नीचे स्क्रीनशॉट में एक विनोद यादव जी धर्म और आध्यात्मिकता को समानार्थी मानकर आध्यात्मिक को ही खारिज कर रहे हैं।
ध्यान रखना चाहिए संसार को धर्म की अवधारणा भी गोपों की दैन है। भले ही इसे व्याख्यित ऋषि मुनियों ने किया हो।
ऋग्वेद में विष्णु भगवान् को गोप रूप में धर्मों का धारण करने वाला बताया है।
विशेष—ऋग्वेद (१/२२/ १८) में धर्म शब्द इस अर्थ में आया है । देखें निम्न ऋचा
देवता: विष्णुः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः
"त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥
धर्मों को धारण करते हुए वह विष्णु तीन पदों से गोप रूप में विचरण करते हैं अदम्भनीय है वह परमात्मा आश्चर्य है !
अदाभ्य: पद की व्युत्पत्ति कोशकार "दम्भ ण्यत् नलोपोपधावृद्धी न० त० । अदाभ्य:= अहिंस्ये के रूप में अहिंसक के अथवा दम्भ हीन के अर्थ में करते हैं।
ऋग्वेद » मण्डल:1» /सूक्त:22»/ ऋचा 18 .
यदि (अद् = बन्धने )धातु से अदाभ्य: क्रिया पद ग्रहण किया जाए तो अर्थ होगा जो धर्म में बाँध कर सबको धारण करता है |
अर्थात् प्राणी प्रवृत्तियों के अनुरूप जो व्यवहार कराता रहता है वह धर्म है।
जिस कारण यह दम्भ:(अदाभ्यः) जिसे मारा न जा सके ...या संसार को धर्म में बाँधने वाला
(गोपाः) और गायों की रक्षा करनेवाला, सब जगत् को (धारयन्) धारण करनेवाला (विष्णुः) है वह संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) तीन प्रकार के (पदानि) चरणों से (विचक्रमे) गमन करता है, और (धर्माणि) धर्मों को धारण कर सकता है ॥१८॥
वेद में धर्म से सम्बन्धित अन्य ऋचाओं भी विचारणीय है।
"आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देव: कृणुते स्वाय धर्मणे। (ऋग्वेद - 4.5.3.3)
''धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेते असुरस्य मायया। (ऋग्वेद - 5.63.7)
हे (विपश्चिताः) विद्वान (मित्रावरुणा) मित्र और वरुणों- आप दोनों (असुरस्य) असुर की (मायया) माया से और (धर्मणा) धर्म से (व्रता) व्रतों की (रक्षेथे) रक्षा करते हैं।5/63/7
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विप्रकृष्टं चेतति वि + प्र + चित--क्विप् पृषो० = पण्डित( अमरःकोश)
यहाँ पर 'धर्म का अर्थ निश्चित नियम (व्यवस्था या सिद्धांत) या आचारनियम है।
तथा (ऋतेन) यथार्थ से (विश्वम्) प्रविष्ट होते हैं (भुवनम्) वा होते हैं जिसमें उस सम्पूर्ण जगत् को (वि, राजथः) विशेष करके प्रकाशित करते हैं और (दिवि) प्रकाश में (सूर्यम्) सूर्य के सदृश (चित्र्यम्) अद्भुत में हुए (रथम्) वाहन को (आ, धत्थः) धारण करते हैं, इससे सत्कार करने के योग्य होते हैं ॥७॥
2. अभयं सत्वसशुद्धिज्ञार्नयोगव्यवस्थिति:। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाधायायस्तप आर्जवम्।।
अहिंसा सत्यमक्रोधत्याग: शांतिर पैशुनम्। दया भूतष्य लोलुप्तवं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
3. तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। (गीता : 16/1, 2, 3)
यानि भय रहित मन की निर्मलता, दृढ़ मानसिकता, स्वार्थरहित दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, देवता और गुरुजनों की पूजा, यश जैसे उत्तम कार्य, वेद शास्त्रों का अभ्यास, भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहना, सरल, व्यक्तित्व, मन, वाणी तथा शरीर से किसी को कष्ट न देना, सच्ची और प्रिय वाणी, किसी भी स्थिति में क्रोध न करना, अभिमान का त्याग, मन पर नियंत्रण, निंदा न करना, सबके प्रति दया, कोमलता, समाज और शास्त्रों के अनुरूप-आचरण, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, शत्रुभाव नहीं रखना - यह सब धर्म सम्मत गुण व्यक्तित्व को देवता बना देते हैं।
धर्म का मर्म और उसकी व्यापकता को स्पष्ट करते हुए गंगापुत्र भीष्म कहते हैं -
4. सर्वत्र विहितो धर्म: स्वग्र्य: सत्यफलं तप:।बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।। (महाभारत शांतिपर्व - 174/2)
परन्तु विचारणीय यह भी है कि धर्म को कितने लोग यथार्थ रूप से जानते हैं ।
सभ्यता के विकास क्रम में धर्म की आवश्यकता तब हुई जब मनुष्य मन को सन्तुष्ट करके भी सन्तुष्ट नहीं कर पाया ! और उसके मन ने अनेक उत्पात मचाऐ ।
वह भौतिक सुखों का भोग करके भी सुखी नहीं हो पाया ,उसे लगा कि संसार रूपी महानदी में इच्छाओं के अथाह जल में स्वाभाविकताओं के वेग से प्रेरित अहंकार की जो लहरें हैं ; उन्हीं लहरों के आगोश में अपराध या पाप के बुलबुले उत्पन्न होकर मनुष्य को अनेक शरीरों की प्राप्ति कराते रहते हैं !
शरीरों की प्राप्ति प्राणी को उसके संस्कारों के अनुरूप ही मिलती है ; ये संस्कार उसके मनोयोग से किए गये कर्मों द्वारा निश्चित होते हैं
जिनके प्रभाव से निजात पाना जीवन-कल्याण के लिए आवश्यक है और यह उपाय धर्म ही है और इसी आवश्कता की पूर्ति के लिए आचरण मूलक व्रत किये गये वही धर्म के प्रारम्भिक प्रारूप थे.
मनुष्य का जीवन स्वभाविकता के प्रवाह में वहता रहता है !
यह स्वाभाविकता प्रवृत्तियों में उसी प्रकार समायोजित है जैसे प्रकाश में चमक अथवा पवित्रता में स्वच्छता समाहित है |
स्वभाव जन्म से उत्पन्न गुण है जो मनुष्य के प्रारब्ध की गन्ध ही है और प्रवृत्तियाँ मनुष्य की योनि या जाति शरीर के अनुरूप ही होती हैं
जाति शरीर का तात्पर्य है जैसे स्त्री जाति, गोजाति महिषी जाति, कुत्ता जाति अर्थात् समान प्रसवात्मिका प्राणी ही सजातीय हैं
प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार मस्तिष्क के सी▪पी▪ यू▪ में (सिश्तम - साॅफ्तवेयर) के समान स्थाई हैं
आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई हैं |
और यही स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है
आदतों को स्वभाव नहीं कहा जा सकता है क्यों कि आदत मनुष्य स्वयं बनाता है जबकि स्वभाव स्वयं ही प्रारब्ध से बनता है !
आदत केवल (एप्लीकेशन साॅफ्लटवेयर) के समान अस्थाई हैं।आदतें बनायी और बिगाड़ी जा सकती हैं परन्तु स्वभाव बनाया नहीं जा सकता है। और यही स्वाभाविकता जो स्थाई अवयव है उसे पापों के प्रति प्रेरित करती है !
मनुष्य के पापों का कारण केवल अहंकार ही है अहंकार मनुष्य को एक एहसाश कराता है कि वह किस बिन्दु पर अपूर्ण या जरूरत मन्द है ।
मन के विकारों की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म का विकास
मनो नियमन की क्रियाओं से हुआ था यम को धर्म का अधिष्ठात्री देवतावत माना गाया है
भारतीय स्मृतियों (धर्म शास्त्रों ) में आहिंसा, सत्यवचन, ब्रह्मचर्य, अकल्कता और अस्तेय ये पाँच यम कहे हैं।
परन्तु पारस्कर गृह्यसूत्र में तथा और भी अन्य ग्रंथों में इनकी संख्या दस कही गई है और नाम इस प्रकार दिए हैं।
— ब्रह्मचर्य, दया, क्षांति, ध्यान, सत्य, अकल्कता, आहिंसा, अस्तेय, माधुर्य और मय।
'यम' योग के आठ अंगों में से पहला अंग है।
चित्त की वृत्तियो या प्रवृत्तियों का निरोध योग है और "यम" योग के प्रमुख चरण में से एक है
धर्म में भी व्यक्ति तप रूपी सदाचरण का पालन स्वाभाविकता का दमन करके के लिए ही करता है ..
स्वाभाविकता को दबाकर ही हम दूसरों के समाने सभ्य दिखाने के लिए आचरण करते हैं जैसे हम कहीं घर से बाहर जाते हैं तब
यम के अन्तर्गत
पांच सामाजिक नैतिकता हैं
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं-
चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
नियम
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता-(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना-(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना-(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना-(ड़) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए
संसार की दरिया को पापर करने के लिए तैरना हीह पड़ेगा तैरना में स्वाभाविकता के वेगों का दमन करके ही तो हम तैर पाऐंगे जिसमें
संसार की दरिया में लोभ के गोतों और मोह के अथाह भँवर देखे
मन को स्वाभाविकता से प्रेरित जानकर साधक ने मन के विरुद्ध भी विद्रोह कर दिया !
उपनिषदों में यही निर्देश है कि मन को बुद्धि या योग से वश में करें 🌻
ये यम ,नियम और संयम ही धर्म के आधार स्तम्भ हैं धर्म वस्तुत: स्वाभविकता के दमन या संयम की ही प्रक्रिया है ;
क्यों कि जिसने स्वाभाविक धाराओं के विपरीत तैरने की कोशिश की है वही पार हुआ है और धर्म स्वाभाविकताओ का दमन का ही नाम है।
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फिर कालान्तरण में पुरोहितों ने स्वभाव को ही धर्म माना परिणाम यह हुआ कि समाज का घोर नैतिक पतन हुआ और धर्म में व्यभिचार पनप गया ।
कृष्ण ने धर्म को एक नदी की धाराओं के विरुद्ध प्लावन या तैरने की क्रिया कहा जो कि सत्य ही है।
अब धर्म का अध्यात्म से क्या सम्बन्ध है।
अध्यात्म एक आत्मा का ही दार्शनिक विश्लेषणात्मक रूप है। यह वस्तुत धर्म से स्वतंत्र और उससे उच्च है। परन्तु स्वतंत्र होने से तात्पर्य यह नही कि धर्म अध्यात्म से पूर्णत: पृथक है। इनकी सम्पूरकता तो सदैव से है।
धर्म मानव जीवन का केवल सदाचरण पक्ष है
जो हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के नियमन और संयमन के लिए किया जाता है। जीवन में स्वाभाविकता की उत्श्रृँखलता( उन्मुक्तता) को रोकने की क्रियाविधि धर्म है। जबकि
अध्यात्म आत्मा परमात्मा का सैद्धान्तिक दार्शनिक विवेचन है।
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यूरोपीय शब्द "Spirituality" आध्यात्मिकता का रूपान्तरण है।
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक आध्यात्म पर सम्स्यक प्रकाश डालता है।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।।7.29।। श्रीमद्भगवद्गीता-
"जरामरणमोक्षाय जरामरणयोः मोक्षार्थं मां परमेश्वरम् आश्रित्य मत्समाहितचित्ताः सन्तः यतन्ति प्रयतन्ते ये ते यत् ब्रह्म परं तत् विदुः कृत्स्नं समस्तम् अध्यात्मं प्रत्यगात्मविषयं वस्तु तत् विदुः कर्म च अखिलं समस्तं विदुः।7/29।
"जो मेरे शरणागत होकर जरा और मरण से मुक्ति पाने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।।
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"आत्मा, परमात्मा, जीव, प्रकृति, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का सैद्धांतिक दार्शनिक ज्ञान अध्यात्म है। कर्मकाण्ड अथवा देवाराधना से आध्यात्म का क्या प्रयोजन ?
यह अलग बात है कि इस प्रयत्न को अब तक कितनी सफलता मिल पाई है।
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आध्यात्मिकता ईश्वरीय खोज और उससे सम्बन्धित ज्ञान की मानसिक साधना है।
जबकि धर्म स्वाभाविक प्रवृत्तियों के नियमन हेतु व्रतों से समन्वित शारीरिक साधना है।
अज्ञात परम-तत्व की खोज, परमात्मा की खोज, परमात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका सम्बन्ध,तथा इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म से पूर्व और उसके पश्चात की जीवन की स्थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं अध्यात्म का विषय हैं।
इन्हीं के आधार पर पुराणों और अन्य शास्त्रों में कुछ जनसाधारण के अनुरूप व्याख्याएं, कथाएं, सूत्र, सिद्धांत लिखे और गढ़े गए हैं ।
आधुनिक भौतिक विज्ञानों के विकास के साथ प्रयोगधर्मी अनुसंधानों, तार्किक चिंतन, गणितीय शोध, खगोल संबंधी विभिन्न खोजों के आनुषंगिक भारत और यूरोप में आत्मा और उसके समष्टि रूप परमात्मा का सैद्धान्तिक प्रस्तुतिकरण कॉस्मोथ्योलॉजी (cosmotheology) के रूप में हुआ है।
परन्तु दुर्भाग्य इस बात का है कि आज जो धर्म के इन रूपों को नहीं जानते और न मानते हैं उन्हीं के द्वारा प्रचारित धर्म के नाम पर आडम्बरों को ही लोग धर्म समझ रहे हैं ।
जो किसी राष्ट्र संस्कृति और समाज के लिए कल्याणकारी तो कभी नहीं है।
प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार रोहि
सम्पर्क सूत्र:-8077160219
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