-कृष्ण से किसान तक का सफर- तथा वसुदेव के गोप होने के पौराणिक सन्दर्भ★
स्वयं कृष्ण तो केवल लीला हेतु पृथ्वी लोक पर गोपों के सानिध्य में ही अवतरण करते हैं। क्योंकि गोप मूलत: गोलोक की ही सृष्टि हैं जो अपने व्यष्टि रूप में प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्षुद्रविराट के रोम कूपों से सृष्टि के प्रारम्भ में ही ब्रह्मा से पूर्व ही सतयुग में उत्पन्न हो जाते हैं।
जब इस यज्ञ के लिए निर्धारित शुभ मुहूर्त व्यतीत न हो जाये इसी कारण से ब्रह्मा को यज्ञकार्य हेतु तत्काल एक पत्नी की आवशयकता होती है। यज्ञ सम्पादन करने वाले होतृ ( होता) अध्वर्यु आदि ब्रह्मा से पत्नी की सहभागिता के लिए कहते हैं।
"होता"यज्ञ में आहुति देनेवाला तथा मंत्र पढ़कर यज्ञकुंड में हवन की सामग्री डालने वाले के रूप में उपस्थित माना जाता है । और अत्रि इस यज्ञ में "होता" की भूमिका में हैं। सभी सप्तर्षि इस यज्ञ में किसी न किसी भूमिका में उपस्थित हैं।
विशेष—यह चार प्रधान ऋत्विजों में है जो ऋग्वेद के मंत्र पढ़कर देवताओं का आह्वान करता है। मुहूर्त= ( दिन- रात का तीसवाँ भाग )
ब्रह्मा की पत्नी सावित्री गृह कार्य में व्यस्त हैं अत: वे यज्ञ- स्थल में आने को तैयार नहीं हैं। अब मुहूर्त का समय निकला जा रहा है। तभी सप्तर्षियों के कहने पर ब्रह्मा अपने यज्ञ कार्य के लिए इन्द्र को एक पत्नी बनाने के लिए कन्या लाने को कहते हैं। तब आभीर कन्या गायत्री को इन्द्र ब्रह्मा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
विष्णु ही इस कन्या के दत्ता ( कन्यादान करनेवाले पिता बनकर ) ब्रह्मा से इसका विवाह सम्पन्न कराते हैं। क्योंकि विष्णु ही गोपों के सनातन संरक्षक हैं।
अनुवाद:- अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंश में जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालन का कार्य करोगे ।।15-16।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥17॥ उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
_______
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया।
संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम गोविल है जो गोलोक से अवतरित होकर आनर्त (गुजरात)देश में निवास करते थे क्योंकि यह गायों के निवास करने का स्थान है।
गोविल- और गोविला- नाम उनके गायों से सम्बन्धित गौलोकीय अवधारणा को पुष्ट करते हैं। यह हम पूर्व नें ही बता चुके हैं कि -
ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि रचना के पश्चात यह अपना प्रथम यज्ञ सत्र प्रारम्भ किया था। जिसमें अपने द्वारा उत्पन्न चारों वर्णो के लोग ,देवगण, सप्तर्षि
आदि आमन्त्रित किए थे।
परन्तु ब्रह्मा के इस यज्ञ समारोह में गोपगण नहीं थे। क्योंकि गोप ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं । ये मनुष्य गण गोलोक में ही स्वराट विष्णु ( द्विभुज धारी) कृष्ण के लोम(रोम) कूपों से उत्पन्न हैं।
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे।
स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। विष्णु सनातन गोप हैं , वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
____________________
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)।
और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धर्मवत्सल,सदाचारी और सुव्रतज्ञ (अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
"विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ( वर्ण) जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति (वर्ण )भी इस संसार में है ।४३।
वैष्णव वर्ण ब्रह्मा के द्वारा निर्मित आ चार वर्णों से श्रेष्ठ व पृथक इसलिए है । वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत गोप लोगों का व्यवसाय गोपालन और कृषि के अतिरिक्त १-युद्ध करना - २-ज्ञान देना और ३- दीन और वञ्चितों की सेवा करना भी है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में स्वयं गोपों के नायक श्रीकृष्ण ने भोजन के उपरान्त पत्तले भी उठाईं थी।
अर्थात ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के सभी वर्णों के काम अकेले गोपों ने ही कर दिया था।
यदि गोप ब्राह्मी वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत होते तो गो पालक होने से नारायणीयम् सेना के योद्धा कभी नहीं होते ! क्योंकि ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण के व्यक्ति या व्यवसाय ( कार्य) कभी नहीं कर सकता है। वैष्णव वर्ण इसी कारण सभी वर्णों से श्रेष्ठ है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५।
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के द्वितीय चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो -दुग्ध का दोहन भी करती हैं। अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन भी प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण के सन्दर्भ में कहे तो - गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है।
गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री सा एक प्रसंग है जिसमें वह कहती हैं।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् ( पहले जैसा) कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर उसे समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन कभी नहीं कर सकता है।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु यह कहना विपरीत है।
गायत्री के माता-पिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चतुर्यवर्ण सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
सावित्री की उत्पत्ति भी गोलोक में हुयी है। देखें कृष्ण से सावित्री कि जन्म हुआ । सावित्री शब्द गायत्री का भी नामान्तरण है। गायत्री की उत्पत्ति के सभी नाम गो मूलक हैं।
गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि -
पृथ्वी पर गायत्री का आगमन गोलोक से ही हुआ था। गायत्री वैष्णवी शक्ति है।
पुरुरवा भी गायत्री उपासक के रूप में प्रचीन पृथ्वी का प्रथम गोप सम्राट है।
उसके गोष और गोपाल तथा गोपीथ विशेषण भी हैं ।
"गोष" लौकिक संस्कृत में घोष का रूपान्तरण हो गया है। घोष शब्द - लौकिक संस्कृत साहित्य में गोप-आभीर तथा गोशाला का वाचक है।
📚: गोलोक से भूलोक तक "पञ्चम वर्ण गोपों की सृष्टि -
___________________
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं।
उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं।
उनकी संख्या लक्षकोटि( लाखों- करोड़ो में ) थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है। गोप और गोपियों की संख्या समान थी।
ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
"सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे ।
उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुस्कराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं।
उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं।
उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
ये गोप लोग ही संसार में कृषि पद्धति के जन्मदाता हुए - कृष्ण के पिता स्वयं वसुदेव ने भी अपने पिता शूरसेन कि देहावसान होने पर गोपालन और कृषि से ही जीवन निर्वाह किया था।
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ।४१।
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते । ४२।
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम्।४३।
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते । ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः । ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः । ४६।
अनुवाद:- हे राजन् ! कश्यपमुनिके अंशसे प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्मके शापवश इस जन्ममें गोपालन का कार्य करते थे ॥41॥
हे महाराज ! हे पृथ्वीपते ! उन्हीं कश्यपमुनिकी दो पलियाँ- अदिति और सुरसा(सुरभि) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ ! उनदोनों ने देवकी और रोहिणी के रूप में जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।।42-43।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें पत्नीयों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44ll
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णुको गोप कुल में जन्म क्यों लेना पड़ा ?।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवताओं से श्रेष्ठ युग के आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थान को छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्यों की भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषय में मुझे महान् सन्देह है ॥ 46-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥3॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है।
अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें।
मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, परिग्रह पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभ से स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये१४
_________________________________
अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजी ने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालन का कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥17 ॥
उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥18 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥
सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥
व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥
जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥
उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23।
तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥
कश्यपमुनिकी बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी।
उनके ओजसे सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रत में स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी।
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दिति को देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥
[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥
इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदिति ने अपने पुत्र इन्द्र से कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दिति के गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है।
हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥
धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रताका सदा ध्यान रखती थी।
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥
[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दितिके | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भसे ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥
इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र! इस समय दितिके | गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
मुझसे सपत्नी भाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥
जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥
हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कीलके समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।।
व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।।
इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।।
मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।।
पादसंवाहन का सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥
दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥
इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥
उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ
शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥
उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥
यह सब बहन अदिति द्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय।
जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचि पुत्र कश्यप ने | दिति प्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे।
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्र के मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्म का फल भोगेगी।
इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापोंके संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली।
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
इसकी मूल धातु कृष् है (उणादि कृषति-ते, कृष्ट), इससे खीचने अथवा आकर्षित करने (यथा : हस्ताभ्यां नश्यद्क्राक्षीद्), हल चलाने, घसीटने, मोड़ना (यथा : नात्यायतकृष्टशार्ङ्गः), उखाड़ना, बल पूर्वक नियन्त्रण करना (यथा : बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति), नेतृत्व करने (विशेषकर सेना का नेतृत्व यथा "स सेनां महतीं कर्षन्"), प्राप्त करना (यथा : कुलसंख्यां च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यशः), छीनने, कष्ट अथवा वेदना देने, खुरचने (यथा : सुवीरकं याच्यमाना मद्रिका कर्षति स्फिचौ), फाड़ देने (यथा : प्रसह्य सिंहः किल तांचकर्ष) आदि अर्थों में प्रयुक्त शब्दों को रचा जाता है।
— लिखते हुए किसान आन्दोलन की नेतागिरी और हिंसा का कारण इस शब्द के मूल में दिखने लगा है।
कृष् का मूल फिर भी कृषि को ही मानते हैं। जैसे श्रीमद्भागवत से :
ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्गलैः ।
कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयां चक्रिरे नृपम् ॥
— श्रीमद्भागवत १.७४.१२
Proto-Indo-European-
Root-
*kʷels-
to pull, drag
to turn
Related termsedit
*kʷel-
Descendantsedit
Proto-Indo-Iranian:
Proto-Indo-Aryan:
Sanskrit: कृष् (kṛṣ)
Derived termsedit
*kʷéls-e-ti (root present)
Hittite: gulsanzi (“to scratch, tear”)
Proto-Indo-Iranian: *káršati
Proto-Iranian:
Avestan: 𐬐𐬀𐬭𐬱𐬀𐬌𐬙𐬌 (karšaiti)
Persian: کشیدن (kašidan)
Proto-Indo-Aryan: *kárṣati
Sanskrit: कर्षति (karṣati, “draw, pull, drag”)[3]
References-
^ Rix, Helmut, editor (2001), “kʷels-”, in Lexikon der indogermanischen Verben [Lexicon of Indo-European Verbs] (in German), 2nd edition, Wiesbaden: Dr. Ludwig Reichert Verlag, →ISBN, pages 388
^ Pokorny, Julius (1959), “639”, in Indogermanisches etymologisches Wörterbuch [Indo-European Etymological Dictionary] (in German), volume 2, Bern, München: Francke Verlag, page 639
^ Monier Williams (1899), “kṛṣ-”, in A Sanskrit–English Dictionary, […], new edition, Oxford: At the Clarendon Press, →OCLC, page 0306.
यह एक भारोपीय मूल का शब्द है। इसका मूल शब्द *kʷéls-e-ti (खीँचना, घसीटना) परिकल्पित है। इसके बन्धु शब्द यह हैं :
अवेस्तन : 𐬐𐬀𐬭𐬱𐬀𐬌𐬙𐬌 (कर्शति)
फ़ारसी : کشیدن (केशिदान)
आर्मेनियन : քարշ (कर्श)
सन्दर्भ :—
आप्ते का संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष
विक्शनरी
वाचस्पत्यम्
कृषि की रोमन देवी कौन है?
सेरेस कृषि की रोमन देवी हैं। वह उर्वरता, गेहूं और मातृ प्रेम की देवी भी हैं। उसका ग्रीक समकक्ष डेमेटर है।
सेरेस नाम का अर्थ क्या है ? फसल की रोमन देवी का नाम प्रोटो-इटैलिक शब्द, keres से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'अनाज के साथ'। यह उर्वरता, फसल, गेहूं और कृषि की देवी के रूप में उनकी भूमिका से जुड़ा है।
उसके नाम से, हमें 'अनाज' शब्द मिलता है। अंग्रेजी में, जिसका उपयोग अभी भी गेहूं और अनाज आधारित नाश्ते के भोजन का वर्णन करने के लिए दैनिक रूप से किया जाता है।
The name Cerēs stems from Proto-Italic *kerēs it's mean ('with grain, Ceres'; cf.
a derivative of the root *ḱerh₃-, meaning 'to feed'.
The Proto-Italic adjective *keresjo- ('belonging to Ceres') can also be reconstructed from Oscan kerríiúí (fem. kerríiai),
and Umbrian śerfi (fem. śerfie).
A masculine form *keres-o- ('with grain, Cerrus') is attested in Umbrian śerfe. The spelling of Latin Cerus, a masculine form of Ceres denoting the creator (cf. Cerus manus 'creator bonus', duonus Cerus 'good Cerus'), might also reflect Cerrus, which would match the other Italic forms.
सेरेस नाम प्रोटो-इटैलिक *केरेस से निकला है, इसका मतलब है ('अनाज के साथ, सेरेस'; सीएफ।
अरि आदि देव है। जो कालान्तर में हरि हो गया-
संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु
रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ
"हल चलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये कृदन्त पद हैं।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। वैश्य शब्द वणिक सा वाचक नहीं है। अपितु वाणिज्य क्रिया को कालान्तर में वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य)ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83
अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है ।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है।
___________
क : पुनर् आर्य निवास: ?
आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।
ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर आदि -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते विधान निश्चित किया है।
दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे विना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे ।।११।
(नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11वाँ श्लोक)
________________________________________
परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है।
इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के
फिर भी व्यास स्मृति में वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। को शूद्र धर्मी न कहते !
सायद यही कारण है ।
किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तमसंघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है ।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में !
परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !और कोई मूल्य नहीं !
फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाले और अन्तत: वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे
यह आश्चर्य ही है ।
किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।
परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में यह वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।
"रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।
१-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।
(आर्य' और 'वीर' शब्दों का विकास)
परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
श्रीगारुजे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥
कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .
जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे ।
उसी प्रक्रिया के तहत बाद में ग्राम शब्द (पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया ।
________________
ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् )प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
__________________________________________
यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है ।
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है
'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । '
पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है ।
अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है ।
वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया
परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि रूपों में परिभाषित हुआ दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।
श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है ।
पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है ।
आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है।
पूर्व वैदिक काल का अरि का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ।
*हिन्दी अनुवाद:-★ ____________________________ "हरिवंशपर्व । वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं। वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है। जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व(भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में किस जाति में प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ? ।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?। २६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२। __________________________________ "इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।५५।।
________
यही उपर्युक्त बात देवी भागवत महापुराण में भी चतर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में भी लगभग इसी के समान कही गयी है।
"भगवान् हरि अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
_____
हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।
हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा (नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।।44।
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47।
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 ।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ । 49-51।
विशेष:-
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन और प्राचीन है।
"पिता के मृत्यु के पश्चात -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए "
अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
_____________
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में कहा गयी है कि पिता के मरणो उपरानत वसुदेव ने कृषि और गोपालन कार्य किया था -
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।
("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)
स्कन्ध 4, अध्याय 3 -
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
"देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः ४
दित्या अदित्यै शापदानम्
"व्यास उवाच
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥
वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
"ब्रह्मोवाच-
सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणः परमो गुरुः
तस्मै देयानि दानानि भक्तिश्रद्धासमन्वितैः ।३।
अनुवाद-
सभी जातियों में ब्राह्मण ही परम गुरु है।
जिसे भक्ति से युक्त होकर दान देना चाहिए।३।
______________________
सर्वदेवाश्रयो विप्रः प्रत्यक्षस्त्रिदशो भुवि
स तारयति दातारं दुस्तरे विश्वसागरे ।४।
अनुवाद-
ब्राह्मण सभी देवताओं का आश्रय है। साक्षात पृथ्वी पर एक देवता है। वह संसार के इस महासागर में जिसे पार करना मुश्किल है वह ब्राह्मण दान करने वाले को बचाता है।४।
-ब्राह्मण उवाच-
सर्ववर्णगुरुर्विप्रस्त्वया प्रोक्तः सुरोत्तम
तेषां मध्ये तु कः श्रेष्ठः कस्मै दानं प्रदीयते ।५।
अनुवाद-
ब्राह्मण ने कहा : हे श्रेष्ठ भगवान, आपने ब्राह्मण को सभी जातियों में सबसे अधिक सम्मानित घोषित किया है। लेकिन उनमें से (अर्थात ब्राह्मण में भी ) सबसे महान कौन है? दान किसे दिया जाता है।५।
-ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ।६।
अनुवाद-
-ब्रह्मा ने कहा-
ब्रह्मा बोले- हे ब्राह्मण में उत्तम ! सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, और सभी हमेशा आदरणीय हैं। ब्राह्मण जो चोरी जैसे दोषों से दूषित हो गए हैं वे भी हमारे आदरणीय हैं ।६।
__________________________________________
अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन
अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरःस्मृताः।७।
अनुवाद-
____________________
हमसे द्वेष करने वाले वे सब और दूसरों के द्वारा वे सब भी कभी समान करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि अनाचारी( व्यभिचारी) ब्राह्मण भी पूज्य होते हैं परन्तु शूद्र जितेन्द्री होने पर भी पूज्य नहीं होते है । ब्राह्मण जो अभक्ष्य भी खाता है वह भी पूज्य है। गाय संसार की माता ही कही जाती है । ७।
समानता-
"दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न तु शूद्रो जितेन्द्रियः । कः परित्यज्य गां दुष्टांगा दुहेच्छीलवतीं खरीं ।। ८.२५ ।।
अनुवाद:-
दु:शील ( दुराचारी) ब्राह्मण पूज्यनीय है। न कि शूद्र जो जितेन्द्रिय भी क्यों न हो । कौन दूषित अंगों वाली गाय को छोड़कर शीलवती गदहीया(गधी) को दुहेगा।२५।
अर्थात- "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणगणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र भी पूजनीय नहीं है।"
शील का मतलब:- चाल ,व्यवहार, आचारण। वृत्ति अथवा चरित्र है। — जैसा कि उद्धरण है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१।
अर्थ:-धर्मशास्त्रों के रथ पर सवार वेद रूपी तलवार धारण करने वाला ब्राह्मण खेल खेल में भी जो कुछ बोले वह भी परम धर्म माना जाता है।।२६।
( पराशर -स्मृति आठवाँ) अध्याय
वर्ण व्यवस्था और हिन्दुराष्ट्र के समर्थन की बात करने वाले आज वही लोग हैं जो बिना किसी श्रम -परिश्रम के ऊँची जाति के नाम पर मलाई खाते रहे हैं और बिना योग्यता और गुणों के भी पूजे जाते रहे हैं।
तुलसी दास तभी जहालत की हालत में लिख गये
"पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" सन्दर्भ:- (रामचरित.मानस. ३।३४।२)
तुलसी से पहले यही बात मनुस्मृति पाराशर स्मृति और अन्य स्मृतियाों तथा कुछ पुराणों में भी जोड़ी व लिखी गयी । जैसे जैसे पद्मपुराण का एक नीचे नमूना है।
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ।६।
अनुवाद-
-ब्रह्मा ने कहा-
ब्रह्मा बोले- हे ब्राह्मण में उत्तम ! सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, और सभी हमेशा आदरणीय हैं। ब्राह्मण जो चोरी जैसे दोषों से दूषित हो गए हैं वे भी हमारे आदरणीय हैं ।६।
"माहात्म्यं भूमिदेवानां विशेषादुच्यते मया
तव स्नेहाद्द्विजश्रेष्ठ निशामय समाहितः ।८।
अनुवाद-
हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, अब मैं विशेष रूप से आपके लिए स्नेह के माध्यम से ब्राह्मणों की महानता को बता रहा हूं। इसे ध्यान से सुनें।८।
पद्मपुराण क्रिया योगसार खण्ड अध्याय (२१)
दर असल यहाँ ब्राह्मणों की विना किसी गुण योग्यता के आधार पर भी श्रेष्ठ सिद्ध करने बाते इसलिए प्रस्तुत की गयीं ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि चन्द्रमा को अत्रि से उत्पन्न करा कर और अत्रि को ब्राह्मणों के पिता -ब्रह्मा से उत्पन्न करा कर चन्द्र अथवा सोम से सम्बन्ध रखने वाली जाति अहीर( गोप) को ब्राह्मण वर्णव्यवस्था में खसीटा जा सके-
_____________________________
चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु( नारायण) के मन से उत्पन है अत: चन्द्रा़मा भी वैष्णव है। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हैं। वह तो वैष्णव हैं रही। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय (मूल वैदिक )शब्द मान=( मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से । यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
स्वयं पुरुरवा शब्द का अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
(अग्ने) हे अग्ने! ! (सुकृत्तरः) अत्यन्त सुकृत कर्म करनेवाले (त्वम्) आप (पुरूरवसे) अधिक स्तुति करने वाले कवि के लिए (मनवे) ज्ञानवान् विद्वान् के लिये (द्याम्) द्यौ लोक को (अवाशयः) - तुम प्रकाशित हुए।
मध्यम
अवाशयः
(वश्- प्रकाशित होना- धातु का लङ्लकार मध्यम पुरुष एक वचन का
रूप अवाशय:) - तुम प्रकाशित किए हुए हो । (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पूर्वसमय में (अपरम्) इसके आगे (पुनः) बार-बार (अनयन्) आते हैं। जो (त्वा) तुझे (श्वात्रेण) धन और विज्ञान के साथ वर्त्तमान (पूर्वम्) पिछले (अपरम्) अगले को प्राप्त कराता है (पित्रोः) माता और पिता से तू (पर्यामुच्यसे) सब प्रकार छूट जाता (आ) अच्छे प्रकार कर ॥ ४ ॥
हे अग्नि! तुम मनन शील व्यक्ति ( मनु) के लिए स्वर्ग से प्रकाशित हुए।
अच्छे से अच्छा कर्म करने वाले पुरुरवा के उन अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप उसके लिए भी प्रकाशित हुए ।
जब अरणियों( लकड़ीयों) के शीघ्र मन्थन से तुम चारो ओर उत्पन्न होते हो। जब अरणियों से उत्पन्न हुए तुम्हें वेदी के पहले स्थान को ले जाते हुए आह्वानीय रूप से स्थापित किया गया और उसके पश्चात पश्चिम स्थान को ले जाते हुए तुम्हें गार्हपत्य रूप में स्थापित किया गया ।।(ऋ०१/३१/४)
हे राजन्! कश्यपमुनिके अंशसे प्रतापी वसुदेवजी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्मके शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे ॥ 41 ॥
हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नीयाँ- अदिति और सुरसा ने भी शापवश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ ! उनदोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूप में जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२।
(व्यास उवाच) एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा । अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥ 1 ॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्य के लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्य की समाप्ति के पश्चात्] वरुणदेव के बहुत याचना करने पर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ।
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ।
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें।
मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥ संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुत से कारण हैं ॥ 1 ॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेव की गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेव ने जगत्के स्वामी ब्रह्मा के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहे हैं। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गाय के बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7
"व्यासजी बोले- जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदिति को शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
वसुदेव गोप रूप में पिता की मृत्यु के बाद कृषि और गोपालन करते हुए-
•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
मानुष्ये स कथं बुद्धिं चक्रे चक्रभृतां वरः। गोपायन यः कुरुते जगतः सर्वकालिकम्॥२,७२.१२॥ स कथं गां गतो विष्णुर्गोपत्वमकरोत्प्रभुः। महाभूतानि भूतात्मा यो दधार चकार ह॥२,७२.१३॥
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे नन्दपुत्रोत्सवो नाम नवमोऽध्यायः ।९।
"ऋषय ऊचुः॥ क एष वसुदेवश्च देवकी च यशस्विनी। नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा च महायशाः। यो विष्णुं जनयामास या चैनं चाभ्यवर्द्धयत् ॥२२९।
"अनुवाद:- ऋषियों ने कहा- ये यशवाले वसुदेव और देवकी तथा महान यश वाले ये नन्द और यशोदा कौन थे ? जिन्होंने विष्णु(कृष्ण) भगवान को जन्म दिया और उनका पालन पोषण किया।२२९।
सूत जी बोले- कश्यप के अंश से वसुदेव नन्दादि पुरुष हुए तथा अदिति के अंश से देवकी, यशोदा आदि स्त्रीयाँ- महाबाहु श्रीकृष्ण ने देवकी के मनोरथों को पूर्ण किया था।२३०।
______________________
श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥३४॥
भीष्म उवाच क एष वसुदेवस्तु देवकी का यशस्विनी।१४४।
नन्दगोपश्च कश्चैव यशोदा का महाव्रता या विष्णुं पोषितवती यां स मातेत्यभाषत।१४५।
भीष्मने पूछा- ब्रह्मन् ! ये वसुदेव कौन थे? यशस्विनी देवकीदेवी कौन थीं तथा ये नन्दगोप और उनकी पत्नी महाव्रता यशोदा कौन थीं? जिसने बालकरूपमें भगवान्को जन्म दिया और जिसने उनका पालन-पोषण किया जिसे भगवान विष्णु ने माता इस प्रकार कहा , उन दोनों स्त्रियोंका परिचय दीजिये।
पुलस्त्यजी बोले- राजन् पुरुष वसुदेव जी कश्यप # और उनको प्रिया देवकी अदिति कही गयी हैं।
कश्यप ब्रह्माजी के अंश हैं और अदिति पृथ्वी का अंश है।इसी प्रकार द्रोण नामक वसु ही नन्दगोप के नाम से विख्यात हुए हैं तथा उनकी पत्नी धरा यशोदा हैं।
देवी देवकी ने पूर्वजन्म में अजन्मा परमेश्वर से जो कामना की थी, उसकी वह कामना महाबाहु श्रीकृष्ण ने पूर्ण कर दी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें