गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम गोविल है जो गोलोक से अवतरित होकर आनर्त (गुजरात)देश में निवास करते थे क्योंकि यह गायों के निवास करने का स्थान है।
गोविल- और गोविला- नाम उनके गायों से सम्बन्धित गौलोकीय अवधारणा को पुष्ट करते हैं।
ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के पश्चात यह अपना प्रथम यज्ञ सत्र प्रारम्भ किया था। जिसमें अपने द्वारा उत्पन्न चारों वर्णो के लोग देवगण सप्तर्षि
आदि आमन्त्रित किए थे। परन्तु ब्रह्मा के इस यज्ञ समारोह में गोपगण नहीं थे। क्योंकि गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं । ये मनुष्य गण गोलोक में ही स्वराट विष्णु ( द्विभुज धारी) कृष्ण के लोम(रोम) कूपों से उत्पन्न हैं। स्वयं गायत्री की उत्पत्ति गोलोक में हुई है।
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे।
स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
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गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।
"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
अनुवाद:-
तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।
ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
"सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे । उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे
सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के दित्तीय चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना
अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
गायत्री के माता-पिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चतुर्यवर्ण सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
गायत्री की उत्पत्ति भी गोलोक में हुयी है। देखें कृष्ण से गायत्री की उत्पत्ति सभी नाम गो मूलक हैं।
गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि -
पृथ्वी पक गायत्री का आगमन गे लोक से हीन हुआ था।
पुरुरवा भी गायत्री उपासक के रूप में प्रचीन है।
उसके गोष और गोपाल विशेषण भी हैं ।
📚: गोलोक से भूलोक तक "पञ्चम वर्ण गोपों की सृष्टि -
"गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग व विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं।
इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का थे
दोनों का सम्बन्ध गो तथा गोलोक से है।
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
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हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।
"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
अनुवाद:-
तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।
ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
"सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे ।
उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
(श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे)
सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है।
जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के प्रथम चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं।
अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना
अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
गायत्री के मातापिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चतुर्यवर्ण सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
गायत्री की उत्पत्ति भी गोलोक में हुयी है। देखें कृष्ण से गायत्री की उत्पत्ति सभी नाम गो मूलक हैं।
गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि -
पृथ्वी पर गायत्री का आगमन गोलोक से ही हुआ था।
________________
गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय- (3) इस अध्याय में विष्णु के सभी अवतारों का विलय भगवान श्री कृष्ण में अपनी शक्ति के अनुरूप शरीर के विशेष
स्थानों में होता है।
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।
वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
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तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥ ६ ॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥ ७ ॥
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥ ६ ॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥ ७ ॥
श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अनुवाद:-
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे।
वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे।
उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे।
उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
गर्गसंहिता/खण्डः(१) (गोलोकखण्डः)
अध्यायः (१)
"गर्गसंहिता-खण्डः १-(गोलोकखण्डः)अध्यायः २ →
गर्गमुनिः श्रीकृष्ण-माहात्म्य वर्णन-
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ।१५।
श्रीनारद उवाच -
"अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम्।१६।
अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः।१७।
पूर्णो नृसिंहो रामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ।१९।
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः।२०।
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः ।
नानाऽऽवेषावतारांश्च विद्धि राजन्महामते ॥२१॥
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२ ॥
चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥ २४ ॥
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह।२६।
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
______________
'श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
"श्रीबहुलाश्व उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते ॥ २९ ॥
तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने ॥ ३० ॥
यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
तदा सत्सङ्गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः ॥ ३१ ॥
श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः ।
यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥ ३२ ॥
धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥ ३३ ॥
त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥ ३४
गर्गसंहिता/खण्डः (१) (गोलोकखण्डः) अध्यायः (१)
"गर्गसंहिता | खण्डः १ (गोलोकखण्डः)
गर्गसंहिता
गोलोकखण्डः
गर्गमुनिः अध्यायः २ →
श्रीकृष्ण-माहात्म्य वर्णनम्
ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥
शरद्विकचपङ्कजश्रियमतीवविद्वेषकं
मिलिन्दमुनिसेवितं कुलिशकंजचिह्नावृतम् ।
स्फुरत्कनकनूपुरं दलितभक्ततापत्रयं
चलद्द्युतिपदद्वयं हृदि दधामि राधापतेः॥२॥
वदनकमलनिर्यद्यस्य पीयूषमाद्यं
पिबति जनवरो यं पातु सोऽयं गिरं मे ।
बदरवनविहारः सत्यवत्याः कुमारः
प्रणतदुरितहारः शाङ्र्गधन्वावतारः ॥ ३ ॥
कदाचिन्नैमिषारण्ये श्रीगर्गो ज्ञानिनां वरः ।
आययौ शौनकं द्रष्टुं तेजस्वी योगभास्करः ॥४॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय शौनको मुनिभिः सह ।
पूजयामास पाद्याद्यैरुपचारैर्विधानतः ॥५॥
श्रीशौनक उवाच -
सतां पर्यटनं धन्यं गृहिणां शान्तये स्मृतम् ।
नृणामन्तस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥ ६ ॥
तस्मान्मे हृदि सम्भूतं संदेहं नाशय प्रभो ।
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ॥ ७ ॥
श्रीगर्ग उवाच -
साधु पृष्टं त्वया ब्रह्मन् भगवद्गुणवर्णनम् ।
शृण्वतां गदतां यद्वै पृच्छतां वितनोति शम् ॥ ८ ॥
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महादोषः प्रशाम्यति ॥ ९ ॥
मिथिलानगरे पूर्वं बहुलाश्वः प्रतापवान् ।
श्रीकृष्णभक्तः शान्तात्मा बभूव निरहङ्कृतिः॥१०।
अम्बरादागतं दृष्ट्वा नारदं मुनिसत्तमम् ।
सम्पूज्य चासने स्थाप्य कृताञ्जलिरभाषत ॥११
श्री-बहुलाश्व उवाच -
योऽनादिरात्मा पुरुषो भगवान्प्रकृतेः परः ।
कस्मात्तनुं समाधत्ते तन्मे ब्रूहि महामते ॥ १२ ॥
श्रीनारद उवाच -
गोसाधुदेवताविप्रदेवानां रक्षणाय वै ।
तनुं धत्ते हरिः साक्षाद्भगवानात्मलीलया ॥ १३ ॥
यथा नटः स्वलीलायां मोहितो न परस्तथा ।
अन्ये दृष्ट्वा च तन्मायां मुमुहुस्ते न संशयः।१४।
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ॥ १५ ॥
श्रीनारद उवाच -
अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ १६।
________
अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
पूर्णो नृसिंहो बलरामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः ।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते।१९।
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥ २० ॥
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः।
नानाऽऽवेशावतारांश्च विद्धि राजन्महामते।२१।
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२ ॥
चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४ ॥
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ २६।
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते ॥ २९ ॥
तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने ॥ ३० ॥
यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
तदा सत्सङ्गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः ॥ ३१ ॥
श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः।
यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥ ३२ ॥
धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥ ३३ ॥
त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥ ३४ ॥
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे कृष्णमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
अनुवाद :-
अथ- श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे कृष्णमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
श्रीजनक( बहुलाश्व) बोले- महामते ! जो भगवान अनादि, प्रकृति से परे और सबके अंतर्यामी ही नहीं, आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं? (जो सर्वत्र व्यापक है, वह शरीर से परिच्छिन्न कैसे हो सकता है? ) यह मुझे बताने की कृपा करें।
नारदजी ने कहा- गौ, साधु, देवता, ब्राह्मण और वेदों की रक्षा के लिये साक्षात भगवान श्रीहरि अपनी लीला से शरीर धारण करते हैं। [अपनी अचिंत्य लीलाशक्ति से ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं। उनका वह शरीर प्राकृत नहीं, चिन्मय है।]
जैसे नट अपनी माया से मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोह में पड़ जाते हैं, वैसे ही अन्य प्राणी भगवान की माया देखकर मोहित हो जाते हैं, किंतु परमात्मा मोह से परे रहते हैं- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।
श्रीजनकजी ने पूछा- मुनिवर ! संतों की रक्षा के लिये भगवान विष्णु के कितने प्रकार के अवतार होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीनारदजी बोले- राजन !
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व्यास आदि मुनियों ने १-अंशांश, २-अंश, ३-आवेश, ४-कला, ५-पूर्ण और ६-परिपूर्णतम- ये छ: प्रकार के अवतार बताये हैं।
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इनमें से छठा परिपूर्णतम अवतार साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं।
मरीचि आदि “अंशांशावतार”( अंश के अंश अवतरित-) , ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार’, कपिल एवं कूर्म प्रभृति ‘कलावतार’ और परशुराम आदि ‘आवेशावतार’ कहे गये हैं।
नृसिंह, बलराम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर नारायण- ये सात ‘पूर्णावतार’ हैं।
एवं साक्षात भगवान भगवान श्रीकृष्ण ही एक ‘परिपूर्णतम’ अवतार हैं।
अंसख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोकधाम में विराजते हैं।
जो भगवान के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्र के अधिकार का पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि ‘सत’ (सत्स्वरूप भगवान) के अंश हैं। रजोगुण के प्रतिनिधि हैं।
जो उन अंशों के कार्यभार में हाथ बटाते हैं, वे ‘अंशांशावतार’ के नाम से विख्यात हैं।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
यह अवतार उसी प्रकार का हैं जैसे किसी व्यक्ति पर कुछ समय तक कोई भूत या प्रेत प्रवेश कर उसको उत्तेजित या उन्मादी बना देता है। यह स्थाई नहीं होता है। परशुराम पर भी इसी प्रकार उन्माद आवेश आता था
आवेश:- वेग - आतुरता - जोश- दौरा-।
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श्रीनारद उवाच -
अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ १६।
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अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
पूर्णो नृसिंहो बलरामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः ।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते।१९।
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥ २० ॥
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः।
नानाऽऽवेशावतारांश्च विद्धि राजन्महामते ।२१।
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२ ॥
चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४ ॥
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ २६।
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
गोलोक खण्ड : अध्याय 1
जो प्रत्येक युग में प्रकट हो, युगधर्म को जानकर, उसकी स्थापना करके, पुन: अंतर्धान हो जाते हैं, भगवान के उन अवतारों को ‘कलावतार’ कहा गया है।
जहाँ चार व्यूह प्रकट हों- जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, तथा जहाँ नौ रसों की अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रम की भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान के उस अवतार को ‘पूर्णावतार’ कहा गया है।
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जिसके अपने तेज में अन्य सम्पूर्ण तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान के उस अवतार को श्रेष्ठ विद्वान पुरुष साक्षात ‘परिपूर्णम’ बताते हैं। जिस अवतार में पूर्ण का पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक-पृथक भाव के अनुसार अपने परम प्रिय रूप में देखते हैं, वही यह साक्षात ‘परिपूर्णतम’ अवतार है।
[इन सभी लक्षणों से सम्पन्न] स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं,।
दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्यों का सम्पादन किया है।
जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणों के आकार भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ।
यह सुनकर राजा हर्ष से भर गये।
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उनके शरीर में रोमांच हो आया। वे प्रेम से विह्वल हो गये और अश्रुपूर्ण नेत्रों को पोंछकर नारदजी से यों बोले। राजा बहुलाश्व ने पूछा- महर्षे ! साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सर्वव्यापी चिन्मय गोलोकधाम से उतरकर जो भारत वर्ष के अंतर्गत द्वारकापुरी में विराज रहे हैं-
इसका क्या कारण है ? ब्रह्मन ! उन भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर बृहत (विशाल या ब्रह्म स्वरूप) गोलोकधाम का वर्णन कीजिये। महामुने ! साथ ही उनके अपरिमेय कार्यों को भी कहने की कृपा कीजिये। मनुष्य जब तीर्थ यात्रा तथा सौ जन्मों तक उत्तम तपस्या करके उसके फलस्वरूप सत्संग का सुअवसर पाता है, तब वह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को शीघ्र प्राप्त कर लेता है। कब मैं भक्ति रस से आर्द्रचित्त हो मन से भगवान श्रीकृष्ण के दास का भी दासानुदास होऊँगा ? जो सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी दुर्लभ हैं, वे परब्रह्म परमात्मा आदिदेव भगवान श्रीकृष्ण मेरे नेत्रों के समक्ष कैसे होंगे?
श्रीनारद जी बोले- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के अभीष्ट जन हो और उन श्रीहरि के परम प्रिय भक्त हो। तुम्हें दर्शन देने के लिये ही वे भक्त वत्सल भगवान यहाँ अवश्य पधारेंगे। ब्रह्मण्यदेव भगवान जनार्दन द्वारका में रहते हुए भी तुम्हें और ब्राह्मण श्रुतदेव को याद करते रहते हैं। अहो ! इस लोक में संतों का कैसा सौभाग्य है
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अन्तदर्गत नारद- बहुलाश्व् संवाद में ‘श्रीकृष्णम माहातमय का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 3
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
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"तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६॥
"दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे
असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने।७।
'लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह ।८।
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अनुवाद:-
तभी साक्षात्- कमल लोचन श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे।६।
उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरन्तर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।७।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।८।
विदित होना चाहिए कि राम और कृष्ण की किसी प्रकार भी समानता नहीं है।कृष्ण समुद्र हैं तो राम बूँद हैं।
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फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
राम कहाँ 12 कलाओं से अवतार लेते हैं और कृष्ण16 कलाओं से पूर्ण परमेश्वर स्वरूप में हैं। राम बूँद हैं तो कृष्ण समुद्र है।
गोलोक खण्ड : अध्याय 3
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी (बहुलाश्व) ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।
उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था।
उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
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आवेश अवतार स्थाई नहीं होता है जिस प्रकार किसी पर देवी आ जातीऔर फिर तान्त्रिक के झाड़ -फूँक करने पर चली जाती है उसी प्रकार परशुराम पर भी ईश्वर की आवेशीय ऊर्जा आती हैऔर फिर चली जाती है।।
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