धर्म ब्रह्मा की सृष्टि है जिसके चार पुत्र पुराणों में बताए हैं। हरि" कृष्ण" नर - और नारायण।
यह विवरण देवी भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध और चतुर्थ अध्याय में है।
श्लोक संख्या ९-१०-११-१२-१३-१४-१५।
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मलिना वासना सत्यं विनाशायेति सर्वथा ।
ब्रह्मणो हृदयाञ्चातः पुत्रो धर्म इति स्मृतः ॥ ९ ॥
ब्रह्मणो हृदयाञ्चातः पुत्रो धर्म इति स्मृतः ॥ ९ ॥
ब्राह्मणः सत्यसम्पन्तो वेदधर्मरतः सदा ।
दक्षस्य दुहितारो हि वृता दश महात्मना ॥ १० ॥
विवाहविधिना सम्यङ्मुनिना गृहधर्मिणा ।
तास्वजीजनयत्पुत्रान्धर्मः सत्यवतां वरः ॥ ११।
हरिं कृष्णं नरं चैव तथा नारायणं नृप ।
योगाभ्यासरतो नित्यं हरिः कृष्णो बभूव ह।१२।नरनारायणौ चैव चेरतुस्तप उत्तमम् ।
प्रालेयाद्रिं समागत्य तीर्थे बदरिकाश्रमे ॥ १३॥
तपस्विषु धुरीणौ तौ पुराणौ मुनिसत्तमौ ।
गृणन्तौ तत्परं ब्रह्म गङ्गाया विपुले तटे ॥ १४ ॥
गृणन्तौ तत्परं ब्रह्म गङ्गाया विपुले तटे ॥ १४ ॥
हरेरंशौ स्थितौ तत्र नरनारायणावृषी ।
पूर्णं वर्षसहस्रं तु चक्राते तप उत्तमम् ॥ १५ ॥
अनुवाद- मलिन वासना विनाशके लिये होती है; यह सर्वथा सत्य है! ब्रह्माजीके हृदयसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो धर्म-इस नाम से कहा गया। ॥9॥
वह ब्रह्मा से उत्पन्न (ब्राह्मण) सत्यसम्पन्न और वैदिक धर्म में सदा संलग्न रहने वाला था।
उस गृहस्थ धर्मी महात्मा मुनि ने पाणिग्रहण की विधिसे दक्षप्रजापतिकी दस कन्याओं का सम्यक् रूपसे वरण किया।10।
सत्यव्रतियों में श्रेष्ठ उस धर्म ने उनसे 'हरि', 'कृष्ण', 'नर' और 'नारायण' नामक चार पुत्र उत्पन्न किये।11-12
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लक्ष्म्या गरुडमारुह्य वैकुण्ठं प्रययौ नृप ।
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥२४॥
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥२५॥
ततो भूत्वा हरिः कृष्णो नरनारायणावृषी ॥२४॥
कल्याणार्थं नराणां च प्रययौ बद्रिकाश्रमम् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो राधया युतः ॥२५॥
हे राजन्! उनमें 'हरि' और 'कृष्ण' ये दोनों योगाभ्यास करने लगे तथा नर और नारायण ये दोनों हिमालय पर्वत के शिखर पर जाकर 'बदरिकाश्रम' में गये।
तीर्थ में कठिन तपस्या करने लगे ।13।
वे प्राचीन मुनिश्रेष्ठ नर और नारायण तपस्वियों में सबसे प्रधान थे। गंगाके विस्तृत तटपर रहकर ब्रह्मचिन्तन करते हुए भगवान् विष्णु( हरि) के अंशावतार नर-नारायणने वहाँ पूरे एक हजार वर्षों तक कठोर तप किया।14-15।
(देवी भागवत, चौथा स्कंध चतुर्थ अध्याय )।
उपर्युक्त देवी भागवत पुराण के श्लोक में "हरि" शब्द दो बार आया है। एक हरि धर्म के पुत्र का नाम है द्वितीय हरि परमेश्वर स्वरूप विष्णु का वाचक है।
और यहाँ धर्म के पुत्र कृष्ण से अलग कृष्ण नाम से और वासुदेव श्रीकृष्ण से पृथक व्यक्ति हैं। और ये नारायण और नर भी अलग हैं। क्षीरसागर के नारायण से अलग हैं।
स्वराट-विष्णु का वाचक हरि शब्द उस परम ब्रह्म परमात्मा का भी विशेषण है। जो परात्पर ब्रह्म है।
हरि -हरति पापानीति । हृ + “ हृपिषि- रुहीति । “ उणादि सूत्र- ४ । १२८ । इति इन् । ) विष्णुः । जो परमात्मा पापों का हरण करता है। वह परमेश्वर हरि है।
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धर्म- महाभारत के अनुसार एक देवता थे जो कि दक्ष की ग्यारह कन्याओं के पति थे और अष्टवसुओं के पिता थे।
दक्ष की वे पुत्रियाँ जो कि 'धर्म' की पत्नी थी उनके नाम इस प्रकार है।
-कीर्ति बुद्धि लज्जा धृति लक्ष्मी पुष्टि श्रद्धा मति मेधा क्रिया वसु।
ब्रह्मा के मानस पुत्र धर्म की एक पत्नी का नाम रुचि था।
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इस रूचि( मूर्ति) के गर्भ से विष्णु ने नर और नारायण नाम के दो महान तपस्वियों के रूप में धरती पर जन्म लिया
वामन पुराण के अनुसार , जुड़वाँ बच्चे धर्म , ब्रह्मा के पुत्र और उनकी पत्नी मूर्ति ( दक्ष की बेटी ), या अहिंसा के पुत्र थे। वे एक हजार वर्ष तक बद्रीनाथ में रहे।
धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर - नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए।शौनक जी ! धर्म के ये सभी तीन पुत्र बड़े धर्मात्मा हुए।
"प्रसूत्यां दक्षबीजेन षष्टिकन्याः प्रजज्ञिरे ।।
अष्टौ धर्माय स ददौ रुद्रायैकादश स्मृताः ।। ७ ।।
अष्टौ धर्माय स ददौ रुद्रायैकादश स्मृताः ।। ७ ।।
शिवायैकां सतीं प्रादात्कश्यपाय त्रयोदश ।।
सप्तविंशति कन्याश्च दक्षश्चन्द्राय दत्तवान् ।। ८ ।।
नामानि धर्मपत्नीनां मत्तो विप्र निशामय ।।
शान्तिः पुष्टिर्धृतिस्तुष्टिः क्षमा श्रद्धा मतिः स्मृतिः। ९।
शान्तेः पुत्रश्च सन्तोषः पुष्टेः पुत्रो महानभूत् ।।
धृतेधैर्य्यं च तुष्टेश्च हर्षदर्पौ सुतौ स्मृतौ ।1.9.१०।
क्षमापुत्रः सहिष्णुश्च श्रद्धापुत्रश्च धार्मिकः ।।
मतेर्ज्ञानाभिधः पुत्रः स्मृतेर्जातिस्मरो महान् ।। ११।
पूर्वपत्न्यां च मूर्त्यां च नरनारायणावृषी ।।
बभूवुरेते धर्मिष्ठा धर्मपुत्राश्च शौनक ।। १२ ।।
सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कोई एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी।
उसकी अंगकान्ति श्वेत वर्ण की थी और उसने अपने मस्तक पर जटा धारण कर रखी थी।
वह सबका साक्षी, सर्वज्ञ तथा सबके समस्त कर्मों का द्रष्टा था।
उसका सर्वत्र समभाव था। उसके हृदय में सबके प्रति दया भरी थी।
वह हिंसा और क्रोध से सर्वथा अछूता था। उसे धर्म का ज्ञान था। वह धर्म स्वरूप, धर्मिष्ठ तथा धर्म प्रदान करने वाला था।
वही धर्मात्माओं में ‘धर्म’ नाम से विख्यात है।
परमात्मा श्रीकृष्ण की कला से उसका प्रादुर्भाव हुआ है, श्रीकृष्ण के सामने खड़े हुए उस पुरुष ने पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर प्रणाम किया और सम्पूर्ण कामनाओं के दाता उन सर्वेश्वर परमात्मा का स्तवन आरम्भ किया।
धर्म बोले – जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, इसलिये ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, सर्वव्यापी होने के कारण जिनकी ‘विष्णु’ संज्ञा है, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम ‘वासुदेव’ है, जो ‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’ हैं, ‘गोविन्द’, ‘परमानन्द’, ‘एक’, ‘अक्षर’, ‘अच्युत’, ‘गोपेश्वर’, ‘गोपीश्वर’, ‘गोप’, ‘गोरक्षक’, ‘विभु’, ‘गौओं के स्वामी’, ‘गोष्ठ निवासी’, ‘गोवत्स-पुच्छधारी’, ‘गोपों और गोपियों के मध्य विराजमान’, ‘प्रधान’, ‘पुरुषोत्तम’, ‘नवघनश्याम’, ‘रासवास’, और ‘मनोहर’, आदि नाम धारण करते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
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सन्दर्भ:-
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सन्दर्भ:-
ब्रह्म वैवर्त पुराण-
ब्रह्मखण्ड : अध्याय (3)
आगे देखें इसी अध्याय को-
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ऐसा कहकर धर्म उठकर खड़े हुए।
फिर वे भगवान की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु और महादेव जी के साथ वार्तालाप करके उस श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे।
जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर धर्म के मुख से निकले हुए कृष्ण के इन चौबीस नामों का पाठ करता है, वह सर्वथा सुखी और सर्वत्र विजयी होता है।
मृत्यु के समय उसके मुख से निश्चय ही हरि नाम का उच्चारण होता है।
अतः वह अन्त में श्रीहरि के परम धाम में जाता है तथा उसे श्रीहरि की अविचल दास्य-भक्ति प्राप्त होती है। उसके द्वारा सदा धर्मविषयक ही चेष्टा होती है।
अधर्म में उसका मन कभी नहीं लगता। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी फल सदा के लिये उसके हाथ में आ जाता है।
उसे देखते ही सारे पाप, सम्पूर्ण भय तथा समस्त दुःख उसी तरह भय से भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ पर दृष्टि पड़ते ही सर्प पलायन कर जाते हैं।
सौति कहते हैं – तत्पश्चात् धर्म के वामपार्श्व से एक रूपवती कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात दूसरी लक्ष्मी के समान सुन्दरी थी।
वह ‘मूर्ति’ नाम से विख्यात हुई।
"सौतिरुवाच।
आविर्बभूव तत्पश्चाद्वक्षसः परमात्मनः ।।
सस्मितः पुरुषः कश्चिच्छुक्लवर्णो जटाधरः । ४१।
सर्वसाक्षी च सर्वज्ञः सर्वेषां सर्वकर्मणाम् ।।
समः सर्वत्र सदयो हिंसाकोपविवर्जितः ।। ४२ ।।
धर्मज्ञानयुतो धर्मो धर्मिष्ठो धर्मदो भवेत् ।।
स एव धर्मिणां धर्मः परमात्मा फलोद्भवः ।४३।
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा प्रणम्य दण्डवद्भुवि ।।
तुष्टाव परमात्मानं सर्वेशं सर्वकामदम् ।। ४४ ।।
"श्रीधर्म उवाच ।
कृष्णं विष्णुं वासुदेवं परमात्मानमीश्वरम् ।।
गोविन्दं परमानन्दमेकमक्षरमच्युतम् ।। ४५ ।।
गोपेश्वरं च गोपीशं गोपं गोरक्षकं विभुम् ।।
गवामीशं च गोष्ठस्थं गोवत्सपुच्छधारिणम् ।।४६।।
गोगोपगोपीमध्यस्थं प्रधानं पुरुषोत्तमम् ।।४७।।
इत्युच्चार्य्य समुत्तिष्ठन्रत्नसिंहासने वरे ।।
ब्रह्मविष्णुमहेशांस्तान्सम्भाष्य स उवास ह।।४८।।
चतुर्विशतिनामानि धर्मवक्त्रोद्गतानि च।।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय स सुखी सर्वतो जयी ।।४९।।
मृत्युकाले हरेर्नाम तस्य साध्यं लभेद् धुवम् ।।
स यात्यन्ते हरेः स्थानं हरिदास्यं भवेद्ध्रुवम् ।।1.3.५०।।
नित्यं धर्मस्तं घटते नाधर्मे तद्रतिर्भवेत् ।।
चतुर्वर्ग फलं तस्य शश्वत्करगतं भवेत्।।५१।।
तं दृष्ट्वा सर्वपापानि पलायन्ते भयेन च।।
भयानि चैव दुःखानि वैनतेयमिवोरगाः।।५२।।
इति ब्रह्मवैवर्त्ते धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।
"सौतिरुवाच ।
आविर्बभूव कन्यैका धर्मस्य वामपार्श्वतः ।।
मूर्त्तिर्मूर्तिमती साक्षाद्द्वितीया कमलालया ।।५३ ।।
"ब्रह्मोवाच ।
कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।।
अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ।। ३५ ।।
किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।।
नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।३६।।
वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।।
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।३७।।
प्रसूत्यां दक्षबीजेन षष्टिकन्याः प्रजज्ञिरे ।।
अष्टौ धर्माय स ददौ रुद्रायैकादश स्मृताः ।। ७ ।।
अष्टौ धर्माय स ददौ रुद्रायैकादश स्मृताः ।। ७ ।।
शिवायैकां सतीं प्रादात्कश्यपाय त्रयोदश ।।
सप्तविंशति कन्याश्च दक्षश्चन्द्राय दत्तवान् ।। ८ ।।
नामानि धर्मपत्नीनां मत्तो विप्र निशामय ।।
शान्तिः पुष्टिर्धृतिस्तुष्टिः क्षमा श्रद्धा मतिः स्मृतिः। ९ ।
शान्तेः पुत्रश्च सन्तोषः पुष्टेः पुत्रो महानभूत् ।।
धृतेधैर्य्यं च तुष्टेश्च हर्षदर्पौ सुतौ स्मृतौ ।। 1.9.१०
क्षमापुत्रः सहिष्णुश्च श्रद्धापुत्रश्च धार्मिकः ।।
मतेर्ज्ञानाभिधः पुत्रः स्मृतेर्जातिस्मरो महान् ।। ११
पूर्वपत्न्यां च मूर्त्यां च नरनारायणावृषी ।।
बभूवुरेते धर्मिष्ठा धर्मपुत्राश्च शौनक ।। १२ ।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय (९) मेें भी कुछ धर्म से सम्बन्धित विवरण नीचे देखें-
अनुवाद:-
दक्ष के वीर्य और प्रसूति के गर्भ से साठ कन्याओं का जन्म हुआ।
उनमें से आठ कन्याओं का विवाह दक्ष ने धर्म के साथ किया, ग्यारह कन्याओं को ग्यारह रुद्रों के हाथ में दे दिया।
एक कन्या सती भगवान शिव को सौंप दी। तेरह कन्याएँ कश्यप को दे दीं तथा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को अर्पित कर दीं।
विप्रवर! अब मुझसे धर्म की पत्नियों के नाम सुनिये– शान्ति, पुष्टि, धृति , तुष्टि, क्षमा, श्रद्धा, मति और स्मृति। शान्ति का पुत्र संतोष और पुष्टि का पुत्र महान हुआ।
धृति से धैर्य का जन्म हुआ। तुष्टि से दो पुत्र हुए – हर्ष और दर्प।
क्षमा का पुत्र सहिष्णु था और श्रद्धा का पुत्र धार्मिक।
मति से ज्ञान नामक पुत्र हुआ और स्मृति से महान जातिस्मर का जन्म हुआ।
धर्म की जो पहली पत्नी मूर्ति थी, उससे नर - नारायण नामक दो ऋषि उत्पन्न हुए।
शौनक जी! धर्म के ये सभी तीन पुत्र बड़े धर्मात्मा हुए।
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(श्रीबह्मवैवर्त महापुराण सौतिशौनकसंवाद ब्रह्मखण्ड नवमोऽध्यायः ।९।)
धर्म को देवीभागवत पुराण में ब्रह्मा से उत्पन्न कर दिखाना उसे ब्राह्मण वाद से युक्त करना ही है। पुरोहितों द्वारा-
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वैकुण्ठ की कथा-
शौनक के बृहद-देवता ग्रंथ के अनुसार,
इंद्र देव ने दानवों को मारने के लिए अवतार लिया था और दैत्य नश्वर संसार में जन्म लेना चाहते थे। प्रजापति की पुत्री विकुंठा एक ऐसे पुत्र की कामना करती थी जो स्वयं इंद्र के समान हो और इसलिए उसने पुत्र प्राप्त करने के लिए प्रजापति (संभवतः ब्रह्मा) की तपस्या की।
परिणामस्वरूप इन्द्र स्वयं उनसे उत्पन्न हुए और उनका नाम वैकुण्ठ इन्द्र रखा गया।
प्रजापति की विकुण्ठा नाम की एक आसुरी पुत्री थी। उसने इंद्र जैसे पुत्र की इच्छा से बहुत कठोर तपस्या की।
फिर उसने प्रजापती से विभिन्न वरदानों के रूप में अपनी इच्छाएँ प्राप्त कीं ।
और इंद्र स्वयं उससे पैदा हुए थे, क्योंकि वह दैत्यों और दानवों को मारना चाहते थे ।
एक बार वह दानवों के साथ युद्ध में उलझा हुआ था।
उनमें से उसने नौ नब्बे के दशक और सात के सात समूहों को मार डाला। अपनी भुजा की शक्ति से सोने, चाँदी और लोहे के गढ़ों को चकनाचूर कर दिया, (और) उन सभी को उनके संबंधित क्षेत्रों (यथास्थानम) में मार डाला, जैसा कि पृथ्वी और अन्य (दो दुनियाओं) पर स्थित था।
पृथ्वी पर, उसने कालकेय और धनुर्धर पुलोमा की जाति, और स्वर्ग में प्रह्लाद की कुख्यात संतान दोनों को नष्ट कर दिया।
सन्दर्भ:-
- बृहद-देवता, अध्याय 7, 11वाँ वर्ग।
बृहद्देवता संस्कृत में छंदशास्त्र का एक प्राचीन ग्रंथ है। इसके रचयिता शौनक माने जाते हैं।
एक प्राचीन ग्रन्थ है, जिसका रचनाकार शौनक को माना जाता है।
6 वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के ऋषि देवता, छन्द पद आदि के विषय में जो ग्रन्थ लिखे गये हैं, उनमें यह एक सर्वश्रेष्ठ, प्रसिद्ध और प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में प्रत्येक देवता का स्वरूप, स्थान तथा वैलक्षण्य का वर्णन किया गया है।
महाभारत तथा बृहद्देवता की कुछ कथाओं में साम्य भी दिखाई देता है।
श्लोक तथा अध्याय अनुमान है कि ईसा के पूर्व आठवीं शताब्दी में अर्थात् पाणिनी के पूर्व तथा यास्क के बाद इसकी रचना हुई है।
वैदिक देवताओं के नाम कैसे रखे गये, इसका विचार इसमें हुआ है।
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कोई इंद्र वैकुंठ के पीछे की पूरी कहानी अध्याय 7, कहानी श्लोक 10-13 में पढ़ सकता है।
बृहद-देवता शौनक की एक प्रामाणिक कृति है जो ऋग्वेद संहिता के देवताओं से संबंधित है, और बृहद-देवता में कई कहानियाँ भी हैं जो महाभारत और अन्य पुराणों में मौजूद हैं।
पत्नी विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठैः सुरसत्तमैः ।
तयोः स्वकलया जज्ञे वैकुण्ठो भगवान् स्वयम् ।४।
शब्दार्थ:-
शुभ्रस्य - शुभ्रा का - वैकुण्ठ: - वैकुण्ठ नाम- पत्नी विकुण्ठा पत्नी - - तयोः - उन दोनों के - भगवान वैकुंठः - भगवान श्रीविष्णु - स्वयं - स्वयं - वैकुंठः -वैकुंठनामक - सुरसत्तमैः - सर्वश्रेष्ठ देवताओं के साथ - स्वकलया -अपनी कला से -जज्ञे -जन्म लिया ।4।
अनुवाद:-
शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा।
उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया। ४।
वैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः ।
रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ।५।
शब्दार्थ:-
देव्या रमाया - देवी लक्ष्मी द्वारा - प्रार्थ्यमानेन यया- जिसके द्वारा प्रार्थना की गयी - - तत्प्रियकाम्या - उस लक्ष्मी की प्रिय इच्छा से - लोकानामस्कृतः - सभी लोगों द्वारा नमस्कार किए गये - वैकुण्ठ : लोकः - वैकुण्ठ नाम के लोक - कल्पितः - निर्माण किया।5।
अनुवाद:-
उन्हीं ने लक्ष्मी देवी की प्रार्थना से उनको प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम की रचना की थी। ५।
तस्यानुभावः कथितो गुणाश्च परमोदयाः ।
भौमान् रेणून्स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद्गुणान् ।६ ।
शब्दार्थ:-
तस्य - उस विष्णु का - अनुभाव: - पराक्रम -कथित:- बताया गया है - च - तथा - परमोदया: - महान् उदय । - गुणा: - ऐश्वर्यादि गुण - यः - जो - विष्णो: - श्री विष्णु के - गुणान् - गुणों को - वर्णयेत् - वर्णित करे - सः - वह जिसने - भौमान् - पृथ्वी का - रेणून् -धूल कणो को - विममे - मापन किया। 6।
अनुवाद:-उस विष्णु का पराक्रम बताया जा चुका है तथा - महान् उदय वाले ऐश्वर्यादि गुण जो श्री विष्णु के गुणों को -वर्णन करे -मान लो वह जिसने - पृथ्वी के -धूल कणो को नापन लिया है। 6।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे अमृतमथने पञ्चमोऽध्यायः ।५।
मूल प्रकरण को निम्नलिखित देंखें
भागवत पुराण के आठवें स्कन्ध के पाँचवें अध्याय का पूर्ण अनुवाद:- नीचे देंखें-
श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद:-
"देवताओं का ब्रह्मा जी के पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान् की स्तुति श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् की यह गजेन्द्र मोक्ष की पवित्र लीला समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो। पाँचवें मनु का नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे।
उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था विभु। और भूतरय आदि देवताओं के प्रधान गण थे।
परीक्षित! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे।
उन सप्तर्षियों एक ऋषि शुभ्र थे । शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा।
उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् विष्णु ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया।
उन्हीं ने लक्ष्मी देवी की प्रार्थना से उनको प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम( लोक) की रचना की थी। वह लोक समस्त लोकों में श्रेष्ठ है।
उन वैकुण्ठनाथ के कल्याणमय गुण और प्रभाव का वर्णन मैं संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ। भगवान् विष्णु के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो।
छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पुरुस, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे। इन्द्र का नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि।
उन मन्वन्तर में हविष्यामान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे। जगत्पति भगवान् ने उस समय भी वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था।
उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल की मथानी के आधार बने थे।
राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! भगवान् ने क्षीरसागर का मन्थन कैसे किया? उन्होंने कच्छप( कूर्म) रूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्य से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया? देवताओं को उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्र से निकलीं? भगवान् की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये।
आप भक्तवत्सल भगवान् की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुनने के लिये उत्सुक होता जा रहा है।
अघाने का तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनों से यह संसार की ज्वालाओं से जलता जो रहा है।
सूत जी ने कहा- शौनकादि ऋषियों! भगवान् श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान् की समुद्र-मन्थन-लीला का वर्णन आरम्भ किया।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित!
जिस समय की यह बात है, उस समय असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी, वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके।
दुर्वासा के शाप से तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँ तक कि यज्ञ-यागादि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था।
यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओं ने आपस में बहुत कुछ सोचा-विचारा; परन्तु अपने विचारों से वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके।
तब वे सब-के-सब सुमेरु के शिखर पर स्थित ब्रह्मा जी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने बड़ी नम्रता से ब्रह्मा जी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित किया।
वैकुण्ठ नाम भगवान कृष्ण का भी वाचक है।
"ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वऽऽत्यन्तिकमातमनः।
मनसा धारयामासुर्-वैकुठचरणाम्बुजम ॥४६॥
मनसा धारयामासुर्-वैकुठचरणाम्बुजम ॥४६॥
अनुवाद:-
उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभांति प्राप्त कर लिए थे; इसलिए यह निश्चय करके कि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल (वैकुठचरणाम्बुजम )ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदय में धारण किया ।।46।।
उन्होंने जीवन के सभी लाभ भलीभांति प्राप्त कर लिए थे; इसलिए यह निश्चय करके कि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल (वैकुठचरणाम्बुजम )ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदय में धारण किया ।।46।।
सन्दर्भ:
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नर नारायण का जन्म प्रसंग-
📚: चरितं वासुदेवस्य त्वमाख्याहि यथातथम् ।
नरनारायणौ देवौ पुराणावृषिसत्तमौ ॥ १२ ॥
धर्मपुत्रौ महात्मानौ तपश्चेरतुरुत्तमम् ।
यौ मुनी बहुवर्षाणि पुण्ये बदरिकाश्रमे ।१३ ॥
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे जनमेजयप्रश्नो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
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अनुवाद:-
📚: पुरातन धर्मपुत्र, महात्मा तथा देवस्वरूप ऋषिश्रेष्ठ नर-नारायणने उत्तम तप किया था। जगत्के कल्याणार्थं निराहार, जितेन्द्रिय तथा स्पृहारहित रहते हुए काम क्रोध-लोभ-मोहमद- मात्सर्य इन छहाँ वृत्तियो पर पूर्ण नियन्त्रण रखकर साक्षात् भगवान् विष्णुके अंशस्वरूप जिन नर-नारायण मुनियोंने पुण्यक्षेत्र बदरिकाश्रममें बहुत वर्षों तक श्रेष्ठ तपस्या की थी, नारद आदि सर्वज्ञ मुनियोंने प्रसिद्ध तथा महाबलसम्पन्न अर्जुन तथा श्रीकृष्ण को उन्हीं दोनोंका अंशावतार बताया है।
विशेष श्री कृष्ण अंश नहीं अपितु अंशी है।
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उन भगवान् नर-नारायण ने एक शरीर धारण करते हुए भी दूसरा जन्म क्यों प्राप्त किया और पुनः वे कृष्ण तथा अर्जुन कैसे हुए? ॥12-16 ॥
(देवीभागवत पुराण अध्याय १ चतुर्थ स्कन्घ)
देवीभागवत पुराण की उपर्युक्त बातें संगत नहीं हैं।
देवी भागवत पुराण की इन विसंगतियों को हम नीचे वर्णित कर रहे हैं।
"तयोरंशावतारौ हि जिष्णुकृष्णौ महाबलौ ।
प्रसिद्धौ मुनिभिः प्रोक्तौ सर्वज्ञैर्नारदादिभिः॥१५॥
प्रसिद्धौ मुनिभिः प्रोक्तौ सर्वज्ञैर्नारदादिभिः॥१५॥
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विद्यमानशरीरौ तौ कथं देहान्तरं गतौ ।
नरनारायणौ देवौ पुनः कृष्णार्जुनौ कथम् ॥१६॥
विद्यमानशरीरौ तौ कथं देहान्तरं गतौ ।
नरनारायणौ देवौ पुनः कृष्णार्जुनौ कथम् ॥१६॥
यौ चक्रतुस्तपश्चोग्रं मुक्त्यर्थं मुनिसत्तमौ ।
तौ कथं प्रापतुर्देहौ प्राप्तयोगौ महातपौ ॥ १७ ॥
तौ कथं प्रापतुर्देहौ प्राप्तयोगौ महातपौ ॥ १७ ॥
शूद्रः स्वधर्मनिष्ठस्तु देहान्ते क्षत्रियस्तु सः ।
शुभाचारो मृतो यो वै स शूद्रो ब्राह्मणो भवेत् ।१८।
ब्राह्मणो निःस्पृहः शान्तो भवरोगाद्विमुच्यते ।
विपरीतमिदं भाति नरनारायणौ च तौ ॥ १९ ॥
तपसा शोषितात्मानौ क्षत्रियौ तौ बभूवतुः ।
केन तौ कर्मणा शान्तौ जातौ शापेन वा पुनः।२०।
ब्राह्मणौ क्षत्रियौ जातौ कारणं तन्मुने वद ।
यादवानां विनाशश्च ब्रह्मशापादिति श्रुतः ॥२१॥
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कृष्णस्यापि हि गान्धार्याः शापेनैव कुलक्षयः ।
प्रद्युम्नहरणं चैव शम्बरेण कथं कृतम् ॥ २२ ॥
कृष्णस्यापि हि गान्धार्याः शापेनैव कुलक्षयः ।
प्रद्युम्नहरणं चैव शम्बरेण कथं कृतम् ॥ २२ ॥
वर्तमाने वासुदेवे देवदेवे जनार्दने ।
पुत्रस्य सूतिकागेहाद्धरणं चातिदुर्घटम् ॥ २३ ॥
द्वारकादुर्गमध्याद्वै हरिवेश्माद्दुरत्ययात् ।
न ज्ञातं वासुदेवेन तत्कथं दिव्यचक्षुषा ॥ २४ ॥
न ज्ञातं वासुदेवेन तत्कथं दिव्यचक्षुषा ॥ २४ ॥
सन्देहोऽयं महान्ब्रह्मन्निसन्देहं कुरु प्रभो ।
यत्पत्न्यो वासुदेवस्य दस्युभिर्लुण्ठिता हृताः।२५।
स्वर्गते देवदेवे तु तत्कथं मुनिसत्तम ।
संशयो जायते ब्रह्मंश्चित्तान्दोलनकारकः ॥ २६ ॥
विष्णोरंशः समुद्भूतः शौरिर्भूभारहारकृत् ।
स कथं मथुराराज्यं भयात्त्यक्त्वा जनार्दनः।२७।
द्वारवत्यां गतः साधो ससैन्यः ससुहृद्गणः ।
अवतारो हरेः प्रोक्तो भूभारहरणाय वै ॥ २८ ॥
पापात्मनां विनाशाय धर्मसंस्थापनाय च ।
तत्कथं वासुदेवेन चौरास्ते न निपातिताः ॥ २९ ॥
यैर्हृता वासुदेवस्य पत्न्यः संलुण्ठिताश्च ताः ।
स्तेनास्ते किं न विज्ञाताः सर्वज्ञेन सता पुनः।३०।
भीष्मद्रोणवधः कामं भूभारहरणे मतः ।
अर्चिताश्च महात्मानः पाण्डवा धर्मतत्पराः ॥ ३१ ॥
अर्चिताश्च महात्मानः पाण्डवा धर्मतत्पराः ॥ ३१ ॥
कृष्णभक्ताः सदाचारा युधिष्ठिरपुरोगमाः ।
ते कृत्वा राजसूयञ्च यज्ञराजं विधानतः ॥ ३२ ॥
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"अनुवाद:-जिन मुनिप्रवर नर-नारायण ने मुक्ति हेतु कठोर तपस्या की थी; उन महातपस्वी तथा योगसिद्धिसम्पन्न दोनों देवों ने मानव शरीर क्यों प्राप्त किया ? ।17।
अपने धर्म में निष्ठा रखने वाला शूद्र अगले जन्म में क्षत्रिय होता है और जो शुद्र वर्तमान जन्म में पवित्र आचरण करता है, वह मृत्यु के अनन्तर ब्राह्मण होता है।
कामनाओं से रहित शान्त स्वभाव ब्राह्मण पुनर्जन्मरूपी रोगसे मुक्त हो जाता है, किंतु उनके विषयमें तो सर्वथा विपरीत स्थिति दिखायी देती है।
उन नर-नारायणने तपस्या से अपना शरीरतक सुखा दिया, फिर भी वे ब्राह्मण से क्षत्रिय हो गये। शत स्वभाव वे दोनों अपने किस कर्म से अथवा किस शापसे ब्राह्मणसे क्षत्रिय हुए?
हे मुने! वह कारण बताइये ।18 -20।
मैंने यह भी सुना है कि यादवों का विनाश ब्राह्मण के शापसे हुआ था और गान्धारी के शापसे ही श्रीकृष्णके वंशका विनाश हुआ था।
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शम्बरासुर ने कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न का अपहरण क्यों किया ? देवाधिदेव जनार्दन वासुदेवके रहते सूतिकागृहसे पुत्रका हरण हो जाना एक अत्यन्त अद्भुत बात है।
द्वारका के किले में श्रीकृष्ण के दुर्गम राजमहलसे पुत्रका हरण हो गया; किंतु भगवान् श्रीकृष्णने उसे अपनी दिव्य दृष्टिसे क्यों नहीं देख लिया? हे ब्रह्मन्! यह एक महान् शंका मेरे समक्ष उपस्थित है। हे प्रभो! आप मुझे सन्देह मुक्त कर दीजिये 21-24।
देवदेव श्रीकृष्णके स्वर्गगमन के अनन्तर उनकी पनियोंको लुटेरों ने लूट लिया; हे मुनिराज वह कैसे हुआ ? हे ब्रह्मन् ! मनको आन्दोलित कर देनेवाला यह संदेह मुझे हो रहा है। ll 25-26 ll
श्रीकृष्ण भगवान् विष्णु के अंशसे उत्पन्न हुए थे और उन्होंने पृथ्वीका भार उतारा था। हे साथी! ऐसे वे जनार्दन जरासन्धके भव से मथुराका राज्य छोड़कर अपनी सेना तथा बन्धु बान्धवोंके सहित द्वारकापुरी क्यों चले गये? ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्णका अवतार पृथ्वी को भारसे मुक्त करने, पापाचारियों को विनष्ट करने तथा धर्म की स्थापना करनेके लिये हुआ था,
देवदेव श्रीकृष्णके स्वर्गगमन के अनन्तर उनकी पनियोंको लुटेरों ने लूट लिया; हे मुनिराज वह कैसे हुआ ? हे ब्रह्मन् ! मनको आन्दोलित कर देनेवाला यह संदेह मुझे हो रहा है। ll 25-26 ll
श्रीकृष्ण भगवान् विष्णु के अंशसे उत्पन्न हुए थे और उन्होंने पृथ्वीका भार उतारा था। हे साथी! ऐसे वे जनार्दन जरासन्धके भव से मथुराका राज्य छोड़कर अपनी सेना तथा बन्धु बान्धवोंके सहित द्वारकापुरी क्यों चले गये? ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्णका अवतार पृथ्वी को भारसे मुक्त करने, पापाचारियों को विनष्ट करने तथा धर्म की स्थापना करनेके लिये हुआ था,
फिर भी वासुदेवने उन लुटेरोंको क्यों नहीं मार डाला, जिन लुटेरोंने श्रीकृष्णकी पत्नियोंको लूटा तथा उनका हरण किया? सर्वज्ञ होते हुए भी श्रीकृष्ण उन चोरोंको क्यों नहीं जान सके ?। 27-30 l
प्रक्षेप-
पत्नीयों के हरण का प्रसंग किन्हीं पुराणों में कृष्ण के देहावसान के बाद का है। परन्तु इस पुराण में इस प्रकार कहना की कृष्ण दस्युओं को क्यो नही रोक पाये हास्य जा पद सिद्धान्त विहीन है।
और (कृष्ण का स्वर्ग गमन भी उनको छोटा सिद्ध करना है) क्यो स्वर्ग ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत है जबकि कृष्ण ब्रह्माण्ड से बहुत ऊपर गोलोक वासी है।।
उन्हें विष्णु का अंश अवतार कहना भी छोटा करके दर्शाना है। कृष्ण और अर्जुन को नारायण और नर का अवतरण बताना भी उन्हें छोटा करके आँकना है।
वस्तुत: उपर्युक्त प्रकरण ब्राह्म वाद को पुष्ट करने लिए ही है। __________________________________
"प्राजापत्यासुरी त्वासीद् विकुण्ठा नाम नामतः ।
सेछन्तीन्द्रसमं पुत्रं तेपेऽथ सुमहत्तपः ॥ ४९ ॥
सा प्रजापतितः कार्मांल्लेभेऽथ विविधान् वरान् ।
तस्यां चेन्द्रः स्वयं जज्ञे जियांसुर्दैत्यदानवान् ॥५०।अनुवाद:-
प्रजापति की पुत्री आसुरी थी जिसका नाम विकुण्ठा था उसने इन्द्र के समान एक पुत्र की कामना की और गहन तप किया।४९।
उसने प्रजापति से इच्छा करके विविध वरों को प्राप्त किया। तब उसमें इन्द्र स्वयं उत्पन्न हुआ। जिसने सभी दैत्य और दानवों को जीत लिया।५०।
( बहद्देवता अध्याय 7 )
यद्यपि वैकुण्ठ शब्द भी विकुण्ठा शब्द में अण् प्रत्यय करने पर बना है। विकुण्ठा- जिसमें कुण्ठा(हीन भावना(-मन की अतृप्त इच्छाओं से बनी हुई निराशा) न हो वह स्थान ही वैकुण्ठ है।
वस्तुत वैकुण्ठ वह लोक है जिसमें कोई कुण्ठा ( हीनता का भाव नहीं है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वैकुण्ठ ब्रह्माण्ड से परे लोक है ।
वैकुण्ठ ब्रह्मा की सृष्टि नहीं है।
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