मंगलवार, 16 मई 2023

भाग्य के लेखे -

गुरुर्मातृसमो नास्ति नास्ति भार्यासमःसखा।
नीचावमाननाद्दुःखाद्दुःखं नास्ति यथा परम्।४०। 
(विष्णु धर्मोत्तर पुराण  अध्याय 305 -)

अनुवाद:-
माता को समान गुरु नहीं है और पत्नी को समान सखा नहीं । नीच व्यक्ति द्वारा किया गया अपमान इस दुनियाँ का सबसे बड़ा दु:ख है।

 जीवन की अनन्त विस्तारमयी श्रँखलाओं में से एक कड़ी है वर्तमान जीवन और इस वर्तमान जीवन में घटित पहलू प्रारब्ध द्वारा निर्धारित हो गये है। इस संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन में सभी घटित  घटनाओं और प्राप्त  वस्तुओं का अस्तित्व उद्देश्य पूर्ण और सार्थक ही है। वह नियत है ,निश्चित है। उसके

भले हीं उस समय  उनकी उपयोगिता हमारे जीवन के अनुकूल हो अथवा  न हो । क्योंकि उसकी घटित वास्तविकता का स्थूल रूप से हम्हें कभी बोध ही नहीं होता है।

और लोगों को कभी भी भविष्य में स्वयं के द्वारा करने वाले कर्मों के लिए दाबा - और भूल से किए गये गलत कर्मों  के लिए भी पछतावा नहीं करना चाहिए।  क्यों कि भूल से जो कर्म हुआ वह काल से प्रेरित प्रारब्ध का विधान था । 
बुद्धिमानी इसी में है कि अहंकार से रहित होकर उस परम सत्ता से मार्गदशन का निरन्तर आग्र क्या जाए।

हाँ भूत काल की घटनाओं से उनके सकारात्मक या नकारात्मक रूप में घटित  परिणामों से मनुष्य को  शिक्षा लेकर भविष्य की  सुधारात्मक परियोजना का अवश्य विचार करना चाहिए। वहाँ  कर्म का दावा तो कभी नहीं करना चाहिए-

यद्यपि कर्म तो वर्तमान के ही धरातल पर सम्पादित होता है। अत: वर्तमान को ही बहुत सजग तरीके जीना- जीवन है।

भविष्य की घटित घटनाओं का ज्ञान  स्थूल दृष्टि से तो कोई नहीं कर सकता है।

परन्तु रात्रि के अन्तिम पहर में देखे हुए स्वप्न भी जीवन में सन्निकट भविष्य में होने वाली कुछ घटनाओं का प्रकाशन अवश्य करते हैं। वास्तव में यह मन में स्फुटित प्रारब्ध का प्रकाशन है।

ये भविष्य की घटनाएँ कभी प्रतिकूल प्रतीत होते हुए भी अनुकूल स्थितियों का निर्माण करती हैं ।

और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये  घटनाएँ  प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण भी कर देती हैं। साधारण लोग इनके गूढ सत्य को नहीं जानते हैं!  ये सब तो प्रारब्ध के विधान ही हैं। 
कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यही तो प्रारब्ध का विधान है।

दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के  निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से- एक जीवन के  निर्देशन के लिए विभाजित एक रूप है।

अर्थात्  ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम प्रारब्ध है । स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही व्याप्त है। 
यही प्रारब्ध भाग्य संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।

परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब  वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है। यही तपस्या अथवा साधना नवीन सृजन की भी क्रिया या शक्ति है। 
यह क्रियमाण कर्म है - जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।

यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं सबका जीवन अपनी एक निजी प्रयोगशाला है। -

दुनियाँ के सभी प्राणियों की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित‌ प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।

परिस्थितियों के वस्त्रों में है डोर या धागा  सबका प्रारब्ध का ही लगा है   इसी वस्त्र से  जीवन आवृत  है।
 
इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है। निष्काम भक्त इस संसार में सबसे बड़ा साधक है।

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