रविवार, 28 मई 2023

महाभारत विराट पर्व में युधिष्ठिर द्वारा स्तुति-

      विराटपर्व-8 महाभारतम्

            महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति" करना-

           [वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5 ।
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।
नमोस्तु वरदे कृष्णे कुमारि ब्रह्मचारिणि ।
बालार्कसदृशाकारे पूर्णचन्द्रनिभानने ।7।
चतुर्भुजे चतुर्वक्रे पीनश्रोणिपयोधरे।
मयूरपिच्छवलये केयूराङ्गदधारिणि ।8।
भासि देवि यथा पद्मा नारायणपरिग्रहः ।
स्वरूपं ब्रह्मचर्यं च विशदं तव खेचरि।9 ।
कृष्णच्छविसमा कृष्णा संकर्षणसमानना।
बिभ्रती विपुलौ बाहु शक्रध्वजसमुच्छ्रयौ ।10।
पात्री च पङ्कजी घण्टी स्त्री विशुद्धा च या भुवि ।
पाशं धनुर्महाचक्रं विविधान्यायुधानि च।11।
कुण्डलाभ्यां सुपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां च विभूषिता ।
चन्द्रविस्पर्धिना देवि मुखेन त्वं विराजसे ।12।
मुकुटेन विचित्रेण केशबन्धेन शोभिना।
भुजङ्गाभोगवासेन श्रोणिसूत्रेण राजता ।13।
विभ्राजसे चाऽऽबद्धेन भोगेनेवेह मन्दरः।
ध्वजेन शिखिपिच्छानामुच्छ्रितेन विराजसे ।14।
कौमारं व्रतमास्थाय त्रिदिवं पावितं त्वया।
तेन त्वं स्तूयसे देवि त्रिदशैः पूज्यसेऽपि च।15।
त्रैलोक्यरक्षणार्थाय महिषासुरनाशिनि ।
प्रसन्ना मे सुरश्रेष्ठे दयां कुरु शिवा भव ।16।
जया त्वं विजया चैव संग्रामे च जयप्रदा।
ममापि विजयं देहि वरदा त्वं च सांप्रतम् ।17।
विन्ध्ये चैव नगश्रेष्ठे तव स्थानं हि शाश्वतम्।
कालि कालि महाकालि शीधुमांसपशुप्रिये ।18।
कृतानुयात्रा भूतैस्त्वं वरदा कामचारिणी।
भारावतारे ये च त्वां संस्मरिष्यन्ति मानवाः।19।
प्रणमन्ति च ये त्वां हि प्रभाते तु नरा भुवि ।
न तेषां दुर्लभं किंचित्पुत्रतो धनतोपि वा ।20।
दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्त्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
कान्तारेष्ववसन्नानां मग्रानां च महार्णवे।
दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम्।21।
जलप्रतरणे चैव कान्तारेष्वटवीषु च।
ये स्मरन्ति महादेवि न च सीदन्ति ते नराः।22।
त्वं कीर्तिः श्रीर्धृतिः सिद्धिर्ह्रीर्विद्या संततिर्मतिः।
संध्या रात्रिः प्रभा निद्रा ज्योत्स्ना कांतिःक्षमादया।23।
नृणां च बन्धनं मोहं पुत्रनाशं धनक्षयम्।
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता नाशयिष्यसि।24।
सोहं राज्यात्परिभ्रष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान् ।
प्रणतश्च यथा मूर्ध्ना तव देवि सुरेश्वरि।25।
त्राहि मां पद्मपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्व नः।
शरणं भव मे दुर्गे शरण्ये भक्तवत्सले।26।
एवं स्तुता हि सा देवी दर्शयामास पाण्डवम् ।
उपगम्य तु राजानमिदं वचनमब्रवीत्।27।
                        देव्युवाच

शृणु राजन्महाबाहो मदीयं वचनं प्रभो।
भविष्यत्यचिरादेव संग्रामे विजयस्तव ।28 ।
मम प्रसादान्निर्जित्य हत्वा कौरववाहिनीम् ।
राज्यं निष्कण्टकं कृत्वा भोक्ष्यसे मेदिनीं पुनः।29।
भ्रातृभिः सहितो राजन्प्रीतिं प्राप्स्यसि पुष्कलाम् ।
मत्प्रसादाच्च ते सौख्यमारोग्यं च भविष्यति।30।
ये च संकीर्तयिष्यन्ति लोके विगतकल्मषाः।
तेषां तुष्टा प्रदास्यामि राज्यमायुर्वपुः सुतम् ।31।
प्रवासे नगरे वाऽपि संग्रामे शत्रुसंकटे ।
अटव्यां दुर्गकान्तारे सागरे गहने गिरौ।32।
ये स्मरिष्यन्ति मां राजन्यथाऽहं भवता स्मृता ।
न तेषां दुर्लभं किंचितस्मिँल्लोके भविष्यति।33।
इदं स्तोत्रवरं भक्त्या शृणुयाद्वा पठेत वा।
तस्य सर्वाणि कार्याणि सिद्धिं यास्यन्ति पाण्डवाः ।34।
मत्प्रसादाच्च वः सर्वान्विराटनगरे स्थितान् ।
न प्रज्ञास्यन्ति कुरको नरा वा तन्निवासिनः।35।
_____________________

इत्युक्त्वा वरदा देवी युधिष्ठिरमरिंदमम्।
रक्षां कृत्वा च पाण्डूनां तत्रैवान्तरधीयत।36।

इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि
पाण्डवप्रवेशपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।8।

महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14

षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद:-

विराटपर्व-8 महाभारतम्

            महाभारतस्य पर्वाणि
विराटनगरं गच्छता युधिष्ठिरेण दुर्गायाः स्तवनम्। विराट नगर को जाते हुए युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा की स्तुति"

           [वैशंपायन उवाच।

विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ।1।
यशोदागर्भसंभूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुले जातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम्।2।
कंसविद्रावणकरीमसुराणां क्षयंकरीम्।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रति गामिनीम् ।3।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्यविभूषिताम्।
दिव्याम्बरधरां देवीं खङ्गखेटकधारिणीम् ।4 ।
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदा शिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात्पङ्के गामिव दुर्बलाम् । 5 ।
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसंभवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः।6।

युधिष्ठिर द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! विराट के रमणीय त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गादेवी का इस प्रकार स्तवन किया । ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषण्धों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ । 

‘पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी ! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कह तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’। तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि ! तुम्हें नमसकार है। सच्चिदानन्दमयी कृष्णे ! तुम कुमारी और ब्रह्मचारिणी हो। तुम्हारी अंगकान्ति प्रभातकालीन सूर्य के सदृश लाल है। तुम्हारा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति आल्हाद प्रदान करने वाला है। ‘तुम चार भुजाओं से सुशोभित विष्णुरूपा और चार मुखों से अलंकृत हो। तुम्हारे निम्ब और उरोज पीन हैं। तुमने मोरपंख कंगन धारण किया है तथा केयूर और अंगद पहन रक्खे हैं। देवि ! भगवान नारायण की धर्मपत्नी लक्ष्मी के समान तुम्हारी शोभा हो रही है। आकाश में विचरने वाली देवि ! तुम्हारा स्वरूप और ब्रह्मचर्य परम उज्जवल हैं। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की छवि के समान तुम्हारी श्याम कान्ति है, इसीलिये तुम कृष्णा कहलाती हो। तुम्हारा मुख संकर्षण के समान है। ‘तुम (वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली) ऊपर उठी हुई दो विशाल भुजाओं को इन्द्र की ध्वजा के समान धारण करती हो। तुम्हारे तीसरे हाथ में पात्र, चैथे में कमल आर पाँचवें में घण्टा सुशोभित है। छठे हाथ में पाश, सातवें में धनुष तथा आठवें में महान् चक्र शोभा पाता है। ये ही तुम्हारे नाना प्रकार के आयुध हैं। इस पृथ्वी पर स्त्री का जो विशुद्ध स्वरूप है, वह तुम्हीं हो। मुण्डलमण्डित कर्णयुगल तुमहारे मुखमण्डल की शोभा बढ़ाते हैं। देवि ! तुम चन्द्रमा से होड़ लेने वाले मुख से सुशोभित होती हो। तुम्हारे मस्तक पर विचित्र मुकुट है। बँधे हुए केशों की वेणी साँप की आकृति के समान कुछ और ही शोभा दे रही है। यहाँ कमर में बँधी हुई सुन्दर करधनी के द्वारा तुम्हारी ऐसी शोभा हो रही है, मानो नाग से लपेटा हुआ मगरमच्छ हो। ‘तुमहारी मयूरपिच्छ से चिन्हित ध्वजा आकाश में ऊँची फहरा रही है। उससे तुम्हारी शोभा और भी बढ़ गयी है। तुमने ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके तीनों लोकों को पवित्र कर दिया है।

महाभारत विराट पर्व अध्याय 6 श्लोक 15-35

षष्ठ (6) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

महाभारत: विराट पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद

‘देवि ! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी ! मुझपर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। ‘तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इस समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। ‘पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली ! काली !! महाकाली !!! तुम खंग और खट्वांग धारण करने वाली हो। ‘जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि ! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। ‘दुर्गे ! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पडत्र गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- तुम्हीं उन्हें संकट से मुक्त कर सकती हो। महादेवि ! पानी में तैरते समय, दुर्गम मार्ग में चलते समय और जंगलों में भटक जरने पर जो तुम्हारा स्मरण करते हैं, वे मनुष्य क्लेश नहीं पाते। तुम्हीं कीर्ति, श्री, धृति, सिद्धि, लज्जा, विद्या, संतति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा, ज्यात्स्ना, कान्ति, क्षमा और दया हो। तुम पूजित होने पर मनुष्यों के बन्धन, मोह, पुत्रनाश और धननाश का संकट, व्याधि, पृत्यु आर सम्पूर्ण भय नष्टकर देती हो। मैं भी राज्य से भ्रष्ट हूँ, इसलिये तुम्हारी शरण में आया हूँ। ‘कमलदल के समान विशाल नेत्रों पाली देवि ! देवेश्वरी ! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। मेरी रक्षा करो। सत्ये ! हमारे लिये वस्तुतः सत्यस्वरूपा बनो- अपनी महिमा को सत्य कर दिखाओ। ‘शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले दुर्गे ! मुझे शरण दो।’ इस प्रकार स्तुति करने पर देवि दुर्गा ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को प्रत्यक्ष दर्शन दिया तथा राजा के पास आकर यह बात कही। देवी बोली- महाबाहु राजा युधिष्ठिर ! मेरी बात सुनो। समर्थ राजन् ! शीघ्र ही तुम्हें संग्राम में विजय प्रापत होगी। मेरे प्रसाद से कौरवसेना को जीतकर उसका संहार करके तुम निष्कण्टक राज्य करोगे और पुनः इस पृथ्वी का सुख भोगोगे। राजन् ! तुम्हें भाइयों सहित पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त होगी। मेरी कृपा से तुम्म्हें सुख और आरोग्य सुलभ होगा। लोक में जो मनुष्य मेरा कीर्तन आर स्तवन करेंगे, वे पाप-रहित होंगे और मैं संतुष्ट होकर उन्हें राज्य, बड़ी आयु, नीरोग शरीर और पुत्र प्रदान करूँगी। राजन् ! जैसे तुमने मेरा स्मरण किया है, इसी प्रकार जो लोग परदेश में रहते समय, नगर में, युद्ध में? शत्रुओं द्वारा संकट प्राप्त होने पर, घने जगलों में, दुर्गम मार्ग में, समुद्र में तथा गहन पर्वत पर भी मेरा स्मरण करेंगे, उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। पाण्डवों ! जो इस उत्तम स्तोत्र को भक्तिभाव से सुनेगा या पढ़ेगा, उसके सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायँगे। मेरे कृपाप्रसाद से विराटनगर में रहते समय तुम सब लोगों को कौरवगण अथवा उस नगर के निवासी मनुष्य नहीं पहचान सकेंगे। शत्रुओं का दमन करने वाले राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा पाण्डवों की रक्षा का भार ले वहीं अनतर्धान हो गयीं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में दुर्गा स्तोत्र विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।



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