खण्ड 1, अध्याय 15-
पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आपके मुखसे यह सब प्रसंग मैंने सुना; अब पुष्कर क्षेत्रमें जो ब्रह्माजीका यज्ञ हुआ था, उसका वृत्तान्त सुनाइये। क्योंकि इसका श्रवण करनेसे मेरे शरीर [ और मन] की शुद्धि होगी। पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! भगवान् ब्रह्माजीपुष्कर क्षेत्रमें जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय जो-जो बातें हुईं उन्हें बतलाता हूँ सुनो। पितामहका यज्ञ आदि कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अंगिरा, मैं, पुलह, ऋतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास जाकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। धाता, अर्यमा,सविता, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, त्वष्टा, मित्र और पर्जन्य- आदि बारहों आदित्य भी वहाँ उपस्थित हो अपने जाज्वल्यमान तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। इन देवेश्वरोंने भी पितामहको प्रणाम किया। मृगव्याध, शर्व, महायशस्वी निर्ऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, विश्वेश्वर भव, कपर्दी, स्थाणु और भगवान् भग- ये ग्यारह रुद्र भी उस यज्ञमें उपस्थित थे। दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, महाबली मरुद्गण, विश्वेदेव और साध्य नामक देवता ब्रह्माजीके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े थे। शेषजीके वंशज वासुकि आदि बड़े-बड़े नाग भी विद्यमान थे। तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि, महाबली गरुड़, वारुणि तथा आरुणि-ये सभी विनताकुमार वहाँ पधारे थे। लोकपालक भगवान् श्रीनारायणने वहाँ स्वयं पदार्पण किया और समस्त महर्षियोंके साथ लोकगुरु ब्रह्माजीसे कहा - 'जगत्पते ! तुम्हारे ही द्वारा इस सम्पूर्ण संसारका विस्तार हुआ है, तुम्हींने इसकी सृष्टि की है; इसलिये तुम सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर हो। यहाँ हमलोगोंके करनेयोग्य जो तुम्हारा महान् कार्य हो, उसे करनेकी हमें आज्ञा दो।' देवर्षियोंके साथ भगवान् श्रीविष्णुने ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजीको नमस्कार किया।
ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु भी श्रीवत्स-चिह्नसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम परम पवित्र है। वे सर्वसमर्थ हैं, उनका वक्षःस्थल विशाल तथा श्रीविग्रह सम्पूर्ण तेजोंका पुंज जान पड़ता है। [देवताओं और ऋषियोंने उनकी इस प्रकार स्तुति की- ] जो पुण्यात्माओंको उत्तम गति और पापियोंको दुर्गति प्रदान करनेवाले हैं; योगसिद्ध महात्मा पुरुष जिन्हें उत्तम योगस्वरूप मानते हैं; जिनको अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य नित्य प्राप्त हैं; जिन्हें देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ कहा जाता है; मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले संयमी ब्राह्मण योगसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके जिन सनातन पुरुषको पाकर जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं; चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं तथा अनन्त आकाशजिनका विग्रह है; उन भगवान्की हम शरण लेते हैं। जो भगवान् सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले हैं, जो ऋषियों और लोकोंके स्रष्टा तथा देवताओंके ईश्वर हैं, जिन्होंने देवताओंका प्रिय और समस्त जगत्का पालन करनेके लिये चिरकालसे पितरोंको कव्य तथा देवताओंको उत्तम हविष्य अर्पण करनेका नियम प्रवर्तित किया हूँ उन देवश्रेष्ठ परमेश्वरको हम सादर प्रणाम करते हैं।
तदनन्तर वृद्ध एवं बुद्धिमान् देवता भगवान् श्रीब्रह्माजी यज्ञशालामें लोकपालक श्रीविष्णुभगवान्के साथ बैठकर शोभा पाने लगे। वह यज्ञमण्डप धन आदि सामग्रियों और ऋत्विजोंसे भरा था। परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णु धनुष हाथमें लेकर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। दैत्य और दानवोंके सरदार तथा राक्षसोंके समुदाय भी वहाँ उपस्थित थे। यज्ञ - विद्या, वेद-विद्या तथा पद और क्रमका ज्ञान रखनेवाले महर्षियोंके वेद-घोषसे सारी सभा गूँज उठी। यज्ञमें स्तुति-कर्मके जानकार, शिक्षाके ज्ञाता, शब्दोंकी व्युत्पत्ति एवं अर्थका ज्ञान रखनेवाले और मीमांसाके युक्तियुक्त वाक्योंको समझनेवाले विद्वानोंके उच्चारण किये हुए शब्द सबको सुनायी देने लगे। इतिहास और पुराणोंके ज्ञाता, नाना प्रकारके विज्ञानको जानते हुए भी मौन रहनेवाले, संयमी तथा उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले विद्वानोंने वहाँ उपस्थित होकर जप और होममें लगे हुए मुख्य-मुख्य ब्राह्मणोंको देखा। देवता और असुरोके गुरु लोकपितामह ब्रह्माजी उस यज्ञभूमिमें विराजमान थे। सुर और असुर दोनों ही उनकी सेवामें खड़े थे प्रजापतिगण दक्ष, वसिष्ठ, पुलह, मरीचि, अंगिरा, भृगु, अत्रि, गौतम तथा नारद-ये सब लोग यहाँ भगवान् ब्रह्माजीको उपासना करते थे। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, व्याकरण, छन्दःशास्त्र, निरुङ, कल्प, शिक्षा, आयुर्वेद, धनुर्वेद, मीमांसा, गणित, गजविद्या, अश्वविद्या और इतिहास इन सभी अंगोपांगोंसे विभूषित सम्पूर्ण वेद भी मूर्तिमान्होकर ओंकारयुक्त महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे। नय, क्रतु, संकल्प, प्राण तथा अर्थ, धर्म, काम, हर्ष, शुक्र, बृहस्पति संवर्त, बुध, शनैश्चर, राहु, समस्त ग्रह मरुद्गण, विश्वकर्मा, पितृगण, सूर्य तथा चन्द्रमा भी उद्याजीकी सेवामें उपस्थित थे। दुर्गम कष्टसे तारनेवाली गायत्री, समस्त वेद-शास्त्र, यम-नियम, सम्पूर्ण अक्षर, लक्षण, भाष्य तथा सब शास्त्र देह धारण करके वहाँ विद्यमान थे। क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास और सम्पूर्ण ऋतुएँ अर्थात् इनके देवता महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे।
इनके सिवा अन्यान्य श्रेष्ठ देवियाँ ह्री, कीर्ति, द्युति, प्रभा, धृति, क्षमा, भूति, नीति, विद्या, मति, श्रुति, स्मृति, कान्ति, शान्ति, पुष्टि, क्रिया, नाच-गानमें कुशल समस्त दिव्य अप्सराएँ तथा सम्पूर्ण देव माताएँ भी ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थीं। विप्रचित्ति, शिबि शंकु, केतुमान् प्रह्मद, बलि, कुम्भ, संहाद, अनुहाद, वृषपर्वा नमुचि, शम्बर, इन्द्रतापन, वातापि, केशी, राहु और वृत्र- ये तथा और भी बहुत-से दानव, जिन्हें अपने बलपर गर्व था, ब्रह्माजीकी उपासना करते हुए इस प्रकार बोले।
दानवोंने कहा- भगवन्! आपने ही हमलोगोंकी सृष्टि की है, हमें तीनों लोकोंका राज्य दिया है तथा देवताओंसे अधिक बलवान् बनाया है; पितामह! आपके इस यज्ञमें हमलोग कौन-सा कार्य करें ? हम स्वयं ही कर्तव्यका निर्णय करनेमें समर्थ हैं; अदिति के गर्भसे पैदा हुए इन बेचारे देवताओंसे क्या काम होगा; ये तो सदा हमारे द्वारा मारे जाते और अपमानित होते रहते हैं। फिर भी आप तो हम सबके ही पितामह हैं; अतः देवताओंको भी साथ लेकर यज्ञ पूर्ण कीजिये। यज्ञ समाप्त होनेपर राज्यलक्ष्मीके विषय हमारा देवताओंके साथ फिर विरोध होगा; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है, किन्तु इस समय हम चुपचाप इस यज्ञको देखेंगे-देवताओंके साथ युद्ध नहीं जेहेंगे।
पुलस्त्यजी कहते हैं- दानवोंके ये गर्वयुक्त वचन सुनकर इन्द्रसहित महायशस्वी भगवान् श्रीविष्णुनेशंकरजीसे कहा।
भगवान् श्रीविष्णु बोले प्रभो! पितामहके यक्ष प्रधान प्रधान दानव आये हैं। ब्रह्माजीने इनको भी इस यज्ञमें आमन्त्रित किया है। ये सब लोग इसमें विघ्न डालनेका प्रयत्न कर रहे हैं। परन्तु जबतक यज्ञ समाप्त न हो जाय तबतक हमलोगको क्षमा करना चाहिये। इस यज्ञके समाप्त हो जानेपर देवताओंको दानवोंके साथ युद्ध करना होगा। उस समय आपको ऐसा न करना चाहिये, जिससे पृथ्वीपर से दानवोंका नामो-निशान मिट जाय आपको मेरे साथ रहकर इन्द्रकी विजयके लिये प्रयत्न करना उचित है। इन दानवोंका धन लेकर राहगीरों, ब्राह्मणों तथा दुःखी मनुष्यों बाँट दें।
भगवान् श्रीविष्णुकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- 'भगवन्! आपकी बात सुनकर ये दानव कुपित हो सकते हैं; किन्तु इस समय इन्हें क्रोध दिलाना आपको भी अभीष्ट न होगा। अतः रुद्र एवं अन्य देवताओंके साथ आपको क्षमा करना चाहिये। सत्ययुगके अन्तमें जब यह यज्ञ समाप्त हो जायगा, उस समय मैं आपलोगोंको तथा इन दानवोंको विदा कर दूंगा; उसी समय आप सब लोग सन्धि या विग्रह, जो उचित हो, कीजियेगा।'
पुलस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर भगवान् ब्रह्माजीने पुनः उन दानवोंसे कहा- 'तुम्हें देवताओंके साथ किसी प्रकार विरोध नहीं करना चाहिये। इस समय तुम सब लोग परस्पर मित्रभावसे रहकर मेरा कार्य सम्पन्न करो।'
दानवोंने कहा - पितामह! आपके प्रत्येक आदेशका हमलोग पालन करेंगे। देवता हमारे छोटे भाई हैं, अतः उन्हें हमारी ओरसे कोई भय नहीं है।
दानवोंकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीको बड़ा सन्तोष हुआ। थोड़ी ही देर बाद उनके यज्ञका वृत्तान्त सुनकर ऋषियोंका एक समुदाय आ पहुँचा। भगवान् श्रीविष्णुने उनका पूजन किया। पिनाकधारी महादेवजीने उन्हें आसन दिया तथा ब्रह्माजीकी आज्ञासे वसिष्ठजीने उन सबको अर्घ्य निवेदित करके उनका कुशल- -क्षेम पूछाऔर पुष्कर क्षेत्रमें उन्हें निवासस्थान देकर कहा 'आपलोग आरामसे यहीं रहें। तत्पश्चात् जटा और मृगचर्म धारण करनेवाले वे समस्त महर्षि ब्रह्माजीकी यज्ञ-सभाको सुशोभित करने लगे। उनमें कुछ महात्मा वालखिल्य थे तथा कुछ लोग संप्रख्यान (एक समयके लिये ही अन्न ग्रहण करनेवाले अथवा तत्त्वका विचार करनेवाले थे। वे नाना प्रकारके नियमोंमें संलग्न तथा वेदीपर शयन करनेवाले थे। उन सभी तपस्वियोंने पुष्करके जलमें ज्यों ही अपना मुँह देखा, उसी क्षण वे अत्यन्त रूपवान् हो गये। फिर एक-दूसरेकी ओर देखकर सोचने लगे-'यह कैसी बात है ? इस तीर्थमें मुँहका प्रतिबिम्ब देखनेसे सबका सुन्दर रूप हो गया !' ऐसा विचार कर तपस्वियोंने उसका नाम 'मुखदर्शन तीर्थ' रख दिया। तत्पश्चात् वे नहाकर अपने-अपने नियमोंमें लग गये। उनके गुणोंकी कहीं उपमा नहीं थी। नरश्रेष्ठ! वे सभी वनवासी मुनि वहाँ रहकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। उन्होंने अग्निहोत्र करके नाना प्रकारकी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। तपस्यासे उनके पाप भस्म हो चुके थे। वे सोचने लगे कि 'यह सरोवर सबसे श्रेष्ठ है।' ऐसा विचार करके उन द्विजातियोंने उस सरोवरका 'श्रेष्ठ पुष्कर' नाम रखा।
तदनन्तर ब्राह्मणोंको दानके रूपमें नाना प्रकारके पात्र देनेके पश्चात् वे सभी द्विज वहाँ प्राची सरस्वतीका नाम सुनकर उसमें स्नान करनेकी इच्छासे गये। तीर्थोंमें श्रेष्ठ सरस्वतीके तटपर बहुत-से दिन निवास करते थे। नाना प्रकारके वृक्ष उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह तीर्थ सभी प्राणियोंको मनोरम जान पड़ता था । अनेकों ऋषि-मुनि उसका सेवन करते थे। उन ऋषियोंसे कोई वायु पीकर रहनेवाले थे और कोई जल पीकर कुछ लोग फलाहारी थे और कुछ केवल पत्ते चबाकर रहनेवाले थे।
सरस्वतीके तटपर महर्षियोंके स्वाध्यायका शब्द गूँजता रहता था। मृगोंके सैकड़ों झुंड वहाँ विचरा करते थे अहिंसक तथा धर्मपरायण महात्माओंसे उस तीर्थकी अधिक शोभा हो रही थी। पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदीसुप्रभा, कांचना, प्राची, नन्दा और विशाला नामसे प्रसिद्ध पाँच धाराओं में प्रवाहित होती हैं। भूतलपर कॉमन ब्राजीको सभायें उनके विस्तृत यज्ञमण्डपमें जब द्विजातियोंका शुभागमन हो गया, देवतालोग पुण्याहवाचन तथा नाना प्रकारके नियमोंका पालन करते हुए जब यह कार्य सम्पादनमें लग गये और पितामह बाजी पलकी दीक्षा ले चुके, उस समय सम्पूर्ण भोगोंकी समृद्धिसे युक्त यज्ञके द्वारा भगवान्का यजन आरम्भ हुआ। राजेन्द्र ! उस यज्ञमें द्विजातियोंके पास उनकी मनचाही वस्तुएँ अपने-आप उपस्थित हो जाती थीं। धर्म और अर्थके साधनमें प्रवीण पुरुष भी स्मरण करते ही वहाँ आ जाते थे देव, गन्धर्व गान करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। दिव्य बाजे बज उठे। उस यज्ञकी समृद्धिसे देवता भी सन्तुष्ट हो गये। मनुष्योंको तो वहाँका वैभव देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ । पुष्कर तीर्थमें जब इस प्रकार ब्रह्माजीका यज्ञ होने लगा, उस समय ऋषियोंने सन्तुष्ट होकर सरस्वतीका सुप्रभा नामसे आवाहन किया। पितामहका सम्मान करती हुई वेगशालिनी सरस्वती नदीको उपस्थित देखकर मुनियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती ब्रह्माजीकी सेवा तथा मनीषी मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये ही पुष्कर तीर्थमें प्रकट हुई थी। जो मनुष्य सरस्वतीके उत्तर-तटपर अपने शरीरका परित्याग करता है तथा प्राची सरस्वतीके तटपर जप करता है, वह पुनः जन्म - मृत्युको नहीं प्राप्त होता। सरस्वतीके जलमें डुबकी लगानेवालेको अश्वमेध यज्ञका पूरा-पूरा फल मिलता है। जो वहाँ नियम और उपवासके द्वारा अपने शरीरको सुखाता है, केवल जल या वायु पीकर अथवा पत्ते चबाकर तपस्या करता है, वेदीपर सोता है तथा यम और नियमोंका पृथक्-पृथक् पालन करता है, वह शुद्ध हो ब्रह्माजीके परम पदको प्राप्त होता है। जिन्होंने सरस्वती तीर्थमें तिलभर भी सुवर्णका दान किया है, उनका वह दान मेरुपर्वतके दानके समान फल देनेवाला है- यह बात पूर्वकालमें स्वयं प्रजापति ब्रह्मने कही थी। जो मनुष्य उस तीर्थमें श्राद्ध करेंगे, वे अपने कुलकी इक्कीसपीढ़ियोंके साथ स्वर्गलोकमें जायेंगे। वह तीर्थ पितरोंको बहुत ही प्रिय है, वहाँ एक ही पिण्ड देनेसे उन्हें पूर्ण कृप्त हो जाती है। वे पुष्करतीर्थ द्वारा उद्धार पाकर ब्रह्मलोकमें पधारते हैं। उन्हें फिर अन्न-भोगोंकी इच्छा नहीं होती, वे मोक्षमार्गमें चले जाते हैं। अब मैं सरस्वती नदी जिस प्रकार पूर्ववाहिनी हुई, वह प्रसंग बतलाता हूँ; सुनो।
पहलेकी बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त देवताओंकी ओरसे भगवान् श्रीविष्णुने सरस्वतीसे कहा 'देवि! तुम पश्चिम समुद्रके तटपर जाओ और इस बयानको ले जाकर समुद्रमें डाल दो ऐसा करनेसे समस्त देवताओंका भय दूर हो जायगा। तुम माताकी भाँति देवताओंको अभय-दान दो।' सबको उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुकी ओरसे यह आदेश मिलनेपर देवी सरस्वतीने कहा-'भगवन्! मैं स्वाधीन नहीं हूँ आप इस कार्यके लिये मेरे पिता ब्रह्माजीसे अनुरोध कीजिये। पिताजीकी आज्ञाके बिना में एक पग भी कहीं नहीं जा सकती।' सरस्वतीका अभिप्राय जानकर देवताओंने ब्रह्माजीसे कहा- 'पितामह! आपकी कुमारी कन्या सरस्वती बड़ी साध्वी है-उसमें किसी प्रकारका दोष नहीं देखा गया है; अतः उसे छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो बडवानलको से जा सके।
पुलस्त्यजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्माजीने सरस्वतीको बुलाया और उसे गोदमें लेकर उसका मस्तक सूँघा। फिर बड़े स्नेहके साथ कहा 'बेटी! तुम मेरी और इन समस्त देवताओंकी रक्षा करो। देवताओंके प्रभावसे तुम्हें इस कार्यके करनेपर बड़ा सम्मान प्राप्त होगा। इस बडवानलको ले जाकर खारे पानी के समुद्रमें डाल दो।' पिताके वियोगके कारण बालिकाके नेत्रोंमें आँसू छलछला आये। उसने ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा- 'अच्छा, जाती हूँ।' उस समय सम्पूर्ण देवताओं तथा उसके पिताने भी कहा-'भय न करो।' इससे वह भय छोड़कर प्रसन्न चित्तसे जानेको तैयार हुई। उसकी यात्राके समय शंखऔर नगारोंकी ध्वनि तथा मंगलघोष होने लगा, जिसकी आवाजसे सारा जगत् गूँज उठा। सरस्वती अपने तेजसे सर्वत्र प्रकाश फैलाती हुई चली। उस समय गंगाजी उसके पीछे हो लीं। तब सरस्वतीने कहा- 'सखी! तुम कहाँ आती हो? मैं फिर तुमसे मिलूँगी।' सरस्वतीके ऐसा कहनेपर गंगाने मधुर वाणीमें कहा- 'शुभे! अब तो तुम जब पूर्वदिशामें आओगी तभी मुझे देख सकोगी। देवताओं सहित तुम्हारा दर्शन तभी मेरे लिये सुलभ हो सकेगा।' यह सुनकर सरस्वतीने कहा- 'शुचिस्मिते। तब तुम भी उत्तराभिमुखी होकर शोकका परित्याग कर देना।' गंगा बोलीं 'सखी मैं उत्तराभिमुखी होनेपर अधिक पवित्र मानी जाऊँगी और तुम पूर्वाभिमुखी होनेपर उत्तरवाहिनी गंगा और पूर्ववाहिनी सरस्वतीमें जो मनुष्य श्राद्ध और दान करेंगे, वे तीनों ऋणोंसे मुक्त होकर मोक्षमार्गका आश्रय लेंगे-इसमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।'
इसपर वह सरस्वती नदीरूपमें परिणत हो गयी। देवताओंके देखते-देखते एक पाकरके वृक्षकी जड़से प्रकट हुई। वह वृक्ष भगवान् विष्णुका स्वरूप है। सम्पूर्ण देवताओंने उसकी वन्दना की है। उसकी अनेकों शाखाएँ सब ओर फैली हुई हैं। वह दूसरे ब्रह्माजीकी भाँति शोभा पाता है। यद्यपि उस वृक्षमें एक भी फूल नहीं है, तो भी वह डालियोंपर बैठे हुए शुक आदि पक्षियोंके कारण फूलोंसे लदा-सा जान पड़ता है सरस्वतीने उस पाकरके समीप स्थित होकर 1 देवाधिदेव विष्णुसे कहा- 'भगवन्! मुझे बडवाग्नि समर्पित कीजिये: मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगी।' उसके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णु बोले- 'शुभे ! तुम्हें इस बडवानलको पश्चिम समुद्रकी ओर ले जाते समय जलनेका कोई भय नहीं होगा।'
पुलस्त्यजी कहते हैं— तदनन्तर भगवान् श्रीविष्णुने
बडवानलको सोनेके घड़ेमें रखकर सरस्वतीको सौंप
दिया। उसने उस घड़ेको अपने उदरमें रखकर पश्चिमकी
ओर प्रस्थान किया। अदृश्य गतिसे चलती हुई वहमहानदी पुष्करमें पहुँची और ब्रह्माजीने जिन-जिन कुण्डोंमें हवन किया था, उन सबको जलसे आप्लावित करके प्रकट हुई। इस प्रकार पुष्कर क्षेत्रमें परम पवित्र सरस्वती नदीका प्रादुर्भाव हुआ जगत्को जीवनदान देनेवाली वायुने भी उसका जल लेकर वहाँके सब तीर्थोंमें डाल दिया। उस पुण्यक्षेत्रमें पहुँचकर पुण्यसलिला सरस्वती मनुष्योंके पापोंका नाश करनेके लिये स्थित हो गयी जो पुण्यात्मा मनुष्य पुष्कर तीर्थमें विद्यमान सरस्वतीका दर्शन करते हैं. वे नारकी जीवोंकी अधोगतिका अनुभव नहीं करते। जो मनुष्य उसमें भक्ति-भावके साथ स्नान करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें पहुँचकर ब्रह्माजीके साथ आनन्दका अनुभव करते हैं। जो मनुष्य ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करके पितरोंका तर्पण करता हैं, वह उन सबका नरकसे उद्धार कर देता है तथा स्वयं उसका भी चित्त शुद्ध हो जाता है। ब्रह्माजीके क्षेत्रमें पुण्यसलिला सरस्वतीको पाकर मनुष्य दूसरे किस तीर्थकी कामना करे-उससे बढ़कर दूसरा तीर्थ है ही कौन ? सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह सब का सब ज्येष्ठ पुष्करमें एक बार डुबकी लगानेसे मिल जाता है। अधिक क्या कहा जाय जिसने पुष्कर क्षेत्रका निवास, ज्येष्ठ कुण्डका जल तथा उस तीर्थमें मृत्यु- ये तीन बातें प्राप्त कर लीं, उसने परमगति पा ली। जो मनुष्य उत्तम काल, उत्तम क्षेत्र तथा उत्तम तीर्थमें स्नान और होम करके ब्राह्मणको दान देता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है। कार्तिक और वैशाखके शुक्लपक्षमें तथा चन्द्रमा और सूर्य ग्रहणके समय स्नान करनेयोग्य कुरुजांगलदेशमें जितने क्षेत्र और तीर्थ मुनीश्वरोंद्वारा बताये गये हैं, उन सबमें यह पुष्कर तीर्थ अधिक पवित्र है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है।
जो पुरुष कार्तिककी पूर्णिमाको मध्यम कुण्ड (मध्यम पुष्कर) में स्नान करके ब्राह्मणको धन देता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। इसी प्रकार कनिष्ठ कुण्ड (अन्त्य पुष्कर)- में एकाग्रतापूर्वक स्नान करके जो ब्राह्मणको उत्तम अगहनीका चावल दान करता है, वह अग्निलोकमें जाता है तथा वहाँ इक्कीस पीढ़ियोंके साथरहकर श्रेष्ठ फलका उपभोग करता है। इसलिये पुरुषको उचित है कि वह पूरा प्रयत्न करके पुष्कर तीर्थकी प्राप्तिके लिये वहाँकी यात्रा करनेके लिये अपना विचार स्थिर करे। मति, स्मृति, प्रज्ञा, मेधा, बुद्धि और शुभ वाणी-ये छः सरस्वतीके पर्याय बतलाये गये हैं। जो पुष्करके वनमें, जहाँ प्राची सरस्वती है, जाकर उसके जलका दर्शन भर कर लेते हैं, उन्हें भी अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा जो उसके भीतर गोता लगाकर स्नान करता है, वह तो ब्राजीका अनुचर होता है जो मनुष्य वहाँ विधिपूर्वक श्राद्ध करते हैं, वे पितरोंको दुःखदायी नरकसे निकालकर स्वर्गमें पहुँचा देते हैं। जो सरस्वतीमें स्नान करके पितरोंको कुश और तिलसे युक्त जल दान करते हैं, उनके पितर हर्षित हो नाचने लगते हैं। यह पुष्कर तीर्थ सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि यह आदि तीर्थ है। इसीलिये इस पृथ्वीपर यह समस्त तीर्थोंमें विख्यात है यह मानो धर्म और मोक्षको क्रीडास्थली है, निधि है। सरस्वतीसे युक्त होनेके कारण इसकी महिमा और भी बढ़ गयी है। जो लोग पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदीका जल पीते हैं वे ब्रह्मा और महादेवजीके द्वारा प्रशंसित अक्षय लोकोंको प्राप्त होते हैं। धर्मके तत्त्वको जाननेवाले मुनियोंने जहाँ-जहाँ सरस्वतीदेवीका सेवन किया है, उन सभी स्थानोंमें वे परम पवित्ररूपसे स्थित हैं; किन्तु पुष्करमें ये अन्य स्थलोंको अपेक्षा विशेष पवित्र मानी गयी हैं। पुण्यमयी सरस्वती नदी संसारमें सुलभ है; किन्तु कुरुक्षेत्र, प्रभासक्षेत्र और पुष्करक्षेत्रमें तो वह बड़े भाग्यसे प्राप्त होती है। अतः वहाँ इसका दर्शन दुर्लभ बताया गया है। सरस्वती तीर्थ इस भूतलके समस्त तीर्थोंमें श्रेष्ठ होनेके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका साधक है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह ज्येष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ- तीनों पुष्करोंमें यत्नपूर्वक स्नान करके उनकी प्रदक्षिणा करे। तत्पश्चात् पवित्र भावसे प्रतिदिन पितामहका दर्शन करे। ब्रह्मलोकमें जानेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अनुलोमक्रमसे अर्थात् क्रमशः ज्येष्ठ मध्यम एवं कनिष्ठ पुष्करमेंतथा विलोमक्रमसे अर्थात् कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करना चाहिये। इसी प्रकार वह उक्त तीनों पुष्करोंमेंसे किसी एक या सबमें नित्य स्नान करता रहे। पुष्कर क्षेत्रमें तीन सुन्दर शिखर और तीन ही स्रोत हैं। वे सब के सब पुष्कर नामसे ही प्रसिद्ध हैं। उन्हें ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर कहते हैं। जो मन और इन्द्रियोंको वशमें करके सरस्वतीमें स्नान करता और ब्राह्मणको एक उत्तम गौ दान देता है, वह शास्त्रीय आज्ञाके पालनसे शुद्धचित्त होकर अक्षय लोकोंको पाता है। अधिक क्या कहें- जो रात्रिके समय भी स्नान करके वहाँ याचकको धन देता है, वह अनन्तसुखका भागी होता है। पुष्करमें तिल-दानकी मुनिलोग अधिक प्रशंसा करते हैं तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको वहाँ सदा ही स्नान करनेका विधान है।
भीष्मजी ! पुष्कर वनमें पहुँचकर सरस्वती नदीके प्रकट होनेकी बात बतायी गयी। अब वह पुनः अदृश्य होकर वहाँसे पश्चिम दिशाकी ओर चली। पुष्करसे थोड़ी ही दूर जानेपर एक खजूरका वन मिला, जो फल और फूलोंसे सुशोभित था; सभी ऋतुओंके पुष्प उस वनस्थलीकी शोभा बढ़ा रहे थे, वह स्थान मुनियोंके भी मनको मोहनेवाला था । वहाँ पहुँचकर नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वतीदेवी पुनः प्रकट हुईं। वहाँ वे 'नन्दा' के नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुईं।
[12/22, 11:08 AM] yogeshrohi📚: स्वयं कृष्ण नहीं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत: गोलोक की ही सृष्टि हैं
"परन्तु पृथ्वी लोक पर गोपों की उत्पत्ति सत्युग में स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से ही उसी क्रम में होती है। जैसे गोलोक में कृष्ण से क्योंकि क्षुद्र विष्णु भी स्वराट् विष्णु के अंश अवतार है।
पृथ्वी पर सत्युग में गोप (आभीर) जन उपस्थित रहते हैं। चातुर्वर्ण की सृष्टि और ऋषि, देवता आदि की सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् जब ब्रह्मा एक महायज्ञ करते हैं। उसमें ब्रह्मा अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के चातुर्यवर्ण के लोगों को आमन्त्रित करते हैं। गोप ब्रह्मा की सृष्टि न होने से इस यज्ञ में ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किये जाते हैं।
जब इस यज्ञ के शुभ मुहूर्त ( दिन- रात का तीसवाँ भाग )व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। "होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । अत्रि इस "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है।
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं।अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं।
"निष्कर्ष:- उपर्युक्त पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- (१६-१७) में वर्णित गायत्री की कथा से प्रमाणित होता है कि गायत्री के परिवारी जन गोप गोलोक से पृथ्वी पर गोपालन हेतु सतयुग में ही अवतरित हो गये थे।
ये ब्रह्मा की सृष्टि से पृथक थे इसलिए यज्ञ में अपनी सम्पूर्ण सृष्टि के साथ इन्हें ब्रह्मा द्वारा आमन्त्रित नहीं किया गया।
अत्रि जो सावित्री द्वारा शापित हो गये थे; गायत्री और ब्रह्मा के विवाह में सहायक होने के कारण उन्हें फिर आभीर कन्या गायत्री द्वारी ही शाप मुक्त कर वरदान से अनुग्रहीत किया गया।
इसलिए अत्रि ने गायत्री को माँ कहकर सम्बोधित किया तब अत्रि को अहीरों का पूर्वज कैसे कहा जा सकता है।?
ये कालान्तर में अहीर जाति के पुरोहित बन कर गोत्र प्रवर्तक हो गये हों यह सम्भव है परन्तु अहीर जाति अत्रि से उत्पन्न हुई है यह कहना शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत है ।
[12/22, 11:15 AM] yogeshrohi📚: हे विप्र इसी बीच श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाली सनातनी विष्णुमाया दुर्गा सहसा प्रकट हुईं।
वे देवी सर्वशक्तिमती, नारायणी तथा ईशाना हैं और परमात्मा श्रीकृष्णकी बुद्धिकी अधिष्ठात्री देवी हैं ।62-65 ।
सभी मन्त्रोंकी अधिष्ठात्री देवी मनसा ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान रहती हैं।
देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)स्कन्ध 9, अध्याय( 49 )
भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे उसी समय सहसा लाखों-करोड़ों कामधेनु गौएँ प्रकट हो गयीं। वहाँ जितने गोप थे वे सभी उस सुरभिके रोमकूपोंसे प्रकट हुए थे।
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तत्पश्चात् उन गौओंकी असंख्य सन्तानें उत्पन्न हो गयीं। इस प्रकार उस सुरभिसे गायोंकी सृष्टि कही गयी है; उसीसे यह जगत् व्याप्त है ॥ 10-12 ॥
[12/22, 12:01 PM] yogeshrohi📚: सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए। फिर उनके ललाट से शिव के अंशभूत ग्यारह रुद्र प्रकट हुए। फिर क्षुद्र विराट पुरुष के वामभाग से जगत की रक्षा के व्यवस्थापक चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हुए।
वे श्वेतद्वीप में निवास करने लगे। यही नारायण ( क्षीरोदकशायी विष्णु हैं) क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
नारद! इस प्रकार महाविराट पुरुष के सम्पूर्ण रोमकूपों में एक-एक करके अनेक ब्रह्माण्ड हुए। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक क्षुद्र विराट पुरुष, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि भी हैं।
[12/22, 12:39 PM] yogeshrohi📚: या गर्भं जनयामास या चैनं समवर्द्धयत्।
पुलस्त्य उवाच।
पुरुषः कश्यपश्चासावदितिस्तत्प्रिया स्मृता१४६।
कश्यपो ब्रह्मणोंशस्तु पृथिव्या अदितिस्तथा।
नंदो द्रोणस्समाख्यातो यशोदाथ धराभवत्१४७।
पुलस्त्यजी बोले राजन् पुरुष वसुदेवजी कश्यप # और उनको प्रिया देवकी अदिति कही गयी हैं। कश्यप ब्रह्माजीके अंश हैं और अदिति पृथ्वीका। इसी प्रकार द्रोण नामक वसु ही नन्दगोपके नामसे विख्यात हुए हैं तथा उनकी पत्नी धरा यशोदा हैं। देवी देवकीने पूर्वजन्ममें अजन्मा परमेश्वरसे जो कामना की थी, उसकी वह कामना महाबाहु श्रीकृष्णने पूर्ण कर दी।
यज्ञानुष्ठान बंद हो गया था, धर्मका उच्छेद हो
पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १३
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पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १३
जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।
नर्मदातट एकाकी केवलं वृत्तिकर्शितः१४।
ऋक्षवंतं गिरिं गत्वा मुक्तमन्यैरुपाविशत्।
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैब्या परिणता सती१५।
अपुत्रोप्यभवद्राजा भार्यामन्यामचिंतयन्।
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः१६।
भार्यामुवाच संत्रासात्स्नुषेयं ते शुचिस्मिते।
एवमुक्त्वाब्रवीदेनं कस्य केयं स्नुषेति वै१७।
राजोवाच।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
तस्याः सा तपसोग्रेण कन्यायाः संप्रसूयत१८।
पुत्रं विदर्भं सुभगं शैब्या परिणता सती।
राजपुत्र्यां तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथकौशिकौ१९।
लोमपादं तृतीयं तु पुत्रं परमधार्मिकम्।
पश्चाद्विदर्भो जनयच्छूरं रणविशारदम्२०।
लोमपादात्मजो बभ्रुर्धृतिस्तस्य तु चात्मजः।
कौशिकस्यात्मजश्चेदिस्तस्माच्चैद्यनृपाः स्मृताः।२१।
ज्यामघ ऋक्षवान् पर्वतपर जाकर जंगली फलमूलों से जीवन-निर्वाहकरते हुए वहाँ रहने लगे। ज्यामघकी स्त्री शैब्या बड़ी सती-साध्वी स्त्री थी। उससे विदर्भ नामक पुत्र हुआ। विदर्भसे तीन पुत्र हुए - क्रथ, कैशिक और लोमपाद । राजकुमार क्रथ और कैशिक बड़े विद्वान् थे तथा लोमपाद परम धर्मात्मा थे। तत्पश्चात् राजा विदर्भने और भी अनेकों पुत्र उत्पन्न किये, जो युद्ध कर्ममें कुशल तथा शूरवीर थे। लोमपादका पुत्र बभ्रु और बभ्रुका पुत्र हेति हुआ। कैशिकके चिदि नामक पुत्र हुआ, जिससे चैद्य राजाओंकी उत्पत्ति बतलायी जाती है।
अध्याय १३) पद्मपुराण सृष्टि खण्ड
[
पद्म पुराण (पद्मपुराण)
खण्ड 1, अध्याय 16 -
सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
सूतजी कहते हैं वह सुनकर देवव्रत भीष्मने पुलस्त्यजीसे पूछा " ब्रह्मन् सरिताओंगे श्रेष्ठ नन्दा कोई दूसरी नदी तो नहीं है? मेरे मनमें इस बातको लेकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि सरस्वतीका नाम 'नन्दा' कैसे पड़ गया। जिस प्रकार और जिस कारणसे वह 'चन्दा' नामसे प्रसिद्ध हुई, उसे बतानेकी कृपा कीजिये।" भीष्मके इस प्रकार पूछनेपर पुलस्त्यजीने सरस्वतीका 'नन्दा' नाम क्यों पड़ा, इसका प्राचीन इतिहास सुनाना आरम्भ किया। वे बोले- भीष्म ! पहलेकी बात है, पृथ्वीपर प्रभंजन नामसे प्रसिद्ध एक महाबली राजा हो गये हैं। एक दिन मे उस वनमें मुगका शिकार खेल रहे थे। उन्होंने देखा, एक झाड़ीके भीतर मृगी खड़ी है। वह राजाके ठीक सामने पड़ती थी। प्रभंजनने अत्यन्त तीक्ष्ण वाण चलाकर मृगीको बाँध डाला। आहत हरिणीने चकित होकर चारों ओर दृष्टिपात किया। फिर हाथमें धनुष-बाण धारण किये राजाको खड़ा देख वह बोली-'ओ मूढ़! यह तूने क्या किया ? तुम्हारा यह कर्म पापपूर्ण है। मैं यहाँ नीचे मुँह किये खड़ी थी और निर्भय होकर अपने बच्चेको दूध पिला रही थी। इसी अवस्थामें तूने इस वनके भीतर मुझ निरपराध हरिणीको अपने वज्रके समान बाणका निशानाबनाया है तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, इसलिये तू कच्चा तू मांस खानेवाले पशुकी योनिमें पड़ेगा। इस कण्टकाकीर्ण वनमें तू व्याघ्र हो जा।' मृगीका यह शाप सुनकर सामने खड़े हुए राजाकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे हाथ जोड़कर बोले- 'कल्याणी मैं नहीं जानता था कि तू बच्चेको दूध पिला रही है, अनजानमें मैंने तेरा वध किया है। अतः मुझपर प्रसन्न हो ! मैं व्याघ्रयोनिको त्यागकर पुनः मनुष्य शरीरको कब प्राप्त करूँगा ? अपने इस शापके उद्धारकी अवधि तो बता दो।' राजाके ऐसा कहनेपर मृगी बोली- 'राजन्। आजसे सौ वर्ष बीतनेपर यहाँ नन्दा नामकी एक गौ आयेगी। उसके साथ तुम्हारा वार्तालाप होनेपर इस शापका अन्त हो जायगा।'
पुलस्त्यजी कहते हैं- मृगीके कथनानुसार राजा प्रभंजन व्याघ्र हो गये। उस व्याघ्रकी आकृति बड़ी ही घोर और भयानक थी। वह उस वनमें कालके वशीभूत हुए मृर्गी, अन्य चौपायों तथा मनुष्योंको भी मार-मारकर खाने और रहने लगा। वह अपनी निन्दा करते हुए कहता था, 'हाय! अब मैं पुनः कब मनुष्य शरीर धारण करूँगा ? अबसे नीच योनिमें डालनेवाला ऐसा निन्दनीय कर्म महान् पाप नहीं करूँगा। अब इस योनिमें मेरेद्वारा पुण्य नहीं हो सकता। एकमात्र हिंसा ही मेरी जीवन-वृत्ति है, इसके द्वारा तो सदा दुःख ही प्राप्त होता है किस प्रकार मृगी की कही हुई बात सत्य हो सकती है?'
जब व्याघ्रको उस वनमें रहते सौ वर्ष हो गये, तब एक दिन वहाँ गौओंका एक बहुत बड़ा झुंड उपस्थित हुआ वहाँ घास और जलकी विशेष सुविधा थी, वही गौओंके आनेमें कारण हुई। आते ही गौओंके विश्रामके लिये बाड़ लगा दी गयी। ग्वालोंके रहने के लिये भी साधारण घर और स्थानकी व्यवस्था की गयी। गोचर भूमि तो वहाँ थी ही सबका पड़ाव पड़ गया। वनके पासका स्थान गौओंके रंभानेकी भारी आवाजसे गूँजने लगा मतवाले गोप चारों ओरसे उस गो समुदायकी रक्षा करते थे।
गौओके झुंडमें एक बहुत ही हृष्ट-पुष्ट तथा सन्तुष्ट रहनेवाली गाय थी, उसका नाम था नन्दा। वही उस झुंडमें प्रधान थी तथा सबके आगे निर्भय होकर चला करती थी। एक दिन वह अपने झुंडसे बिछुड़ गयी और चरते चरते पूर्वोक व्याघ्रके सामने जा पहुँची। व्याघ्र उसे देखते ही 'खड़ी रह खड़ी रह कहता हुआ उसकी ओर दौड़ा और निकट आकर बोला-'आज विधाताने तुझेमेरा ग्रास नियत किया है, क्योंकि तू स्वयं यहाँ आकर उपस्थित हुई है।' व्याघ्रका यह रोंगटे खड़े कर देनेवाला निष्ठुर वचन सुनकर उस गायको चन्द्रमाके समान कान्तिवाले अपने सुन्दर बछड़ेकी याद आने लगी। उसका गला भर आया वह गद्गद स्वरसे पुत्रके लिये हुंकार करने लगी। उस गौको अत्यन्त दुःखी होकर क्रन्दन करते देख व्याघ्र बोला-'अरी गाय। संसारमें सब लोग अपने कर्मोंका ही फल भोगते हैं। तू स्वयं मेरे पास आ पहुँची है, इससे जान | पड़ता है तेरी मृत्यु आज ही नियत है। फिर व्यर्थ शोक क्यों करती है? अच्छा, यह तो बता तू रोयी किसलिये ?'
व्याघ्रका प्रश्न सुनकर नन्दाने कहा- 'व्याघ्र ! तुम्हें नमस्कार है, मेरा सारा अपराध क्षमा करो। मैं जानती है तुम्हारे पास आये हुए प्राणीकी रक्षा असम्भव है; अतः मैं अपने जीवनके लिये शोक नहीं करती। मृत्यु तो मेरी एक न एक दिन होगी ही [फिर उसके [लिये क्या चिन्ता] किन्तु मृगराज! अभी नयी अवस्थामें मैंने एक बछड़ेको जन्म दिया है। पहली बियानका बच्चा होनेके कारण वह मुझे बहुत ही प्रिय है। मेरा बच्चा अभी दूध पीकर ही जीवन चलाता है। घासको तो वह पता भी नहीं इस समय वह गोष्ठमें बँधा है और भूखसे पीड़ित होकर मेरी राह देख रहा है। उसीके लिये मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मेरे न रहनेपर मेरा बच्चा कैसे जीवन धारण करेगा? मैं पुत्र स्नेहके वशीभूत हो रही हूँ और उसे दूध पिलाना चाहती हूँ। मुझे थोड़ी देरके लिये जाने दो बछड़ेको पिलाकर प्यारसे उसका मस्तक चाहूँगी और उसे हिताहितकी जानकारीके लिये कुछ उपदेश करूँगी; फिर अपनी सखियोंकी देख-रेखमें उसे सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। उसके बाद तुम इच्छानुसार मुझे खा जाना।'
नन्दाकी बात सुनकर व्याघ्रने कहा- 'अरी! अब तुझे पुत्रसे क्या काम है?' नन्दा बोली- 'मृगेन्द्र ! मैं पहले-पहल बछड़ा ब्यायी हूँ [ अतः उसके प्रति मेरी बड़ी ममता है, मुझे जाने दो]। सखियोंको, नन्हे बच्चेको, रक्षा करनेवाले ग्वालों और गोपियोंको तथा विशेषतःअपनी जन्मदायिनी माताको देखकर उन सबसे विदा लेकर आ जाऊँगी मैं शपथपूर्वक यह बात कहती हूँ। यदि तुम्हें विश्वास हो तो मुझे छोड़ दो। यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ तो मुझे वही पाप लगे, जो ब्राह्मण तथा माता-पिताका वध करनेसे होता है। व्याधों, म्लेच्छों और जहर देनेवालोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो गोशाला में विघ्न डालते हैं, सोते हुए प्राणीको मारते हैं तथा जो एक बार अपनी कन्याका घर करके फिर उसे दूसरेको देना चाहते हैं, उन्हें जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो अयोग्य बैलोंसे भारी बोझ उठवाता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे। जो कथा होते समय विघ्न डालता है और जिसके घरपर आया हुआ मित्र निराश लौट जाता है, उसको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ। इन भयंकर पातकोंके भयसे मैं अवश्य आऊँगी।'
नन्दाकी ये शपथें सुनकर व्याघ्रको उसपर विश्वास हो गया। वह बोला- "गाय! तुम्हारी इन शपथोंसे मुझे विश्वास हो गया है। पर कुछ लोग तुमसे यह भी कहेंगे कि 'स्त्रीके साथ हास-परिहासमें, विवाहमें, गौको संकटसे बचानेमें तथा प्राण संकट उपस्थित होनेपर जो शपथ की जाती है, उसकी उपेक्षासे पाप नहीं लगता।' किन्तु तुम इन बातोंपर विश्वास न करना। इस संसारमें कितने ही ऐसे नास्तिक हैं, जो मूर्ख होते हुए भी अपनेको पण्डित समझते हैं; वे तुम्हारी बुद्धिको क्षणभर में भ्रममें डाल देंगे। जिनके चित्तपर अज्ञानका परदा पड़ा रहता है, वे क्षुद्र मनुष्य कुतर्कपूर्ण युक्तियों और दृष्टान्तोंसे दूसरोंको मोहमें डाल देते हैं। इसलिये तुम्हारी बुद्धिमें यह बात नहीं आनी चाहिये कि मैंने शपथद्वारा व्याघ्रको उग लिया। तुमने ही मुझे धर्मका सारा मार्ग दिखाया है। 1 अतः इस समय तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।"
नन्दा बोली- साधो ! तुम्हारा कथन ठीक है, तुम्हें कौन ठग सकता है। जो दूसरोंको ठगना चाहता। है, वह तो अपने-आपको ही ठगता है।
व्याघ्रने कहा- गाय ! अब तुम जाओ। पुरवत्सले । अपने पुत्रको देखो, दूध पिलाओ, उसकामस्तक चाटो तथा माता, भाई, सखी, स्वजन एवं बन्धुबान्धवका दर्शन करके सत्यको आगे रखकर शीघ्र ही यहाँ लौट आओ।
पुलस्त्यजी कहते हैं वह पुत्रवत्सला धेनु बड़ी सत्यवादिनी थी। पूर्वोक्त प्रकारसे शपथ करके जब वह व्याघ्रकी आज्ञा ले चुकी, तब गोष्ठकी ओर चली। उसके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वह अत्यन्त दीन भावसे काँप रही थी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख था । वह शोकके समुद्रमें डूबकर बारम्बार डॅकराती थी। नदीके किनारे गोष्ठपर पहुँचकर उसने सुना, बछड़ा पुकार रहा है। आवाज कानमें पड़ते ही वह उसकी ओर दौड़ी और निकट पहुँचकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगी। माताको निकट पाकर बछड़ेने शंकित होकर पूछा- 'माँ! [आज क्या हो गया है ?] मैं तुम्हें प्रसन्न नहीं देखता, तुम्हारे हृदयमें शान्ति नहीं दिखायी देती। तुम्हारी दृष्टिमें भी व्यग्रता है, आज तुम अत्यन्त डरी हुई दीख पड़ती हो।'
नन्दा बोली- बेटा! स्तनपान करो, यह हमलोगोंकी अन्तिम भेंट है; अबसे तुम्हें माताका दर्शन दुर्लभ हो जायगा। आज एक दिन मेरा दूध पीकर कल सबेरेसे किसका पियोगे ? वत्स! मुझे अभी लौट जानाहै, मैं शपथ करके यहाँ आयी हूँ। भूखसे पीड़ित बाघको मुझे अपना जीवन अर्पण करना है।
बछड़ा बोला - माँ तुम जहाँ जाना चाहती हो; वहाँ मैं भी चलूँगा। तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना ही अच्छा है तुम न रहोगी तो मैं अकेले भी तो मर ही जाऊँगा, [फिर साथ ही क्यों न मरूँ ?] यदि बाघ तुम्हारे साथ मुझे भी मार डालेगा तो निश्चय ही मुझको वह उत्तम गति मिलेगी, जो मातृभक्त पुत्रोंको मिला करती है। अतः मैं तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगा मातासे बिछुड़े हुए बालकके जीवनका क्या प्रयोजन है? केवल दूध पीकर रहनेवाले बच्चोंके लिये माताके समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है। माताके समान रक्षक, माताके समान आश्रय, माताके समान स्नेह, माताके समान सुख तथा माताके समान देवता इहलोक और परलोकमें भी नहीं है। यह ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ परम धर्म है। जो पुत्र इसका पालन करते हैं, उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है। ll 1 ll
नन्दाने कहा- बेटा! मेरी ही मृत्यु नियत है, तुम वहाँ न आना। दूसरेकी मृत्युके साथ अन्य जीवोंकी मृत्यु नहीं होती [ जिसकी मृत्यु नियत है, उसीकी होती है] तुम्हारे लिये माताका यह उत्तम एवं अन्तिम सन्देश है मेरे वचनोंका पालन करते हुए यहीं रहो, यही मेरी सबसे बड़ी शुश्रूषा है। जलके समीप अथवा वनमें विचरते हुए कभी प्रमाद न करना; प्रमादसे समस्त प्राणी नष्ट हो जाते हैं। लोभवश कभी ऐसी घासको चरनेके लिये न जाना,जो किसी दुर्गम स्थानमें उगी हो; क्योंकि लोभसे इहलोक और परलोकमें भी सबका विनाश हो जाता है। लोभसे मोहित होकर लोग समुद्रमें, घोर वनमें तथा दुर्गम स्थानोंमें भी प्रवेश कर जाते हैं। लोभके कारण विद्वान् पुरुष भी भयंकर पाप कर बैठता है। लोभ, प्रमाद तथा हर एकके प्रति विश्वास कर लेना- इन तीन कारणोंसे जगत्का नाश होता है; अत: इन तीनों दोषोंका परित्याग करना चाहिये। बेटा! सम्पूर्ण शिकारी जीवोंसे तथा म्लेच्छ और चोर आदिके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर सदा प्रयत्नपूर्वक अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये। पापयोनिवाले पशु-पक्षी अपने साथ एक स्थानपर निवास करते हों, तो भी उनके विपरीत चित्तका सहसा पता नहीं लगता। नखवाले जीवोंका, नदियोंका, सींगवाले पशुओंका, शस्त्र धारण करनेवालोंका, स्त्रियोंका तथा दूतोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जिसपर पहले कभी विश्वास नहीं किया गया हो, ऐसे पुरुषपर तो विश्वास करे ही नहीं, जिसपर विश्वास जम गया हो, उसपर भी अत्यन्त विश्वास न करे, क्योंकि [ अविश्वसनीयपर ] विश्वास करनेसे जो भय उत्पन्न होता है, वह विश्वास करनेवालेका समूल नाश कर डालता है। औरोंकी तो बात ही क्या अपने शरीरका भी विश्वास नहीं करना चाहिये। भीरुस्वभाववाले बालकका भी विश्वास न करे; क्योंकि बालक डराने-धमकानेपर प्रमादवश गुप्त बात भी दूसरोंको बता सकते हैं। 2 सर्वत्र और सदा सूँघते हुएही चलना चाहिये; क्योंकि गन्धसे ही गौएँ भली-बुरी वस्तुकी परख कर पाती हैं। भयंकर वनमें कभी अकेला न रहे सदा धर्मका ही चिन्तन करे। मेरी मृत्युसे तुम्हें घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि एक न एक दिन सबकी मृत्यु निश्चित है। जैसे कोई पथिक छायाका आश्रय लेकर बैठ जाता है और विश्राम करके फिर वहाँसे चल देता है, उसी प्रकार प्राणियोंका समागम होता है। बेटा! तुम शोक छोड़कर मेरे वचनोंका पालन करो।
पुलस्त्यजी कहते हैं—यह कहकर नन्दा पुत्रका मस्तक सूपकर उसे चाटने लगी और अत्यन्त शोकके वशीभूत हो डबडबायी हुई आँखोंसे बारम्बार लम्बी साँस लेने लगी। तदनन्तर बारम्बार पुत्रको निहारकर वह अपनी माता, सखियों तथा गोपियोंके पास जाकर बोली- 'माताजी मैं अपने झुंडके आगे चरती हुई चली जा रही थी। इतनेमें ही एक व्याघ्र मेरे पास आ पहुँचा। मैंने अनेकों सौगन्धें खाकर उसे लौट आनेका विश्वास दिलाया है; तब उसने मुझे छोड़ा है। मैं बेटेको देखने तथा आपलोगों से मिलनेके लिये चली आयी थी; अब फिर वहीं जा रही हूँ। माँ! मैंने अपने दुष्ट स्वभावके कारण तुम्हारा जो-जो अपराध किया हो, वह सब क्षमा करना। अब अपने इस नातीको लड़का करके मानना । [सखियोंकी ओर मुड़कर ] प्यारी सखियो! मैंने जानकर या अनजानमें यदि तुमसे कोई अप्रिय बात कह दी हो अथवा और कोई अपराध किया हो तो उसके लिये तुम सब मुझे क्षमा करना । तुम सब सम्पूर्ण सद्गुणोंसे युक्त हो। तुममें सब कुछ देनेकी शक्ति है। मेरे बालकपर सदा क्षमाभाव रखना। मेरा बच्चा दीन, अनाथ और व्याकुल है; इसकी रक्षा करना। मैं तुम्हीं लोगोंको इसे साँप रही हूँ अपने पुत्रकी ही भाँति इसका भी पोषण करना अच्छा, अब क्षमा माँगती हूँ। मैं सत्यको अपनाचुकी हूँ, अतः व्याघ्रके पास जाऊँगी। सखियोंको मेरे 1 लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये।'
नन्दाकी बात सुनकर उसकी माता और सखियोंको बड़ा दुःख हुआ। वे अत्यन्त आश्चर्य और विषादमें पड़कर बोलीं- 'अहो ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि व्याघ्रके कहनेसे सत्यवादिनी नन्दा पुनः उस भयंकर स्थानमें प्रवेश करना चाहती है। शपथ और सत्यके आश्रयसे शत्रुको धोखा दे अपने ऊपर आये हुए महान् भयका यत्नपूर्वक नाश करना चाहिये। जिस उपायसे आत्मरक्षा हो सके, वही कर्तव्य है। नन्दे ! तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिये। अपने नन्हे-से शिशुको त्यागकर सत्यके लोभसे जो तू वहाँ जा रही है, यह तुम्हारे द्वारा अधर्म हो रहा है। इस विषयमें धर्मवादी ऋषियोंने पहले एक वचन कहा था, वह इस प्रकार है। प्राणसंकट उपस्थित होनेपर शपथोंके द्वारा आत्मरक्षा करनेमें पाप नहीं लगता। जहाँ असत्य बोलनेसे प्राणियोंकी प्राणरक्षा होती हो, वहाँ वह असत्य भी सत्य है और सत्य भी असत्य है। ' ll2 ll
नन्दा बोली- बहिनो ! दूसरोंके प्राण बचानेके लिये मैं भी असत्य कह सकती हूँ। किन्तु अपने लिये-अपने जीवनकी रक्षाके लिये मैं किसी तरह झूठ नहीं बोल सकती। जीव अकेले ही गर्भमें आता है, अकेले ही मरता है, अकेले ही उसका पालन-पोषण होता है तथा अकेले ही वह सुख-दुःख भोगता है; अतः मैं सदा सत्य ही बोलूँगी। सत्यपर ही संसार टिका हुआ है, धर्मकी स्थिति भी सत्यमें ही है। सत्यके कारण ही समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता। राजा बलि भगवान् विष्णुको पृथ्वी देकर स्वयं पातालमें चले गये और छलसे बाँधे जानेपर भी सत्यपर ही डटे रहे। गिरिराज विन्ध्य अपने सौ शिखरोंके साथ बढ़ते-बढ़तेबहुत ऊँचे हो गये थे [ यहाँतक कि उन्होंने सूर्यका मार्ग भी रोक लिया था], किन्तु सत्यमें बँध जानेके कारण ही वे [महर्षि अगस्त्यके साथ किये गये] अपने नियमको नहीं तोड़ते। स्वर्ग, मोक्ष तथा धर्म-सब सत्यमें ही प्रतिष्ठित हैं; जो अपने वचनका लोप करता है, उसने मानो सबका लोप कर दिया। सत्य अगाध जलसे भरा हुआ तीर्थ है, जो उस शुद्ध सत्यमय तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सत्यभाषण- ये दोनों यदि तराजूपर रखे जायँ तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंसे सत्यका ही पलड़ा भारी रहेगा। सत्य ही उत्तम तप है, सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सत्यभाषणमें किसी प्रकारका क्लेश नहीं है। सत्य ही साधु पुरुषोंकी परखके लिये कसौटी है। वही सत्पुरुषकी वंश-परम्परागत सम्पत्ति है। सम्पूर्ण आश्रयोंमें सत्यका ही आश्रय श्रेष्ठ माना गया है। वह अत्यन्त कठिन होनेपर भी उसका पालन करना अपने हाथमें है। सत्य सम्पूर्ण जगत् के लिये आभूषणरूप है। जिस सत्यका उच्चारण करके म्लेच्छ भी स्वर्गमें पहुँच जाता है, उसका परित्याग कैसे किया जा सकता है।*
सखियाँ बोलीं-नन्दे! तुम सम्पूर्ण देवताओं और दैत्योंके द्वारा नमस्कार करनेयोग्य हो; क्योंकि तुमपरम सत्यका आश्रय लेकर अपने प्राणोंका भी त्याग कर रही हो, जिनका त्याग बड़ा ही कठिन है। कल्याणी ! इस विषयमें हमलोग क्या कह सकती हैं। तुम तो धर्मका बीड़ा उठा रही हो। इस सत्यके प्रभावसे त्रिभुवनमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस महान् त्यागसे हमलोग यही समझती हैं कि तुम्हारा अपने पुत्रके साथ वियोग नहीं होगा। जिस नारीका चित्त कल्याणमार्गमें लगा हुआ है, उसपर कभी आपत्तियाँ नहीं आतीं।
पुलस्त्यजी कहते हैं- तदनन्तर गोपियोंसे मिलकर तथा समस्त गो समुदायकी परिक्रमा करके वहाँके देवताओं और वृक्षोंसे विदा ले नन्दा वहाँसे चल पड़ी। उसने पृथ्वी, वरुण, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, दसों दिक्पाल, वनके वृक्ष, आकाशके नक्षत्र तथा ग्रह-इन सबको बारम्बार प्रणाम करके कहा- 'इस वनमें जो सिद्ध और वनदेवता निवास करते हैं, वे वनमें चरते हुए मेरे पुत्रकी रक्षा करें।' इस प्रकार पुत्रके स्नेहवश बहुत-सी बातें कहकर नन्दा वहाँसे प्रस्थित हुई और उस स्थानपर पहुँची, जहाँ वह तीखी दाढ़ों और भयंकर आकृतिवाला मांसभक्षी बाघ मुँह बाये बैठा था। उसके पहुँचने के | साथ ही उसका बछड़ा भी अपनी पूँछ ऊपरको उठाये अत्यन्त वेगसे दौड़ता हुआ वहाँ आ गया औरअपनी माता और व्याघ्र दोनोंके आगे खड़ा हो गया। पुत्रको आया देख तथा सामने खड़े हुए मृत्युरूप बाघपर दृष्टि डालकर उस गौने कहा- 'मृगराज! मैं सत्यधर्मका पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ; अब मेरे मांससे तुम इच्छानुसार अपनी तृप्ति करो।'
व्याघ्र बोला- गाय ! तुम बड़ी सत्यवादिनी निकली। कल्याणी! तुम्हारा स्वागत है। सत्यका आश्रय लेनेवाले प्राणियोंका कभी कोई अमंगल नहीं होता। तुमने लौटनेके लिये जो पहले सत्यपूर्वक शपथ की थी, उसे सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ था कि यह जाकर फिर कैसे लौटेगी। तुम्हारे सत्यकी परीक्षाके लिये ही मैंने पुनः तुम्हें भेज दिया था। अन्यथा मेरे पास आकर तुम जीती-जागती कैसे लौट सकती थी। मेरा वह कौतूहल पूरा हुआ। मैं तुम्हारे भीतर सत्य खोज रहा था, वह मुझे मिल गया। इस सत्यके प्रभावसे मैंने तुम्हें छोड़ दिया;आजसे तुम मेरी बहिन हुई और यह तुम्हारा पुत्र मेरा भानजा हो गया । शुभे ! तुमने अपने आचरणसे मुझ महान् पापीको यह उपदेश दिया है कि सत्यपर ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। सत्यके ही आधारपर धर्म टिका हुआ है। कल्याणी! तृण और लताओंसहित भूमिके वे प्रदेश धन्य हैं, जहाँ तुम निवास करती हो । जो तुम्हारा दूध पीते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य किया है और उन्होंने ही जन्मका फल पाया है। देवताओंने मेरे सामने यह आदर्श रखा है; गौओंमें ऐसा सत्य है, यह देखकर अब मुझे अपने जीवनसे अरुचि हो गयी। अब मैं वह कर्म करूँगा, जिसके द्वारा पापसे छुटकारा पा जाऊँ। अबतक मैंने हजारों जीवोंको मारा और खाया है। मैं महान् पापी, दुराचारी, निर्दयी और हत्यारा हूँ। पता नहीं, ऐसा दारुण कर्म करके मुझे किन लोकोंमें जाना पड़ेगा। बहिन ! इस समय मुझे अपने पापोंसे शुद्ध होनेके लिये जैसी तपस्या करनी चाहिये, उसे संक्षेपमें बताओ; क्योंकि अब विस्तारपूर्वक सुननेका समय नहीं है।
गाय बोली- भाई बाघ ! विद्वान् पुरुष सत्ययुगमें तपकी प्रशंसा करते हैं और त्रेतामें ज्ञान तथा उसके सहायक कर्मकी द्वापरमें यज्ञोंको ही उत्तम बतलाते हैं, किन्तु कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण दानोंमें एक ही दान सर्वोत्तम है। वह है- सम्पूर्ण भूतोंको अभय-दान इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियोंको अभय-दान देता है, वह सब प्रकारके भयसे मुक्त होकर परब्रह्मको प्राप्त होता है। अहिंसाके समान न कोई दान है, न कोई तपस्या । जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य सभी प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसाके द्वारा सभी धर्म प्राप्त हो जाते हैं। * योग एक ऐसा वृक्षहैं, जिसकी छाया तीनों तापका विनाश करनेवाली है। धर्म और ज्ञान उस वृक्षके फूल हैं। स्वर्ग तथा मोक्ष उसके फल हैं। जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक— इन तीनों प्रकारके दुःखोंसे सन्तप्त हैं, वे इस योगवृक्षकी छायाका आश्रय लेते हैं। वहाँ जानेसे उन्हें उत्तम शान्ति प्राप्त होती है, जिससे फिर कभी दुःखोंके द्वारा वे बाधित नहीं होते। यही परम कल्याणका साधन है, जिसे मैंने संक्षेपसे बताया है। तुम्हें ये सभी बातें ज्ञात हैं, केवल मुझसे पूछ रहे हो l
व्याघ्रने कहा- पूर्वकालमें मैं एक राजा था; किन्तु एक मृगीके शापसे मुझे बाघका शरीर धारण करना पड़ा। तबसे निरन्तर प्राणियोंका वध करते रहने के कारण मुझे सारी बातें भूल गयी थीं। इस समय तुम्हारे सम्पर्क और उपदेशसे फिर उनका स्मरण हो आया है, तुम भी अपने इस सत्यके प्रभावसे उत्तम गतिको प्राप्त होगी। अब मैं तुमसे एक प्रश्न और पूछता हूँ। मेरे सौभाग्यसे तुमने आकर मुझे धर्मका स्वरूप बताया, जो सत्पुरुषोंके मार्गमें प्रतिष्ठित है। कल्याणी! तुम्हारा नाम क्या है ?
नन्दा बोली- मेरे यूथके स्वामीका नाम 'नन्द' है; उन्होंने ही मेरा नाम 'नन्दा' रख दिया है।पुलस्त्यजी कहते हैं-नन्दाका नाम कानमें पढ़ते ही राजा प्रभंजन शापसे मुक्त हो गये। उन्होंने पुनः वल और रूपसे सम्पन्न राजाका शरीर प्राप्त कर लिया। इसी समय सत्यभाषण करनेवाली यशस्विनी नन्दाका दर्शन करनेके लिये साक्षात् धर्म वहाँ आये. और इस प्रकार बोले-'नन्दे मैं धर्म है, तुम्हारी सत्य वाणी आकृष्ट होकर यहाँ आया है। तुम मुझसे कोई श्रेष्ठ वर माँग लो।' धर्मके ऐसा कहनेपर नन्दाने यह वर माँगा 'धर्मराज! आपकी कृपासे मैं पुत्रसहित उत्तम पदको प्राप्त होऊँ तथा यह स्थान मुनियोंको धर्मप्रदान करनेवाला शुभ तीर्थ बन जाय। देवेश्वर ! यह सरस्वती नदी आजसे मेरे ही नामसे प्रसिद्ध हो- इसका नाम 'नन्दा' पड़ जाय। आपने वर देने को कहा, इसलिये मैंने यही वर माँगा है।'
[पुत्रसहित) देवी नन्दा तत्काल ही सत्यवादियों के उत्तम लोकमें चली गयी। राजा प्रभंजनने भी अपने पूर्वोपार्जित राज्यको पा लिया। नन्दा सरस्वतीके तटसे स्वर्गको गयी थी, [तथा उसने धर्मराजसे इस आशयका वरदान भी माँगा था।] इसलिये विद्वानोंने यहाँ 'सरस्वती' का नाम नन्दा रख दिया। जो मनुष्य वहाँ आते समय सरस्वतीके नामका उच्चारणमात्र कर लेता है, वह जीवनभर सुख पाता है और मृत्युके पश्चात् देवता होता है। स्नान और जलपान करनेसे सरस्वती नदी मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सीढ़ी बन जाती है। अष्टमीके दिन जो लोग एकाग्रचित होकर सरस्वतीमें स्नान करते हैं, ये मृत्युके बाद स्वर्गमें पहुँचकर सुख भोगते हुए आनन्दित होते हैं। सरस्वती नदी सदा ही स्त्रियोंको सौभाग्य प्रदान करनेवाली है। तृतीयाको यदि उसका सेवन किया जाय तो वह विशेष सौभाग्यदायिनी होती है। उस दिन उसके दर्शनसे भी मनुष्यको पाप-राशिसे छुटकारा मिल जाता है। जो पुरुष उसके जलका स्पर्श करते हैं, उन्हें भी मुनीश्वर समझना चाहिये। वहाँ चाँदी दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है। ब्रह्माकी पुत्री यह सरस्वती नदी परम पावन और पुण्यसलिला है, यही नन्दा नामसे प्रसिद्ध है। फिर जब यह स्वच्छ जलसे युक्त हो दक्षिण दिशाको ओर प्रवाहित होती है, तब विपुला या विशाला नामधारण करती है। वहाँसे कुछ ही दूर आगे जाकर यह पुनः पश्चिम दिशाकी ओर मुड़ गयी है। वहाँसे सरस्वतीकी धारा प्रकट देखी जाती है। उसके तटॉपर अत्यन्त मनोहर तीर्थ और देवमन्दिर हैं, जो मुनियों औरसिद्ध पुरुषोंद्वारा भलीभाँति सेवित हैं नन्दा तीर्थमें स्नान करके यदि मनुष्य सुवर्ण और पृथ्वी आदिका दान करे तो वह महान् अभ्युदयकारी तथा अक्षय फल प्रदान करनेवाला होता है।
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