२४।
अनुवाद:-
उनके रुदन करने  से ही वे रुद्र कहलाए वे रुद्र वास्तव में जीवन-शक्ति ( प्राण) हैं और वे जीवन-शक्तियाँ उन्हीं से बनी हैं।24।


प्राणाः प्राणवतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः।
अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुराचरितस्य च।२५।
अनुवाद:-
जीवन देने वाली प्राणों को सभी प्राणियों में निवास के रूप में समझा जाना चाहिए।
वह अत्यंत उग्र और अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा साधु आचरण वाला थे ।25।
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प्राणांस्तस्य ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः।
लब्ध्वासून् भगवान्ब्रह्म देवदेवमुमापतिम्।२६।अनुवाद:-
नीले और लाल त्रिशूल धारी ने उस ब्रह्मा को फिर से जीवन देकर जीवित कर दिया।
देवताओं के स्वामी ब्रह्मा  ने प्राणो  को प्राप्त कर  रूद्र रूप में  उमापति को ही प्राप्त कर लिया।26।

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श्रीलिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक द्वाविंशतितमोऽध्यायः। २२।
यह  लिंग-पुराण के पूर्वी भाग में रुद्र की उत्पत्ति का वर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय है। 22।


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