शास्त्रों में कुछ जातीयों से घृणा करने का विधान वर्णन करना बताता है कि लिखने वाला कितना द्वेषवादी और ऊँच-नीच मानसिकता से ओत-प्रोत रहा होगा।
परन्तु जब व्यक्ति की श्रद्धा मनन अथवा चिन्तन से रहित हो जाती है ।
तब अन्धभक्त और दम्भपूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है।
भारत में एक विशेष जाति वर्ण सम्प्रदाय के लोगों ने धर्म-उपदेशक का परम्परागत उत्तराधिकार ग्रहण कर लिया है। यह उनका शास्त्रीय बिना किसी योग्यता पात्रता के भी आरक्षण है।
भले इस पद की योग्यता उनमें न भी हो तो भी वे श्रेष्ठ हैं ।
यही लोग थे जिन्होंने धर्म को विकृति में परणति किया ।
"यदुवंश के पूर्व पुरुष यदु का नकारात्मक व घृणा स्पद वर्णन वेदों की अनेक ऋचाओं मे यत्र तत्र लिपिबद्ध है। यदि वेद ईश्वरीय हैं तो वेदों एक अच्छे व्यक्ति को भी घृणास्पद रूप में व्यक्त करना कैसे सम्भव हुआ।
"अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ।१।
पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ।२।
(ऋग्वेद9/61/1-2)
अनुवाद:-हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ।१।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया।२।
पदपाठ-अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ । अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।
(सायण-भाष्य )-हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान । अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥
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पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
अनुवाद शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।
(पद का अर्थान्वय):-(इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को
(त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥ (ऋग्वेद9/61/1-2)
“सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च ।
अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। वह भी गोपों को रूप में
"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास- मूल अर्थ दाता-दानी) जो गायों से घिरे हुए हैं। हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।
निह्नवाकर्त्तरि ।“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है
किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो
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उपर्युक्त ऋचाओं में पुरोहित इन्द्र से यदु और तुर्वसु को अपने अधीन करने को लिए प्रार्थना करते हैं।
उसी परम्परा के अनुरूप यदुवंश के सभी अच्छे-बुरे मानवों को एक ही दृष्टिकोण से देखने और उनके गुणों में भी दुर्गुणों को दृष्टिगत करना पूर्वदुराग्रह उसी वैदिक परम्परा के अनुयायी स्वीकार करते चले आ रहे हैं।
संसार में मनन ही तत्व ज्ञान का श्रोत है। संसार में यद्यपि मनुष्य एक ही जाति है। जिसकी प्रवृत्तियों का निर्माण पारिवैषिक, आनुवांशिक और प्रारब्ध से होता है परन्तु यह कहना भी मूर्खता पूर्ण है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ है जन्म से ही। जातियों जो पूर्व में व्यावसायिक थी वह व्यवसाय (वृत्ति) उनके परिवेश अथवा परिस्थितियों के अनुरूप विकसित प्रवृत्तियों का प्रतिरूप था।
आज भी यह सिद्धान्त क्रियान्वित रूप से दृष्टिगोचर होता है।
आज भी बहुत से ब्राह्मण वर्ण का बताने वाले शूजशोरूम तथा अन्य जातियों के लिए निर्धारित व्यवसाय करते हैं परन्तु लिखते स्वयं को चौबे या दुबे ही हैं । अत: जाति का निर्धारण जो वास्तव मे मन वर्ण का ही एक अवान्तर भेद है व्यक्ति के व्यवसाय ( कर्म ) से होना चाहिए-
परन्तु शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार कर्म से ही कोई श्रेष्ठ हो सकता है जन्म से नहीं !
और अन्धभक्ति में निर्णय शक्ति क्षीण हो जाती है।
आपको पता होना चाहिए कि कालान्तर में शास्त्रों में भी अनेक क्षेपक और विरोधाभासी श्लोक लिपिबद्ध किए गये दर असल यह पूर्ण ग्रन्थ को बिना पढ़े तथा उसके निष्कर्ष को जाने विना लिपिबद्ध किए गये परिणाम विरोधाभास ही हुआ। जैसे वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा अहीरों का बोध लिखना-
यद्यपि राम का युद्ध अहीरों से कभी नहीं हुआ परन्तु पुष्यमित्र शूंग कालीन पाखंडियों नें अपनी रामायण में लिखा है कि जड़ अर्थात् चेतनाहीन समु्द्र द्वारा राम से यह कहने पर कि पापी अहीर मेरा जल पीकर मुझे अपवित्र करते है इन्हें मारिए तो राम अपना अग्नि बाण अहीरों पर छोड़ देते हैं।
कमाल की बात है कि जड़ चेतना हीन समुद्र भी राम से बाते करता है और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ बाण से बिना सोचे -विचारे त्रेता युग में ही मार देते हैं।
परन्तु अहीर तो आज भी पूरे भारत में छाऐ हुऐ हैं। उनके मारने में तो राम का अग्निबाण भी फेल हो गया। निश्चित रूप से अहीरों (यादवों) के विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में पाखंडियों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
कभी ये अहीरों को यादवों से पृथक दर्शाते हैं तो कभी तोपों को अहीरों पृथक दर्शाते हैं।
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पाखण्डियों ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन इस कारण से किया है कि अहीरों को लोक मानस में हेय व दुष्ट घोषित किया जा सके।
और सायद आज स्वयं को हिन्दूवादी ( ब्राह्मण वादी) कहने वाली सभी जातियाँ , जाट गूजर आदि कुछ जातियों को छोड़कर इन्हीं शास्त्रीय मान्यताओं के अनुरूप मानती हैं।
जाटों और गूजरों का भी इतिहास इसी प्रकार विकृत किया गया।
उन्हें पशुपालन और कृषि कर्म से ही वैश्य बना दिया ।
जबकि वैश्य बनिया जो कभी पशु पालन और हल चलाते नहीं देखा जाता उसको और किसान जातियाँ गूजर जाट अहीर को वैश्य बना दिया
आर्य थ्योरी लिखने वाले भी अनुकरण वादी ही थे जो आर्य का सही अर्थ निश्चित नहीं कर पाए
आर्य पशुपालक और किसान का वाचक था ।
ये सिद्धान्त विहीन शास्त्रीय व्यवस्था किसी को हेय और किसी को उपादेय घोषित करने के लिए की गयी-
वाल्मिकी रामायण के युद्ध काण्ड और तुलसी दास की रामचरित मानस के सुंदर काण्ड में कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या लिखा है कि जड़ समुद्र जिसमें चेतना ही नहीं है वह भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है और वह निर्जीव समुद्र राम से बातें भी करता है। पाखंडियों ने राम को ही अहीरों का हत्यारा' बना दिया। वाल्मिकी और तुलसीदास के अनुसार राम ने अहीरों को त्रेता युग में ही अपने रामबाण से "द्रुमकुल्य" देश में मार दिया था लेकिन फिर भी अहीर आज कलयुग में करोड़ों की संख्या में मजबूती से जिन्दा है। अहीरों को कोई नहीं जीत सकता; अहीर अजेय हैं। अहीरों को वैसे भी हिब्रू बाइबिल और भारतीय पुराणों में देव स्वरूप और ईश्वरीय शक्तियों से युक्त माना है।
कृष्ण के महान यौगिक विद्या से पूर्ण व्यक्तित्व को देवपूजक विशेषत: इन्द्रपूजक पुरोहितों ने षडयंत्र पूर्वक कामुक रूप में लिखा गया।
कृष्ण के चरित्र के साथ इतना अन्याय ।
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हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम अहीर हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही माने बैठे हैं क्योंकि मनन-रहित और विवेकहीन श्रृद्धा (आस्था) ने हमें इतना दबा दिया है कि हमारा मन गुलाम हो गया। यह पूर्ण रूपेण अन्धभक्ति है। आश्चर्य ही नहीं घोर आश्चर्य है।
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वाल्मीक रामायण के युद्ध-काण्ड के २२वें सर्ग में लिखा है कि-
"उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।
उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव:।
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।।
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ क्रियतां रामो$यं तत्र शरोत्तम: ।।३४।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।।
अनुवाद:-
अर्थात् समुद्र राम से बोला हे प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं उसी प्रकार मेरे उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नाम का बड़ा ही प्रसिद्ध देश है।३२।
वहाँ आभीर (अहीर) जाति के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं; सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है। इस पाप को मैं सह नहीं सकता हूँ।
हे राम आप अपने इस उत्तम अग्निवाण को वहीं सफल कीजिए/छोड़िए ।३४।
समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार अहीरों के उसी देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह अग्निवाण छोड़ दिया।३५।
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मैं यह नहीं कहूंगा कि यह बाल्मीकि जी ने लिखा कि नहीं हो सकता है कि पाखंडियों ने उसमे छेड़छाड़ की हो
तुलसी दासजी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए राम और समुद्र के सम्वाद रूप में लिखते हैं।
"पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूपजे।कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥
(उत्तरकाणड रामचरितमानस )- भावार्थ:-अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को भजकर किसने परमगति नहीं पाई ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अहीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री राम जी को मैं नमस्कार करता हूँ॥1॥
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अर्थात् आभीर (अहीर), यवन (यूनानी) और किरात ये दुष्ट और पाप रूप हैं ! ---हे राम इनका वध कीजिए।
(गीता प्रैस गोरखपुर ने इस लाईन को बदल दिया है)
निश्चित रूप से पाखंडियों ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है ताकि इन पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातों को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके
अब आप ही बताओ, केवल जड़ समु्द्र के कहने पर त्रेता युग में राम अहीरों को मारने के लिऐ अपना राम-वाण अहीरों के "द्रुमकुल्य" देश पर चला देते हैं, लेकिन अहीरों का संहार करने में रामवाण भी निष्फल हो जाता है। मन्दिरों के रूप में धर्म की दुकान चलाने वाले पाखण्डी, कामी और धूर्त पाखंडी ही हैं । दान दक्षिणा हम चड़ाऐं और और पाखंडी उससे ऐशो-आराम करें।
इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है ?
यह ही नहीं तुम सबको इतना मानसिक गुलाम बना रखा है कि जब धर्म के नाम पर तुम्हे मौत के मुंह तक पहुंचा दिया जाता है।
धर्म का सच्चा स्वरुप समझो और धर्म का सच्चा स्वरुप वही बता सकता है। जो खुद धर्म में जी रहा हो सच्चा साधू जो कि संसार के भोगों से सभी प्रकार से निवृत है।
क्या ज्ञानी कोई विशेष कुल मैं जन्म लेने वाला ही बन सकता है जरा विचार अवश्य करना।
मेरा भाव किसी भी जाती को नीचा दिखाने का नहीं है।
प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि-
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