‘पितर’ के अर्थ में ‘अग्निष्वात्ताः’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है?
आग्निष्वात्ताश्च यज्वानः शेषा बर्हिषदः स्मृताः।। ६.५( लिंगपुराण अध्याय ५-)
सत्त्वेन सर्वगं विष्णुं निगुर्णत्वे महेश्वरम्।३० ।
केन गच्छंति नरकं नराः केन महामते।
कर्मणाकर्मणा वापि श्रोतुं कौतूहलं हि नः।३१।
इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे षष्ठोऽध्यायः।६।
ततः सत्त्वस्थितो भूत्वा शिवध्यानं समभ्यसेत्।। ९० ।।
भाषसे पुरुषश्रेष्ठ किमर्थं ब्रूहि तत्त्वतः।
एवं ब्रुवाणं देवेशं लोकयात्रानुगं ततः।४२ ।
प्रत्युवाचाम्बुजाभाक्षं ब्रह्मा वेदनिधिः प्रभुः।
योऽसौ तवोदरं पूर्वं प्रविष्टोऽहं त्वदिच्छया।४३।
यथा ममोदरे लोकाः सर्वे दृष्टास्त्वया प्रभो।
तथैव दृष्टाः कार्त्स्न्येन मया लोकास्तवोदरे। २೦.४४।
ततो वर्षसहस्रात्तु उपावृत्तस्य मेऽनघ।।
त्वया मत्सरभावेन मां वशीकर्तुमिच्छता।२೦.४५।
आशु द्वाराणि सर्वाणि पिहितानि समन्ततः।।
ततो मया महाभाग सञ्चित्य स्वेन तेजसा।। २೦.४६ ।।
लब्धो नाभिप्रदेशेन पद्मसूत्राद्विनिर्गमः।
माभूत्ते मनसोऽल्पोपि व्याघातोऽयं कथञ्चन। २೦.४७ ।
इत्येषानुगतिर्विष्णो कार्याणामौपसर्पिणी।
यन्मयानन्तरं कार्यं ब्रूहि किं करवाण्यहम्। २೦.४८।
ततः परममेयात्मा हिरण्यकशिपो रिपुः।।
अनवद्यां प्रियामिष्टां शिवां वाणीं पितामहात्।। २೦.४९ ।।
श्रुत्वा विगतमात्सर्यं वाक्यमस्मै ददौ हरिः।
न ह्येवमीदृशं कार्यं मयाध्यवसितं तव।। २೦.५೦।
त्वां बोधयितुकामेन क्रीडापूर्वं यदृच्छया।
आशु द्वाराणि सर्वाणि घटितानि मयात्मनः। २೦.५१।
न तेऽन्यथावगंतव्यं मान्यः पूज्यश्च मे भवान्।।
सर्वं मर्षय कल्याण यन्मयापकृतं तव।२೦.५२ ।।
अस्मान् मयोह्यमानस्त्वं पद्मादवतर प्रभो।।
नाहं भवंतं शक्नोमि सोढुं तेजोमयं गुरुम्।२೦.५३।******
सहोवाच वरं ब्रूहि पद्मादवतर प्रभो।
पुत्रो भव ममारिघ्न मुदं प्राप्स्यसि शोभनाम्।। २೦.५४।
सद्भाववचनं ब्रूहि पद्मादवतर प्रभो।
स त्वं च नो महायोगी त्वमीड्यः प्रणवात्मकः। २೦.५५ ।
अद्यप्रभृति सर्वेशः श्वेतोष्णीषविभूषितः।
पद्मयोनिरिति ह्येवं ख्यातो नाम्ना भविष्यसि। २೦.५६ ।
पुत्रो मे त्वं भव ब्रह्मन् सप्तलोकाधिपः प्रभो।
ततः स भगवान्देवो वरं दत्वा किरीटिने।। २೦.५७ ।
एवं भवतु चेत्युक्त्वा प्रीतात्मा गतमत्सरः।
प्रत्यासन्नमथायान्तं बालार्काभं महाननम्।२೦.५८।
भवमत्यद्भुतं दृष्ट्वा नारायणमथाब्रवीत्।।
अप्रमेयो महावक्त्रो दंष्ट्री ध्वस्तशिरोरुहः।। २೦.५९ ।
लिंग पुराण - भाग I/अध्याय
संतों ने महान सुखों के स्वामी के सुख को बहुत ऊंचाई तक फैलाया।
भगवान समुद्र में उस विशाल पलंग पर लेटे हुए हैं 2೦.6 ..
इस प्रकार, सर्वशक्तिमान विष्णु वहाँ लेटे हुए हैं।
वह अपने कार्यों में आत्म-संतुष्ट और चंचल तथा सहज था। 2೦.7.
वह सौ योजन चौड़ा था और युवा सूर्य के समान था
वज्र बहुत ऊँचा था और नाभि से कमल उत्पन्न हुआ था। 2೦.8.
जब वह इस प्रकार खेल रहा था तो मिठास का देवता उसके पास आया
सोने के गर्भ से जन्मे ब्रह्मा सुनहरे रंग के और दिव्य हैं। 2೦.9.
चार मुँह वाला बड़ी आँखों वाला दानव संयोग से एक साथ आ गया
वह दिव्य सुन्दर एवं सुगन्धित ऐश्वर्य से सम्पन्न था 20.10 ।।
ब्रह्मा ने शुभ दृष्टि वाले पुरुष को कमल के साथ खेलते हुए देखा।
तब वह आश्चर्यचकित होकर उसके पास आया और नम्र स्वर में बोला। 20.11 ।।
उसने कहा सोते हुए तुम कौन हो जो पानी के बीच में शरण ले रहे हो?
तब अच्युत ने ब्रह्मा के शुभ वचन सुने 2೦.12.
वह आश्चर्य से खुली हुई आँखों के साथ सोफ़े से उठा।
कल्प कल्प के आश्रय ने उत्तर दिया और उत्तर दिया। 20.13.
जो करना है और कर लिया गया है
मैं स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी का परमधाम हूँ। 2೦.14.
इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान विष्णु ने पुनः उन्हें सम्बोधित किया
आप कौन हैं, आदरणीय, और कहाँ से आये हैं? 20.15.
तुम और कहाँ जाओगे और तुम्हारा आश्रय कौन है?
आप कौन हैं, ब्रह्मांड के अवतार, और मुझे आपके लिए क्या करना चाहिए? 20.16.
जब वैकुण्ठपति इस प्रकार बोल रहा थे तो दादाजी ने उत्तर दिया
भगवान शिव की माया से मोहित होकर उन्होंने जनार्दन को नहीं पहचाना। 20.17.
महान आत्मा का अज्ञात देवता माया से मोहित हो गया था
जैसे आप हैं, वैसे ही मैं भी हूं, मूल रचयिता, स्रष्टा। 20.18.
जगत् के स्वामी ब्रह्मा की बातें सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ
और आपकी अनुमति से, हे भगवान, वैकुंठ, ब्रह्मांड का स्रोत, यहाँ है। 20.19.
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जिज्ञासावश महान योगी ब्रह्मा के मुख में प्रवेश कर गये
ये अठारह द्वीप अपने समुद्रों और पर्वतों सहित 20.20 ।।
चारों वर्णों से भरे हुए नगर में तेजस्वियों ने प्रवेश किया ब्रह्मा के स्तंभ तक सात शाश्वत लोक। 20.21.
महाबाहु विष्णु ने उन सभी को ब्रह्मा के पेट में देखा ओह, उनकी तपस्या की शक्ति, उन्होंने बार-बार कहा। 20.22 ।।
विभिन्न लोकों में यात्रा करने के बाद, विष्णु ने विभिन्न आश्रय लिए।
फिर एक हजार साल के अंत में उसने उस ब्रह्मा के अन्त को नहीं देखा 20.23.
तब उसके मुख से सर्पों के स्वामी का धाम निकला
तब जगत् के दाता भगवान नारायण ने अपने पितामह को सम्बोधित किया। 20.24.
परमात्मा ही आदि और अंत, मध्य, समय, दिशाएं और आकाश है।
हे निष्पाप मैं तुम्हारे पेट का अंत नहीं देख सकता 20.25.
इतना कहकर हरि ने फिर से अपने दादा को संबोधित किया
हे प्रभु, मैं भी ऐसा ही हूं क्योंकि मेरा पेट अनन्त है 20.26.
हे देवश्रेष्ठ, लोकों में प्रवेश करो और इन अतुलनीय लोकों को देखो।
तभी उसने एक उत्साहवर्धक आवाज़ सुनी और उसका अभिवादन किया। 20.27.
ब्रह्मा ने फिर से भाग्य की देवी के स्वामी के पेट में प्रवेश किया
सत्यविक्रम ने उन्हीं लोकों को गर्भ में देखा 2೦.28.
इधर-उधर भटकने के बाद भी वह भगवान हरि का अंत नहीं देख सका
भगवान विष्णु ने अपने पितामह की हरकत जानकर सभी दरवाजे बंद कर दिये।
भगवान झट से यह सोचकर अपना मन बना लेंगे कि वह सुख की नींद सो रहा है 2೦.29.
फिर उन्होंने बंद किये गये सभी गेटों की जांच की
उन्होंने सूक्ष्मता से स्वयं को रूपांतरित किया और अपनी नाभि में एक द्वार पाया। 20.30।
पितामह ने कमल सूत के अनुसार उनका अनुसरण किया
चतुर्मुखी भगवान अपने ही रूप में झील से प्रकट हुए 2೦.31 ..
वह राजा के कमल के समान चमका
ब्रह्मा स्वयंभू भगवान, ब्रह्मांड के स्रोत और पितामह हैं। 2೦.32 ..
इसके बाद उनमें से प्रत्येक पूरी तरह से नष्ट हो गया।
उस समंदर के बीच चल रहे संघर्ष के बीच 2೦.33 ..
वह जहाँ कहीं भी है, वह अथाह आत्मा है, सभी प्राणियों का स्वामी और स्वामी है।
वह त्रिशूल धारण करने वाले और स्वयं को सुनहरे वीर वस्त्रों से ढकने वाले एक महान देवता थे 20.34.
नागों और भोगियों का स्वामी सोननन्त वहाँ गया
उसके तीव्र पराक्रम के पैरों से उन पर आक्रमण किया गया और उन्हें पीड़ा दी गई 2೦.35 ..
आसमान में तेजी से पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें दिखाई देने लगीं
हवा फिर बहुत गर्म और बहुत ठंडी चली 20.36.
इस महान आश्चर्य को देखकर ब्रह्मा ने विष्णु को संबोधित किया
गर्म और ठंडे पानी की बूंदें कमल को जोर से हिलाती हैं। 2೦.37 ..
मुझे यह शंका बताओ या और क्या करना चाहते हो?
दादाजी के मुख से इसी प्रकार का कथन निकला। 2೦.38 ..
यह सुनकर राक्षसों के विनाशक दिव्य ने अतुलनीय कर्म किये
और क्या है जिसने मेरी नाभि में घर बना लिया है? 2೦.39.
वह बहुत अच्छा बोलता है और मैंने उसे नाराज कर दिया है।'
इस प्रकार मन में विचार करके उसने उत्तर दिया 2೦.40 ..
आदरणीय भगवान आज यहां पुष्कर में भ्रमित क्यों हैं?
और हे प्रभु, मैं ने ऐसा क्या किया है, जो मुझे इतना प्रिय है? 2೦.41 ..
हे नरश्रेष्ठ मुझे ठीक-ठीक बताओ कि तुम क्यों बात कर रहे हो?
इस प्रकार बोलते हुए देवताओं के भगवान ने दुनिया भर में उनकी यात्रा पर उनका अनुसरण किया 20.42 ।।
वेदों के भंडार भगवान ब्रह्मा ने कमल-नेत्र भगवान को उत्तर दिया।
मैं जिसने अतीत में तेरी इच्छा से तेरे गर्भ में प्रवेश किया था 2೦.43 ..
हे प्रभु, जैसे आपने मेरे गर्भ में सभी लोकों को देखा है
इस प्रकार मैंने तुम्हारे गर्भ में स्थित लोकों को उनकी संपूर्णता में देखा है। 20.44.
हे निष्पाप, एक हजार वर्ष के बाद मैं लौटा हूँ
आप ईर्ष्यावश मुझे वश में करने का प्रयास कर रहे हैं 20.45.
शीघ्र ही चारों ओर से सभी द्वार बंद कर दिये गये
फिर, हे परम भाग्यशाली, मैंने इसे अपने ही तेज से संचित कर लिया। 20.46.
कमल नाल का निकास नाभि क्षेत्र से होता था
इसे किसी भी तरह से आपके मन में थोड़ी सी भी परेशानी न हो। 20.47.
यह विष्णु के कार्यों का दृष्टिकोण है।
मुझे बताओ कि मुझे आगे क्या करना चाहिए और मुझे क्या करना चाहिए। 2೦.48 ..
फिर परम अजेय शत्रु हिरण्यकशिपु।
पितामह की निष्कलंक प्रिय एवं प्रिय शुभ वाणी 20.49.
यह सुनकर हरि ने बिना ईर्ष्या के उसे ये शब्द कहे
मैंने तुम्हारे लिए ऐसा कुछ करने का निश्चय नहीं किया है 20.50 ।।
मैं संयोग से तुम्हें खेल से पहले जगाना चाहता था।
मैंने तुरंत अपने लिए सारे दरवाज़े खोल दिए। 2೦.51 ..
आपको अन्यथा नहीं समझना चाहिए आप मेरे लिए आदरणीय और पूजनीय हैं
हे शुभ, मैंने तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया है, मुझे क्षमा करो 2೦.52 ..
हे भगवान, जब मैं तुम्हें ले जा रहा हूं तो कमल से उतरो।
मेरे वैभव के शिक्षक, मैं तुम्हें सहन नहीं कर सकता। 2೦.53 ..
साहो ने कहा हे प्रभु कमल से उतरकर मुझे वरदान बताओ
हे शत्रुओं का नाश करने वाले, मेरे पुत्र बनो, और तुम्हें सुंदर सुख प्राप्त होगा। 20.54.
हे प्रभु कमल से उतरो और अच्छाई के शब्द बोलो
आप और आप हमारे महान योगी हैं, आप ओंकार के रूप में पूजनीय हैं। 2೦.55 ..
आज से सभी के भगवान को सफेद पगड़ी से सजाया जाता है।
तुम्हें पद्मयोनि के नाम से जाना जायेगा 20.56.
हे ब्राह्मण, हे भगवान, मेरे पुत्र बनो और सातों लोकों के स्वामी बनो।
तब दिव्य देवता ने किरीटी को वरदान दिया 2೦.57 ..
यह कहकर वह प्रसन्न हो गया और उसकी ईर्ष्या दूर हो गई
फिर वह बालक सूर्य के समान विशाल मुख बनाकर पास आया 2೦.58 ..
फिर उन्होंने भव को अत्यंत अद्भुत देखकर भगवान नारायण को सम्बोधित किया
उसके नुकीले नुकीले दाँतों वाला और टूटे हुए बालों वाला एक अथाह विशाल मुँह था 2೦.59
वह पूरे विश्व में दस भुजाओं और आंखों में त्रिशूल लेकर खड़ा था
संसार के स्वामी स्वयं मोतियों की बेल्ट से सीधे तौर पर विकृत हो जाते हैं 20.60 ।।
उसने अपने ऊँचे मेढ़े( लिंग) को ऊपर की ओर करके बहुत ही भयानक गर्जना की
यह पुरुष कौन है, विष्णु, तेज और महान दीप्ति का यजमान? 2೦.61.
यह सभी दिशाओं और स्वर्गों में व्याप्त है और यहीं से आगे बढ़ता है।
उनके इस प्रकार कहने पर भगवान विष्णु ने ब्रह्मा को सम्बोधित किया 2೦.62.
पैरों से? तल के गिरने से0 समुद्र में जिसका पराक्रम।
जल के भण्डार बड़े वेग से आकाश में ऊपर उठे 2೦.63 ..
हे कमल-जन्म वाले, ब्रह्मांड के लिए आप पर गाढ़ा जल छिड़का गया है।
और गंध के कारण होने वाली हवा में तुम्हारे साथ कांप रहा है। 20.64.
मेरी नाभि अपनी इच्छा से महान् कमल को दुह रही है।
आप शाश्वत के स्वामी और शांति के निर्माता हैं। 20.65.
आपने और हमने गौध्वज की पूजा-अर्चना की
तब क्रोधित ब्रह्मा ने कमल-नेत्र भगवान केशव को संबोधित किया 20.66.
निःसन्देह तू अपने आप को जगत् का स्वामी और स्वामी नहीं जानता
तुम मुझ जगत् के रचयिता सनातन ब्रह्मा को नहीं जानते। 20.67.
वह भगवान शिव कौन हैं जो हमसे भिन्न हैं?
उसकी क्रोधपूर्ण बातें सुनकर हरि ने उत्तर दिया 2೦.68.
हे शुभंकर, महान आत्मा का अपमान करते हुए ऐसा मत बोलो
धर्म महान योग का ईंधन है और अजेय है तथा वरदान प्रदान करता है। 2೦.69.
फिर प्राचीन और अक्षय पुरुष ही इस जगत का कारण है।
वास्तव में बीज ही बीजों की एकमात्र रोशनी है जो चमकती है। 20.70 ।।
भगवान शिव स्वयं बच्चों के खिलौनों से खेल रहे हैं।
प्रधान, अक्षय, गर्भ, अव्यक्त, प्रकृति और अंधकार। 2೦.71 ..
प्रसव की चिरस्थायी धार्मिकता के लिए ये मेरे नाम हैं
तपस्वियों को भगवान शिव संकट में दिखाई देते हैं कि वह कौन हैं। 2೦.72 ..
यह बीजवान है, तुम बीज हो, मैं शाश्वत गर्भ ( यौनि)हूं।
इस प्रकार सार्वभौमिक आत्मा को संबोधित करते हुए ब्रह्मा ने विष्णु से पूछा। 2೦.73 ..
तू गर्भ है, मैं बीज हूँ, बीजवान् कैसा है हे प्रभु?
आप मेरे इस सूक्ष्म एवं अव्यक्त संदेह को दूर कर दीजिये। 2೦.74 ..
और संसार के नियन्ता, ब्रह्म की विभिन्न उत्पत्ति को जानना।
हरि ने यह अत्यंत समान प्रश्न पूछा 2೦.75 ..
हमसे महान और रहस्यमय कुछ भी नहीं है।
महान् का परमधाम अंतर्यामी आत्माओं का मंगलमय धाम है। 2೦.76 ..
इस प्रकार उन्होंने स्वयं को दो भागों में विभाजित कर लिया और अस्थिर बने रहे।
वहां वह जो शुद्ध, व्यक्त और संपूर्ण है, वही परमेश्वर है। 2೦.77 ..
वह जो जादू की विधियाँ जानता हो और जिसकी गहराइयाँ समझ से परे हों
अतीत में, लिंग से उत्पन्न बीज ही सबसे पहले उत्पन्न हुआ था। 2೦.78 ..
समय के साथ वह बीज मेरी योनि में समाहित हो गया है।
स्वर्ण कूप में उन्होंने एक योनिमण्डल को जन्म दिया।2೦.79 ..
मंडल सैकड़ों दस वर्षों तक पानी में रहा
एक हजार वर्ष के अंत में वायु ने इसे दो भागों में विभाजित कर दिया 20.80 ।।
आज किसी के माता-पिता की मृत्यु होती है तो तीसरे या चौथे दिन किसी पंडित को बुलाकर ‘गृह-शुद्धि’ के नाम पर कुछ मन्त्रों से हवन कराकर, एक-दो ब्राहमणों को खिलाकर ‘पूजा-पाठ’ से निश्चिन्त हो जाते हैं और तब अपने इष्टमित्रों के लिए शानदार भोज का आयोजन कर ‘श्राद्ध-कर्म’ सम्पन्न कर लेते हैं।
वैदिक श्राद्ध के नाम पर गृहशुद्धि
कार्ड में बड़े-बड़े अक्षरों में छपता है- ‘वैदिक श्राद्ध-कर्म सम्पन्न होगा’।
क्या यहीं वैदिक श्राद्ध कर्म है? क्या हम इतने अनजान हो गये हैं कि ‘गंगाजल’ कहकर चापाकल का ‘पानी’ पी रहे हैं? माता-पिता के प्रति आपकी आस्था नहीं है या पितर की अवधारणा पर आपकी भिन्न मान्यता है या कर्मकाण्ड के प्रति आस्था नहीं है तो ठीक है, आप स्वतंत्र हैं! कुछ मत कीजिए।
सबाल यह है कि उसे वैदिक श्राद्ध कहने की जरूरत क्या है?
आर्य समाज की मान्यता में दाह संस्कार के बाद श्राद्ध होता ही नहीं है। दयानंद की मान्यता है कि दाह-संस्कार से पूर्व चिता पर वैदिक मंत्रों से हवन कीजिए औऱ फिर आग में लाश को जला दीजिए फिर आपको जिन्दगी भर कुछ करने की जरूरत नहीं है। आर्य समाज का सिद्धान्त है कि जीवित अवस्था में ही माता-पिता एवं समाज के विद्वान् व्यक्ति पितर कहलाते हैं, उऩकी श्रद्धापूर्वक सेवा करना ही श्राद्ध है।
श्राद्ध के पर्याय के रूप में ‘मृत्युभोज’ शब्द का गलत प्रयोग
आज श्राद्ध-कर्म का विरोेध करने के लिए मृत्युभोज शब्द का विरोध किया जाता है। लोगों की आर्थिक स्थिति का उदाहरण देकर मानवीय संवेदना पैदा कर श्राद्धकर्म से विमुख किया जाता है, इसे समाज के लिए हानिकारक कहा जाता है। ठीक है, भोज पर बहुत धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। पर, श्राद्ध-कर्म का जब विरोध होने लगता है तो यह भारतीय परम्परा के लिए घातक है। समाज तथा परिवार को तोड़ने में इस विरोध की महती भूमिका रही है।
आर्य समाज की मान्यता में पितर एवं उनके अर्थ में प्रयोग में आने वाले शब्दों के अर्थ है- जीवित विद्वान् व्यक्ति और श्राद्ध का अर्थ है- श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करना।
यानी सनातन परम्परा तथा आर्यसमाज की परम्परा में पिरतर एवं श्राद्ध शब्द का अर्थ ही भिन्न है।
इसी की जाँच-परख यहाँ आगे की रही है-
19वीं शती का धर्म-सुधार आंदोलन
पितर सम्बन्धी अवधारणा को खण्डित करने में 19वीं शती में इसाई मिशनरियों का बहुत बड़ा हाथ रहा। वास्तव में भारतीय सनातन धर्मावलम्बी अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धालु होते थे। उनकी मान्यता थी कि यदि हम कोई गलत काम करेंगे तो सबसे पहले हमारे पूर्वज हमें उसका दण्ड देंगे। भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए दिवंगत पितरों की पूजा हर जातियों में प्रचलित थी। संथाल के आदिवासी भी अपने ‘नायके’ का चिह्न हर पूजा में बनाते थे और उनकी पूजा करते थे।
श्राद्ध, तर्पण, पार्वण, तीर्थश्राद्ध आदि के प्रति समाज के सभी लोगों में मान्यता थी और पूर्वजों की परम्परा के प्रति आस्था रखते थे। भारतीय समाज को तोड़कर उन्हें अपनी परम्परा से विमुख करने के लिए पितर सम्बन्धी अवधारणा को तोड़ना आवश्यक था ताकि उन्हें अंगरेजियत में ढाला जा सके और सामाजिक एकता को खण्डित किया जा सके।
इसके लिए यह आवश्यक था कि पितर एवं उसके अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ परिवर्तित कर दिया जाये। फलतः यह अवधारणा विकसित की गयी कि ‘पितर’ शब्द का अर्थ जीवित माता-पिता होता है। उनके जीवित रहते उनकी सेवा करना ही ‘श्राद्ध’ है। श्राद्ध शब्द की इस नयी अवधारणा को वैदिक सिद्ध करने के लिए ‘अग्निष्वात्ताः’ शब्द के अर्थ को बदलने की आवश्यकता हुई।
शब्द के अर्थ में परिवर्तन
येऽअ॑ग्निष्वा॒त्ता येऽअन॑ग्निष्वात्ता॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते। तेभ्यः॑ स्व॒राडसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं कल्पयाति॥६०॥
यजुर्वेद 19.60
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते ।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥१४॥ ऋग्वेदः 10.15. 14
इसी प्रकार अथर्ववेद का मन्त्र है-
ये अग्रिदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्य दिवः स्वधया मादयन्ते। त्वं तान्वेथ यदि ते जातवेदः स्वधया यज्ञ स्वधितं जुषन्ताम् ॥३॥
अथर्ववेद, 18.2.3.
अथर्ववेद के इस मन्त्र का अर्थ करते समय तो दयानन्द क्त प्रत्यय का अर्थ भी भूल जाते हैं। वे लिखते हैं-
अर्थः-(ये) (अग्निदग्धाः) अग्निना दह्यमाना इव शोभावन्तः (ये) (अनग्दनिग्धाः) अग्निभिन्नेन सुवर्णरजतादिना दग्धा रूपान्तरमापन्नाः पदार्थाः। धातूनामनेकार्थत्वाद्भस्मीकरणमर्थोत्राविवक्षितः किन्तु रूपान्तरापत्तिरुपमानेन प्रत्येतव्या। अन्यथाअनग्निना कस्यचिद्दाहासम्भवात्।
दग्ध शब्द का अर्थ कोई भी व्यक्ति कह सकता है- जला हुआ। दग्ध में क्त प्रत्यय है तो अर्थ दह्यमाना यह शानच् का अर्थ कैसे होगा? कहते हैं कि यहाँ परिवर्तित रूप वाला अर्थ है। क्योंकि अग्नि से भिन्न वस्तुओं से जलाना सम्भव नहीं है। यहाँ तो अग्निदग्ध और अनग्निदग्ध पितर हैं। जिनका अग्निसंस्कार हुआ हो वे अग्निदग्ध हुए तथा जिनका अग्निसंस्कार न हो सका हो जैसे – जल में डूबने से मृत्यु हुई हो और लाश न मिले तो उनके लिए क्या कहा जायेगा? वे तो अग्नि में नहीं जलाये जा सके हैं लेकिन वे भी तो पितर हैं।
इन तीनों मन्त्रों को एक साथ पढ़कर देखें तो स्पष्ट है कि अग्निष्वात्ताः और अग्निदग्धाः दोनों पर्याय शब्द हैं, एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग वैदिक मन्त्र में ही किया गया है। ये दोनों शब्द पितर के लिए प्रयुक्त हैं। अग्निदग्ध शब्द का तो बिव्कुल स्पष्ट अर्थ है- अग्नि के द्वारा जलाया गया अर्थात् जिनका अग्नि संस्कार हुआ है, वे पितर हैं। अब हम यहाँ विचार करेंगे कि अग्निष्वात्ताः शब्द का अर्थ कैसे दयानन्द ने मनमाने ढंग से कर अर्थ का अनर्थ किया है।
ऋग्वेद के उपर्युक्त मन्त्र का अर्थ करते हुए वे
वेद के शब्दों का मनमाने अर्थ करने में आर्य समाज के संस्थापक दयानंद को महारत हासिल थी, जिसे मैकाले की पद्धति से संस्कृत पढ़नेवाले समझ नहीं सके और उनके किये अर्थ को ही ब्रह्मवाक्य मानने लगे।
दयानन्द ने जीवित विद्वान् व्यक्तियों को पितर मान लिया। वे ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में ‘पितृयज्ञविषयप्रकरण’ में इसे स्पष्ट करते हैं।
“अग्निष्वात्त” शब्द ‘पितर’ के अर्थ में प्रयुक्त है। वाचस्पत्यम् शब्दकोषकार तथा दयानन्द ने इसे ‘सु’ एवं ‘आ’ उपसर्गपूर्वक ‘दा’ धातु से माना। ‘आ’ उपसर्गपूर्वक ‘दा’ धातु से क्त प्रत्यय लगाकर ‘आत्त’ शब्द बना तथा उसमें फिर ‘सु’ उपसर्ग लगाकर ‘स्वात्त’ तथा वैदिक प्रयोग में ‘ष्वात्त’ शब्द बना दिया। इसका अर्थ दयानंद ने लिखा कि अग्नि का आधान जिन्होंने किया हो, अर्थात् जीवित विद्वान् व्यक्ति। शब्दकल्पद्रुमकार ने ‘सु’ उपसर्गपूर्वक ‘अद्’ धातु से माना। दोनों ने ‘ष्वात्त’ पद में ‘सु’ उपसर्ग मान लिया है।
अब हम ऋग्वेद के 10म मण्डल के 15वें सूक्त के 11वें मन्त्र में अग्निष्वात्ताः शब्द का प्रयोग देखें-
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सुप्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन॥११॥
इसका पदपाठ हमलोग देखें-
‘अग्निष्वात्त’ शब्द के प्रयोग में संहिता-पाठ तथा पद-पाठ देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ‘सु’ उपसर्ग नहीं है। उपसर्ग का जहाँ प्रयोग होता है वहाँ पदपाठ में उसे अलग कर लिखा जाता है। लेकिन ‘अग्निष्वाताः’ में ‘ष्वात्ता’ एक साथ लिखा गया है, अतः यहाँ ‘सु’ उपसर्ग नहीं है।यदि यहाँ सु उपसर्ग रहता तो पद पाठ में लिखा जाता- सुऽआत्ताः
अब प्रश्न उठता है कि दयानंद आदि ने ‘सु’ उपसर्ग क्यों माना? उत्तर स्पष्ट है कि उन्हें वेद के मूल अर्थ को बदलकर पितर का अर्थ बदलना था।
इस प्रकार, ये दो दोनों व्युत्पत्तियाँ जिनमें ‘सु’ उपसर्ग माना गया है, भ्रमित हैं, वेद-विरुद्ध हैं।
“अग्निष्वात्ताः’ का पदपाठ शतपथ ब्राह्मण में है- “अग्निष्वात्ताइत्यग्निऽस्वात्ताः।” इसी का अनुसरण करते हुए सायणाचार्य ने अपने वेदभाष्य में “यानग्निरेव दहन्त्स्वदयन्ति ते पितरोऽग्निष्वात्ताः।। यानि जिनके शरीर को जलाते हुए आस्वादन अग्नि करते हैं, यानी जिनका दाहसंस्कार अग्नि से होता है वे ‘अग्निष्वात्त’ पितर कहलाते हैं।
यदि वेद में सु उपसर्ग अभीष्ट होता तो इसका पदपाठ इस प्रकार होता- अग्निष्वात्ताइत्यग्निऽसुऽआत्ताः। लेकिन ऐसा नहीं है।
ध्यातव्य है कि वेद में एक एक अक्षर, एक एक चिह्न संरक्षित हैं।
इस प्रकार सायण ने ‘शतपथ ब्राह्मण’ के पदपाठ के आधार पर ‘स्वद्’ धातु से ‘ष्वात्त’ बनाया है, लेकिन दयानंद ने इसे बदलकर ‘सु+दा’ धातु से लिख दिया। फलतः उन्होंने ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में लिख दिया “अग्निः परमेश्वरो भौतिको वा सुष्ठुतया आत्तो गृहीतो यैस्ते अग्निष्वात्ताः।” अर्थात् अग्नि नामक परमेश्वर को वा भौतिक अग्नि को सुष्टु प्रकार से जिनने स्वीकार किया वे जीवित मनुष्य ‘अग्निष्वात्त’ कहलाये।
अब इसी आधार पर ईसाइयों और आर्य समाजियों की फौज खड़ी हो गयी और प्रचार में लग गयी कि जीवित माता-पिता ही पितर हैं। अतः उनके जीवित रहते ही जो करना है, सो कर लें मरने के बाद कुछ न करें।
अब पाठक देखें कि कैसी चालाकी से दयानंद ने लोगों को बरगलाया और आर्य समाज की मान्यताओं को वैदिक मान्यता के नाम पर लोगों श्राद्ध आदि से विमुख किया।
वैदिक मान्यता है कि जिनका दाह-संस्कार सम्पन्न हो चुका है, यानी मृत व्यक्ति, वे हमारे पितर हैं। उनके निमित्त श्रद्धापूर्वक जल, तिल, पिण्ड, भोजन आदि अर्पित करना श्राद्ध है।
आज भी लोग मृत्युभोज कहकर लोगों की भावनाओं का दोहन कर पितृकर्म से विमुख करने में लगे हुए हैं।
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