भाग -प्रथम एवं द्वितीय - गोपों की सर्जना- वैष्णव वर्ण-
- "प्रस्तावना-
- कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र- ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में आत्मा की स्थित का कथामयी वर्णन है।
- बालक नचिकेता की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य के संबंध का स्पष्टीकरण करते हैं ।
- संबंधित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचनसारगर्भित हैं।
- "आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। - सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय१,वल्ली ३, मंत्र ३)
- अनुवाद:-
इस जीवात्मा को तुम रथी, (रथ में सबार ) समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी- (रथ हांकने वाला) और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु होता है। अगले श्लोक में उल्लेख है।) - "इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
- सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय १,वल्ली ३, मंत्र ४)
- अनुवाद:-मनीषियों, (मननशील पुरुषों), ने इंद्रियों को इस शरीर रूपी-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय ही विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
- प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रवृति का रहा है । ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा ।
- परन्तु उसकी परिवर्तनशील व नश्वरता ने उनका मोह खण्डित किया होगा। तत्पश्चात उनका प्रयास रहा होगा कि वे उसके मिथ्या आकर्षण पर विजय पायें ।
- "रथ में सबार यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है। यह रथ के चालक को मात्र प्रेरणा ही देता है।
- वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
- रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है।
- और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि को रथ हाँकने वाला सारथि जान लें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या कहें लगाम है।
- अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। और बुद्धि मन को नियन्त्रण करता है ।
- विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं । और विषय ही मार्ग में आया हुआ भोग आदि है।
- वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है ।
- जब उसमे अहं का भाव हो जाय तब यह भोक्ता भाव से युक्त होता है।
- परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है । क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं। दु:ख सुख आत्मा का विषय है ही नहीं।
- व्यक्ति के मूर्च्छित होने पर दु:ख सुख की प्रतीति( अनुभव) नहीं होता है।
- दु:ख सुख मन के स्तर पर ही विद्यमान हैं ये परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है। यही आत्मा की एक अवस्था है।
- सत् - चित् और आनन्द = सच्चिदानन्द ईश्वरीय अस्तित्व का बोधक है।
- आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात् सच्चिदानन्द।
- अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे अवश्य मिलता है । यही क्रम संसार का अनादि काल से चलता-रहता है।
- और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है । यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में निरन्तर पीसता रहता है । _________________________________________________
- श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना ही पड़ेगा । क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।
- भगवान कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में कहा-
- "अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।10.33।
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- मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
- अर्थात् ये मेरी विभूतियाँ हैं । भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ" स्वर सबका आधार है।
- "अ" स्वर का ही उदात्त( ऊर्ध्वगामी) रूप "उ" तथा अनुदात्त (अधोगामी) "इ" रूप है।
- और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए ।
- "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान विद्यमान है ।
- "ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण के रूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
- अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।
- हिब्रू तथा फोंनेशियन आदि सैमेटिक भाषाओं "अकार का रूपान्तरण "अलेफ" वर्ण है । मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात् द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है ।
- स्त्री-पुरुष द्वन्द्व हैं । शीत- और उष्ण(गर्मी) द्वन्द्व है।
- संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
- समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है?
- जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।
- यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है।
- अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
- परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जैसे कलहंस के लिए नीर और क्षीर-
- वेद अध्यात्म की उस गहराई का प्रतिपादन नहीं करते है। जिसका विवेचन भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में करते हैं।
- "त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-45)
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- श्रीमद्भगवद्गीता -,अध्याय २- का (45-46)
- हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !
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- (श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) में स्पष्ट वर्णन है। जब वेदों के सुनने से तेरी बुद्धि विचलित हो गयी है। परन्तु जब ये समाधि
- में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदों का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;
- क्योंकि वेद आध्यात्मिक पथ को प्रशस्त नहीं करते अपितु व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की प्राप्ति के उपायों का वर्णन या प्रतिपादन करते हैं।
- तब व्यक्ति में सत्य का निर्णय करने व उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है। तब ही वह भौतिक जगत की ओर भागता है।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण वैष्णव पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त ( परिवर्तन- नृत्य) अथवा विलास- क्रीड़ा या खेल है।
- उत्तरमीमांसा ( वेदान्त दर्शन)का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धान्त यह है कि जड़ जगत का उपादान और निमित्त कारण चेतन ब्रह्म है।
- जैसे मकड़ी अपने भीतर से उत्पन्न लार से ही जाल तानती है, वैसे ही ब्रह्म भी इस जगत् को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है। जीव और ब्रह्म का तादात्म्य है और अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत् के कर्म-जाल से और बारंबार के जीवन और मरण से मुक्त हो जाता है।
- मुक्तावस्था में परम आनन्द का अनुभव करता है।
- संसार की सृष्टि का मूल स्व का अहम से उत्पन्न संकल्प है। यही संकल्प प्रवाहित होकर इच्छा या रूप धारण करता है। ये इच्छाओं की आपूर्ति का मूर्त प्रयास ही कर्म है। ये सम्पूर्ण संसार कर्म से निर्मित है।
- स्वप्न की सृष्टि भी मन की इच्छाओं के दमित परिणाम का रूप है। इस लिए स्वप्न के विश्लेषण से सृष्टि उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सकता है।
- भूतयोन्यक्षरमित्युक्तम्। तत्कथं भूतयोनित्वमित्युच्यते प्रसिद्धदृष्टान्तैः -
1.1.7
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरुषात्केशलोमानितथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्।।1.1.7।।
ए.1.1.7
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति। यथा च पृथिव्यामोषधयो व्रीह्यादिस्थावरान्ता इत्यर्थः। स्वात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति। यथा च सतो विद्यमानाञ्जीवतः पुरुषात्केशलोमानि केशाश्च लोमानि च सम्भवन्ति विलक्षणानि।
यथैते दृष्टानातास्तथा विलक्षणं सलक्षणं च निमित्तान्तन्तरानपेक्षाद्यथोक्तलक्षणादक्षरात्सम्भवति समुत्पद्यत इह संसारमण्डले विश्वं समस्तं जगत्। अनेकदृष्टान्तोपादानं तु सुखार्थप्रबोधनार्थम्।।1.1.7।। - ऊर्णनाभः, पुल्लिंग- (ऊर्णेव तन्तुर्नाभौ यस्य-ऊन के समान तन्तु जिसकी नाभि में हैं वह ऊर्णनाभ है।
- अनुवाद:- अक्षर ब्रह्म का विश्व कारणत्व
- पूर्व में इस प्रकार कहा जा चुका है। कि अक्षर ब्रह्म भूतों (प्राणियों) की योनि है। उसका वह भूत योनित्व किस प्रकार है। वह प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है।
- जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और फिर निगल जाती है। जैसे पृथ्वी में औषधीयाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुषों से केश तथा लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है।
- जिस प्रकार संसार में प्रसिद्ध है। कि ऊर्णनाभि(मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर से अभिन्न तन्तुओं( धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है।और फिर आवश्यक समाप्त होने पर उसे ग्रहीत( घरी) भी कर लेती है।यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । जैसे पृथ्वी में व्रीहि( धान) यव ( जौ)इत्यादि से लेकर वृक्ष पर्यन्त ( तक ) सम्पूर्ण औषधीयाँ उससे अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं। सत्( चेतनसत्ता) युक्त पुरुष से उससे भिन्न विलक्षण केश तथा रोम ( लोम) उत्पन्न होते हैं।
- जैसा कि यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस संसार मण्डल में इससे विभिन्न और समान लक्षणों वाला यह विश्व- समस्त जगत् किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न करने वाले उस उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट अक्षर से ही उत्पन्न होता है।
- ये अनेक दृष्टान्त केवल विषय को सरलता से समझने के लिए ही लिए गये हैं।७।
- द्वितीयः खण्डः
समाप्तमिदं तृतीयकं मुण्डकम्
- मुण्डकोपनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत है । प्रश्न के समान, मुण्डक में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है ।
- मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है इसमें परम-ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् से संग्रहीत है । इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात हैं ।
- इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं यह उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं ।
- अति-स्पष्ट होने से, यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।
- उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है ।
- इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ नहीं समझना चाहिए – नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है ।) उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगीरा ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया ।
- _________________________________'
- मुण्डकोपनिषद, 1.1.7
- "यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति।
यथा सः पुरुषात् केशलोमनि तथाऽक्षरात् संभवतिः विश्वमृ ॥
- यथा - यथा - जैसे | ऊर्णाभिः - ऊर्णाभिः - ऊन से | सृजते - सृजते - रचना करता है | गृह्णते च - - और संग्रह करता है( समेटता है)| यथा पृथिवीम् -- जैसा कि पृथ्वी को ओषधयः - जड़ी-बूटियाँ | सम्भवन्ति - उत्पन्न होती हैं। यथा सतः पुरूषात् - - जैसे कि एक सत पुरुष से से | केशलोमानि - सिर और शरीर के बाल हैं - तथा इह - वैसे ही यह अक्षरात - अक्षर से अपरिवर्तनीय | विश्वम् सम्भावनाति - विश्वं सम्भवति - संसार का जन्म होता है |
- श्लोक 1.1.7
- जैसे मकड़ी अपने लार से उत्पन्न जाल को बनाती और अपने पुन: निगल लेती है, जैसे औषधीय पौधे पृथ्वी से उगते हैं, जैसे जीवित व्यक्ति से निर्जीव आभासी बाल उगते हैं, वैसे ही यह ब्रह्मांड परात्पर ब्रह्म से विकसित और अन्त में उसमें ही विलय हो जाता है।
https://www.philosophyinsight.com/https://www.philosophyinsight.com/https://www.philosophyinsight.com/- रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। रामानुजाचार्य दर्शन का आधार वेदान्त के अलावा सातवीं से दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा थी। इनका जन्म 25 अप्रैल 1017ईसवी में श्रीपेरुमबुदुर नामक गाँव में भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था इनके पिता का नाम केशव भट्ट था । जो वर्तमान समय में तमिल नाडु में आता है।
- बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था - ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना।
- रामानुज के सृष्टि-विचार का आधार सत्कार्यवाद का सिद्धान्त है।
- इसकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है।
- यह कारण और कार्य की एकता का सिद्धान्त है। यह सत्कार्यवाद के परिणामवादी रूप को मानता है। इसका सिद्धान्त ब्रह्म-परिणामवाद कहलाता है जिसके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का, उसके विशेषणांश का परिणाम है।
- इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि रामानुज तत्त्वत्रय ईश्वर, चित्त और अचित्त में विश्वास करते हैं।
- इनमें ईश्वर विशेष्य है तथा चित् एवं अचित् उसके विशेषण हैं। ईश्वर अंशी है और चिदचित् उसके अंश हैं।
- ब्रह्म के विशेषणांश (चिदचित्) का ही यथार्थ रूपान्तरण यह चराचर जगत् है ।
- अचित् ज्ञानशून्य (जड़) एवं परिणामी द्रव्य है।अचित्( आत्मा) अपरिवर्तित रूप है।
- यह तीन प्रकार का है।
- ● शुद्ध सत्य या नित्य-विभूति
- ● मिश्र सत्त्व या प्रकृति एवं
- ● सत्त्वशून्य या काल शुद्ध
- "सत्त्वं रजस्तमस्रहित एवं उदात्तीभूत प्रकृति है। यह वह उपादान है जिससे आदर्श जंगत् (वैकुण्ठ लोक) की वस्तुएं, ईश्वर तथा मुक्त जीवों के शरीर बनते हैं। सत्त्वशून्य जड़द्रव्य 'काल' है।
- यह भी परिणामी है। क्षण, मिनट, सेकेण्ड, घंटा, दिन आदि इसके परिणाम हैं।
- काल के विपरीत दिक्- आकाश से अभिन्न है और प्रकृतिजन्य है।
- मिश्रसत्त्व में सत्त्व, रजस् एवं तमस्, तीनों गुण रहते हैं। इसे प्रकृति या माया कहते हैं।
- रामानुज प्रकृति को ही सृष्टि का मूलभूत कारण कहते हैं।
- उल्लेखनीय है कि रामानुज की प्रकृति सांख्य दर्शन की प्रकृति से भिन्न है।
- जैसे, सत्व, रजस् एवं तमस् सांख्य की प्रकृति के निर्माणक घटक हैं एवं द्रव्य रूप हैं, जबकि ये रामानुज की प्रकृति के गुण या विशेषण हैं।
- ये उससे अवियोजनीय होते हुए भी मित्र हैं। पुनः, सांख्य की प्रकृति स्वतन्त्र है, जबकि रामानुज की प्रकृति ब्रह्म पर आश्रित है। इसके अतिरिक्त सांख्य की प्रकृति अनन्त है, किन्तु रामानुज की प्रकृति नित्यविभूति से सीमित है।
https://www.blogger.com/blog/post/edit/3440602209164213000/3743433354633693536- ईश्वर के अंशभूत तत्त्व, जीव और प्रकृति, जगत् के उपादान कारण हैं। ईश्वर के संकल्प से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। अतः ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण भी है। जब ईश्वर अपने संकल्प से जीवों को उनके अतीत कर्मों का फल दिलाने के लिए चित् और प्रकृति का प्रवर्तन करता है तब सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी को रामानुज ब्रह्म की लीला कहते हैं।
- इस प्रकार रामानुज का ब्रह्मपरिणामवाद लीलावाद है।
https://www.blogger.com/blog/post/edit/3440602209164213000/3743433354633693536https://www.blogger.com/blog/post/edit/3440602209164213000/3743433354633693536https://www.blogger.com/blog/post/edit/3440602209164213000/3743433354633693536- अर्थात् सृष्टि किसी बाह्य साधन की सहायता के बिना ही उससे स्वतः विकसित होती है। रामानुज के अनुसार यह परिणाम केवल ईश्वर के विशेषणांश में होता है, ईश्वर स्वतः इससे अप्रभावित रहता है। इस प्रकार ब्रह्म इस परिवर्तनशील जगत् का अपरिवर्तनशील केन्द्र है।
- जगत् भी सत् है
- मुण्डकोपनिषद् की मान्यता है कि सत् कारण से उत्पन्न होने के कारण जगत् भी सत् है , संविशेष ब्रह्म की विभूति होने के कारण जगत् की सत्ता पारमार्थिक है। रामानुज शंकर के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं " कि जगत् केवल व्यावहारिक दृष्टि से सत् है और परमार्थतः असत् है ।
- रामानुज की दृष्टि में शंकराचार्य का विचार श्रुति विरोधी है। उन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि सृष्टि वास्तविक है। यह जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म
- रामानुज नानात्व का निषेध करने वाले 'नेह नानास्ति किञ्चन्' तथा उनकी एकता को स्वीकार करने वाले 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', इत्यादि श्रुतिवाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं।
- कि ये वाक्य विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल यह बताते हैं कि उनमें एक ही ब्रह्म निहित है। जिस प्रकार स्वर्ण के सभी आभूषण स्वर्ण ही हैं उसी प्रकार इन विषयों का आन्तरिक सत्य ब्रह्म ही है।
- सृष्टि का विकास क्रम -
- रामानुज भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति से सृष्टि का विकास क्रम दिखाते हैं। रामानुज भी सृष्टि का विकास क्रम लगभग सांख्य-जैसा ही मानते हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुज उपनिषदों में प्रतिपादित 'पञ्चीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, जबकि सांख्य दर्शन भी इसे मान्यता तो देता है परन्तु इसका निरूपण नहीं करता है।
- इस प्रक्रिया के अनुसार 'भूतादि अहंकार' से सर्वप्रथम पाँच सूक्ष्म भूतों का इस क्रम से आविर्भाव होता है —
- ◾ आकाश ( ध्वनि)
- ◾ वायु ( स्पर्श)
- ◾ अग्नि ( तेज)
- ◾ जल (रस )
- ◾ पृथ्वी ( गन्ध)
- इन पाँचों सूक्ष्म भूतों का पुनः पाँच प्रकार से संयोग होता है जिससे पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव होता है। पञ्चीकरण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक स्थूल महाभूत में आधा भाग (1/2) इस महाभूत का अपना होता है और शेष आधे भाग में अन्य महाभूतों के बराबर भाग (1/8) होते हैं।
- अभिप्राय यह है कि पंचीकरण-सिद्धान्त से पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव निम्नलिखित क्रम से होता है—
- आकाश महाभूत= 1/2 आकाश+ 1/8 वायु + 1/8 अग्नि+1/8 जल+1/8 पृथ्वी।
- वायु महाभूत= 1/2वायु + 1/8 आकाश + 1/8 अग्रि + 1/8 जल + 1/8 पृथ्वी
- अग्नि महाभूत = 1/2अग्नि +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल + 1/8
- पृथ्वी जल महाभूत= 1/2 जल +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 अग्नि + 1/8 पृथ्वी ।
- पृथ्वी महाभूत= 1/2 पृथ्वी +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल +1/8 अग्नि
- रामानुज के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ जिसमें जीव का शरीर भी शामिल है, इन्हीं पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं।
- इसीलिए सभी सांसारिक वस्तुओं में पाँचों महाभूतों के तत्त्व पाये जाते हैं। पुनः, रामानुज ब्रह्म एवं जगत् के सम्बन्ध को आत्मा एवं शरीर के सम्बन्ध के समान मानते हैं।
- "समालोचना-
- हम ब्रह्म के स्वरूप विवेचन में देख चुके हैं कि रामानुज का 'परम यथार्थता' "का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भले ही सन्तोषजनक न हो परन्तु दार्शनिक रूप से सार्थक है।
- और उनका लीलावाद का सिद्धान्त एक प्रकार का रहस्यवाद है जिसे बौद्धिक धरातल पर ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्यों कि यह रहस्य मानवीय भौतिक बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है।
- ईश्वर सृष्टि रचना का संकल्प क्यों करता है? क्या इसमें उसका कोई प्रयोजन निहित है ?
- अवश्य लीला विलास उसका उद्देश्य है। सत चित और आनन्द उस आत्मा की मौलिक सत्ताऐं हैं।
- पुनः जगत् को ईश्वर के विशेषणांश या अंश (चिदचित्) का परिणाम बताया जाता है। क्या विशेषणांश के परिवर्तन से विशेष्य अप्रभावित रह सकता है? क्या अंशों में परिणाम होने पर भी अंशी अपरिणामी बना रह सकता है? क्या जगत् के दोष ब्रह्म को व्याप्त नहीं करते हैं?
- रामानुज इन प्रश्नों का समाधान 'आत्मा-शरीर' एवं 'राजा-प्रजा' की उपमाओं के आधार पर करने का प्रयास करते हैं।
- किन्तु वे इस प्रयास में तर्कतः सफल नहीं होते। वास्तव में, यदि ब्रह्म अंशी है और जगत् अंश है तो जगत् के दोषों से ब्रह्म अक्षुण्ण नहीं रह सकता। इसी लिए उसका दोष पूर्ण रूपान्तरण ही जीवात्मा है।
- अपृथसिद्ध विशेषणांश के परिणामी होने पर विशेष्यांश के अपरिणामी बने रहने की बात समझ में नहीं आती। परन्तु द्वन्द्व वाद के विवेचन करने पर यह बात समझ में आ जाती है। जैसे आधेय और आधार केन्द्र और परिधि आदि रूप ।
- प्रकृति (अंग) में होने वाला परिवर्तन ईश्वर (अंगी) को अवश्य प्रभावित करेगा। तात्पर्य यह है कि या तो ईश्वर परम यथार्थता नहीं है या जगत् सत्य नहीं है। चूँकि रामानुज ब्रह्म को परम यथार्थता मानते हैं, अतः जगत् को सत् नहीं माना जा सकता।
- यह संसार मन में स्वप्न के समान अथवा समुद्र में लहर के समान परिणामी है।
- वह एक कृष्ण ही अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं।अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर है।।
- ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।
- विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है।
- 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।
- कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा, सावित्री, कामदेव, रति, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए
- ब्रह्माण्ड, शरीर और परमाणु परस्पर समष्टि (समूह) और व्यष्टि (इकाई) के रूप में सम्बन्धित हैं।
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- यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral ) है। परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा, बीटा और गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध है।
- "भौतिक शास्त्री लेप्टॉन, क्वार्क तथा गेज बोसॉन नामक तीन मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार करते हैं ।
- परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो। अथवा सतोगुण का समायोजन परम्-ब्रह्म में हो।
https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/11/14/%e2%80%98%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e2%80%99-%e0%a4%95/- परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है । अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है
- विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन हैं।
- जो कक्षाओं में चक्कर काटते रहते हैं । इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है । अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है।
- इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी है।
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- परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है ।
- प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक विद्युत आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता ।
- तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओर आकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
- एैसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है।
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- "यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द के अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान हैं👇
- जैसे - 1-पुरानी अंगेजी में--(Aedm) 2-डच( Dutch) भाषा में (Adem रूप 3-प्राचीन उच्च जर्मन में (Atum) = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना परन्तु (Auto) शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की (Hotos) रूप में था ।
- जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । श्री मद्भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को👇
- "नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
- न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।
- कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है । आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति और यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है।
- क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है ।
- ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है
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- "ज्ञा" धातु "जन्" धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है ।
- सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है ।
- क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
- परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है । और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है।
- क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है। अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है। स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है। इसके परोक्ष में सृष्टा सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है । वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है ।
- अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।
- और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है ।
- -आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है। जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है ।
- ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है ।
- परन्तु इन सब के मूल में आवेश अथवा इच्छा ही होती है ।
- और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :-
- "ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !
- श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न ।
- पर खोज अभी तक जारी है ।
- अपने स्वरूप से मिलने की ।
- हम सबकी अपनी तैयारी है ।
- आशा के पढ़ाबों से दूर निकर संसार में किसी पर मोह न कर ये हार का हार स्वीकार न कर मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।
- शोक मोह में तू क्यों खिन्न है । कुछ पल के रिश्ते सब भिन्न है ।
- 'ये ' मतलब की दुनियाँ सारी है । ******************************************
- शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है । जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है । परन्तु परछाँईयों में ,परन्तु सबकी समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है । और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी । यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है । जबकि स्व: मे अात्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है । परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________
- अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर ,
- सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
- हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है ।
- आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है । सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं
- ,आत्मा की नहीं है प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है
- जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है ।
- जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software ) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के सी. पी.यू. में समायोजित हैं।
- जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं ।
- और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से होता है , जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है ।
- जो अंगेजी में स्प्रिट (Spirit) है ।
- पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "espirit" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा inspiration----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया । Spirare---to breathe से है भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (s)peis से निर्धारित करते हैं ।
- "व्रजोपभोग्या च यथा नागे च दमिते मया ।
- सर्वत्र सुखसंचारा सर्वतीर्थसुखाश्रया ।५७।
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च ।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम् ।।
एनं कदम्बमारुह्य तदेव शिशुलीलया ।
विनिपत्य ह्रदे घोरे दमयिष्यामि कालियम्।५९।
एवं कृते बाहुवीर्ये लोके ख्यातिं गमिष्यति। 2.11.६०।- अनुवाद:-मुझे इस नागराज का दमन करना है, जिससे जल देने वाली यह नदी कल्याणकारी जल का आश्रय हो सके। इस नाग का मेरे द्वारा दमन हो जाने पर यहाँ की नदी समूचे व्रज के उपभोग में आने योग्य हो जायेगी। यहाँ सब ओर सुखपूर्वक विचरण करना सम्भव हो जायगा तथा यह नदी समस्त तीर्थों और सुखों का आश्रय हो जायगी।
- इसीलिये व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिये मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है। कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्माओं का दमन करने के लिये ही यहाँ मेरा अवतार हुआ है। मैं बालकों के खेल-खेल में ही इस कदम्ब पर चढ़कर उस घोर ह्नद में कूद पड़ूँगा और कालिय नाग का दमन करूँगा।
- ऐसा करने पर संसार में मेरे बाहुबल की ख्याति होगी।
- इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
- _______
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ।११।
https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/11/14/%e2%80%98%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e2%80%99-%e0%a4%95/- पुस्तक का प्रथम भाग:-
- नमस्कार मित्रो ! मित्रो - इस पुस्तक में आप लोग परम प्रभु श्रीकृष्ण के उन तीन रहस्य पूर्ण प्रसंगों के विषय में जानेगे' जिन्हें आज तक बहुत ही कम लोग जानते हैं; अथवा कहें कि फिर जानते ही नहीं हैं-
- किन्तु आज हम इस युगान्त कारी ज्ञान के आधार पर भगवान् श्रीकृष्ण से सम्बन्धित उन घटनाओं को प्रस्तुत करेंगे जिसे जानबूझ कर अथवा कहें अज्ञानता-वश कथाकारों द्वारा अब तक जनसाधारण के समाने प्रस्तुत नहीं किया गया है।
- जिसके परिणाम स्वरूप जनमानस में कृष्ण के वास्तविक चरित्रों ( कारनामों) का प्रचार- प्रसार नहीं हो सका और श्रीकृष्ण के अद्भुत रहस्यों से सारी दुनिया अनिभिज्ञ ही रह गयी ।
- कृष्ण के वास्तविक स्वरूप का यथावत् ज्ञान न होने के कारण ही साधारण लोग आज तक भ्रम जाल में भँसकर संसार में विभिन्न प्रकार के प्रलाप करते हुए देखे और सुने जाते हैं-
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- और इसी भ्रमजाल को दूर करने के लिए अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के चारित्रिक रहस्यों को सम्पूर्ण सारगर्भित रूप से बताने के लिए हमने इस पुस्तक को प्रमुख रूप से तीन प्रमुख भागों में बाँटा हैं ताकि -
- आप लोगों को स्टेप बाइ स्टेप (क्रमश:)समझ में आ जाय कि कृष्ण क्या थे ? उनका आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन में क्या योगदान था ?-
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- जिसमें क्रमश: आप लोग पुस्तक के प्रथम भाग में "ब्रह्माण्ड की संरचना" को जानते हुए यह भी जान पायेगें कि सबसे ऊपर कौन सा लोक है और उनसे नीचे क्रमश: कौन कौन से लोक विद्यमान है। क्या इस ब्रह्माण्ड से परे भी कोई अन्य लोक है ?
- और उस लोक में कौन कौन से प्राणी रहते हैं , तथा उन लोके के अधिपति कौन है ? और उन अधिपतियों के भी अधिपति (सुप्रीम -पावर) कौन है ?
- जिसकी शक्ति से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गतिमान है अथा कहें कि "ब्रह्माण्ड के प्रत्येक गृह" उपग्रह" नक्षत्र" और तारे आदि की *गतियों की भिन्नता का आधार उनके सापेक्षिक पिण्ड के *घनत्व ( द्रव्यमान) से उत्पन्न * गुरुत्वाकर्षण आदि के मूल में उसी की सत्ता है ।
- इसी सर्वशक्तिमान ईश्वर को , परम-प्रभु परम-तत्व" इत्यादि नामों से तत्वज्ञानी लोग अनुभव व वर्णन किया करते हैं।
- (ब्रह्म वैवर्त पुराण-प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3)
- परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन-
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- भगवान नारायण कहते हैं– नारद ! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु तक वह बालक ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा ( अचानक) दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया।
- उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा।
- माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अन्दर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा।
- जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह उसके सापेक्ष अत्यन्त स्थूलतम था।
- वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
- परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है।
- इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगा पाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा" विष्णु और शिव आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता।
- प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव देव त्रयी( त्रिदेव) के रूप में विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है ? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
- यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके भी ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है।
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- श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है।
- सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है।
- पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक है।
- ऐसा प्रकाशमान है, मानो तपाया हुआ सोना चमक रहा हो। ये सभी कृत्रिम हैं। कुछ तो ब्रह्माण्ड के भीतर हैं और कुछ बाहर। नारद! ब्रह्माण्ड के नष्ट होने पर ये सभी नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि पानी के बुलबुले की भाँति यह सारा जगत अनित्य है।
- _____________________________,_
- गोलोक को नित्य, अविनाशी एवं अकृत्रिम कहा गया है।
- वैकुण्ठलोक शिव लोक की आयु ब्रह्मलोक की अपेक्षा अधिक है।
- परन्तु ये दौंनों भी सात्विक और तामसिक होने से प्राकृतिक हैं। ये रजोगुणात्मक ब्रह्मा के लोक की अपेक्षा अधिक आयु वाले हैं।
- उस विराटमय बालक के प्रत्येक रोमकूप में असंख्य ब्रह्माण्ड निश्चित रूप से विद्यमान हैं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान हैं।
- वत्स नारद! देवताओं की संख्या (तीन + तीस) करोड़ है।
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- ये सर्वत्र व्याप्त हैं। दिशाओं के स्वामी, दिशाओं की रक्षा करने वाले तथा ग्रह एवं नक्षत्र– सभी इसमें सम्मिलित हैं। भूमण्डल पर चार प्रकार के वर्ण हैं। जो ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न हैं। नीचे नागलोक है। चर और अचर सभी प्रकार के प्राणी उस पर निवास करते हैं।
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- नारद! तदनन्तर वह विराट स्वरूप बालक बार-बार ऊपर दृष्टि दौड़ाने लगा। वह गोलाकार पिण्ड बिल्कुल खाली था।
- दूसरी कोई भी वस्तु वहाँ नहीं थी। उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी। भूख से आतुर होकर वह बालक बार-बार रुदन करने लगा। फिर जब उसे ज्ञान हुआ, तब उसने परम पुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान किया।
- तब वहीं उसे सनातन ब्रह्म ज्योति के दर्शन प्राप्त हुए। वे ज्योतिर्मय श्रीकृष्ण नवीन मेघ के समान श्याम थे। उनकी दो भुजाएँ थीं। उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था। उनके हाथ में मुरली शोभा पा रही थी। मुखमण्डल मुस्कान से भरा था। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये वे कुछ व्यस्त-से जान पड़ते थे।पिता परमेश्वर को देखकर वह बालक संतुष्ट होकर हँस पड़ा। फिर तो वर के अधिदेवता श्रीकृष्ण ने समयानुसार उसे वर दिया।
- कहा- ‘बेटा ! तुम मेरे समान ज्ञानी बन जाओ। भूख और प्यास तुम्हारे पास न आ सके। प्रलय पर्यन्त यह असंख्य ब्रह्माण्ड तुम पर अवलम्बित रहे। तुम निष्कामी, निर्भय और सबके लिये वरदाता बन जाओ।
- देवी भागवत पुराण- प्रकृति खण्ड- स्कन्ध नवम् अध्याय तृतीय) मे ंभी इस बालक के विषय में इसी प्रकार काट वर्णन है कि -
- ब्रह्मपुत्र नारद! मन्त्रोपदेश के पश्चात् परम प्रभु श्रीकृष्ण ने उस बालक के भोजन की व्यवस्था की, वह तुम्हें बताता हूँ, सुनो! प्रत्येक विश्व में वैष्णवजन जो कुछ भी नैवेद्य भगवान को अर्पण करते हैं,
- उसमें से सोलहवाँ भाग विष्णु को मिलता है और पंद्रह भाग इस बालक के लिये निश्चित हैं; क्योंकि यह बालक स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट-रूप है। यह बालक ही महाविष्णु है।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
- प्रकृतिखण्ड: अध्याय (3) के अतिरिक्त देवी भागवत पराण के नवम स्कन्ध तृतीय अध्याय- में भी इसी प्रकार का वर्णन है।
- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा– 'वत्स! मेरी ही भाँति तुम भी बहुत समय तक अत्यन्त स्थिर होकर विराजमान रहो। असंख्य ब्रह्माओं के जीवन समाप्त हो जाने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने सूक्ष्म अंश से तुम विराजमान रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से विश्वस्रष्टा ब्रह्मा प्रकट होंगे। ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रुद्रों का आविर्भाव होगा। शिव के अंश से वे रुद्र सृष्टि के संहार की व्यवस्था करेंगे। उन ग्यारह रुद्रों में जो ‘कालाग्नि’ नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही रुद्र विश्व के संहारक होंगे।
- " हे बालक विष्णु विश्व की रक्षा करने के लिये तुम्हारे सूक्ष्म अंश से प्रकट होंगे। जिनको क्षुद्रविराट कहा जाएगा ।
- मेरे वर के प्रभाव से तुम्हारे हृदय में सदा मेरी भक्ति बनी रहेगी। तुम मेरे परम सुन्दर स्वरूप को ध्यान के द्वारा निरन्तर देख सकोगे, यह निश्चित है। तुम्हारी कमनीया माता मेरे वक्षःस्थल पर विराजमान रहेगी।
- उसकी भी झाँकी तुम प्राप्त कर सकोगे। वत्स! अब मैं अपने गोलोक में जाता हूँ। तुम यहीं ठहरो।'
- इस प्रकार उस बालक से कहकर भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और तत्काल वहाँ पहुँचकर उन्होंने सृष्टि की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा को तथा संहार कार्य में कुशल रुद्र को आज्ञा दी।
- भगवान श्रीकृष्ण बोले– 'वत्स! सृष्टि रचने के लिये जाओ। विधे! मेरी बात सुनो, महाविराट के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल से प्रकट होओ।'
- फिर गोपेश्वर कृष्ण ने रुद्र को संकेत करके कहा– ‘वत्स महादेव! जाओ। महाभाग! अपने अंश से ब्रह्मा के ललाट से प्रकट हो जाओ और स्वयं भी दीर्घकाल तक तपस्या करो।’
- नारद ! जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण यों कहकर चुप हो गये। तब ब्रह्मा और कल्याणकारी शिव– दोनों महानुभाव उन्हें प्रणाम करके विदा हो गये।
- महाविराट पुरुष के रोमकूप में जो ब्रह्माण्ड-गोलक का जल है, उसमें वे महाविराट पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट पुरुष हो गये, जो इस समय भी विद्यमान हैं।
- ____________
- श्यामो युवा पीतवासाः शयानो जलतल्पके।।
ईषद्धासः प्रसन्नास्यो विश्वरूपी जनार्दनः ।५२।
- इनकी की सदा युवा अवस्था रहती है। इनका श्याम रंग का विग्रह है। ये पीताम्बर पहनते हैं। जलरूपी शैय्या पर सोये रहते हैं। इनका मुखमण्डल मुस्कान से सुशोभित है। इन प्रसन्न मुख विश्वव्यापी प्रभु को ‘जनार्दन’ कहा जाता है। इन्हीं के नाभि कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उसके अन्तिम छोर का पता लगाने के लिये वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे।
- सन्दर्भ:-
- ब्रह्म वैवर्त पुराण-
- प्रकृतिखण्ड: अध्याय(3) तथा देवीभागवत पुराण नवम स्कन्ध अध्याय-(3)
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- नारद इतना प्रयास करने पर भी वे पद्मजन्मा ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड के अन्त तक जाने में सफल न हो सके। तब उनके मन में चिन्ता घिर आयी। वे पुनः अपने स्थान पर आकर भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करने लगे। उस स्थिति में उन्हें दिव्य दृष्टि के द्वारा क्षुद्र विराट पुरुष के दर्शन प्राप्त हुए।
- महाविराटरोमकूपक में ( क्षीरसागर )के भीतर जलमय शैय्या पर वे पुरुष क्षुद्र विराट् शयन कर रहे थे। फिर जिनके रोमकूप में वह ब्रह्माण्ड था, तब ब्रह्मा को उन महाविराट पुरुष के तथा उनके भी परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन हुए।
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- साथ ही गोपों और गोपियों से सुशोभित गोलोकधाम का भी दर्शन हुआ। फिर तो उन्हें श्रीकृष्ण की स्तुति की और उनसे वरदान पाकर सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया।
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- सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। *फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए।
- वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
- नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक रोमकूपक जल में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं।
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- नारायणाय विप्लेह वासुदेवाय घीमहि तन्नों विष्णुः प्रचोदयात्'। यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६। ६। २। १) और शाख्यायन श्रोत सूत्र (१६। १३। १) में नारायण शब्द विष्णु या प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है।
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- ब्रह्मन! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्र का वर्णन कर दिया। यह सारभूत प्रसंग सुख एंव मोक्ष प्रदान करने वाला है। ब्रह्मन्! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
- भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता। गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है। वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।
- सन्दर्भ:-
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 3-
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- नारद ! अतीत काल की बात है, असंख्य ब्रह्माओं का पतन होने के पश्चात् भी जिनके गुणों का नाश नहीं होता है तथा गुणों में जिनकी समानता करने वाला दूसरा नहीं है; वे भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदि में अकेले ही थे। उस समय उनके मन में सृष्टि विषयक संकल्प का उदय हुआ। अपने अंशभूत काल से प्रेरित होकर ही वे प्रभु सृष्टिकर्म के लिये उन्मुख हुए थे।
- एतरेय -उपनिषद में आता है
- ‘स इच्छत’ एकोऽहं बहुस्याम्।’ उसने इच्छा करते हुए कहा- मैं एक से बहुत हो जाऊँ -
- हमें लीला करनी है। लीला (खेलना) अकेले में होता नहीं तब दूसरा संकल्प है ‘एकाकी न रमते’ अर्थात अकेले में रमण नहीं होता। तो क्या करें ? ‘स इच्छत, एकोऽहम् बहुस्याम्’ - भगवान ने सृष्टि के प्रारम्भ में संकल्प किया, देखा कि मैं एक बहुत हो जाऊँ। ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’ ऐसी जहाँ इच्छा हुई तो जगत की उत्पत्ति हो गयी।
- सन्दर्भ:-(ऐतरेयोपनिषद् 1/3/11)
- सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता की संतान हैं .।
- इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव होता है.।
उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो रूपों में प्रकट हो गया। उनका वामांश स्त्रीरूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में।
- इसी लिए स्त्री को वामा भी कहते हैं ।
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https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/11/14/%e2%80%98%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e2%80%99-%e0%a4%95/- फिर आप लोग पुस्तक के दूसरे भाग में सृष्टि उत्पत्ति को दो तरीकों से जानेंगे- जिसमें सर्वप्रथम सुप्रीम पावर ( परम -प्रभु श्रीकृष्ण) द्वारा सृष्टि कि उत्पत्ति को जानेंगे- जिसमे आप लोग जान पायेंगे कि परम प्रभु श्रीकृष्ण से सर्व प्रथम नारायण, ब्रह्मा, और विष्णु तथा शिव के अतिरिक्त गोलोक में ही गोप और गोपियाँ तथा देवों में धर्म ,वायु आदि की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? जो कि वराह कल्प का सर्जन है।
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- काल का एक विभाग जिसे ब्रह्मा का एक दिन कहते हैं और जिसमें १४ मन्वंतर या ४३२००००००० वर्ष होते हैं । विशेष— पुराणनुसार ब्रह्मा के तीस दिनों के नाम ये हैं— (१) श्वेत (वाराह), (२) नीललोहित, (३) वामदेव, (४) रथंतर, (५) रौरव, (६) प्राण, (७) बृहत्कल्प, (८) कंदर्प, (९) सत्य या सद्य, (१०) ईशान, (११) व्यान, (१२) सारस्वत, (१३) उदान, (१४) गारूड़, (१५) कौम (ब्रह्म की पूर्णमासी), (१६) नारसिंह, (१७) समान (१८) आग्नेय, (१९) सोम, (२०) मानव, (२१) पुमान्, (२२) वैकुंठ, (२३) लक्ष्मी, (२४) सावित्री, (२५) घोर, (२६) वाराह, (२७) वैराज, (२८) गौरी, (२९) महेश्वर, (३०) पितृ (ब्रह्मा की अमावस्या)
- ब्राह्म कल्प ब्रह्मा जी की आयु तथा ब्रह्मा जी के तुल्य होने को कहा जाता है।
- उदाहरण- ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड : अध्याय 5 में तीन ही कल्प बताऐं हैं जिसे हम निम्न प्रसंग के द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं।
- महर्षि शौनक के पूछने पर सौति कहते हैं – ब्रह्मन! मैंने सबसे पहले ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन किया है। अब वाराह कल्प और पाद्म कल्प – इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिये। मुने! ब्राह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन प्रकार के कल्प हैं; जो क्रमशः प्रकट होते हैं।
- ब्रह्म वाराह और पाद्म ये कल्प मुख्यरूप से गोलोक में घटित होते हैं।
- जैसे सत्य युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग– ये चारों युग क्रम से कहे गये हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं। तीन सौ साठ युगों का एक दिव्य युग माना गया है। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है।
- चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है।
- ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा जी का एक वर्ष पूरा होता है। इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की विधाता की आयु बतायी गयी है।
- यह परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेषकाल है। कालवेत्ता विद्वानों ने ब्रह्मा जी की आयु के बराबर कल्प का मान निश्चित किया है।
- छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं, जो संवर्त आदि के नाम से विख्यात हैं।
- महर्षि मार्कण्डेय सात कल्पों तक जीने वाले बताये गये हैं; परंतु वह कल्प ब्रह्मा जी के एक दिन के बराबर ही बताया गया है।
- तात्पर्य यह है मार्कण्डेय मुनि की आयु ब्रह्मा जी के सात दिन में ही पूरी हो जाती है, ऐसा निश्चय किया गया है।
- ब्रह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन महाकल्प कहे गये हैं।
- इनमें जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ। सुनिये। ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी।
- फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, वाराह रूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की;
- तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं।
- सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह काल-गणना बतायी है और किंचिन मात्र सृष्टि का निरूपण किया है। अब फिर आप क्या सुनना चाहते हैं?
- 30 कल्पों (ब्रह्मा के दिन) में से पहला। अब हम ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष के श्वेतवराह-कल्प में अध्यक्षता कर रहे हैं।
- दो कल्पों से ब्रह्मा का एक दिन और रात बनती है। माना जाता है कि एक "ब्रह्मा महीने" में ऐसे तीस दिन (रात सहित) या 259.2 अरब वर्ष होते हैं।
- महाभारत के अनुसार, ब्रह्मा के 12 महीने (=360 दिन) उसके वर्ष का गठन करते हैं, और ऐसे 100 वर्ष ब्रह्मांड के जीवन चक्र का निर्माण करते हैं।
- श्वेत वराह कल्प के मनु निम्न प्रकार से हैं।
- प्रथम मन्वंतर - स्वयंभू मनु का काल
- द्वितीय मन्वंतर - स्वारोचिष मनु का काल
- तीसरा मन्वंतर - औत्तमी मनु का काल
- चौथा मन्वंतर - तमसा मनु का अंतराल
- पांचवां मन्वंतर - रैवत मनु का काल
- छठा मन्वंतर - चाक्षुष मनु का काल
- वर्तमान, सातवां मन्वंतर - वैवस्वत मनु का अंतराल
- आठवां (भविष्य) - सावर्णि मनु
- नौवें - दक्ष सावर्णि मनु
- दसवें - ब्रह्मा सावर्णि मनु
- एकादश - धर्म सावर्णि मनु
- बारहवें - रूद्र सावर्णि मनु
- तेरहवाँ - रौच्य या देव सावर्णि मनु
- चौदहवें - इन्द्र सावर्णि मनु
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- उपर्युक्त विवेचना कालगणना से सम्बन्धित है।
- अब हम विराट पुरुष की बात करते हैं जो बालक रूप में विद्यमान था।
- वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। - इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना स्वयं श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है।
- "क्यों यह अपने आदि और अन्त से रहित था ।और जिस वस्तु का कोई सीमांकन ही निर्धारण न हो तो उसका ज्ञान कैसे हो सकता है? क्योंकि ज्ञान एक साधन है जो ज्ञाता और ज्ञेय के मध्य सीमांकित निर्धारण करता है। वह परम्ब्रह्म स्वयं अपने अनन्त स्वरूप को नहीं जानता क्योंकि ज्ञान की वहाँ तक सीमा नहीं है।
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- उसी क्रम में आप लोग जान पाएंगे की श्रीकृष्ण के कितने भेद और विभेद हैं। जिसमे आप लोग तुलनात्मक ढ़ग से यह भेद कर पाएंगे कि श्री कृष्ण से भगवान विष्णु की उत्पत्ति हुई कि विष्णु से भगवान श्रीकृष्ण की -
- ब्रह्म वैवर्त पुराणप्रकृतिखण्ड: अध्याय ३- परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी श्री राधा से प्रकट विराट स्वरूप बालक का वर्णन
भगवान नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर वह बालक जो केवल अण्डाकार था, ब्रह्मा की आयु पर्यन्त ब्रह्माण्ड गोलक के जल में रहा। फिर समय पूरा हो जाने पर वह सहसा दो रूपों में प्रकट हो गया। एक अण्डाकार ही रहा और एक शिशु के रूप में परिणत हो गया। उस शिशु की ऐसी कान्ति थी, मानो सौ करोड़ सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। माता का दूध न मिलने के कारण भूख से पीड़ित होकर वह कुछ समय तक रोता रहा। माता-पिता उसे त्याग चुके थे। वह निराश्रय होकर जल के अंदर समय व्यतीत कर रहा था। जो असंख्य ब्रह्माण्ड का स्वामी है, उसी के अनाथ की भाँति, आश्रय पाने की इच्छा से ऊपर की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसकी आकृति स्थूल से भी स्थूल थी। अतएव उसका नाम ‘महाविराट’ पड़ा। जैसे परमाणु अत्यन्त सूक्ष्मतम होता है, वैसे ही वह अत्यन्त स्थूलतम था। वह बालक तेज में परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश की बराबरी कर रहा था।
परमात्मा स्वरूपा प्रकृति-संज्ञक राधा से उत्पन्न यह महान विराट बालक सम्पूर्ण विश्व का आधार है। यही ‘महाविष्णु’ कहलाता है। इसके प्रत्येक रोमकूप में जितने विश्व हैं, उन सबकी संख्या का पता लगाना श्रीकृष्ण के लिये भी असम्भव है। वे भी उन्हें स्पष्ट बता नहीं सकते। जैसे जगत के रजःकण को कभी नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार इस शिशु के शरीर में कितने ब्रह्मा और विष्णु आदि हैं– यह नहीं बताया जा सकता। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विद्यमान हैं। पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक अनगनित ब्रह्माण्ड बताये गये हैं। अतः उनकी संख्या कैसे निश्चित की जा सकती है? ऊपर वैकुण्ठलोक है।
यह ब्रह्माण्ड से बाहर है। इसके ऊपर पचास करोड़ योजन के विस्तार में गोलोकधाम है। श्रीकृष्ण के समान ही यह लोक भी नित्य और चिन्मय सत्य स्वरूप है। पृथ्वी सात द्वीपों से सुशोभित है। सात समुद्र इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उन्नचास छोटे-छोटे द्वीप हैं। पर्वतों और वनों की तो कोई संख्या ही नहीं है। - सबसे ऊपर सात स्वर्गलोक हैं। ब्रह्मलोक भी इन्हीं में सम्मिलित है। नीचे सात पाताल हैं। यही ब्रह्माण्ड का परिचय है। पृथ्वी से ऊपर भूर्लोक, उससे परे भुवर्लोक, भुवर्लोक से परे स्वर्लोक, उससे परे जनलोक, जनलोक से परे तपोलोक, तपोलेक से परे सत्यलोक और सत्यलोक से परे ब्रह्मलोक है।
- फिर सृष्टि उत्पत्ति के द्वितीय क्रम में जान पाएंगे कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि रचना होती हैं -जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य तथा शूद्र चार वर्णो की उत्पत्ति कर ब्रह्मा जी उपने कार्य में सफल होते हैं।
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- फिर आप लोग पुस्तक के अन्तिम व तीसरे भाग में यह भी जान पाएंगे कि ब्रह्मा जी की सृष्टि- रचना चार वर्णों के अतिरिक्त भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक पाँचवा वर्ण अर्थात वैष्णव वर्ण भी विद्यमान है।
- जो ब्रह्मा जी के चार वर्णो से अलग है और जिसकी उत्पत्ति सर्वोच्च सत्ता- श्रीकृष्ण अर्थात जिसे (स्वराट- विष्णु ) भी कह सकते हैं से हुई है।
- जिनके सदस्यगण व लीला सहचर एक मात्र गोप ( अहीर ) ही हैं। जिन अहीरों को ही वास्तविक वैष्णव कहा जाता है । ये स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव हैं। स्वराट् विष्णु कृष्ण ही अपर नाम है।
- श्री भगवान द्वारा सृष्टि के कार्य में नियुक्त ब्रह्माजी कमलकोष में प्रवेश किया और उसके ही भू:, भव:, और सव: तीन भाग किए । जीवों के भोगस्थान के रूप में इन्ही तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है। जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें मह:, तप: जन: और सत्यलोकस्वरूप ब्रहमलोक की प्राप्ति होती है।
- विषयों का निरंतर बदलना ही काल का आकार है । स्वयं तो वह निर्विशेष अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बना कर भगवान खेल खेल में ही अपने आपको सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान की माया से लीं होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्त मूर्ति काल के द्वारा भगवान ने प्रथक रूप से प्रकट किया है।
- यह जगत जैसा अब है पहले भी वैसा ही था और भविष्य में भी ऐसा ही होगा। प्रलयकाल आने पर सृष्टि के सम्पूर्ण विनाश के बाद, भगवान सृष्टि की पुनः रचना करते है। आदि काल से यह चक्र निर्विवाद रूप से विद्यमान है।
- जगत की सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत वैकृत भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है । सृष्टि का प्रलयकाल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार होता है। दस प्रकार की सृष्टि का भेद निम्न प्रकार के बताया गया है:
- छह प्राकृत सृष्टि-
- १. पहली सृष्टि महत्व की है। भगवान की कृपा से सत्वआदि गुणो में विषमता होना ही इसका स्वरूप है।
- २. दूसरी सृष्टि अहंकार की है। जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत ज्ञानेंद्रिय और कर्मइंद्रियों की उत्पत्ति होती है।
- ३. तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है जिससे पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्र वर्ग रहता है।
- ४. चौथी सृष्टि इंद्रियों की है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति से उत्पन्न होती है।
- ५. पाँचवी सृष्टि सात्विक अहंकार से उत्पन्न हुए देवताओं इंद्रियाधिष्ठाताओ देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अंतर्गत है।
- ६. छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तमिस्र, अंधतमिस्र, तम, मोह और महामहिम- यह पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की आत्मा का आवरण और विक्षेप करने वाली हैं।
- वैकृत सृष्टि-
- ७. सातवी प्रधान वैकृत सृष्टि छह प्रकार के स्थावर वृक्षों की होती है। इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की और होता है। इनके ज्ञान शक्ति नहीं होती, यह अंदर ही अंदर केवल स्पर्श का अनुभव करते है, इनमे से प्रत्येक के गुण अलग होते हैं।
- – वनस्पति – जो बिना बौर आए ही फलते हैं जैसे गूलर, बड़, पीपल।
– औषधि – जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं जैसे धान, गेहूँ, चना ।
– लता – जो किसी का आश्रय ले कर बढ़ते हैं जैसे ब्राह्मी।
– तवकसार – जिनकी छाल बहुत कठोर होती है जैसे बाँस ।
– वीरुध- जिनकी लता पृथ्वी पर ही फैलती है जैसे तरबूज़।
– द्रुम- जिनमे फूल आ कर फिर फूलों के स्थान पर ही फल लगते हैं जैसे जामुन। - ८. आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु पक्षियों) की है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता और तमोगुण की अधिकता के कारण यह केवल खाना- पीना मैथुन तथा सोना ही जानते हैं। इन्हें सूँघने मात्र से से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके मस्तिष्क में विचारशक्ति नहीं होती।
- – द्विशफ – दो खुरों वाले पशु जैसे गाय, बकरा, भैंसा, मृग, शूकर, भेद और ऊँट।
– एकशफ – एक खुर वाले पशु जैसे गधा, घोड़ा, खच्चर।
– पञ्च नख – पाँच नखों वाले पशु जैसे कुत्ता, भेड़िया, बाघ, बिल्ली, सिंह, हाथी इत्यादि
– उड़ने वाले जीव – जैसे बगुला, गिध, हंस, मोर, कौवा, सरस उल्लू, इत्यादि - ९. मनुष्य – नवी सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार के हैं। परस्पर इनमे कोई भेद नहीं है । इनका आहार ऊपर से नीचे की और होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःख: रूप विषयों में ही सुख मनने वाले होते हैं।
- उपरोक्त के अतिरिक्त देव सृष्टि आठ प्रकार की –
- देवता-पितर,
- असुर,
- गंधर्व -अप्सरा,
- यक्ष – राक्षस,
- सिद्ध- चारण-विद्याधर,
- भूत- प्रेत-पिशाच और
- किन्नर-किम्पपुरुष-अश्वमुख है ।
- इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प के रूप श्री हरि ही ब्रह्मा जी के रूप में प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।
- सौति कहते हैं– शौनक जी! तब भगवान की आज्ञा के अनुसार तपस्या करके सृष्टि क्रम में अभीष्ट सिद्धि पाकर ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम मधु और कैटभ के मेद(चर्बी ) से मेदिनी की सृष्टि की।
- उन्होंने आठ प्रधान पर्वतों की रचना की।
- वे सब बड़े मनोहर थे।
- उनके बनाये हुए छोटे-छोटे पर्वत तो असंख्य हैं, उनके नाम क्या बताऊँ ? मुख्य-मुख्य पर्वतों की नामावली सुनिये– सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन – ये आठ प्रधान पर्वत हैं। फिर ब्रह्मा जी ने सात समुद्रों, अनेकानेक नदों और कितनी ही नदियों की सृष्टि की।
- वृक्षों, गाँवों और नगरों का निर्माण किया। समुद्रों के नाम सुनिये– लवण, इक्षुरस, सुरा, घृत, दही, दूध और सुस्वादु जल के वे समुद्र हैं।
- उनमें से पहले की लंबाई-चौड़ाई एक लाख योजन की है। बाद वाले उत्तरोत्तर दुगुने होते गये हैं। इन समुद्रों से घिरे हुए सात द्वीप हैं।
- उनके भूमण्डल कमल पत्र की आकृति वाले हैं। उनमें उपद्वीप और मर्यादा पर्वत भी सात-सात ही हैं।
- ब्रह्मन! अब आप उन द्वीपों के नाम सुनिये, जिनकी पहले ब्रह्मा जी ने रचना की थी।
- वे हैं–जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोध (अथवा शाल्मलि) द्वीप तथा पुष्करद्वीप।
- भगवान ब्रह्मा ने मेरु पर्वत के आठ शिखरों पर आठ लोकपालों के विहार के लिये आठ मनोहर पुरियों का निर्माण किया। उस पर्वत के मूलभाग–पाताल लोक में उन्होंने भगवान अनन्त (शेषनाग) की नगरी बनायी।
- तदनन्तर लोकनाथ ब्रह्मा ने उस पर्वत के ऊपर-ऊपर सात स्वर्गों की सृष्टि की।
- शौनक जी ! उन सबके नाम सुनिये– भूर्लोक, भुवर्लोक, परम मनोहर- स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक।
- मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर जरा-मृत्यु आदि से रहित ब्रह्मा का लोक ब्रह्मलोक है।
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- उससे भी ऊपर ध्रुवलोक है,( उत्तरीध्रुव) जो सब ओर से अत्यन्त मनोहर है। जगदीश्वर ब्रह्मा जी ने उस पर्वत के निम्न भाग में सात पातालों का निर्माण किया। मुने! वे स्वर्ग की अपेक्षा भी अधिक भोग-साधनों से सम्पन्न हैं और क्रमशः एक से दूसरे उत्तरोत्तर नीचे भाग में स्थित हैं।
- उनके नाम इस प्रकार हैं– अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल। सबसे नीचे रसातल ही है।
- सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल– इन लोकों सहित जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है, वह ब्रह्मा जी के ही अधिकार में है।
- शौनक! ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और महाविष्णु के रोमांच-विवरों ( रोमकूपों)में उनकी स्थिति है।
- श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणी स्थित हैं।
- इन ब्रह्माण्डों की गणना करने में न तो लोकनाथ ब्रह्मा, न शंकर, न धर्म और न विष्णु ही समर्थ हैं; फिर और देवता किस गिनती में हैं ?
- विप्रवर! कृत्रिम विश्व तथा उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य तथा स्वप्न के समान नश्वर हैं।
- वैकुण्ठ, शिवलोक तथा इन दोनों से परे जो गोलोक है, ये सब नित्य-धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है। ठीक उसी तरह, जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएँ कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।
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- "इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड सृष्टिनिरूपणं नामक सप्तमोऽध्यायः।७।)
- इसी क्रम में ब्रह्मा सृष्टि करते हुए
- सावित्री से वेद आदि की सृष्टि करते हैं, ब्रह्मा जी से सनकादि की, सस्त्रीक स्वायम्भुव मनु की, रुद्रों की, पुलस्त्यादि मुनियों की तथा नारद की उत्पत्ति, भी सावित्री द्वारा होती है । सावित्री प्रसव की देवी हैं। इसी उपरान्त नारद को ब्रह्मा का और ब्रह्मा जी को नारद का शाप
- सौति कहते हैं – तदनन्तर सावित्री ब्रह्मा के संयोग से चार मनोहर वेदों को प्रकट किया। साथ ही न्याय और व्याकरण आदि नाना प्रकार के शास्त्र-समूह तथा परम मनोहर एवं दिव्य छत्तीस रागिनियाँ उत्पन्न कीं।
- नाना प्रकार के तालों से युक्त छः सुन्दर राग प्रकट किये। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलहप्रिय कलियुग; वर्ष, मास, ऋतु, तिथि, दण्ड, क्षण आदि; दिन, रात्रि, वार, संध्या, उषा, पुष्टि, मेधा, विजया, जया, छः कृत्तिका, योग, करण, कार्तिकेय प्रिया सती महाषष्ठी देवसेना– जो मातृकाओं में प्रधान और बालकों की इष्ट देवी हैं, इन सबको भी सावित्री ने ही उत्पन्न किया।******
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- ब्रह्मा, पाद्म और वाराह– ये तीन कल्प माने गये हैं। नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्ध और प्राकृत – ये चार प्रकार के प्रलय हैं।
- इन कल्पों और प्रलयों को तथा काल, मृत्युकन्या एवं समस्त व्याधिगणों को उत्पन्न करके सावित्री ने उन्हें अपना स्तन पान कराया।
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- तदनन्तर ब्रह्मा जी के पृष्ठ देश से अधर्म उत्पन्न हुआ। अधर्म से वामपार्श्व से अलक्ष्मी उत्पन्न हुई, जो उसकी पत्नी थी।
- ब्रह्मा जी के नाभि देश से शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा हुए। साथ ही आठ महावसुओं की उत्पत्ति हुई, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। *******
- तत्पश्चात् विधाता के मन से चार कुमार आविर्भूत हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था के-से जान पड़ते थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे।
- उनमें से प्रथम तो सनक थे, दूसरे का नाम सनन्दन था, तीसरे सनातन और चौथे ज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान सनत्कुमार थे।
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- इसके बाद ब्रह्मा जी के मुख से सुवर्ण के समान कान्तिमान कुमार उत्पन्न हुआ, जो दिव्य रूपधारी था। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी।
- वह श्रीमान एवं सुन्दर युवक था। क्षत्रियों का बीजस्वरूप था। उसका नाम था स्वायम्भुव मनु।
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- जो स्त्री थी, उसका नाम शतरूपा था। वह बड़ी रूपवती थी और लक्ष्मी की कलास्वरूपा थी। पत्नी सहित मनु विधाता की आज्ञा का पालन करने के लिये उद्यत रहते थे। स्वयं विधाता ने हर्ष भरे पुत्रों से, जो बड़े भगवद्भक्त थे, सृष्टि करने के लिये कहा। परंतु वे श्रीकृष्ण परायण होने के कारण ‘नहीं’ करके तपस्या करने के लिये चले गये। इससे जगत्पति विधाता को बड़ा क्रोध हुआ।
- कोपासक्त ब्रह्मा ब्रह्मतेज से जलने लगे।
- प्रभो! इसी समय उनके ललाट से ग्यारह रुद्र प्रकट हुए।
- उन्हीं में से एक को संहारकारी 'कालाग्नि रुद्र' कहा गया है। समस्त लोगों में केवल वे ही तामस या तमोगुणी माने गये हैं।
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- स्वयं ब्रह्मा राजस हैं और शिव तथा विष्णु सात्त्विक कहे गये हैं।
- गोलोकनाथ श्रीकृष्ण निर्गुण हैं; क्योंकि वे प्रकृति से परे हैं। जो परम अज्ञानी और मूर्ख हैं, वे ही शिव को तामस (तमोगुणी) कहते हैं। वे शुद्ध, सत्त्वस्वरूप, निर्मल तथा वैष्णवों में अग्रगण्य हैं।
- अब रुद्रों के वेदोक्त नाम सुनो– महान, महात्मा, मतिमान, भीषण, भयंकर, ऋतुध्वज, ऊर्ध्वकेश, पिंगलाक्ष, रुचि, शुचि तथा कालाग्नि रुद्र।
- ब्रह्मा जी के दायें कान से पुलस्त्य, बायें कान से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि, वाम नेत्र से क्रतु, नासिका छिद्र से अरणि, मुख से अंगिरा एवं रुचि, वामपार्श्व से भृगु, दक्षिणपार्श्व से दक्ष, छाया से कर्दम, नाभि से पंचशिख, वक्षःस्थल से वोढु, कण्ठ देश से नारद, स्कन्ध देश से मरीचि, गले से अपान्तरतमा, रसना से वसिष्ठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वामकुक्षि से हंस और दक्षिणकुक्षि से यति प्रकट हुए। विधाता ने अपने इन पुत्रों की सृष्टि करने की आज्ञा दी।
- पिता की बात सुनकर नारद ने उनसे कहा। नारद बोले – जगत्पते! पितामह! पहले सनक, सनन्दन आदि ज्येष्ठ पुत्रों को बुलाइये और उनका विवाह कीजिये। तत्पश्चात् हम लोगों से ऐसा करने के लिये कहिये। जब पिता जी! आपने उन्हें तपस्या में लगाया है, तब हमें ही क्यों संसार-बन्धन में डाल रहे हैं?
- अहो ! कितने खेद की बात है कि प्रभु की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त हो रही है। भगवन! आपने किसी पुत्र को तो अमृत से भी बढ़कर तपस्या का कार्य दिया है और किसी को आप विष से भी अधिक विषम विषय-भोग दे रहे हैं।
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- पिताजी! जो अत्यन्त निम्न कोटि के भयानक भवसागर में गिरता है, उसका करोड़ों कल्प बीतने पर भी उद्धार नहीं होता। भगवान पुरुषोत्तम ही सबके आदि कारण तथा निस्तार के बीज हैं। वे ही सब कुछ देने वाले, भक्ति प्रदान करने वाले, दास्यसुख देने वाले, सत्य तथा कृपामय हैं। वे ही भक्तों को एकमात्र शरण देने वाले, भक्तवत्सल और स्वच्छ हैं।
- भक्तों के प्रिय, रक्षक और उन पर अनुग्रह करने वाले भी वे ही हैं। भक्तों के आराध्य तथा प्राप्य उन परमेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर कौन मूढ़ विनाशकारी विषय में मन लगायेगा?
- अमृत से भी अधिक प्रिय श्रीकृष्ण सेवा छोड़कर कौन मूर्ख विषय नामक विषम विष का भक्षण (आस्वादन) करेगा?
- विषय तो स्वप्न के समान नश्वर, तुच्छ, मिथ्या तथा विनाशकारी है।
- मरीचि आदि ब्रह्मकुमारों तथा दक्षकन्याओं की संतति का वर्णन, दक्ष के शाप से पीड़ित चन्द्रमा का भगवान शिव की शरण में जाना, अपनी कन्याओं के अनुरोध पर दक्ष का चन्द्रमा को लौटा लाने के लिये जाना, शिव की शरणागत वत्सलता तथा विष्णु की कृपा से दक्ष को चन्द्रमा की प्राप्ति
- सौति कहते हैं– विप्रवर शौनक! तदनन्तर ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों को सृष्टि करने की आज्ञा दी। नारद को छोड़कर शेष सभी पुत्र सृष्टि के कार्य में संलग्न हो गये।
- मरीचि के मन से प्रजापति कश्यप का प्रादुर्भाव हुआ।
- अत्रि के नेत्रमल से क्षीरसागर में चन्द्रमा प्रकट हुए। प्रचेता के मन से भी गौतम का प्राकट्य हुआ। मैत्रावरुण पुलस्त्य के मानस पुत्र हैं।
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- मनु से शतरूपा के गर्भ से तीन कन्याओं का जन्म हुआ– आकूति, देवहूति और प्रसूति।
- वे तीनों ही पतिव्रता थीं। मनु-शतरूपा से दो मनोहर पुत्र भी हुए, जिनके नाम थे– प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे।
- मनु ने अपनी पुत्री आकूति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ तथा प्रसूति का विवाह दक्ष के साथ कर दिया।
- इसी तरह देवहूति का विवाह-सम्बन्ध उन्होंने कर्दम मुनि के साथ किया, जिनके पुत्र साक्षात भगवान कपिल हैं।
- दक्ष के वीर्य और प्रसूति के गर्भ से आठ कन्याओं का जन्म हुआ। उनमें से आठ कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ किया, ग्यारह कन्याओं को ग्यारह रुद्रों के हाथ में दे दिया। एक कन्या सती भगवान शिव को सौंप दी।
- तेरह कन्याएँ कश्यप को दे दीं तथा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को अर्पित कर दीं।
- विप्रवर! अब मुझसे धर्म की पत्नियों के नाम सुनिये– शान्ति, पुष्टि, धृति , तुष्टि, क्षमा, श्रद्धा, मति और स्मृति।
- शान्ति का पुत्र संतोष और पुष्टि का पुत्र महान हुआ।
- धृति से धैर्य का जन्म हुआ। तुष्टि से दो पुत्र हुए – हर्ष और दर्प।
- क्षमा का पुत्र सहिष्णु था और श्रद्धा का पुत्र धार्मिक।
- मति से ज्ञान नामक पुत्र हुआ और स्मृति से महान जातिस्मर का जन्म हुआ।
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- धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर - नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए।
- शौनक जी ! धर्म के ये सभी तीन पुत्र बड़े धर्मात्मा हुए।
- अब आप सावधान होकर रुद्र पत्नियों के नाम सुनिये। कला, कलावती, काष्ठा, कालिका, कलहप्रिया, कन्दली, भीषणा, रास्रा, प्रमोचा, भूषणा और शुकी। इन सबके बहुत-से पुत्र हुए, जो भगवान शिव के पार्षद हैं।
- दक्षपुत्री सती ने यज्ञ में अपने स्वामी की निन्दा होने पर शरीर को त्याग दिया और पुनः हिमवान की पुत्री पार्वती के रूप में अवतीर्ण हो भगवान शंकर को ही पतिरूप में प्राप्त किया।
- धर्मात्मन! अब कश्यप की पत्नियों के नाम सुनिये। देवमाता, अदिति, दैत्यमाता दिति, सर्पमाता कद्रू, पक्षियों की जननी विनता,
- गौओं और भैंसों की माता सुरभि, दानवजननी दनु तथा अन्य पत्नियाँ भी इसी तरह अन्यान्य संतानों की जननी हैं।
- मुने! इन्द्र आदि बारह आदित्य तथा उपेन्द्र (वामन) आदि देवता अदिति के पुत्र कहे गये हैं, जो महान बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं।
- ब्रह्मन! इन्द्र का पुत्र जयन्त हुआ, जिसका जन्म शची के गर्भ से हुआ था। आदित्य (सूर्य) की पत्नी तथा विश्वकर्मा की पुत्री सर्वणा के गर्भ से शनैश्चर और यम नामक दो पुत्र तथा कालिन्दी नाम वाली एक कन्या हुई।
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- उपेन्द्र के वीर्य और पृथ्वी के गर्भ से मंगल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
- तदनन्तर भगवान उपेन्द्र अंश और धरणी के गर्भ से मंगल के जन्म का प्रसंग सुनाकर सौति बोले– मंगल की पत्नी मेधा हुई, जिसके पुत्र महान घंटेश्वर और विष्णु तुल्य तेजस्वी व्रणदाता हुए। दिति से महाबली हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक पुत्र तथा सिंहिका नाम वाली कन्या का जन्म हुआ।
- सैंहिकेय (राहु) सिंहिका का ही पुत्र है। सिंहिका का दूसरा नाम निर्ऋति भी था। इसीलिये राहु को नैर्ऋत कहते हैं। हिरण्याक्ष को कोई संतान नहीं थी। वह युवावस्था में ही भगवान वाराह के हाथों मारा गया। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद हुए, जो वैष्णवों में अग्रगण्य माने गये हैं। उनके पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र साक्षात राजा बलि। बलि का पुत्र बाणासुर हुआ, जो महान योगी, ज्ञानी तथा भगवान शंकर का सेवक था। यहाँ तक दिति का वंश बताया गया।
- अब कद्रू के वंश का परिचय सुनिये। अनन्त, वासुकि, कालिय, धनंजय, कर्कोटक, तक्षक, पद्म, ऐरावत, महापद्म, शंकु, शंक, संवरण, धृतराष्ट्र, दुर्धर्ष, दुर्जय, दुर्मुख, बल, गोक्ष, गोकामुख तथा विरूप आदि को कद्रू ने जन्म दिया था।
- शौनक जी! जितनी सर्प-जातियाँ हैं, उन सब में प्रधान ये ही हैं। लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई मनसादेवी कद्रू की कन्या हैं। ये तपस्विनी स्त्रियों में श्रेष्ठ, कल्याणस्वरूपा और महातेजस्विनी हैं। इन्हीं का दूसरा नाम जरत्कारु है। इन्हीं के पति मुनिवर जरत्कारु थे, जो नारायण की कला से प्रकट हुए थे।
- विष्णु तुल्य तेजस्वी आस्तीक इन्हीं मनसा देवी के पुत्र हैं। इन सबके नाम मात्र से मनुष्यों का नागों से भय दूर हो जाता है। यहाँ तक कद्रू के वंश का परिचय दिया गया। अब विनता के वंश का वर्णन सुनिये।
- विनता के दो पुत्र हुए– अरुण और गरुड़। दोनों ही विष्णु-तुल्य पराक्रमी थे। उन्हीं दोनों से क्रमशः सारी पक्षी-जातियाँ प्रकट हुईं। गाय, बैल और भैंसे – ये सुरभि की श्रेष्ठ संतानें हैं।
- समस्त सारमेय (कुत्ते) सरमा के वंशज हैं। दनु के वंश में दानव हुए तथा अन्य स्त्रियों के वंशज अन्यान्य जातियाँ। यहाँ तक कश्यप-वंश का वर्णन किया गया।
- अब चन्द्रमा का आख्यान सुनिये।
- पहले चन्द्रमा की पत्नियों के नामों पर ध्यान दीजिये। फिर पुराणों में जो उनका अत्यन्त अपूर्व पुरातन चरित्र है, उसको श्रवण कीजिये। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पूजनीया साध्वी पुनर्वसु, पुष्या, आश्लेषा, मघा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढा, उत्तरषाढा, श्रवणा, धनिष्ठा, शुभा शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा तथा रेवती– ये सत्ताईस चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं।
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- इनमें रोहिणी के प्रति चन्द्रमा का विशेष आकर्षण होने के कारण चन्द्रमा ने अन्य सब पत्नियों की बड़ी अवहेलना की। तब उन सबने जाकर पिता दक्ष को अपना दुःख सुनाया। दक्ष ने चन्द्रमा को क्षय-रोग से ग्रस्त होने का शाप दे दिया। चन्द्रमा ने दुःखी होकर भगवान शंकर की शरण ली और शंकर ने उन्हें आश्रय देकर अपने मस्तक में स्थान दिया।
- तब से उनका ‘चन्द्रशेखर’ हो गया।
- देवताओं तथा अन्य लोगों में शिव से बढ़कर शरणागत पालक दूसरा कोई नहीं है।
- अपने पति के रोग मुक्त और शिव के मस्तक में स्थित होने की बात सुनकर दक्ष कन्याएँ बारंबार रोने लगीं और तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ पिता दक्ष की शरण में आयीं। वहाँ जाकर अपने अंगों को बारंबार पीटती हुई वे उच्चस्वर से रोने लगीं तथा दीनानाथ ब्रह्मपुत्र दक्ष से दीनतापूर्वक कातर वाणी में बोलीं।
- दक्ष कन्याओं ने कहा- पिताजी! हमें स्वामी का सौभाग्य प्राप्त हो, इसी उद्देश्य को लेकर हमने आपसे अपना दुःख निवेदन किया था। परंतु सौभाग्य तो दूर रहे, हमारे सद्गुणशाली स्वामी ही हमें छोड़कर चल दिये। तात! नेत्रों के रहते हुए भी हमें सारा जगत अन्धकारपूर्ण दिखायी देता है। आज यह बात समझ में आयी है कि स्त्रियों का नेत्र वास्तव में उनका पति ही है। पति ही स्त्रियों की गति है, पति ही प्राण तथा सम्पत्ति है। ****
- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का हेतु तथा भवसागर का सेतु भी पति ही है। पति ही स्त्रियों का नारायण है, पति ही उनका व्रत और सनातन धर्म है। जो पति से विमुख हैं उन स्त्रियों का सारा कर्म व्यर्थ है।
- श्रीबह्मवैवर् महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड नवमोऽध्यायः ।। ९ ।।
- तो चलिए इसे भगवान श्री कृष्ण की स्तुति करके प्रारम्भ करते हैं।
- "सच्चिदानन्द रूपाय विश्व उत्पत्ति आदि हेतवे तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः।
- (श्रीपद्मपुराण उत्तरखण्ड श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
भक्तिनारदसमागमो नामक प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥) - अनुवाद:-
- हे सत् चित्त आनंद! हे संसार की उत्पत्ति के कारण! हे दैहिक, दैविक और भौतिक तीनो तापों का विनाश करने वाले महाप्रभु! हे श्रीकृष्ण! आपको हम कोटि कोटि नमन करते हैं।
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https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/11/14/%e2%80%98%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e2%80%99-%e0%a4%95/- स्वयं भगवान स्वराट् विष्णु ( श्रीकृष्ण) जो गोलोक में अपने मूल कारण कृष्ण रूप में ही विराजमान हैं वही आभीर जाति में मानवरूप में सीधे अवतरित होकर इस पृथ्वी पर आते हैं;
- क्योंकि आभीर(गोप) जाति साक्षात् उनके रोम कूप ( शरीर) से उत्पन है जो गुण-धर्म में उन्हीं कृष्ण के समान होती है।
- इस बात की पुष्टि अनेक ग्रन्थ से होती है।प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ गर्ग-संहिता में उद्धृत " कुछ तथ्यो को हम प्रस्तुत करते हैं।
- कृष्ण का गोप जाति में अवतरण और गोप जाति के विषय में राधा जी का अपना मन्तव्य प्रकट करना ही इसी तथ्य को सूचित करता है। कि गोपों से श्रेष्ठ इस सृष्टि मैं को ईव दूसरा नहीं है।
- अनुवाद:- जब स्वयं कृष्ण राधा की एक सखी बनकर स्वयं ही कृष्ण की राधा से निन्दा करते हैं तब राधा कहती हैं -
- "भूतल के अधिक-भार का -हरण करने वाले कृष्ण तथा सत्पुरुषों के कल्याण करने वाले कृष्ण गोपों के घर में प्रकट हुए हैं। फिर तुम हे सखी ! उन आदिपुरुष श्रीकृष्ण की निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ये गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, गोरज की गंगा में नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२१-२२।
- (सन्दर्भ:- गर्गसंहिता वृन्दावन खण्ड अध्याय १८)
- गाय और गोप जिनके लीला- सहचर बनते हैं।
और इनकी आदिशक्ति- राधा ही "दुर्गा" गायत्री"और उर्वशी आदि के रूप में अँशत: इन अहीरों के घर में जन्म लेने के लिए प्रेरित होती हैं। उन अहीरों को हेय कैसे कहा जा सकता है ?_ - ऋग्वेद में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं मे ं सन्दर्भित विष्णु गोप रूप में जिस लोक में रहते वहाँ बहुत सी स्वर्ण मण्डित सीगों वाली गायें रहती हैं।
- जो पुराण वर्णित गोलोक का ही रूपान्तरण अथवा संस्करण है। विष्णु के लिए गोप - विशेषण की परम्परा "गोप-गोपी-परम्परा के ही प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
- इन (उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी)लंबे डग धर के अपने तीन कदमों में ही तीन लोकों को नापने वाले। विष्णु के कारण रूप और इस ब्रह्माण्ड से परे ऊपर गोलोक में विराजमान द्विभुजधारी शाश्वत किशोर कृष्ण ही हैं।
- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परम पद में मधु के उत्स (स्रोत )और भूरिश्रृंगा-(स्वर्ण मण्डित सींगों वाली) जहाँ गउएँ रहती हैं , वहाँ पड़ता है।
- "कदाचित इन गउओं के पालक होने के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है।
- ऋग्वेद में विष्णु के सन्दर्भ में ये तथ्य इस ऋचा में प्रतिबिम्बित है।
- "त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
- शब्दार्थ:-(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को (धारयन्) धारण करता हुआ । (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
- इन सभी तथ्यों की हम क्रमश: व्याख्या करेंगे।विष्णु को सम्पूर्ण संसार का रक्षक और अविनाशी बताया है। जिन्होंने धर्म को धारण करते हुए तीनों लोको सहित सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड को तीन पगों( कदमों) में नाप लिया है
- इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण- साकार रूप का भी वर्णन मिलता है। "विष्णु का परम पद, परम धाम' दिव्य आकाश में स्थित एवं अनेक सूर्यों के समान देदीप्यमान गोलोक ही माना गया है -
- "तद् विष्णो: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)।
- उस विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य दिखाई देते है। अर्थात तद् विष्णो:( उस विष्णु के)
सूरयः) सूर्यगण (दिवि) प्रकाशित लोक में । (आततम्) =फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) परमेश्वर के (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्)=स्थान (तत्) उस को (सदा) सब काल में (पश्यन्ति) देखते हैं॥२०॥ - अनुवाद:-वह विष्णु के परम पद में अनेक सूर्य प्रकाशित होते हैं अर्थात- जिस प्रकाशित लोक में अनेक सूर्य गण विस्तारित हैं। जो विस्तृत नेत्रों के समान उस विष्णु के उत्तम से उत्तम स्थान (लोक ) को सदैव देखते हैं।
- ऋग्वेद के मंडल 1 के सूक्त (154) की ऋचा संख्या (6) में भी नीचे देखें-
- "ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि" ऋग्वेद-१/१५४/६।)
- सरल अनुवाद व अर्थ:-जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं स्थित अथवा विचरण करती हैं उस स्थानों को - तुम्हारे जाने के लिए जिसे- वास्तव में तुम चाहते भी हो। जो- बहुत प्रकारों से प्रशंसित है जो- सुख वर्षाने वाले परमेश्वर का उत्कृष्ट (पदम्) -स्थान लोक है जो अत्यन्त उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है उसी के लिए यहाँ हम वर्णन करते हैं ॥६॥
- उपर्युक्त ऋचाओं का सार है कि विष्णु का परम धाम वह है। जहाँ स्वर्ण युक्त सींगों वाली गायें हैं। और वे विष्णु गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) है)। वस्तुत ऋग्वेद में यहाँ उसी गोलोक का वर्णन है जो ब्रह्म वैवर्त पुराण और देवीभागवतपुराण और गर्ग संहिता आदि में वर्णित गोलोक है ।
- 'विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। परन्तु विष्णु कृष्ण का ही एकाँशी अथवा बह्वाँशी ( बहुत अंशों वाला) रूप है।
- सृष्टि में क्रियान्वित रहता है। स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत: गोलोक की ही सृष्टि हैं
- विदित हो कि वामन अवतार कृष्ण के अंशावतार विष्णु का ही अवतार है नकि स्वयं कृष्ण का अवतार -क्योंकि कृष्ण का साहचर्य सदैव गो और गोपों मैं ही रहता है।
- "कृष्ण हाई वोल्टेज रूप हैं तो विराट और क्षुद्र विराट आदि रूप उनके ही कम वोल्टेज के रूप हैं।
- विष्णु कृष्ण के ही एक प्रतिनिधि रूप हैं। परन्तु स्वयं कृष्ण नहीं क्योंकि कृष्ण समष्टि (समूह) हैं तो विष्णु व्यष्टि ( इकाई) अब इकाई में समूह को गुण धर्म तो विद्यमान होते हैं पर उसकी सम्पूर्ण सत्ता अथवा अस्तित्व नहीं।
- विशेष:- पद्म पुराण सृष्टि खण्ड ' ऋग्वेद तथा श्रीमद्भगवद्गीता और स्कन्द आदि पुराणों में गोपों को ही धर्म का आदि प्रसारक(propagater) माना गया है ।
- ऋग्वेद 1.22.18) में भगवान विष्णु गोप रूप में ही धर्म को धारण किये हुए हैं।
- विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्”(ऋग्वेद 1.22.18) ऋग्वेद की यह ऋचा इस बात का उद्घोष कर रही है।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही "व्रती और "सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में श्रेष्ठ न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया।- और इस कारण से भी स्वराट्- विष्णु(कृष्ण) ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। और दूसरा कारण गोप स्वयं कृष्ण के सनातन अंशी हैं। जिनका पूर्व वराह कल्प में ही गोलोक में जन्म हुआ।
- "व्यक्ति अपनी भक्ति और तप की शक्ति से गोलोक को प्राप्त कर गोप जाति में जन्म लेता है।
- वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
- यह गोप रूप विष्णु के आदि कारण रूप कृष्ण का है और यह विष्णु कृष्ण के प्रतिनिध रूप में ही अपने गोप रूप में धर्म को धारण करने की घोषणा कर रहे हैं। धर्म सदाचरण और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। और इसी की स्थापना के लिए कृष्ण भूलोक पर पुन: पुन: आते है।
- "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! अभ्युत्थानम्-अधर्मस्य तदा
- ऽऽ
- त्मानं सृजामि- अहम्।।
- श्रीमद्भगवद्गीता ( 4/7)
- हे अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।
- अत: गोप रूप में ही कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए समय समय पर अपने एक मानवीय रूप का आश्रय लेकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/11/14/%e2%80%98%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e2%80%99-%e0%a4%95/https://hi.krishnakosh.org/%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3/%E0%A4%B8%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%BF- (दर- असल विष्णु शब्द तीन सात्विक सत्ताओं का वाचक है। एक वह जो स्वराट्- अथवा स्वयंप्रकाश अथवा सबका मूलकारण द्विभुजधारी गोलोक वासी कृष्ण रूप है।
- द्वितीय वह रूप है जो कृष्ण और और उनकी आदि -प्राकृतिक शक्ति राधा दौंनों के संयोग से उत्पन्न विराट रूप है जो अनन्त है। स्वयं कृष्ण भी इसके विस्तार को नहीं जानते !
- और तृतीय रूप जो इस विराट महाविष्णु के प्रत्येक रोमकूप में उत्पन्न ब्रह्माण्ड के देव त्रयी( ब्रह्मा विष्णु महेश) में क्षुद्र विराट्( छोटे विष्णु) नाम से हैं। वह अन्तिम है।इन्हीं की नाभि कमल से ब्रह्मा और फिर उनसे चातुर्वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र उत्पन्न होते है।यद्यपि गोलोक में भी ब्रह्मा की उत्पत्ति कृष्ण की नाभि से होती है। परन्तु सृष्टि उत्पादक के रूप में तो रोमकूपीय ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विराट् विष्णु के नाभि कमल से होती है। और शिव भी शिव लोक से आकर इन्हीं की प्रेरणासे अंश रूप इन्हीं ब्रह्मा के ललाट से उत्पन्न होकर रुदन करने से रूद्र कहलाते हैं।
- विष्णु के तीनों रूप सत्व गुण की ही क्रमश: तीन अवस्था १- विशिष्ट सत्व २-शुद्ध सत्व और ३-सत्व ये तीन अवस्थाऐं हैं।
- भगवान नारायण बोले– नारद! आत्मा, आकाश, काल, दिशा, गोकुल तथा गोलोकधाम– ये सभी नित्य हैं। कभी इनका अन्त नहीं होता।
- गोलोकधाम का एक भाग जो उससे नीचे है, वैकुण्ठधाम है।
- वह भी नित्य है। ऐसे ही प्रकृति को भी नित्य माना जाता है।
- "श्रीनारायण उवाच।
- नित्यात्मा च नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा।
- विश्वेषां गोकुलं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ।५।
- तदेकदेशो वैकुण्ठो लम्बभागः स नित्यकः ।
- तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीना सनातनी ।६।
- यथाऽग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ।
- शश्वद्युक्ता न भिन्ना सा तथा प्रकृतिरात्मनि।७।
- विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः।
- विना मृदा कुलालो हि घटं कर्तुं न हीश्वरः।८।
- सन्दर्भ:-
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
- प्रकृतिखण्ड: अध्याय 2-
- _________________________________
- देवीभागवतपुराण ★ स्कन्धः नवम अध्याय द्वित्तीय -★
- (पञ्चप्रकृतितद्भर्तृगणोत्पत्तिवर्णनम्)
- "नारद उवाच
समासेन श्रुतं सर्वं देवीनां चरितं प्रभो ।
विबोधनाय बोधस्य व्यासेन वक्तुमर्हसि ॥१॥ - सृष्टेराद्या सृष्टिविधौ कथमाविर्बभूव ह ।
कथं वा पञ्चधा भूता वद वेदविदांवर ॥ २॥ - भूता ययांशकलया तया त्रिगुणया भवे।व्यासेन तासां चरितं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥३॥
- तासां जन्मानुकथनं पूजाध्यानविधिं बुध ।
स्तोत्रं कवचमैश्वर्यं शौर्यं वर्णय मङ्गलम्॥४॥ - "श्रीनारायण उवाच
नित्य आत्मा नभो नित्यं कालो नित्यो दिशो यथा।
विश्वानां गोलकं नित्यं नित्यो गोलोक एव च ॥५॥ - तदेकदेशो वैकुण्ठो नम्रभागानुसारकः ।
तथैव प्रकृतिर्नित्या ब्रह्मलीला सनातनी।६॥ - यथाग्नौ दाहिका चन्द्रे पद्मे शोभा प्रभा रवौ ।
शश्वद्युक्ता न भिन्ना सा तथा प्रकृतिरात्मनि॥ ७॥ - विना स्वर्णं स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।
विना मृदा घटं कर्तुं कुलालो हि नहीश्वरः।८॥ - न हि क्षमस्तथात्मा च सृष्टिं स्रष्टुं तया विना ।
सर्वशक्तिस्वरूपा सा यया च शक्तिमान्सदा॥ ९॥ - ऐश्वर्यवचनः शश्चक्तिः पराक्रम एव च ।
तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्तिः परिकीर्तिता ॥१०॥ - ज्ञानं समृद्धिः सम्पत्तिर्यशश्चैव बलं भगः ।
तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा॥ ११॥ - तया युक्तः सदात्मा च भगवांस्तेन कथ्यते ।
स च स्वेच्छामयो देवः साकारश्च निराकृतिः॥ १२॥ - ________
- कृत्रिमाणि च विश्वानि विश्वस्थानि च यानि च ।
- अनित्यानि च विप्रेन्द्र स्वप्नवन्नश्वराणि च ।१९।
- वैकुण्ठः शिवलोकश्च गोलोकश्च तयोः परः।
- नित्यो विश्वबहिर्भूतश्चात्माकाशदिशो यथा ।1.7.२०।
- इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे सृष्टिनिरूपणं नाम सप्तमोऽध्यायः।७।
- अनुवाद:-
- विप्रवर ! कृत्रिम विश्व तथा उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य तथा स्वप्न के समान नश्वर( नाशवान्) हैं।
- वैकुण्ठ, शिवलोक तथा इन दोनों से परे जो गोलोक है, ये सब नित्य-धाम हैं।
- इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है।
- ठीक उसी तरह, जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएँ कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं।
- ______________________
- "इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड- सृष्टिनिरूपणं नामक सप्तमोऽध्यायः।७।
- वेदान्त एकेश्वरवाद का उद्घोष करता है।
- शिव और विष्णु जब मूलत: श्रीकृष्ण से उत्पन्न हैं। तम और सके गुण के प्रतिनिधि होकर तो उनके लोक शिव लोक और विष्णु लोक( वैकुण्ठ) भी नित्य नहीं हैं हाँ ब्रह्मा के लोक की अपेक्षा अधिक आयु वाले हो सकते हैं। क्यों कि ब्रह्मा रजोगुणी हैं। रजो गुण सतोगुण और तमोगुण के मध्य में उनका ही मिश्रित रूप है। रजोगुण हरित वर्ण है।सतोगुण नील वर्ण है। और तमोगुण पीतवर्ण है।
- अथवा श्वेत सत लाल रज और काला तमोगुण है।
- श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 308
- श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
- तेरहवाँ अध्याय-
- एवं सर्वावस्थावस्थितचिदचिद्वस्तु शरीरतया तत्प्रकारः परमपुरुष एव कार्यावस्थकारणावस्थजगद्रूपेण अवस्थित इति इमम् अर्थं ज्ञापयितुं काश्चन श्रुतयः कार्यावस्थं कारणावस्थं जगत् स एव इति आहुः- यथा ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेक- मेवाद्वितीयम्।’[1]
- 'तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत'[2]
- इति आरभ्य ‘सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः’[3]
- ‘ऐतदात्म्यमिदं सर्व तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो’[4]
- इति।
- इस प्रकार सब अवस्थाओं में स्थित जड-चेतन प्रकृति-पुरुष ईश्वर के शरीर होने के कारण उनके रूप में परमपुरुष ही कार्यावस्थायुक्त और कारणावस्थायुक्त जगत्-रूप में स्थित हो रहा है।
- इसी अर्थ को समझाने के लिये कितनी ही श्रुतियाँ कहती हैं कि ‘कार्यरूप और कारणरूप से स्थित समूचा जगत् वह परमपुरुष ही है।’
- जैसे कि ‘हे सोम्य! पहले केवल एक अद्वितीय सद् ब्रह्म ही था।
- ‘उसने इच्छा की मैं बहुत होऊँ, जन्म ग्रहण करूँ, उसने तेज को रचा’ यहाँ से लेकर ‘हे सोम्य! इस सारी प्रजा का सत ही कारण है, सत् ही अधिष्ठान है, सत् ही प्रतिष्ठा है’
- ‘यह समूचा जगत् इसी का स्वरूप है, वह सत्य है, वह आत्मा है। हे श्वेतकेतो! वह तू है।’ यहाँ तक।
- ____________________
- तथां ‘सोऽकामयत बहुस्यां प्रजाये येति।
- स तपोऽतप्यत।
- स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत’ इत्यारभ्य ‘सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्’[5]
- इत्याद्याः।
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- तथा ‘उसने कामना की कि मैं बहुत होऊँ, जन्म ग्रहण करूँ, उसने तप किया, उसने तप करके, इन सबको बनाया’ यहाँ से लेकर ‘सत्य ही सत्य( ऋत) और अनृत (अव्यक्त)- अर्थात् वह (व्यक्त )और अव्यक्त)- के रूप में हो गया’ इत्यादि।
- अत्र अपि श्रुत्यन्तरसिद्धः चिदचितोः परमपुरुषस्य च स्वरूपविवेकः स्मारितः। ‘हन्ताहमिमास्तिस्त्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति’[6]
- ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्। विज्ञानं चाविज्ञानं च सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्’ [7] इति च।
- इस श्रुति में भी दूसरी श्रुति में कहे हुए जड-चेतन और परमपुरुष के स्वरूप के विवेक का स्मरण कराया गया है ‘अब मैं इस जीवात्मा के रूप से इन तीनों देवताओं में- पृथ्वी, जल और तेज में अनुप्रविष्ट होकर नामरूपात्मक जगत् को प्रकट करूँ।
- उसको रचकर उसी में प्रविष्ट हो गया। उसमें प्रविष्ट होकर सत् और त्यत्( वह) हो गया।
- सत्य ही ज्ञान और विज्ञान तथा सत्य और अनृत हो गया।’
- "अनेन जीवेन आत्मना अनुप्रविश्य इति जीवस्य ब्रह्मात्मकत्वं, तद् ‘सच्च त्यच्चाभवत् विज्ञानं चाविज्ञानं च’ इति अनेन ऐकाथ्र्याद् आत्मशरीरभावनिबन्धनम् इति विज्ञायते।
- -
- इस जीवात्मा के रूप से प्रविष्ट होकर, इस वाक्य के द्वारा जो जीव को ब्रह्मात्मक बतलाया गया है वह जीवात्मा परब्रह्म का शरीर है इस कारण उसी का स्वरूप है इस भाव को लेकर ही कहा गया है ऐसा मालूम होता है क्योंकि ‘उसके भीतर प्रविष्ट होकर सत् और त्यत्, विज्ञान और अविज्ञान हो गया’ इस वाक्य के साथ उपर्युक्त वाक्य की एकार्थता है।
- संदर्भ
- छान्दोग्य उपनिषद- 6/2/2
- छान्दोग्य उ० 6/2/3
- छान्दोग्य उ0 6/8/6
- छान्दोग्य उ0 6/8/7
- तैतिरीय उ0 2/6/1
- छान्दोग्य उ0 6/3/2
- तैतिरीय उ0 2/6/1
- तदैक्षत बहु स्याम प्रजायेति तत्तेजोऽसृजता तत्तेजा अक्षत बहु स्याम प्रजायेति तदपोऽसृजता तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यपो जायन्ते || 6.2.3 ||
https://vichaarsankalan.wordpress.com/2009/11/14/%e2%80%98%e0%a4%86%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%82-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7%e0%a4%bf-%e2%80%99-%e0%a4%95/- 📚: गोप-गोपाल ,गोसंख्य, गोधुक्-आभीर,बल्लव:।५७।
- (अमरकोश द्वितीय काण्ड)
- 📚: गोमहिष्यादिकं धनं यदूनामिदं यादवं स्यात् " गवादि यादवं वित्तं (इति बोपपालित)=
- गाय भैंस आदि यादवों का धन है गो आदि यादवों का वित्त(धन) है।
- बोपपालितकोश-
- गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
- गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
- गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
- गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम गोविल है जो गोलोक से अवतरित होकर आनर्त (गुजरात)देश में निवास करते थे क्योंकि यह गायों के निवास करने का स्थान है।
- गोविल- और गोविला- नाम उनके गायों से सम्बन्धित गौलोकीय अवधारणा को पुष्ट करते हैं।
- ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के पश्चात यह अपना प्रथम यज्ञ सत्र प्रारम्भ किया था। जिसमें अपने द्वारा उत्पन्न चारों वर्णो के लोग देवगण सप्तर्षि
- आदि आमन्त्रित किए थे। परन्तु ब्रह्मा के इस यज्ञ समारोह में गोपगण नहीं थे। क्योंकि गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं । ये मनुष्य गण गोलोक में ही स्वराट विष्णु ( द्विभुज धारी) कृष्ण के लोम(रोम) कूपों से उत्पन्न हैं। स्वयं गायत्री की उत्पत्ति गोलोक में हुई है।
- विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
- आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे।
- स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
- और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
- ____________________
- गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
- हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
- ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
- पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
- "धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
- ___________________________________
- "अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
- युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
- "अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
- अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)।
- और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
- हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
- निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
- गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
- ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
- गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।
- "पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
- अनुवाद:-
- तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।
- ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
- "सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे । उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
- तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
- कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
- त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
- कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
- श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे
- सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
- अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
- मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
- निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
- विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
- ___________________
- "ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
- अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
- उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
- विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
- तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
- देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
- स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
- (सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
- इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
- तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
- दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
- पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
- कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
- इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
- उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
- अर्थानुवाद:-
- (यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
- ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
- अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
- (यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
- तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
- भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
- गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
- गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
- गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
- मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
- "अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
- किसी के द्वारा दिए गये शाप को
- समाप्त कर समान्य करना और समान्य
- को फिर वरदान में बदल देना
- अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
- यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
- ही सम्भव हो सका ।
- अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
- अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
- "अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
- गायत्री के माता-पिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
- क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चतुर्यवर्ण सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
- सावित्री की उत्पत्ति भी गोलोक में हुयी है। देखें कृष्ण से सावित्री सावित्री गायत्री का भी नामान्तरण है। गायत्री की उत्पत्ति के सभी नाम गो मूलक हैं।
- गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि -
- पृथ्वी पक गायत्री का आगमन गे लोक से हीन हुआ था।
- पुरुरवा भी गायत्री उपासक के रूप में प्रचीन है।
- उसके गोष और गोपाल विशेषण भी हैं ।
- 📚: गोलोक से भूलोक तक "पञ्चम वर्ण गोपों की सृष्टि -
- "गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग व विवरण-
- गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं।
- इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
- गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
- गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का थे
- दोनों का सम्बन्ध गो तथा गोलोक से है।
- विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
- आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
- और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
- ___________________
- हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
- ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
- पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
- "धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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- "अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
- युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
- "अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
- अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
- हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
- निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
- गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
- ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
- गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।
- "पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
- अनुवाद:-
- तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।
- ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
- "सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे ।
- उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
- तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
- कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
- त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
- कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
- (श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे)
- सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
- अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
- मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
- निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है।
- जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
- विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
- ___________________
- "ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
- अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
- उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है।
- क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
- विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है
- तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
- देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
- स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
- (सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
- इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
- तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
- दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
- पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
- कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
- इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
- उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
- अर्थानुवाद:-
- (यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
- ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
- अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
- (यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
- तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के प्रथम चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं।
- अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
- भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
- गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
- गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
- गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
- मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
- "अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
- किसी के द्वारा दिए गये शाप को
- समाप्त कर समान्य करना और समान्य
- को फिर वरदान में बदल देना
- अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
- यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
- ही सम्भव हो सका ।
- अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
- अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
- "अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
- गायत्री के मातापिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
- क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चतुर्यवर्ण सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
- गायत्री की उत्पत्ति भी गोलोक में हुयी है। देखें कृष्ण से गायत्री की उत्पत्ति सभी नाम गो मूलक हैं।
- गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि -
- पृथ्वी पर गायत्री का आगमन गोलोक से ही हुआ था।
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- गोलोक खण्ड : अध्याय- (3) इस अध्याय में विष्णु के सभी अवतारों का विलय भगवान श्री कृष्ण में अपनी शक्ति के अनुरूप शरीर के विशेष
- स्थानों में होता है।
- भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
- श्री जनकजी ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
- श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।
- वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
- _________________________________
- तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥ ६ ॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥ ७ ॥
- श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
- अनुवाद:-
- फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
- उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे।
- वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
- फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे।
- उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे।
- उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
- गर्गसंहिता/खण्डः(१) (गोलोकखण्डः)
- अध्यायः (१)
- "गर्गसंहिता-खण्डः १-(गोलोकखण्डः)अध्यायः २ →
- गर्गमुनिः श्रीकृष्ण-माहात्म्य वर्णन-
- श्रीबहुलाश्व उवाच -
- कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
- साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ।१५।
- श्रीनारद उवाच -
- "अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
- व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम्।१६।
- अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
- कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः।१७।
- पूर्णो नृसिंहो रामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः।
- वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
- असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ।१९।
- कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
- तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः।२०।
- येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः ।
- नानाऽऽवेषावतारांश्च विद्धि राजन्महामते ॥२१॥
- धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
- युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२ ॥
- चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
- अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
- यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
- तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥ २४ ॥
- पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
- भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
- एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह।२६।
- पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
- परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
- स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
- गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
- ______________
- 'श्रीगर्ग उवाच -
- तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
- प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
- "श्रीबहुलाश्व उवाच -
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
- आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते ॥ २९ ॥
- तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
- कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने ॥ ३० ॥
- यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
- तदा सत्सङ्गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः ॥ ३१ ॥
- श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
- कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः ।
- यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
- स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥ ३२ ॥
- धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
- तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥ ३३ ॥
- त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
- स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥ ३४
- गर्गसंहिता/खण्डः (१) (गोलोकखण्डः) अध्यायः (१)
- "गर्गसंहिता | खण्डः १ (गोलोकखण्डः)
- गर्गसंहिता
- गोलोकखण्डः
- गर्गमुनिः अध्यायः २ →
- श्रीकृष्ण-माहात्म्य वर्णनम्
- ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
- देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥
- शरद्विकचपङ्कजश्रियमतीवविद्वेषकं
- मिलिन्दमुनिसेवितं कुलिशकंजचिह्नावृतम् ।
- स्फुरत्कनकनूपुरं दलितभक्ततापत्रयं
- चलद्द्युतिपदद्वयं हृदि दधामि राधापतेः॥२॥
- वदनकमलनिर्यद्यस्य पीयूषमाद्यं
- पिबति जनवरो यं पातु सोऽयं गिरं मे ।
- बदरवनविहारः सत्यवत्याः कुमारः
- प्रणतदुरितहारः शाङ्र्गधन्वावतारः ॥ ३ ॥
- कदाचिन्नैमिषारण्ये श्रीगर्गो ज्ञानिनां वरः ।
- आययौ शौनकं द्रष्टुं तेजस्वी योगभास्करः ॥४॥
- तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय शौनको मुनिभिः सह ।
- पूजयामास पाद्याद्यैरुपचारैर्विधानतः ॥५॥
- श्रीशौनक उवाच -
- सतां पर्यटनं धन्यं गृहिणां शान्तये स्मृतम् ।
- नृणामन्तस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥ ६ ॥
- तस्मान्मे हृदि सम्भूतं संदेहं नाशय प्रभो ।
- कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ॥ ७ ॥
- श्रीगर्ग उवाच -
- साधु पृष्टं त्वया ब्रह्मन् भगवद्गुणवर्णनम् ।
- शृण्वतां गदतां यद्वै पृच्छतां वितनोति शम् ॥ ८ ॥
- अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
- यस्य श्रवणमात्रेण महादोषः प्रशाम्यति ॥ ९ ॥
- मिथिलानगरे पूर्वं बहुलाश्वः प्रतापवान् ।
- श्रीकृष्णभक्तः शान्तात्मा बभूव निरहङ्कृतिः॥१०।
- अम्बरादागतं दृष्ट्वा नारदं मुनिसत्तमम् ।
- सम्पूज्य चासने स्थाप्य कृताञ्जलिरभाषत ॥११
- श्री-बहुलाश्व उवाच -
- योऽनादिरात्मा पुरुषो भगवान्प्रकृतेः परः ।
- कस्मात्तनुं समाधत्ते तन्मे ब्रूहि महामते ॥ १२ ॥
- श्रीनारद उवाच -
- गोसाधुदेवताविप्रदेवानां रक्षणाय वै ।
- तनुं धत्ते हरिः साक्षाद्भगवानात्मलीलया ॥ १३ ॥
- यथा नटः स्वलीलायां मोहितो न परस्तथा ।
- अन्ये दृष्ट्वा च तन्मायां मुमुहुस्ते न संशयः।१४।
- श्रीबहुलाश्व उवाच -
- कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
- साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ॥ १५ ॥
- श्रीनारद उवाच -
- अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
- व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ १६।
- ________
- अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
- कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
- पूर्णो नृसिंहो बलरामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः ।
- वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
- असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते।१९।
- कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
- तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥ २० ॥
- येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः।
- नानाऽऽवेशावतारांश्च विद्धि राजन्महामते।२१।
- धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
- युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२ ॥
- चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
- अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
- यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
- तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४ ॥
- पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
- भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
- एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ २६।
- पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
- परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
- स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
- गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
- श्रीगर्ग उवाच -
- तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
- प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
- श्रीबहुलाश्व उवाच -
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
- आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते ॥ २९ ॥
- तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
- कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने ॥ ३० ॥
- यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
- तदा सत्सङ्गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः ॥ ३१ ॥
- श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
- कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः।
- यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
- स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥ ३२ ॥
- धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
- तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥ ३३ ॥
- त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
- स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥ ३४ ॥
- इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे कृष्णमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
- अनुवाद :-
- अथ- श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे कृष्णमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
- श्रीजनक( बहुलाश्व) बोले- महामते ! जो भगवान अनादि, प्रकृति से परे और सबके अंतर्यामी ही नहीं, आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं? (जो सर्वत्र व्यापक है, वह शरीर से परिच्छिन्न कैसे हो सकता है? ) यह मुझे बताने की कृपा करें।
- नारदजी ने कहा- गौ, साधु, देवता, ब्राह्मण और वेदों की रक्षा के लिये साक्षात भगवान श्रीहरि अपनी लीला से शरीर धारण करते हैं। [अपनी अचिंत्य लीलाशक्ति से ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं। उनका वह शरीर प्राकृत नहीं, चिन्मय है।]
- जैसे नट अपनी माया से मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोह में पड़ जाते हैं, वैसे ही अन्य प्राणी भगवान की माया देखकर मोहित हो जाते हैं, किंतु परमात्मा मोह से परे रहते हैं- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।
- श्रीजनकजी ने पूछा- मुनिवर ! संतों की रक्षा के लिये भगवान विष्णु के कितने प्रकार के अवतार होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीनारदजी बोले- राजन !
- _______________
- व्यास आदि मुनियों ने १-अंशांश, २-अंश, ३-आवेश, ४-कला, ५-पूर्ण और ६-परिपूर्णतम- ये छ: प्रकार के अवतार बताये हैं।
- ________
- इनमें से छठा परिपूर्णतम अवतार साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं।
- मरीचि आदि “अंशांशावतार”( अंश के अंश अवतरित-) , ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार’, कपिल एवं कूर्म प्रभृति ‘कलावतार’ और परशुराम आदि ‘आवेशावतार’ कहे गये हैं।
- नृसिंह, बलराम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर नारायण- ये सात ‘पूर्णावतार’ हैं।
- एवं साक्षात भगवान भगवान श्रीकृष्ण ही एक ‘परिपूर्णतम’ अवतार हैं।
- अंसख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोकधाम में विराजते हैं।
- जो भगवान के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्र के अधिकार का पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि ‘सत’ (सत्स्वरूप भगवान) के अंश हैं। रजोगुण के प्रतिनिधि हैं।
- जो उन अंशों के कार्यभार में हाथ बटाते हैं, वे ‘अंशांशावतार’ के नाम से विख्यात हैं।
- परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
- यह अवतार उसी प्रकार का हैं जैसे किसी व्यक्ति पर कुछ समय तक कोई भूत या प्रेत प्रवेश कर उसको उत्तेजित या उन्मादी बना देता है। यह स्थाई नहीं होता है। परशुराम पर भी इसी प्रकार उन्माद आवेश आता था
- आवेश:- वेग - आतुरता - जोश- दौरा-।
- ______
- श्रीनारद उवाच -
- अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
- व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ १६।
- ________
- अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
- कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
- पूर्णो नृसिंहो बलरामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः ।
- वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
- असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते।१९।
- कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
- तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥ २० ॥
- येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः।
- नानाऽऽवेशावतारांश्च विद्धि राजन्महामते ।२१।
- धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
- युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२ ॥
- चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
- अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
- यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
- तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४ ॥
- पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
- भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
- परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
- एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ २६।
- पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
- परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
- स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
- गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
- श्रीगर्ग उवाच -
- तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
- प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
- गोलोक खण्ड : अध्याय 1
- जो प्रत्येक युग में प्रकट हो, युगधर्म को जानकर, उसकी स्थापना करके, पुन: अंतर्धान हो जाते हैं, भगवान के उन अवतारों को ‘कलावतार’ कहा गया है।
- जहाँ चार व्यूह प्रकट हों- जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, तथा जहाँ नौ रसों की अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रम की भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान के उस अवतार को ‘पूर्णावतार’ कहा गया है।
- _______________________
- जिसके अपने तेज में अन्य सम्पूर्ण तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान के उस अवतार को श्रेष्ठ विद्वान पुरुष साक्षात ‘परिपूर्णम’ बताते हैं। जिस अवतार में पूर्ण का पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक-पृथक भाव के अनुसार अपने परम प्रिय रूप में देखते हैं, वही यह साक्षात ‘परिपूर्णतम’ अवतार है।
- [इन सभी लक्षणों से सम्पन्न] स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं,।
- दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्यों का सम्पादन किया है।
- जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणों के आकार भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ।
- यह सुनकर राजा हर्ष से भर गये।
- ______________________
- उनके शरीर में रोमांच हो आया। वे प्रेम से विह्वल हो गये और अश्रुपूर्ण नेत्रों को पोंछकर नारदजी से यों बोले। राजा बहुलाश्व ने पूछा- महर्षे ! साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सर्वव्यापी चिन्मय गोलोकधाम से उतरकर जो भारत वर्ष के अंतर्गत द्वारकापुरी में विराज रहे हैं-
- इसका क्या कारण है ? ब्रह्मन ! उन भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर बृहत (विशाल या ब्रह्म स्वरूप) गोलोकधाम का वर्णन कीजिये। महामुने ! साथ ही उनके अपरिमेय कार्यों को भी कहने की कृपा कीजिये। मनुष्य जब तीर्थ यात्रा तथा सौ जन्मों तक उत्तम तपस्या करके उसके फलस्वरूप सत्संग का सुअवसर पाता है, तब वह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को शीघ्र प्राप्त कर लेता है। कब मैं भक्ति रस से आर्द्रचित्त हो मन से भगवान श्रीकृष्ण के दास का भी दासानुदास होऊँगा ? जो सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी दुर्लभ हैं, वे परब्रह्म परमात्मा आदिदेव भगवान श्रीकृष्ण मेरे नेत्रों के समक्ष कैसे होंगे?
- श्रीनारद जी बोले- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के अभीष्ट जन हो और उन श्रीहरि के परम प्रिय भक्त हो। तुम्हें दर्शन देने के लिये ही वे भक्त वत्सल भगवान यहाँ अवश्य पधारेंगे। ब्रह्मण्यदेव भगवान जनार्दन द्वारका में रहते हुए भी तुम्हें और ब्राह्मण श्रुतदेव को याद करते रहते हैं। अहो ! इस लोक में संतों का कैसा सौभाग्य है
- इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अन्तदर्गत नारद- बहुलाश्व् संवाद में ‘श्रीकृष्णम माहातमय का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।
- गर्ग संहिता -गोलोक खण्ड : अध्याय 3
- भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
__________________
"तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६॥
"दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने।७।
'लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः।श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह ।८।
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अनुवाद:-तभी साक्षात्- कमल लोचन श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे।६। - उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरन्तर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।७।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।८।
विदित होना चाहिए कि राम और कृष्ण की किसी प्रकार भी समानता नहीं है।कृष्ण समुद्र हैं तो राम बूँद हैं।
___________
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
राम कहाँ 12 कलाओं से अवतार लेते हैं और कृष्ण16 कलाओं से पूर्ण परमेश्वर स्वरूप में हैं। राम बूँद हैं तो कृष्ण समुद्र है।
गोलोक खण्ड : अध्याय 3-
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी (बहुलाश्व) ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।
उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।_____________________आवेश अवतार स्थाई नहीं होता है जिस प्रकार किसी पर देवी आ जातीऔर फिर तान्त्रिक के झाड़ -फूँक करने पर चली जाती है उसी प्रकार परशुराम पर भी ईश्वर की आवेशीय ऊर्जा आती हैऔर फिर चली जाती है।।
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- १ कृष्ण काल
- २ कृष्ण का समय
- ३ कंस के समय मथुरा
- ४ प्राचीनतम संस्कृत साहित्य
- ५ पुराणेतर ग्रंथ
- संसार में एक कृष्ण ही हुए जिन्होंने फिलॉसोफी को गीत बनाकर अपनी मुरली की तानों पर गुनगुनाया है।
- श्रीकृष्ण के समय का निर्धारण विभिन्न विद्वानों ने किया है ।
- कई विद्वान श्री कृष्ण को 3500 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मानते है ।
- भारतीय मान्यता के अनुसार कृष्ण का काल 5000 वर्ष से भी कुछ अधिक पुराना लगता है । इसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार भी कुछ विद्वानों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है ।
- श्रीकृष्ण का समय के संबंध में श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत- "वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू० 1500 माना जाता है।
- ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु 125 वर्ष निर्धारित करता है।
- अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए भी जीवन के यथार्थ की व्यवहारिक व्याख्या की ।
- उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ ।
- बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक प्रान्तो में भी जाना पडा़ ।
- जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत आदि में मिलती है
- वैदिक साहित्य में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है विशेषत: ऋग्वेद में और उसमें भी उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है।
- एक विचारक डॉ० प्रभुदयाल मित्तल द्वारा प्रस्तुत प्रमाण कृष्ण काल को 5000 वर्ष पूर्व का प्रमाणित करते हैं उन्होंने छांदोग्योपनिषद के श्लोक का हवाला दिया है ।
- ज्योतिष का प्रमाण देते हुए श्री मित्तल लिखते हैं- "मैत्रायणी उपनिषद और शतपथ ब्राह्मण के “कृतिका स्वादधीत” उल्लेख से तत्कालीन खगोल-स्थिति की गणना कर ट्रेनिंग कालेज, पूना के गणित प्राध्यापक स्व. शंकर बालकृष्ण दीक्षित महोदय ने मैत्रायणी उपनिषद की ईसवी सन् ने 1600 पूर्व का और शतपथ ब्राह्मण को 3000 वर्ष का माना था ।
- मैत्रायणी उपनिषद सबसे पीछे का उपनिषद कहा जाता है और उसमें छांदोग्य उपनिषद के अवतरण मिलते है, इसलिए छांदोग्य मैत्रीयणी से पूर्व का उपनिषद हुआ।
- शतपथ ब्राह्मण और उपनिषद आजकल के विद्वानों के मतानुसार एक ही काल की रचनाएं हैं, अत: छांदोग्य का काल भी ईसा से 3000 वर्ष पूर्व का हुआ।
- छांदोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है ( छान्दोग्य उपनिषद,प्रथम भाग,खण्ड 17) “देवकी पुत्र” विशेषण के कारण उक्त उल्लेख के कृष्ण स्पष्ट रूप से वृष्णि वंश के कृष्ण हैं।
- इस प्रकार कृष्ण का समय प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का ज्ञात होता है ।" - डा प्रभुदयाल मित्तल डॉ० मित्तल ने किस आधार पर छांदोग्योपनिषद को 5000 वर्ष प्राचीन बताया है यह कहीं उल्लेख नहीं है ।
- छांदोग्योपनिषद के ई पू 500 से 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते ।
- कृष्ण का समय
- डा॰ मित्तल लिखते हैं -" परीक्षित के समय में सप्तर्षि (आकाश के सात तारे) मघा नक्षत्र पर थे, जैसा शुक्रदेव द्वारा परीक्षित से कहे हुए वाक्य से प्रमाणित है।
- ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र पर एक सौ वर्ष तक रहते है । आजकल सप्तर्षि कृतिका नक्षत्र पर है जो मघा से 21 वां नक्षत्र है।
- इस प्रकार मघा के कृतिक पर आने में 2100 वर्ष लगे हैं।
- किंतु यह 2100 वर्ष की अवधि महाभारत काल कदापि नहीं है।
- इससे यह मानना होगा कि मघा से आरम्भ कर 27 नक्षत्रों का एक चक्र पूरा हो चुका था और दूसरे चक्र में ही सप्तर्षि उस काल में मघा पर आये थे।
- पहिले चक्र के 2700 वर्ष में दूसरे चक्र के 2100 वर्ष जोड़ने से 4800 वर्ष हुए ।
- यह काल परीक्षित की विद्यमानता का हुआ । परीक्षित के पितामह अर्जुन थे, जो आयु में श्रीकृष्ण से 18 वर्ष छोटे थे । इस प्रकार ज्योतिष की उक्त गणना के अनुसार कृष्ण-काल अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व का सिद्ध होता है ।"
- _________________________________
- आजकल के चैत्र मास के वर्ष का आरम्भ माना जाता है, जब कि कृष्ण काल में वह मार्गशीर्ष से होता था ।बसन्त ऋतु भी इस काल में मार्गशीर्ष माह में होती थी।
- महाभारत में मार्गशीर्ष मास से ही कई स्थलों पर महीनों की गणना की गयी है । गीता में जहाँ भगवान की विभूतियों का वर्णन हुआ हैं, वहाँ “मासानां मार्गशीर्षोऽहम” और “ऋतुनां कुसुमाकर” के उल्लेखों से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
- ज्योतिष शास्त्र के विद्धानों ने सिद्ध किया है कि मार्गशीर्ष में वसन्त सम्पात अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व होता था । (भारतीय ज्योतिषशाला,पृष्ठ 34) इस प्रकार भी श्रीकृष्ण काल के 5000 वर्ष प्राचीन होने की पुष्टि होती है ।
- श्रीकृष्ण द्वापर युग के अन्त और कलियुग के आरम्भ के सन्धि-काल में विद्यमान थे । भारतीय ज्योतिषियों के मतानुसार कलियुग का आरम्भ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शुक्ल 1 को हुआ था । आजकल 1887 शक संवत है ।
- इस प्रकार कलियुग को आरम्भ हुए 5066 वर्ष हो गये है । कलियुग के आरम्भ होने से 6 माह पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल 14 को महाभारत का युद्ध का आरम्भ हुआ था, जो 18 दिनों तक चला था । उस समय श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी । उनका तिरोधान 119 वर्ष की आयु में हुआ था।
- परन्तु ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड कृष्ण की आयु125 वर्ष वर्णन करता है।
- इस प्रकार भारतीय मान्यता के अनुसार श्रीकृष्ण विद्यमानता या काल शक संवत पूर्व 3263 की भाद्रपद कृष्ण. 8 बुधवार के शक संवत पूर्व 3144 तक है । भारत के विख्यात ज्योतिषी वराह मिहिर, आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के समय से ही यह मान्यता प्रचलित है ।
- भारत का सर्वाधिक प्राचीन युधिष्ठिर संवत जिसकी गणना कलियुग से 40 वर्ष पूर्व से की जाती है, उक्त मान्यता को पुष्ट करता है ।
- पुरातत्ववेत्ताओं का मत है कि अब से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व एक प्रकार का प्रलय हुआ था । उस समय भयंकर भूकम्प और आंधी तूफानों से समुद्र में बड़ा भारी उफान आया था । उस समय नदियों के प्रवाह परिवर्तित हो गये थे, विविध स्थानों पर ज्वालामुखी पर्वत फूट पड़े थे और पहाड़ के श्रृंग टूट-टूटकर गिर गये थे ।
- वह भीषण दैवी दुर्घटना वर्तमान इराक में बगदाद के पास और वर्तमान मैक्सिको के प्राचीन प्रदेशों में हुई थी, जिसका काल 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है । उसी प्रकार की दुर्घटनाओं का वर्णन महाभारत और भागवत आदि पुराणों भी मिलता है । इनसे ज्ञात होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात उसी प्रकार के भीषण भूकम्प हस्तिनापुर और द्वारिका में भी हुए थे, जिनके कारण द्वारिका तो सर्वथा नष्ट ही हो गयी थी ।
- बगदाद(ईराक) और हस्तिनापुर तथा प्राचीन मग प्रदेश( ईरान) और द्वारिका प्राय: एक से आक्षांशों पर स्थित हैं, अत: उनकी दुर्घटनाओं का पारिस्परिक सम्बन्ध विज्ञान सम्मत है ।
- बगदाद प्रलय के पश्चात वहाँ बताये गये “उर” नगर को तथा मैक्सिको (दक्षिणी अमेरिका, ) स्थित मय प्रदेश के ध्वंस को जब 5000 वर्ष प्राचीन माना जा सकता है, जब महाभारत और भागवत में वर्णित वैसी ही घटनाओं, जो कृष्ण के समय में हुई थी, उसी काल का माना जायगा । ऐसी दशा में पुरातत्व के साक्ष्य से भी कृष्ण-काल 5000 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है ।
- यह दूसरी बात है कि महाभारत और भागवत ग्रंथों की रचना बहुत बाद में हुई थी, किंतु उनमें वर्णित कथा 5000 वर्ष पुरानी ही है ।
- ज्योतिष और पुरातत्व के अतिरिक्त इतिहास के प्रमाण से भी कृष्ण-काल विषयक भारतीय मान्यता की पुष्टि होती है । यवन नरेश सैल्युक्स ने मैगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत भारतीय नरेश चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा था । मैगस्थनीज ने उस समय के अपने अनुभव लेखबद्ध किये थे ।
- इस समय उस यूनान राजदूत का मूल ग्रंन्थ तो नहीं मिलता है, किंतु उसके जो अंश एरियन आदि अन्य यवन लेखकों ने उद्धृत किये थे, वे प्रकाशित हो चुके है ।
- मैगस्थनीज ने लिखा है कि मथुरा में शौरसेनी लोगों का निवास है । वे विशेष रूप से हरकुलीज (हरि कृष्ण) की पूजा करते है । उनका कथन है कि डायोनिसियस के हरकुलीज 15 पीढ़ी और सेण्ड्रकोटस (चन्द्रगुप्त) 153 पीढ़ी पहले हुए थे । इस प्रकार श्रीकृष्ण और चन्द्रगुप्त में 138 पीढ़ियों के 2760 वर्ष हुए।
- चन्द्रगुप्त का समय ईसा से 326 वर्ष पूर्व है । इस हिसाब से श्रीकृष्ण काल अब से (1965+326+2760) 5051 वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ।
- कंस के समय मथुरा-
- कंस के समय में मथुरा का क्या स्वरूप था, इसकी कुछ झलक पौराणिक वर्णनों में देखी जा सकती है। यद्यपि ये वर्णन अतिशयक्ति पूर्ण व काव्यात्मक ही हैं।
- जब श्रीकृष्ण ने पहली बार इस नगरी को देखा तो भागवतकार के शब्दों में उसकी शोभा इस प्रकार थी।
- 'उस नगरी के प्रवेश-द्वार ऊँचे थे और स्फटिक पत्थर के बने हुए थे। उनके बड़े-बड़े सिरदल और किवाड़ सोने के थे।
- नगरी के चारों ओर की दीवाल (परकोटा) ताँबे और पीतल की बनी थी तथा उसके नीचे की खाई दुर्लभ थी।
- नगरी अनेक उद्यानों एक सुन्दर उपवनों से शोभित थी।'
- 'सुवर्णमय चौराहों, महलों, बगीचियों, सार्वजनिक स्थानों एवं विविध भवनों से वह नगरी युक्त थी। वैदूर्य, बज्र, नीलम, मोती, हीरा आदि रत्नों से अलंकृत छज्जे, वेदियां तथा फर्श जगमगा रहे थे और उन पर बैठे हुए कबूतर और मोर अनेक प्रकार के मधुर शब्द कर रहे थे। गलियों और बाज़ारों में, सड़कों तथा चौराहों पर छिड़काव किया गया था। और उन पर जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ, दूर्वा-दल, लाई और चावल बिखरे हुए थे।'
- 'मकानों के दरवाजों पर दही और चन्दन से अनुलेपित तथा जल से भरे हुए मङल-घट रखे हुए थे, फूलों, दीपावलियों, बन्दनवारों तथा फलयुक्त केले और सुपारी के वृक्षों से द्वार सजाये गये थे और उन पर पताके और झड़ियाँ फहरा रही थी।'
- उपर्युक्त वर्णन कंस या कृष्ण कालीन मथुरा से कहाँ तक मेल खाता है, यह बताना कठिन है। परन्तु इससे तथा अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णनों से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि तत्कालीन मथुरा एक समृद्ध पुरी थी। उसके चारों ओर नगर-परकोटा थी तथा नगरी में उद्यानों का बाहुल्य था। मोर पक्षियों की शायद इस समय भी मथुरा में अधिकता थी। महलों, मकानों, सड़कों और बाज़ारों आदि के जो वर्णन मिलते है उनसे पता चलता है कि कंस के समय की मथुरा एक धन-धान्य सम्पन्न नगरी थी।
- इस प्रकार भारतीय विद्वानों के सैकड़ों हज़ारों वर्ष प्राचीन निष्कर्षों के फलस्वरूप कृष्ण-काल की जो भारतीय मान्यता ज्योतिष, पुरातत्व और इतिहास से भी परिपुष्ट होती है, उसे न मानने का कोई कारण नहीं है ।
- आधुनिक काल के विद्वानों इतिहास और पुरातत्व के जिन अनुसन्धानों के आधार पर कृष्ण-काल की अवधि 3500 वर्ष मानते है, वे अभी अपूर्ण हैं इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन अनुसन्धानों के पूर्ण होने पर वे भी भारतीय मान्यता का समर्थन करने लगेंगे ।
- प्राचीनतम संस्कृत साहित्य-
- वैदिक संहिताओं के अनंतर संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य-आरण्यक, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथों और पाणिनीय सूत्रों में श्रीकृष्ण का थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है ।
- जैन साहित्य में श्रीकृष्ण को तीर्थंकर नेमिनाथ जी का चचेरा भाई बतलाया गया है । इस प्रकार जैन धर्म के प्राचीनतम साहित्य में श्रीकृष्ण का उल्लेख हुआ है ।
- बौद्ध साहित्य में जातक कथाएं अत्यंत प्राचीन है । उनमें से “घट जातक” में कृष्ण कथा वर्णित है । यद्यपि उपर्युक्त साहित्य कृष्ण – चरित्र के स्त्रोत से संबंधित है, तथापि कृष्ण-चरित्र के प्रमुख ग्रंथ 1. महाभारत 2. हरिवंश, 3. विविध पुराण, 4. गोपाल तापनी उपनिषद और 5. गर्ग संहिता हैं ।
- यहाँ इन ग्रंथों में वर्णित श्रीकृष्ण के चरित्र पर प्रकाश डाला जाता है ।
- पुराणेतर ग्रंथ
- जिन पुराणेतर ग्रंथों में श्रीकृष्ण का चरित्र वर्णित है, उसमें “गोपाल तापनी उपनिषद” और “गर्ग संहिता” प्रमुख है ।
- यहाँ पर उनका विस्तृत विवरण दिया जाता है – गोपाल तापनी उपनिषद : - यह कृष्णोपासना से संबंधित एक आध्यात्मिक रचना है । इसके पूर्व और उत्तर नामक दो भाग है । पूर्व भाग को “कृष्णोपनिषद” और उत्तर भाग को “अथर्वगोपनिषद” कहा गया है ।
- यह रचना सूत्र शैली में है, अत: कृष्णोपासना के परवर्ती ग्रंथो की अपेक्षा यह प्राचीन जान पड़ती है । इसका पूर्व भाग उत्तर भाग से भी पहले का ज्ञात होता है । श्रीकृष्ण प्रिया राधा और उनके लीला-धाम ब्रज में से किसी का भी नामोल्लेख इसमें नहीं है । इससे भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती हैं ।
- डा. प्रभुदयाल मीतल, कृष्ण का समय 5000 वर्ष पूर्व मानते हैं । वे इसको अनेक तथ्य एवं उल्लेखों के आधार पर प्रमाणित भी करते हैं । श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी का मत भिन्न है, वे कृष्ण काल को 3500 वर्ष से अधिक पुराना नहीं मानते ।
- श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291;
- विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।
- तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच
- तद्धैतत्घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच,अपिपास एव
- स बभूव, सोऽन्तवेलायामेतत् त्रयँ प्रतिपद्येत, 'अक्षितमसि', 'अच्युतमसि',
- 'प्राणसँशितमसी'ति । तत्रैते द्वे ऋचौ भवतः ।। ६ ।।
- "छांदोग्य उपनिषद (3,17,6),
- जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या विष्णु रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (देखें तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; पाणिनि-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)। महाभारत तथा हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण, देवी भागवत अग्नि पुराण तथा ब्रह्म वैवर्त पुराण पुराणों में उन्हें प्राय: भागवान रूप में ही दिखाया गया है।
- इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं।
- पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे।
- इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा उपनिषदों के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा।
- बौद्ध-ग्रंथ घट जातक तथा जैन-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि ब्रज के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे।
- अथापराह्ने भगवान् कृष्णः सङ्कर्षणान्वितः ।
- मथुरां प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥
- ( मिश्र )
- ददर्श तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर
- द्वारां बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।
- ताम्रारकोष्ठां परिखादुरासदां
- उद्यान रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥
- सौवर्णशृङ्गाटकहर्म्यनिष्कुटैः
- श्रेणीसभाभिः भवनैरुपस्कृताम् ।
- वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः
- मुक्ताहरिद्भिर्वलभीषु वेदिषु ॥ २१ ॥
- जुष्टेषु जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु
- आविष्टपारावतबर्हिनादिताम् ।
- संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां
- प्रकीर्णमाल्याङ्कुरलाजतण्डुलाम् ॥ २२ ॥
- आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः
- प्रसूनदीपावलिभिः सपल्लवैः ।
- सवृन्दरम्भाक्रमुकैः सकेतुभिः
- स्वलङ्कृतत् द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥
- (भागवतपुराण- 10/ 41/20-23)
- भगवान ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं।
- उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने के ही तोरण बने हुए हैं।
- नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है।
- खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है।
- स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन शोभायमान हैं।
- सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
- वैदूर्य, हीरे, स्फटिक नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं।
- उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं।
- सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है।
- स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे खील और चावल बिखरे हुए हैं।
- घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।
- चंद्रमा (यानी कृष्ण) एक समूह से घिरा हुआ है। आत्माएं उनकी किरणों के अंश हैं क्योंकि घटकों की प्रकृति आत्मा में मौजूद है। कृष्ण दो भुजाओं से घिरे हुए हैं। उनकी कभी चार भुजाएं नहीं होतीं. वहाँ वह एक ग्वालिन से घिरा हुआ सदैव क्रीड़ा करता रहता है। गोविंदा (अर्थात कृष्ण) अकेले ही एक पुरुष हैं; ब्रह्मा आदि स्त्रियाँ ही हैं। उसी से प्रकृति प्रकट होती है। यह स्वामी प्रकृति का एक स्वरूप है।
- _____
- न राधिका समा नारी न कृष्णसदृशः पुमान् ।
- वयः परं न कैशोरात्स्वभावः प्रकृतेः परः ।५२।
- अनुवाद:-
- न तो राधा के समान कोई स्त्री है और न ही कृष्ण के समान कोई पुरुष है। किशोरावस्था से बढ़कर कोई (बेहतर) उम्र नहीं है; यह प्रकृति का महान सहज स्वभाव है।५२।
- ध्येयं कैशोरकं ध्येयं वनं वृंदावनं वनम् ।
- श्याममेव परं रूपमादिदेवं परो रसः ।५३।
- अनुवाद:-
- किशोरावस्था में स्थित कृष्ण का ध्यान करना चाहिए. वृन्दावन-उपवन का ध्यान करना चाहिए। सबसे महान रूप (वह) श्याम है , और वह परम रस का प्रथम देव है।५३।
- बाल्यं पंचमवर्षांतं पौगंडं दशमावधि ।
- अष्टपंचककैशोरं सीमा पंचदशावधि ।५४।
- बाल्य पाँचवें वर्ष तक रहता है।
- पोगण्ड दसवें वर्ष तक होता है।
- (पाँच से दस वर्ष तक की अवस्था की बालक)
- किशोरावस्था तेरह वर्ष तक चलती है और
- (इसकी) सीमा पन्द्रहवाँ वर्ष है।
- यौवनोद्भिन्नकैशोरं नवयौवनमुच्यते ।
- तद्वयस्तस्य सर्वस्वं प्रपंचमितरद्वयः ।५५।
- युवावस्था ( यौवन ) से उत्पन्न होने वाली किशोरावस्था को तरुण युवा ( नवयौवन ) कहा जाता है। बाल्यावस्था और युवावस्था के बीच का अर्थात् ग्यारह से पंद्रह वर्ष तक की अवस्था का बालक किशोर होता है। यह अवस्था ही उसका सर्वस्व है; (उससे भिन्न) आयु अवास्तविक ( प्रपंच ) है।
- बाल्यपौगंडकैशोरं वयो वंदे मनोहरम् ।
- बालगोपालगोपालं स्मरगोपालरूपिणम् ।५६।
- मैं मनोहर अवस्था बचपन, लड़कपन और किशोरावस्था को सलाम करता हूं। मैं उन बाल ग्वाल कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो कामदेव रूपी ग्वाले के रूप में हैं।
- वंदे मदनगोपालं कैशोराकारमद्भुतम् ।
- यमाहुर्यौवनोद्भिन्न श्रीमन्मदनमोहनम् ।५७।
- एक किशोर की प्रकृति के हैं और अद्भुत हैं, और जिन्हें वे कामदेव-मोहक कहते हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।५७।
- अध्याय 77 - कृष्ण का वर्णन
- पाताल-खंड )
- ___________
- सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम् ।
- नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा ।२६।
- यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः ।
- ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः ।२७।
- अनुवाद:-
- तब भगवान ने स्वयं वृन्दावन उपवन में विचरण करते हुए मुझसे कहा:
- "मेरा कोई भी रूप उससे बड़ा नहीं है जो दिव्य, शाश्वत, अंशहीन, क्रियाहीन, शांत और शुभ, बुद्धि और आनंद का रूप है, पूर्ण है।"
- ,जिसकी आंखें पूरी तरह से खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की तरह हैं, जिन्हें आपने (अभी) देखा था। वेद इसका वर्णन केवल कारणों के कारण के रूप में करते हैं, जो सत्य है, शाश्वत है, महान आनंद स्वरूप है, बुद्धि का पुंज है, शाश्वत और शुभ है। मेरी मथुरा को शाश्वत जानो,
- वैसे ही वृन्दावन भी; इसी प्रकार (अनन्त जानो) यमुना, ग्वाले और ग्वाले। मेरा यह अवतार अनन्त है।२६-२७।
- ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः ।
- सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः ।२८।
- मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम् ।
- ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम्। २९।
- अनुवाद:-
- इसमें कोई संदेह न रखें. राधा मुझे सदैव प्रिय है। मैं सर्वज्ञ हूं, महानों से भी महान हूं। मेरी सभी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, मैं सबका स्वामी हूं, मैं संपूर्ण आनंद हूं और महान से भी महान हूं।२८-२९।
- काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः ।
- वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ।३०।
- कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम् ।
- भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ।३१।
- अनुवाद:-
- तब मैंने संसार के कारण भगवान से कहा: “ग्वाले कौन हैं? ग्वालिनें क्या हैं? यह किस प्रकार का वृक्ष बताया गया है? यह गिरि कौन है? कोयल आदि क्या हैं? नदी क्या है? और पहाड़ क्या है? यह महान बांसुरी कौन है, जो सभी लोगों के लिए आनंद का एकमात्र स्थान है?।।३०-३१।
- गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः ।
- देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ।३२।
- गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः ।
- कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ।३३।
- अनुवाद:-
- भगवान ने प्रसन्न होकर और अपने कमल के समान मुख से प्रसन्न होकर मुझसे कहा: “ग्वालों को वेदों को जानना चाहिए। ग्वालों की युवा पुत्रियों को ऋक्स (भजन) के रूप में जाना जाना चाहिए। हे राजन, वे दिव्य देवियाँ हैं। वे तपस्या से संपन्न हैं और मोक्ष की इच्छा रखते हैं। सभी ग्वाले साधु हैं, वैकुंठमें आनंद स्वरूप हैं।यह कदंब इच्छा-प्राप्ति वाला वृक्ष है, सर्वोच्च आनंद का भंडार है।३२-३३।
- इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनादिमथुरामाहात्म्यकथनंनाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।७३।
- ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः १२८
- ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय - 128)
- अथाष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
- "नारायण उवाच
- श्रीकृष्णश्च समाह्वानं गोपांश्चापि चकार सः।
- भाण्डीरे वटमूले च तत्र स्वयमुवास ह ।।१।।
- पुराऽन्नं च ददौ तस्मै यत्रैव ब्राह्मणीगणः।
- उवास राधिका देवी वामपार्श्वे हरेरपि ।।२।।
- दक्षिणे नन्दगोपश्च यशोदासहितस्तथा ।
- तद्दक्षिणो वृषभानस्तद्वामे सा कलावती ।।३।।
- अन्ये गोपाश्च गोप्यश्च बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
- तानुवाच स गोविन्दो यथार्थ्यं समयोचितम्।।४।।
- "श्रीभगवानुवाच
- शृणु नन्द प्रवक्ष्यामि सांप्रतं समयोचितम्।
- सत्यं च परमार्थं च परलोकसुखावहम् ।।५।।
- आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं भ्रमं सर्वं निशामय।
- विद्युद्दीप्तिर्जले रेषा यथा तोयस्य बुद्बुदम्।।६।।
- मथुरायां सर्वमुक्तं नावशेषं च किंचन।
- यशोदां बोधयामास राधिका कदलीवने ।।७।।
- तदेव सत्यं परमं भ्रमध्वान्तप्रदीपकम्।
- विहाय मिथ्यामायां च स्मर तत्परमं पदम्।।८ ।।
- जन्ममृत्युजराव्याधिहरं हर्षकरं परम्।
- शोकसंतापहरणं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।९।।
- मामेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।
- ध्यायंध्यायं पुत्रबुद्धिं त्यक्त्वा लभ परंपदम्।।१०।।
- गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
- आरात्कलेरागमनं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।
- स्त्रीपुंसोर्नियमो नास्ति जातीनां च तथैव च ।
- विप्रेसन्ध्यादिकंनास्ति चिह्नं यज्ञोपवीतकम्।१२ ।
- यज्ञसूत्रं च तिलकं शेषं लुप्तं सुनिश्चितम् ।
- दिवाव्यवायनिरतं विरतं धर्मकर्मणि ।।१३।।
- यज्ञानां च व्रतानां च तपसां लुप्तमेव च।
- केदारकन्याशापेनधर्मो नास्त्येव केवलम्।।१४।।
- स्वच्छन्दगामिनीस्त्रीर्णा पतिश्च सततं वशे ।
- ताडयेत्सततंतं च भर्त्सयेच्छ दिवानिशम्।।१५।।
- प्राधान्यं स्त्रीकुटुम्बानां स्त्रीणां च सततं व्रज।
- स्वामीचभक्तस्तासां च पराभूतो निरन्तरम्।।१६।।
- कलौ च योषितः सर्वा जारसेवासु तत्पराः।
- शतपुत्रसमः स्नेहस्तासां जारे भविष्यति ।।१७।।
- ददाति तस्मै भक्ष्यं च यथा भृत्याय कोपतः।
- सस्मिता सकटाक्षा साऽमृतदृष्ट्या निरन्तरम्।।१८।
- जारं पश्यति कामेन विषदृष्ट्या पतिं सदा।
- सततं गौरवं तासां स्नेहं च जारबान्धवे ।।१९।।
- पत्यौ करप्रहारं च नित्यं नित्यं करोति च।
- मिष्टान्नं श्रद्धया भक्त्या जाराय प्रददाति च।२०।
- वेषयुक्ता च सततं जारसेवनतत्परा।
- प्राणा बन्धुर्गतिश्चाऽऽत्मा कलौ जारश्चयौषिताम्। २१।
- लुप्ता चातिथिसेवा च प्रलुप्तं विष्णुसेवनम्।
- पितृणामर्चनं चैव देवानां च तथैव च ।।२२।।
- विष्णुवैष्णवयोर्द्वेषी सततं च नरो भवेत्।
- वाममन्त्रोपासकाश्च चतुर्वर्णाश्च तत्पराः ।।२३।।
- शालग्रामं च तुलसीं कुशं गङ्गोदकं तथा।
- नस्पृशेन्मानवो धूर्तो म्लेच्छाचाररतः सदा।।२४।।
- कारणं कारणानां च सर्वेषां सर्वबीजकम्।
- सुखदं मोक्षदं शश्वद्दातारं सर्वसम्पदाम् ।।२५।।
- त्यक्त्वा मां परया भक्त्या क्षुद्रसम्पत्प्रदायिनम्।
- वेदनिघ्नं वाममन्त्रं जपेद्विप्रश्च मायया ।।२६।।
- सनातनी विष्णुमाया वञ्चितं तं करिष्यति।
- ममाऽऽज्ञयाभगवती जगतां च दुरत्यया।।२७ ।।
- कलेर्दशसहस्राणि मदर्चा भुवि तिष्ठति ।
- तदर्धानि च वर्षाणि गङ्गा भुवनपावनी ।।२८।।
- तुलसी विष्णुभक्ताश्च यावद्गङ्गा च कीर्तनम् ।
- पुराणानि च स्वल्पानि तावदेव महीतले ।।२९।।
- मम चोत्कीर्तनं नास्ति एतदन्ते कलौ व्रज ।
- एकवर्णा भविष्यन्तिकिराता बलिनःशठाः।।३० ।।
- पित्रोः सेवा गुरोः सेवा सेवा च देवविप्रयोः ।
- विवर्जिता नराः सर्वे चातिथीनां तथैव च।।३१।।
- सस्यहीना भवेत्पृथ्वी साऽनावृष्ट्या निरन्तरम् ।
- फलहीनोऽपि वृक्षश्च जलहीना सरित्तथा।।३२।।
- वेदहीनो ब्राह्मणश्च बलहीनश्च भूपतिः।
- जातिहीनाजनाःसर्वे म्लेच्छोभूपोभविष्यति।।३३।।
- भृत्यवत्ताडयेत्तातं पुत्रः शिष्यस्तथा गुरुम् ।
- कान्तं च ताडयेत्कान्ता लुब्धकुक्कुटवद्गृही।३४।
- नश्यन्ति सकला लोकाः कलौ शेषे च पापिनः।
- सूर्याणामातपात्केचिज्जलौघेनापि केचन ।।३५।।
- हे गोपेन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुंधरा ।
- पुनःसृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम्।।३६।।
- एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
- चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
- शुद्धस्फटिकसंकाशं रत्नेन्द्रसारनिर्मितम्।
- अम्लानपारिजातानां मालाजालविराजितम्।।३८।।
- मणीनां कौस्तुभानां च भूषणेन विभूषितम् ।
- अमूल्यरत्नकलशं हीरहारविलम्बितम् ।।३९।।
- मनोहरैः परिष्वक्तं सहस्रकोटिमन्दिरैः ।
- सहस्रद्वयचक्रं च सहस्रद्वयघोटकम् ।।४०।।
- सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
- गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
- कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
- राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसंभवा।।४२।।
- गोलोकाद गता गोप्यश्चायोनिसंभवाश्च ताः ।
- श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
- सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
- गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः ।४४।
- ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
- तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
- नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
- ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
- सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
- शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
- रक्तवर्णैः फलौघैश्च स्थूलैरपि विभूषितम् ।
- गोपीकोटिसहस्रैश्च सार्धं वृन्दा मनोहरा ।।४८ ।।
- अनुव्रजं सादरं च सस्मिता सा समाययौ ।
- अवरुङ्य रथात्तूर्णं राधां सा प्रणनाम च ।।४९ ।।
- रासेश्वरीं तां संभाष्य प्रविवेश स्वमालयम् ।
- रत्नसिंहासने रम्ये हीरहारसमन्विते ।। ५०।।
- वृन्दा तां वासयामास पादसेवनतत्परा ।
- सप्तभिश्च सखीभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः ।।५१ ।।
- आययुर्गोपिकाः सर्वा द्रष्टुं तां परमेश्वरीम् ।
- नन्दादिकं प्रकल्प्यैतद्राधा वासं पृथकपृथक्।५२।
- परमानन्दरूपा सा परमानन्दपूर्वकम् ।
- स्ववेश्मनि महारम्ये प्रतस्थे गोपिका सह ।। ५३ ।।
- _____________________________
- इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायणो संवाद
- भांडीरवने व्रजजनसमक्षं नन्दं बोधयता कृष्णेन कलिदोषाणां निरूपणम्, अकस्मात्प्राप्तेनाद्भुतरथेन राधादिसर्वगोपीनां गोलोके गमनं च
- अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१२८।।
- "हिन्दी अनुवाद:-
- "पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्न दिया था; उस भाण्डीर वट की छाया में श्रीकृष्ण स्वयं विराजमान हुए और वहीं समस्त गोपों को बुलवा भेजा। श्रीहरि के वामभाग में राधिकादेवी, दक्षिणभाग में यशोदा सहित नन्द, नन्द के दाहिने वृषभानु और वृषभानु के बायें कलावती तथा अन्यान्य गोप, गोपी, भाई-बन्धु तथा मित्रों ने आसन ग्रहण किया। तब गोविन्द ने उन सबसे समयोचित यथार्थ वचन कहा।
- श्री भगवान बोले- नन्द! इस समय जो समयोचित, सत्य, परमार्थ और परलोक में सुखदायक है; उसका वर्णन करता हूँ, सुनो। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सभी पदार्थ बिजली की चमक, जल के ऊपर की हुई रेखा और पानी के बुलबुले के समान भ्रमरूप ही हैं- ऐसा जानो। मैंने मथुरा में तुम्हें सब कुछ बतला दिया था, कुछ भी उठा नहीं रखा था।
- उसी प्रकार कदलीवन में राधिका ने यशोदा को समझाया था। वही परम सत्य भ्रमरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए दीपक है; इसलिए तुम मिथ्या माया को छोड़कर उसी परम पद का स्मरण करो।
- वह पद जन्म-मृत्यु-जरा व्याध का विनाशक, महान हर्षदायक, शोक संताप का निवारक और कर्ममूल का उच्छेदक है।
- मुझ परम ब्रह्म सनातन भगवान का बारंबार ध्यान करके तुम उस परम पद को प्राप्त करो। अब कर्म की जड़ काट देने वाले कलियुग का आगमन संनिकट है; अतः तुम शीघ्र ही गोकुलवासियों के साथ गोलोक को चले जाओ. तदनन्तर भगवान ने कलियुग के धर्म तथा लक्षणों का वर्णन किया।
- विप्रवर! इसी बीच वहाँ व्रज में लोगों ने सहसा गोलोक से आये हुए एक मनोहर रथ को देखा। वह रथ चार योजन विस्तृत और पाँच योजन ऊँचा था; बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से उसका निर्माण हुआ था।
- वह शुद्ध स्फटिक के समान उद्भासित हो रहा था; विकसित पारिजात पुष्पों की मालाओं से उसकी विशेष शोभा हो रही थी; वह कौस्तुभमणियों के आभूषणों से विभूषित था; उसके ऊपर अमूल्य रत्नकलश चमक रहा था; उसमें हीरे हार लटक रहे थे; वह सहस्रों करोड़ मनोहर मंदरियों से व्याप्त था; उसमें दो हजार पहिये लगे थे और दो हजार घोड़े उसका भार वहन कर रहे थे तथा उस पर सूक्ष्म वस्त्र का आवरण पड़ा हुआ था एवं वह करोड़ों गोपियों से समावृत था।
- नारद! राधा और धन्यवाद की पात्र कलावती देवी का जन्म किसी के गर्भ से नहीं हुआ था। यहाँ तक कि गोलोक से जितनी गोपियाँ आयी थीं; वे सभी आयोनिजा थीं।
- उसके रूप में श्रुतिपत्नियाँ ही अपने शरीर से प्रकट हुई थीं। वे सभी श्रीकृष्ण की आज्ञा से अपने नश्वर शरीर का त्याग करके उस रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चली गयीं।
- साथ ही राधा भी गोकुलवासियों के साथ गोलोक को प्रस्थित हुईं।
- ब्रह्मन! मार्ग में उन्हें विरजा नदी का मनोहर तट दीख पड़ा, जो नाना प्रकार के रत्नों से विभूषित था।
- उसे पार करके वे शतश्रृंग पर्वत पर गयीं। वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार के मणिसमूहों से व्याप्त सुसज्जित रासमण्डल को देखा।
- उससे कुछ दूर आगे जाने पर पुण्यमय वृन्दावन मिला।
- आगे बढ़ने पर अक्षयवट दिखायी दिया, उसकी करोड़ों शाखाएँ चारों ओर फैली हुई थीं।
- वह सौ योजन विस्तारवाला और तीन सौ योजन ऊँचा था और लाल रंग के बड़े-बड़े फलसमूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे।
- उसके नीचे मनोहर वृन्दा हजारों करोड़ों गोपियों के साथ विराजमान थीं।
- उसे देखकर राधा तुरंत ही रथ से उतरकर आदर सहित मुस्कराती हुई उसके निकट गयीं। वृन्दा ने राधा को नमस्कार किया।
- तत्पश्चात रासेश्वरी राधा से वार्तालाप करके वह उन्हें अपने महल के भीतर लिवा ले गयी। वहाँ वृन्दा ने राधा को हीरे के हारों से समन्वित एक रमणीय रत्नसिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनकी चरण सेवा में जुट गयी।
- सात सखियाँ श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं। इतने में परमेश्वरी राधा को देखने के लिए सभी गोपियाँ वहाँ आ पहुँचीं। तब राधाने नन्द आदि के लिए पृथक-पृथक आवासस्थान की व्यवस्था की।
- तदनन्तर परमान्दरूपा गोपिका राधा परमानन्द पूर्वक सबके साथ अपने परम रुचिर भवन को प्रस्थित हुईं।
- ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय - 128)
- योगेश कुमार "रोहि" द्वारा संपादित किया गया
- ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः 4 (श्रीकृष्णजन्मखण्डः अध्याय 129 श्री कृष्ण के गोलोक गमन तथा उनकी १२५ वर्ष की आयु का विवरण-)
- अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
- "नारायण उवाच
- श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।दृष्ट्वा सालोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।१। "महादेव उवास
- पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके । ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा । २ ।
- अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।३ ।
- गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।४।
- गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् । ५।
- श्री भगवानुवाच हे गोपगण हे बन्धो सुखं तिष्ठ स्थिरो भव । रमणं प्रियया सार्धं सुरम्यं रासमण्डलम् ।६।
- तावत्प्रभृति कृष्णस्य पुण्ये वृन्दावने वने ।अधिष्ठानं च सततं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।७।
- तथा जगाम भाण्डीरं विधाता जगतामपि ।स्वयं शेषश्च धर्मश्च भवान्या च भवःस्वयम् । ८ ।
- सूर्यश्चापि महेन्द्रश्च चन्द्रश्चापि हुताशनः ।कुबेरो वरुणश्चैव पवनश्च यमस्तथा ।। ९ ।।
- ईशानश्चापि देवाश्च वसवोऽष्टौ तथैव च ।सर्वे ग्रहाश्च रुद्राश्च मुनयो मनवस्तथा ।। १० ।।
- त्वरिताश्चाऽऽययुः सर्वे यत्राऽऽस्ते भगवान्प्रभुः । प्रणम्य दण्डवद्भूभौ तमुवाच विधिः स्वयम् ।। ११
- ब्रह्मवाच परिपूर्णतम् ब्रह्मस्वरूप नित्यविग्रह । ज्योतिःस्वरूप परम नमोऽस्तु प्रकृतेः पर ।१२।
- सुनिर्लिप्त निराकार साकार ध्यानहेतुना ।स्वेच्छामय परं धाम परमात्मन्नमोऽस्तु ते। १३।
- सर्वकार्यस्वरूपेश कारणानां च कारण ।ब्रह्मेशशेषदेवेश सर्वेश ते नामामि ।१४।
- सरस्वतीश पद्मेश पार्वतीश परात्पर । हे सावित्रीश राधेश रासेश्वर ते नमामि ।१५।
- सर्वेषामादिभूतर्स्त्वं सर्वः सर्वेश्वरस्तथा ।सर्वपाता च संहर्ता सृष्टिरूप नमामि । १६।
- त्वत्पादपद्मरजसा धन्या पूता वसुन्धरा ।शून्यरूपा त्वयि गते हे नाथ परमं पदम् ।। १७।
- "यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
- त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।
- "महादेव उवाच
- ब्रह्मणा प्रार्थितस्त्वं च समागत्य वसुन्धराम् भूभारहरणं कृत्वा प्रयासि स्वपदं विभो। १९।
- त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या सद्यः पूता पदाङ्किता। वयं च मुनयो धन्याः साक्षाद्दृष्ट्वा पदाम्बुजम् । २०।
- ध्यानासाध्यो दुराराध्यो मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् अस्माकमपि यश्चेशः सोऽधुना चाक्षुषो भुवि ।२१।
- वासुः सर्वनिवासश्च विश्वनि यस्य लोमसु ।देवस्तस्य महाविष्णुर्वासुदेवो महीतले ।। २२ ।
- सुचिरं तपसा लब्धं सिद्धेन्द्राणां सुदुर्लभम् यत्पादपद्ममतुलं चाक्षुषं सर्वजीविनाम् । २३। "अनन्त उवाच
- त्वमनन्तो हि भगवन्नाहमेव कलांशकः ।विश्वैकस्थे क्षुद्रकूर्मे मशकोऽहं गजे यथा ।२४।
- असंख्यशेषाः कूर्माश्च ब्रह्मविषणुशिवात्मकाः । असंख्यानि च विश्वानि तेषामीशः स्वयं भवान् ।। २५ ।।
- अस्माकमीदृशं नाथ सुदिनं क्व भविष्यति स्वप्नादृष्टश्चयश्चेशः स दृष्टः सर्वजीविनाम् । २६ ।
- नाथ प्रयासि गोलोकं पूतां कृत्वा वसुन्धराम् तामनाथां रुदन्तीं च निमग्नां शोकसागरे । २७ । "देवा ऊचु:
- वेदाःस्तोतुं न शक्ता यं ब्रह्मेशानादयस्तथा ।तमेव स्तवनं किं वा वयं कुर्मो नमोऽस्तु ते ।२८।
- इत्येवमुक्त्वा देवास्ते प्रययुर्द्वारकां पुरीम् ।तत्रस्थं भगवन्तं च द्रष्टुं शीघ्रं मुदाऽन्विताः।२९।
- अथ तेषां च गोपाला ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।पृथिवी कम्पिता भीता चलन्तः सप्तसागराः ।। ३० ।।
- हतश्रियं द्वारकां च त्यक्त्वा च ब्रह्मशापतः मूर्तिं कदम्बमूलस्थां विवेश राधिकेश्वरः ।। ३१।
- ते सर्वे चैरकायुद्धे निपेतुर्यादवास्तथा ।चितामारुह्य देव्यश्च प्रययुः स्वामिभिः सह ।३२ ।
- अर्जुनः स्वपुरं गत्वा समुवाच युधिष्ठिरम् ।स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ।। ३३ ।।
- दृष्ट्वा कदम्बमूलस्थं तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।देवा ब्रह्मादयस्ते च प्रणेमुर्भक्तिपूर्वकम् ।। ३४।
- तुष्टुवुः परमात्मानं देवं नारायणं प्रभुम् ।श्यामं किशोरवयसं।
- व्याधास्त्रसंयुतं पादपद्मं पद्मादिवन्दितम् ।दृष्ट्वा ब्रह्मादिदेवांस्तानभयं सस्मितं ददौ । ३७।
- पृथिवीं तां समाश्वास्य रुदन्ती प्रेमविह्वलाम् व्याधं प्रस्थापयामास परं स्वपदमुत्तमम् । ३८ ।
- बलस्य तेजः शेषे च विवेश परमाद्भुतम् ।प्रद्युम्नस्य च कामे वै वाऽनिरुद्धस्य ब्रह्मणि ।३९।
- अयोनिसंभवा देवी महालक्ष्मीश्च रुक्मिणी वैकुण्ठं प्रययौ साक्षात्स्वशरीरेण नारद । ४०।
- सत्यभामा पृथिव्यां च विवेश कमलालया।स्वयं जाम्बवती देवी पार्वत्यां विश्वमातरि।४१।
- या या देव्यश्च यासां चाप्यंशरुपाश्च भूतले ।तस्यां तस्यां प्रविविशुस्ता एव च पृथक्पृथक् । ४२।
- साम्बस्य तेजः स्कन्दे च विवेश परमाद्भुतम् कश्यपे वसुदेवश्चाप्यदिव्यां देवकी तथा । ४३ ।
- रुक्मिणीमन्दिरं त्यकत्वा समस्तां द्वारकां पुरीम् । स जग्राह समुद्रश्च प्रफुल्लवदनेक्षणः ।४४ ।।
- लवणोदः समागत्य तुष्टाव पुरुषोत्तमम् ।रुरोद तद्वियोगेन साश्रुनेत्रश्च विह्वलः । ४५।
- गङ्गा सरस्वती पद्मावती च यमुना तथा ।गोदावरी स्वर्णरेखा कावेरी नर्मदा मुने । ४६ ।
- शरावती बाहृदा च कृतमाला च पुण्यदा ।समाययुश्च ताः सर्वाः प्रणेमुः परमेश्वरम् । ४७ ।
- उवाच जाह्नवी देवी रुदती परमेश्वरम् ।साश्रुनेत्राऽतिदीना सा विरहज्वरकातरा ।। ४८ ।।
- "भागीरथयुवाच
- हे नाथ रमणश्रेष्ठ यासि गोलोकमुत्तमम् । अस्माकं का गतिश्चात्र भविष्यति कलौ युगे ।। ४९ ।।
- श्रीभगवानुवाच कलेः पञ्चसहस्राणि वर्षाणि तिष्ठ भूतले । पापानि पापिनो यानि तुभ्यं दास्यन्ति स्नात: ।। ५० ।।
- मन्मन्त्रोपासकस्पर्शाद्भस्मीभूतानि तत्क्षणात् ।भविष्यन्ति दर्शनाच्च स्नानादेव हि जाह्नवि ।। ५१ ।।
- हरेर्नामानि यत्रैव पुराणानि भवन्ति हि । तत्र गत्वा सावधानमाभिः सार्धं च श्रोष्यसि ।।५२।।
- पुराणश्रवणाच्चैव हरेर्नामानुकीर्तनात् ।भस्मीभूतानि पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च ।। ५३ ।।
- भस्मीभूतानि तान्येव वैष्णवालिङ्गनेन च ।तृणानि शुष्ककाष्ठानि दहन्ति पावका यथा ।। ५४ ।।
- तथाऽपि वैष्णवा लोके पापानि पापिनामपि । पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यपि च जाह्नवि ।। ५५ ।।
- मद्भक्तानां शरीरेषु सन्ति पूतेषु संततम् ।मद्भक्तपादरजसा सद्यः पूता वसुंधरा ।। ५६ ।।
- सद्यः पूतानि तीर्थानि सद्याः पूतं जगत्तथा ।मन्मन्त्रोपासका विप्रा ये मदुच्छिष्टभोजिनः ।। ५७ ।।
- मामेव नित्यं ध्यायन्ते ते मत्प्राणाधिकाः प्रियाः । तदुपस्पर्शमात्रेण पूतो वायुश्च पावकः ।। ५८ ।।
- कलेर्दशसहस्राणि मद्भक्ताः सन्ति भूतले ।एकवर्णा भविष्यन्ति मद्भक्तेषु गतेषु च। ५९।
- मद्भक्तशून्या पृथिवी कलिग्रस्ता भविष्यति एतस्मिन्नन्तरे तत्र कृष्णदेहाद्विनिर्गतः ।। ६० ।।
- चतुर्भुजश्च पुरुषः शतचन्द्रसमप्रभः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः । ६१ ।
- सुन्दरं रथमारुह्य श्रीरोदं स जगाम ह ।सिन्धुकन्या च प्रययौ स्वयं मूर्तिमती सती। ६२।
- श्रीकृष्णमनसा जाता मर्त्यलक्ष्मीर्मनोहरा । श्वेतद्वीपं गते विष्णौ जगत्पालनकर्तरि ।६३ ।
- शुद्धसत्त्वस्वरूपे च द्विधारूपो बभूव सः । दक्षिणांशश्च द्विभुजो गोपबालकरूपकः ।। ६४ ।।
- नपीनजलदश्यामः शोभितः पीतवाससा ।श्रीवंशवदनः श्रीमान्सस्मितः पद्मलोचनः ।। ६५ ।।
- शतकोटीन्दुसौन्दर्यं शतकोटिस्मरप्रभाम् ।दधानः परमानन्दः परिबूर्णतमः प्रभुः ।। ६६ ।।
- परं धाम परं ब्रह्मस्वरूपो निर्गुणः स्वयम् ।परमात्मा च सर्वेषां भक्तानुग्रहविग्रहः ।। ६७ ।।
- नित्यदेहश्च भगवानीश्वरः प्रकृतेः परः ।योगिनो यं वदन्त्येवं ज्योतीरूपं सनातनम् ।। ६८ ।।
- ज्योतिरम्यन्तरे नित्यरूपं भक्ता विदन्ति यम् । वेदा वदन्ति सत्यं यं नित्यमाद्यं विचक्षणाः ।। ६९ ।।
- यं वदन्ति सुराः सर्वे परं स्वेच्छामयं प्रभूम् ।सिद्धेन्द्रा मुनयः सर्वे सर्वरूपं वदन्ति यम् ।। ७० ।।
- यमनिर्वचनीयं च योगीन्द्रः शंकरो वदेत् ।स्वयं विधाता प्रवदेत्कारणानां च कारणम् ।। ७१ ।।
- शेषो वदेदनन्तं यं नवधारूपमीश्वरम् ।तर्काणामेव षण्णां च षड्विधं रूपमीप्सितम् ।। ७२ ।।
- वैष्णवानामेकरूपं वेदानामेकमेव च ।पुराणानामेकरूपं तस्मान्नवविधं स्मृतम् ।। ७३ ।।
- न्यायोऽनिर्वचनीयं च यं मतं शंकरो वदेत् ।नित्यं वैशेषिकाश्चाऽऽद्यं तं वदन्ति विचक्षणाः ।। ७४ ।।
- सांख्य वदन्ति तं देवं ज्योतीरूपं सनातनम् मीमांसा सर्वरूपं च वेदान्तः सर्वकारणम् ।। ७५ ।।
- पातञ्जलोऽप्यनन्तं च वेदाः सत्यस्वरूपकम् । स्वेच्छामयं पुराणं च भक्ताश्च नित्यविग्रहम् ।। ७६ ।।
- सोऽयं गोलोकनाथश्च राधेशो नन्दनन्दनः ।गोकुले गोपवेषश्च पुण्ये वृन्दावने वने ।। ७७ ।।
- चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे महालक्ष्मीपतिः स्वयम् नारायणश्च भगवान्यन्नाम मुक्तिकारणम् ।। ७८ ।।सकृन्नारायणेत्युक्त्वा पुमान्कल्पशतत्रयम् ।गङ्गादिसर्वतीर्थेषु स्नातो भवति नारद ।। ७९ ।।
- सुनन्दनन्दकुमुदैः पार्षदैः परिवारितः ।शङ्खचक्रगदापद्मधरः श्रीवत्सलाञ्छनः ।। ८० ।।
- कौस्तुभेन मणीन्द्रेण भूषितो वनमालया ।देवैः स्तुतश्च यानेन वैकुण्ठं स्वपदं ययौ ।। ८१ ।।
- गते वैकुण्ठनाथे च राधेशश्च स्वयं प्रभुः ।चकार वंशीशब्दं च त्रैलोक्यमोहनं परम् ।। ८२ ।।
- मूर्च्छांप्रापुर्देवगणा मुनयश्चापि नारद ।अचेतना बभूवुश्च मायया पार्वतीं विना ।। ८३ ।।
- उवाच पार्वती देवी भगवन्तं सनातनम् ।विष्णुमाया भगवती सर्वरूपा सनातनी ।। ८४ ।।
- परब्रह्मस्वरूपा या परमात्मस्वरूपिणी ।सगुणा निर्गुणा सा च परा स्वेच्छामयी सती।८५।
- "पार्वत्युवाच
- एकाऽहं राधिकारूपा गोलोके रासमण्डले रासशून्यं च गोलोकं परिपूर्ण कुरु प्रभो ।। ८६ ।।
- गच्छ त्वं रथमारुह्य मुक्तामाणिक्यभूषितम् परिबूर्णतमाऽहं च तव वङः स्थलस्थिता ।। ८७ ।।
- तवाऽऽज्ञया महालक्ष्मीरहं वैकुण्ठगामिनी ।सरस्वती च तत्रैव वामे पार्श्वे हरेरपि । ८८।
- तवाहं मनसा जाता सिन्धुकन्या तवाऽऽज्ञया । सावित्री वेदमाताऽहं कलया विधिसंनिधौ ।। ८९ ।।
- तैजःसु सर्वदेवानां पुरा सत्ये तवाऽऽज्ञया ।अधिष्ठानं कृत तत्र धृतं देव्या शरीरकम् ।। ९० ।।
- शुम्भादयश्च दैत्याश्च निहताश्चावलीलया ।दुर्ग निहत्य तुर्गाऽहं त्रिपुरा त्रिपुरे वधे ।। ९१ ।।
- निहत्य रक्तबीजं च रक्तबीजविनाशिनी ।तवाऽऽज्ञया दक्षकन्या सती सत्यस्वरूपिणी ।। ९२ ।।
- योगेन त्यक्त्वा देहं च शैलजाऽहं तवाऽऽज्ञया । त्वया दत्तवा (त्ताः शंकराय गोलोके रासमण्डले ।। ९३ ।।
- विष्णुभक्तिरहं तेन विष्णुमाया च वैष्णवी ।नारायणस्य मायाऽहं तेन नारायणी स्मृता । ९४।
- कृष्णप्राणाधिकाऽहं च प्राणाधिष्ठातृदेवता महाविष्णोश्च वासोश्च जननी राधिका स्वयम् ।। ९५ ।।
- तवाऽऽज्ञया पञ्चधाऽहं पञ्चप्रकृतिरूपिणी । कलाकलांशयाऽहं च देवपत्नयो गृहे गृहे ।। ९६ ।।
- शीघ्रं गच्छ महाभाग तत्राऽहं विरहातुरा ।गोपीभिः सहिता रासं भ्रमन्ती परितः सदा ।। ९७ ।।
- पार्वतीवचनं श्रुत्वा प्रहस्य रसिकेश्वरः ।रत्नयानं समारुह्य ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। ९८ ।।
- पार्वती बोधयामास स्वयं देवगणं तथा ।मायावंशीरवाच्छन्नं विष्णुमाया सनातनी ।। ९९ ।।
- कृत्वा ते हरिशब्दं च स्वगृहं विस्मयं ययुः ।शिवेन सार्धं दुर्गा सा प्रहृष्टा स्वपुरं ययौ ।। १०० ।।
- अथ कृष्णं समायान्तं राधा गोपीगणैः सह अनुव्रजं ययौ हृष्टा सर्वज्ञा प्राणवल्लभम् ।। १०१ ।।
- दृष्ट्वा समीपमायान्तमवरुह्य रथात्सती ।प्रणनाम जगन्नाथं सिरसा सखिभिः सह ।। १०२ ।।
- गोपा गोप्यश्च मुदिताः प्रफुल्लवदनेक्षणाः ।दुन्दुभिं वादयामासुरीश्वरागमनोत्सुकाः ।। १०३ ।।
- विरजां च समुत्तीर्य दृष्ट्वा राधां जगत्पतिः अवरुह्य रथात्तूर्णं गृहीत्वा राधिकाकरम् ।। १०४ ।।
- शतशृङ्गं च बभ्राम सुरम्यं रासमण्डलम् ।दृष्ट्वाऽक्षयवटं पुण्यं पुण्यं वृन्दावनं ययौ ।। १०५ ।।
- तुलसीकाननं दृष्ट्वा प्रययौ मालतीवनम् ।वामे कृत्वा कुन्दवनं माधवीकाननं तथा ।। १०६ ।।
- चकार दक्षिणे कृष्णश्चम्पकारण्यमीप्सिनम् चकार पश्चात्तूर्णं च चारुचन्दनकाननम् ।। १०७ ।।
- ददर्श पुरतो रम्यं राधिकाभवनं परम् ।उवास राधया सार्धं रत्नसिंहासने वरे ।। १०८ ।।
- सकर्पूरं च ताम्बूलं बुभुजे वासितं जलम् ।सुष्वाप पुष्पतल्पे च सुगन्धिचन्दनार्चिते ।। १०९ ।।
- स रेमे रामया सार्धं निमग्नो रससागरे ।इत्येवं कथितं सर्वं धर्मवक्त्राच्च यच्छ्रुतम् ।। ११० ।।
- गोलोकारोहणं रम्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। १११ ।।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128
- श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128
- तब श्रीकृष्ण ने उन ब्रह्मा आदि देवों की ओर मुस्कराते हुए देखकर उन्हें अभयदान दिया। पृथ्वी प्रेमविह्वल हो रही थी; उसे पर्णरूप से आश्वासन दिया और व्याध को अपने उत्तम परम पद को भेज दिया। तत्पश्चात बलदेव जी परम अद्भुत तेज शेषनाग में, प्रद्युम्न का कामदेव में और अनिरुद्ध का ब्रह्मा में प्रविष्ट हो गया। नारद! देवी रुक्मिणी, जो अयोनिजा तथा साक्षात महालक्ष्मी थीं; अपने उसी शरीर से वैकुण्ठ को चली गयीं। कमलालया सत्यभामा पृथ्वी में तथा स्वयं जाम्बवती देवी जगज्जननी पार्वती में प्रवेश कर गयीं। इस प्रकार भूतल पर जो-जो देवियाँ जिन जिनके अंश से प्रकट हुई थीं; वे सभी पृथक-पृथक अपने अंशी में विलीन हो गयीं। साम्ब का अत्यंत निराला तेज स्कन्द में, वसुदेव कश्यप में और देवकी अदिति में समा गयीं। विकसित मुख और नेत्रों वाले समुद्र ने रुक्मिणी के महल को छोड़कर शेष सारी द्वारकापुरी को अपने अंदर समेट लिया। इसके बाद क्षीरसागर ने आकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का स्तवन किया। उस समय उनके वियोग का कारण उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये और वह व्याकुल होकर रोने लगा। मुने! तत्पश्चात गंगा, सरस्वती, पद्मावती, यमुना, गोदावरी, स्वर्णरेखा, कावेरी, नर्मदा, शरावती, बाहुदा और पुण्यदायिनी कृतमाला ये सभी सरिताएँ भी वहाँ आ पहुँचीं और सभी ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। उनमें जह्नुतनया गंगा देवी विरह-वेदना से कातर तथा अत्यंत दीन हो रही थी। उनके नेत्रों में आँसू उमड़ आये थे। वे रोती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण से बोलीं।
- भागीरथी ने कहा- नाथ! रमणश्रेष्ठ! आप तो उत्तम गोलोक को पधार रहे हैं; किंतु इस कलियुग में हमलोगों की क्या गति होगी?
- तब श्री भगवान बोले- जाह्नवि! पापीलोग तुम्हारे जल में स्नान करने से तुम्हें जिन पापों को देंगे; वे सभी मेरे मंत्र की उपासना करने वाले वैष्णव के स्पर्श, दर्शन और स्नान से तत्काल ही भस्म हो जाएंगे। जहाँ हरि नाम संकीर्तन और पुराणों की कथा होगी; वहाँ इन सरिताओं के साथ जाकर सावधानतया श्रवण करोगी। उस पुराण-श्रवण तथा हरि नाम संकीर्तन से ब्रह्महत्या आदि महापातक जलकर राख हो जाते हैं। वे ही पाप वैष्णव के आलिंगन से भी दग्ध हो जाते हैं। जैसे अग्नि सूखी लकड़ी और घास फूस को जला डालती है; उसी प्रकार जगत में वैष्णव लोग पापियों के पापों को भी नष्ट कर देते हैं। गंगे! भूतल पर जितने पुण्यमय तीर्थ हैं; वे सभी मेरे भक्तों के पावन शरीरों में सदा निवास करते हैं। मेरे भक्तों की चरण रज से वसुन्धरा तत्काल पावन हो जाती है, तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तथा जगत शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्मण मेरे मंत्र के उपासक हैं, मुझे अर्पित करने के बाद मेरा प्रसाद भोजन करते हैं और नित्य मेरी ही ध्यान में तल्लीन रहते हैं; वे मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके स्पर्शमात्र से वायु और अग्नि पवित्र हो जाते हैं।
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- मेरे भक्तों के चले जाने पर सभी वर्ण एक हो जाएंगे और मेरे भक्तों से शून्य हुई पृथ्वी पर कलियुग का पूरा साम्राज्य हो जायेगा। इसी अवसर पर वहाँ श्रीकृष्ण के शरीर से एक चार-भुजाधारी पुरुष प्रकट हुआ। उसकी प्रभा सैकड़ों चंद्रमाओं को लज्जित कर रही थी। वह श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था और उसके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
- श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 128
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- वह एक सुंदर रथ पर सवार होकर क्षीरसागर को चला गया। तब स्वयं मूर्तिमती सिन्धुकन्या भी उनके पीछे चली गयीं। जगत के पालनकर्ता विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर श्रीकृष्ण के मन से उत्पन्न हुई मनोहरा मर्त्यलक्ष्मी ने भी उनका अनुगमन किया। इस प्रकार उस शुद्ध सत्त्वस्वरूप के दो रूप हो गये। उनमें दक्षिणांग हो भुजाधारी गोप-बालक के रूप में प्रकट हुआ। वह नूतन जलधर के समान श्याम और पीताम्बर से शोभित था; उसके मुख से सुंदर वंशी लगी हुई थी; नेत्र कमल के समान विशाल थे; वह शोभासंपन्न तथा मन्द मुस्कान से युक्त था। वह सौ करोड़ चंद्रमाओं के समान सौंदर्यशाली, सौ करोड़ कामदेवों की सी प्रभावाला, परमानन्द स्वरूप, परिपूर्णतम, प्रभु, परमधाम, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, सबका परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, अविनाशी शरीरवाला, प्रकृति से पर और ऐश्वर्यशाली ईश्वर था। योगीलोग जिसे सनातन ज्योतिरूप जानते हैं और उस ज्योति के भीतर जिसके नित्य रूप को भक्ति के सहारे समझ पाते हैं। विचक्षण वेद जिसे सत्य, नित्य और आद्य बतलाते हैं, सभी देवता जिसे स्वेच्छामय परम प्रभु कहते हैं, सारे सिद्धशिरोमणि तथा मुनिवर जिसे सर्वरूप कहकर पुकारते हैं, योगिराज शंकर जिसका नाम अनिर्वचनीय रखते हैं, स्वयं ब्रह्मा जिसे कारण के कारण रूप से प्रख्यात करते हैं और शेषनाग जिस नौ प्रकार के रूप धारण करने वाले ईश्वर को अनन्त कहते हैं; छः प्रकार के धर्म ही उनके छः रूप हैं, फिर एक रूप वैष्णवों का, रूप वेदों और एक रूप पुराणों का है; इसीलिए वे नौ प्रकार के कहे जाते हैं। जो मत शंकर का है, उसी मत का आश्रय ले न्यायशास्त्र जिसे अनिर्वचनीय रूप से निरूपण करता है, दीर्घदर्शी वैशेषिक जिसे नित्य बतलाते हैं; सांख्य उन देव को सनातन ज्योतिरूप, मेरा अंशभूत वेदान्त सर्वरूप और सर्वकारण, पतञ्जलिमतानुयायी अनन्त, वेदगण सत्यस्वरूप, पुराण स्वेच्छामय और भक्तगण नित्यविग्रह कहते हैं; वे ही ये गोलोकनाथ श्रीकृष्ण गोकुल में वृन्दावन नामक पुण्यवन में गोपवेष धारण करके नन्द के पुत्ररूप से अवतीर्ण हुए हैं। ये राधा के प्राणपति हैं। ये ही वैकुण्ठ में चार-भुजाधारी महालक्ष्मीपति स्वयं भगवान नारायण हैं; जिनका नाम मुक्ति प्राप्ति का कारण है।
- नारद! जो मनुष्य एक बार भी ‘नारायण’ नाम का उच्चारण कर लेता है; वह तीन सौ कल्पों तक गंगा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने का फल पा लेता है।
- तदनन्तर जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं; जिनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न शोभा देता है; मणिश्रेष्ठ कौस्तुभ और वनमाला से जो सुशोभित होते हैं; वेद जिनकी स्तुति करते हैं; वे भगवान नारायण सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षदों के साथ विमान द्वारा अपने स्थान वैकुण्ठ को चले गये।
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- उन वैकुण्ठनाथ के चले जाने पर राधा के स्वामी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी बजायी, जिसका सुरीला शब्द त्रिलोकी को मोह में डालने वाला था। नारद! उस शब्द को सुनते ही पार्वती के अतिरिक्त सभी देवतागण और मुनिगण मूर्च्छित हो गये और उनकी चेतना लुप्त हो गयी।
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- तब जो भगवती विष्णुमाया, सर्वरूपा, सनातनी, परब्रह्मस्वरूपा, परमात्मस्वरूपिणी सगुणा, निर्गुणा, परा और स्वेच्छामयी हैं; वे सती साध्वी देवी पार्वती सनातन भगवन श्रीकृष्ण से बोलीं।
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- पार्वती ने कहा- प्रभो! गोलोक स्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिकारूप से रहती हूँ।
- इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है; अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर आरूढ़ हो वहाँ जाइये
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- और उसे परिपूर्ण कीजिए। आपके वक्षःस्थल पर वास करने वाली परिपूर्णतमा देवी मैं ही हूँ.
- आपकी आज्ञा से वैकुण्ठ में वास करने वाली महालक्ष्मी मैं ही हूँ।
- वहीं श्रीहरि के वामभाग में स्थित रहने वाली सरस्वती भी मैं ही हूँ।
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- मैं आपकी आज्ञा से आपके मन से उत्पन्न हुई सिन्धुकन्या हूँ।
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- ब्रह्मा के संनिकट रहने वाली अपनी कला से प्रकट हुई वेदमाता सावित्री मेरा ही नाम है।
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- पहले सत्ययुग में आपकी आज्ञा से मैंने समस्त देवताओं के तेजों से अपना वासस्थान बनाया और उससे प्रकट होकर देवी का शरीर धारण किया। उसी शरीर से मेरे द्वारा लीलापूर्वक शुम्भ आदि दैत्य मारे गये।
- मैं ही दुर्गासुर का वध करके ‘दुर्गा’, त्रिपुर का संहार करने पर ‘त्रिपुरा’ और रक्तबीज को मारकर ‘रक्तबीज विनाशिनी’ कहलाती हूँ।
- आपकी आज्ञा से मैं सत्यस्वरूपिणी दक्षकन्या ‘सती’ हुई।
- वहाँ योगधारण द्वारा शरीर का त्याग करके आपके ही आदेश से पुनः गिरिराजनन्दिनी ‘पार्वती’ हुई; जिसे आपने गोलोक स्थित रासमण्डल में शंकर को दे दिया था।
- मैं सदा विष्णुभक्ति में रत रहती हूँ; इसी कारण मुझे वैष्णवी और विष्णुमाया कहा जाता है।
- नारायण की माया होने के कारण मुझे लोग नारायणी कहते हैं।
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- मैं श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया, उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी और वासु स्वरूप महाविष्णु की जननी स्वयं राधिका हूँ।
- आपके आदेश से मैंने अपने को पाँच रूपों में विभक्त कर दिया; जिससे पाँचों प्रकृति मेरा ही रूप हैं।
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- मैं ही घर–घर में कला और कलांश से प्रकट हुई वेद पत्नियों के रूप में वर्तमान हूँ। महाभाग! वहाँ गोलोक में मैं विरह से आतुर हो गोपियों के साथ सदा अपने आवास स्थान में चारों ओर चक्कर काटती रहती हूँ; अतः आप शीघ्र ही वहाँ पधारिये।
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- नारद! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर श्रीकृष्ण हँसे और रत्ननिर्मित विमान पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गये।
- तब सनातनी विष्णुमाया स्वयं पार्वती ने मायारूपिणी वंशी के नाद से आच्छन्न हुए देवगण को जगाया।
- वे सभी हरिनामोच्चारण करके विस्मयाविष्ट हो अपने-अपने स्थान के चले गये।
- श्रीदुर्गा भी हर्षमग्न हो शिव के साथ अपने नगर को चली गयीं। तदनन्तर सर्वज्ञा राधा हर्षविभोर हो आते हुए प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के स्वागतार्थ गोपियों के साथ आगे आयीं।
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- श्रीकृष्ण को समीप आते देखकर सती राधिका रथ से उतर पड़ीं और सखियों के साथ आगे बढ़कर उन्होंने उन जगदीश्वर के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया।
- ग्वालों और गोपियों के मन में सदा श्रीकृष्ण के आगमन की लालसा बनी रहती थी; अतः उन्हें आया देखकर वे आनन्दमग्न हो गये। उनके नेत्र और मुख हर्ष से खिल उठे फिर तो वे दुन्दुभियाँ बजाने लगे। उधर विरजा नदी को पार करके जगत्पति श्रीकृष्ण की दृष्टि ज्यों ही राधा पर पड़ी, त्यों ही वे रथ से उतर पड़े और राधिका के हाथ को अपने हाथ में लेकर शतश्रृंग पर्वत पर घूमने चले गये। वहाँ सुरम्य रासमण्डल, अक्षयवट और पुण्यमय वृन्दावन को देखते हुए तुलसी कानन में जा पहुँचे।
- वहाँ से मालतीवन को चले गये। फिर श्रीकृष्ण ने कुन्दवन तथा माधवी कानन को बायें करके मनोरम चम्पकारण्य को दाहिने छोड़ा। पुनः सुरुचिर चन्दन कानन को पीछे करके आगे बढ़े तो सामने राधिका का परम रमणीय भवन दीख पड़ा।
- वहाँ जाकर वे राधा के साथ श्रेष्ठ रत्नसिंहासन पर विराजमान हुए। फिर उन्होंने सुवासित जल पिया तथा कपूरयुक्त पान का बीड़ा ग्रहण किया। तत्पश्चात वे सुगन्धित चंदन से चर्चित पुष्पशय्या पर सोये और रास-सागर में निमग्न हो सुंदरी राधा के साथ विहार करने लगे। नारद! इस प्रकार मैंने( नारायण)
- रमणीय गोलोकारोहण के विषय में अपने पिता धर्म के मुख से जो कुछ सुना था, वह सब तुम्हें बता दिया।
- अब पुनः और क्या सुनना चाहते हो ?
- उपर्युक्त कथानक में नारद और नारायण का संवाद है ये नारायण क्षीरसागर वाले नहीं है। ये धर्नके पुत्र हैं जो उनकी पत्नी दक्ष कन्या मूर्ति के गर्भ से उत्पन्न हुए हरि ,कृष्ण नर और नारायण)
- इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनारायण - सौति शौनक के बीच गोलोकारोहण नामैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। १२९ ।।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण
- श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 129
- श्रीकृष्ण के गोलोक गमन का वर्णन-
- श्रीनारायण कहते हैं- नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुलवासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीरवन में वटवृक्ष के नीचे पाँच गोपों के साथ ठहर गए।
- वहाँ उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो-समुदाय व्याकुल है।
- रक्षकों के न रहने से वृन्दावन शून्य तथा अस्त-व्यस्त हो गया है।
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- तब उन कृपासागर को दया गयी। फिर तो, उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृन्दावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से परिपूर्ण कर दिया।
- साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बँधाया। तत्पश्चात वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले।
- श्रीभगवान ने कहा- हे गोपगण! हे बन्धो! तुमलोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ वास करो; क्योंकि प्रिया के साथ विहार, सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पुण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा, जब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चंद्रमा की स्थिति रहेगी।
- तत्पश्चात लोकों के विधाता ब्रह्मा भी भाण्डीरवन में आये।
- उनके पीछे स्वयं शेष, धर्म, भवानी के साथ स्वयं शंकर, सूर्य, महेंद्र, चंद्र, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन, यम, ईशान आदि देव, आठों वसु, सभी ग्रह, रुद्र, मुनि तथा मनु- ये सभी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचे, जहाँ सामर्थ्यशाली भगवान श्रीकृष्ण विराजमान थे।
- तब स्वयं ब्रह्मा ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और यों कहा।
- ब्रह्मा बोले- भगवन! आप परिपूर्णतम ब्रह्मस्वरूप, नित्य विग्रहधारी, ज्योतिः स्वरूप, परमब्रह्मा और प्रकृति से परे हैं, आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। परमात्मान! आप परम निर्लिप्त, निराकार, ध्यान के लिए साकार, स्वेच्छामय और परमधाम हैं; आपको प्रणाम है। सर्वेश! आप संपूर्ण कार्य स्वरूपों के स्वामी, कारणों के कारण और ब्रह्मा, शिव, शेष आदि देवों के अधिपति हैं, आपको बारंबार अभिवादन है।
- परात्पर! आप सरस्वती, पद्मा, पार्वती, सावित्री और राधा के स्वामी हैं; रासेश्वर! आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो। सृष्टिरूप! आप सबके आदिभूत, सर्वरूप, सर्वेश्वर, सबके पालक और संहारक हैं; आपको नमस्कार प्राप्त हो। हे नाथ! आपके चरणकमल की रज से वसुन्धरा पावन तथा धन्य हुई हैं; आपके परमपद चले जाने पर यह शून्य हो जायेगी।
- इस पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पचीस वर्ष बीत गये।
- "यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् ।
- त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ।। १८ ।।
- ब्रह्म वैवर्त पुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड अध्याय-129
- विरहातुरा रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने धाम को पधार रहे हैं।
- कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
- गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥
- कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
- अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२ ॥
- देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
- वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।
- "राजोवाच
- किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
- सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
- कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
- वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
- निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
- नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।
- श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
- चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।
- ("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)
- स्कन्ध 4, अध्याय 3 -
- वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
- "देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः ०४
- दित्या अदित्यै शापदानम्
- "व्यास उवाच
- कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
- सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥
- वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
- देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥
- एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
- याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥
- वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
- प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥
- किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
- शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥
- भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
- यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥
- मृतवत्सादितिस्तस्माद्भविष्यति धरातले ।
- कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥
- "व्यास उवाच
- तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
- समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥
- कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
- हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥
- जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
- कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥
- अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
- लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥
- कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
- सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥
- धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
- वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥
- संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
- कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥
- ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
- मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥
- अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
- भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
- "व्यास उवाच
- एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
- अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
- तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् ।
- जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥
- "जनमेजय उवाच
- कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने ।
- कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥
- "सूत उवाच
- पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः ।
- राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥
- "व्यास उवाच
- राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे ।
- कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥
- अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् ।
- तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥
- पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद ।
- इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥
- तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते ।
- व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥
- सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् ।
- निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥
- भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा ।
- पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥
- एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् ।
- शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।
- मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः ।
- दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।
- इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी ।
- शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥
- उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च ।
- उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥
- वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्नीभावमास्थिताम् ।
- दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥
- राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्रिपुः ।
- तस्मादङ्कुरितं हन्याद्बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥
- लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम ।
- येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥
- सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः ।
- दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।
- "व्यास उवाच
- श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः ।
- जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥
- ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप ।
- प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥
- "इन्द्र उवाच
- मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला ।
- सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥
- पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते ।
- गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥
- न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल ।
- इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥
- संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना ।
- श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।
- तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् ।
- रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥
- उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै ।
- गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥
- रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा ।
- मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥
- शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च ।
- तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥
- तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् ।
- इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥
- भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा ।
- अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥
- यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना ।
- तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥
- यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः ।
- अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥
- तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः ।
- कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।
- अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति ।
- "व्यास उवाच
- इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥
- उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव ।
- मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥
- भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः ।
- शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥
- अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी ।
- वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥
- उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति ।
- "व्यास उवाच
- पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥
- नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी ।
- इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥
- अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
- इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
- ↑ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२
- हिन्दी अनुवाद:-
- व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥
- अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
- एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
- तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
- हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
- व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
- हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
- अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
- महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
- शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
- संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥
- अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
- व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
- उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
- जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥
- सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥
- व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही | कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥
- जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥
- उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥
- तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥
- कश्यपमुनिकी बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओजसे सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रताका सदा ध्यान रखती थी। इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥
- [उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दितिके | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥
- इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
- मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥
- जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥
- हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कीलके समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।
- व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।
- इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।
- मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।
- पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥
- दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥
- इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥
- उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
- शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥
- तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥
- उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥
- यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और | मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी। अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥
- व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने | दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल | होगा। उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी। इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥
- व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
- जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम-
- किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द कृषाण से हुई है।
- वाचस्पत्यम् के अनुसार :
- कृषाण- त्रि॰ कृष—वा॰ आनक्। कर्षके कृषिशब्दे उदा॰
- आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार :
- कृषाण¦ कृष्-आनक्-किकन् वा
- जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है।
- इसकी मूल धातु कृष् है (उणादि कृषति-ते, कृष्ट), इससे खीचने अथवा आकर्षित करने (यथा : हस्ताभ्यां नश्यद्क्राक्षीद्), हल चलाने, घसीटने, मोड़ना (यथा : नात्यायतकृष्टशार्ङ्गः), उखाड़ना, बल पूर्वक नियन्त्रण करना (यथा : बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति), नेतृत्व करने (विशेषकर सेना का नेतृत्व यथा "स सेनां महतीं कर्षन्"), प्राप्त करना (यथा : कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यशः), छीनने, कष्ट अथवा वेदना देने, खुरचने (यथा : सुवीरकं याच्यमाना मद्रिका कर्षति स्फिचौ), फाड़ देने (यथा : प्रसह्य सिंहः किल तांचकर्ष) आदि अर्थों में प्रयुक्त शब्दों को रचा जाता है। — लिखते हुए किसान आन्दोलन की नेतागिरी और हिंसा का कारण इस शब्द के मूल में दिखने लगा है।
- कृष् का मूल फिर भी कृषि को ही मानते हैं। जैसे श्रीमद्भागवत से :
- ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्गलैः ।
- कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयां चक्रिरे नृपम् ॥
- — श्रीमद्भागवत १.७४.१२
- Proto-Indo-European-
- Root-
- *kʷels-[1][2]
- to pull, drag
- to turn
- Related termsedit
- *kʷel-
- Descendantsedit
- Proto-Indo-Iranian:
- Proto-Indo-Aryan:
- Sanskrit: कृष् (kṛṣ)
- Derived termsedit
- *kʷéls-e-ti (root present)
- Hittite: gulsanzi (“to scratch, tear”)
- Proto-Indo-Iranian: *káršati
- Proto-Iranian:
- Avestan: 𐬐𐬀𐬭𐬱𐬀𐬌𐬙𐬌 (karšaiti)
- Persian: کشیدن (kašidan)
- Proto-Indo-Aryan: *kárṣati
- Sanskrit: कर्षति (karṣati, “draw, pull, drag”)[3]
- References-
- ^ Rix, Helmut, editor (2001), “kʷels-”, in Lexikon der indogermanischen Verben [Lexicon of Indo-European Verbs] (in German), 2nd edition, Wiesbaden: Dr. Ludwig Reichert Verlag, →ISBN, pages 388
- ^ Pokorny, Julius (1959), “639”, in Indogermanisches etymologisches Wörterbuch [Indo-European Etymological Dictionary] (in German), volume 2, Bern, München: Francke Verlag, page 639
- ^ Monier Williams (1899), “kṛṣ-”, in A Sanskrit–English Dictionary, […], new edition, Oxford: At the Clarendon Press, →OCLC, page 0306.
- यह एक भारोपीय मूल का शब्द है। इसका मूल शब्द *kʷéls-e-ti (खीँचना, घसीटना) परिकल्पित है। इसके बन्धु शब्द यह हैं :
- अवेस्तन : 𐬐𐬀𐬭𐬱𐬀𐬌𐬙𐬌 (कर्शति)
- फ़ारसी : کشیدن (केशिदान)
- आर्मेनियन : քարշ (कर्श)
- सन्दर्भ :—
- आप्ते का संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष
- विक्शनरी
- वाचस्पत्यम्
- कृषि की रोमन देवी कौन है?
- सेरेस कृषि की रोमन देवी हैं। वह उर्वरता, गेहूं और मातृ प्रेम की देवी भी हैं। उसका ग्रीक समकक्ष डेमेटर है।
- सेरेस नाम का अर्थ क्या है? फसल की रोमन देवी का नाम प्रोटो-इटैलिक शब्द, keres से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'अनाज के साथ'। यह उर्वरता, फसल, गेहूं और कृषि की देवी के रूप में उनकी भूमिका से जुड़ा है। उसके नाम से, हमें 'अनाज' शब्द मिलता है। अंग्रेजी में, जिसका उपयोग अभी भी गेहूं और अनाज आधारित नाश्ते के भोजन का वर्णन करने के लिए दैनिक रूप से किया जाता है।
- The name Cerēs stems from Proto-Italic *kerēs it's mean ('with grain, Ceres'; cf.
- Faliscan ceres,
- Oscan kerrí 'Cererī' < *ker-s-ēi- < *ker-es-ēi-), ultimately from Proto-Indo-European *ḱerh₃-os ('nourishment, grain'),
- a derivative of the root *ḱerh₃-, meaning 'to feed'.
- The Proto-Italic adjective *keresjo- ('belonging to Ceres') can also be reconstructed from Oscan kerríiúí (fem. kerríiai),
- and Umbrian śerfi (fem. śerfie).
- A masculine form *keres-o- ('with grain, Cerrus') is attested in Umbrian śerfe. The spelling of Latin Cerus, a masculine form of Ceres denoting the creator (cf. Cerus manus 'creator bonus', duonus Cerus 'good Cerus'), might also reflect Cerrus, which would match the other Italic forms.
- सेरेस नाम प्रोटो-इटैलिक *केरेस से निकला है, इसका मतलब है ('अनाज के साथ, सेरेस'; सीएफ।
- त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
- कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः॥७॥
- यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
- सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।८।
- कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः।
- क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।
- श्रीनारद उवाच -
- श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः।
- तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह। २७।
- श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
- हरिपरीक्षणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६ ॥
- हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
- श्रीभगवान कहा – बाबा ! हम सारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं, अत: हमने खेत में मोती के बीज बिखेर दिये हैं ।
- इस प्रकार श्रीगर्ग-संहितामें गिरिराज खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व–संवाद में ‘श्रीहरिकी भगवक्ता का परीक्षण’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ।
- त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
- कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥ ७ ॥
- विकिस्रोतः
- अन्विष्यताम्
- चेतावनियाँ (4)
- गर्गसंहिता/खण्डः ३ (गिरिराजखण्डः)/अध्यायः ०६
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- गिरिराजखण्ड - षष्ठोऽध्यायः
- गोपकृत कृष्णविभूतिपरीक्षा -
- श्रीनारद उवाच -
- वृषभानुवरस्येदं वचःश्रुत्वा व्रजौकसः।
- ऊचुः पुनः शान्तिगता विस्मिता मुक्तसंशयाः ॥ १ ॥
- गोपा ऊचुः -
- समीचीनं वरो राजन् राधेयं तु हरिप्रिया ।
- तत्प्रभावेण ते दीर्घं वैभवं दृश्यते भुवि ॥ २ ॥
- सहस्रशो गजा मत्ताः कोटिशोऽश्वाश्च चंचलाः ।
- रथाश्च देवधिष्ण्याभाः शिबिकाः कोटिशः शुभाः ॥ ३ ॥
- कोटिशः कोटिशो गावो हेमरत्नमनोहराः ।
- मन्दिराणी विचित्राणि रत्नानि विविधानि च ॥ ४ ॥
- सर्वं सौख्यं भोजनादि दृश्यते साम्प्रतं तव ।
- कंसोऽपि धर्षितो जातो दृष्ट्वा ते बलमद्भुतम् ॥ ५ ॥
- कान्यकुब्जपतेः साक्षाद्भलन्दननृपस्य च ।
- जामाता त्वं महावीर कुबेर इव कोशवान् ॥ ६ ॥
- त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
- कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥ ७ ॥
- यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
- सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो ॥ ८ ॥
- श्रीनारद उवाच -
- तेषां वाक्यं ततः श्रुत्वा वृषभानुवरो महान् ।
- चकार नन्दराजस्य वैभवस्य परीक्षणम् ॥ ९ ॥
- कोटिदामानि मुक्तानां स्थूलानां मैथिलेश्वर ।
- एकैका येषु मुक्ताश्च कोटिमौल्याः स्फुरत्प्रभाः ॥ १० ॥
- निधाय तानि पात्रेषु वृणानैः कुशलैर्जनैः ।
- प्रेषयामास नन्दाय सर्वेषां पश्यतां नृप ॥ ११ ॥
- नन्दराजसभां गत्वा वृणानाः कुशला भृशम् ।
- निधाय दामपात्राणि नन्दमाहुः प्रणम्य तम् ॥ १२ ॥
- वृणाना ऊचुः -
- विवाहयोग्यां नवकंजनेत्रां
- कोटीन्दुबिम्बद्युतिमादधानाम् ।
- विज्ञाय राधां वृषभानुमुख्य-
- श्चक्रे विचारं सुवरं विचिन्वन् ॥ १३ ॥
- तवांगजं दिव्यमनंगमोहनं
- गोवर्द्धनोद्धारणदोःसामुद्भटम् ।
- संवीक्ष्य चास्मान्वृषभानुवंदितः
- संप्रेषयामास विशाम्पते प्रभो ॥ १४ ॥
- वरस्य चांके भरणाय पूर्वं
- मुक्ताफलानां निचयं गृहाण ।
- इतश्च कन्यार्थमलं प्रदेहि
- सैषा हि चास्मत्कुलजा प्रसिद्धिः ॥ १५ ॥
- श्रीनारद उवाच -
- दृष्ट्वा द्रव्यं परो नन्दो विस्मितोऽपि विचारयन् ।
- प्रष्टुं यशोदां तत्तुल्यं नीत्वा चान्तःपुरं ययौ ॥ १६ ॥
- चिरं दध्यौ तदा नन्दो यशोदा च यशस्विनी ।
- एतन्मुक्तासमानं तु द्रव्यं नास्ति गृहे मम ॥ १७ ॥
- लोके लज्जा गता सर्वा हासः स्याच्चेद्धनोद्धृतम् ।
- किं कर्तव्यं तत्प्रति यच्छ्रीकृष्णोद्वाहकर्मणि ॥ १८ ॥
- ततोऽयोग्यं तद्ग्रहणं पश्चात्कार्यं धनागमे ।
- एवं चिन्तयतस्तस्य नन्दस्यैव यशोदया ॥ १९ ॥
- अलक्ष्य आगतस्तत्र भगवान्वृजिनार्दनः ।
- नीत्वा दामशतं तेषु बहिःक्षेत्रेषु सर्वतः ॥ २० ॥
- मुक्ताफलानि चैकैकम्प्राक्षिपत्स्वकरेण वै ।
- यथा बीजानि चान्नानां स्वक्षेत्रेषु कृषीवलः ॥ २१ ॥
- अथ नन्दोऽपि गणयन् कलिकानिचयं पुनः ।
- शतं न्यूनं च तद्दृष्ट्वा सन्देहं स जगाम ह ॥ २२ ॥
- श्रीनन्द उवाच -
- नास्ति पूर्वं यत्समानं तत्रापि न्यूनतां गतम् ।
- अहो कलंको भविता ज्ञातिषु स्वेषु सर्वतः ॥ २३ ॥
- अथवा क्रीडनार्थ हि कृष्णो यदि गृहीतवान् ।
- बलदेवोऽथवा बालस्तौ पृच्छे दीनमानसः ॥ २४ ॥
- श्रीनारद उवाच -
- इत्थं विचार्य नन्दोऽपि कृष्णं पप्रच्छ सादरम् ।
- प्रहसन् भगवान्नन्दं प्राह गोवर्धनोद्धरः ॥ २५ ॥
- श्रीभगवानुवाच -
- कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
- क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥ २६ ॥
- श्रीनारद उवाच -
- श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः ।
- तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह ॥ २७ ॥
- तत्र मुक्ताफलानां तु शाखिनः शतशः शुभाः ।
- दृश्यन्ते दीर्घवपुषो हरित्पल्लवशोभिताः ॥ २८ ॥
- मुक्तानां स्तबकानां तु कोटिशः कोटिशो नृप ।
- संघा विलंबिता रेजुर्ज्योतींषीव नभःस्थले ॥ २९ ॥
- तदाऽतिहर्षितो नन्दो ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
- मुक्ताफलानि दिव्यानि पूर्वस्थूलसमानि च ॥ ३० ॥
- तेषां तु कोटिभाराणि निधाय शकटेषु च ।
- ददौ तेभ्यो वृणानेभ्यो नन्दराजो व्रजेश्वरः ॥ ३१ ॥
- ते गृहीत्वाऽथ तत्सर्वं वृषभानुवरं गताः ।
- सर्वेषां शृण्वतां नन्दवैभवं प्रजगुर्नृप ॥ ३२ ॥
- तदाऽतिविस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा नन्दसुतं हरिम् ।
- वृषभानुवरं नेमुर्निःसन्देहा व्रजौकसः ॥ ३३ ॥
- राधा हरेः प्रिया ज्ञाता राधायाश्च प्रियो हरिः ।
- ज्ञातो व्रजजनैः सर्वैस्तद्दिनान्मैथिलेश्वर ॥ ३४ ॥
- मुक्ताक्षेपः कृतो यत्र हरिणा नन्दसूनुना ।
- मुक्तासरोवरस्तत्र जातो मैथिल तीर्थराट् ॥ ३५ ॥
- एकं मुक्ताफलस्यापि दानं तत्र करोति यः ।
- लक्षमुक्तादानफलं समाप्नोति न संशयः ॥ ३६ ॥
- एवं ते कथितो राजन् गिरिराजमहोत्सवः ।
- भुक्तिमुक्तिप्रदो नॄणां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३७ ॥
- इति श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
- हरिपरीक्षणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
- हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
- गिरिराजखण्ड : अध्याय 6
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- गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके नन्दनन्दन की भगवत्ता परीक्षण करने के लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवर का कन्या के विवाह के लिये वर को देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्कित-हार भेजना तथा श्रीकृष्ण की कृपा से नन्दराज का वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्किकराशि भेजना
- श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! वृषभानुवर की यह बात सुनकर समस्त व्रजवासी शांत हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मन में बडा़ विस्मय हुआ ।
- गोप बोले - राजन ! तुम्हारा कथन सत्य है। निश्चय ही राधा श्रीहरि की प्रिया है। इसी के प्रभाव से भूतल पर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चंचल घोडे़ तथा देवताओं के विमान-सदृश करोडो़ सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं, सुवर्ण तथा रत्नों के आभूषणों से विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकार के मणिरत्न, भोजन-पान आदि का सर्वविध सौख्य-यह सब इस समय तुम्हारे घर में प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है।
- महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देश के स्वामी साक्षात् राजा भलन्दन के जामाता हो तथा कुबेर के समान कोषाधिपति। तुम्हारे समान वैभव नन्दराज के घर में कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदय वाले हैं। प्रभो ! यदि नन्द के पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके समान सामने नन्द के वैभव की परीक्षा कराइये ।
- श्रीनारदजी कहते हैं - राजन ! उन गोपों की बात सुनकर महान वृषभानुवर ने नन्दराज के वैभव की परीक्षा की। मैथिलेश्वर ! उन्होंने स्थूल मोतियों के एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्रा के मोल पर मिलने वाला था और उन सबकी प्रभा दूर तक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रों में रखकर बडे कुशल वर-वरणकारी लोगों द्वारा सब गोपों के देखते-देखते वृषभानुवर ने नन्दराज जी के यहाँ भेजा। नन्दराज की सभा में जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगों ने मौक्किक-हारों के पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा ।
- यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
- सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो। ८।
- कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
- क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम्।२६।
- श्रीनारद उवाच -
- श्रुत्वाथ स्वात्मजेनोक्तं तं निर्भर्त्स्य व्रजेश्वरः ।
- तानि नेतुं तत्सहितस्तत्क्षेत्राणि जगाम ह ॥ २७ ॥
- श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
- हरिपरीक्षणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
- हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
- श्रीभगवान कहा – बाबा ! हम सारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं, अत: हमने खेत में मोती के बीज बिखेर दिये हैं ।
- श्रीनारदजी कहते हैं – राजन ! बेटे के मुंह से यह बात सुनकर व्रजेश्वर नन्द ने उस डाँट बतायी और उन सबको चुन-बीनकर लाने के लिये उसके साथ खेतों में गये। वहाँ मुक्ताफल के सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे पल्लवों से सुशोभित और विशालयकाय थे। नरेश्र ! जैसे आकाश में झुंड के झुंड तारे शोभा पाते हैं, उसी प्रकार उन वृक्षों में कोटि-कोटि मुक्ताफल के गुच्छे समूह के समूह लटके हुए सुशोभित हो रहे थे। तब हर्ष से भरे हुए व्रजेश्वर नन्दराज ने श्रीकृष्ण को परमेश्वर जानकर पहले के समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षों से तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार गाडि़यों पर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओं को दे दिये। नरेश्वर ! वह सब लेकर वे वरदर्शी लोग वृषभानुवर के पास गये ओर सबके सुनते हुए नन्दराज के अनुपम वैभव का वर्णन करने लगे ।
- उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द-नन्दन को साक्षात श्रीहरि जानकर समस्त व्रजवासियों का संशय दूर हो गया और उन्होने वृषभानुवर को प्रणाम किया। मिथिलेश्वर ! उसी दिन से व्रज के सब लोगों ने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरि की प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधा के प्राणवल्लभ हैं। मिथिलापते ! जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरि ने मोती बिखेरे थे, वहाँ ‘मुक्ता-सरोवर’ प्रकट हो गया, जो तीर्थों का राजा है। जो वहाँ एक मोती का भी दान करता है, वह लाख मोतियों के दान का फल पाता है, इसमें संशय नहीं है। राजन ! इस प्रकार मैंने तुमसे गिरिराज-महोत्सव का वर्णन किया, जो मनुष्यों के लिये भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
- इस प्रकार श्रीगर्ग-संहितामें गिरिराज खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व–संवाद में ‘श्रीहरिकी भगवक्ता का परीक्षण’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ।
- श्लोक 3.6.1 का अंग्रेजी अनुवाद:
- श्री नारद ने कहा: राजा वृषभानु के वचन सुनने के बाद, व्रज के आश्चर्यचकित लोग शांत और सभी संदेहों से मुक्त हो गए।
- श्लोक 3.6.7 का अंग्रेजी अनुवाद:
- राजा नन्द के घर में भी आपके समान धन और ऐश्वर्य नहीं है।
- बृषभानु और नन्द का संवाद:-
- श्लोक 3.6.6 का अंग्रेजी अनुवाद:
- आप कान्यकुब्ज के शासक राजा भलन्दन के दामाद हैं। आप कुवेरा के समान धनवान हैं।
- श्लोक 3.6.2 का अंग्रेजी अनुवाद:
- श्लोक 3.6.2 का अंग्रेजी अनुवाद:
- गोपों ने कहा: हे राजन, आप सत्य कहते हैं। राधा भगवान हरि की प्रिय हैं. उनकी शक्तियों ने आपको इस संसार में ऐश्वर्यशाली और गौरवशाली बना दिया है।
- कृषक राजा नन्द, जो बहुत सी गायों के स्वामी हैं, आपकी अपेक्षा दरिद्र हृदय के हैं।
- आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर ही थे । उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था ।
- जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।_
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- संस्कृत भाषा मे "आरा" और "आरि" शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है।
- सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
- अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।
- यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
- "ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।
- विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
- इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
- आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।
- पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है।
- फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
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- फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
- प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य)ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
- कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
- गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम)
- दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।
- कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)
- कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
- मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83
- अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है ।
- अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
- इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है। ___________
- क : पुनर् आर्य निवास: ?
- आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।
- ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर आदि -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)
- निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
- जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते विधान निश्चित किया है।
- दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
- दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवाकरे विना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे ।।११।
- (नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11वाँ श्लोक)
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- परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है।
- इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
- इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
- परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के
- फिर भी व्यास स्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। को शूद्र धर्मी न कहते !
- सायद यही कारण है ।
- किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
- और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
- दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है ।
- किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में !
- परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !और कोई मूल्य नहीं !
- फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाले और अन्तत: वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
- पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे
- यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।
- परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में यह वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
- किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
- किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।
- "रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।
- वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।
- १-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।
- (आर्य' और 'वीर' शब्दों का विकास)
- परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
- कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम् ॥शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28॥
- (गरुड़ पुराण)
- श्रीगारुजे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥
- कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ।
- यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .
- जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे ।
- उसी प्रक्रिया के तहत बाद में ग्राम शब्द (पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया ।
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- ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् )प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
- इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
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- यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है ।
- हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
- श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
- कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
- कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
- वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
- पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
- Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है
- 'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । '
- पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
- "प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है ।
- वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि रूपों में परिभाषित हुआ दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।
- श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
- नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है । पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है । आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है। पूर्व वैदिक काल का अरि का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ।
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