"श्रीकृष्णो गोपेश्वर: पञ्चंवर्णम्"
देवीभागवतपुराण -स्कन्धः(9) -अध्यायः (38)
इन्द्रायुश्चैव दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः।
अष्टाविंशे शक्रपाते ब्रह्मणश्च दिवानिशम्।५०।
एवं त्रिंशद्दिनैर्मासो द्वाभ्यामाभ्यामृतुः स्मृतः ।
ऋतुभिः षड्भिरेवाब्दं ब्रह्मणो वै वयः स्मृतम् ॥ ५१ ॥
ब्रह्मणश्च निपाते च चक्षुरुन्मीलनं हरेः ।
चक्षुरुन्मीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ॥ ५२ ॥
प्रलये प्राकृते सर्वे देवाद्याश्च चराचराः ।
लीना धाता विधाता च श्रीकृष्णनाभिपङ्कजे ॥ ५३ ॥
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः।५४॥
यस्य ज्ञाने शिवो लीनो ज्ञानाधीशः सनातनः ।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्वशक्तयः।५५।
सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च।५६ ॥
श्रीकृष्णांशश्च तद्बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः ।
पद्मांशाश्चैव पद्मायां सा राधायां च सुव्रते ॥ ५७ ॥
गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वाश्च देवयोषितः ।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु संस्थिता।५८ ॥
सावित्री च सरस्वत्यां वेदाः शास्त्राणि यानि च ।
स्थिता वाणी च जिह्वायां यस्य च परमात्मनः।५९॥
गोलोकस्य च गोपाश्च विलीनास्तस्य लोमसु ।
तत्प्राणेषु च सर्वेषां प्राणा वाता हुताशनाः ॥६०॥
जठराग्नौ विलीनाश्च जलं तद्रसनाग्रतः ।
वैष्णवाश्चरणाम्भोजे परमानन्दसंयुताः ॥ ६१ ॥
सारात्सारतरा भक्तिरसपीयूषपायिनः ।
विराडंशाश्च महति लीनाः कृष्णे महाविराट् ॥६२ ॥
यस्यैव लोमकूपेषु विश्वानि निखिलानि च ।
यस्य चक्षुष उन्मेषे प्राकृतः प्रलयो भवेत् ॥ ६३ ॥
चक्षुरुन्मीलने सृष्टिर्यस्यैव पुनरेव सः ।
यावत्कालो निमेषेण तावदुन्मीलनेन च ॥ ६४ ॥
ब्रह्मणश्च शताब्दे च सृष्टेः सूत्रलयः पुनः ।
ब्रह्मसृष्टिलयानां च संख्या नास्त्येव सुव्रते ॥ ६५ ॥
यथा भूरजसां चैव संख्यानं नैव विद्यते ।
चक्षुर्निमेषे प्रलयो यस्य सर्वान्तरात्मनः ॥ ६६ ॥
उन्मीलने पुनः सृष्टिर्भवेदेवेश्वरेच्छया ।
स कृष्णः प्रलये तस्यां प्रकृतौ लीन एव हि ।६७ ॥
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एकैव च परा शक्तिर्निर्गुणः परमः पुमान् ।
सदेवेदमग्र आसीदिति वेदविदो विदुः ॥ ६८ ॥
मूलप्रकृतिरव्यक्ताप्यव्याकृतपदाभिधा ।
चिदभिन्नत्वमापन्ना प्रलये सैव तिष्ठति ॥ ६९ ॥
तद्गुणोत्कीर्तनं वक्तुं ब्रह्माण्डेषु च कः क्षमः ।
मुक्तयश्च चतुर्वेदैर्निरुक्ताश्च चतुर्विधाः ॥ ७० ॥
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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे सावित्र्युपाख्यानवर्णनं नामाष्टत्रिलोऽध्यायः।३८।
अनुवाद:-
[हे] साध्वि]] देवताओं के इकहत्तर युगोंकी इन्द्रकी आयु होती है; ऐसे अट्ठाईस इन्द्रोंके समाप्त होनेपर ब्रह्माका एक दिन-रात होता है।
ऐसे तीस दिनोंका एक महीना होता है और इन्हीं दो महीनोंकी एक ऋतु कही गयी है। इन्हीं छः ऋतुओंका एक वर्ष होता है और ऐसे (सौ वर्षों) की ब्रह्माकी आयु कही गयी है ।50-51 ।
ब्रह्माकी आयु समाप्त होनेपर श्रीहरि आँखें मूँद लेते हैं। श्रीहरिके आँखें मूंद लेनेपर प्राकृत प्रलय हो जाता है। उस प्राकृतिक प्रलयके समय समस्त चराचर प्राणी, देवता, विष्णु तथा ब्रह्मा ये सब श्रीकृष्णके नाभिकमलमें लीन हो जाते हैं । 52-53।
क्षीरसागरमें शयन करनेवाले तथा वैकुण्ठवासी चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु प्रलयके समय परमात्मा श्रीकृष्णके वाम पार्श्वमें विलीन होते हैं ज्ञानके अधिष्ठाता सनातन शिव उनके ज्ञानमें विलीन हो जाते हैं।
सभी शक्तियाँ विष्णुमाया दुर्गामें समाविष्ट हो जाती हैं और वे बुद्धिको अधिष्ठात्री देवता दुर्गा भगवान् श्रीकृष्णकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो जाती हैं। नारायणके अंश स्वामी कार्तिकेय उनके वक्षःस्थलमें लीन हो जाते हैं ।।54-56॥
हे सुव्रते। श्रीकृष्णके अंशस्वरूप तथा गणोंके स्वामी देवेश्वर गणेश श्रीकृष्णकी दोनों भुजाओं में समाविष्ट हो जाते हैं।
श्रीलक्ष्मीकी अंशस्वरूपा देवियाँ भगवती लक्ष्मीमें तथा वे देवी लक्ष्मी राधा में विलीन हो जाती हैं। इसी प्रकार समस्त गोपिकाएँ तथा देवपत्नियाँ भी उन्हीं श्रीराधा में अन्तर्हित हो जाती हैं और श्रीकृष्णके प्राणोंकी अधीश्वरी वे राधा उन श्रीकृष्णके प्राणोंमें अधिष्ठित हो जाती हैं ।। 57-58॥
सावित्री तथा जितने भी वेद और शास्त्र हैं, वे सब सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं और सरस्वती उन परमात्मा श्रीकृष्ण की जिह्वामें विलीन हो जाती हैं ॥ 59 ॥
गोलोक के सभी गोप उनके रोमकूपों में प्रवेश कर जाते हैं। सभी प्राणियोंकी प्राणवायु उन श्रीकृष्णके प्राणोंमें, समस्त अग्नियाँ उनकी जठराग्निमें तथा जल उनकी जिह्वाके अग्रभागमें विलीन हो जाते हैं।
सार के भी सारस्वरूप तथा भक्तिरसरूपी अमृतका पान करने वाले वैष्णवजन परम आनन्दित होकर उनके चरणकमल में समाहित हो जाते हैं ।। 60-61॥
विराट्के अंशस्वरूप क्षुद्रविराट् महाविराट्में और महाविराट् उन श्रीकृष्ण में विलीन हो जाते हैं, जिनके रोमकूपों में सम्पूर्ण विश्व समाहित हैं, जिनके आँख मीचने पर प्राकृतिक प्रलय हो जाता है और जिनके नेत्र खुल जानेपर पुनः सृष्टिकार्य आरम्भ हो जाता है। जितना समय उनके पलक गिरने में लगता है, उतना ही समय उनके पलक उठाने में लगता है।
ब्रह्माके सौ वर्ष बीत जानेपर सृष्टिका सूत्रपात और पुनः लय होता है। हे सुव्रते! जैसे पृथ्वीके रजः कणोंकी संख्या नहीं है, वैसे ही ब्रह्माकी सृष्टि तथा प्रलयकी कोई संख्या नहीं है ।।62-65 ॥
जिन सर्वान्तरात्मा परमेश्वरकी इच्छासे उनके पलक झपकते ही प्रलय होता है तथा पलक खोलते ही पुनः सृष्टि आरम्भ हो जाती है,
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वे श्रीकृष्ण प्रलय के समय उन परात्पर मूलप्रकृति ( परम-ब्रह्म) में लीन हो जाते हैं; उस समय एकमात्र पराशक्ति ( परम्- ब्रह्म) ही शेष रह जाती है, यही निर्गुण परम पुरुष भी है।
यही सत्स्वरूप तत्त्व सर्वप्रथम विराजमान था - ऐसा वेदों के ज्ञाताओं ने कहा है ।। 66-68 ॥
अव्यक्तस्वरूपी मूलप्रकृति 'अव्याकृत' नामसे कही जाती हैं। चैतन्यस्वरूपिणी वे ही केवल प्रलयकालमें विद्यमान रहती हैं। उनके गुणोंका वर्णन करने में कौन समर्थ है? ब्रह्माण्डचैतन्यस्वरूपिणी वे ही केवल प्रलयकालमें विद्यमान रहती हैं। उनके गुणोंका वर्णन करनेमें ब्रह्माण्डमें कौन समर्थ है ? । 69।
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