सोमवार, 15 मई 2023

:- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय



अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ करें।।१०६। सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय 


देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने क्रमानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।१-२।

सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं। ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय  की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया । हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।३-५।
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है‌( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा  इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा  शक्ति है हृत् - शेषाढ्य  बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।६-१६।

ध्यान :- इनकी कान्ति( आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और  500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।

ध्यान के उपरांत एक लाख और  जप के उपरान्त होम तिल  चावल तथा पायस( खीर ) से पूजा करके  विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में  षडंगदेवगण की पूजा करें। इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और र दु:ख का तथा पाप का नाश होता है। पूर्वादिक्( पूर्व दिशा) में आठ कृष्ण वर्ण प्रभा शक्ति की पूजा करें । ये लोक पालिका शक्ति है। क्षेमकरी वश्यकरी" श्रीकरी यशस्करी आयुष्करी  प्रज्ञाकरी विद्याकरी तथा धर्मकार्याष्टमी तथा अस्त्रों के साथ लोकपाल गण की पूजा करनी चाहिए-।१९-२३।
इस प्रकारइस प्रकार मन्त्र सिद्ध करके प्रयोग के लिए वह साधक कार्य करे अब कार्तवीर्य भगवान् की पूजा का यन्त्र कहा जाता है।२४।
बीज काम ध्रुव वाक् कर्णिका से युक्त दिक्पत्र अंकित करें । स्वर वर्ण  कमल का अन्तिम पत्र होगा शेष वर्ण अन्य पत्र पर होंगें। श" ष" स" ह" औ" केसर हैं। वह बाकी वर्णों से घिरा है। कोण से सज्जित चतुर्दश वर्णात्मक भृगु ह यन्त्र ही कार्तवीर्य है। २५-२६।
ये दीर्घमन्त्रात्मक है। इनका षडंग न्यास मूल बीज से करें ऊँ नम: कार्तवीर्यायार्जुनाय हुम् फट्। यह 14 अक्षरों का मन्त्र है तो भी गिनने में 13 ही होते हैं इसकी उपासना पूर्ववत् करें 9 अक्षर से इसका पंचांग न्यास करें ।
"नमो भगवते श्रीकार्तवीरायार्जुनाय सर्वदुष्टान्तक तपोबलपराक्रम परिपालित सप्तद्वीपाय सर्वराजन्य चूड़ामणि महाशक्तिमते सहस्रदहन हुं फट्। यह 63 अक्षरात्मक मन्त्र है। इसके स्मरण से सभी लौकिक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। अब राजन्य" चक्रवर्ती" शूर" माहिष्मतिपति" रेवाम्बुपरितृप्त" काणों हस्तप्राबाधित इन 6 मन्त्रपद  द्वारा  षडंगन्यासोपरान्त  ध्यान करें ध्यान का विषय है :- नर्मदा के जल में स्नान रत कार्तवीर्य पत्नीगणों से जलक्रीड़ा कर रहे हैं तथा उन पर जल उत्षेचन कर रहे हैं। वे अपने सहस्रबाहुओं से नर्मदा का जल प्रवाह रोक रहे हैं। इस ध्यान के उपरान्त इन मन्त्र पदों का दस हजार बार जप करें  पहले एक लाख जप करें शेष कार्य पूजादि यथापूर्व होगा ।।46-55।।

उनका मन्त्र तथा पूजन आदि सभी तन्त्रों में गुप्त है। हे नारद मैं इसको आपके लिए प्रकाशित करुँगा। जो सभी सिद्धियों को देने वाला है‌।इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षर वाला है।
यह मूल में श्लोक ७- से ९ तक वर्णित है । इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना त्रुटि पूर्ण हेगा। इस मन्त्र के ऋषि हैं दत्तात्रेय छन्द है अनुष्टुप देवता है कार्तवीर्य अर्जुन बीज है ध्रुव और शक्ति है हृद-शेषाढ्य बीज द्वय से हृदयन्यास करें शान्ति युक्त चतुर्थ मन्त्राक्षर से शिरोन्यास करें इन्द्रढ्यम से वाम कर्ण न्यास करें ,अंकुश तथा पद्म से शिखा न्यास करें , वाणी से कवच  न्यास करें  हुं फट् से अस्त्र न्यास करें शेष अक्षरों पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए दोनों प्रणव के बीच के बीजों से जो दम हैं।हृदय उदर नाभि गुह्य दक्षिण चरण, वाम चरण ,उरु, जानु तथा जंघा का न्यास करें । तारक प्रभृति 9 वर्णों का न्यास मस्तक ललाट भ्रू कर्ण नेत्र नासा मुख कण्ठ तथा स्कन्ध में करें तदनंतर सभी अंगों में पूरे मन्त्र का व्यापक न्यास करना चाहिए । इसके पश्चात सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर कारक कार्तवीर्य का चिन्तन करना चाहिये ।६-१६।

इसे पवित्र भूमि पर अष्टगन्ध से सादर  लिखे तथा वहाँ घट स्थानों करके उस पर आवाहन पूजन सम्पन्न करे तत्पश्चात इन्द्रिय संयमित रखें तथा घट का स्पर्श करके एक हजार मन्त्र जाप करके उसी जल से साधक अपना अभिषेक करे यह सर्वकामना फलप्रद प्रयोग है। इस जलाभिषेक( स्नान) द्वारा मानव वाँछित पुत्र -यश  आरोग्य लोकप्रियता वाक्- सिद्धि तथा सुन्दर दृष्टि लाभ प्राप्त करता है।।२७-२९।

इस मन्त्र के साथ सरसों नीम लहसुन तथा कपास से जो होम करता है। उसके शत्रु भाग जाते हैं। धतूरे से होम द्वारा शत्रु स्तम्भन नीम से होम द्वारा शत्रु में आपसी द्वेष कमल के होम से वशीकरण बहेड़ा की लकड़ी तथा खैर की लकड़ी को सरसों के तेल तथा महिषी ( भैंस) के घी में सींच करके होम द्वारा उच्चाटन यव ( जौ)होम से लक्ष्मी लाभ घृताक्त तिल द्वारा पाप का नाश होता है।तिल- चावल और श्वेत सरसों से होम करने पर राजा भी वशीभूत हो जाता है ।३०-३३।

अपमार्ग तथा दूर्वा का होम करने से - लक्ष्मी प्राप्ति - पापक्षय प्रियंगु होम से - स्त्रीवशीकरण -
मुरा के होम से - भूत उपद्रवनाश-

पीपल गूलर वट बिल्व समिद् होम से- पुत्र आयु धन सुख लाभ-स्वर्ण सफेद  सरसों सर्प- केंचुल से नमक होम - चोरनाश-
गोरोचन गोबर  होम से -स्तम्भन । 
तण्डुल होम से - भूलाभ-
जैसा छोटा बड़ा कार्य हो  उसके अनुसार मन्त्रज्ञ व्यक्ति 1000- 10000 तक जप करे -।३४-३७।

विद्वान् लोग कार्तवीर्य अर्जुन मन्त्र  लक्षण इस प्रकार बतलाते हैं।

प्रथम लक्षण:-उसमें कार्तवीर्य-अर्जुना़य रहे आदि में स्वबीज (कार्तवीर्य बीज) लगाने से १० अक्षर का मन्त्र होगा । परन्तु जिसमें आद्य बीज नहीं होगा वह ९ अक्षर का मन्त्र होगा।यह दो प्रकार का मन्त्र है।यह द्वितीय लक्षण है। स्वकामाभ्याम् तृतीय लक्षणात्मक मन्त्र है।स्वभ्रूभ्याम् स्वपाशाभ्याम् पञ्चम, स्वेन चमायया षष्ठ स्वांकुशाभ्याम् सप्तम, स्वरमाभ्याम् अष्टम । स्ववाग्मवाभ्यां नवम ।वर्मास्त्राभ्याम् दशम मन्त्र है। । द्वितीय मन्त्र से लेकर नवम मन्त्र तक दो बीजों का व्यतिक्रम रहता है। दशम मन्त्र में वर्ण नव वरमास्त्र" हुं फट् "के मध्य हो।३८-४२।

इनमें जो मन्त्र अनुकूल लगे उसे जपे ।इसमें प्रथम मन्त्र का छन्द विराट् है । द्वितीय मन्त्र का छन्द त्रिष्टुप है ये दशो मन्त्र जब ऊंँ अक्षर से युक्त होते हैं तब एकाक्षर होते हैं। अन्य तब द्वादश हो जाते हैं ।उस आद्य मन्त्र का छन्द होगा त्रिष्टुप तथा अन्य मन्त्र का छन्द होगा जगती ।इस प्रकार इन बींस मन्त्रों का यजन पूर्ववत् ही करें ।।४३-४५।।

पहले एक लाख मन्त्र जपोरान्त पूजादि पूर्ववत् करें " कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान् तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते यह ३२ वर्ण का मन्त्र हैं।५६-५७।
इनके सभी पाद में पंचांगन्यास ध्यान पूजन पूर्ववत् करें " कार्तवीर्याय विद्महे "महावीर्याय धीमहि तन्नो अर्जुनाय प्रचोदयात् यह अर्जुन गायत्री है इसके सभी प्रयोग के प्रारम्भ में यह गायत्री जप करें जो रात
में इसका जप  करता है। चोर उसके यहाँ से दूर भाग जाते हैं।मन्त्र अनुष्टुप छन्द में हैं।इसमें तर्पण हवन भी करना चाहिए अब भगवान् कार्तवीर्य अर्जुन को प्रिय लगने वाली विधि कहता हूँ।।५८-६१।।

वैशाख श्रावण अगहन कार्तिक आश्विन पौष माघ फाल्गुन मास में दीपारम्भ करें तिथि रिक्ता न हो शनिवार मंगल वार न हो तथा हस्त ,उत्तराषाणा,न अश्वनी रौद्रेय पुष्य वैष्णव वायु द्विदैवत् नक्षत्र तथा रोहिणी नक्षत्र हों। इसमें दीपारम्भ हित प्रद होता है। चरम व्यतीपात धृति वृद्धि प्रीति हर्ष सौभाग्य शोभन तथा आयुष्मान् योग जब हो ।विष्टिरहित करण हो ग्रहण में अद्धोदय योग के पूर्व रात्रि काल में दीपारम्भ  शुभ है । कार्तिक शुक्ल सप्तमी की रात्रि में दीपदान अत्यन्त शुभ है। यदि तब रवि बार और श्रावण नक्षत्र हो तब तो मानों वह अति दुर्लभ योग है। लेकिन जब कार्य अत्यधिक आवश्यक हो तो महीना आदि का विचार न करें।६२-६७।

पहले दिन साधक ब्रह्मचारी उपवासी रहे यह नियम पालन पूर्वक रहते अगले दिन सुबह स्नान के बाद भूमि पर गोबर से लीप करके पवित्र करे तदोपरान्त प्राणायाम तथा संकल्प करके पूर्वोक्त प्रकार से न्यास करे ।तत्पश्चात भूमि पर षट्कोण को लाल चन्दन तथा तण्डुल चूर्ण से बनाऐ-वहाँ कामदेव को बनाकर षट्कोण निर्माण करे अब उस कामदेव आकृति को नानाक्षरों से घेरे  बहिर्भाग में त्रिकोण रचना करे अब इस यन्त्र पर दीपक रखे वह दीपक का पात्र स्वर्ण ,चाँदी अथवा ताम्र का हो यदि यह भी सुलभ नहरों तो कांस्य या मिट्टी की दीपक बनाऐं मारण कार्यार्थ लौह का शान्ति कार्यार्थ मूग के आटे का सन्धि कार्य के लिए गेंहूँ के आटे का दीप पात्र निर्माण करें ।६८-७२।।

दीप में यदि घी एक हजार पल  रखना हो तब सौ पल के मान से द्रव्य हो दश हजार पल घृतार्थ पाँच सौ पल परिणाम या दृव्य हो ७५ पल घृत हेतु ६०पल दृव्य तीन हजार पल घृत हेतु १७०० सौ पल दृव्य २०० पल घृत हेतु २००पल दृव्य १०० पल घृत हेतु १० पल दृव्य ग्रहण करें । नित्य दीप के लिए दृव्य का पात्र तथा एक पल घृत ही रहे इस प्रकार पात्र की प्रतिष्ठा करके उसमें सूत की बत्ती रखनी चाहिए ।७३-७६।
बत्ती १-३ ५-७ हों ।बत्ती की तन्तु संख्या १५ से १००० तक हो दीपक में गोघृत रखें वस्त्रपूत ( छना हुआ) हो यदि कार्य महान हैं तब पात्र में १००० पल घी छोड़ें।वहाँ एक  उत्तम स्वर्ण शलाका १६ अंगुल की  बनाकर रखें यह शलाका माप में १६ अथवा८ अथवा ४ अंगुल की तो रहे। अग्रभाग सूक्ष्म तथा मूल भाग स्थूल हो ।।७७-७९।
दीप जलाते समय अशुभ वार्तालाप वर्जित है। उस समय ब्रह्मज्ञानी का दर्शन होना शुभ माना गया है। शूद्र दर्शन होना उस समय मध्यम है। परन्तु म्लेच्छ दर्शन बध- बन्धन प्रदान करने वाला होता है । मूषक विढाल दीखना दु:खद  है। गौ और अश्व आदि दीखना सुखद है। सीधी दीपज्वाला सिद्धि दात्री होती है। टेढ़ी ( वक्र) ज्वाला नाश कारक होती है।शब्द करने वाली दीप ज्वाला भयप्रदा  उज्ज्वल वर्णा ज्वाला सुखप्रदा कृष्ण वर्ण ज्वाला शत्रुभयप्रदा धमन्ती(शब्द करती हुई ) ज्वाला पशु नाशिका होती है।दीप प्रज्वलित करते समय पात्र यदि भग्न हो तो एक पक्ष में साधक यम लोक जाएगा यदि दीपक में दो बार बत्ती रखनी पड़े तो तो कार्य देर से होगा दीप बदलने वाला अन्ना हो जाता है।अपवित्रता पूर्वक दीप का स्पर्श करने वाला रोगी होता है।और दीप नाश होने पर चौर भय होगा ।९७-१०२।
____________________
यदि दीप को कुत्ते बिल्ली स्पर्श करें तब राज भय होगा आठ पल के  द्रव्य से बना दीपक सर्वकामना समूह को सफल करता है। इस लिए दीपक की रक्षा सभी आने वाले विघ्नों से करें व्रत जबतक सम्पन्न न हो तब तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भूमि शयन करें -तब तक साधक स्त्री शूद्र और पापी लोगों से बात भी न करे।इस नवाक्षर मन्त्र राज का नित्यप्रति १००० जप तथा स्तोत्र पाठ करें । रात में विशेषत: स्तुति पाठ करें रात में साधक दीपक के सामने एक पैर से  से खड़ा होकर १००० मन्त्र जपता है। उसका वाँछित यथाशीघ्र प्राप्त हो जाता है।शुभ दिन में जप समाप्त करके श्रेष्ठ विप्रगण को भोजन खिलाऐं 


तब घट जल से मन्त्र जाप करते हुए ब्राह्मण यजमान का जल से अभिषेक सम्पन्न करे। यजमान को चाहिए कि वह गुरु को सन्तुष्ट करने के लिए प्रभूत ( बहुत) दक्षिणा प्रदान करें जब गुरु प्रसन्न हो जाते हैं। कार्तवीर्य उस व्यक्ति को इच्छित फल प्रदान करते हैं।दीपदान गुरु से अनुमति ग्रहण करके करना चाहिए यदि गुरु दीप दान करते तब शिष्य उनको इस कार्य हेतु धन प्रदान करें ।हे नारद जो मनुष्य गुरु आज्ञाके विना इच्छा सिद्धि के लिए दीप दान करता है।बह सिद्धि लाभ नहीं करता है।वह पग पग पर हानि उठाता है।इसकार्य के लिए गौघृत उत्तम तथा महिषी का घृत मध्य है।।१०८-१११।
तिल तैल का फल भी महिषी घृतवत् है। 

बकरी प्रभृति पशु का घृत अधम है। मुख रोग से मुक्त होने  के लिए सुगन्धित तैल का दीपक जलाऐं शत्रु के लिए श्वेत सरसों का तैल विहित है।११२।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें