शनिवार, 9 दिसंबर 2023

गायत्री गो लोक से

श्रीराधाके अंगोंके रोमकूपोंसे अनेक गोपकन्याएँ प्रकट हुईं। वे सब राधाके ही समान थीं तथा उनकी प्रियवादिनी दासियोंके रूपमें रहती थीं।

वे सभी रत्नाभरणोंसे भूषित और सदा स्थिरयौवना थीं, किंतु परमात्माके शापके कारण वे सभी सदा सन्तानहीन रहीं।

हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं।
 वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हैं ।62-65 ।

सभी मन्त्रोंकी अधिष्ठात्री देवी मनसा ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान रहती हैं। 

ब्रह्मध्यान में सदा निरत वे परमा ब्रह्मस्वरूपा ही हैं। वे पतिव्रता, श्रीकृष्णके अंशसे प्रकट महामुनि जरत्कारुकी पत्नी और तपस्वियोंमें श्रेष्ठ आस्तीक मुनिकी माता हैं ।76-77l


हे नारद! भगवतीकी प्रधान अंशस्वरूपा जो मातृकाओं में पूज्यतम देवसेना हैं, वे ही षष्ठी नामसे कही गयी हैं ॥ 78 ॥
वे पुत्र-पौत्र आदि प्रदान करनेवाली, तीनों लोकोंकी जननी तथा पतिव्रता हैं वे मूल प्रकृतिकी षष्ठांशस्वरूपा हैं, इसलिये पष्ठी कही गयी हैं॥ 79॥
छठी का दूध-


उद्योगदेवकी पत्नी क्रियादेवी हैं, जो सभीके द्वारा पूजित तथा मान्य हैं, हे नारद! इनके बिना  सम्पूर्ण जगत् विधिहीन हो जाता है। 
अधर्मकी पत्नी मिथ्यादेवी हैं, जिन्हें सभी धूर्तजन पूजते हैं तथा जिनके बिना विधिनिर्मित धूर्त-समुदायरूप जगत् नष्ट हो जाता है।

 सत्ययुगमें ये मिथ्यादेवी तिरोहित रहती हैं, त्रेतायुगमें सूक्ष्मरूपमें रहती हैं. द्वापरमें आधे शरीरवाली होकर रहती हैं; किंतु कलियुगमें महाप्रगल्भ होकर ये बलपूर्वक सर्वत्र व्याप्त रहती हैं ।

और अपने भाई कपटके साथ घर घर घूमती-फिरती हैं ॥ 109 – 1126 ॥



रुद्रकी पत्नी कालाग्नि हैं। वे ही सिद्धयोगिनी तथा निद्रारूपा हैं, जिनके संयोगसे रात्रिमें सभी लोग निद्रासे व्याप्त हो जाते हैं। 
कालकी तीन पलियाँ हैं सन्ध्या, रात्रि और दिवा । जिनके बिना विधाता भी कालकी गणना नहीं कर सकते। 
लोभकी दो पत्नियाँ क्षुधा और पिपासा हैं, ये धन्य, मान्य और पूजित हैं। जिनसे व्याप्त यह सम्पूर्ण जगत् नित्य ही चिन्ताग्रस्त रहता है।

 तेजकी दो पत्नियाँ प्रभा और दाहिका हैं, जिनके बिना जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्मा सृष्टि करनेमें समर्थ नहीं होते ॥ 117- 1203 ॥

कालकी दो पुत्रियाँ मृत्यु और जरा हैं, जो ज्वरकी प्रिय पत्लियाँ हैं। जिनके द्वारा सृष्टि-विधानके अन्तर्गत ब्रह्माका बनाया यह संसार नष्ट होता रहता है। 

निद्राकी एक पुत्री तन्द्रा और दूसरी प्रीति-ये दोनों सुखकी पत्नियाँ हैं। काम देव की  पत्नी  प्रीति)जिनसे हे नारद! ब्रह्माके द्वारा निर्मित यह सारा जगत् व्याप्त है।

वैराग्यकी दो पलियाँ श्रद्धा और भक्ति सभीकी पूज्या हैं, जिनसे हे मुने! यह जगत् निरन्तर जीवन्मुक्तके समान हो जाता है ।। 121 - 123 ॥

देवताओंकी माता अदिति हैं और गायकी उत्पत्ति सुरभिसे हुई है। दैत्योंकी माता दिति, कटू विनता और दनु-सृष्टिनिर्माणमें इनका उपयोग हुआ है। ये सभी प्रकृतिदेवीकी कलाएँ कही गयी हैं। 124-125 ॥


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कार्तिक पूर्णिमाको गोलोकके रासमण्डलमें सर्वप्रथम परमात्मा श्रीकृष्णने गोप-गोपियों,  उनके बालक-बालिकाओं,
सुरभि तथा गायोंके साथ राधारानीका पूजन किया था। 

तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें परमात्माकी आज्ञासेब्रह्मादि देवों तथा मुनियोंद्वारा पुष्प, धूपादिसे भक्तिपूर्वक परम प्रसन्नताके साथ वे निरन्तर पूजित तथा वन्दित होने लगीं ॥149 - 154 ॥
 
देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)स्कन्ध 9, अध्याय( 49 )

 
आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! गोलोकसे जो सुरभिदेवी आयी थीं, वे कौन थीं? मैं ध्यानपूर्वक उनका जन्मचरित्र सुनना चाहता हूँ ॥ 1 ॥

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] वे देवी सुरभि गोलोकमें प्रकट हुईं। वे गौओंकी अधिष्ठात्री | देवी, गौओंकी आदिस्वरूपिणी, गौओंकी जननी तथा गौओंमें प्रधान हैं। मैं सभी गौओंकी आदिसृष्टिस्वरूपा उन सुरभिके चरित्रका वर्णन कर रहा हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनिये। पूर्वकालमें वृन्दावनमें सुरभिका प्रादुर्भाव हुआ था ॥ 2-3॥


एक समयकी बात है, गोपांगनाओंसे घिरे हुए परम कौतुकी राधिकापति श्रीकृष्ण राधाके साथ पुनीत वृन्दावनमें गये हुए थे। वहाँ वे एकान्तमें क्रीडापूर्वक विहार करने लगे, तभी सहसा उन स्वेच्छामय प्रभुको दुग्धपानकी इच्छा हो गयी ॥ 4-5 ॥
 उसी समय उन्होंने अपने वामभागसे लीलापूर्वक बछड़ेसहित दुग्धवती सुरभि गौको प्रकट कर दिया उस बछड़ेका नाम मनोरथ था ॥ 6 ॥
 बछड़े सहित उस गायको देखकर श्रीदामाने एक नवीन पात्रमें उसका दूध दुहा जन्म, मृत्यु तथा बुढ़ापाको हरनेवाला वह दुग्ध अमृतसे भी बढ़करथा। सुरभिसे दुहे गये उस स्वादिष्ट दूधको स्वयं गोपीपति भगवान् श्रीकृष्ण पीने लगे। 

तभी पात्रके गिरकर फूट जानेसे चारों ओर सौ योजनकी लम्बाई तथा चौड़ाईवाला एक विशाल दूधका सरोवर हो गया। यही सरोवर गोलोकमें क्षीरसरोवर नामसे प्रसिद्ध है ।। 7-9 ॥


वह सरोवर गोपिकाओं तथा राधाका क्रीडावापी हो गया। वापीके [ घाट आदि] पूर्णरूपसे श्रेष्ठ रत्नोंसे निर्मित थे।


 भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे उसी समय सहसा लाखों-करोड़ों कामधेनु गौएँ प्रकट हो गयीं। वहाँ जितने गोप थे वे सभी उस सुरभिके रोमकूपोंसे प्रकट हुए थे।
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 तत्पश्चात् उन गौओंकी असंख्य सन्तानें उत्पन्न हो गयीं। इस प्रकार उस सुरभिसे गायोंकी सृष्टि कही गयी है; उसीसे यह जगत् व्याप्त है ॥ 10-12 ॥


हे मुने! पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णने देवी सुरभिकी पूजा की थी, उसी समयसे तीनों लोकोंमें उस सुरभिकी | दुर्लभ पूजाका प्रचार हो गया। दीपावलीके दूसरे दिन भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे देवी सुरभि पूजित हुई थीं- यह मैंने धर्मदेवके मुखसे सुना है ।। 13-14॥
 हे महाभाग ! अब मैं आपको देवी सुरभिका वेदोक्त ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र तथा जो-जो पूजाका विधिक्रम है, उसे बता रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 15 ॥

 'ॐ सुरभ्यै नमः '- यह उनका षडक्षर मन्त्र है। एक लाख जप करनेपर यह मन्त्र सिद्ध होकर भक्तोंके लिये कल्पवृक्षतुल्य हो जाता है ॥ 16 ॥


देवी सुरभिका ध्यान यजुर्वेदमें वर्णित है। उनकी पूजा सब प्रकारसे ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति तथा समस्त अभीष्ट प्रदान करनेवाली है ॥ 17 ॥

[ ध्यान इस प्रकार है- ] 'लक्ष्मीस्वरूपा, परमा, राधाकी सहचरी, गौओंकी अधिष्ठात्री देवी, गौओंकी आदिस्वरूपिणी, गौओंकी जननी, पवित्ररूपिणी, पावन, भक्तोंके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करनेवाली तथा जिनसे सम्पूर्ण जगत् पावन बना हुआ है—उन पराभगवती  ।सुरभिकी मैं आराधना करता हूँ' ॥ 18-19 ॥

द्विजको चाहिये कि कलश, गायके मस्तक, गायोंके बाँधनेके स्तम्भ, शालग्रामशिला, जल अथवा | अग्निमें सुरभिकी भावना करके उनकी पूजा करे ॥ 20 ॥

जो मनुष्य दीपावलीके दूसरे दिन पूर्वाह्नकालमें भक्तिसे युक्त होकर सुरभिकी पूजा करता है, वह पृथ्वीलोकमें पूज्य हो जाता है ॥ 21 ॥

एक समयकी बात है, वाराहकल्पमें भगवान् विष्णुकी मायासे देवी सुरभिने तीनों लोकोंमें दूध देना बन्द कर दिया, जिससे समस्त देवता आदि चिन्तित हो गये। ब्रह्मलोकमें जाकर उन्होंने ब्रह्माकी स्तुति की, तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे इन्द्र सुरभिकी स्तुति करने लगे ।। 22-23 ॥

पुरन्दर बोले- देवीको नमस्कार है, महादेवी सुरभिको बार-बार नमस्कार है। हे जगदम्बिके! गौओंकी बीजस्वरूपिणी आपको नमस्कार है ॥ 24 ॥ राधाप्रियाको नमस्कार है, देवी पद्मांशाको बार-बार नमस्कार है, कृष्णप्रियाको नमस्कार है और गौओंकी जननीको बार-बार नमस्कार है ।। 25 ।। हे परादेवि ! सभी प्राणियोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूपिणी, दुग्ध देनेवाली, धन प्रदान करनेवाली तथा बुद्धि देनेवाली आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 26 ॥ शुभा, सुभद्रा तथा गोप्रदाको बार-बार नमस्कार है। यश, कीर्ति तथा धर्म प्रदान करनेवाली भगवती सुरभिको बार-बार नमस्कार है ॥ 27 ॥

इस स्तोत्रको सुनते ही जगज्जननी सनातनी देवी सुरभि सन्तुष्ट तथा प्रसन्न होकर उस ब्रह्मलोकमें प्रकट हो गयीं ॥ 28 ॥

देवराज इन्द्रको दुर्लभ वांछित वर प्रदान करके वे गोलोकको चली गयीं और देवता आदि अपने अपने स्थानको चले गये ।। 29 ।।

नारद! उसके बाद विश्व दुग्धसे परिपूर्ण हो गया। दुग्ध होनेसे घृतका प्राचुर्य हो गया और उससे यज्ञ होने लगा, जिससे देवताओंको सन्तुष्टि होने लगी ॥ 30 ॥

जो भक्तिपूर्वक इस परम पवित्र स्तोत्रका पाठ करता है, वह गौओंसे सम्पन्न, धनवान्, यशस्वी तथा पुत्रवान् हो जाता है। उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान | कर लिया तथा वह सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया। वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीकृष्णके धाममेंचला जाता है। वह वहाँ दीर्घकालतक निवास करता है और भगवान् श्रीकृष्णकी सेवामें संलग्न रहता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता, वह ब्रह्मपुत्र ही हो जाता है ॥ 31–33 ॥

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