अनुवाद:-ये मन्त्र हमेशा गुप्त रहते हैं और कहीं से भी प्रकट नहीं होने चाहिए।
यह किसी ऐसे शिष्य को दिया जाना चाहिए जिसकी परीक्षा हुई हो या जो अपना पुत्र हो।। 75-105।।
बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन हनुमान की पूजा से जुड़ा हुआ है
विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।
यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।
अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।
आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः ।।
परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।
हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।
नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः ७६
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"नारद उवाच।
कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।
अनुवाद:-
देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः ।।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम् ।।२ ।।
अनुवाद:-
तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।
"सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये।।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।
सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।
ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।
तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।
अनुवाद:-
हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।
तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।।
तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।
अनुवाद:-
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।
वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशांतियुक् ।।
वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम् ।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ।९ ।
दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।
शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।।
शांतियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम् ।।११ ।।
इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।।
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।।१३ ।।
दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जंघयोः ।।
विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।
सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।
इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।
उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।
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दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् ।।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८ ।।
अनुवाद:-
ध्यान :- इनकी कान्ति( आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।
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लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।।
चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।
अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।
दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।।
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।
धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।
अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम तिल चावल तथा पायस( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें। इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और र दु:ख का तथा पाप का नाश होता है। पूर्वादिक्( पूर्व दिशा) में आठ कृष्ण वर्ण प्रभा शक्ति की पूजा करें । ये लोक पालिका शक्ति है। क्षेमकरी वश्यकरी" श्रीकरी यशस्करी आयुष्करी प्रज्ञाकरी विद्याकरी तथा धर्मकार्याष्टमी तथा अस्त्रों के साथ लोकपाल गण की पूजा करनी चाहिए-।१९-२३।
एवं संसाधितो मंत्रः प्रयोगार्हः प्रजायते ।।
कार्तवीर्यार्जुनस्याथ पूजायंत्रमिहोच्यते ।२४।
स्वबीजानंगध्रुववाक्कर्णिकं दिग्दलं लिखेत् ।।
तारादिवर्मांतदलं शेषवर्णदलांतरम् ।२५।
ऊष्मान्त्यस्वरकिंजल्कं शेषार्णैः परिवेष्टितम् ।।
कोणालंकृतभूतार्णभूगृहं यन्त्रमीशितुः ।२६ ।
अनुवाद:-इस प्रकारइस प्रकार मन्त्र सिद्ध करके प्रयोग के लिए वह साधक कार्य करे अब कार्तवीर्य भगवान् की पूजा का यन्त्र कहा जाता है।२४।
बीज काम ध्रुव वाक् कर्णिका से युक्त दिक्पत्र अंकित करें । स्वर वर्ण कमल का अन्तिम पत्र होगा शेष वर्ण अन्य पत्र पर होंगें। श" ष" स" ह" औ" केसर हैं। वह बाकी वर्णों से घिरा है। कोण से सज्जित चतुर्दश वर्णात्मक भृगु ह यन्त्र ही कार्तवीर्य है। २५-२६।
शुद्धभूमावष्टगन्धैर्लिखित्वा यन्त्रमादरात् ।।
तत्र कुंभं प्रतिष्ठाप्य तत्रावाह्यार्चयेन्नृपम् ।२७।
स्पृष्ट्वा कुंभं जपेन्मन्त्रं सहस्रं विजितेंद्रियः ।।
अभिषिं चेत्तदंभोभिः प्रियं सर्वेष्टसिद्धये ।२८ ।
पुत्रान्यशो रोगनाशमायुः स्वजनरंजनम् ।।
वाक्सिद्धिं सुदृशः कुम्भाभिषिक्तो लभते नरः ।२९।
शत्रूपद्रव आपन्ने ग्रामे वा पुटभेदने ।।
संस्थापंयेदिदं यन्त्रं शत्रुभीतिनिवृत्तये ।३०।
सर्षपारिष्टलशुनकार्पासैर्मार्यते रिपुः ।।
धत्तूरैः स्तभ्यते निम्बैर्द्वेष्यते वश्यतेंऽबुजैः ।३१।
उच्चाटने विभीतस्य समिद्भिः खदिरस्य च ।।
कटुतैलमहिष्याज्यैर्होमद्रव्यांजनं स्मृतम् ।३२।
यवैर्हुते श्रियः प्राप्तिस्तिलैराज्यैरघक्षयः।
तिलतंडुलसिद्धार्थजालैर्वश्यो नृपो भवेत् ।३३।
अपामार्गार्कदूर्वाणां होमो लक्ष्मीप्रदोऽघनुत् ।।
स्त्रीवश्यकृत्प्रियंगूणां मुराणां भूतशांतिदः ।३४।
अश्वत्थोदुंबरप्लक्षवटबिल्वसमुद्भवाः ।।
समिधो लभते हुत्वा पुत्रानायुर्द्धनं सुखम् ।३५।
निर्मोकहेमसिद्धार्थलवणैश्चौरनाशनम् ।।
रोचनागोमयैस्तंभो भूप्राप्तिः शालिभिर्हुतैः ।३६।
होमसंख्या तु सर्वत्र सहस्रादयुतावधि ।।
प्रकल्पनीया मन्त्रज्ञैः कार्य्यगौरवलाघवात् ।३७।
कार्तवीर्य्यस्य मन्त्राणामुच्यते लक्षणं बुधाः ।।
कार्तवीर्यार्जुनं ङेंतं सर्वमंत्रेषु योजयेत् ।३८ ।
स्वबीजाद्यो दशार्णोऽसौ अन्ये नवशिवाक्षराः ।।
आद्यबीजद्वयेनासौ द्वितीयो मन्त्र ईरितः ।३९ ।।
स्वकामाभ्यां तृतीयोऽसौ स्वभ्रूभ्यां तु चतुर्थकः ।।
स्वपाशाभ्यां पञ्चमोऽसौ षष्टः स्वेन च मायया ।४०।
स्वांकुशाभ्यां सप्तमः स्यात्स्वरमाभ्यामथाष्टमः ।।
स्ववाग्भवाभ्यां नवमो वर्मास्त्राभ्यामथांतिमः ।४१।
द्वितीयादिनवांतेषु बीजयोः स्याद्व्यतिक्रमः ।।
मंत्रे तु दशमे वर्णा नववर्मास्त्रमध्यगाः ।४२।
एतेषु मंत्रवर्येषु स्वानुकूलं मनुं भजेत् ।।
एषामाद्ये विराट्छदोऽन्येषु त्रिष्टुबुदाहृतम् ।७६-४३।
दश मंत्रा इमे प्रोक्ता यदा स्युः प्रणवादिकाः ।।
तदादिमः शिवार्णः स्यादन्ये तु द्वादशाक्षराः ।४४।
त्रिष्टुपूछन्दस्तथाद्ये स्यादन्येषु जगती मता ।।
एवं विंशतिमंत्राणां यजनं पूर्ववन्मतम ।४५।
_________
दीर्घाढ्यमूलबीजेन कुर्यादेषां षडंगकम् ।।
तारो हृत्कार्तवीर्यार्जुनाय वर्मास्त्रठद्वयम् ।४६।
चतुर्दशार्णो मंत्रोऽयमस्येज्या पूर्ववन्मता।
भूनेत्रसमनेत्राक्षिवर्णेरस्यांगपंचकम् ।४७।
तारो हृद्भगवान् ङेंतः कार्तवीर्यार्जुनस्तथा ।।
वर्मास्त्राग्निप्रियामंत्रः प्रोक्तो ह्यष्टादशार्णकः ।४८।
त्रिवेदसप्तयुग्माक्षिवर्णैः पंचांगकं मनोः ।
नमो भगवते श्रीति कार्तवीर्यार्जुनाय च ।४९ ।
सर्वदुष्टांतकायेति तपोबलपराक्रमः ।।
परिपालितसप्तांते द्वीपाय सर्वरापदम् ।५० ।
जन्यचूडामणांते ये महाशक्तिमते ततः ।।
सहस्रदहनप्रांते वर्मास्त्रांतो महामनुः ।५१।
त्रिषष्टिवर्णवान्प्रोक्तः स्मरमात्सर्वविघ्नहृत् ।।
राजन्यक्रवर्ती च वीरः शूरस्तृतीयकः ।५२ ।
माहिष्मतीपतिः पश्चाञ्चतुर्थः समुदीरितः ।।
रेवाम्बुपरितृप्तश्च काणो हस्तप्रबाधितः ।५३।
दशास्येति च षड्भिः स्यात्पदैर्ङेतैः षडंगकम् ।।
सिंच्यमानं युवतिभिः क्रीडंतं नर्मदाजले ।५४।
हस्तैर्जलौधं रुंधंतं ध्यायेन्मत्तं नृपोत्तमम् ।।
एवं ध्यात्वायुतं मंत्रं पजेदन्यत्तु पूर्ववत् ।५५।।
अनुवाद:-ये दीर्घमन्त्रात्मक है। इनका षडंग न्यास मूल बीज से करें ऊँ नम: कार्तवीर्यायार्जुनाय हुम् फट्। यह 14 अक्षरों का मन्त्र है तो भी गिनने में 13 ही होते हैं इसकी उपासना पूर्ववत् करें 9 अक्षर से इसका पंचांग न्यास करें ।
"नमो भगवते श्रीकार्तवीरायार्जुनाय सर्वदुष्टान्तक तपोबलपराक्रम परिपालित सप्तद्वीपाय सर्वराजन्य चूड़ामणि महाशक्तिमते सहस्रदहन हुं फट्। यह 63 अक्षरात्मक मन्त्र है। इसके स्मरण से सभी लौकिक विघ्न नष्ट हो जाते हैं। अब राजन्य" चक्रवर्ती" शूर" माहिष्मतिपति" रेवाम्बुपरितृप्त" काणों हस्तप्राबाधित इन 6 मन्त्रपद द्वारा षडंगन्यासोपरान्त ध्यान करें ध्यान का विषय है :- नर्मदा के जल में स्नान रत कार्तवीर्य पत्नीगणों से जलक्रीड़ा कर रहे हैं तथा उन पर जल उत्षेचन कर रहे हैं। वे अपने सहस्रबाहुओं से नर्मदा का जल प्रवाह रोक रहे हैं। इस ध्यान के उपरान्त इन मन्त्र पदों का दस हजार बार जप करें पहले एक लाख जप करें शेष कार्य पूजादि यथापूर्व होगा ।।46-55।।
पूर्वं तु प्रजपेल्लक्षं पूजायोगश्च पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान् ।५६ ।
तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च संवदेत् ।।
लभ्यते मंत्रवर्योऽयं द्वात्रिंशद्वर्णसंयुतः ।५७।
पादैः सर्वेण पंचांगं ध्यानपूजादि पूर्ववत् ।।
कार्तवीर्याय शब्दांते विद्महे पदमुञ्चरेत् ।५८।
महावीर्याय वर्णांते धीमहीति पदं वदेत् ।
तन्नोऽर्जुनः प्रवर्णांते चोदयात्पदमीरयेत् ।५९ ।
गायत्र्येषार्जुन स्योक्ता प्रयोगादौ जपेत्तु ताम् ।।
अनुष्टुभं मनुं रात्रौ जपतां चौरसंचयाः ।६०।
पलायन्ते गृहाद्दूरं तर्पणाद्ध्रवनादपि ।।
अथो दीपविधिं वक्ष्ये कार्तवीर्यप्रियंकरम् ।६१ ।
वैशाखे श्रावणे मार्गे कार्तिकाश्विनपौषतः ।।
माघफाल्गुनयोर्मासोर्दीपारंभं समाचरेत् ।६२ ।।
तिथौ रिक्ताविहीनायां वारे शनिकुजौ विना ।।
हस्तोत्तराश्विरौद्रेयपुष्यवैष्णववायुभे ।६३ ।।
द्विदैवते च रोहिण्यां दीपारंभो हितावहः ।।
चरमे च व्यतीपाते धृतौ वृद्धौ सुकर्मणि ।६४ ।।
प्रीतौ हर्षं च सौभाग्ये शोभनायुष्मतोरपि ।।
करणे विष्टिरहिते ग्रहणेऽर्द्धोदयादिषु ।६५ ।।
योगेषु रात्रौ पूर्वाह्णे दीपारंभः कृतः शुभः ।।
कार्तिके शुक्लसप्तम्यां निशीथेऽतीव शोभनः ।६६।
यदि तत्र रवेर्वारः श्रवणं भं च दुर्लभम् ।।
अत्यावश्यककार्येषु मासादीनां न शोधनम् ।६७।
आद्ये ह्युपोष्य नियतो ब्रह्मचारी सपीतकैः ।।
प्रातः स्नात्वा शुद्धभूमौ लिप्तायां गोमयोदकैः ।६८।
प्राणानायम्य संकल्प्य न्यासान्पूर्वोदितांश्चरेत् ।।
षट्कोणं रचयेद्भूमौ रक्तचंदनतंडुलैः ।६९ ।
अतः स्मरं समालिख्य षट्कोणेषु समालिखेत् ।।
नवार्णैर्वेष्टयेत्तञ्च त्रिकोणं तद्बहिः पुनः ।७० ।
एवं विलिखिते यन्त्रे निदध्याद्दीपभाजनम् ।।
स्वर्णजं रजतोत्थं वा ताम्रजं तदभावतः ।७१ ।।
कांस्यपात्रं मृण्मयं च कनिष्ठं लोहजं मृतौ ।।
शांतये मुद्गचूर्णोत्थं संधौ गोधूमचूर्णजम् ।७२ ।।
आज्ये पलसहस्रे तु पात्रं शतपलं स्मृतम् ।।
आज्येऽयुतपले पात्रं पलपंचशता स्मृतम् ।७३ ।।
पंचसप्ततिसंख्ये तु पात्रं षष्टिपलं स्मृतम् ।।
त्रिसाहस्री घृतपले शर्करापलभाजनम् ।७४ ।।
द्विसाहख्त्र्यां द्विशतमितं च भाजनमिष्यते ।।
शतेऽक्षिचरसंश्यातमेवमन्यत्र कल्पयेत् ।७५ ।।
नित्यदीपे वह्निपलं पात्रमाज्यं पलं स्मृतम् ।।
एवं पात्रं प्रतिष्ठाप्य वर्तीः सूत्रोत्थिताः क्षिपेत् ।७६ ।।
एका तिस्रोऽथवा पंचसप्ताद्या विषमा अपि।
तिथिमानादासहस्रं तंतुसंख्या विनिर्मिता ।७७।
गोघृतं प्रक्षिपेत्तत्र शुद्धवस्त्रविशोधितम् ।।
सहस्रपलसंख्यादिदशांशं कार्यगौरवात् ।७८ ।।
सुवर्णादिकृतां रम्यां शलाकां षोडशांगुलाम् ।।
तदर्द्धां वा तदर्द्धां वा सूक्ष्माग्रां स्थूलमूलिकाम् ७९ ।।
विमुंचेद्दक्षिणे पात्रमध्ये चाग्रे कृताग्रिकाम् ।।
पात्रदक्षिणदिग्देशे मुक्त्वां गुलचतुष्टयम् ।८० ।।
अधोग्रां दक्षिणाधारां निखनेच्छुरिकां शुभाम् ।।
दीपं प्रज्वालयेत्तत्र गणेशस्मृतिपूर्वकम् ।८१।
दीपात्पूर्वत्र दिग्भागे सर्वतोभद्रमंडले ।।
तंडुलाष्टदले वापि विधिवत्स्थापयेद्धूटम् ।८२।
तत्रावाह्य नृपाधीशं पूजयेत्पूर्ववत्सुधीः ।।
जलाक्षतान्समादाय दीपं संकल्पयेत्ततः ।८३।
दीपसंकल्पमंत्रोऽयं कथ्यते द्वीषुभूमितः ।।
प्रणवः पाशमाये च शिखा कार्ताक्षराणि च ।८४।
वीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्र च।
बाहवे इति वर्णांते सहस्रपदमुच्चरेत् ।८५।
क्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय च ।।
आत्रेयायानुसूयांते गर्भरत्नाय तत्परम् ।८६ ।
नमो ग्रीवामकर्णेंदुस्थितौ पाश इमं ततः ।।
दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष पदं पुनः ।८७ ।।
दुष्टान्नाशययुग्मं स्यात्तथा पातय घातय ।।
शत्रून् जहिद्वयं माया तारः स्वं बीजमात्मभूः ।८८ ।
वह्नीप्रिया अनेनाथ दीपवर्येण पश्चिमा ।।
भिमुखेनामुकं रक्ष अमुकांते वरप्रद ।८९ ।
मायाकाशद्वयं वामनेत्रचंद्रयुतं शिवा ।।
वेदादिकामचामुंडाः स्वाहा तु पूसबिंदुकौ ।९०।।
प्रणवोऽग्निप्रिया मंत्रो नेत्रबाणाधराक्षरः ।।
दत्तात्रेयो मुनिर्मालामंत्रस्य परिकीर्तितः ।९१।
छन्दोऽमितं कार्तवीर्युर्जुनो देवोऽखिलाप्तिकृत् ।।
चामुण्डया षडंगानि चरेत्षड्दीर्घयुक्तया ।९२।
ध्यात्वा देवं ततो मंत्रं पठित्वांते क्षिपेज्जजलम् ।।
गोविंदाढ्यो हली सेंदुश्चामुंडाबीजमीरितम् ९३।
ततो नवाक्षरं मंत्रं सहस्रं तत्पुरो जपेत् ।।
तारोऽनंतो बिंदुयुक्तो मायास्वं वामनेत्रयुक् ।९४।
कूर्माग्नी शांतिबिंद्वाढ्यौ वह्नि जायांकुशं ध्रुवम् ।।
ऋषिः पूर्वोदितोनुष्टुप्छंदोऽन्यत्पूर्ववत्पुनः ।९५।
सहस्रं मंत्रराजं च जपित्वा कवचं पठेत् ।।
एवं दीपप्रदानस्य कर्ताप्नोत्यखिलेऽप्सितम् ।९६ ।
दीपप्रबोधकाले तु वर्जयेदशुभां गिरम् ।।
विप्रस्य दर्शनं तत्र शुभदं परिकीर्तितम् ।९७ ।
शूद्राणां प्रध्यमं प्रोक्तं म्लेच्छस्य वधबन्धनम् ।।
आख्वोत्वोर्दर्शनं दुष्टं गवाश्वस्य सुखावहम् ।९८।
दीपज्वाला समा सिद्ध्यै वक्रा निशविधायिनी ।।
शब्दा भयदा कर्तुरुज्ज्वला सुखदा मता ।९९ ।
कृष्णा शत्रुभयोत्पत्त्ये वमंती पशुनाशिनी ।।
कृते दीपे यदा पात्रं भग्नं दृश्यते दैवतः ।१००।
पक्षादर्वाक्तदा गच्छेद्यजमानो यमालयम् ।
वर्त्यतरं यदा कुर्यात्कार्यं सिद्ध्येद्विलंबतः ।१०१ ।।
नेत्रहीनो भवेत्कर्ता तस्मिन्दीपांतरे कृते ।।
अशुचिस्पर्शने व्याधिर्दीपनाशे तु चौरभीः। १०२ ।
श्वमार्जाराखुसंस्पर्शे भवेद्भूपतितो भयम् ।।
पात्रारंभे वसुपलैः कृतो दीपोऽखिलेष्टदः ।१०३।
तस्माद्दीपः प्रयत्नेन रक्षणीयोंऽतरायतः ।।
आसमाप्तेः प्रकुर्वीत ब्रह्मचर्यं च भूशयः ।१०४।
__________________
स्त्रीशूद्रपतितादीनां संभाषामपि वर्जयेत् ।।
जपेत्सहस्रं प्रत्येकं मंत्रराजं नवाक्षरम् ।१०५।
स्तोत्रपाठं प्रतिदिनं निशीथिन्यां विशेषतः ।।
एकपादेन दीपाग्रे स्थित्वा यो मंत्रनायकम् ।१०६ ।
सहस्रं प्रजपेद्वात्रौ सोऽभीष्टं क्षिप्रमाप्नुयात् ।।
समाप्य शोभनदिने संभोज्य द्विजसत्तमान् ।१०७।
कुंभोदकेन कर्तारमभिषिंचन्मनुं जपेत्।
कर्ता तु दक्षिणां दद्यात्पुष्कलां तोषहेतवे ।१०८।
गुरौ तुष्टे ददातीष्टं कृतवीर्यसुतो नृपः ।
गुर्वाज्ञया स्वयं कुर्याद्यदि वा कारयेद्गुरुः ।१०९।
दत्त्वा धनादिकं तस्मै दीपदानाय नारद ।।
गुर्वाज्ञामन्तरा कुर्याद्यो दीपं स्वेष्टसिद्धये ।११०।
सिद्धिर्न जायते तस्य हानिरेव पदे पदे ।
उत्तमं गोघृतं प्रोक्तं मध्यमं महषीभवम् ।१११ ।
तिलतैलं तु तादृक् स्यात्कनीयोऽजादिजं घृतम्
आस्यरोगे सुगंधेन दद्यात्तैलेन दीपकम् ।११२।
______________________----------
सिद्ध्वार्थसंभवेनाथ द्विषतां नाशनाय च ।।
सहस्रेण पलैर्दीपे विहिते च न दृश्यते ।११३ ।।
कार्यसिद्धस्तदा कुर्यात्र्रिवारं दीपजं विधिम्।
तदा सुदुर्लभमपि कार्य्यं सिद्ध्व्येन्न संशयः ।११४ ।।
दीपप्रियः कार्तवीर्यो मार्तंडो नतिवल्लभः ।।
स्तुतिप्रोयो महाविष्णुर्गणेश स्तपर्णप्रियः ।११५।
दुर्गार्चनप्रिया नूनमभिषेकप्रियः शिवः ।।
तस्मात्तेषां प्रतोषाय विदध्यात्तत्तदादरात् ।११६।
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इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे कार्तवीर्यमाहात्म्यमन्त्रदीपकथनं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः । ७६।
अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ करें।।१०६। सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय :-
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