गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

सुर और असुरों के गुण-दोष-

देव अथवा सुरगण सुरापान करते और उन्मत्त होकर विलास करते थे।
इसके साक्ष्य स्वयं रामायण ,महाभारत और पुराणों में भी हैं।

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असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥ 
अनुवाद
दैत्य वे असुर, अदिति के पुत्र सुर;  प्रसन्न, स्वस्थ सुरों ने वारुणी को ग्रहण किया.।

असुं राति लाति ददाति इति असुरः
असुषु रमन्ते इति असुरः 
असु क्षेपणे, असून प्राणान राति ददाति इति असुरः
सायण के अनुसार: असुर = बलवान, प्राणवान
निघंटु के अनुसार: असुर = जीवन से भरपूर, प्राणवान।

असुर और सुर दौंनों के गुण दोषों पर निष्पक्ष मूल्यांकन होना ही चाहिए -

वाल्मीकि रामायण  के बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग के श्लोक संख्या ३६ से ३८ , में प्रसंग है  समुद्र मंथन का --

जिसमें विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के अनुसार  समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ।

असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः 
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः। (३८)

वारुणी ( वाइन)को   ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )

इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रगट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है।
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असुर देवताओं के सबसे प्रबल शत्रुओं में गिने जाते थे। उनकी संस्कृति देवों से भिन्न थी ।

पौराणिक धर्म ग्रंथों और ब्राह्मण- मान्यताओं के अनुसार भी असुरों और देवों में सदा युद्ध होता रहा। 

असुरों ने भारत में अनेकों वर्ष तक शासन किया था। इसके बाद उन्होंने ईरान के निकटवर्ती राज्यों पर विजय प्राप्त की और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया। 

ईसाईयों की धार्मिक पुस्तक 'बाईबल' मे भी असुर राजाओं का उल्लेख है। 
 
असुर का अर्थ
असुर शब्द 'असु' अर्थात 'प्राण', और 'र' अर्थात 'वाला' (प्राणवान् अथवा शक्तिमान) से मिलकर बना है। 

बाद के समय में धीरे-धीरे असुर भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। 

विज्ञान के आदि प्रवर्तक अशीरिया के अशीरी लोग ही थे।

ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिसमें उनके  प्रज्ञा वान और बलशाली होने के गुणों का पता लगाता है।

 किंतु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। सुर की विपरीत असुर हो गया।

देवताओं से संघर्ष
असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और इनमें से कई युद्धों में वे प्राय: विजयी भी होते रहे। उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया।

 देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें ही असुरों ही दुष्ट दैत्य कहा गया है, किंतु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे।

 उनके गुरु भृगु के पुत्र शुक्राचार्य थे, जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।

ग्रंथों में उल्लेख
महाभारत एवं अन्य प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है।

 साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं।

'कथासरित्सागर' की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेम पूर्ण कथा में किसी असुर का वर्णन नायक के साथ हुआ है। 

संस्कृत के धार्मिक ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अंतर नहीं दिखाया गया है, किंतु प्रारम्भिक अवस्था में दैत्य एवं दानव असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे।

 दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव 'दनु' के पुत्र थे।

पुराणों में आये उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण के उदय से पूर्व कंस ने यादव गणतंत्र के प्रमुख अपने पिता और मथुरा के राजा उग्रसेन को बंदी बनाकर निरंकुश एकतंत्र की स्थापना करके अपने को सम्राट घोषित किया था। 

उसने यादव अथवा (आभीरों) को दबाने के लिए इस क्षेत्र में असुरों को भारी मात्रा में ससम्मान बसाया था,

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
 

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्यभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
अनुवाद:-
सुरा के प्रति आग्रहीत सुरा ग्रहण करने से देवगण सुर कहलाए। और सुरा ग्रहण न करने से दैत्य असुर कहलाए ।

उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. चूंकि देवता लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे

कृष्ण देव पूजा के विरोध में क्यों थे ? 

परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्मात  पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।

इसीलिए कृष्ण देव संस्कृति के  विद्रोही  पुरुष थे।
उन्होंने वन पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।

इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों  में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇

"महाभारत अनुशासन पर्व-13.65.42

एकं गोब्राह्मणं तस्मात्प्रवदन्ति मनीषिणः।41।

रन्तिदेवस्य यज्ञे ताः पशुत्वेनोपकल्पिताः।
अतश्चर्मण्वती। राजन्गोचर्मभ्यः प्रवर्तिता।
पशुत्वाच्च विनिर्मुक्ताः प्रदानायोपकल्पिताः।42।

"अनुवाद:-
गाय और ब्राह्मण को मनीषी पुरुष एक कहते हैं। राजा रन्तिदेव के यज्ञ में गायें पशु रूप में दान देने के लिए संकल्पित की गयीं थीं। इसलिए गायों के चमड़ों से वहाँ चर्मण्वती नदी प्रवाहित हो गयी थी वे सभी गोंऐं पशुत्व से मुक्त और दान देने के लिए संकल्पित की गयीं थी।४२-४३ 
( महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय- ६६)

इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव
( देवों को न मानने वाला ) कहकर सम्बोधित किया गया है ।

श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के  कि कृष्ण 
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ को नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

श्रीमद्भागवतम्
भागवत पुराण   स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास    अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन  श्लोक 13

श्लोक  11.5.13 भागवत पुराण 
"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-
स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥
 
शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध  एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह  (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.
 
अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।

किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है। परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।
  
तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पजा  का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने  निम्नलिखित कथन दिया है—

यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।
हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥
यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।
अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥
भावार्थ:-
इस कथन के अनुसार कभी कभी  किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की संस्तुति करते हैं। 
किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।
आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है?

और इसे आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 
यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।

इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।

किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण  निषेध किया है,

क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।

इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है,

विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कलमा पढकर करते हैं ।
क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है। देवता माँस भक्षी हैं क्या?

यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ को नाम पर पशु वध का निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।
अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।

इसी लिए इस बोध को बन्द करने के लिए  स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।
इसका वर्णन गीत गोविन्द कार  जयदेव ने किया है—
"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥
अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★-
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61
विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।

"देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।   प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★
कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★
तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।    
            
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★
तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।       
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★ 
वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।

वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★
यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 
जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही थी और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में  रोककर निषिद्ध दिया था। 
पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।

कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:-  कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

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यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती 
यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।
यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है। 
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं
मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।

मनुःस्मृति में वर्णन है कि 👇
" सामवेद: स्मृत: पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनि:
( मनुःस्मृति चतुर्थ अध्याय 4/124 वाँ श्लोक )

अर्थात्‌ सामवेद का अधिष्ठात्री पितर देवता है ।
इस कारण इस साम वेद की ध्वनि
अपवित्र व अश्रव्य है ।

मनुःस्मृति में सामवेद को हेय
और ऋग्वेद को उपादेय माना ।

वस्तुत अब यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भगवद् गीता और वेद या मनुःस्मृति एक ही ईश्वर की वाणी नहीं हैं ।
अथवा इनका प्रतिपाद्य विषय एक नहीं ।

क्यों कि श्रीमद्भगवद् गीता के दशवें अध्याय के बाइसवें श्लोक (10/22) में कृष्ण के मुखार-बिन्दु से नि:सृत वाणी है।👇

"वेदानां सामवेदोऽस्मि = वेदों में सामवेद मैं हूँ" और इसके विरुद्ध  मनुःस्मृति में तो यहाँं तक वर्णन है कि "👇

सामध्वनावृग्ययजुषी नाधीयीत कदाचन" मनुःस्मृति(4/123)

सामवेद की ध्वनि सुनायी पड़ने पर ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन कभी न करें !

अब तात्पर्य यह कि यहाँं अन्य तीनों वेदों को हेय और केवल सामवेद को उपादेय माना।

वैसे भी सामवेद संगीत का आदि रूप है ।
यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित साँग (Song) शब्द भी साम शब्द से व्युपन्न है ।

पता होना चाहिए कि कृष्ण मुरली को बजाने  वाले और सबको नाच नचाने वाले श्रेष्ठ संगीतकार थे ।
परन्तु इनकी संगीत भी आध्यात्मिक नाद -ब्रह्म का गायन था ।👇

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