सोमवार, 22 मई 2023

धर्म यम का रूपान्तरण-

धर्म का अधिष्ठाता यम हैं ।
और यम की दार्शनिक व्याख्या की जाए तो 
यम स्वाभाविकताऐं जो मन और सम्पूर्ण जीवन का अन्तत: पतन कर देती हैं। 

उनके  नियमन अथवा ( निरोध) की विधि है।
योगशास्त्र में प्रथम सूत्र है।
योग की परिभाषा निरूपित करते हुए।

"योगश्चितवृत्तिनिरोध:” चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है।
चित्त अर्थात मन वृत्ति (स्वाभाविक तरंगे) उनका निरोध( यमन-नियन्त्रण) करने के लिए ही जीवन में धर्माचरण आवश्यक है।
इसी धर्माचरण के ही अन्य नाम व्रत- तपस्या सदा चरण आदि हैं योग भी मन की वृत्तियों के नियन्त्रण की  क्रिया -विधि है।

मन की इन्हीं वृत्तियों ( तरंगो) के नियन्त्रण हेतु कतिपय उपाय  आवश्यक होते हैं  जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंगों में  (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ हैं।

और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
अत: यम बाह्य सदाचरण मूलक साधना है।
यही धर्म है।
बहिरंग साधना के यथार्थ रूप से अनुष्ठित या क्रियान्वित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।

यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं। 

यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात्‌ दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना) अथवा बिना उनकी अनुमति के उसकी इच्छा न करना।

सत्य यही है कि व्यक्ति जब सदाचरण और यम की इन प्रक्रियाओं को करता है तो उसका अन्त:करण शुद्ध और मन बुद्ध ( बोध युक्त)हो जाता है बुद्धि चित् या मन की ही बोध शक्ति है।
यहीं से ईश्वरीय ज्ञान का स्वत: स्फुरण होने लगता है। 
इसी लिए तो साधक सन्त तपस्वी सबके मन की बात जान लेते हैं और अनेक भविष्य वाणीयाँ भी सटीक करते हैं।
प्रस्तुतिकरण:-
यादव योगेश कुमार रोहि-
यादव योगेश कुमार रोहि-

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