बुधवार, 27 दिसंबर 2023

रूद्र की उत्पत्ति मृत ब्रह्मा की देह से -


विभो रुद्र महामाय इच्छया वां कृतौ त्वया।
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा अभिनन्द्याभिमान्यच।६ ।
अनुवाद:-
हे महान मायावी रुद्र, आपने हमें अपनी इच्छा से उत्पन्न किया है
उन दोनों ( विष्णु और ब्रह्मा) की बातें सुनकर शिव ने गर्व से उनका स्वागत किया। 22.6।

उवाच भगवान्देवो मधुरं श्लक्ष्णया गिरा।
भो भो हिरण्य गर्भ ! त्वां त्वां च कृष्ण ब्रवीम्यहम्।२२.७।
अनुवाद:-
भगवान्-दिव्य देव मधुर और सौम्य स्वर में बोले
हे, स्वर्णिम गर्भ से उत्पन्न ब्रह्मा, मैं तुमसे और कृष्ण से कहता हूँ ।22.7 ।
__________________

"प्रीतोऽहमनया भक्त्या शाश्वताक्षरयुक्तया।
भवन्तौ हृदयस्यास्य मम हृद्यतरावुभौ। ८ ।
अनुवाद:-
मैं इस अनादि अक्षरयुक्त भक्ति से प्रसन्न हूं।
तुम दौनों इस दिल के भी प्यारे हो और मेरे भी ।22.8.

युवाभ्यां किं ददाम्यद्य वराणां वरमीप्सितम्।
अथोवाच महाभागो विष्णुर्भवमिदं वचः।९।
अनुवाद:-
आज मैं तुम दोनों को क्या दूं कि तुम श्रेष्ठ  वरदान जो  चाहो माँगो-
तब परम भाग्यवान विष्णु ने भव( शिव) को इन शब्दों से सम्बोधित किया ।22.9 ।।

सर्वं मम कृतं देव परितुष्टोऽसि मे यदि।।
त्वयि मे सुप्रतिष्ठा तु भक्तिर्भवतु शङ्करः।।
 २२.१० ।।
अनुवाद:-
हे प्रभु, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं यदि मैंने आपके लिए सब कुछ किया है तो
हे भगवान शिव, आपके प्रति मेरी भक्ति अच्छी तरह स्थापित हो।22.10।

एवमुक्तस्तु विज्ञाय सम्भावयत केशवम्।।
प्रददौ च महादेवो भक्तिं निजपदाम्बुजे।११।
अनुवाद:-
इस प्रकार सम्बोधित करते हुए, उन्होंने केशव को जान कर  और उस पर ध्यान किया।
भगवान महादेव ने भी उनको अपने चरण कमलों में भक्ति प्रदान की। 22.11.

भवान्सर्वस्य लोकस्य कर्ता त्वमधिदैवतम्।।
तदेवं स्वस्ति ते वत्स गमिष्याम्यम्बुजेक्षण।१२।
अनुवाद:-
आप संपूर्ण विश्व के रचयिता हैं, आप सर्वोच्च देवता हैं।
बस इतना ही, तुम्हें शुभकामनाएँ, वत्स मेरे प्रिय, अब मैं चलूँगा, हे  कमल-नयन।22.12 ।।

एवमुक्त्वा तु भगवान् ब्रह्माणं चापि शङ्करः।।
अनुगृह्याऽस्पृशद्देवो ब्रह्माणं परमेश्वरः।१३।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर भगवान शिव ने भी ब्रह्मा को सम्बोधित किया
सर्वोच्च भगवान, ने कृपापूर्वक ब्रह्मा को स्पर्श किया। 22.13.

कराभ्यां सुशुभाभ्यां च प्राह हृष्टतरः स्वयम्।
मत्समस्त्वं न सन्देहो वत्स भक्तश्च मे भवान्।१४।
अनुवाद:-
दोनों शुभ हाथों से वह अधिक प्रसन्न होकर अपने आप  बोले! निःसंदेह तुम मेरे तुल्य हो, मेरे प्रिय बच्चे, और तुम मेरे भक्त हो। 22.14 ।।

स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि सञ्ज्ञा भवतु सुव्रत।।
एवमुक्त्वा तु भगवांस्ततोन्तर्धानमीश्वरः।१५।
अनुवाद:-
तुम्हें शुभकामनाएँ, मैं जाऊँगा और तुम्हारी भावनाएँ स्वस्थ रहें।
इतना कहकर देवगुरू ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये 22.15 ।।

गतवान् गणपो देवः सर्वदेवनमस्कृतः।
अवाप्य संज्ञां गोविन्दात् पद्मयोनिः पितामहः।१६।
अनुवाद:-
समस्त देवताओं द्वारा पूजित गणों के पालक देव 
कमल गर्भ  पितामह भगवान गोविंद ( विष्णु से) चेतना प्राप्त करके  चले गये।22.16.

प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किञ्चित्समवर्तत।१७ ।
अनुवाद:-
संतान उत्पन्न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने कठोर तपस्या की इस प्रकार तप करते समय उस तप से कुछ नहीं हुआ ।22.17 ।

ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो ह्यजायत।।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिन्दवः।१८।
अनुवाद:-
फिर बहुत दिनों के बाद ब्रह्मा के दुःख से क्रोध उत्पन्न हो गया।
क्रोध से आवेशित उसकी आँखों से आँसू की बूँदें गिर पड़ी। 22.18 ।

ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः।
महाभागा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरप्यलङ्कृताः।१९।
अनुवाद:-
फिर उन आंसू की बूंदों से वायु, पित्त और कफ से युक्त सत्व सम्पन्न महाभाग्यशाली  स्वास्तिक से अलंकृत ।१९। 

प्रकीर्णकेशाः सर्पास्ते प्रादुर्भूता महा विषाः।
सर्पांस्तानग्रजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिन्दयत्।२०।
अनुवाद,:-महाविषधर सर्प उत्पन्न हुए।
जिनके केश फैले हुए थे।-19।
अपने सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए उन सर्पों को देखकर  ब्रह्मा ने स्वयं अपनी  निंदा की।20।.

अहो धिक् तपसो मह्यं फलमीदृशकं यदि।
लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम।२१।
अनुवाद:-
यदि यह मेरी तपस्या का फल है तो धिक्कार है मुझ पर मेरे प्रजा के आदि में जगत् का नाश करने के सर्प उत्पन्न हुए हैं।21।.
_________
तस्य तीव्राभवन्मूर्च्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा।
मूर्च्छाभिपरितापेन जहौ प्राणान्प्रजापतिः।२२।
अनुवाद:-
वह तीव्र मूर्च्छा और क्रोध और अमर्ष( (असहनशीलता) के कारण अत्यधिक बेहोश हो गया और प्रजापति ब्रह्मा ने मूर्च्छा के ताप से  अपने प्राण त्याग दिये ।.22


तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम्।
अथैकादश ते रुद्रा रुदन्तोऽभ्यक्रमस्तथा।२३।
अनुवाद:-
तब उस अतुलनीय पराक्रमी पुरुष के शरीर से करुणापूर्वक रोते हुए ग्यारह रुद्र उत्पन्न होकर उनके पास आये ।23 ।

"रोदनात्खलु रुद्रत्वं तेषु वै समजायत।
ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः।२४।
अनुवाद:-
उनके रुदन करने  से ही वे रुद्र कहलाए वे रुद्र वास्तव में जीवन-शक्ति ( प्राण) हैं और वे जीवन-शक्तियाँ उन्हीं से बनी हैं।24।


प्राणाः प्राणवतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः।
अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुराचरितस्य च।२५।
अनुवाद:-
जीवन देने वाली प्राणों को सभी प्राणियों में निवास के रूप में समझा जाना चाहिए।
वह अत्यंत उग्र और अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा साधु आचरण वाला थे ।25।
_________     

प्राणांस्तस्य ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः।
लब्ध्वासून् भगवान्ब्रह्म देवदेवमुमापतिम्।२६।अनुवाद:-
नीले और लाल त्रिशूल धारी ने उस ब्रह्मा को फिर से जीवन देकर जीवित कर दिया।
देवताओं के स्वामी ब्रह्मा  ने प्राणो  को प्राप्त कर  रूद्र रूप में  उमापति को ही प्राप्त कर लिया।26।

__________
श्रीलिङ्गमहापुराण पूर्वभाग रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नामक द्वाविंशतितमोऽध्यायः। २२।
यह  लिंग-पुराण के पूर्वी भाग में रुद्र की उत्पत्ति का वर्णन नामक बाईसवाँ अध्याय है। 22।


भारतीय अध्यात्म दर्शन में एक सामाजिक दुविधा है।
यहां हर देवी के साथ उनके भैरव का पूजन होता है और हर देव के साथ उनकी शक्ति का पूजन होता है।

शक्ति का कोई भी विग्रह बिना भैरव के नहीं है।
कुछ कथानकों में जैसे मां वैष्णो देवी का सायुज्य पाया भैरव उनको भयावह पीड़ा देने की इच्छा से पीछे पड़ा था... मां ने उसके द्वारा क्षमा प्रार्थना पर अपने से भी ऊंचा स्थान दिया और मां की पूजा बिना भैरव्वके पूर्ण नहीं होती है।

जबकि वह दैत्य कुल से था।
इसी प्रकार स्तंभन की देवी मां बगलामुखी भी राक्षस की जिव्हा पकड़े हुए विग्रह में दर्शन देती हैं, उनके साथ भी राक्षस मदन की पूजा होती है।

इस प्रकार के बहुत से कथानक हैं।
जहां तक मथुरा वृंदावन की बात है, यहां से तो भगवान कृष्ण भी पीड़ित होकर मथुरा वालों के सुख के लिए द्वारिका चले गए थे।

शेष तो क्या कहें...
वास्तविकता केवल दबंगई और अधिपत्य, वर्चस्व की लड़ाई की है...उसी के कारण सब हुआ...दोनों में से कोई कम नहीं है...


वर्चस्व का युद्ध है। पहले स्वयं में होता है, फिर स्वयं के विजातीय गुणों द्वारा पराए से होता है। वह पराया और कोई नही अपनी ही विजातीय गुणों का एक प्रतिबिंब है।
[
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)/अध्यायः ५४


अधिक
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अध्यायः ५४
वेदव्यासः
                    "राजोवाच"
कुत्राधारो महाविष्णोः सर्वाधारस्य तस्य च।
कालभीतस्य कति च कालमाया मुनीश्वर।।१।।

क्षुद्रस्य कतिचित्कालं ब्रह्मणः प्रकृतेस्तथा ।।
मनोरिन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्य्यस्यायुस्तथैव च । २ ।

अन्येषां वै जनानां च प्राकृतानां परं वयः ।।
वेदोक्तं सुविचार्य्यं च वद वेदविदां वर ।। ३ ।।

विश्वानामूर्ध्वभागे च कस्स्याद्वा लोक एव सः ।।
कथयस्व महाभाग सन्देहच्छेदनं कुरु ।। ४ ।।

                 ।मुनिरुवाच।
गोलोको नृप विश्वानां विस्तृतश्च नभस्समः ।।
तथा नित्यं डिम्बरूपश्श्रीकृष्णेच्छासमुद्भवः ।९।

जलेन परिपूर्णश्च कृष्णस्य मुखबिन्दुना ।।
सृष्ट्युन्मुखस्यादिसर्गे परिश्रान्तस्य खेलतः ।।६।।

प्रकृत्या सह युक्तस्य कलया निजया नृप ।।
तत्राधारो महाविष्णोर्विश्वाधारस्य विस्तृतः ।।७।।
______________
प्रकृतिर्गर्भसंर्युक्तडिम्बोद्भूतस्य भूमिप ।।
सुविस्तृते जलाधारे शयानश्च महाविराट् ।। ८ ।।

राधेश्वरस्य कृष्णस्य षोडशांशः प्रकीर्तितः ।।
दूर्वादलश्यामरूपः सस्मितश्च चतुर्भुजः ।। ९ ।।

वनमालाधरः श्रीमाञ्छोभितः पीतवाससा ।।
ऊर्ध्वं नभसि तद्विष्णोर्नित्यवैकुण्ठ एव च ।।2.54.१०।।

आत्माऽऽकाशसमो नित्यो विस्तृतश्चन्द्रबिम्बवत् ।।
ईश्वरेच्छासमुद्भूतो निर्लक्ष्यश्च निराश्रयः ।। ११ ।।

आकाशवत्सुविस्तारो रत्नौघैश्च विनिर्मितः ।।
तत्र नारायणः श्रीमान्वनमाली चतुर्भुजः ।। १२ ।।

लक्ष्मीसरस्वतीगङ्गातुलसीपतिरीश्वरः ।।
सुनन्दनन्दकुमुदपार्षदादिभिरावृतः।।१३।।

सर्वेशः सर्वसिद्धेशो भक्तानुग्रहविग्रहः ।।
श्रीकृष्णश्च द्विधाभूतो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।।१४।।

चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।।
ऊर्ध्वं वैकुण्ठलोकाच्च पञ्चाशत्कोटियोजनात। १५।

गोलोको वर्त्तुलाकारो वरिष्ठस्सर्वलोकतः ।।
अमूल्यरत्नखचितैर्मन्दिरैश्च विभूषितः ।१६।

रत्नेन्द्रसारखचितैः स्तम्भसोपानचित्रितैः ।।
मणीन्द्रदर्पणासक्तैः कपाटैः कलशोज्ज्वलैः।१७।

नानाचित्रविचित्रैश्च शिविरैश्च विराजितः ।।
कोटियोजनविस्तीर्णो दैर्घ्ये शतगुणस्तथा ।।
विरजासरिदाकीर्णैश्शतशृंगैस्सुवेष्टितः ।। १८ ।।

सरिदर्धप्रमाणेन दैर्घ्येण च ततेन च ।।
शैलार्द्धपरिमाणेन युक्तो वृन्दावनेन च ।।१९ ।।

तदर्द्धमानविलसद्रासमण्डलमण्डितः ।।
सरिच्छैलवनादीनां मध्ये गोलोक एव च ।। 2.54.२०।

यथा पंकजमध्ये च कर्णिका सुमनोहरा ।।
तत्र गोगोपगोपीभिर्गोपीशो रासमण्डले ।। २१ ।।

रासेश्वर्य्या राधिकया संयुक्तः सन्ततं नृप ।।
द्विभुजो मुरलीहस्तः शिशुर्गोपालरूपधृक् ।।२२।।

वह्निशुद्धांशुकाधानो रत्नभूषणभूषितः ।।
चन्दनोक्षितसर्वांगो रत्नमालाविराजितः ।।२३।।

रत्नसिंहासनस्थश्च रत्नच्छत्रेण शोभितः ।।
तथा स प्रियगोपालैः सेवितः श्वेतचामरैः ।। २४ ।।

भूषिताभिश्च गोपीभिर्मालाचन्दनचर्चितः।।
सस्मितः सकटाक्षाभिः सुवेषाभिश्च वीक्षितः।।२५।।

कथितो लोकविस्तारो यथाशक्ति यथागमम्।।
यथाश्रुतं शम्भुवक्त्रात्कालमानं निशामय ।। २६ ।।

पात्रं षट्पलसंभूतं गभीरं चतुरङ्गुलम् ।। २७ ।।

स्वर्णमाषकृतच्छिद्रं दण्डैश्च चतुरंगुलैः ।।
यावज्जलप्लुतं पात्रं तत्कालं दण्डमेव च ।। २८ ।।

दण्डद्वयं मुहूर्तं च यामस्तस्य चतुष्टयम् ।।
वासरश्चाष्टभिर्यामैः पक्षस्तैर्दशपञ्चभिः ।। २९ ।।

मासो द्वाभ्यां च पक्षाभ्यां वर्षं द्वादशमासकैः ।।
मासेन वै नराणां च पितॄणां तदहर्निशम् ।। 2.54.३० ।।

कृष्णपक्षे दिनं प्रोक्तं शुक्ले रात्रिः प्रकीर्त्तिता ।।
वत्सरेण नराणां च देवानां च दिवानिशम् ।। ३१ ।।

अयनं ह्युत्तरमहो रात्रिर्वै दक्षिणायनम् ।।
युगकर्मानुरूपं च नरादीनां वयो नृप ।। ३२ ।।

प्रकृतेः प्राकृतानां च ब्रह्मादीनां निशामय ।।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।। ३३ ।।

दिव्यैर्द्वादशसाहस्रैः सावधानं निशामय ।।
चत्वारि त्रीणि च द्वयेकं सहस्राणि कृतादिकम् ।।३४।।

तेषां च सन्ध्यासन्ध्यांशौ द्वे सहस्रे प्रकीर्तिते ।।
त्रिचत्वारिंशकैर्लक्षैस्सविंशतिसहस्रकैः ।। ३५ ।।

चतुर्युगं परिमितं नरमानक्रमेण च ।।
लक्षैश्च सप्तदशभिस्साष्टविंशसहस्रकैः ।। ३६ ।।

कृतं युगं नृमानेन संख्याविद्भिः प्रकीर्त्तितम् ।।
सहस्रैष्षण्णवतिभिर्लक्षैर्द्वादशभिस्सह ।। ३७ ।।

त्रेतायुगं परिमितं कालविद्भिः प्रकीर्त्तितम् ।।
अष्टलक्षैस्सह मितं चतुष्षष्टिसहस्रकम्।।३८।।

परिमाणं द्वापरस्य संख्याविद्भिरितीरितम्।।
सद्वात्रिंशत्सहस्रैश्च चतुर्लक्षैश्च वत्सरैः।।
नृमानाद्वै कलियुगं विदुः कालविदो बुघाः।।३९।।

तत्र सप्त च वारा वै तिथयः षोडश स्मृताः।।
दिवारात्र्यश्च पक्षौ द्वौ मासो वर्षं च निर्मितम्।।2.54.४०।।

तथा भ्रमति तच्चक्रमेवमेवं चतुर्युगम्।।
तथा युगानि राजेन्द्र तथा मन्वन्तराणि च।।४१।।

मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः।।
एवं क्रमाद्भ्रमन्त्येव मनवश्च चतुर्दश।।४२।।

पञ्चविंशतिसाहस्रं षष्ट्यन्तशतपञ्चकम् ।।
नरमानयुगं चैव परं मन्वन्तरं स्मृतम्।।४३।।

आख्यानं च मनूनां च धर्मिष्ठानां नराधिप।।
यच्छ्रुतं शिववक्त्रेण तत्त्वं मत्तो निशामय।।४४।।
_______________________________

आद्यो मनुर्ब्रह्मपुत्रः शतरूपा पतिव्रता ।।
धर्मिष्ठानां वरिष्ठश्च गरिष्ठो मनुषु प्रभुः।।४५।।

स्वायम्भुवः शम्भुशिष्यो विष्णुव्रतपरायणः ।।
जीवन्मुक्तो महाज्ञानी भवतः प्रपितामहः।।४६।।

राजसूयसहस्रं च चक्रे वै नर्मदातटे।।
त्रिलक्षमश्वमेधं च त्रिलक्षं नरमेधकम्।।४७।।

गोमेधं च चतुर्लक्षं विधिवन्महदद्भुतम् ।।
ब्राह्मणानां त्रिकोटीश्च भोजयामास नित्यशः।४८।

पञ्चलक्षगवां मांसैः सुपक्वैर्घृतसंस्कृतैः।
चर्व्यैंश्चोष्यैर्लेह्यपेयैर्मिष्टद्रव्यैः सुदुर्लभैः।।४९।।
***************

हे मनुष्यों के स्वामी धर्मात्मा मनु की कथा
जो सत्य तुमने भगवान शिव के मुख से सुना है, वह मुझसे सुनो।
प्रथम मनु ब्रह्मा के पुत्र थे और सतरूपा एक पतिव्रता स्त्री थीं
वह धर्मात्माओं में सबसे अग्रणी और मनुओं में सबसे प्रमुख भगवान हैं।
स्वायंभुव भगवान शंभु के शिष्य थे और भगवान विष्णु की प्रतिज्ञा के प्रति समर्पित थे।
आपके परदादा एक महान बुद्धिमान व्यक्ति हैं जो जीवित मुक्त हो गये हैं।
उन्होंने नर्मदा के तट पर एक हजार राजसूय यज्ञ भी किये
तीन लाख अश्व बलि और तीन लाख मानव बलि।
विधि-विधान से चार लाख गौ-यज्ञ किये गये
वह प्रतिदिन तीन करोड़ ब्राह्मणों को भोजन भी कराते थे 48.
पांच लाख गायों का मांस मक्खन में पकाया गया
वे मांस, सूखा भोजन, तरल पेय और मीठी चीजों के साथ बहुत कम पाए जाते थे।
एक लाख बहुमूल्य रत्न और दस करोड़ सोना
यह सोने के सींगों वाली और अच्छी तरह से पूजी जाने वाली एक दिव्य लाख गायें थीं। ।।2.54.50।।

__________
अमूल्यरत्नलक्षं च दशकोटिसुवर्णकम् ।
स्वर्णशृङ्गयुतं दिव्यं गवां लक्षं सुपूजितम् ।।2.54.५०।।

वह्निशुद्धानि वस्त्राणि मुनीन्द्राणां च लक्षकम् ।।
भूमिं च सर्वसस्याढ्यां गजेन्द्राणां च लक्षकम्।।
त्रिलक्षमश्वरत्नं च शातकुंभविभूषितम्।।९१।।

सहस्रं रथरत्नं च शिविकालक्षमेव च।।
त्रिकोटिस्वर्णपात्राणि सान्नं सजलमीप्सितम्।।
त्रिकोटिस्वर्णभूषाश्च कर्पूरादिसुवासितम्।।५२।।

ताम्बूलं सुविचित्रं च त्रिकोटिस्वर्णतल्पकम्।।
रत्नेन्द्रखचितैर्मञ्चैः रचितैर्विश्वकर्मणा ।।५३।।

वह्निशुद्धाञ्शुकैश्चित्रै राजितं माल्यजालकैः।।
नित्यं ददौ ब्राह्मणेभ्यो विष्णुप्रीत्या शिवाज्ञया।।५४।।

सम्प्राप्य शंकराज्ज्ञानं कृष्णमन्त्रं सुदुर्लभम्।।
सम्प्राप्य कृष्णदास्यं च गोलोकं वै जगाम सः।।५५।

दृष्ट्वा मुक्तं स्वपुत्रं च प्रहष्टोऽभूत्प्रजापतिः।।
तुष्टाव शंकरं तुष्टः ससृजेऽन्यं मनुं विधिः।।५६।।

यतः स्वयम्भुपुत्रोऽयमतः स्वायम्भुवो मनुः।।
स्वारोचिषो मनुश्चैव द्वितीयो वह्निनन्दनः।।५७।।

राजा वदान्यो धर्मिष्ठः स्वायम्भुवसमो महान् ।।
प्रियव्रतसुतावन्यौ द्वौ मनू धर्मिणां वरौ ।। ५८ ।।

तौ तृतीयौ चतुर्थौ च वैष्णवौ तापसोत्तमौ ।।
तौ च शङ्करशिष्यौ च कृष्णभक्तिपरायणौ ।५९।

धर्मिष्ठानां वरिष्ठश्च रैवतः पञ्चमो मनुः ।।
षष्ठश्च चाक्षुषो ज्ञेयो विष्णुभक्तिपरायणः ।। 2.54.६०।।

श्राद्धदेवः सूर्यसुतो वैष्णवः सप्तमो मनुः ।।
सावर्णिः सूर्यतनयो वैष्णवो मनुरष्टमः ।। ६१ ।।

नवमो दक्षसावर्णिर्विष्णुव्रतपरायणः ।।
दशमो ब्रह्मसावर्णिर्ब्रह्मज्ञानविशारदः ।। ६२ ।।

ततश्च धर्मसावर्णिर्मनुरेकादशः स्मृतः ।।
धर्मिष्ठश्च वरिष्ठश्च वैष्णवव्रततत्परः ।।६३ ।।

ज्ञानी च रुद्रसावर्णिर्मनुश्च द्वादशः स्मृतः ।।
धर्मात्मा देवसावर्णिर्मनुरेवं त्रयोदशः ।। ६४ ।।

चतुर्दशो महाज्ञानी चन्द्रसावर्णिरेव च ।।
यावदायुर्मनूनां स्यादिन्द्राणां तावदेव हि ।। ६५ ।।

चतुर्दशेन्द्रावच्छिन्नं ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।।
तावती ब्रह्मणो रात्रिः सा च ब्राह्मी निशा नृप ।। ६६ ।।

कालरात्रिश्च सा ज्ञेया वेदेषु परिकीर्त्तिता ।।
ब्रह्मणो वासरे राजन्क्षुद्रकल्पः प्रकीर्त्तितः।।६७ ।।

सप्तकल्पे चिरञ्जीवी मार्कण्डेयो महातपाः ।।
ब्रह्मलोकादधः सर्वे लोका दग्धाश्च तत्र वै ।। ६८ ।।

उत्थितेनैव सहसा सङ्कर्षणमुखाग्निना ।।
चन्द्रार्कब्रह्मपुत्राश्च ब्रह्मलोकं गता ध्रुवम् ।।६९।।

ब्रह्मरात्रिव्यतीते तु पुनश्च ससृजे विधिः ।।
तस्यां ब्रह्मनिशायां च क्षुद्रः प्रलय उच्यते ।। 2.54.७० ।।

देवाश्च मनवश्चैव तत्र दग्धा नरादयः ।।
एवं त्रिंशद्दिवारात्रैर्ब्रह्मणो मास एव च ।। ७१ ।।

वर्षं द्वादशमासैश्च ब्रह्मसम्बन्धि चैव हि ।।
एवं पञ्चदशाब्दे तु गते च ब्रह्मणो नृप ।।
दैनन्दिनस्तु प्रलयो वेदेषु परिकीर्त्तितः ।। ७२ ।।

मोहरात्रिश्च सा प्रोक्ता वेदविद्भिः पुरातनैः ।।
तत्र सर्वे प्रणष्टास्स्युश्चन्द्रार्कादिदिगीश्वराः ।। ७३ ।।

आदित्या वसवो रुद्रा मनवो मानवादयः ।।
ऋषयो मुनयश्चैव गन्धर्वा राक्षसादयः ।। ७४ ।।

मार्कण्डेयो लोमशश्च पेचकश्चिरजीविनः ।।
इन्द्रद्युम्नश्च नृपतिश्चाकूपारश्च कच्छपः ।।७९।।

नाडीजङ्घो बकश्चैव सर्वे नष्टाश्च तत्र वै ।।
ब्रह्मलोकादधः सर्वे लोका नागालयास्तथा ।७६।

ब्रह्मलोकं ययुः सर्वे ब्रह्मपुत्रादयस्तथा ।।
गते दैनंदिने ब्रह्मा लोकांश्च ससृजे पुनः ।।७७।।

एवं शताब्दपर्य्यन्तं परमायुः प्रजापतेः ।।
ब्रह्मणश्च निपाते स्यान्महाकल्पो भवेन्नृप ।। ७८ ।।

प्रकीर्तिता महारात्रिः सैव चेह पुरातनैः ।।
ब्रह्मणश्च निपाते च ब्रह्माण्डौघो जलप्लुतः ।।७९।

देवमाता च सावित्री वेदा धर्म्मादयस्तथा ।।
सर्वे प्रणष्टा मृत्युश्च प्रकृतिं च शिवं विना ।। 2.54.८० ।।

नारायणे प्रलीनाश्च विश्वस्था वैष्णवास्तथा ।।
कालाग्निरुद्रः संहर्त्ता सर्वरुद्रगणैः सह ।।८१।।

मृत्युञ्जये महादेवे प्रलीनः स तमो गुणः ।।****
ब्रह्मणश्च निपातेन निमेषः प्रकृतेर्भवेत् ।। ८२ ।

नारायणस्य शम्भोश्च महाविष्णोश्च निश्चितम् ।।
निमेषान्ते पुनः सृष्टिर्भवेत्कृष्णेच्छया नृप ।। ८३ ।।

कृष्णो निमेषरहितो निर्गुणः प्रकृते परः ।।
सगुणानां निमेषश्च कालसंख्यावयोमितः ।८४ ।।

निर्गुणस्य च नित्यस्य चाद्यन्तरहितस्य च ।।
निमेषाणां सहस्रेण प्रकृतेर्दण्ड उच्यते ।। ८९ ।।

षष्टिदण्डात्मिकास्तस्या वासरश्च प्रकीर्त्तितः ।।
त्रिंशद्रात्रिं दिनैर्मासो वर्षं द्वादशमासकैः ।। ८६ ।।

एवं गते शताब्दे च श्रीकृष्णे प्रकृतेर्लयः ।।
प्रकृत्यां च प्रलीनायां श्रीकृष्णे प्राकृतो लयः।८७।

सर्वान्संहृत्य सा चैका महाविष्णोः प्रसूश्च या ।।
कृष्णवक्षसि लीना च मूलप्रकृतिरीश्वरी ।८८ ।।

सन्तो वदन्ति तां दुर्गां विष्णुमायां सनातनीम् ।।
सर्वशक्तिस्वरूपां च परां नारायणीं सतीम् ।। ८९।

बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी च श्रीकृष्णस्यैव निर्गुणाम् ।।
यन्मायामोहिताश्चैव ब्रह्मविष्णुशिवादयः।।2.54.९०।।

वैष्णवास्तां महालक्ष्मीं परां राधां वदन्ति ते ।।
अर्द्धाङ्गां च महालक्ष्मीः प्रिया नारायणस्य च ।। ९१ ।।

प्राणाधिष्ठातृदेवीं च प्रेम्णा प्राणाधिकां वराम् ।।
स्थिरप्रेममयीं शक्तीं निर्गुणां निर्गुणस्य च ।।९२।।

नारायणश्च शम्भुश्च संहृत्य स्वगणान्बहून् ।।
शुद्धसत्त्वस्वरूपी श्रीकृष्णे लीनश्च निर्गुणे।। ।।९३।।

गोपा गोप्यश्च गावश्च सवत्साश्च नराधिप ।।
सर्वे लीनाः प्रकृत्यां च प्रकृतिः परमेश्वरे।।९४।

महाविष्णौ विलीनाश्च ते सर्वे क्षुद्रविष्णवः ।।
महाविष्णुः प्रकृत्यां च सा चैवं परमात्मनि।।९५।
*******

प्रकृतिर्योगनिद्रा च श्रीकृष्णनयनद्वये ।।
अधिष्ठानं चकारैवं मायया चेश्वरेच्छया।।९६।।

प्रकृतेर्वासरो यावन्मितः कालः प्रकीर्त्तितः ।।
तावद्वृन्दावने निद्रा कृष्णस्य परमात्मनः।।९७।।

अमूल्य रत्नतल्पे च वह्निशुद्धांशुकार्चिते ।।
गन्धचन्दनमाल्यौघवाय्वादिसुरभीकृते ।। ९८ ।।

पुनः प्रजागरे तस्य सर्वसृष्टिर्भवेत्पुनः ।।
एवं सर्वे प्राकृताश्च श्रीकृष्णं निर्गुणं विना ।। ९९ ।।

तद्वन्दनं तत्स्मरणं तस्य ध्यानं तदर्चनम् ।।
कीर्त्तनं तद्गुणानां च महापातकनाशनम् ।। 2.54.१००।

एतत्ते कथितं सर्वं यद्यन्मृत्युञ्जयाच्छ्रुतम् ।।
यथागमं महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।१०१।
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                     "सुयज्ञ उवाच"
कालाग्निरुद्रो विश्वानां संहर्त्ता च तमोगुणः ।।
ब्रह्मणोऽन्ते विलीनश्च सत्त्वं मृत्युञ्जये शिवे ।।१०२।।

शिवो लीनो निर्गुणे च श्रीकृष्णे प्राकृते लये ।।
कथं तव गुरोर्नाम मृत्युञ्जय इति श्रुतम् ।।१०३।।

कथं प्रसूर्महाविष्णोर्मूलप्रकृतिरीश्वरी।।
असंख्यानि च विश्वानि सन्ति वै यस्य लोमसु ।। १०४ ।।
सुतपा उवाच ।।
ब्रह्मणोऽन्ते मृत्युकन्या प्रणष्टा जलबिम्बवत् ।।
संहर्त्री सर्वलोकानां ब्रह्मादीनां नराधिप ।। १०५ ।।

कतिधा मृत्युकन्यानां ब्रह्मणां कोटिशो लये ।।
कालेन लीनः शम्भुश्च सत्त्वरूपे च निर्गुणे ।१०६ ।।

मृत्युकन्या जिता शश्वच्छिवेन गुरुणा मम ।।
न मृत्युना जितः शम्भुः कल्पे कल्पे श्रुतौ श्रुतम् ।। १०७ ।।

शम्भुर्नारायणस्यैव प्रकृतेश्च नराधिप ।।
नित्यानां लीनता नित्ये तन्माया न तु वास्तवी ।। १०८ ।।

स्वयं पुमान्निर्गुणश्च कालेन सगुणः स्वयम् ।।
स्वयं नारायणः शम्भुर्मायया प्रकृतिः स्वयम् ।। १०९ ।।
तदंशस्तत्समः शश्वद्यथा वह्नेः स्फुलिङ्गवत् ।।
ये ये च ब्रह्मणा सृष्टा रुद्रादित्यादयस्तथा ।। 2.54.११० ।।

कल्पे कल्पे जितास्ते ते नश्वरा मृत्युकन्यया ।।
न शिवो ब्रह्मणा सृष्टः सत्यो नित्यः सनातनः ।। १११ ।।**********

कतिधा ब्रह्मणां पातो यन्निमेषण भूमिप ।।
अथादिसर्गे श्रीकृष्णः प्रकृत्यां च जगद्गुरुः ।११२।
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चकार वीर्याधानं च पुण्ये वृन्दावने वने ।।
तद्वामांशसमुद्भूता रासे रासेश्वरी परा ।। ११३ ।।

गर्भं दधार सा राधा यावद्वै ब्रह्मणो वयः।।
ततः सुषाव सा डिम्भं गोलोके रासमण्डले ।११४।

चुकोप डिम्भं सा दृष्ट्वा हृदयेन विदूयता ।।
तड्डिम्भं प्रेरयामास तदधो विश्व गोलके।११५।

त्यक्त्वाऽपत्य महादेवी रुरोद च मुहुर्मुहुः ।।
कृष्णस्तां बोधयामास महायोगेन योगवित् ।११६।

बभूव तस्माडिम्भाच्च सर्वाधारो महाविराट् ।। ११७ ।।

सुयज्ञ उवाच ।।
अद्य मे सफलं जन्म जीवनं सार्थकं मम ।।
शापो मे वररूपश्चाप्यभवद्भक्तिकारणम् ।।११८ ।।

सुदुर्लभा हरेर्भक्तिः सर्वमङ्गलमङ्गला ।।
न तस्याश्च समं विप्र वेदोक्तं भक्तिपञ्चकम् ।।११९।।

यथा भक्तिर्मम भवेच्छ्रीकृष्णे परमात्मनि ।।
सुदुर्लभा च सर्वेषां तत्कुरुष्व महामुने ।। 2.54.१२० ।।

नह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।।
ते पुनन्त्युरुकालेन कृष्णभक्ताश्च दर्शनात् ।१२१।

सर्वेषामाश्रमाणां च द्विजातेर्जातिरुत्तमा ।।
स्वधर्मनिरताश्चैव तेषु श्रेष्ठश्च भारते ।। १२२ ।।

कृष्णमन्त्रोपासकश्च कृष्णभक्तिपरायणः ।।
नित्यं नैवेद्येभोजी च ततः श्रेष्ठो महाञ्छुचिः ।।१२३।।
त्वां वैष्णवं द्विजश्रेष्ठं महाज्ञानार्णवं परम् ।।
संप्राप्य शिवशिष्यं च कं यामि शरणं मुने ।१२४।

अधुनाऽहं गलत्कुष्ठी तव शापान्महामुने ।।
कथं तपस्यामशुचिर्नाधिकारी करोमि च ।१२५।

                     ंसुतपा उवाच ।।
हरिभक्तिप्रदात्री सा विष्णुमाया सनातनी ।।
सा च याननुगृह्णाति तेभ्यो भक्तिं ददाति च ।। १२६ ।।

यांश्च माया मोहयति तेभ्यस्तां न ददाति च ।।
करोति वञ्चनां तेषां नश्वरेण धनेन च ।। १२७ ।।

कृष्णप्रेममयीं शक्तिं प्राणाधिष्ठातृदेवताम् ।।
भज राधां निर्गुणां तां प्रदात्रीं सर्वसम्पदाम् ।। १२८ ।।

शीघ्रं यास्यासि गोलोकं तदनुग्रहसेवया ।।
सा सेविता श्रीकृष्णेन सर्वाराध्येन पूजिता ।१२९।

ध्यानसाध्यं दुराराध्यं भक्ताः संसेव्य निर्गुणम् ।।
सुचिरेण च गोलोकं प्रयान्ति बहुजन्मतः ।। 2.54.१३० ।।

कृपामयीं च संसेव्य भक्ता यान्त्यचिरेण वै ।।
सा प्रसूश्च महाविष्णोः सर्वसम्पत्स्वरूपिणी ।। १३१ ।।

सहस्रवर्षपर्य्यन्तं विप्रपादोदकं पिब ।।
कामदेवस्वरूपश्च रोगहीनो भविष्यसि ।।१३२।।

विप्रपादोदकक्लिन्ना यावत्तिष्ठति मेदिनी ।।
तावत्पुष्करपत्रेषु पिबन्ति पितरो जलम् ।१३३।

पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि तीर्थानि सागरे ।।
सागरे यानि तीर्थानि विप्रपादेषु तानि च ।१३४ ।।

विप्रपादोदकं चैव पापव्याधिविनाशनम् ।।
सर्वतीर्थोदकसमं भुक्तिमुक्तिप्रदं शुभम् ।। १३५ ।।

विप्रो मानवरूपी च देवदेवो जनार्दनः ।।
विप्रेण दत्तं द्रव्यं च भुञ्जते सर्वदेवताः ।। १३६ ।।

इत्येवमुक्त्वा विप्रश्च गृहीत्वा तस्य पूजनम् ।।
जगाम गृहमित्युक्त्वा त्वायास्ये वत्सरान्तरे ।। १३७ ।।

भक्त्या च बुभुजे राजा विप्रपादोदकं शिवे ।।
विप्रांश्च पूजयामास भोजयामास वत्सरम् ।१३८।

संवत्सरे व्यतीते तु निर्मुक्तो व्याधितो नृपः ।।
आजगाम मुनिश्रेष्ठः सुतपाः कश्यपाग्रणीः ।१३९।

राधापूजाविधानं च स्तोत्रं च कवचं मनुम् ।।
ध्यानं च सामवेदोक्तं ददौ तस्मै नृपाय सः ।। 2.54.१४० ।।
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राजन्निर्गम्यतां शीघ्रमित्युक्त्वा तपसे मुनिः ।।
जगाम स्वालयाद्दुर्गं निर्जगाम त्वरन्नृपः ।। १४१ ।।

रुरुदुर्बान्धवाः सर्वे त्रिरात्रं शोकमूर्च्छिताः ।।
भार्य्याश्च तत्यजुः प्राणान्पुत्रो राजा बभूव ह ।। १४२ ।।

सुयज्ञः पुष्करं गत्वा चक्रे वै दुष्करं तपः ।।
दिव्यं वर्षशतं राजा जजाप परमं मनुम् ।। १४३ ।।

तदा ददर्श गगने रथस्थां परमेश्वरीम् ।।
स तद्दर्शनमात्रेण निष्पापश्च बभूव ह ।।१४४।।

तत्याज मानुषं देहं दिव्यां मूर्त्तिं दधार ह ।।
सा देवी तेन यानेन रत्नेन्द्रैर्निर्मितेन च।।१४५।।

नृपं नीत्वा च गोलोकं तत्र चैषा ययौ तदा ।।
राजा ददर्श गोलोकं नद्या विरजया वृतम्।।१४६।।

वेष्टितं पर्वतेनैव शतशृङ्गेण चारुणा।।
श्रीवृन्दावनसंयुक्तं रासमण्डलमण्डितम् ।।१४७।।

गोगोपगोपीनिकरैः शोभितं परिसेवतैः।।
रत्नेन्द्रसारखचितैर्मन्दिरैः सुमनोहरैः ।।१४८।।

नानाचित्रविचित्रैश्च राजितं परिशोभितम्।।
सप्तत्रिंशद्भिराक्रीडैः कल्पवृक्षसमन्वितैः ।। १४९।।

पारिजातद्रुमाकीर्णैर्वेष्टितं कामधेनुभिः ।।
आकाशवत्सुविस्तीर्णं वर्तुलं चन्द्रबिम्बवत् ।। 2.54.१५०।

अत्यूर्ध्वमपि वैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।।
शून्ये स्थितं निराधारं धुवमेवेश्वरेच्छया ।।१५१।।

आत्माकाशसमं नित्यमस्माकं च सुदुर्लभम् ।।
अहं नारायणोऽनन्तो ब्रह्मा विष्णुर्महान्विराट् ।। १५२ ।।

धर्मक्षुद्रविराट्संघो गङ्गा लक्ष्मीः सरस्वती ।।
त्वं विष्णुमाया सावित्री तुलसी च गणेश्वरः ।१५३।

सनत्कुमारः स्कन्दश्च नरनारायणावृषी ।।
कपिलो दक्षिणा यज्ञो ब्रह्मपुत्राश्च योगिनः ।१५४।

पवनो वरुणश्चन्द्रः सूर्य्यो रुद्रो हुताशनः ।।
कृष्णमन्त्रोपासकश्च भारतस्थाश्च वैष्णवाः ।१५५।

एभिर्दृष्टश्च गोलोको नान्यैर्दृष्टः कदाचन।।
निरामये च तत्रैव रत्नसिंहासने स्थितम्।।१५६।।

रत्नमालाकिरीटैश्च भूषितं रत्नभूषणैः।।
सुनिर्मलैः पीतवस्त्रैः वह्निशुद्धैर्विराजितम् ।१५७ ।।

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं किशोरं गोपरूपिणम् ।।
नवीननीरदश्यामश्वेतपङ्कजलोचनम् ।।१५८।।

शरत्पार्वणचन्द्रास्यमीषद्धास्यं मनोहरम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं भक्तानुग्रहविग्रहम्।।१५९।।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म निर्गुणं प्रकृतेः परम्।।
ध्यानसाध्यं दुराराध्यमस्माकं च सुदुर्लभम्।।2.54.१६०।।

प्रियैर्द्वादशगोपालैः सेवितं श्वेतचामरैः।।
वीक्षितं गोपिकावृन्दैः सस्मितैः सुमनोहरैः।।१६१।

पीडितैः कामबाणैश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनैः।।
वह्निशुद्धांशुकाधानै रत्नभूषणभूषितैः।।१६२।।

रासमण्डलमध्यस्थं श्रीकृष्णं च परात्परम् ।।
ददर्श राजा तत्रैव राधया दर्शितं तदा ।। १६३ ।।

स्तुतं चतुर्भिवेदैश्च मूर्तिमद्भिर्मनोहरैः ।।
रागिणीनां च रागाणामतीव सुमनोहरम् ।१६४ ।।

श्रुतवन्तं च सङ्गीतं यन्त्रवक्त्रोत्थितं शिवे ।।
नित्यया च सनातन्या प्रकृत्या च सह त्वया ।। १६५ ।।

शश्वत्पूजितपादाब्जमखण्डतुलसीदलैः ।।
कस्तूरीकुंकुमाक्तैश्च गन्धचन्दनचर्चितैः ।। १६६ ।।

दूर्वाभिरक्षताभिश्च पारिजातप्रसूनकैः ।।
निर्मलैर्विरजातोयैर्दत्तार्घ्यैरतिशोभितम् ।। १६७ ।।

सुप्रसन्नं स्वतन्त्रं च सर्वकारणकारणम् ।।
सर्वेषां चान्तरात्मानं सर्वेशं सर्वजीवनम् ।१६८ ।।

सर्वाधारं परं पूज्यं ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ।।
सर्वसम्पत्स्वरूपं च दातारं सर्वसम्पदाम् ।१५९।

सर्वमङ्गलरूपं च सर्वमङ्गलकारणम् ।।
सर्वमंगलदं सर्वमंगलनां च मंगलम्। 2.54.१७०।

तं दृष्ट्वा नृपतिस्त्रस्तो ह्यवरुह्य रथात्त्वरन् ।।
साश्रुनेत्रः पुलकितो मूर्ध्ना स प्रणनाम च ।। १७१।

परमात्मा ददौ तस्मै स्वदास्यं च शुभाशिषम् ।।
स्वभक्तिं निश्चलां सत्यामस्माकं च सुदुर्लभाम् ।। १७२ ।।

राधाऽवरुह्य स्वरथात्कृष्णवक्षस्युवास सा ।।
गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेविता श्वेतचामरैः ।। ।। १७३ ।।

सम्भाषिता श्रीकृष्णेन सस्मितेन च पूजिता ।।
समुत्थितेन सहसा भक्त्या वै सम्भ्रमेण च।१७४।

आदौ राधां समुच्चार्य्य पश्चात्कृष्णं च माधवम्।
प्रवदन्ति च वेदेषु वेदविद्भिः पुरातनैः ।।१७५।।

विपर्य्ययं ये वदन्ति ये निन्दन्ति जगत्प्रसूम् ।।
कृष्णप्राणाधिकां प्रेममयीं शक्तिं च राधिकाम् ।। १७६ ।।

ते पच्यन्ते कालसूत्रे यावच्चन्द्रदिवाकरम् ।।
भवन्ति स्त्रीपुत्रहीना रोगिणः शतजन्मसु ।।।१७७।

इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् ।।
सा त्वं सती भगवती वैष्णवी च सनातनी।।१७८।।

नारायणी विष्णुमाया मूलप्रकृतिरीश्वरी ।।
मायया मां पृच्छसि त्वं सर्वज्ञा सर्वरूपिणी।।१७९।

स्त्रीजातिष्वधिदेवी च परा जातिस्मरा वरा ।।
कथितं राधिकाख्यानं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। 2.54.१८० ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसं वादान्तर्गतहरगौरीसंवादे राधाख्याने सुयज्ञाख्याने सुतपःसुयज्ञसंवादे सुयज्ञस्य गोलोकप्राप्तिर्नाम चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५४।।


         इति सुयज्ञोपाख्यानं समाप्तम् ।।



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